Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरुभ्यो १ आगम- सागर- कोष: [मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज ] (प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष- रचयिता मुनिश्री दीपरत्नसागरजी महाराज [M.com._M.Ed._Ph.D._श्रुतमहर्षि] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] नमो नमो निम्मलदसणस्स - पूज्य आनन्द-क्षमा ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरूभ्यो नमः आगम-सागर-कोष:-१ [मूल शब्दसंकलनकर्ता:- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी ..पूज्यपाद आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज.. प्राकृत-संस्कृत-शब्द एव तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष-रचयिता मुनिश्री दीपरत्नसागरजी महाराज IM.Com. M.Ed.,Ph.D. श्रुतमहर्षि 12/11/2018 सोमवार, २०७५ कारतक सुद ५ Type Setting: - आशुतोष प्रिन्टर्स, जेतपुर Mobile: 9925146223 | It's a Net publication of "jainelibrary.org? [North America] मुनि दीपरत्नसागरजी रचित “आगम-सागर-कोषः” [१] [2] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] "आगम-सागर-कोष:” विषयक किञ्चित् स्पष्टीकरण पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेबने अपने युगमे आगमो के बहोत से शब्दो एवं उन की व्याखाओ का चयन किया था, किन्तु ईसे शब्दकोष के रुपमे संकलन और मुद्रण पूज्य आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजी आदिने करवाया | ईस कोष का नाम 'अल्प-परिचित-सैद्धान्ति-शब्दकोष:' रक्खा. परन्तु इसमे शब्दार्थ भी है, बहोत स्थान पर शब्दो की आगमिक व्याख्याए भी है और शब्दो के बीच अनेक स्थान पर खास नाम भी है | पूज्य गच्छाधिपति आचार्य सूर्योदयसागरसूरिजी कि सूचना एवं उनसे हुए विचार-विमर्श अनुसार हमने ईस 'कोष' के अध्ययनमे देखा की -कई जगह पर सिर्फ शब्द है, कई जगह शब्द और संदर्भ है मगर अर्थ नहि है, कई जगह पर संदर्भ के नाम है मगर पृष्ठांक नहि है तो कहीं कहीं शब्दो के अ-कारादि क्रममे गलति दिखी है | ऐसी अनेक मर्यादाओ का उल्लेख स्वयम् आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजीने 'अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष' भाग -१ मे किया है | हमने ईस कोष की रचना करते वक्त सिर्फ पूज्यपाद आनन्दसागर सूरीश्वरजी महाराज दवारा संचित शब्दो एवं व्याख्याओ को ध्यानमे ले कर ईस 'कोष' की रचना की है | रचना करते वक्त विशेषावश्यकभाष्य, उपदेशमाला, तत्त्वार्थसूत्र और पउमचरियं के शब्द निकाल कर सिर्फ आगमो के शब्दो को हि स्थान दिया है । अनेक स्थानो पर प्रत्यय या विभक्ति को हटा कर 'शब्दकोष' के नियमानुसार मूल शब्द रख दिये है, परिणाम स्वरुप जहा जहा समान शब्द प्राप्त हए, उन शब्दो को एकसाथ रख कर उन के संदर्भ वहि नीचे जोड दिये है, कहीं कहीं एक हि शब्द की व्याख्या से पता चलता है की ये शब्द भले एक है मगर 'अर्थ' कि द्रष्टि से वे शब्द भिन्न भिन्न है, तो उन शब्दो को अलग अलग भी कर दिया है | जहा प्राकृत और संस्कृत दोनो शब्द है, वहा प्राकृत शब्द को पीछे से आगे ले कर बोल्ड टाईपमे रक्खे है | ऐसे अनेक परिवर्तन कर के कोष का उपोगिता मूल्य बढाकर हमने ईस कोष की रचना की है | हमने ईस 'कोष' का नाम "आगम-सागर-कोष:” पसंद किया है | यहा सिर्फ़ आगमिक शब्दो को हि स्थान दिया है इसिलिए 'आगम' शब्द पसंद किया, सागरजी महाराज दवारा शब्द संचित हुए इसिलिए 'सागर' शब्द लिया, ईस कोषमे शब्द, खासनाम और व्याखयाए तिनो का समावेश हुआ है इसिलिए शब्दकोष नाम कि जगह सिर्फ कोष [Dictionary] शब्द रक्खा है | ईस 'कोष' को हमने पांच भागोमे प्रगट किया है, करीब 1200 पृष्ठोमें रहे हए ईस ग्रन्थमे 41,000से ज्यादा शब्दो [+नामो+धात्]का समावेश हुआ है । अनेक शब्दो की व्याख्याए भी है और इन शब्दो या व्याख्याओ के आगमसंदर्भ भी दिये है | इस के साथ हम एक मर्यादा का भी स्वीकार कर लेते है- इस कोष के मूल संपादनमे बहोत से शब्द और अनेक व्याख्याए समाविष्ट नहीं हुई है, इसिलिए यहा पर भी अनेक शब्द और व्याख्याए छुट गए है | शब्दो और खास-नामो के लिए आप हमारा [१] आगम सद्दकोसो भाग १ से ४ और [२] आगम नाम एवं कहाकोसो देख शकते है, और व्याख्याओ के लिए हम भविष्यमें 'जैन आगम कोष:' बनाने का आयोजन कर रहे है | परमात्मा की कृपा हुइ तो मेरे पांच-सो नब्बे [590] प्रकाशनो की तरह 'जैन-आगम-कोष:' भी अवश्य आप के कर-कमलोमें समर्पित हो जायेगा | ...मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [3] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] संक्षेप ०४ चतु. आतु महाप. भक्त. तन्दु संस्ता . गच्छा . गणि ०६ देवे. ३३ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) संक्षेप-सूचि, क्रम आगम का नाम संक्षेप क्रम आगम का नाम ०१ । आचाराङ्ग आचा. ।। २४ | चत:शरणप्रकीर्णक सूत्रकृताङ्ग सूत्र. | २५ | आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णक ०३ स्थानाङ्ग स्था . २६ | महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक समवायाङ्ग सम. २७ भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक ०५ | भगवती(अङ्ग) भग. | २८ तन्दुलवैचारिकप्रकीर्णक ज्ञाताधर्मकथाङग ज्ञाता. | २९ । संस्तारकप्रकीर्णक ०७ उपासकदशाङ्ग उपा. | गच्छाचारप्रकीर्णक अन्तकृद्दशाङ्ग अन्त. ३१ | गणिविदयाप्रकीर्णक अनत्तरोपपातिकदशाङ्ग अनुत्त 1 ३२ | देवेन्द्रस्तवप्रकीर्णक १० | प्रश्नव्याकरणाङ्ग प्रश्न | मरणसमाधिप्रकीर्णक ११ विपाकश्रुताङ्ग विपा. | ३४ | निशीथछेदसूत्र १२ | औपपातिकोपाङ्ग औप. | ३५ बृहत्कल्पछेदसूत्र १३ | राजप्रश्नीयोपाग राज. | ३६ | व्यवहारछेदसूत्र १४ जीवाजीवाभिगमोपाङग जीवा. | ३७ | दशाश्रुतस्कन्धछेदसूत्र १५ | प्रज्ञापनोपाङ्ग प्रज्ञा ३८ जीतकल्पछेदसत्र १६ | सूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्ग सूर्यः ।। ३९ । महानिशीथछेदसूत्र १७ | चन्द्रप्रज्ञप्त्यपाङ्ग चन्द्र० ।। ४० आवश्यकमूलसूत्र १८ | | जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्ग जम्बू० ।। ४१ ओघनियुक्तिमूलसूत्र | निरयावलियकोपाङ्ग निर. | ४१ पिण्डनियुक्तिमूलसूत्र कल्पवतन्सिकोपाङ्ग कल्प. | ४२ | दशवैकालिकमूलसूत्र पुष्पिकोपाङ्ग पुष्पि . | ४३ | उत्तराध्ययनमूलसूत्र २२ | पुष्पचूलिकोपाङ्ग पुष्प० ।। ४४ | नन्दीचूलिकासूत्र वृष्णिदशोपाङ्ग वृष्णि . | ४५ अनुयोगद्वारचूलिकासूत्र देशीय शब्द चूर्णि मरण. निशी बृह. व्यव० दशाश्रुः १९ कि जीत. महानि आव. ओघ. पिण्ड दशवै. उत्त नन्दी अनुओ० २० दे सूचना- [१] उपरोक्त ४५ आगमो के जो शब्द या व्याख्या संदर्भ ईस कोषमे शामिल किये है, उसमें ६ छेदसूत्रो और चन्द्रप्रज्ञप्ति के अलावा बाकी सभी आगमो श्री सागरानन्दरिजी महाराज संपादित प्रतो से है, चन्द्रप्रज्ञप्ति के संदर्भ सूर्यप्रज्ञप्ति अनुसार है, सिर्फ ६ सूत्र के संदर्भ हस्तपोथी से लिए है [२] यहां आगमो के जो संदर्भ दिये है, वे उन आगमो की प्रत या पोथी के पृष्ठ-अंक है | __ [३] हमारा प्रकाशन “सवृत्तिक आगम सुत्ताणि” भाग १ से ४० मे ये सभी आगम मुद्रित है। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [4] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ५८ नमो नमो निम्मलदंसणस्स अंकुशं, येनरजोहरणमङ्कुशवत्करद्वयेन गृहीत्वा बालब्रह्मचारी श्री नेमिनाथायनमः वन्दते तत्। कृत-कर्माणिषष्ठदोषः। आव० १४३। पूज्यश्री आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्योनमः | अंकुस-अंकुशः, सृणिः। प्रश्न० २२ - महाशुक्रे विमानविशेषः। सम० ३२| अकारः अंकुसयं- अंकुशकम्, तरुपल्लवग्रहणार्थमंकुशाकृतिः। अंक-अड्कः- लाञ्छनम् - जीवा० पृष्ठ २७०। अकः, भग० ११३ उत्सङ्गः। ओघ०१४३। रत्नविशेषः। जम्बू. २३ अंकुसये- अंकुशका, देवार्चनार्थवृक्षपल्लवाकर्षणार्थम् । अंककरेलुग-अङ्ककरेलुगं-शाकविशेषः। आचा० ३४८। औप० ९५ अंकण-अकनं, तप्तायःशलाकादिना चिह्नकरणम्। | अंकुसो- अंकुशः। अंकुशाकारो प्रश्न. २२। लाञ्छनम् श्वशृगालचरणादिभिः। आव. मुक्तादामावलम्बनाश्रयभूतः। जीवा० २१० अंके- अंककाण्डं खरकाण्डे चतुर्दशं काण्डम् । जीवा० ८९। अंकधाती-अंधात, धात्रीदोषे। निशी० ९३ आ । अंकः। प्रज्ञा० २७। उत्सङ्गे। जम्बू० ३८ मणिभेदः उत्त. अंकपतिता-अंकपतिता दासी। उत्त. २६२ ६८९। श्वेतरत्नविशेषः। प्रज्ञा० ३६१ रत्नविशेषः। अंकमुहसंठिया-अङ्कमुखसंस्थिता, जीवा० २३ पद्मासनोपविष्टोत्संगमुखवत् अर्धवलयाकारः। सूर्य अंकेल्लण-अंकेल्लण, तर्जनकविशेषः।जम्बू० २३५। ७१। अंको-अङ्कः, पृथिवीभेदः। आचा० २९। रत्नविशेषः। अंकलिवि-अंकलिपि लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। भग० ४७९। एकोरुमैथुनं। निशी० २५५ आ । रुढिगम्यः , अंकवडेंसए-अकावतंसक-ईशानकल्पपूर्वदिगवतंसकः। शंखजातिविशेषः। प्रश्न. ३७। रत्नविशेषः। जीवा० १८०, भग० २०३। १९११ पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूपः आसनबन्धः। अंकविज्जा-अंकविद्या गणितम्। जम्बू० १३६। सूर्य०७१। जम्बू०४५४ अंकहरो-अकधरः, चन्द्रमाः।जीवा० २७० अंकोल- गुच्छविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ अंकावइ-अकावती, वक्षस्कारपर्वतः। जम्बू. ३५७ अंकोल्ल-वृक्षविशेषः। भग० ८०३। अंकावई-अकावती, रम्यविजये राजधानी नाम। जम्ब० अंकोल्लाणं- गुल्मविशेषः। भग०८०३। ३५२| शीतोदादक्षिणकूले वक्षस्कारः। स्था०८० अंग- अङ्गम्, अङ्गविषयम् । आव० ६६०| दक्षिणवर्ती वक्षस्कारः । स्था० ३२६। कारणमवयवः। ठाणा० ०३। कारणम् । प्रश्न० १०३। अंकावईओ-अकावती महाविदेहे विजयराजधानी। शरीरावयवप्रमाणस्प-न्दितादिविकारफलोद्भावकं स्था०८० शास्त्रम् । सम० ४९। समग्रं वपः। जीवा० २७०। कारणम् अंकावडिंसए-अकावतंसकः, | जम्बू. ९९। अज्यते व्यक्तीक्रि-यतेऽस्मिन्नित्यगम् ईशानस्यपूर्वस्यामवतंसकः। जीवा० ३९११ | आचा. ५ भेदः कारणं वा। दशवै. ९०| शिरःप्रभति। अंकितो-अकितः, चिह्नितः। आव०८२२॥ दशवै० २३७। आंग-अक्षिबाहुस्फुरणादिकम् । सूत्र० ३१८१ अंकिल्ल-अकिल्ल नर्तकः। औप० ३। शिरःस्फुरणादि । स्था० ४२७। अंकुडिओ- अंकुटिकः, नागदत्तकः,। जम्बू. ५०। जीवा० अंग-अङ्गानि। शिक्षादीनि षडङ्गानि। भग. ११४ २०५ अंगओ-अङ्गकः, भद्रप्रकृतिकः। आव० ७०४। अंकुर-अंङ्कुरः, प्रवालः। जम्बू० ३०| | अंगचुलिया-अंगचूलिका, अंगानामपासकदशाप्रभृतीनां अंकुर-अंकुरः, शाल्यादिबीजसूचिः। भग० ३०६। जम्बू० पंचानां चूलिका-निरयावलिका। व्यव० ४५४ आ। १६८१ अंगणं-मंडवथाणं। निशी. १९२ अ। अजिरम्। प्रश्न अंकुल्ल-अकोठः वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१| १३८ अङ्गणं-षट्स्थंडिलभमिस्थानम् । ओघ. २०० अंकुसं-अकुश महाशुक्रेविमानविशेषः। सम० ३२। । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-सागर-कोषः (भाग:-१) [Type text] अंगणेत्रिका - हस्तमालक आभरणविशेषः । औप० ५५| अंगदं- बाहुशीर्षाभरणविशेषः। जीवा॰ १६२। केयूरम्। जम्बू० १०६ । अंगदे - केयूरे। स्था० ४२१ | अङ्गनिका । उत्त० ७८ अंगपडिहारिणि - अन्तः पुरप्रतिहारिणी । आव० ७०० | अंगपविट्ठे- गणधरकृतं मातृकापदत्रयप्रभवं वा ध्रुवश्रुतं वा । स्था॰ ४९। अङ्गप्रविष्टम् । स्था० २०० | अंगबाहिरे– अङ्गबाह्यम्, स्थविरकृतं मातृकापदत्रयव्यतिरिक्त-व्याकरणनिबद्धमध्रुवश्रुतं वा उत्तराध्ययनादि । स्था० ५१| अंगमंगं- अङ्गमङ्गम्, गात्रम् | औप० ११| अंगमंगो - अङ्गमङ्गम्, अङ्गप्रत्यङ्गम् । जीवा० २७७ | अंगमंदिरंमि- चंपाचैत्याभिधानम् | भग० ६७५ | अंगमद्दियाओ - अंगस्वल्पमर्दनकारिकाः । भग० ५४८ । अंगयं - अङ्गदं, बावाभरणविशेषः । जीवा० २५३ | प्रश्न. ७१। बाहुशीर्षाभरणविशेषरूपम् । प्रज्ञा० ८८ अंगय - अङ्गके, मूर्द्धादौ । जम्बू० १८९ | अङ्गदम्, बाह्वाभ-रणविशेषः । भग० १३२ | अंगरिसी - अगर्षिः, आर्जवोदाहरणे भद्रकः कौशिकार्यज्येष्ठ- शिष्यः । आव० ७०४ | येनोपशमेसत्यवाप्तं सामायिकम् । आव० ३४७ | अंगलोअं- अङ्गलोकं, म्लेच्छजातीयजनाश्रयस्थानम् । जम्बू० २२०/ अंगवंसो - अङ्गवंशः, अङ्गराजसन्तानस्य सम्बन्धिनः सप्तसप्ततिराजानः प्रव्रजिताः । सम० ८५| अंगविगारं- अङ्गविकारः, शिरःस्फुरणादिस्तच्छुभा शुभसूचकं शास्त्रमपि। उत्त० ४१७। अंगविज्जं - अङ्गविद्याम्, शिरः प्रभृत्यंगस्फुरणतः शुभाशुभसू-चिकांविद्याम् । उत्त० २९५ । अंगविज्जा - अङ्गविद्या, अङ्ग-पादः विद्याप्रासादपात-नात्मिका (सत्कारपुरस्कारपरिषहेदृष्टांतपदम्) । उत्त॰ १२५ | अंगहारिका - नृत्यकलाद्वितीयभेदः। सम० ८४। अंगा - अंगाः, जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ अंगाई - अंगानि, शिरः प्रभृतीनि । प्रज्ञा० ४६९ | एकादशांगानि । प्रज्ञा० ५६ । अवयवाः । स्था० १७० | शिरःप्रभृतीनि । उत्त० ४२८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [6] [Type text] अंगाणं- देशविशेषः । भग० ६८० | अंगादाणं - मेद्रम् | निशी० ११६ अ । अंगादानं मेहनम् | निशी० ३० आ । अंगारः - ( इंगाल), विगतज्वालोऽग्निः । भग० १२२ विगतधू-मज्वालो दह्यमानेन्धनात्मकः । उत्त० ६९४ | कृष्णवर्णवस्तु। आचा० २९| अंगारओ - अंगारकः, महाग्रहः । जीवा० ३३६, ३३७ अंगारकारिका- (इंगालकारिया), अग्निशकटिका । भग ६९७ | अंगारदोषः- (इंगालदोष), आहाररागाद्गाद् र्याद्भुञ्जानस्यचा-रित्रांगारत्वापादनाद्। आचा० ३५१। अंगारमद्दय - अंगारमर्द्दकः द्रव्यप्रव्रजितः । दशवै० ११५ । उत्त० ५६६ । अंगारय- अंगारकः, मंगलः । औप० ५२| अंगारवई - अंगारवती, संवेगोदाहरणे शिशुमारपुरपतिधुन्धुमारदुहिता श्राविका । आव० ७०९। अंगारवई प० - अंगारवती । आव० ६७ । अंगारशकटिका - (इंगालकारिया) । आचा० ३०९ | अंगारा- ( इंगाल), लघुतराग्निकणाः । स्था० ४२० | अंगारियं - अंगारकितं, विवर्णीभूतम्। आचा० ३४९ | अंगिरसा - गौतमगोत्रोत्तरभेदः । स्था० ३९० | अंग अंगुष्टम् । आव० ८४५| अंगुट्ठपसिणा - विद्याविशेषः । निशी० १७७ अ । अंगुट्ठि- स्नानम् । निशी. १९१ आ । अंगुट्ठी- अंगुष्टी, शिरोऽवगुण्ठनम्। आव ०९५| अंगुलपुहुत्तिया– अंगुलपृथक्त्वम्। जीवा० ३९। अंगुलिं - अंगुलिः, करशाखा । आचा० ३८ अंगुलिको - चर्ममयोपकरणम् । निशी० १३७ अ । नखभंगादिक्खट्ठा। निशी० १८अ । अंगुलिकोशः, श्रृङ्गमयो दारुमयो वंशमयो वा येनाङ्गुलिसंलग्नेन तन्त्र आहन्यते सः । जीवा० १९५| अंगुलिकोशकः, शृङ्गदारुदन्तादिमयः। जम्बू० ४०| अंगुलिज्जं - अंगुलीयकम्, अंगुल्याभरणविशेषः । औप० ५५| अंगुलिज्जग– अंगुलीयकम्, मुद्रिका। जम्बू० १०६| अंगुलिज्जयं - अंगुलीयकम्। आव० १७०। अंगुलिधणुओ - अंगुलधनुः । आव ० ४८४ | “आगम-सागर- कोषः " [१] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अंगुलिभमुहा- कार्योत्सर्गदोषः। आव० ७९८१ | अंजण-अजनं, तप्तायः शलाकया नेत्रयोः म्रक्षणम् वा अंगुलिसत्थयं- शस्त्रकोशविशेषः। निशी० १८ अ। देहस्य क्षारतैलादिना। सम० १२६। अञ्जनं, अंगुलीयगं-अंगुलीयकं, भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६९। सौवीराजनादि। प्रज्ञा० २७। सौवीराञ्जनम्। जम्बू०६० अंगुले-प्रमाणभेदः। भग० २७५। अंगुष्ठ-प्रश्नभेदः। स्था० अञ्जनाः, अञ्जन-रत्नमयत्वात्। जम्बू. १६३| ३०१। अंगुष्ठप्रश्नः, शुभाशुभसूचकः प्रश्नः। उत्त० ४४६| | अंजणई-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ अंगोवंगाई-अंगोपांगानि। प्रज्ञा० ४६९। अंजणाए-अञ्जनकः, वनस्पतिविशेषः। औप० १०॥ अंगोहलिं- अंगरूक्षणम्, देशस्नानम्। आव. ४१७। व्यव. अंजणकेसिया-अञ्जनकेशिका, वनस्पतिविशेषः। जम्बू. ४०५। ३३ अंचइ-अञ्चति, उत्पाटयति। जम्बू० ४२११ जीवा० २५५ | अंजणकेसियाकुसुम-अञ्जनकेसिकाकुसुमम्, अंचिअं-अञ्चितं, नृत्यविशेषः। जम्बू०४१२ वनस्पतिविशेष-पुष्पम्। प्रज्ञा० ३६१। अंचिअंचियं-उत्पतनिपतां पार्श्वतः करोति। स्था० ५२२१ अंजणगं-अञ्जनकः, पर्वतविशेषः। आव० ८२७। अंचिओ-अञ्चितः, व्याप्तः। आव० १६७। अञ्चितनामा अंजणगपव्वय-अञ्जनकपर्वतः। आव० ३८९। सम० ९० पञ्च-विंशतितमो नाट्यविधिः। जीवा. २४७१ अंजणगा-अञ्जनकाः, नन्दीश्वरचक्रवालमध्यवर्तिनः अंचितरिभितं-अञ्चितरिभितनामा सप्तविंशतितमो पर्वताः। प्रज्ञा०९६। स्था० ४८०| नाट्यविधिः। जीवा०२४७। अंजणगिरि- अजनगिरिः। जम्बू. १९६) अंचितांचिं-गमागमः। भग०६८३। अंजणपव्वय-अञ्जनपर्वतः, नन्दीश्वरद्वीपे अंचिते- अञ्चिते सकदगते। भग०६८३। पर्वतविशेषः। जीवा० ३५८१ अञ्चियं-दुर्भिक्षः निशी. १४८ आ। दात्रसंधी। निशी. अंजणपुलए-अञ्जनपुलककाण्डम्, एकादशं, १८३ आ। नाट्यभेदः। निशी० १ । अञ्चितं, नाट्यम् | अञ्जनपुलाकानां विशिष्टो भूभागः। जीवा० ८९। जम्बू०४१७। आव० ३९९। अंजणप्पभा-अजनप्रभा, पुष्करिणीनाम। जम्बू० ३६० अंचेइ-आकञ्चयति। औप० २५ अंजणमओ-अञ्जनमयः, अञ्जनरत्नात्मकः। जीवा. अंछंति- आकर्षन्ति। आव० ४८१ ३५८१ अंछणं-पण्हपसिरणं। निशी. १९१ आ। अंजणसमुग्गयं-अंजनसम्ग कम्। जीवा० २३४। अंगल्यालिप्तस्यरंगितस्य। ओघ. १४४। आकर्षणं- अंजणसिज्झ-अंजनसिद्धः। दशवैः १२८१ समारणम्। ओघ. १४४१ अंजणा-पर्वतविशेषः। स्था०८० अंजना, अंछमाणाणं-आकर्षताम्। आव०४८ पुष्करिणीनाम। जम्बू० ३३५। जम्बू० ३६०| अंछवियंछियं- आकर्षविकर्षम्। आव० ८३२॥ अंजणागिरि-अंजनागिरिः, दिग्हस्तिकूटनाम। जम्बू० अंछिऊण-आकृष्य। आव०४२७ ३६०। अंछित्ता-अपह्रियतां माया। व्यव० ८४ आ। अंजणिं- अंजनिका, कज्जलाधारभूता नलिका। सूत्र० अंछिय-आकृष्यते, प्रक्षाल्यते। बृह० ८१ अ। ११७ अंछियनयना-आकृष्टनेत्राः। प्रश्न. २११ अंजणे- प्रभंजनेंद्रलोकपालः। स्था० १९८१ (जिब्भिन्दियंछिय) आञ्छितम्-आकृष्टम्। सीतादक्षिणवर्ती तृतीयवक्षस्कारः। स्था० ३२६। अंजनः, (आकृष्टजिवेन्द्रियाः)। प्रश्न०६० वेलम्बाभिधान-वायुकुमारराजस्य लोकपालः, अंछिया-आकृष्टा। आव० २२७। वरुणस्यपुत्रस्थानीयो देवः। भग० ३९८। रावप्रलापीमते अंजणं-आणतकल्पे विमानविशेषः। सम० ३५१ कृष्णपुद्गलविशेषाः। सूर्य० २८७। अंजनकाण्डं दशमं, सौवीराज-नादि। बृह. ९२ । सोवीरयं रसंजणं वा। अञ्जनानां विशिष्टो भूभागः। जीवा० ८९। निशी० २१८ आ। अञ्जनम्, सौवरादि। आव० ५३०। | कर्मजीवमालिन्ये हेतुत्वात्। जम्बू. १४८। अञ्जनो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [7] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] वक्षस्कारः। जम्बू. ३५२। सौवीराजनं रत्नविशेषो वा। | गृहकोकिलादयः। दशवै० १४१। प्रज्ञा० ३६१। रसाञ्जनादि। दशवै. १७०। अण्डसूक्ष्मम्, मक्षिकाकीटिकागृहकोकिलिकाअंजणेइ-अञ्जनं, सौवीराजनं रत्नविशेषो वा। जम्बू. ब्राह्मणीकृकलासाद्यण्डम्। दशवै० २३०। अण्डसूक्ष्मम्, ३१ अजनं, कृष्णरत्नविशेषः। स्था० २३२ अञ्जनं मक्षिकाकीटिकागृहकोकिलाब्राह्मणीसौवीरा-ञ्जनादि। जीवा० २३। कज्जलम्। उत्त० ६५२। कृकलास्याद्यण्डकमिति। स्था० ४३० समीरकम् उत्त०६८९। रजोभेदः। आचा० ३४२१ | अंडु-अण्डु, अन्दुकं काष्ठमयं लोहमयं वा हस्तयोः अंजणगपव्वय-अंजनकपर्वतः। सम०९०| पादयोर्वा। औप०८७। अंजलि-अञ्जलिः, हस्तन्यासविशेषः। सूर्य०६। भग० अंडे- विपाकश्रुताद्यश्रुतस्कंधतृतीयाध्ययनम्। स्था० १४ अञ्जलिं, मुकुलितकमलाकारकरद्वयरूपम्। ५०७। ज्ञातायां तृतीयाध्ययनम्। आव०६५३। सम०३६। जम्बू. १८७ अण्ड-म्, षष्ठांगेतृतीयं ज्ञातम्। उत्त०६१४॥ अंजली-अञ्जलिः, हत्थुस्सेहो। द. १२९| निशी० ७ । । अन्तःकरणम्-मनः। आव० ५८५) अजलिः, दवयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरितांगलिकयोः | अंतोसल्ल-अन्तःशल्यः अन्तः-मध्ये मनसीत्यर्थः, सम्पुटरूपतया यदेकत्रमीलनं सा। जीवा० २४३। संयुतह- शल्यमिव शल्यमपराधपदं यस्य सो अन्तः स्तमुद्राविशेषः। जम्बू०१७। प्रसृतिद्वयम्। निशी० १२० शल्योलज्जाभिमानादिभि-रनालोचितातिचारः। सम. आ। ३४॥ अंजु-ऋजुः, ऋजोः- संयमस्यानुष्ठानात्। आचा० ३०३।। | अंतं-अन्तः । परिजीर्णम्,। बृह० १७५ आ। वस्त्रस्य मायाप्रपञ्चरहितत्वादवक्रः। सूत्र. १७७। दशान्तम्। बह० २३५ अ। अन्त्यम्, अन्ते भवम्, अंजुया-शान्तिजिनप्रवर्तिनीनाम। सम० १५२ अंजुका, जघन्यधान्यम्। औप०४०। अन्त्रम्-प्रीतत्। प्रश्न० ८। शक्रदेवेन्द्रस्याग्रमहिषी। जीवा. ३६५ कुल्माषादिकम्। बृह० २२० आ। अंजुल-वनस्पतिविशेषः। भग०८०२१ अंतचरे-आन्तम्-अन्ते भवं-आन्तम्-भुक्तावशेष अंजू- प्रगुणोऽव्यभिचारी। सूत्र. ५१। अंजू, व्यक्तम्, वल्लादि (तच्चरति)। स्था० २९८१ प्रगुणेन न्यायेन स्वरसप्रवृत्त्या वा। सूत्र० २९६। अंजुः, | अन्तयोः-अंचलयोः। भग० ४७७। भूभागः। भग० १२२ व्यक्तः, निर्दोषत्वात्प्रकटः (ऋजुर्वा) अवसानम्। प्रज्ञा० ३९७। भूमिभागः। भग० ३२३। स्था० वक्रैकान्तपरित्यागादकुटिलः। सूत्र० ३९३। अंजूः, १३९। समीपम्। जम्बू०४५५ वल्लचणकादि। प्रश्न. सार्थवाहसुता। विपा० ३५। अञ्जुः, धनदेवसार्थवाहसुता। १०६। समीपः। स्था० ११७अधिकरणप्रधानमव्ययम्। विपा०८ शक्रस्याग्रमहिषीनाम। जम्बू. १५९। भग० उत्त० २६१। (अंतचरे)-आन्तम्, अन्तेभवं आन्तम्, ५०५ भुक्तावशेषवल्लादि (तच्चरति)। स्था० २९८१ अंजूए-शक्राग्रमहिषीराजधानी। स्था० २३११ अंतंतं-पर्युषितं वल्लचणकादि। ओघ. १८८1 अंड-अण्डम, काष्ठनिश्रितो जीवविशेषः। आचा०५५) अंत-अन्तः, निश्चयः। भग. २९०परिच्छेदः। स्था० अंडए-अण्डजः, हंसादिः ममायमित्युल्लेखेन वा १७४१ प्रतिबन्धः, अण्डजं-पट्टसूत्रजम्। स्था० ४६५। हंसादिः अंतओ-अन्तकः, विषयतृष्णायाः पर्यन्तवर्ती। सूत्र मयूराण्ड-कादिः वा अण्डजः, पक्षी २५९। अन्तकम्, पर्यन्तम्। उत्त० ६२८१ कोशिकारकीटाण्डकप्रभवं वस्त्रं वा। औप० ३६ अंतकडे-अन्तकृत्।भग० १११। अन्तो भवस्य कृतो येन अंडओ-अण्डकः, जन्तुयोनिविशेषः। प्रश्न. ३३ सः अन्तकृतः। स्था० ३६| अंडग-अण्डकम्, आहारः। भग० २९श मुखं। व्यव० ३३३ | अंतकम्म-अन्तकर्म, अञ्चलकर्मवानलक्षणम्। औप० आ। अण्डजाः, अण्डाज्जाताः। स्था० ११४। ५५ अन्तकणि , अञ्चलयोर्वा न लक्षणानि। जम्बू. अंडय-अण्डजः, हंसादिः। भग० ३०३। अण्डजाः, पक्षि- | २७५। अन्तकर्म, अञ्जलयोर्वा न लक्षणम्। जीवा० २५३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [8] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अंतकम्मा-अन्तकर्मा, प्रान्तः। औप० १११ प्रज्ञा०६९। मध्यः। जीवा०४६। शैलान्तरम्अंतकरे- अन्तकरः, भवच्छेदकरः। भग० २१९। कन्दरान्तरम्, वनान्तरम् वा आश्रयरूपं। प्रज्ञा०६९। अंतकरो-अन्तकरः, प्रशस्तभावकरविशेषः, कर्मणः अन्तरालम्। आव० ३३। विशेषोरूपनिर्माणादिभिः। संसारस्य वा अंतकरः। आव० ४९९। स्था० २०३। पूर्वत्यागापरवस्त्रादानकाले-प्रतिमाविशेषः। अंतकिरिआ-अन्तक्रिया, निर्वाणलक्षणा। आव० १३५ निशी. १६३ आ। पार्श्वरूपम्। जम्बू. ३८७ व्यवधानम्। अंतकिरियं-अन्त्य(न्त)क्रिया, अन्त्या च सा जीवा. १२२। अन्तरायम्। ओघ. १७६। उपवासः। आव. पर्यन्तवर्तिनी-क्रिया चान्त्यक्रिया। अन्त्यस्य वा २०३। राजगमनस्यान्तरम्। विपा० ५३। अवसरः। विपा० कर्मान्तस्य क्रिया अन्तक्रिया। कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणां ७३। अपान्तरालम्। सूर्य०४९। अवसरः। प्रश्न०४२ मोक्षप्राप्तिम्। भग०४९। ग्रामादीनामर्धपथः। प्रश्न. ५२। पृष्ठोदरयोरन्त-रालं अंतकिरिया-अन्तक्रिया, अन्तः-कर्मणामवसानं तस्य पार्श्व इति। जीवा० २७७ विचालं। व्यव० १२८ क्रिया-करणम्, कर्मान्तकरणं मोक्ष इति। प्रज्ञा० ३९६| | अंतरंजिया-अन्तरम्जिका, नगरी यत्र निर्वाणम्। भग० ९१। प्रज्ञापनाया र्विंशतितमं पदम्।। त्रैराशिकदृष्टिरुत्पन्ना, बलश्रीराजधानी। उत्त० १६८ प्रज्ञा०६। मोक्षः। सम० ११८ भवस्यान्तकरणम्। स्था० पुरी पत्र त्रैराशिकनिह्नवस्य-दृष्टिरुत्पन्ना। आव० ३१८१ १८० अंतरंत-अंतरतो नाम असहा मूधा। व्यव० १० आ। अंतकुलाणि-अन्तकुलानि-वरुटछिम्पकादीनाम्। स्था० । अंतरंतगो-गिलाणो। निशी. १९८ अ। ४२० अंतर-वस्त्रैषणाभेदः। आचा० २७७१ अन्तरशब्दो अंतक्खरिया-अंत्याक्षरिका लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। मध्यवाची। प्रज्ञा० ५० अन्तरे, पृष्ठोदरयोरन्तराले, अंतगडदसा- अन्तकृद्दशा, अन्तो-भवान्तः कृतो विहितो पार्श्वे। जम्बू. ११७ अंतराणि-पार्श्वदेशः। प्रश्न० ८३। यैस्तेऽन्तकृताः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशाः अंतरकंदे-अन्तरकन्दः। जलजवनस्पतिविशेषकन्दः। दशाध्ययनरू-पाग्रन्थपद्धतय इति। अन्त०१। प्रज्ञा० ३७ अंतगडो-अन्तकृत्, ज्ञानावरणीयादिकर्मान्तकृत्। अंतरकरणं-औपशमिककालः। प्रज्ञा० ३८७। आव. १६३तेनैव भवेनेति। आव० ११७। अन्तकृताः- अंतरगए- अन्तरगतः,संस्पर्शी। सूर्य ७९। तीर्थ-करादयः। सम० १२११ अंतरगामंमि- अंतरगामम्मि- अपान्तराल एव यो अंतगतावधिः- (अंतगतावही)-आत्मान्तगतः, शरीरान्त- | ग्रामस्तस्मिन् ओघ०७७ गतः, अवधिक्षेत्रान्तगतः (पुरःपृष्ठपार्वेष्)। प्रज्ञा०५३७। | अंतरगिरिपरिरओ-अन्तर्गिरिपरिरयः, गिरेरन्तः अंतगो-अन्तकः, विनाशकारी, आत्मनि वा गच्छतीति, | परिक्षेपः। जीवा० ३४३। आन्तरः आत्मगोवा। सूत्र० १७८१ अन्तगः अन्तं अंतरजातम्-भावभाषाजातः तृतीयोभेदः।अन्तरे गच्छती, दुष्परित्यज्यः। सूत्र० १७८। भाषाद्रव्य-मिश्रणं। आचा० ३८५) अंतचारी-अन्तचारी, पार्श्वचारीति। स्था० ३४२। अंतरतेणो- गामदेसंतरेस हरंतो। निशी० ३८ आ। अंतदीवगं-सव्वेहिं अभिसवज्झात अमज्जमसासी अंतरदीव- अन्तरदद्वीपः। भग०४२५ भवेज्जा। दशवै. १६३। अंतरदीवगा- अन्तरदवीपगा, अन्तरे लवणसमुद्रस्य अंतखाणं-अदृश्यः। निशी. ७६ अ। मध्येद्वीपा अन्तरद्वीपाः, तद्गता अन्तरद्वीपगाः। अंतद्धाणपिंडो-अप्पाणं अंतरहितं करेत्ता जो पिंडं गेण्हति | प्रज्ञा० ५० सो अंतद्धाणपिंडो भण्णति। निशी. १०२। | अंतरदीवगो- अन्तरद्वीपः, लवणसम्द्रमध्ये अंतरं-उववासो। निशी. १७४ आ। मज्झं। निशी० १४० । अन्तरेऽन्तरे द्वीपः। जीवा० १४४। अ। समुद्र-मध्यम्। उत्त० ७०० उत्तरम्। आव०४४२ | अंतरदीविगा-आन्तरद्वीपजाः। स्था० ११५ विशेषः। उत्त. २१७ अवसरः। आचा० १०७। अवकाशः। | अंतरद्धा-अन्तर्द्धानम्,भ्रंशः। आव०८२७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अंतरद्धाए-अन्तरकालेऽर्धसंलिखितेदेहे। आचा० २९११ । अंतरिक्खो-मेहो। दशवै. ११४१ अंतरद्वीपजाः- अन्तरद्वीपाः,अन्तरम्, इह समुद्रमध्यं | अंतरिच्छा-अन्तरेच्छा, अन्तरा-मध्ये इच्छा-अभिमततस्मिन् द्वीपास्तेषु। उत्त० ७००। अन्तरद्वीपजाः, वस्त्वभिलाषा। उत्त०४७४। सम० १३५ अन्तरद्वीपाः, अन्तरम्। इह समुद्रमध्यं | अंतरिज्जं-अंतरिज्जंणाम पाउरणं अथवा जं तस्मिन् द्वीपाः। उत्त० ७०० सिज्जाए हेढिल्लापात्तं। निशी. १६३ आ। अंतरपल्ली- अन्तरपल्लीं अंतरिया- अन्तरिका। सूर्य.१४१। लघ्वन्तररूपा। जीवा. अन्तरपल्लिकावृषभग्रामयोरन्तरालम्। बृह. ३०५) २०४१ विच्छेदकरणम्। भग. २२० अंतरपल्ली-बहिः सन्निवेशः। निशी. ३३६ अ। अंतरीयं- परिघानं। बृह. ९८ अ। मूलग्रामादर्धतृतीयगव्यूतान्तर्गतो ग्रामः। बृह० १२१ | अंतरुच्छुअं- इक्षुपर्वमध्यम्। आचा० ३५४। आ। तस्माद्ग्रामात्परतो योऽन्य आसन्नग्रामः। ओघ. | अन्तरे-पथि। ओघ०६६ मध्ये परस्परविभागः। स्था. १०४१ २२७। अन्तरे, अन्तराले। उत्त. ३८११ अन्तरे, अवसरः। अंतरभासिल्ल-अन्तरभाषिल्ल, अन्तरभाषावान्, भग. ३८१ गुरुवचना-पान्तराल एव स्वाभिमतभाषकः। उत्त० अंतरो-अन्तरः, बवसरः। आव०४२११ ५५२ अंतरोमगाणं-अंन्तरोदकानाम, अंतरभाषा-अन्तरभाषा, आचार्यस्य भाषमाणस्यान्ते जलान्तर्वतिसन्निवेशविशेषा-णाम्। जम्बू. २७७१ यद्भाषते सा। आव०७९२। अंतर्महूतम्- मुहूर्तस्यान्तरं, मुहूर्तमपिन्यूनम्। उत्त. अंतरवीहिअं- अन्तरवीथी, अवान्तरमार्गः। जम्बू. १८८1 ६९७ भिन्नमुहूर्तम्। जीवा० १३० अंतरा-अन्तरा, अगृहीतवीप्सा। जीवा० १९९। अंतर्हितः- (अंतद्धिओ) अदृश्यः। स्था० ५१३। अंतराइयदोसो-अन्तरायिकदोषः, अन्तर्भवोदोषः। अंतलिक्खं- अन्तरिक्ष, ग्रहभेदादिविषयम्। आव०६६० आव० ८३८१ अंतलिक्खं- अन्तरिक्षम्, नभः। दशः २२३। अंतराए-अन्तरायः, शक्त्यभावः। सूत्र. १८४| अमोघादिकम्। सूत्र० ३१८१ अन्तरायिकः (मध्यभव)। आचा० ३४० अंतलिक्खं-अन्तरिक्षम्-गंधर्वनगरादि। स्था० ४२७ अंतराणि-उत्कर्षापकर्षात्मकविशेषरूपाणि अंतवाले- अन्तपालः, अन्तं-त्वदादेश्यमेशसम्बन्धिनं निवासभूतानि वा गिरिकन्दरविवरादीनि। उत्त०७०१५ | पाल-यति-रक्षयति उपद्रवादिभ्य इति। जम्बू. २०३। अंतरापहे-अन्तरापन्थाः , अन्तरालमार्गः। भग० ११६। | अंतसो-अन्तशः, निरवशेषतः। सूत्र० १७१। अंतरायं-अन्तरायः, असङ्खडास्वाध्यायादिभिः। आव. अंताः-अवयवाः। उत्त०४५९। उत्त० ५८५ ५८० अंता-अंते ठिता, ण अंता अणंता। निशी. २५५ आ। अंतरालं-अन्तरालं, अन्तरम्। उत्त० ३८१ आव० ३३। अंतक्खरिया-अंताक्षरिका क्रीडाविशेषः। उत्त०४७। अंतरावणं- अन्तरापणं। उत्त० २२२। आवणान्तरम्। अंतिए-अन्तिके, समीपे। भग. ९०| उत्त. २७७। उत्त. २०९। राजमार्गमध्यभागवतिहट्टम्। विपा० ५८४ | अंतिमधनं-अंतिमे-अंकस्थाने परिमाणं। व्यव०७६) अंतरावासं-वृष्टेरवसरः, वर्षाकालश्च। भग०६६। अंतिमराइयंसि-रात्रेरवसाने। स्था० ५०२। भग० ७११| अंतरिए-लघ्वन्तररूपाः। जम्बू. ४९। अंतिमसरीर-अन्तिमशरीरम्, चरमशरीरम्। भग० २१९। अंतरिओ-अन्तरितः। आव०४२९ अंतियं-समीपम्। भग० ६५९। अत्यन्तरमरणं, अंतरिका-अन्तरस्य-विच्छेदस्य करणमन्तरिका। मरणस्यतृतीयोभेदः। उत्त० २३० आन्तिकं, सामीप्यम् जम्बू० १५० | आव० २६७। अंतरिक्खं- अन्तरिक्षं, आकाशप्रभवग्रहयुद्धभेदादिभाव- । अंतिय-अन्तिकम्, आसन्नम् । भग० २१७१ फलनिवेदकशास्त्रम्। सम०४९। अत्यन्तमरणम्। उत्त० २३० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [10] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अंतिया- आन्तिकी समीपाभ्युपगता। उपा० १५। अन्ते, | अंत्य-आनुपूर्व्यन्त्यपंक्त्यंकाः। सूत्र. १०। विशेषम्। अग्रे। उत्त०६०११ परिसमाप्तिः । बृह. १९९ आ। स्था० ३९१। अंतेउरे- (आंतःपुरिकी), आतुरस्य नाम गृहीत्वा आत्मनो- | अंदुकम्- हस्तिबन्धनविशेषः। उत्त० ४१११ sD गंप्रमार्जयमतुिरश्च प्रगुणो जायते। व्यव० १३३ | अंदेरे- गुच्छविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ आ। अंदोलगा-पक्ष्यन्दोलकाश्च तत्र यत्रागत्य २ अंतेण-मार्गेण। निशी०६आ। मनुष्याआत्मान-मन्दोलयन्ति। जम्बू०४४। अंतेणं-आन्त्रेण। स्था०५०२। अंदोलगो-आन्दोलकः यत्रागत्य मनुष्या अंतेवासि- भर्तृज्जुकाः। निशी० २५० अ। आत्मानमन्दोलयति सः। जीवा. २००९ अंतेवासी-शिष्यः। जम्बू. १५। भग० १११ अंध-अन्धः, अज्ञानः। भग० ३१२| अंतेहि-अरतया सर्वधान्यान्तवर्तिभिर्वल्लचणकादिभिः। | अंधकण्टकीयम-अतर्कितसम्भवो न्यायविशेषः। आचा० भग. ४८४| रागद्वेषौ। आचा. १५८ आचा. १६६) १८ अंतो- अन्तो, विभागः। भग० ३९३। विभागः। स्था० ३८० | अंधकारे-अन्धकारम्, तमोरूपम्। भग० २७०। अन्तः, परिच्छेदः। प्रज्ञा०५३ मार्गः। आव०४०२ | अंधकारेति-तमस्कायनाम। स्था० २१७। अन्तः निवेशनस्य। आव०७४५। अन्तः, मध्यभागे। अंधगवण्हिणो- अंहिपा-वृक्षास्तेषां जीवा० २०११ मार्गः। आव० ६८६। विभागः। जम्बू. ४५९। वह्नयस्तमाश्रयत्वेने-त्यंहिपवह्नयो भिन्नम्। आव० ५८४ मार्गः। आव०४८५ आव० १८९।। बारदरतेजस्कायिकाः। भग०७४६। मध्ये। प्रज्ञा० ४७। इन्द्रियाननुकूलआश्रयः। प्रश्न. १३८१ | अंधगवण्ही-अन्धकवृष्णिः , द्वारवत्यां राजा मध्यकरणम्। आव० ५८३। चतुर्दशभेदान्तरग्रन्थः।। यादवविशेषः। अन्त०श दश ०९७५ उत्त० ३७१। अंधतमसं-अन्धतमसम्। आव. ३६६। अंतोजलगयपव्वय-जलान्तर्गतपर्वतः। उत्त. २६४) अंधपुरं-नगरविशेषः। बृह. १०८ आ०| निशी०। ४२ आ। अंतोधूम-अभ्यन्तरधूमम्। आव०६६२ अंधपलितपलाणं-अंधप्रदीप्तपलायनम् । दशवै. १५८ अंतोनायं-अन्तोनादं, हृदयमदुःखमारसन्। आव०६६१| अंधमूढि-अविमर्शकारिता। आचा०६२ अंतोनियंसणी- निर्ग्रथ्युपकरणविशेषः। ओघ० २०९।। अंधयं- अन्धकम्, नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः, अंतोमुहुत्त-अन्तर्मुहूर्तम्, भिन्नमुहूर्तम्। भग० २९।। | कुत्सिताङ्गम्। विपा० ३६। उत्त०६९७। अंधलीभूय-अन्धीभूतः। आव०६८८१ अंतोवणीते-आहरणतद्दोषविशेषः। स्था० २५३। अंधिय- चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२। अंतोवाहिणी- अन्तर्वाहिनी नदी। जम्बू. ३५७। स्था० ८०१ | अंधिया- चतुरिन्द्रियजीवभेदः।उत्त० ६९६। अंतोवेइया-प्रतिलेखनादोषः। निशी. १८२ अ। चतुरिन्द्रियज-न्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ अंतोसंबुक्कावट्टा- गोयरपिंडेसणाए कमेणं ति, तत्थ अंधिल्लगो-अन्धिल्लकः, जात्यन्धः। प्रश्न १६२। गोयरातिमे अभिग्गहविसेसतो जाणियव्वा। निशी० १२ | अंधीयताम्-अन्धीभवत्। दशवै० १०६) । अंधो-अन्धः, चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न. अंतोसल्ल-अन्तःशल्य मरणम्। मरणस्य षष्ठो भेदः । उत्त. २३० अंधोपल-अन्धोपलः अन्धपाषाणः। दशवै०४०। अंतोसल्लमरणे- अन्तःशल्यमरणम्, अन्तः शल्यस्य अंध- अंध्र अंधादिदेशोद्भवाम्लेच्छप्राया, द्रव्यत-ऽनवृततोमरादेः, भावतः सातिचारस्य यन्मरणं | आर्यभाषामजानाना। व्यव. २८ अ। तत्। भग० १२०। सम० ३३ अंधी- (अंधी), अन्ध्रदेशीयास्त्री, उत्कृष्टरूपा। आव. अंतोहिंतो- गृहोदेर्मध्यादबहिर्नयन्तः। स्था० ३५३। १४१ १८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [11] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अंब-अम्लवचनयोगाद् परुषवचनव्यवहारः। व्यव० १७४। २५६। अंबरसे- अम्बा-पूर्वोक्तयुक्त्या जलं तद्रूपो रसो यस्मात् अंब-आम्र। प्रज्ञा० ३११ तन्निरुक्तितोऽम्बरसम्। भग० ७७६। अंब- आम्रम्। प्रज्ञा० ३२८ फलविशेषः। प्रज्ञा० ३६४। अंबरिस-अम्बरीषः, दवितीयः, परमाधार्मिकः। भग० थोवेण ऊणं अंबं भण्णति। निशी० १२४ आ। १९८१ अंबए-अग्रप्रलंबविशेषः। बृह. १४३ आ। अंबरिसी-नारकान् कल्पनिकाभिः खण्डशः कल्पयित्वा अंबकंजिय-सुगंधिकाजिकम्। ओघ० १६० भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोति। सम० २८१ अम्बर्षिः, अंबकुज्जं-पादतलमध्यम्। बृह. २२३ आ। दवितीयः परमाधार्मिकः। सूत्र. १२४| पञ्चदशस् अंबकूणए-आम्रास्थिकम्। भग०६८१| परमाधार्मिकेषु दवितीयः। उत्त०६१४१ नरके दवितीयः अंबकूणगहत्थगए-आम्रफलहस्तगतः। भग० ६८४१ परमाधार्मिकः। आव०६५०| विनयविषये उज्जयिन्यां अंबक्खलगं-अम्बलखलम्। आव० ३५३। ब्राह्मणः श्रावकः। आव०७०८। अंबखुज्ज- आम्रकुब्जः, आम्रफलवत् कुब्जो वक्रः। भग० | अंबरिसे- अम्बरीषः, कोष्टकः। जीवा० १२४। अम्बरीषम्९०| पादतलमध्यम्। बृह. २२३ अ। तन्दु भ्राष्ट्रम्। प्रश्न. १७ अम्बरीषा-भ्राष्ट्रा आकरणानि। अंबगपाणगं-पानकविशेषः। आचा० ३४७। स्था०४१९ अंबगपिंडी- आमपिण्डी। आव० ६९७। अंबले- अम्बराणि। बृ.० २८३ अ। अंबचोयए-आमत्वक्। भग० ६८१| अंबसालवणं-आम्रशालवनं, आमलकल्पानगाँ अंबचोयगं- आमत्वक् आमछल्ली। आचा० ४०५। वनविशेषः। उत्त० १५९| चैत्यविशेषः। आव०७०७ अंबजुज्झं- पादतलमध्यम्। निशी० १३७ अ। आमशालवनम्। आव० ३१४| अंबट्ठ-अम्बष्ठः, ब्रह्मपुरुषेण वैश्यस्त्रियां जातो वर्णः। | अंबा-विद्याविशेषः। आव० ४११। जलम्। भग० ७७६। आचा०८1 अंबाडगं-अम्बालकम, फलविशेषः अनुत्त०६। अंबाटकंअंबट्ठ-अम्बष्ठः ब्राह्मणेन वैश्यायां जातः। उत्त०१८२ फलविशेषः, अधोगतिमत् । प्रज्ञा० ३२८१ अंबडे- अम्बडः, माहणपरिव्राजकभेदः। औप. ९१| | अंबाडग-बहुबीजको वृक्षः। भग० ८०३। अंबाडकबबीज(अंमड) परिव्राजकविताधरश्रमणोपासकः। स्था० ४५७ विशेषः। प्रज्ञा० ३२श आमटकः-कापोतलेश्यारसे। प्रज्ञा. अम्बडः। सम० १५४॥ ३६४। अंबडो-अम्बडः, अमूढदृष्टित्वोदाहरणे लौकिकऋषिः। । | अंबाडगपलंब-फलविशेषः। आभा० ३४८१ दशवै० १०२। सुलसाश्राविकापरीक्षकपरिव्राजकः। व्यव० अंबाडगपाणगं-पानकविशेषः। आचा० ३४७ १८ आ। म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ अम्बड़परिव्राजकः। । अंबाडिओ-तिरस्कृतः। बृह. ३० आ। तिरस्कृतः। आव. प्रज्ञा०६१। ९११ तर्जितः। आव. १८७1 उपालब्धः । आव० ३९८ अंबपलंब- फलविशेषः। आचा० ३४८1 अंबाडिय-निर्भर्सितः। आव० ३०६। अंबपेसी-आमफाली। आचा० ४०५ अंबाडिय-तिरस्कृता। आव० २२४। अंबप्पहारो- प्रहारातः। उत्त. १९३। अंबाडेइ-तिरस्कुरुते। उत्त० १४७। उपलभते। आव. २२३। अंबभित्तयं-आम्रार्द्धम्। आचा० ४०५। निशी० २११ आ। अंबय-आम्रः। आव० ४१७ अंबाण- गंधाने, आम्राः। बृह. १४३ आ। अंबयरुक्खे- अष्टादशजिनचैत्यवृक्षः। सम० १५२ अंबारेवई-अम्बारेवती, व्यन्तरीविशेषः। आव०६९११ अंबरतल- अम्बरतलम्। सूर्य. २६४। अंबावल्ली-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ अंबरवत्थं-अम्बरवस्त्रं, स्वच्छतयाssकाशकल्पम्। अंबियपहारो-प्रहारातः। आव०६६६। जम्बू०४०६। स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पवसनम्। भग० | अंबिया-प्राप्ता गवेषितलब्धा वा। बृह. ८२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [12] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अंबिलं- अम्लम्। आव २०० अम्लम, तक्रारनालादि। । भागादि। निशी. ७०आ। अंशिका-यत्र ग्रामस्याई, दशवै०१८० आचाम्लम्-अवश्यानम्। आचा० ३४६। आदिशब्दात् त्रिभागो वा चतुर्भागो वा गत्वा स्थितः सा अंबिल- पर्वगवनस्पतिः। भग० ८०२। अम्बोऽम्लिकाद्या- ग्रामस्यांश एव अंशिका | ब० १८१ आ। श्रितः। जम्बू. १७४। हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३। रब्बा। | अंसियालए-अस्त्र्यालये। दशवै. ३७ बृह. २९ । अंसी-अस्रिः, चतुर्दिग्विभागोपलक्षितः शरीरावयवः। अंबिलजवागू-अम्लयवागूः। आव० ९१| जीवा० ४२ प्रज्ञा० ४१२। (अर्शासि) रोगविशेषः। निशी. अंबिला-आम्लिका। ओघ. २१५१ १८९ । अंबिलि-आम्लभाजनम् चिञ्चिणिकापात्री। आव०६२४१ | अंसुए- लक्ष्णपट्टः। बृह. २०१ आ। रब्बा। बृह. २८ आ। अंसुयं-वस्त्रम्। निशी. २१४ आ। दुकल-विशेषरू-पम्। अंबिलिबीयं-अम्लिकाबीजम, चिञ्चिणिकाबीजम्। जीवा. २६९। आव० ६२४ अंसुय- लक्ष्णपट्टः। स्था० ३३८१ अंबिलोदए-आम्लोदकम्, अतीवस्वभावत अंसुयाणि-अंशुकानि, वस्त्राणि। आचा० ३९३। एवाम्लपरिणामम्। जीवा० २५१ आम्लोदकम् स्वभावत अंसो- अंशः, अस्रिः, चतुर्दिग्विभा-गोपलक्षितः। सूर्य०४। एवाम्लपरिणामं काजि-कवत्। प्रज्ञा. २८१ अस्रिः, पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरं १, अंबूखुज्जो-आमकब्जः। आव० ६४८ । आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरम् २, अंबे-आम्लः। निशी० ३५६ आ। प्रथमपरमाधार्मिकः। दक्षिणस्कन्धस्य वामजानु-नश्चान्तरम् ३, सम० २८1 अम्बः, नरके प्रथमः परमाधार्मिकः। आव. वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरं ४, सूर्य०४१ अंश:६५०| पञ्चदशसू परमाधार्मिकेषु प्रथमः। उत्त०६१४| भागः। आचा० १७७ अम्बः, प्रथमः परमाधार्मिकः । सूत्र० १२४। अइं-अमुना। बृह. २१३ अ। अंबेल्ली- (रब्बा) | आव० ९१| अइंताणं-अतियतां-आगच्छतां। व्यव० ३६६ आ। अंबो-आम्रवृक्षः। भावुके दृष्टांतः। ओघ० २२३। अइंति- प्रविशन्ति। ओघ०६७। आगच्छन्ति। प्रश्न. अंमिया- प्राप्त। निशी. १० आ। १२० अंमेउं- प्राप्तम्। निशी० २०२ अ। अइंतु- प्रविशन्तु। ओघ० ७९। अंबाडेति-खरंटेति। निशी० २११ आ। अइंते- प्रविशति। बृह० ६० अ। अंस-अस्रिः, पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरं, अइंतो-आगच्छन्। आव० २६५ आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं, अइ-अयि, आमन्त्रणे। उत्त० ३५४| दक्षिणस्कन्धस्य वामजानन-श्चान्तरं, वामस्कन्धस्य | अइअच्च-अतिगत्य, अत्येत्यतिक्रम्य। आचा० २४११ दक्षिणजानुनश्चान्तरम्। चतुर्दि-ग्विभागोपलक्षितः । अविगणय्य। आभा० ३०३। शरीरावयवो वा। भग० ११। अस्रेषुकोणेषु। जम्बू. ११५१ अइआरो-अतिचारः, पापम्। आव०७७८। अतिक्रमः। अंशः, सत्पर्यायोऽयं शब्दः। उत्त० ४८९। आव० ५७५। स्खलना। ओघ० ३८ अंसलग-अंसगतः। तन्दु अइकाए-अतिकायः, दक्षिणनिकाये सप्तमो अंसहरा- अंशधरा, अंश-प्रक्रमाज्जीवितव्यभागं व्यन्तरेन्द्रः। भग० १५८१ धारयन्ति-मृत्युना नीयमानं रक्षन्ति । उत्त० ३८८। अइकाय-अतिकायः, महोरगेन्द्रः। जीवा० १७४। अंशः-दुःखभागस्तं हरन्ति अपनयन्ति ये ते। उत्त. अइकुंडियं-अतिबाधितम्। आव० ५७४। ३८९ अइकोहग्गहघत्थं- अतिक्रोधग्रहग्रस्तम्, अंसातो- एकस्मात्। स्था० २३६। अतीवोत्कटरोषग्रहा-भिभूतम्। आव० ५८८ अंसिया-अविभक्तोऽ० शः।बृह. १९९आ। गामततिय | अइक्कंतं-अतिक्रान्तम्, अतिक्रान्तकरणात् आव० ८४० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [13] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अइक्कंत-अतिक्रान्तम्, अतिक्रान्तकरणादतिक्रान्तम्। अइभद्दा-अतिभद्रा, प्रभूसमाता। आव २५५। भग. २९६ अइभारे- अतिभार, प्रभूतपूगफलादेः अइक्कंता-अतिक्रान्ता, जाता। उत्त. २१५। अतीताः। स्कन्धपृष्ठ्यादिष्वा-रोपणम्। आव०८१८ आचा० १७८१ अइभूमि-अतिभूमिः, गृहस्थैरनुज्ञाता यत्रान्ये भिक्षाचरा अइक्कंतो-अतिक्रान्तः, पर्यनावर्ती। प्रज्ञा० ९१। न यान्ति । दशवै० १६८१ अइक्कमे-अतिक्रामेत्, प्रविशेत्। उत्त०६० अइमत्तं- अतिमात्रः, अतिरिक्तम, अतिक्रान्तमर्यादम्। अइक्कमो-अतिक्रमः, आधाकर्मनिमन्त्रणे प्रतिश्रृण्वति। | | उत्त०४२९| साधुक्रियोल्लङ्घनरूपः दोषविशेषः यावदुपयोगकरणम् | अइमत्ते-अतिमात्रे, बृहत्प्रमाणे। ओघ० १७०| । आव० ५७६। अतिलङ्घनम्। आव० ८२३। पीडात्मको । | अइमुत्तग-पुष्पविशेषः। निशी० ११८ आ। महाव्रता-तिक्रमो वा मनोऽवष्टब्धतया परतिरस्कारं वा।। | अइमुत्तगचंदसंठाणसंठिते- अतिमुक्तकचन्द्रसंस्थान सूत्र. १७३। संस्थि-तम्, घ्राणेन्द्रियसंस्थानम्। प्रज्ञा० २९३। अइगच्छिहिति-अतिगमिष्यति। आव० ३६९। अइमुत्तगणा- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ अइगतो- पविट्ठो। निशी० १३आ। अतिगतः। आव० ३४९| | अइमुत्तय- लताविशेषः। प्रज्ञा० ३८२। अइगमणं-अतिगमनम्, अतिगमनकथा, राज्ञ अइमुत्ते- अतिमुक्तः, महावीरस्वामिनः कुमारश्रमणः आगमनसम्बन्धी विचारः, राजकथाया दवितीयभेदः। शिष्यः। भग. २१९। अन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य आव० ५८१। उत्तरायणम्। भग०१४७ पञ्चदशाध्ययनम्। अन्त०१८ अइगया-अतिगता। ओघ. १५८१ अइयंचिय-अतिक्रम्य। स्था० ३०० अइगुविलगव्वरा-अतिगुपिलगह्वरा। आव० ३८४। अइयारो- अतिचारः, गृहीते आधाकर्मणि दोषविशेषः, अइचारो-अतिचारः, स्खलना। ओघ. ३८ मिथ्यात्व- यावद्वसतिं गत्वेर्यापथप्रतिक्रमणादयुत्तरकालं मोहनीयकर्मोदयादात्मनोऽशुभः परिणामविशेषः। आव० लम्बनोत्क्षेपः। आव० ५७६। अतिचरणं८१३॥ चारित्रस्खलनाविशेषः। आव० ७८ अपराधम्। उत्त. अइचिराविओ-अतिचरायितः। आव. ५१२। २३३ अइच्छ-अतीच्छ, अदाने सत्यतिगच्छेति वचनम्। आव० | अइर-अचिरा, शान्तिमाता। आव० १६१। ४७८१ अइरत्त-अतिरात्रः, अधिकदिनं, दिनवृद्धिः। स्था० ३७० अइच्छओ-अतिक्राम्न्, भिन्दानः, बृह. १७ आ। | अईरत्तकंबलसिलाओ- मेरुमस्तकशिला। स्था० ८० अइण्णं-आकीर्णम्, सव्वलोगो आयरइ। निशी. २७४। | अइरा-अचिरा, शान्तिजिनमाता। आव० १६०| सम. अइणा- गोरमिगादिणो। निशी० २५५ अ। १५२ सम० १५१ अइनिद्धं-अतिस्निग्धम्, हविः प्रचुरम्। आव० ५६८१ अइरित्तसिज्जआसणिए-अतिरिक्तशय्यासनिकः, अइपंडुकंबलसिला-अतिपाण्डुकम्बलशिला। आव० १२४। चतुर्थमसमाधिस्थानम्। आव०६५३| अइपडागा-अतिपताका, एकां पताकामतिक्रम्य या अइरेगो-अतिरेकः, अतिशायिता। जीवा० २७४। पताका सा। औप० ५। पताकोपरिवर्तिनी। भग० ४७६। अतिशयः। जीवा० २६७।। अइ(णु)परियट्टित्ता-अति(न)परिवर्त्य, सामस्त्येन अइवत्तियं-पातकादतिपातिकां, निर्दोषाम्। आचा० ३०५१ परिभ्राम्य। प्रज्ञा०६०० अइवाइज्ज-अतिपातयेत्, व्यथेत। आचा० १२८१ अइपहाए- अतिप्रभाते। आव०६४११ अइवायंमि-अतिपाते। स्था० ३२९। अइप्पयं-अतिपरभाते। ओघ० ९८१ अइवाय-दवादशशतके प्राणातिपातादिविषयः अइबले-आगामिन्यां पञ्चमो हरिः। सम० १५४| पञ्चमोद्देशकः। भग. ५५२ अतिपालः, हिंसादिदोषः। अतिबलः-भरतसंताने तृतीयः। स्था० ४३० ओघ. ३६। वधः। भग० २८९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [14] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] अइवालग– अजापालकः, वाचकविशेषः । बृह० २० आ । अइवेलं- अतिवेलं, स्वाध्यायादिवेलातिक्रमेण । उत्तः ११०) अतिवेला अन्यसमयातिशायिनी मर्यादा समतारूपा । उत्त० ११० | आइसंधणपरो- अतिसन्धानपरः, परवञ्चनाप्रवृत्तः । आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) आव० ५८९ | अइप ओगो - अतिसम्प्रयोगः, गार्ध्यम् । सूत्र० ३२९| अइसय- अतिशयः, आमर्षोषध्यादिः । सम० १२४ | अर्थविशेषः । बृह० १९२ आ । अइसहुमं अतिसूक्ष्मम् । आव ० १३६| अइसेस अतिशयः, अतिशयनं, अवध्यादिप्रत्यक्षं ज्ञानं । अध० १४) अतिशयी अवध्यादिज्ञानयुक्तः । दशवै १०३ | सूत्रार्थसामाचारीविद्यायोगमंत्रातिशयः । बृह २०३आ। अइसेसी - अतिशायिनी, स्निग्धमधुरद्रव्याणि । बृह २४६| अइसेसो- अतिशेषः, अतिशायी, जीवा० २७७१ शेषाणिमत्यादिचक्षुर्दर्शनादीनि अतिक्रान्तंसर्वावबोधादिगुणैर्यत्तदतिशेषमतिशयवत्केवलम् । स्था० २१३ | अइ- अतीति, आगच्छति, प्रविशति । आव० २३२| अईते - अतितेजा:- चतुर्दशरात्रिनाम जम्बू• ४९१। अईया - अतीताः, अतिक्रान्ताः । आचा० १७८ | अईह - अतियासीः । आव० १७३ | अअंगाति- अयुतांगानि संख्याविशेषः स्था० ८६ सूर्य० ९१| भग० ८८८ अआति- अयुतानि संख्याविशेषः । स्था० ८६ सूर्य० ९१ | भग० ८८८ भग० २९० | भग० २७५| अउज्झं अयोध्यम्, अनभिभवनीयम्। जम्बू० २१२१ अउज्झा- अयोध्यानि परैर्योद्धुमशक्यानि प्रज्ञा० ८६ । अउज्झाओ - नगरविशेषः । स्था० ८०| अ- अजः, बर्करः । प्रज्ञा० २५२ उत्त० २७५ | अओझा - अयोध्या, राजधानी जम्बू० ३५७। अजितस्य प्रथमपारणकस्थानम्, आव० १४६ । । अओमुहदीचे अंतरद्वीपविशेषः । स्था० २२४। अओमुहो- अयोमुखः, अन्तरद्वीपविशेषः जीवा. १४४ अकंटए- अकण्टकः, कण्टकरहितः । जीवा० १८८० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [15] [Type text] अकंठगमणाई - अकण्ठगमनादि, कण्ठेन भक्तकवलो नोपक्रामति । ओघ ८० अकडूयते - अकण्डूयकः, न कण्डूयत इति स्था० २९९| अकंतं- सरोषभणितम् । निशी० २७८ अ अकतत्ता- अकान्तता, अकमनीयता भगः २३1 असुन्दरता। भग० २५३ | अकान्तता । प्रज्ञा० ५०४ | अकंतदुक्खी अनभिप्रेताशातावेदनीया । आचा० ४३० अकंता - अकान्ताः, अकमनीया । भग० ७२ अकंपिए - अकम्पितः, अष्टमगणधरः । आव० २४० अकक्कस- अकर्कशम्, सुखम्। भग० ३०५ | अकज्जं अकार्यम्-मैथुनासेवालक्षणम्। व्यव. २०५ आ। अकडजोगी- यतनया योगमकृतवान्। व्यव० १५१ अकडसामायारी- सामायारिं जो न करेति सो अकडसामायारी निशी० ८१ अ अण्णा - अकर्णनामा अन्तरद्वीपाः । प्रज्ञा० ५०| अकण्णो- अकर्णः अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४ | अकति- असङ्ख्याता अनन्ता वा । स्था० १०५| अकतिसञ्चिता असङ्ख्याता, एकैकसमये उत्पन्नाः सन्तस्यैव सञ्चितास्ते स्था० १०५| अकतिसंचया- कतिसंचिता न ये। भग० ७९६ । अकण्णदीवे- अकर्णद्वीपः, अन्तरद्वीपविशेषः । स्था० २२६| अकप्प- अकल्पः, शिक्षकस्थापनाकल्पादिः । दशवै० १९६| अकप्पए- अकल्पिके, वसतिपालके। व्यव० १३ अ अकप्पडवणा- अयोग्यानीतपिंडवर्जनम्। निशी० २४२१ अकप्पणारुमणा - अकल्पनारुग्मनसः । मरण० | अकप्पे- सामायिकसंयमः अस्थितकल्पश्र्चतुर्यामधर्मो । बृह० १२५ अ अकप्पो अकल्पः, आव० ७७८१ अकृत्यम्। आव. ७६११ अकब्बरसुरत्राण मोगलनृपः । जम्बू. ८८० अकम्मंसे- अकर्माशः आव० ६१५ अकम्मंसो अकर्माश, अंश:- कर्मणोऽवयवास्तेऽपगता यस्य सः । उत्त० २५७ | अकम्म- आक्रम्य, बलात्कारेण । आव० ६६२ अकम्मगं- अकर्मकं, अविद्यामानदुश्चेष्टितं सम० ५२ "आगम- सागर-कोषः " [१] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अकम्मभूमगा-अकर्मभूमकाः, अकर्मा चोपयुञ्जानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो वीर्यविशेषः यथोक्तकर्मविकला भूमिर्येषां ते अकर्मभूमाः, ते एव सः। स्था० १०६| भग०१७ अकर्मभूमकाः। प्रज्ञा०५० सम० १३५ अकरणतयैव-अक्रिययैव संयमानुष्ठानमन्तरेण। आचा० अकम्मभूमी-अकर्मभूमिः, हैमवतादिकभोगभूमिः। १४९। प्रश्न. ९६| स्था० ११५ अकरणयाइ- अकरणेन, अपूर्वानुपार्जनेन। उत्त० ५८७। अकम्मयं-अकर्मक, अप्रमादम्। सूत्र० १६९। उत्त० ७००। | अकरणयाए- अव्यापारतयां। आचा० ३०५) अकम्मयारो-अकर्मकारी, स्वभूमिकानचितकर्मकारी। अकरणिज्जं-अकृत्यम्, असंयमं मन्दधमार्णः। आव. प्रश्न. ३६| ५३६] अकम्मा-अकर्मा, न विद्यते कर्माऽस्येति, अकरणिज्जो-अकरणीयः आव०७७८1 वीर्यान्तरायक्षय-जनितं जीवस्य सहजं वीर्यम्। सूत्र. | अकरितो-अकुर्वन्। आव० ५०९। १६८१ अकलिज्जंता-आज्ञायमाना। ओघ. १६० अकम्हा- अकस्मात्, बाह्यनिमित्तानपेक्षम्। आव. अकलुसे- अकलुषः, द्वेषवर्जितं। अन्त० २२। ६४६। अकस्मात् क्रिया, अकस्मादयत्करणम्, अकलेवरसेणि-अकडेवरश्रेणिः, कलेवरं-शरीरं क्रियायाश्चतुर्थो भेदः। आव०६४८१ अविद्यमानं कडेवरमेषामकडेगराः सिद्धास्तेषां श्रेणिरिव अकम्हादंडे- अकस्माद्दण्डः। सम० २५) श्रेणिः क्षपकश्रे-णिरिति। उत्त० ३४११ अकम्हाभयं-अकस्माद्भयम्, बाह्यनिमित्तानपेक्ष अकप्पं- अकल्पम्-असमर्थ। आचा० १०६। गृहादिष्वेवास्थितस्य रात्र्यादौ यद्भयम्। आव० ६४६। अकविल-अकपिला, श्यामा। जम्बू. ११५ सम० १३ ठाण० ३८९। अकसिणपवत्तगो-अकृत्स्नप्रवर्तकः। आव०४९३| अकयकरणो-अकृतकरणः। अनभ्यस्तविद्य। आव० अकसिणा-आचारप्रकल्पस्य अष्टाविंशतितमो भेदः। ७०३। अकृतकरणः। आव० ३४४। सम०४७। आकृत्स्ना -यत्र किंचित् झोष्यते। व्यव० १२४ अकयकिरिए- अकृतयोगोद्वहनः। निशी० २१२। आ। अकयपरलोयसंबलो-अकृतपरलोकशम्बलः। आव० ३६७। अकस्मात्- (आकस्मिकः) कः । आचा०२६६ अकयण्णुया-अकृतज्ञता। आतु अकस्मात्-कस्मादिति हेतुर्न कस्माद् अकस्मात्। अकयपुण्णे- अकृतपुण्यः। उत्त० ३२९। आचा० २६७। अकयपुण्णो-अकृतपुण्यः, अकस्माद्दण्डः-अनभिसन्धिना दण्डः। प्रश्न. १४३। अविहिताश्रवनिरोधलक्षणपवित्रा-नुष्ठानाः। प्रज्ञा० ९८ । अकस्माद्भयम्-बाह्यनिमित्तानपेक्षम्। प्रश्न. १४३। अकयमुहो- अकृताक्षरसंस्कारमुखः। बृह० २५ आ। ब्राह्मनि-मित्तमन्तरेणाहेत्कं भयम्। आव० ४७२। अकयरूवो-वक्कलपिंडठितो। निशी० ८७ अ। अकहा-अकथा, मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म वेदयन् विपाकेन अकयागम-अकृतकर्मोदयः। आव. २७४। यां काञ्चिदज्ञानी कथां कथयति सा। दशवै. ११५ अकरंडुअं-अकरण्डुकम्, अकांडे-अकाले। बृह० १५५ अ। अनुपलक्ष्यमाणपृष्ठवंशास्थिकम्। औप० १९। अकाऊण-अकृत्वा, अभणित्वा। ओघ. १५५ अकरंडुयं-अविद्यमानपृष्ठिपाङस्थिकम्। प्रश्न० ८१।। अकाम-अकामः, मोक्षः। उत्त०४१४। अकामः, अकरंडुय-अकरण्डुकः, अनुपलक्ष्य पृष्ठास्थिकः। प्रश्न. उपरोधशीलता। दशवै. १७७। निरभिप्रायः। भग० ३६| ८४१ निर्जराद्यनभिलाषी। भग० ३६| अकरणं-मैथनम्। व्यव० प्र० २५१ अ। अकामकामे-अकामकामः, कामान्अकरण-अलेश्यस्य केवलिनः इच्छाकाममदनकाम-भेदान कामयते-प्रार्थयते यः स कृत्स्नयो यदृश्ययोरर्थयोः केवलं ज्ञानं दर्शनं कामकामो न तथा अका-मकामः, अकामो-मोक्षस्तत्र मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [16] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] सकलाभिलाषानिवृत्तेस्तं काम-यते यः स तथा। उत्त० । | अकिंचणे-अकिञ्चनः, न विद्यते ४१४। किमप्यस्येत्यकिञ्चनः, निष्परिग्रहः। आचा० ४०३। अकामणिज्जराए-अकामनिर्जरया। आव०६५ अकिञ्चनं-निष्परिग्रहत्वम्। उत्त० ५९० अकामतण्हा-अकामतृष्णा। औप० ८६| अकिच्चं-अकृत्यम्, अकरणीयम्, प्राणवधस्य पञ्चमः अकामनिकरणं- अकामनिकरणम्, अकामो पर्यायः। प्रश्न. ५। मेहणं। निशी० ७९ आ। वेदनानभावेऽनि-च्छाऽमनस्कत्वात् स एव निकरणं- अनिर्वर्तनीयम्। भग० १०४॥ कारणं यत्र तदकामनि-करणं-अज्ञानप्रत्ययं, अकिडे- अकृष्टः। अक्लिष्टो वा, अविलिखितः, अनिच्छाप्रत्ययम्। भग० ३१२॥ अबाधितो निर्वेदनमिति वा। भग० १८० अकाममरणम्- बालमरणाद्यमप्रशस्तम्। उत्त० २४१। | अकित्तिम-अकृत्रिम, अकाममरणं-उत्तराध्ययनेषु पञ्चमाध्यनम्। उत्त०९। | क्रमाद्रत्नखानिसम्भूतानुप्तसम्भूतैरुप-शोभितः। अकाममरणिज्जं- उत्तराध्ययनेषु पञ्चमाध्ययनम्। जम्बू० ७० सम०६४ अकित्ती-अवर्णवादभाषणम्। बृह. ९९ आ। अकारए-अकारकः, अरोचकः। विपा० ४० अकिरियं-अक्रिया, नास्तिवादः। आव० ७६२। अकारकम्-अपथ्यम्। ओघ० १३९। ओघ० १८३। शीत- अकिरियवादी-अक्रियावादी, क्रियां-जीवादिपदार्थो लम्। ओघ० १७६। नास्ती-त्यादिकां वदितुं शीलं यस्य सः। सूत्र० २०८१ अकारिजणो-अकारिजनः। आव. १७६) अकिरिया-अक्रिया। आव० ३६८ योगनिरोधः। भग. अकारिणो-अकारिणः। आमोषाद्यविधायिनः। उत्त. १३१। अक्रिया। आव० ४१२। अवर्ण। आव० ४२९। आव. ३१३ ४१२ अकाल-अकारिणः। स्था० ३९९। अकिरिया-दुष्टक्रिया अकालपडिबोधी-रातो चेव पडिबज्झंति। निशी०४३ अ। मिथ्यात्वायुपहतस्यामोक्षसाधकमनु-ष्ठानम्। स्था० एषां न कश्चिदपर्यटनकालः। आचा० ३७७। १५३| योगरोधः। स्था० १५७। योगनिरो-धलक्षणा अकालपरिभोगी- रातो सव्वादरेण भजंति। निशी० ४३ । नास्तिकत्वं वा। सम० ५। अविद्यमानक्रियं, व्यअ। एषां न कश्चिदभोजनकालः। आचा० ३७७। परतक्रियाख्यं शुक्लध्यानचर्थभेदः। उत्त० ५८६। अकालपरिहीणं-अविलम्बेन। भग० ७३८ निर्विलम्बम्। | अकिरियाओ-अकप्पपडिसेवणं। निशी. २० अ। जम्बू० ३९७ अकिरियावाइ- क्रियाभाववादिनः, आत्माभाववादिनः, अकालसज्झायकारए-अकालस्वाध्यायकारकं। सम० चित्त-शुद्धिवादिनः। भग. ९४४॥ अकिरियावाती- एकात्मकवादयादयोऽष्टौ। स्था०४२५ अकालसज्झायकारी-अकालस्वाध्यायकारी, यः कालिक- नास्तिकाः। स्था० २६८१ श्रुतम्याटपौरुष्यां पठति, चतुर्दशमसमाधिस्थानम्। | अकीयकडं- अक्रीतकृतः, न क्रीयते-न क्रयेण साध्वर्थ आव०६१४। अकालस्वाध्यायकरणम्, कृतः। प्रश्न. १०८ पञ्चदशमसमाधिस्थानम्। प्रश्न. १४४। अकित्ती-अकीर्तिः, एकदिग्गामिन्यप्रसिद्धिः। स्था० अकालिचरिया-अकालचर्या, रात्रौ पथि गमनम्। व्यव० ४१८ भग० ४९० १९ आ। अकुऊहले-अकुतूहलः, कुहकादिष्वकौतुकवान्। उत्त. अकालियं-आकालिकं, यथास्थित्यायुरुपरमादर्वागेव। ६५१ उत्त०६३० अकुओभय- अकुतोभयः, संयमः, अप्कायलोको वा। अकाले-अकालः, मध्याहनादिः। विपा०६९। आचा० ४४ अकाहल-अमन्मनाक्षरम्। प्रश्न० १२० | अकुक्कुए-अकुक्कुचः, अशिष्टचेष्टारहितः। उत्त० १०९। ३७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [17] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अकुत्कुचः, कुन्थ्वादिविराधनाभयात्कर्मबन्धहेतुत्वेन | अक्कमइ-आक्रामति, अवष्टभ्नाति। उत्त० १३४। कुत्सितं हस्तपादादिभिरस्पन्दमानः। उत्त० १०९। अक्कमित्ता-हत्वा। भग०६३७। आक्रम्य-मिश्रीकृत्य। अकौत्कुचः- मुखविकारादिरहितः। आचा० ३१५ ओघ. १९५४ अकुक्कुयं- अकुक्कुचं, अस्पन्दमानम्। उत्त० ५८१ अक्किट्ठा-अक्लिष्टाः, स्वशरीरोत्थक्लेशवर्जिताः। अकुक्कुय-कुत्सितं कूजति–पीडितः सन्नाक्रन्दति जम्बू०१२६| कुकूजो न तथेत्यकुकूजः। उत्त० ४८६) अक्किट्ठो-अक्लिष्टः, स्वशरीरोत्थक्लेशरहितः। जीवा. अकुचो-निश्चलः। निशी. १६७ अ। ૨૮૪. अकुहिले-अणिहे। दशवै० १५११ अक्कोडियाओ- प्रवेशिताः। बृह. ३० आ। अकुट्ठो- (आक्रुष्टः)। जारजातोतिवयणेण। निशी. २९६ अक्कोस-आक्रोशः, अनिष्टवचनम्, द्वादशः परीषहः। आव०६५६। यकारादिभिः। दशवे. २६७। दुर्वचन अकुसल-अकुशलः, अनिपुणः स्थूलमतिश्चरकादिः। । परीषहः। सम०४१। दशवै०६४१ अक्कोसेज्ज-आक्रोशेत्, तिरस्कुर्यात्। उत्त० १११। अकुसलो- अप्रधानः बन्धाय संसाराय। निशी. २५ | अक्कोसो- आक्रोशः, असभ्यभाषणम्। उत्त०६२। आक्रोअकुहए- कुहगं-इंदजालादी तं न करेइत्ति वाइत्तादि वा। | शनं, असभ्यभाषात्मकः। उत्त० ८३। म्रियस्वेत्यादि दशवै० १४० वचनम्। प्रश्न. १६० अकेल्ला-राजस्तोत्रपाठकाः। निशी. २७७ अ। अक्खं-अक्षम्, चन्दनकम्। आव०७६७। अक्षाटकम्। अकोवणिज्जो-अकप्पो अदूसणिज्जोत्ति वृत्तं भवति। आव० ३४४। वराटकाः। आव०८८1 आत्मा। स्था०४९। नि १३९ । इन्द्रियम्। प्रज्ञा० ८८ अश्रीते नवनीतादिकामित्यक्षोधूः। अकोसापंतं-विकाशीभवत् औप० २०९ उत्त० २४७ अकोहणे-अक्रोधनः, अपराधिन्यनपराधिनि वा न अक्ख-अक्षः, अक्षोपाङ्गदानवच्चेति साधोरुपमानम्। कथंचित् क्रुध्यति। उत्त० ३४५४ दशवै. १८ जीवः इन्द्रियं वा। भग० २२२१ अकोहे-अक्रोधः, स्वल्पक्रोधण। जम्बू. १४८ संखाणियप्पदोसो अण्णतरं इंदियजायं वा। निशी० २५५ अक्कंडे- अकाले (आतु०) अ। अक्षं चक्रनाभिक्षेप्यकाष्ठम्। जम्बू. १७१। अक्कंता-आक्रान्ता। आव०५०४१ अवष्टब्धा। आचा० अक्खए-अक्षयम्, अविनाशी। भग० ११९। सदाभावेन, अवयविद्रव्यापेक्षया अक्षतो वा परिपूर्णत्वात्। स्था० अक्कंतितो-अडाडाए बला हरंतो। निशी० ३८ आ। ३३३ अक्कंतिया-न कुतोऽपि बिभ्यति ये स्तेना। ब्रह. ११८ | अक्खओदए- अक्षयोदकः, अक्षयसम्यग्ज्ञानोदकः। अक्कंते-अचित्तस्य प्रथमो भेदः, ओघ० १३३। आक्रान्ते- | अक्षतो-दयः, अक्षत उदयः प्रादुर्भावो वा। उत्त० ३५३। पादादिना भूतलादौ यो भवति सः। स्था० ३३६| अक्षणिक-(अक्खणिए), व्यग्रः। ओघ. १७५) अक्कंतो-आक्रान्तः, आव. २२७। अक्खणिओ- अक्षणिकः, निर्व्यापारः। दशवै० ५८ अक्कंदणं-आक्रन्दम् महता शब्देन विरवणम्। आव. अक्खति-आख्याति (गणि०)। अक्खपडिय-अक्षपतितः, अक्षपातनिका। आव०४५३। अक्क- (अर्कतुलम्) निशी० ६१ अ। अक्खपाडओ- अक्षपाटकः। जीवा० २५७। चत्रस्राकारः अक्कबोंदी-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३३ पाटकः। जीवा. २२८१ अक्कबोंदीणं-वल्लीविशेषः भग०८०३। अक्खपाद-हेतुसत्थं। निशी० ३० आ। अक्कम-आक्रमः, तदुच्छेद इतियावत्। आव०६० | अक्खमाते-अक्षमाय-अयुक्तत्वाय। स्था० १४९। अनुअक्कमणं-आक्रमणं-पादेन पीडनं। आव. ५७३। चितत्वाय असमर्थत्वाय वा। स्था० २९२। असङ्गतत्वाय २५७ اواو मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [18] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] अक्षान्त्यै वा । स्था० ३५८ | अक्खयं- अक्षयम्, सायपर्यवसितस्थितिकत्वात् ततो नाशरहितः, महावीर भग० । विनाशकारणाभावात्। जीवा० २५६॥ अक्षयाः, अवयविद्रव्यस्यापरिहाणेः । जम्बू• २५७। अपुनरावृत्तिकं । समः १२० अनाशंसाद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात्, अक्षतं वा परिपूर्णत्वात् । आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) | सम० ५| अक्खयणिहि अक्षयनिधिः, देवभाण्डागारम्। विपा० ७७| अक्खयणिही अक्षयनिधिः । आव० ३६० अक्खया- अक्षया, अक्षयत्वात् जीवा. ९९| न विद्यते क्षयो यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः सा जम्बू० २७ अक्खयायारचरित्तो- अक्षताचारचारित्री, अक्षताचार एव चारित्रं तद्वान् । आव ०७६३ अक्खरं- अक्षरम् आक- ७९३३ अक्खर अक्षरम्, न क्षरतीत्यक्षरं तच्च ज्ञानं चेतनेत्यर्थः । आव० २४ अक्खरडियत्ति- अखरंडितम् स्था• ३८६ । अक्खरपुडिया लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ ॥ अक्खरसंन्निवाति- अक्षरसंनिपातः, अकारादिसंयोगाः । " स्था० १७९| अक्खरसमं - तत्र दीर्घे अक्षरे दीर्घः स्वरः क्रियते, ह्रस्वे ह्रस्वः प्लुते प्लुतः, सानुनासिके सानुनासिकः तदक्षरसमम् । स्था० ३९६ । अक्खराणि लिपिज्ञानम्। बृह० १६३ अ , अक्खसोय- अक्षश्रोतः चक्रधुरः प्रवेशरन्धम्। भग० ३०९| अक्खा - अक्षाः, चंदनकाः । निशी० १०६अ। अनुयोगे भङ्गचारणोपकरणम्। बृह० २५३ आ । आख्या, शब्दप्रथा । प्रज्ञा० ६०० | अक्खाई- अक्षाणि, इन्द्रियाणि । प्रज्ञा० ६००| अक्खाइ - आख्याति प्रथमतो वाच्यमात्रकथनेन । जम्बू० ५४०| अक्खाइउवक्खाइया - आख्यायिकोपाख्यायिका । सम मुनि दीपरत्नसागरजी रचित आव० ३७९॥ अक्खाइयाणिस्सिया- आख्यायिकानिःसृता, यत्कथास्व संभाव्याभिधानम् । प्रज्ञा० २५६ | अक्खाइया - आख्यायिका । सम० ११९| अक्खाओ- आख्यायिका, कथानका सम० ११९॥ अक्खाग- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५। अक्खाडए- अक्खाटकः, मल्लयुद्धस्थानम् । पिण्ड० १२९ | अक्खाडगा - आखाटका, प्रेक्षाकारिजनासनभूताः । स्था० आकृष्टपरिधानवस्त्रा । प्रश्न० ५६ | अक्खित्ते - ठिता। निशी० १८६अ। अक्खित्तो- आक्षितः आव० १७91 अक्खिवणं- आक्षेपणम्, चित्तव्यग्रतापादनम् । प्रश्न. ४३| ११९| अक्खीण- अक्षीण, अक्षीणायुष्कमप्रासुकम्। भग० ३७२ ॥ अक्खाइयं- आख्यातिकम्, नामिकादिपंचसु पदेषु चतुर्थं । अक्खीणझंझए - अक्षीणझञ्झः, अक्षीणकलहः । आव ० ६६१ | [Type text] २३०| अक्खाडगे- आखाटकः, प्रेक्षास्थाने आसनविशेषलक्षणः । भग० २७१। अक्खाडगो- चतुरस्त्रः । स्था० १४५ । अक्खाणं- आख्यानं, समवसरणस्य। आव० २६८ अक्खाणग- आख्यानकम् । निशी० ७१ अ । अक्खाणयं आख्यानकं । निशी. ३४६ आ अक्खातित- आख्यायिकानिश्रितं तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः स्था० ४८९ | अक्खायं- आख्यातं, सकलजन्तु भाषाभिव्याप्त्या कथितम् । उत्तः ८० अक्खाय आख्यातम्, केवलज्ञानेनोपलभ्यावेदितम् । दश० १३६| अक्खायगो- आख्यायकः शुभाशुभमाख्याति सः जीवा. २८१| अक्खायपयं- आख्यातपदम्, साध्यक्रियापदम्। प्रश्न. ११७ | अक्खासुर्य आख्याश्रुतम्, आख्यानकप्रतिबद्ध श्रुतम् । प्रश्न० १०८ ॥ अक्खिसंति- आख्यास्यन्ति। निशी. ३५० आ अक्खित्त आक्षिप्तम्, आवर्जितम्। दशवै० १९४१ अक्खित्तनियंसणा - आक्षिप्तनिवसना, " [19] अक्खीणमहाणसितो- अक्षीणमहानसिकः । उत्त० ३३२ “आगम- सागर-कोषः” [१] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अक्खीणमहाणसियं-अक्षीणमहानसिकम। आव. २९१। २९४१ स्था० ३३२ अकिरियावाई-अक्रियावादिन क्रिया-अस्तीतिरूपा अक्खीणमहाणसी- अक्षीणमहानसी, सकल-पदार्थसार्थव्यापिनी सैवायथावस्तुविषयतया अटितभिक्षालब्ध-भोजनवान। औप० २८१ कुत्सिता, अक्रिया नञः कुत्सार्थत्वात्तामक्रियां अक्खुडिय-आस्फालितः, स्खलितः। आव० ५५५ वदन्तीत्येवंशीलाः अक्रियावादिनः, यथावस्थितं हि अक्खुंदड- चक्खिउं चुंचति। निशी० १२४ अ। वस्त्वनेकान्तात्मकं तन्नास्त्येकान्तात्मकमेव अक्खुन्नइ-आक्षुणत्ति, विलिखति। बृह० ६६अ। चास्तीति प्रतिपत्तिमन्त इत्यर्थः। स्था० ४२५१ अक्खुन्ना-अमर्दिताः। बृह० ७८ अ। नियतकृष्णपाक्षिकाः। दशाश्र. १६| अक्खे-अक्षः, शकटावयवविशेषः। भग० २७७ सम. ९८१ | अक्षः-बिभीतकः। प्रज्ञा०३१| आख्या-प्रसिद्धः। जम्बू०६२। अक्षरः- घोलना स्वरविशेषः। जीवा० १९५१ अक्खेइ-षण्णवतिरङ्गलानि एकोऽक्षः। जम्बू. ९४१ अक्षरकोविदपरिषद्-(विदवत्परिषद)। आचा० १४६। अक्खेव-आक्षेपः, प्रश्नः। भग० ११४। आव० ९७। उत्त. | अक्षरश्रुतम्- ज्ञानं इन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतग्रन्थानुसारि ५२४ तदा-वरणक्षयोपशमो वा। आव० २४ अक्खेवणि-आक्षेपणी, धर्मकथायाः प्रथमो भेदः अक्षि- नेत्रम्। आचा० ३७ आक्षिप्यन्ते मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया भव्यप्राणिन इति। | अक्खुवंजण-अक्षोपाङ्गन्यायः- चक्रोजनं। दशवै. दशवै०११०| धर्मकथाभेदः। आचा० १४५ १८० अक्खेवणी-आक्षिप्यते-मोहात्तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताs- अखंड-अखण्डः, सम्पूर्णावयवः। आव० २३९। अखण्डम्नयेत्याक्षेपणी। स्था० २१०। आक्षिप्यते-मोहात्तत्त्वं अस्फुटितम्। दशवै० १९५१ प्रत्याकृष्यते श्रोता यकाभिरिति। औप०४६। अखमे-अक्षमा, परकृतापराधस्यासहनं। भग० ५७२। अक्खेवी-आक्षेपी, आक्षिपति वशीकरणादिना यः स ततो | अखित्तं-इन्द्रकीलादियुतं ग्रामादि। बृह. ३६अ। मुष्णाति सः। प्रश्न० ४६। अखण्णा- अमर्दिता। निशी० ३३५ अ। अक्खेवो-आक्षेपः, आक्षेपणम्, आशङ्का। आव० ३७७।। अखेत्तं-छिण्णमंडवं। निशी० ३४१ आ। पूर्वपक्षः। बृह. १२५ | परद्रव्यस्य, अधर्मद्वारस्यैको- | सचित्तपृथ्व्यादिमदस्थण्डिलम्। बृह. १४० आ। नविंशतितमं नाम। प्रश्न.४३ अगंथिमा- कयलआ मरहट्ठविसये फलाण अक्खो-अक्षः, युतपासकः। आव० ५०२। फलविशेषः, कयलक्कपमाणाओ पेण्डीओ एक्कंमि डाले बहक्कीओ अनुत्त०६। भवन्ति ताणि फलाणि खंडाखडीकयाणि। निशी० ४९ अक्खोडगा- क्रियाविशेषः। निशी. १८२ अ। । अक्खोडभंगपरिहरणा-आस्कोटकभङ्गपरिहरणा, अगंधण-अगन्धनः, मानी सर्पः। दशवै० ३७) आस्फोट-कानां यो भङ्गस्तस्य प्रतिलेखनादिविधि- अगंधणा-अगन्धना, सर्पजातिविशेषः। उत्त०४९५) विराधनापरिहरणा। आव. १५२ अगंधि-दुर्गन्धि। बृह० ९९ अ। अक्खोडयं-अक्षोटकम्, अक्षोडवृक्षफलम्। प्रज्ञा० ३६४। अगइचरमे-अगतिचरमः, न गतिचरमः। प्रज्ञा. २४५ अक्खोभे- अक्षोभः, अन्तकृद्दशानां अगड-कूपः। बृह. १०९आ। अवटः खड्डा आव० ६९१। प्रथमवर्गस्याष्टमाध्ययनम्। अन्त०१। अन्तकृद्दशानां आव. २०४। कूपः। भग० २३८। जम्बू. १२३। दवितीयवर्गस्य प्रथमाध्ययनम्। अन्त०३। अगडदत्तो-अगडदत्तः, अमोघरथरथिकपुत्रः। उत्त० अक्खोलं- फलविशेषः। प्रज्ञा० ३२८१ २१३। रक्षकविशेषः। व्यव० १७० आ। अक्खोवंग-चक्रोंजनं। गणि | अगडमहेसु-कूपमहेषु। आचा० ३२८। अक्खोवंजण-अक्षोपाञ्जनम्, शकटधूर्मक्षणम्। भगः | अगडाति-अवटा-कूपाः। स्था० ८६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [20] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अगडेसु-अवटेषु, कूपेषु। प्रज्ञा० ७२।। अनभिलाषविषयभूताम्। भग० ६७२। अगडो-कूपः। निशी० ४३ अ। अवटः, कूपः। प्रज्ञा० २६७। | अगारं-अगैः कृतं गृहम्। निशी. १४० अ। गेहम्। प्रश्न. अगणि-अग्निः, इन्धनस्य प्लोषक्रियाविशिष्टरूपस्तथा | गृहम्। आव० ३२९। अगारः, गृहस्थः । आव० ३२९| विदयुदुल्काशनिसङ्घर्षसमुत्थितः अगार-अगारम्, गृहम्। दशवै०६२। सूर्यमणिसंसृतादिरूपश्च। आचा०४९। आव० ६२१। अयः अगारविय-अगारस्थितभाषा-गृहस्थभाषा। व्यव० ५४| पिण्डानुगतः। दशवै. २२८१ दशवै० १५४। अग्निभयात्- अगारधम्म-अगारधर्मम्, गृहाचारं गार्हस्थ्यम्। उत्त. प्रदीपनभयात्। ओघ०११८५ ५७८१ अगणिज्झामिय-अग्निध्यामितम्, वह्निना ध्यामितं, | अगारबंधणं- गृहपाशं पुत्रकलत्रधनधान्यादिरूपम्। श्यामी-कृतम्। भग० २१३। आचा०४२९। अगणि-झूसिए-सेवितः, क्षपितः। भग०६८३। गारत्थेहि-अगारस्थेभ्यः, अनमतिवर्जसर्वोत्तमदेशविरअगणिज्यूसिय-अग्निना शोषितं, पूर्वस्वभावक्षपणात्, तिप्राप्तेभ्यः। उत्त० २५० अग्नि-नना सेवितां वा। भग० २१३। अगारा-अगाराः, गृहिणः। स्था० ५३ अगणिपरिणामिय-अग्निपरिणामितम्, अगाराओ- गृहवासात्। जम्बू० १४५) सजाताग्निपरिणामम्। भग० २१३। अगारिसामाइयङ्गाई-अगारिणो-गृहिणः सामायिकंअगणी- अग्निः । ओघ० १५६। चतुर्दशशतके सम्य-क्त्वश्रुतदेशविरतिरूपं तस्याङ्गानिपञ्चमोद्देशकः। भग०६३०| निःशकताकालाध्ययना-णव्रतादिरूपाणि अगतं- नकुलाज्जादि। निशी. ७६अ। अगारिसामायिकाङ्गानि। उत्त० २५१। अगतो-अगदः, औषधिः। आव०८३५ अगारी-अगारी, क्षत्रियादिकः। सूत्र० १४३। गृही, अगत्थिओ- वृक्षविशेषः। अनुत्त० ५। असंयतः। स्था० १८१। जम्बू० १४५१ अगत्थिगुम्मा-अगस्त्यगुल्माः। जम्बू० ९८१ अगालिणो-अगारिणः। बृह. २८२ अ। अगत्थी-अगस्तिः , ग्रहविशेषः। जम्बू० ५३५। स्था० ७९| | अगाहा-अगाधा, अपरिमितजला। आव० ८१९। अगदो- अणेगदव्वेहि। निशी० १८ आ। प्रायोगंभी-रम्। दशवै० २२० अगमा-वृक्षाः। बृह. १८३आ। निशी० १५२ आ, १८३ | | अगिण्हियव्वं-अग्रहीतव्यम्, अनुपादेयं, हेयम्। दशवै. अगमेत्त- ज्ञात्वा, आज्ञापयेदात्मानमनासेवनयेति। ८० आचा० २१९ अगिला- अग्लानिः। नि०१७ आ। अग्लानः-उचितकअगम्मगामी-अगम्यगामी, भगिन्यायभिगन्ता। र्तव्यसहिष्णः। आचा. २८१। प्रश्न०३६। अगिलाए- अग्लान्या, अखिन्नतया बहुमानेनेत्यर्थः। अगर-अगुरुः दारुविशेषः। प्रश्न. १६२। स्था० २९९ अगरला-सुविभक्ताक्षरता। औप० ७८। अगिलायउ- अग्लान्यैव, शरीरश्रममविचिन्त्यैव। उत्त. अगरिहिअं-अगर्हणीयम्, सामायिकनवमपर्यायः। आव. ५३६| ४७४। अगीयत्थं-अपरीणामग, अतिपरिणामगाय। निशी. ४५ अगलदत्तो-अगडदत्तः। उत्त० २१५ आ। अगहणे-अग्रहणे-अकरणे। ओघ० १४९। अगीयत्थत्त-अगीतार्थत्वम्। आव. ५२ अगा-वृक्षाः। निशी. १४०। अगीयत्थो-जेण आवस्सगादीयाण अत्थो ण स्तो। अगामितं- अगामिक, अकामिक-अनभिलषणीय। स्था. निशी० २५॥ ३१४) अगुण- अगुण, अविद्यमानगुणः। दशवै० २६३। अगामियं-अगामिकां, अकामिकां वा | अगुणगुणे- वक्रता। आचा० ८६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [21] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] अगुणरिणं- अगुणा एव अनंतगुणाणं अणंति वा रिणति वा एगट्ठा तं च दशवे. ८९ आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) अगुणा- अगुणाः, मिथ्यात्वादयो दोषाः । उत्त० ४३१| अगुत्ती- अगुप्तिः, इच्छाया अगोपनम्। परिग्रहस्य त्रयोविंशतितमं नाम । प्रश्न० ९२ ॥ अगुरु- अगुरुः, सुगन्धिद्रव्यः । आव० १०१। काष्ठविशेषः । जीवा० १३६ अगुरुलहु- अगुस्कलघुकम्, अत्यन्तसूक्ष्मं भाषामन:कर्मद्रव्यादि स्था० ४७५ अगुरुलघु– यदुदयात् प्रणिनां शरीराणि न गुरूणि नापि लघुनि तत् । प्रज्ञा० ४६३१ सूक्ष्मपुद्गलद्रव्याणि जम्बू० १३० | अगुरुलहुफासपरिणामे स्पर्शविशेषः । सम० ४१| अगेहि अगुद्धि: - भोजनादिषु परिभोगकाले अनासक्तिः । भग० ९७| अगो- अगः, विपाककालेऽपि जीवविपाकियतया शरीरपुद्गलादिषु बहिःप्रवृत्तिरहितः, अनन्तानुबन्ध्यादिः । उत्त० १९| अग्गं- अयम्, अपरिभुक्तम् जीवा० २५४ अग्यम् प्रधानम्। प्रश्र्न॰ १३६। अन्तः । भग० ३५ | मूर्धा । प्रज्ञा० १०८) परिणामः । सूर्य० २८० आलम्बनम, आव० २६५ परिमाणम्। भग० ३५ | संयमतपसी मोक्षो वा । आचा० १६०| भवोपग्राहिकर्म्मचतुष्टयं आचा० १६० । प्रमाणम् । स्था० ४६२| कोटिः। उत्त० २८३ । अग्रं वरं प्रधानं अहवा जं पढमम्। निशी० १४२अ अग्ग - निर्वाणस्थानम् । आव० १४८ । द्रव्यावगाहनाद्ययेषु । आचा० ३१८ अग्गकूरमंडी- अग्रकूरमण्डी, ओदनस्योपरिभागः आव ५७५| अग्गकोडीणं- अग्रकोटयः प्रकृष्टा विभागाः । जम्बू. ९५| अग्गजायाणि अग्रजातानि, वनस्पतिविशेषः । आचा. ३४९| अग्गजिन्भा - अराजिहवा, जिह्वायं स्था० ३९५ अग्गतावसगोत्ते- अग्रतापसगोत्रम् । सूर्य० १५०। अग्गपलंब - आम्रातकफलं। बृह० १४३ आ तलादिप्रलंबा | निशी० १२४ आ । अग्गपिंडो- जड़ दिणे २दाहिसि, अग्गपिंडो अग्गकुरो । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [22] [Type text ) निशी० ९० आ । अयपिण्डम् - निष्पन्नस्य शाल्योदनादेरा-हारस्य देवताद्यर्थ स्तोकस्तोकोद्धारं । आचा० ३३६ | काक पिण्डयां आचा० ३४० | शाल्योदनामेः प्रथममुद्धृत्य भिक्षार्य व्यवस्थाप्यते । आचा॰ ३२६। अप्रवृत्ते परिवेषणे आदावेव यो गृह्यते । स्था० ५१५| अग्गबीए- अग्रबीजाः, अग्रे बीजं येषामुत्पद्यते ते तलताली - सहकारादयः शाल्यादयो वा, अग्राण्येवोत्पत्तौ कारणतां प्रतिपद्यन्ते येषां कोरण्टादीनां ते वा सूत्र- ३५०१ अग्गबीय- अग्रबीजाः, कोरण्टकादयः। दशवै० १३९ | आचा० ५८१ वीयादयः स्था० १८६ | जपाकुसुमादि । आचा० ३४९| अग्गभावे अग्रभावम्, धनिष्टा गोत्रम्। जम्बू. ५००% अग्गमहिसी - अग्रमहिषी, पट्टराज्ञी। जीवा० १६२ | स्था० ११७ | अग्गरसो- अग्ग्रः रसश्र्च, प्रधानो मधुरादिकश्र्च, अग्ग्रो रसः शृङ्गारादिकः । उत्त० ४०५ | अग्गल - अर्गलम्, गोपुरकपाटादिसम्बन्धि दशव० ९८४१ अग्गल - अर्गलः, षडशीतितमग्रहनाम जम्बू. ५३५1 अग्गलपासाया- अर्गलाप्रासादाः, यत्रार्गला नियम्यन्ते । जम्बू ० ४८ | जीवा० २०४ | अग्गला - गोवाडादीहारेसु भवति । दशकै० ८५ । अर्गला, प्रतीता। जीवा० २०४ | जीवा० ३५९ | अधिकं । उत्त० ७, ६६० अग्गलापासाय- अर्गलाप्रासादः, प्रासादे यत्रार्गला प्रविशति सः । जीवा० ३५९ | अग्गवपूरओ- परिधानविशेषः । बृह० १०२अ । अग्गविडवं- अग्रविटपम्, शाखामध्यभागाग्यं, विस्ताराग्रं वा । प्रश्न ० ९२ श अग्गसिरा- अग्रशिरः उष्णीषलक्षणम् । जम्बू० ११३ | अग्गसिंगं- अग्रशृङ्गम् आव. १७४१ अग्गहणं- अनादरः। ओघ० ९४ | बृह० २४५ अ अग्गहत्था - अग्रहस्ता, बाहोरयभूताः शयाः अनुत्त०६। अग्रहस्तौ भुजौ प्रजा० ९९| अग्गहत्यो- अग्रहस्तः, बाहवग्रभागवर्ती हस्तः । जीवा. २७५ | “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] अग्गाई-अग्याणि, सद्यस्कानि। जम्बू. २१८१ आव० ७०२। अग्निकः, भस्मकाभिधानो वायविकारः। अग्गासणे करं- अग्रासनम्, प्रतिगृहं सदक्षिणं भोजनम्। विपा०४२ आव० ६७९ अग्गियओ-अग्निः , दासचेटः। आव० ३४३। अग्गाहारो- अग्रासनम्। आव० ३०० अग्गियतो- अग्निकः, इन्द्रदत्तराजस्य दासचेटः। उत्त. अग्गिंतेण-अग्न्यन्तेन, अग्निमार्गेण। आव०७१। १४८ अग्गि-तीर्थकरविशेषशिबिका। सम० १५१ अग्गिल्लए- ग्रहविशेषः। स्था० ७९| अग्गिउत्तं- ऐरवतावसर्पिणीतीर्थकरः। सम. १५३ अग्गिवेससगोते- कृत्तिकानक्षत्रगोत्रनाम। सूर्य. १५०| अग्गिओ-अग्निकः उत्सन्नवंशज्ञो दारकः। आव० ३९२ | अग्गिगेसाणं- अग्निवेशस्यापत्यं वृद्धं अग्निवेश्यो अग्गिकुमारा- अग्रिकुमाराः, सोमस्याज्ञोपपातवचन- 'गर्गादेर्य'-निति यञ् प्रत्ययः निर्देशवतिनो देवाः। भग. १९५४ भवनपतिभेदविशेषः। तस्याप्यपत्यमाग्निवेश्यायनः। नन्दी०४८ प्रज्ञा०६९। अग्गिवेसायणे- गोशालनिशाचरः। भग०६५९। अग्गिकुमारीओ-अग्निकुर्मायः, सोमस्याज्ञोपपातवचन- अग्गिवेसे-अग्निवेश्यः, शास्त्रीयचतुर्दशदिवसनाम। निर्देशवर्तिन्यो देव्यः। भग० १९५१ सूर्य. १४७। द्वाविंशतिमुहूर्तनाम। सूर्य. १४६। जम्बू० अग्गिघरं-अग्निगृहम्। आव० २९५ ४९१। अग्निवेश्म-शास्त्रीयचतुर्दशदिवसनाम। जम्बू. अग्गिच्चा- कौशिकगोत्रभेदः। स्था० ३९०। सुप्रतिष्ठाभ- ४९०| अग्निवेश्यं- कृत्तिकागोत्रम्। जम्बू. ५०० विमानवासी अष्टमो लोकान्तिकदेवः। भग० २७१। स्था० | अग्गिसिहा-अग्निशिखम्, वनविशेषः। दशवै०१०३ ४३२१ अग्गसिहे- अग्निसिंहः, दत्तवासुदेवपिता। आव० १६३। अग्गिच्चाभे-कृष्णराज्यवकाशान्तरे अग्गिसीहे-अग्निसिंहः, लोकान्तिकविमानम्। स्था० ४३२। सम० १४। दक्षिणदिग्वर्तिनामग्निकुमाराणामधि-पतिः। जीवा. अग्गिच्चो-अग्निः , मरुत्। आव०१३५१ १७०१ स्था० ८४१ प्रज्ञा. ९४| पञ्चमो दक्षिणनिकायेन्द्रः। अग्गिज्जोओ-अग्नियोतः, पृष्पमित्रजीवः। आव. भग. १५७ १७१ अग्गिसेणं- ऐरवतावसर्पिणीतीर्थकरः। सम० १५३। अग्गिभीरू-अग्निभीरुः, प्रदयोतस्य रथः, दवितीयं अग्गिहोत्त-अग्निहोत्रः, अग्निकारिका। उत्त० ५२५ रत्नम्। आव०६७३। अग्गिहोत्तसाला-अग्निहोत्रशाला। आव० २२५ अग्गिभूई-अग्निभूतिः, अग्नियोतजीवः। आव० १७२। अग्गी-अग्निः, ग्रहविशेषः। जम्ब०५३५ वह्निः। आचा. दवितीयगणधरः। आव. २४०| श्रीवीरस्य ३३। आव. २७३। दवितीयगणधरः। भग. १५३। सम०८४| अग्गीसेणं- ऐरवतावसर्पिणी तीर्थकरः। सम. १५३। अग्गिमाणव-अग्निमानवः, उत्तरनिकाये पञ्चम इन्द्रः। | अग्गुज्जाणं-अग्रोद्यानम्, अग्न्युयानम्। आव० १९० भग.१५७ अग्गे-दसिकापर्यन्ते। ओघ० २१४१ अग्गिमाणवे-अग्निमाणवः, अग्गेई-आग्नेयी, पूर्वदक्षिणमध्यवर्तिदिक्। आव० २१५१ उत्तरदिग्वर्तिनामग्निकुमाराणामधि-पतिः। प्रज्ञा० ९४१ | अग्गेज्ज-आग्नेयः, मण्डलकोणः। सूर्य. २२॥ स्था० ८४। जीवा० १७० अग्गेणियं-द्वितीयपूर्वम्। सम० २६।। अग्गिमेह-अग्निमेघाः, अग्निवद्दाहकारिजला मेघाः। अग्गेणीयं-अग्रायणीयम्, द्वितीयपूर्वनाम। स्था० १९९) भग. ३०६। अग्गेया- वत्सगोत्रान्तर्गतं गोत्रम्। स्था० ३९० अग्गिमो- प्रथमः। ओघ० ३३ अग्गेयी-अग्निकोणः। भग० ४९३। स्था० १३३। अग्गिय- व्याधिविशेषः। निशी ६० अ। अग्गोदयं-अग्रोदकम्, देशोनयोजनार्धजलादपरि वर्द्धमानं अग्गियए-अग्निः, तितिक्षोदाहरणे प्रथमो दासचेटः। जलम्। जीवा० ३०९। षोडशसहस्रोच्छ्रिताया वेलाया यद् मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [23] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] परि गव्यूतद्वयमानं वृद्धिहानिस्वभावं तदग्रोदकम् । सम० ७५| अग्घं- अर्धम् । आव० ३०० | महार्घ्यम् । आव० ८२७ आव० २९४१ अर्घ्यम् - मूल्यम् । आव• ८२६६ अग्यंति- अर्धन्ति, महार्घन्ति। आव० ८२९ | अग्घविए- अर्धितम्, कृतमूल्यम्। दशवै० ६१। अग्घाडग- गुच्छाविशेषः प्रज्ञा० ३२१ अग्वियं- बहुमोल्लं निशी. १३९ अ अग्धेड़- अर्हति । उत्तः १४२१ अग्घेऊणं- अर्धित्वा आव• ३६१। अग्धो अग्र्ध मत्स्यकच्छपविशेषः । जीवा० ३२१| अग्निमानव- भवनपतीन्द्रविशेषः स्था० २०५१ अग्निशर्मा - यो मिथ्यादृष्ट्युपदिष्टतपसाऽपि अनन्तं कालं संसारे पर्याटत्। सूत्र० ५७। अग्निशिख भवनपतीन्द्रविशेषः स्था० २०५१ अग्निष्टोमः- यागविशेषः । दशवै० २७६ । अग्रश्रुतस्कन्धः द्वितीयश्रुतस्कंधः आचा० ३९८ अग्राह्य- अप्रमेयः । जीवा० १८७ । अघा - गर्ता ह्रदो । बृह० १०९ आ । अघोर मन्त्रविशेषः। उत्त० २६७। अङ्कुसल - अंकुशयुक्तः । (मरण०) अङ्गमंगो - अंगोपांगानि । (मरण०) अचंड - अचण्डः, सौम्यः । उत्त० ४७। - आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) अचंडो- अचण्डः, कारणविकलकोपविकलः । प्रश्न०७४ | अचक्किय- अचकिताः, अत्रासिताः । उत्त० ३५३ | अचक्खुदंसणं- अचक्षुर्दर्शनम्, चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिदर्शनम्। जीवा० १८१ अचक्खुसे- अचाक्षुषम् चक्षुरिन्द्रियाग्राह्यम् । दशवॅ. २०२ अचक्खुस्सं अनिष्टम् । बृह• ४९ आ अचक्षुषा- चक्षुर्वर्जेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा वा स्था ४४८ अचरम - अचरमः, यस्य चरमो भवो न भविष्यति सोऽचरमः । भग० २५९ | अचरमसमयनियंठो - अचरमसमयनिर्ग्रन्थः, अचरमा आदिमध्यास्तेषु यो वर्तमानः सः उत्त० २५छा अचरिमं- अचरमम् । प्रज्ञा० २३४ अप्रान्तं, मध्यवर्ति । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [24] [Type text] प्रज्ञा० २२८ अचरिमंतपएस- अचरमान्तप्रदेशः । भग० ३६६ | अचरिमो - अचरमः, अभव्यः सिद्धश्च प्रज्ञा० १४३ | जीवा० ४४४ | अचल- (अयलो) कलाशिक्षायामुदाहरणगतः पुरुषः । दशवै० १०९ | अचलेन्द्रः- मेरुः । आव० ४७ | अचले- अचलः, अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्य पंचमाध्ययनम् । अन्त० ३ | अचवचवं चवचवेतिशब्दरहितम्। प्रश्न. १९२१ अचवचवम्। अनुकरणशब्दोऽयम्। भग० २९४१ वल्कमिव चर्वयन् न चबचबावे ओघ १८७ अचवलं- अचपलम्, मानसचापल्यरहितम्। भग० १४० १ अचवलो— अचपलः, कायिकादिचापल्यरहितः । प्रश्न ७४) नाऽऽरब्धकार्य प्रत्यस्थिरः, अथवा अचपलोगतिस्थानभा-षाभावभेदतः चतुर्धा । उत्त० ३४६ अचिअत्तं- अप्रीतिकरम्। दशकै २२१| अचिअत्तकुलं- अप्रीतिकुलम्, यत्र प्रविशद्भिः साधुभिरप्रीतिरुत्पद्यते तत्कुलम् । दशकै १६६ | अचिअत्ति- यः साधुभिरागच्छद्भिर्दुः खेनास्ते ओघ० ९३१ अचित्तु आचित्य, आत्मप्रदेशः सहोपचित्य प्रश्न ९८ अचित्तं - आयुः क्षयेणाचित्तं न परसंयतार्थम् । बृह० १०६ अ। अचित्तम्, दग्धदेशादि । दशवै० १७८| अचित्तदव्वपरिज्जुण्ण- अचित्तद्रव्यपरियूनः, जीर्णपटादिः । आचा. 341 अचित्त- अचित्तमहास्कन्धः आव० ३५ अधियत्तं - अचियत्तः स्वचेतसि करोति वाचा न किमपि ब्रूते एष देशी भाषया । बृह० २४६अ। अचियत्तं - अदानशीलं | ओघ० १५६ । अप्रतीतिः । ओघ १६९| अप्रीतिकम् आव. १९१९ आक ११८a अचियत्ता - न रोचते। ओघ० १९४ । अचियत्ते - अचियत्तः, अनभिमतः सूत्र ३३७ अप्रीतिकरः। उत्त॰ ३४६। अप्रीतिकानि - नास्ति प्रीतिः साधुषु गुहमुपगतेषु येषां तानि । बृह० २३५अ । अधियत्तो- साधुन् प्रत्यप्रीतिमान्। प्रश्न. १२४॥ अप्रतीत्युत्पादकः । प्रश्न. ६४। “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अचियत्तोग्गहो- अप्रीतिकावग्रहः। आव० ३०४। आव० लेश्या वा। सूत्र. २३८ लेश्या चित्तवत्तिः । सत्र. २३४। १८९। अच्चासणयाए-अत्यन्तं सततमासनं-उपवेशनं यस्य अचिरं-स्थानम्, स्थण्डिलम्। आचा. २९४। सोऽ-त्यासनस्तद्धावस्तत्ता तया। स्था० ४४६| अचिरकालकयं-अचिरकालकृतम्, दविमासिके ऋतौ अच्चासणे- अत्यशनः, शास्त्रीयद्वादशदिवसनाम। सूर्य यदग्न्यादिना प्राशुकीकृतम्। ओघ० १२३। १४७ अचिरवत्तवाहे-अचिरवृत्तवीवाहः। सूर्य. २९२। अच्चासाइत्तए-अत्याशातयित्म्, छायाया भंशयितुम्। अचुल्ला- चुल्लीए समीवे। निशी. ३२८१ भग०१७५ अचेल-अचेलः, अल्पचेलो जिनकल्पिको वा। आचा. अच्चासायणा-अत्याशातना, किमेभिः कलहशास्त्रैरिति। २४२। अपगतचेलोऽल्पचेलो वा अचलनस्वरुपो वा। आव० ५८० आचा० २४५यः साधर्नास्य चेलं-वस्त्रमस्तीति अचेलः, | अच्चिं-ब्रह्मलोककल्पे विमानविशेषः। सम०१४। अल्पचेल इत्यर्थः। आचा० २४४। षष्टः परीषहः। आव. | अच्चि-अर्चिः, छिन्नज्वालम्। दशवै. २२८१ ६५६। मूलाग्निविच्छिन्ना ज्वाला। दशवै.१५४ अचेलकः-अवमानि, असाराणि लघुत्वजीर्णत्वादिना अनलविच्छिन्ना ज्वाला। जीवा. १०७ चेलानि-वस्त्राण्यस्येति। उत्त० ३५९। अच्चिकंतं-अर्चिःकान्तम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८॥ अविद्यमानचेलकः कत्सितचेलको वा। उत्त० ५००। अच्चिकूडं-अर्चिःकूटम, विमानविशेषः। जीवा० १३८। अचोक्खं- अचोक्षम्, अपवित्रम्। जीवा० २८२ अच्चिज्झयं-अर्चिव॑जम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८1 अचोक्षाः-पिशाचभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० अच्चिप्पभं-अर्चिःप्रभम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८। अच्चंतत्थावरा-अत्यन्तस्थावरा, अच्चिमालिं-कृष्णराज्यवकाशान्तरे अनादिवनस्पतिकाया-वृत्त्य। आव० ३६५) लोकान्तिकविमानः। सम० १४१ भग० २७१। अच्चंतिओ-आत्यन्तिकः, सर्वकालभावी। सूत्र० ३९५) अच्चिमाली-अर्चिालिः, अर्चिषां माला। प्रज्ञा० १०१। अच्चंतिया-तेन सह तत्रैवासितुकामाः। बृह. १३२ अ। अर्चिाली, चन्द्रस्य तृतीयाग्रमहिषी। जम्बू. ५३२। अच्चइओ- व्यथितः, पीडितः। दशवै०४४। शक्राग्रमहिषीराजधानी। स्था० २३१। सूर्यस्य तृतीयाग्रअच्चणिज्जं-अर्चनीयम्। सूर्य. २६७। महिषी। स्था० २०४, भग० ५०५। चन्द्रस्याग्रमहिषी। चन्दनगन्धामिभिः। औप. ५ स्था० २०४, भग. ५०५। दक्षिणपूर्वरतिकरपर्वतस्याअच्चणिज्जाओ-चन्दनादिना। भग० ३५० परस्यां शक्रदेवेन्द्रस्य शच्या अग्रमहिष्या राजधानी। अच्चणिय-अर्चनिका। आव. ३५०| जीवा० ३६५ अर्चीषि-किरणास्तेषां माला, अच्चणियवावडा-अर्चनिकाव्यापृता। आव० ८६३। साऽस्यास्तीति किर-णमालापरिवृत इति। जीवा० ३८७। अच्चंतो-विबुद्धोवि जं फुडं ण संभरति संभरतो वा चन्द्रस्य सूर्यस्य च ज्योतिषेन्द्रस्य तृतीयाग्रमहिषी। जस्सत्यं ण वि बुज्झति सो अच्चंतो। निशी० ८६अ। जीवा० ३८४। कृष्ण-राज्यवकाशान्तरे अन्त-मति-क्रान्तोऽत्यन्तः। उत्त०६२११ अनादिः। लोकान्तिकविमानः। स्था० ४३२१ द्वितीयं उत्त० ६२१। अतिक्रान्तपर्यन्तम्। उत्त०६३९। लोकान्तिकविमानम्। भग० २७१। अच्चल्लीणो-आसण्णं। निशी. १७५अ। अच्चिरावत्तं-अर्चिरावतम्, विमानविशषः। जीवा० अच्चल्लूढो-अतीव प्रज्वलिते। निशी. १७५अ। अच्चसणे-अत्यशनः, शास्त्रीयद्वादशदिवसनाम। अच्चिरुत्तरावडिंसए-अर्चिरुत्तरावतंसकम, जम्बू०४९० विमानविशेषः। जीवा. १३८५ अच्चा-प्रतिमा। बृह. २६ आ। निशी. ११७ आ। अर्चा, | अच्चिलेस्सं-अर्चिर्लेश्यम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८1 मनुष्यतनुर्भाविनी। औप० ८१। तनुः, शरीरं, पद्मादिका | अच्चिवन्नं- अर्चिवर्णम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८१ १३८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [25] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अच्चिसिंगारं-अर्चिःशगारम, विमानविशेषः। जीवा. बहवः सुखासिकयाऽवतिष्ठन्ते। जीवा. २००८ १३८ अच्छणघरगा-अवस्थानगृहकाणि। जम्बू०४५। अच्चिसिटुं-अर्चिःस(शिष्टम, विमानविशेषः। जीवा. अच्छणिउपूरे-संख्याविशेषः। भग० ८८८1 १३८1 अच्छणिउराति-संख्याविशेषः। स्था०८६) अच्ची-अर्चिः, अनलाप्रतिबद्धा ज्वाला। प्रज्ञा० २९, जीवा. अच्छणिउरे-संख्याविशेषः। भग० २१०| भग० २७५ २९। प्रथमं लोकान्तिकविमानम्। भग. २७१। अच्छणिकुरंगाति-संख्याविशेषः। स्था० ८६) कृष्णराज्य-वकाशान्तरे लोकान्तिकविमानः। स्था० अच्छणे- आसने, प्रक्रमादाचार्यान्तरादिसन्निधौ ४३२ अर्चिः, शरीरस्थरत्नादितेजोज्वाला। औप० ५०, अवस्थाने उत्त०५३५ भग. १३२ विमानविशेषः। जीवा० १३८। अच्छण्णपडिच्छण्णो-आच्छदितप्रत्याच्छादितः। जीवा. स्वशरीरगतरत्नादितेओ-ज्वाला। जीवा. १६२ अर्चिः, १४५१ लेश्या। सूत्र. १९०| दायप्रतिबद्धो ज्वालाविशेषोऽर्चिः। अच्छते-तिष्ठिति। आव०८३२| आचा०४९। अच्छभल्ल- ऋक्षः। निशी० ५८ । वनजीवा (मरण) अच्चीकरणं- गुणवण्णणं। निशी. १९५आ। अच्छभल्लो- ऋक्षः। निशी० १२९ अ। अच्चीसहस्समालिणीयं-चन्द्रप्रभाशिबिकाविशेषणम्। अच्छर-आस्तरकम, आच्छादनम्। जीवा० २१० आचा० ४२३ अच्छरसा-अच्छरसाः, अतिनिर्मलाः। जम्बू. १९२। अच्चुओ-अच्युतः, देवलोकविशेषः। आव० ११७ अच्छरा-अप्सरा, चप्पुटिका। सूत्र० ३२५। शक्रस्याग्रअच्चुत्तवडिंसगं-अच्युतकल्पगतविमानविशेषः। सम० | महिषीनाम। भग. ५०५ ४१। अच्छराणिवातो-अप्सरोनिपातः, चप्पटिका। प्रज्ञा० अच्चुदयं- अत्युदकम्, महान् वर्षः। ओघ० ३१| ६०० अच्चुयवडिसए- अच्युतावतंसकः, अच्युतदेवलोकस्य अच्छराते-शक्रस्याग्रमहिष्या राजधानीविशेषः। स्था. मध्ये-ऽवतंसकः। जीवा० ३९३। २३११ अच्चुया-अच्युताः, कल्पोपपन्नवैमानिकभेदविशेषाः। अच्छरानिवाए- अप्सरोनिपातः, तिस्रश्चप्पटिकाः। औप० प्रज्ञा०६९। अच्युतः-आयातः। ओघ० ५० १०९| चप्पुटिका। भग० २६९। जीवा० १०९। अच्चुव्वाया-परिश्रान्ताः । बृह० २११ आ। अच्छरीयं-आश्चर्यम्। आव. ३९५१ अच्चेइ-अत्येति, अतिक्रामति। आचा. १४४। अच्छवि-अक्षपि, अशरीरः, अव्यथकः। भग० ८९२। अच्छं- ऋक्षम्। आचा० ३३८ अतिस्वच्छम्। जीवा० १६० | अच्छवी-अच्वविः, अव्यथकः। उत्त. २७७, स्था० ३३६] स्फटिकवच्छुद्धम्। प्रज्ञा० ८७ अच्छह-तिष्ठत। ओघ०१५८१ अच्छंद-अच्छन्दः, अस्ववशः। दशवै. ९१| अच्छा-अच्छाः, आकाशस्फटिकवत्। स्था० २३२। अच्छंदो- यथाछन्दः, पाषण्डस्थः। आव० १९३। अच्छा-अच्छापुरी, वरणजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५। अच्छ- ऋक्षः, प्रसिद्धः। भग० १९०, निशी० १३८ आ। सनखपदविशेषः। प्रज्ञा०४५। आकाशस्फटिकवदतिऋक्षः। भग. ३०९। ऋक्षाः, अच्छभल्लाः। जम्बू. १२४। स्वच्छा। जम्बू० २० अच्छउ-तिष्ठतु। दशवै० ३७ अच्छाडेइ-आच्छादयति। आव० ४३४। अच्छणं-अवस्थानम्। बृह. २३६ अ। सन्निधौ आसनम् अच्छारियभत्तं-लावकभक्तम्। आव. २०७। | आव० ५२४१ अच्छारिया-लावकम्। आव. २०७। मूल्यप्रदानेन अच्छण-उपविश्यावस्थानम्। बृह. ११० अ। शालिलवनाय कर्मकराः, अस्तारिकाक्षेत्रे क्षिप्यन्ते ते। अच्छणए- यत्र स्वाध्यायं कर्वद्भिरास्यते। ओघ. ९४ व्यव० १६९ आ। अच्छणघरं-अवस्थानगृहकम्, यत्र यदा तदा वाऽऽगत्य | अच्छाविज्जइ-स्थाप्यते। आव०६३३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [26] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अच्छावित्तो-स्थापितः। आव० ३५२२ अच्छे-अच्छः, सुनिर्मलः, जाम्बूनदरत्नबहुलत्वात् अच्छावेइ-स्थापयति। आव०६३१ मेरुनाम। जम्बू. ३७५ ऋक्षः-अच्छभल्लः। प्रज्ञा० २५३। अच्छि- (रोडए), चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९६। अच्छेओ-अच्छेकः, अविकलः। आव० ५२७५ अच्छि-अक्षी। आव. १९२। बीजप्रदेशस्थानानि यस्याः अच्छेज्ज-आसीत। भग. ९० आच्छेदयसा निंदिता। ओघ. २१० षष्ठशबलदोषे। प्रश्न. १४४। अच्छिउं-स्थातुम्। उत्त० १५३। अच्छेज्जे-आच्छेदय-बलाद भत्यादिसत्कमाच्छिदय अच्छिक्को-अस्पृष्टः। व्यव० १८६ आ। यत्स्वामी साधवे ददाति। स्था० ४६० अच्छिचमढणं-चक्षुषोर्मीलनम्। बृह. २०७ आ। अच्छेज्जेइ-भोजनदोषः। भग०४६६। अच्छिज्जे-आच्छेद्यम्। आचा० ३२९। अच्छेण्णं-आच्छेदयं, यदाच्छिदय भृत्यादिभ्यः स्वामी अच्छिढोक्कणियं- अक्षिछादनम्। आव० ५६१। ददाति। प्रश्न. १५५ अच्छिणिउपूरंगे-संख्याविशेषः। भग०८८८1 अच्छेरं-आश्चर्यम्। जीवा० २७७। अच्छिण्णे-अच्छिन्नः, अव्यवहितः, नान्यैः शब्दान्तरै- | अच्छेरगा-आश्चर्याणि, अद्भूतानि। स्था० ५२३। तादिकैर्वाऽप्रतिहतशक्तिकः। प्रज्ञा. २९९। अच्छेरियं- आश्चर्यम्, आश्चर्यवस्तु। दशः ५५ अच्छिद्द-अच्छिद्रम्, अविरलम्, निर्दूषणं वा। भग० १३६। | अच्छो-अच्छः, स्वच्छः। सूर्य.७८ ऋक्षः। जीवा० ३८१ अच्छिद्दजालो-अच्छिद्रजालः, नाखरविशेषः। प्रश्न०७ अगुल्यन्तरालसमूहरहितः। जीवा० २७२। अच्छोड-आच्छोटनम्। ओघ० १३३१ अच्छिद्दे-गोशालकदिशाचरः। भग०६५९। अच्छिन्नछेयनयाई-अच्छिन्नच्छेदनयिका-सूत्रविशेषः। अच्छिद्रपाणि-प्रतिमापन्नो जिनकल्पिको वा। आचा० सम० १२८ २७७ अजगर- अजगरः, शयुपर्यायः, उरःपरिसर्पविशेषः। प्रश्न. अच्छिन्न-अच्छिन्नः, अपृथग्भूतः। स्था० ४७२। ७ सम० १३५) अच्छिपत्ताई-अक्षिपत्राणि, नेत्ररोमाणि। जम्ब०८११ अजज्जो-अज्य्यः , जेत्मशक्यः । उत्त० १६९। जीवा. २३४॥ अजताभासविवज्जी-अयताभाषाविवर्जी, अच्छिफुल्लयं-अक्षिपुष्पिका। निशी० ७ अ। दुष्टवाक्परिहर्ता। आव० ७७५) अच्छियं-वृक्षविशेषफलम्। आचा० ३४९। अजयं-अयतम्, अनुपदेशेन। दशवै० १५६। अणुवएसेण। अच्छियाइओ-स्थितवान्। आव०६८३।। दशवै.७० अच्छिरे- चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त० ६९६। अजय-अयतः, अयत्नपरः। ओघ० ३७ तत्तत्पापस्थानेअच्छिरोडा- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ भ्योऽनुपरतः। उत्त. १९४१ चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ अजरणं-अजीर्णम्। आव०१३१| अच्छिवेयणा-अक्षिवेदना, नेत्रपीडा। भग. १९७५ अजवणिज्जोदए-अयापनीयोदकाः, अयापनीयंनयापनाअच्छिवेहए-चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९६| प्रयोजनमदकं येषां ते। भग० ३०६। अच्छिवेहा-चरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२ अजसो- छायाघातः। बृह. ९९ अ। अच्छिवेहो- अक्षिवेघः, चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा. अजहण्णमणुक्कोसे- अजघन्योत्कृष्टः, अजघन्योत्कृष्ट-स्थितिः। आव० ३३५ अच्छुत्ता-उद्धृत्य। निशी० १४आ। अजाकृपाणीयम्-अवितर्कितसम्भवो न्यायविशेषः। अच्छुरंति-आस्तृण्वन्ति। ओघ० ८३॥ आचा० १८१ अच्छुरलभे- प्रचुरलाभे। निशी. १४ आ। अजाणंतिया-अजानती पार्षत् जे होइ पगयसुद्धा। बृह. अच्छुढं-अक्षिप्तम्। ओघ० १६५ ५८ । રરા मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [27] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] । स्था०४३| अजाणू- अज्ञस्य अज्ञानात् वा व्यावृत्तिः। स्था० १७४।। रा-दिभिः निसर्जनम्। स्था०४३। अजाता-उत्तरगुणैश्चाधाकर्मादिभिरशुद्धा। ओघ. १९३। | अजीवपासिया-अजीवप्रादवेषिकी, अजीवस्योपरि अजायकप्पिओ-अजातकल्पिको, अगीतार्थः। बृह० ११२ | प्रद्वेषाद्या क्रिया प्राद्वेषकरणमेव वा। भग० १८२। आ। अजीवे पाषाणादौ स्खलितस्य प्रेदवेषाद अजीव अजाया- अजाता, प्रादेषिकी। स्था०४१। याऽतिरिक्तनिरवदयाहारपरित्यागविषया। आव०६४१ । अजीवपाओगिअं-अजीवप्रायोगिकम, अजीवप्रयोगेन अजिओ-अजितः, परीषहोपसर्गादिभिर्न जितः, | निवृत्तं, जीवप्रायोगिकदवितीयभेदः। आव० ४५७। द्वितीयजिनः, यस्मिन् गर्भे सति माता अजीवपारिग्गहिया-अजीवपारिग्रहिकी, पारिग्रहिकीराज्ञाऽजिताऽतः। आव० ५०२ क्रियाया द्वितीयो भेदः। आव०६१२१ अजिणं-अजिनं, चर्म। सूत्र. ३०७, आचा०७१। अजीवमिस्सिया-अजीवमिश्रिता, प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु अजिण्णओ- अजीर्णम्। आव० ३५२॥ जीवत्सु एकत्र राशीकृतेष-अहो महानयं मृतो अजिम्हं-अमन्दम्। प्रश्न० ८४ जीवराशिरिति भाषा। प्रज्ञा० २५६) अजिम्ह-अमन्दे, भद्रभावतया निर्विकारचपले। जम्बू. | अजीवमीसए-अजीवानाश्रित्य मिश्रमजीवमिश्र। स्था० ११५ ४९० अजियसंतित्थयं-अजितशान्तिस्तवः। आव०६३८१ | अजीवमीसग-अजीवमिश्रा, सत्यामृषाभाषाभेदः। दशवैः अजियसेणं- ऐरवतावसर्पिणीतीर्थकरः। सम. १५३ २०९। अजियसेणे-अजितसेनः, अज्ञातोदाहरणे कौशाम्बीराजा। | अजीववेयारणिया-पुरुषादिविप्रतारणबुद्ध्यैक्वाऽजीवं आव०६९९। अतीतोत्सर्पिणीकुलकरः। सम० १५० भणत्येतादृशमेतदिति। स्था० ४३। अलोभोदाहरणे श्रावस्त्यामाचार्यः। आव०७०१। वसंतपुरे | अजीवसामंतोवणिवाइया-अजीवसामन्तोपनिपातिकी, नृपः खङ्गप्रमादिसैनिकशिक्षकः। प्रज्ञा०४४१| सामन्तोपनिपातिकीक्रियाया दवितीयो भेदः। आव. अजियं-अपराजितां (आज्ञां)। आव० ५९६) ६१३ अजिरं-अङ्गणम्। प्रश्न. १३८ अजीवसाहत्थिया- यच्च स्वहस्तगृहीतेनैवाजीवेनअजीरं-अजरणम्। ओघ०६३ खङ्गादिना जीवं मारयति सा अजीवस्वाहस्तिकी। अजीरगं- अजीर्णत्वम्। आव० ६५५। स्था०४२ अजीरय-अजीर्णम्। भग. १९७। अजीवारंभिया-जीवकडेवराणि अजीर्णम्-रोगविशेषः। जीवा. २८४। पिष्टादिमयजीवाकृतींश्चवस्त्रा-दीन वा आरभमाणस्य अजीव-अजीवाः, जीवविपरीतस्वरूपाः। प्रज्ञा०७ सा अजीवारंभिकी। स्था०४१। अजीवअपच्चक्खाणकिरया- यदजीवेष अजुतं- अयुतम्, चतुरशीतिरयुताङ्गशतसहस्राणि। मद्यादिष्वप्रत्या-ख्यानात् कर्मबन्धनं सा जीवा० ३४५ अजीवाप्रत्याख्यानक्रिया। स्था०४१। अजुतंग-अयुताङ्गम्, चतुरशीतिरर्थनिकुरशतसहस्राणि। अजीवकरणं- अजीवभावकरणं, जीवा० ३४५१ परप्रयोगमन्तरेणाभ्रादे नाव-र्णान्तरगमनम्। आव. | अजुत्तं-अयुक्तम्, अनुपपत्तिक्षमम्, सूत्रदोषविशेषः। ४६४। आव० ३७५ अजीवकिरिया-अजीवक्रिया, अजीवस्य-पद | अजुत्तो-अनुपयुक्तः। बृह. ६ आ। गलसमदायस्य यत्कर्मतया परिणमनं सा अजुरणया- शरीरापचयकारिशोकानुत्पादनेन। भग० अजीवक्रिया। स्था०४०|| ३०५ अजीवणेसत्थिया-अजीवनैसृष्टिकी, यत्तु काण्डादीनां | अजो-अजः, छगलको विखुरश्चतुष्पदः। जीवा० ३८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [28] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अजोगवं- अयोगवम्, वैश्याशूद्राभ्यां जातो वर्णः। आचा० अधुनातनतया वर्तमानकालतया। भग० ६५६) अज्जपयं-आर्यपदम, शुद्धधर्मपदम्। दशवै० २६९। अजोगी-अयोगी, निरुद्धयोगः, शैलेश्यां गतो | अज्जप्पभिई-अद्यप्रभृति, ह्रस्वपञ्चाक्षरोगिरणमात्रकालं यावत्, भूतग्रामस्य सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकालादारभ्याद्य यावत्। आव० चतुर्दशं गुणस्थानम्। आव०६५० ८१११ अजोणिब्भूए- अयोनिभूतम् विध्वस्तयोनि, प्ररोहा- अज्जभावे-आर्यभावः क्षायिकादिज्ञानादियुक्तः। स्था० समर्थम्। दशवै०१४० २०९। अजोसिया-अजुष्टा, असेविता, क्षयं वा अज्जमंगू-आर्यमङ्गः, ऋद्धिरससातगौरवदृष्टान्ते अवसायलक्षणमतीता। सूत्र०७०| मथुरायामाचार्यः। आव० १७९। अवसन्नाचार्यः। निशी. अज्जहिज्जो-अद्यश्वः। आव०७१५१ ३५१ अ। आचार्यातिसेवकः दुर्बलाऽऽचार्यः व्यव० १७४ अज्ज- अद्य, आरब्धः, उत्त० ३६३। आर्यः आ। आरात्सर्वहेय-धर्मेभ्यो यातः- प्राप्तो गणैरित्यार्यः। अज्जमणग-आर्यमणकः, आर्यश्चासौ मणकश्चेति प्रज्ञा० ५भावाराधन-योगादारादयातः सर्वहेयधर्मेभ्य विग्रहः, षण्मासैदशवैकालिकस्याध्येता। दशवै० २८४| इत्यार्यः। दशवै. २८४। आर्या–प्रशान्तरुपा चण्डिका। । अज्जमहागिरि-स्थूलभद्रदत्तगणधारकाचार्यः। निशी. भग० १६४१ अद्य-सान्प्रतम्। जम्बू. २४६, आचा० १५८ | २४३ ॥ आर्यः-(गौतमः)। आचा० १५८ अज्जमहागिरी-आयरिओ। निशी० ४४ आ। पापकर्मबहिर्भूतत्वेनापापः (क्षेत्रादिभेदेन नवधा)। स्था.. अज्जमूलं-आर्यमूलम, मातामहपादमूलम्। आव०६८४। ર૦૮ अज्जय-आर्यकः, पिता। उत्त० ९८ आव० ३०५ भग० अज्जए- हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३| ४७०| आव० ३५७ अज्जकण्हा-आर्यकृष्णाः , आचार्या। उत्त. १७८ अज्जयमंजरी-आर्यमञ्जरी। आव० १२५ अज्जकण्हो-आर्यकृष्णः, आचार्यः आव० ३२३। अज्जरक्खितो- मातृकानुज्ञाकृदाचार्यः। निशी० १०९| अज्जकालका-नाम आयरिया। बृह. ३९ अ। अज्जरक्खिय-आर्यरक्षित गोष्ठामाहिलप्रेषकाचार्यः । अज्जकालगायरिए- चतुर्थीप्रवर्तको युगप्रधानः। निशी. निशी० ३३५ आ, १०१ आ। उज्जयिन्यामचेलकत्वे। ३३९ आ। (मरण०)। आचार्यविशेषः। व्यव० ३१९ अ। अज्जकालगो-आर्यकालकः। आव० ३६९। अज्जव-आर्जवम्, परस्मिन्निकृतिपरेऽपि अज्जकालय-प्रज्ञादृष्टान्तः। (मरण०) मायापरित्यागः। दशवै. २६३। अज्जखउडो-विद्यासिद्ध आचार्यः। निशी० ३०४ अ, अज्जवइरा-आर्यवज्रः, वात्सल्योदाहरणे आर्यः। दशवै. निशी० २७६ अ, निशी. १६ अ। आर्यखप्टः, विद्यासिद्ध | १०३ आचार्यविशेषः। आव०४१११ अज्जवइरो-आर्यवैरः। आव. २८५। आर्यवज्रः, अज्जगो-आर्यकः, वनस्पतिविशेषः लोके आजओ। युगप्रधानः। आव० ३०२ आर्यवैरः, चैत्यभक्तिदवारे जम्बू. ४२४। प्रत्येकवनस्पतिविशेषः। निशी० ६० अ। आचार्यः। आव०५३६| अज्जगोविंदो-आर्यगोविन्दः, अज्जवट्ठाणा-आर्जवम्, ऋजोः रागद्वेषवक्रत्ववर्जितस्य मिथ्योपस्थितायामदाहरणम्। आव० ८६१| सामायिकवतः कर्म भावो वा आर्जवः संवर इत्यर्थः, अज्जचंदणा-आर्यचन्दना, आर्याविशेषः, यस्याः पार्वे तस्य स्थानानि-भेदा आर्जवस्थानानि संवरभेदाः। स्था० मृगावत्याः केवलोत्पत्तिः। आव० ४८५, निशी० १३४ ३०२। आ। अज्जवे- आर्जवम्, ऋजुता योगसङ्ग्रहे दशमो योगः। अज्जत्ताए- आर्यतया, पापकर्मबहिर्भूतया अद्यतया वा | आव० ६६४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [29] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ११५ अज्जसमिओ- आर्यसमितः, सुनन्दाभ्राता। आव० २८९। | ३३ आर्यसमितः। उत्त० ३३३ | अज्जुणए- अर्जुनकः, राजगृहे मालाकारविशेषः। अन्त० अज्जसमिया- आर्यसमिताः, वज्रस्वामिनो मातुलाः। १८१ आव० ४१२ अज्जुणओ-अर्जुनकः, गोशालपरावर्तिस्थानम्। भग० अज्जसमुद्दा- आचार्यातिशेषानतिसेवि। व्यव० १४७ अ। ६७४। निशी० १५१ अ। अज्जुणमालार- अर्जुनमालाकारः, आक्रोशसहः। (मरण०) अज्जसामस्य- आरात्सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः-प्राप्तो अज्जुणसुवण्णं- अर्जुनसुवर्णं, श्वेतकाञ्चनम्। औप० गुणैरित्यार्यः स चासौ श्यामश्च आर्यश्यामः, तस्मै। प्रज्ञा०५१ अज्जुणस्स- गौतमगोत्रो गोशालगृहीतत्यक्तशरीरः। अज्जसुहत्थी-आर्यसुहस्ती, भग०६७३। योगसंग्रहेऽनिश्रितोपधानदृष्टान्ते आर्यस्थूलभद्रस्य अज्जुण्णो- अर्जुनः, सुघोषनगरनृपतिः। विपा० ९५॥ लघुः शिष्यः। आव० ६६८। स्थूलभद्र अज्जुन्ने- गोशालकदिशाचरः। भग०६५९। दत्तगणधारकाचार्यः निशी. २४३ अ। आयरिओ। अज्जे-आर्यः। उत्त. २८६। अदय, आर्य, स्वामिन्। भग. निशी० ४४, बृह. १५३ आ। १७६| अज्जसुहम्मे-आर्यसुधर्मा, महावीरस्यान्तेवासी अज्जो-आर्यः, पितामहः, तीर्थकराणाम् प्रथमः। आव. स्थविरः। प्रश्न । १६८ आर्यः। आव०७९३| श्रीवर्द्धमानस्वामी। जम्बू. अज्जहिज्जो-अद्ययः (श्वः)। आव०६९२ ५४११ अज्जा-तुलसीसमो वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। अज्जोत्ति-आरात्पापकर्मभ्यो याता आर्यास्तदामन्त्रणं मनिस्-व्रतजिनप्रवर्तिनीनाम। १५२ आर्या, हे आर्या। स्था० १३५ सप्तचतुःकलगणादि-व्यवस्थानिबद्धा मात्राछन्दोरूपा। | अज्जोरुह-हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३ जम्बू. १३८१ अज्झत्त-अध्यात्मम्, चेतः। दशवै. १६) अज्जाकल्प-आर्यानीतम्। (गणि०) अज्झत्थं- अध्यात्मम्, सुखदुःखादि। आचा० ७६| आत्मअज्जाघरे-आर्यागृहे। स्था० ३७२। विषयः। जीवा. २४२। आत्मस्था मिथ्यात्वादयः। उत्त. अज्जावेयव्वा-आज्ञापयितव्याः। आचा० १७८। ४०२। अन्तःकरणम्। आचा० २९०| अध्यात्मम्। आचा० अज्जासाढो-आर्याषाढः, स्थिरीकरणोदाहरणे उज्जयि- २०८। आध्यात्मक्रियायत्केनापि न्यामार्याषाढः। दशवै० १०३। वत्सभूम्यामाचार्यविशेषः। कथञ्चनाप्यपरिभूतस्य दौर्मनस्यकरणम्। स्था० ३१६| उत्त०१३३। आचार्यः। आव० ३१५ अध्यात्मः-परिणामः। व्यव०१८१ आ। अध्यात्मम्अज्जिए-आर्जिका, आर्यिका मातुः पितुर्वा माता। दशवै. मनः। स्था०५१ २१६| अज्झत्थदंडे- अध्यात्मनिष्पन्नम्, शोकायभिभवः। अज्जिया- पितामही मातामही वा। बृह. ५८ आ। माउ प्रश्न. १४३ पिउ वा जा माता सा। दशवै. १०९। अज्झत्थनिप्फन्नं-अध्यात्मनिष्पन्नम, अध्यवसानोद अज्जिया-आर्यिका। आव०७९३। गतम्। दशवै० २२६। अज्जियालाभो-आर्यिकालाभः, आर्यिकाभ्यो लाभः। अज्झत्थवयणं-अध्यात्मवचनम्, अभिप्रेतमर्थं गोपयिआव० ५३५ तुकामस्य सहसा तस्यैव भणनम्। प्रश्न. ११८। यदन्यअज्जुण-अर्जुन, वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२। अर्जुनाभिधानं । च्चेतसि निधाय विप्रतारकबध्याऽन्यदबिभणिषरपि यत्पाण्डुरस्वर्णम्। जम्बू. २४२। बहुबीजविशेषः। भगः | सहसा यच्चेतसि तदेव ब्रूते तत्। प्रज्ञा० २६७, आचा. ८०३। चौरविशेषः। व्यव० १७० आ। तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३८७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [30] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ३१ अज्झथिए-अध्यात्मिकः, अभ्यर्थितः। विपा० ३८१ प्रस्तावादा-त्मनः, निरुक्तविधिना। उत्त०६) अध्यात्मिकः-आत्माश्रितः। भग० ४६३। आध्यात्मिकः- निरुक्तविधिनाऽर्थनिर्देश-परत्वाद्वाऽस्य क्रियास्थानविशेषः। सम० २५१ अयतेरेतेर्वाऽधिपूर्वस्य। उत्त०७। नाम। सूर्य. ९, १४६। अज्झत्थिओ- आध्यात्मिकः, आत्मविषयः, सकल्प- आव० ७१५) अध्यात्मानयनाच्चेतसो विशुद्ध्यापादनात् विशेषः। जीवा. २४२ । दशवै. १३८। अनेन करणभूतेन सार्बोधसंयअज्झत्थियं-अध्यवसितं, सङ्कल्पम्। आव०६६९। ममोक्षान्। प्रत्यधिकं गच्छति यस्मादेवं आध्यात्मिक-अन्तःकरणोद्भवम्। सूत्र० ३११| तस्मादध्ययनम्। दशवै० २६। अध्यात्मानयनं, अज्झत्थीओ- अध्यात्मस्थः। आव० ३४९। अधिगम्यते परिच्छिदयन्ते वा अर्था अज्झत्थेव-अध्यात्मन्येव, ब्रह्मचर्ये व्ववस्थितः। अनेनेत्यधिगमनमेव प्राकृतशैल्या तथाविधार्थप्रदर्शआचा० २०८१ कत्वाच्चास्य वचसोऽध्ययनमिति, अधिकं अज्झत्थो-आध्यात्मिकः, आत्मन्यध्यध्यात्म-तत्रभवः नयनमधिकन-यनं चाध्ययनम्। दशवै०१६) दण्डविशेषः। सूत्र. ३०६। अध्यात्मानयनं-अध्ययनश्रु-तनाम। दशवै०१६) अज्झप्पं-अध्यात्म, सद्भावनारूढं चित्तमेव। प्रश्न शास्त्रम्। दशवै० २८४। १३४ आध्यात्मिकं, आत्मन्यधीत्यध्यात्म तत्र भवम्। अज्झल-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ आन्तर-शक्तिजनितं सात्त्विकं। सूत्र. १६७। अज्झवसाए-अध्यवसायः, सूक्ष्मो मनःपरिणामसमुत्थः। आत्मानमधिकृत्यात्मा-लम्बनम्। प्रश्न. १२८। मनः। आचा०६८ सूक्ष्म आत्मनः परिणामविशेषः। आचा. सूत्र०६५। अधि आत्मनि वर्तत इति अध्यात्मध्यानम्। आव०७७४। रूढितो मनः। उत्त०७। आत्मनि। | अज्झवसाणं-अध्यवसानं, अन्तःकरणप्रवृत्तिः। सूत्र उत्त० ६१८। चेतः। आव० ५२५। धर्मध्यानादिकम्। सूत्रः | ३४०| मनोविशेषः। औप. ९९। जीवा० १३० २६९। मनः। आचा० २१९| आत्मनि। उत्त०४६५ मनः अन्तःकरणसव्य-पेक्षम्। आव०१८४१ उत्त०५९१ रागस्नेहभयभेदानि अध्यवसानानि। आव २७२ अज्झप्पजोग- अध्यात्मयोगः। (महाप्र०) अध्यवसायाः। प्रज्ञा० ५४३। श्रवणविधिक्रिअज्झप्पजोगसाहणजुत्ते-अध्यात्मयोगसाधनयुक्तः, याप्रयत्नविशेषरूपम्। औप०६० मन एकाग्रतालम्बनम् अध्या-त्म-मनस्तस्य योगा-व्यापारा | आव० ५८३। रागस्नेहभयात्मकोऽध्यवसायः। स्था० धर्मध्यानादयस्तेषां साधनानि एकाग्रतादीनि तैर्युक्तः। ४०० उत्त०५९१। अज्झवसाणावरणिज्जाणं-भावचारित्रावरणीयानि। भग. अज्झप्पज्झाणं-अध्यात्मध्यानं, अमकोऽहं अमककुले ४३३ अम-गसिस्से अमुगधम्मट्ठाणठिइए न य अज्झवसाणेहि-अध्यवसानैः, मनःपरिणामैः। जम्ब० तव्विराहणेत्यादिरूपम्। प्रश्न. १२८१ २७९ अज्झप्परए-अध्यात्मरतः, प्रशस्तध्यानासक्तः। दशवै. | अज्झवसिए- अध्यवसितम्, २६७। परिभोगक्रियासंपादनविषयम्। भग० ८९। अध्यवसानम् अज्झप्पसंवुडे- अध्यात्मसंवृतः, स्त्रीभोगादत्तमनाः , प्रयत्नविशेषः। भग०८९। सूत्रार्थोप-युक्तनिरुद्धमनोयोगः। आचा० २१९। अज्झवसियं-अध्यवसितं, क्रियासंपादनविषयम्। औप० अज्झप्पे-अध्यात्मनि, आन्तरम्। सूत्र. २३० ६० अज्झयणं-अध्ययनम्। विशिष्टार्थध्वनिसन्दर्भरूपम्। अज्झाइतं- अधीतम्। आव० ३४७ जीवा०४। स्था०६। पाठः। आव०७३२ सज्झाओ। अज्झाय-अध्यायः भग० ४। कबुद्धीनां मनःपीडानां वा दशवै० १२५। स्वस्वभावे आनीयतेऽनेनेति आनयनं । आयः। भग० ४। पाठः। उत्त०७१३। शास्त्रोऽशविशेषः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [31] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आव०६८ अध्ययनानि। उत्त०७१२ अज्झोववन्ने-अध्युपपन्नः तदेकाग्रतां गतः। भग. अज्झारुहो- अध्यारुहः, वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु २९२। मूर्छितः। विपा० ३८ कर्मोपादाननि-ष्पादितेषु उपर्युपरि अध्यारोहतीति, अज्झोववन्नो- अध्युपपन्न। आव० ३९९। वृक्षोपरिजातो वृक्षः, वल्लीवृक्षाभिधानः अज्झोववाय-अध्युपपातः, ग्रहणैकाग्रचित्तता। प्रश्न. कामवृक्षाभिधानो वा वृक्षः। सूत्र० ३५२। १५३ अज्झावसित्त-अध्यष्येति। स्था० ३५१| अज्झोवात- अध्युपपातः-श्रद्धा। व्यव० २१७ आ। अज्झियगं- उपयाचितकं। बृह. ७४ आ। अझंझपत्ते-अझञ्झाप्राप्तः, अकलहप्राप्तः अज्झीणं- अक्षीणम्। अक्षीणश्रुतनाम। दशवै० १६) सम्यग्दृष्टिर्वा। सूत्र. २३४। वीतरागः। सूत्र० २३५ यद्दीयमानं न क्षीयते स्म तद् अक्षीणम्। स्था०६। अन्नाउञ्छवित्ती- अज्ञातोञ्छवृत्ति, कुले कुले भिक्षणम् अज्झ्ववातो-अगमगमणासवणे वि (आसक्तिः )। निशी० । । उत्त०४०४। ७१ आ। अज्ञानम्-अनाभोगः, अननस्मरणं वा। दशवै. १७९| अज्झुसिरं-अशुषिरम्-अग्गंथिला दशिका निषद्या च। अट्टं- आतम्, संक्लिष्टाध्यवसायः। दशवै० १४। ऋतस्य ओघ० २१४१ पीडितस्येदं वचनमिति कृत्वा। अधर्मद्वारस्य अज्झुसिरे-तृणादिच्छन्नं न। ओघ० १२३॥ षोडशनाम। प्रश्न. २६। आतध्यानंअज्झुसिरो- गृहिसीवनिकारहितः प्रतिथिग्गलरहितो वा। शोकाक्रन्दनविलपनादिलक्षणं ध्यानम्। आव० ५८२। बृह. २५२ आ। अट्टहासं-अट्टाट्टहास्यम्। आव० १९१| अज्झोअर-अध्यवपूरकम्, स्वार्थमूलाद्ग्रहणप्रक्षेपरूपम्। अट्टहासो-अट्टहासः आव० ८३०| दशवै०१७४| निशी० १४२ आ। अट्टणसाला- व्यायामशाला। भग० ५४२ अट्टनशाला। अज्झोयरए इ-भोजनदोषः। भग० ४६६। औप०६५ स्वार्थमूलाग्रहणे साध्वाद्यर्थं अट्टणे- अट्टनः, योगसङ्ग्रहे आलोचनादृष्टान्ते कणप्रक्षेपणमध्यवपूरकः। स्था० ४६० उज्जयिन्यां मल्लविशेषः। आव०६६४। अज्झोवगमियाए-आभ्युपगमिकी, प्रव्रज्याप्रतिपत्तितो | अट्टणो- अट्टनः, उज्जयिन्यां जितशत्रुराजमल्लः। उत्त० ब्रह्मचर्यभूमिशयनकेशलुञ्चनादीनामङ्गीकारेण १९२२ निर्वृता वेदना। भग०६५ | अदुहट्टवसट्टे-आतंदुःखार्तवशातः। उत्त० ३३११ अज्झोववज्जति-अध्युपपद्यन्ते-तदेकचित्ता | अदुहट्टा- आतंदुःखस्थिताः, आर्तदुःखार्ताः। आव. भवन्तीति तदर्जनाय वादिक्येनोपपदयन्ते उपपन्ना ३९५१ घटमानाः। स्था० २९२॥ अदृदुहट्टो-आतदुःखातः। आव० २८८१ अज्झोववज्जणं-अध्युपपादनं, क्वचिदिन्द्रियार्थेऽध्युप-। अनियट्टियचित्ता-आतनिर्वतितचित्ताः, आत पत्तिरभिष्वङ्गः। स्था० १७४। निर्वतितं चित्ते यैस्ते तथा, आर्तादवा। निर्वर्तितं अज्झोवज्जिज्ज- अभ्युपपद्यत, अभिष्वङ्गं कुर्यात्।। चित्तं यैस्ते। भग. १२११ दशवै०४५ अट्टमगा-अभिमारकाः। निशी० ११ । अज्झोववण्णं- अध्युपपन्नः, अट्टवसट्टा-आर्तवशार्ताः। आव० ३८८1 विषयपरिभोगायत्तजीवितः। आचा० ७८। अट्टहासं-अट्टहासम्। आव० ६३४। अज्झोववण्णो-अध्यपपन्नः, आसक्तः। ओघ. १९४| अट्टाः- आर्ताः, दुखिनः रागद्वेषोदयेन। आचा० १८३। अध्यपपन्नः । आव०३५१, ९२२ अट्टाल-प्राकारसम्बन्धिन्यट्टालादौ। आचा० ४११। अज्झोववन्नं- अध्युपपन्नः, आसक्तः। दशवै०४५) अट्टालकं- प्राकारकोष्ठकोपरिवति आयोधनस्थानम्। अप्राप्ताहारचिन्तामाधिक्येनोपपन्नः। भग० ६५० उत्त०३११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [32] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] । अट्टालक-अट्टालकः, प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषः।। अहमिया-अष्टावष्टमानि। सम०७७। अष्टावष्टमम्। जीवा० १५९। स्था०४४० अट्टालका- प्राकारस्योपर्याश्रयविशेषाः। सम० १३७ अट्ठपयंति- अनुभागसंक्रमस्वरूपनिर्धारणम्। स्था० २२२ अट्टालगं-अट्टालकं। जीवा. १६९।। अट्ठपिट्ठपुट्ठा(निट्ठिया)-अष्टवारपिष्टप्रदाननिष्पन्ना। अट्टालग-अट्टालकः, प्राकारोपरिवर्ती आश्रयविशेषः। जीवा० ३५११ प्रश्न० ८। अट्टालकम, प्राकारोपर्याश्रयविशेषः। भग. अट्ठपिडणिट्ठिया-अष्टपिष्टनिष्ठिता, अष्टभिः ર૩૮. शास्त्रप्रसिद्धैः पिष्टैर्निष्ठिता। प्रज्ञा० ३६४। अट्टालगा-पागारस्स अहे अट्ठहत्थो मग्गो। निशी० २६५ | अट्ठफास-अष्टस्पर्शम्, बादरपरिणामम्। भग. ९६। अट्ठभाइया-अष्टमभागमात्रो मानविशेषः। भग०३१३ अट्टालगो-अट्टालकः, प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषः। अट्ठमंगलए- अष्टमङ्गलकानि, अष्टेति संख्याशब्दः, जीवा० २५८१ अष्टमङ्गलकानीति चाखण्डः संज्ञाशब्दः। जम्बू. १९२ अट्टालयं-अट्टालकं। आव० ३७५ अट्ठमभत्तं- अष्टमभक्तम्, त्रिरात्रोपवासः। आव० २२८१ अट्टालय- अट्टालकाः, प्राकारस्योपरिवाश्रयविशेषाः। समयपरिभाषयोपवासत्रयं, यदवाऽष्टमभक्तमिति जम्बू०७६, १०६। औप० ३। प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयवि- सान्वयं नाम, तच्चैवम्-एकैकस्मिन् दिने शेषाः। प्रज्ञा० ८६। प्राकारस्योपर्याश्रयविशेषः। जीवा० । द्विवारभोजनौचित्येन दिनत्रयस्य षण्णां २७९। भक्तानामुत्तरपारणकदिनयोरेकैकस्य भक्तस्य च अट्टालयसंठिओ-अट्टालकसंस्थितः। जीवा० २७९। त्या-गेनाष्टमं भक्तं त्याज्यं यत्र। जम्बू. १९७५ अट्टे झाणे-ध्यानस्य प्रथमो भेदः। भग० ९२३। उपवासत्रयस्य संज्ञा। जम्बू. १९८१ अट्टो-आतः, मनसा। विपा० ४१। अहमभत्तिआ-अष्टमभक्तिका, दिनत्रयमनाहारिणः। अटुं- अर्थः। आव०७९३ जम्बू० २३९। अट्ठ-अर्थान, वर्णादीन्। जम्बू० ९८ अर्थाय। उत्त० ३६० | अहमेणं-अष्टमेन, उपवासत्रयलक्षणेन। जम्बू० १५१| अट्ठकरणं- अर्थकरणं, अर्थाभिनिर्वतकमधिकरण्यादि अट्ठय-तलं। अव०६४३ येन द्रम्मादि निष्पाद्यते। अर्थार्थं वा करणं, यत्र अद्वरससंपउत्त-अष्टभी रसैः शृङ्गारादिभिः सम्यक् राज्ञोऽर्थाश्चि-न्त्यन्ते। अर्थ एव वा तैस्तैरूपायैः क्रियत प्रकर्षण युक्तम्। जम्बू० ३९। इति। उत्त. १९५१ अहसइआहिं-अर्थशतानि यास् सन्ति ता अर्थशतिकाअद्वखंभसतसंनिविद्वा-अष्टोत्तरस्तम्भशतसन्निविष्टा, स्ताभिः, अथवा अर्थानां-इष्टकार्याणां शतानि सभा-विशेषः। आव० ३४२। याभ्यस्ता अर्थशतास्ता एवार्थशतिकाः। जम्बू. १४३, अट्ठग-अष्टकः। ओघ० १४४। अष्टकम्-चतुर्विंशत्यधि- भग०४८२ कशतसत्कभागाष्टकप्रमाणम्। सूर्य २३८॥ अट्ठसते-अष्टशतं। आव० ३४२। अद्वगुणाए- अष्टगुणया। आव० ६३। अट्ठसयं-अष्टाधिकं शतम्। जम्ब०६० अट्ठगुणे- अष्टगुणाः। ठाणाः ३९४१ अट्ठसयंसिओ-अष्टशतांत्रिकः। आव० ३४२ अट्ठजायं-अर्थकार्यां अर्थिकार्यां अर्थप्रयोजनां वा। ब्रह० | अद्वसहस्सं- अष्टसहस्रम्, अष्टोत्तरं सहस्रम्। जम्बू २४२ ॥ ४१० अट्ठजुत्तं-अर्थयुक्तं-अर्थते-गम्यत इत्यर्थस्तेन अट्ठसहस्सवरकंचणसलागा-अष्टौ सहस्राणि-अष्ट युक्तमन्वितम्। उत्त० ४६। सहस्रस-ङ्ख्याका वरकाञ्चनशलाका-वरकाञ्चनमय्यः अहमियं-अष्टाष्टमिका, भिक्षप्रतिमाविशेषः। अन्त० शलाका येषु तानि। जम्बू. ५९। २९| अट्ठसिरे-अष्टाशिराः, अष्टकोणः। औप० १०॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [33] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अद्वसोवण्णिअं-अष्टसुवर्णा मानमस्येत्यष्टसौवर्णिकं, ३६ सुवर्णमानमिदम्-चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः । अद्विकरकम्- तन्दुलोदकम्। दशवै० १७७ श्वेतसर्षपः, षोडश श्र्वेसर्षपा एकं धान्यमाषफलं, वे अद्विखंड-अस्थिखण्डं। आव० ३६९। धान्माषफले एका गुजा एकः कर्ममाषकः, षोडश अद्विग-अस्थिकम्-कीकसम्। भग० ३०८। कर्ममाषकाः एकः सुवर्णः। जम्बू. २२६। अद्विचम्मावणद्धे-अस्थिचर्मावनद्धम, अस्थीनि अट्ठा-अर्थक्रिया, अर्थाय यत्करणम्, क्रियायाः, प्रथमो चर्मावन-द्धानि यस्य। भग० १२५ भेदः। आव०६४८१ अहिज्झामे-अस्थिध्यामम्, अस्थि च तद्ध्यामं चअट्ठाणं-अस्थानम्, अयुक्तं, असाम्प्रतं वा। सूत्र. १६० अग्निना ध्यामलीकृतं-आपादितपर्यायान्तरम्। भग. शब्दप्रतिबद्धावसतिः। ब्रह. १९७ आ। २१३॥ अट्ठाणढवणा-अस्थानस्थापना-गुर्ववग्रहादिके अस्थाने | अहितग्गामं-अस्थिकग्रामम्, पूर्व वर्द्धमानकनामकम्। प्रत्युपेक्षितोपधेः स्थातनं-निक्षेपः। स्था० ३६२। आव० १८९। अट्ठादंडे- अर्थाय-शरीरस्वजनधर्मादिप्रयोजनाय दण्ड:- अद्विभंजणं-अस्थिञ्जनम्, कीकसामईनम्। प्रश्न. २२॥ त्रसस्थावरहिंसा। सम० २५ अद्विमिंज-अस्थिमिजः-त्रीन्द्रियजीवविशेषः। उत्त. अट्ठावय- (अष्टापदः) पर्वतविशेषः। आव०७२७५ ६९५४ अद्वापदं- अर्थात्पदम्। आव० ३५२। अद्विमिंजा-अस्थिमिजा, अस्थिमध्यम्। सूत्र. ४०८। अट्ठारसवंको-अष्टादशवकः, अष्टादशसरिको हारः।। भग०५२६| आव०६८११ अट्ठिय-आर्थिकः, अर्यत इत्यर्थः-मोक्षः, स अट्ठारसवंजणाउलं-अष्टादशव्यञ्जनाकुलम्। सूर्य. २९३। | प्रयोजनमस्येति अर्थः स एव प्रयोजनरूपोऽस्यास्तीति। स्था० ११७ उत्त०६५ अट्ठावए-अष्टापदम्, दयुतम्, अर्थपदं वा। दशवै० ११७ अद्वियकहट्ठियं-अस्थिकाष्ठोत्थितम्। उत्त० ३२९। अट्ठावओ-पर्वतविशेषः। आव० १४८ अद्वियगाम-अस्थिकग्राम-श्रीवीरस्य अट्ठावयं-अष्टापदम्। जीवा. २७६। अर्थपदम्। आव० प्रथमचातुर्मासग्रामः। भग०६६१। ४१२। शारिफलकट्यूतं तद्विषयकलाम्। जम्बू. १३७। | अहिलग्गो-मुष्टिं कृत्वा। आव० ६९०| दयुतफलकम्। पश्न०८४| पर्वतविशेषः। आव० १५१।। अहिल्लगो-अस्थि (बीजम्)। निशी० ५६ आ। यूतक्रीडाविशेषः। सूत्र. १८१। दयूतफलकं, कैलाशः- अद्विसरक्खा-अस्थिसरजस्का-कापालिकाः। व्यव. २७३ पर्वतविशेषो वा। प्रश्न. ७० अष्टापदः, पर्वतविशेषः। आ। आव० ८२७। यूतफलकम्। जम्बू. ११४१ अद्विसेणा- वत्सगोत्रान्तर्गतं गोत्रम्। स्था० ३९० अट्ठावयसेलसिहरंसि-अष्टापदशैलशिखरे। जम्बू. १५८ अहि-अस्थि मज्जा। अनुत्त०५। एड्डसरक्खा। निशी. अट्ठाहिअं-अष्टाहिकाम्, अष्टानामां-दिवसानां समा- १७२। हारोऽष्टाहं तदस्ति यस्यां महिमायां सा अष्टाहिका अट्टप्पत्ती- ववहारो। निशी० १०१ अ। ताम्। जम्बू. १६३ अढे-अर्थः, भावः। भग० ३४| अट्ठाहिया-अष्टाहिका, महामहिमाविशेषः। जीवा. ३६५) अद्वेति-निवसति। निशी. ६२आ। जम्बू०४२३॥ अट्ठो-अर्थित्वं च धर्मः। आव०३४१। अर्थः विज्ञानम्। अद्वि-अस्थि, कीकशम्। प्रश्न०८, भग० १३५। सूत्र० ३९८१ अर्यत इत्यर्थो मोक्षः। उत्त०६५) अद्विकच्छभा- ये अस्थिबलाः। कच्छपास्ते अट्ठियकप्पा-मध्यमजिनानां महाविदेहजिनानां वा अस्थिकच्छपाः। प्रज्ञा० ४४१ साधवः। बृह० २५४ आ। अट्टिकच्छमो- अस्थिकच्छपः, कच्छपविशेषः। जीवा० | अइंडिमकुदंडिम-अदण्डिमकुदण्डिमम्, दण्डो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [34] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] निग्रहस्तेन निवृत्तं राजदेयतया व्यवस्थापितं दण्डिम, | अड्डपल्लाणं-आटविषये प्रसिद्धम्, यदन्यविषये कुदण्डः-अस-म्यग्निग्रहस्तेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदण्डिम, | थिल्लीरिति रूढम्। जीवा० २८२१ ते अविद्यमाने यत्र प्रमोदे सः। विपा०६३ अड्डया-कंबिका। निशी. १६७ अ। थिल्ली। भग० ३९९| अडड-चतुरशीतिरडडाङ्गशतसहस्राणि। जीवा० ३४५) अड्डवियड्डं-अर्दवितर्दम-क्रमहीनम्। ओघ. १७७। अडडंग-अडडाङ्ग, चतुरशीतिस्त्रुटितशतसहस्राणि। विप्रकीर्णम्। निशी० १३अ। जीवा० ३४६। संख्याविशेषः। स्था० ८६। भग० ८८८ अड- अड्डवियड्डा- अक्रमम्। ओध० १७६। डाङ्गः, संख्याविशेषः। सूर्य. ९१। अइडिया- अइडिका, दवात्रिंशत्, लौकिकमबद्धकरणम्। अडडाति-संख्याविशेषः। स्था० ८६। आव० ४५६। अडडे- अडडः, संख्याविशेषः। सूर्य ९१। भग० २१०, २७५, | अड्ढ-आढ्य्य म्, परिपूर्णम्। औप० १०१। ८८८1 अड्ढ-आढ्यः, धनधान्यादिभिः | परिपूर्णः। भग० १३४। अडयालं-अष्टचत्वारिंशत, प्रशस्तं वा। जीवा० १६० | अड्ढग-आढ्य्यः , सम्पन्नः। आव० २६४। अडयालशब्दो देशीवचनत्वात् प्रशंसावाची। प्रज्ञा०८६) अढरत्त-अर्द्धरात्रः, निशीथः। दशवै. १०४। देशीशब्दः प्रशंसावाची आर्धरात्रिकः। व्यव० २५५आ। अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तयः कृता वनमाला येष् | अड्ढाइं-धनवन्ति। स्था० ४२११ तानि। जम्बू०७६| अड्ढाइज्जा-अर्द्धतृतीयानि। आव० ३९। अडयालकोटगरइय अड्ढायति-आद्रियते। आव० ८४८५ अष्टचत्वारिंशद्धेदभिन्नविचित्रच्छन्दगो-पुररचितानि। अड्ढेऊण-अवष्टम्य। आव०६२० सम० १३८१ अड्ढेज्ज-आढ्य्यत्वं-धनपतित्वं सुखकारणत्वात्सुखं अडयालकोहरइयं-अष्टचत्वारिंशत्कोष्ठकरचितम्, अथवा आढ्यै क्रियमाणा इज्या-पूज्या आढ्यैज्या। अष्टचत्वा-रिंशद्धेदभिन्नविच्छित्तिकलिताः कोष्ठकाः- स्था० ४८८ अपवरका रचिताः-स्वयमेव रचनां प्राप्ता येषु तत्। अड्ढोकंति-अर्धापक्रान्त्या। निशी० ११७ आ। प्रशस्तकोष्ठकरचितं वा। जीवा० १६० अड्ढोक्कंती- अर्धापक्रान्तिः । बृह. १९ अ। अडयालिय(ल)- शब्दः किल प्रशंसावाचकः। सम० १३८ अड्ढोरुगो-कटिविभागाच्छादकं निर्ग्रन्थ्यपकरणम्। अडविंगतो- देसं देसेण हिंडइ। व्यव० १६२ अ। ओघ० २०९। निर्ग्रन्थ्यपकरणविशेषः। निशी. १७९ आ। अडविणीहत्तं- अटवीनिःसृतम्, अरण्यान्निष्क्रान्तम्, अणं-कम्म। दशवै० १४५। अणं-अणति-गच्छति तास् उत्त० ३७५ तासु जीवो योनिष्वनेनेति पापम्, सावद्ययोगं वा। अडविमिगी-अटवीमृगी। आव० ३९२। आव० ३७३। कर्म। आचा० १४७ऋणम, कर्म। दशवै. अडवी- अटवी, अटव्यो-दूरतरजननिवासस्थाना भूमयः। ર૬રા. जम्ब०६६। अणंगकीडा-अनङ्गक्रीडा, अनङ्ग-कुचकक्षोरुवदनादि, अडिला-चर्मपक्षिविशेषः। जीवा० ४१। अडिल्ला, मोहो-दयोद्भुतस्तीवो मैथुनाध्यवसायाख्यः कामो वा, चर्मपक्षिविशेषः। प्रज्ञा० ४९। तेन तस्मिन् वा क्रीडा कृतकृत्यस्यापि स्वलिङ्गेनाहार्यैः अडुयालित्ता-आश्रित्य, बलात्कारं कृत्वा। दशवै० ३८१ काष्ठफलपुस्तमअडेइ-चढापयति, लगयति। आव० ३९० त्तिकाचर्मादिघटितप्रजननैोषिदवाच्यप्रदेशासेवनम्। अडो-लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४११ आव० ८२५। कुचकक्षोरुवदनादिमोहोदयोद्धतस्तीवो अडोलिया-यवोनाम राजा तस्य हिता। बृह. १९१ अ। मैथनाध्यव-सायाख्यः कामः। आव०८२५ उंदोइयाए। बृह० १९१ अ। मैथुनादावर्थक्रियासम्प्रा-प्तकामस्य चतुर्दशो भेदः। अड्डं-तिर्यग्वलितम्। जीवा. २०७। तिर्यक्। आव. ३६७। दशवै० १९४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [35] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अणंगपडिसेवणी-मैथुने प्रधानमङ्ग मेहनं भगश्च परिपाण्डपत्रैरन्येन वा केनचित्प्रत्येक-वनस्पतिना तत्प्रतिषेधो-ऽनङ्गं तेनानङ्गेनाहार्यलिंगादिना अनङ्गे | मिश्रमवलोक्य सर्वोऽप्येषोऽनन्तकायिक इति वदतो वा-मुखादौ प्रतिसेवा-ऽस्ति यस्याः अनङ्ग वा भाषा। प्रज्ञा० २५९। स्था० ४९० काममपरापरपुरुषसंपर्कतोऽतिशयेन प्रतिषेवत अणंतमीसग-अनन्तमिश्रा, सत्यामषाभाषाभेदः। दशवै. इत्येवंशीलाऽनङ्गप्रतिषेविणी। स्था० ३१३| २०९। अणंगसेना-अनङ्गसेना, गणिकामुख्या। अन्त०२ | अणंतयं-अनंतकम्-जिनम्। सम० १५३। अणंगसेन- सुवण्णगार, भद्रविमर्श दृष्टान्तः निशी० ५। । अणंतरं-अनन्तरम्, बहिर्भूतम्। सूर्य० ३४१ सम० १२८। अणंगसेनो-चम्पावास्तव्यः स्वर्णकृत, अणंतरगढिया-अनन्तरग्रथिता, अनन्तरं-व्यवस्थापितैः हासाप्रहासालुब्धः। बृह० ४४ अ। ग्रन्थिभिः सह ग्रथिता (जालिका)। भग० २१४१ अणंगरति-अनङ्गक्रीडा। बृह. १०७ आ। अणंतरपज्जता-अनन्तरपर्याप्तकाःअणंतं-अनन्तम्। केवलात्मनाऽनन्तत्वात्। जीवा० २५६। | प्रथमसमयपर्याप्तकाः। स्था. ५१४ अनन्तः, अनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वादन्तरहितः। | अणंतरपुरक्खडे- अनन्तरपुरस्कृतः, अनन्तरं भग०७, सम०५ अपरिमाणम्। भग०६६। अव्यवधानेन पुरस्कतः-अग्रेकतो यः सः। सर्य.९० अनन्तकर्मपुद्गल-निवृत्तत्वात्तदनन्तमिति | अणंतरबंधे- येषां पुद्गलानां बद्धानां सतामनन्तरः समयो अनन्तानां वा भवानां हेतुर्यत्तदन-न्तम्। ओघ० १२८४ वर्तते तेषामनन्तरबन्धः। भग० ७९१। अणंतकायं- मूलकादिकम्। प्रज्ञा० २५९। अणंतरहिता-अंते ठिता-अंता न अंता-अनंता सचित्ता। अणंतकिरिया- अनन्तक्रिया, परम्परामुक्तिफला। उत्त. निशी० २५५ आ। निशी० ८२आ। १७३। अणंतरहियाए-अनन्तर्हि (रहि) तया-अव्यवहितया। अणंतखुत्तो-अनन्तकृत्वः, अनन्तवारान्। भग० १३० आचा० ३३७ अणंतगं-कम्बलादिवस्त्रम्। ओघ० ३४५ अणंतरा-अनन्तरौ, एष्यातीतौ। आव० ७६९। अणंतगमजुत्त-अनन्ता-अपर्यवसिता गम्यते अणंतरिया-अनन्तरिका, अन्तरस्य विच्छेदस्य वस्तुस्वरूप-मेभिरिति गमा-वस्तुपरिच्छेदप्रकाराः करणम्। भग. २२० नामादयस्तैयुक्तानि अन्वितान्यनन्त गमयुक्तानि। अणंतरो-अनन्तरः-वर्तमानः समयः। स्था० ५१४। उत्त० ३४२। अणंतरोगाढं-अनन्तरावगाढम, येष प्रदेशेष्वात्मावगाढअणंतगुणपरिहाणीए- अनन्तगुणपरिहाणिः, स्तेष्वेव यदवगाढं अनन्तगुणानां परिहाणिः। जम्बू. १२९। तदन्तराभावेनावगाढत्वादनन्तरावगाढम्। भग० २१| अणंतगुणविसिहतरा- अनन्तगुणविशिष्टतरा। सूर्य । अव्यवधानेनावगाढम्। जीवा. २० २९४१ अणंतरोगाढे-उत्पत्त्यनन्तरसमयावगाढत्वम्। भग० अणंतघाई-अनन्तघातिन्-अनन्ते ज्ञानदर्शने हन्तुं शीलं | ९३७ येषां ते । उत्त० ५८० अणंतरोववण्णगा-उपपत्तिप्रथमसमयवर्तिनः। प्रज्ञा० अणंतजिणेण-रागदवेषजेता, ज्ञानी नित्यश्च। आचा. ३०४१ ४३०१ अणंतवत्तियाणुप्पेहा- अनन्तवतितानुप्रेक्षा। स्था० अणंतजीविया- अनंतजीविका-पनकादयः। स्था० १२२॥ १९२ भवसन्तानस्यानन्तवृत्तितानचिन्तनम्। औप० अणंतनाणी-अनन्तज्ञानी, केवली। आव०६६२।। अणंतते-अनन्तकमत्-एकश्रेणिकं क्षेत्रम्। स्था० १४७। | अणंतविजए- आगामिन्यां उत्सर्पिण्यां भरते चतुर्विशे अणंतमिस्सिया-अनन्तमिश्रिता, जिन-नाम। सम० ११४। ऐरवते भविष्यज्जिनः। सम. मूलकादिकमनन्तकायं तस्यैव सत्कैः १५४ ४५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [36] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अणंतवीरिय-अनन्तवीर्यः। आव० ३९२॥ गड्डरिकादिरूपेति रहितपत्रः। जीवा. १८८1 अणंतसंजयं- एकेन्द्रियादिषु सम्यग् यतः। आचा० ४२९। | अणकारो- ऋणकरः, ऋणं-पापं करोतीति, प्राणवधस्य अणंतसंसारा-अपर्यवसितसंसारा अभव्याः। उत्त० ७१३। चतुर्विंशतितमः पर्यायः। प्रश्न०६। अणंतसंसारवड्ढणा-अनन्तससारवर्द्धनः। उत्त० ३३० अणक्को-अणक्कः, चिलातदेशवासी म्लेच्छविशेषः। अणंतसेणे-अनन्तसेनः, अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य प्रश्न.१४॥ द्वितीयाध्ययनम्। अन्त०३। अणक्खित-परीक्षितः। निशी ८१ आ। भरतेऽतीतोत्सर्पिणीकुलकरः। सम० १५०| स्था० ५१८१ अणगार-अनगारः, सूत्रकृताङ्गे पञ्चममध्ययनम्। अणंतसो-अनन्तशः, अविच्छेदेन। सूत्र० ३४। आव०६५८1 साधुः। दशवै०६२ अणंतहिअ-अनन्तहितम-मोक्षः। दशवै. २५० सूत्रकृताङ्गस्यैकविंशमध्ययनम्। उत्त० ६१६) अणंता-तित्थकरा। बृह. २२४ आ। चतुर्दशशतके नवमोद्देशकः। भग०६३०। द्रव्यतो अणंताणुबंधी-अनन्तानुबन्धी, अनन्तं भावतश्चाविद्यमानागारः। दशवै० १५९। न विद्यसंसारमनबध्धन्तीत्वे-वंशीलः। प्रज्ञा०४६८। तेऽगारं गृहमेषामित्यनगाराः-यतयः। आचा० ३६। षोडशकषाये प्रथमो भेदः। सम० ३१, आचा. ९१। अनन्तं | तीर्थ-कप्रव्रजिताः। आचा० ३०९। अनगारी-यतिः। भवं अविच्छिन्नं करोति, अनन्तो वाऽन्बन्धो यस्य। उत्त० ५७८। साधुः आव० ३२९| स्था० १९४१ अणगारमग्गे-उत्तराध्ययने पजत्रिंशत्तमाध्ययनम्। अणंतियं- अनन्तिकम् सम०६४। नञोऽल्पार्थत्वान्नात्यन्तमन्तिकम- दूरासन्न अणगारसुयं- सूत्रकृताङ्गे एकविंशतितमाध्ययनम्। मित्यर्थः। भग० २१७। अनासन्नम्। भग० २१७ सम०४२ अणंतेहिं-अनादित्वात् अनन्ताः । भग०६१० अणगारस्सभिक्खू-अनगारास्वभिक्षुः, अस्वेषु अणंतो-अनन्तः अनन्तकौशजयात्, अनन्तानि वा भिक्षुरस्व-भिक्षुःज्ञानादीन्यस्येति, चतुर्दशो जिनः, रत्नखचितमनन्तं जात्याद्यनाजीवनादनात्मीकृत्वेनानात्मीयानेव गृहिदामस्वप्ने जनन्या दृष्टमतः। आव०५०४। णोऽन्नादि भिक्षत इतिकृत्वा, स च यतिरेव, अपर्यवसितः। उत्त. २१३। अनन्तानामेकैकं शरीरम्। ततोऽनगारश्चा-सावस्वभिक्षुश्च। उत्त. १९। ओघ०३४१ अणगारियं-अनगारिकं (अनगारितं वा), अनगारेषअणंधो-राजविशेषः। निशी० ४२ आ। भाव-भिक्षुषु भवं अनुष्ठानम्। उत्त० ३३९। अणंबिलं- अनाम्लम्-स्वस्वादादचलितम्। आचा० ३४६। अणगारे-अनगारः, न विद्यते अगारं-गृहं यस्यासौ अण-अणाः, अणन्ति-शब्दयन्ति । साधुः। जीवा० १४२। भावितात्मा लब्धिसामर्थ्यात्। अविकलहेतुत्वेनासातवेयं नारकायायुष्कमिति, भग० ५९६। न विद्यते अगारं-गृहं द्रव्यतो भावतश्च अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादयो वा। आव० ८१। यस्यासौ संयत इति। प्रज्ञा० ३०३। न विद्यते अगारंअणइक्कमणाइ-अनतिक्रमणं, गृहं यस्य सः। सूर्य० ४। अगाः-वृक्षास्तैर्निष्पन्नमगारं संयमयोगानामनुल्लङ्घनम्। उत्त० ५४३। तन्न विद्यते त्यक्तगृहपाशः। आचा० ४०३। अणइक्खा-अनाख्याता। (गणि०) अणगारो- ऋणकारः, ऋणमिव अणइवत्तियं-अनतिपत्य-यथावस्थितं कालान्तरक्लेशानुभवहेतुतया ऋणम्-अष्टप्रकारं कर्म वस्त्वागमाभिहितं तथाऽनतिक्रम्य। आचा० २५६। तत् करोतीति, तथा तथा गुरुवचनअणइवरं-अनतिवरं, अविदयमानहासतया प्रधानं न विपरीतप्रवृत्तिभिरुपचिनोतीति। उत्त २० विदय-तेऽतिवरं यस्मात्तत्। औप०५४। अणगालो-दुष्कालः। बृह. २३ अ। अणईइपत्तो-अनीतिपत्रः, न विद्यते ईतिः अणघा-णिरोगा। निशी. ८० अ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [37] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अणच्चाविअं- अनायितम्। ओघ० १०९। अणत्ते- ऋणपीडितः। स्था० १६५ अणच्चावितं-वस्त्रमात्मा वा यत्र न नर्तितः। स्था० ३६१। | अणत्थको-अनर्थकः, परमार्थवृत्त्या निरर्थकः, प्रस्फोटनं प्रमार्जनं वा। उत्त० ५४० परिग्रहस्या-ष्टाविंशतितमं नाम। प्रश्न. ९३। अणच्चासादणाविणए-आशातना तन्निषेधरूपो अणत्थदंडे- अनर्थदण्डः, अप्रयोजनदण्डः। आव० ८३० विनयोऽन-त्याशातनाविनयः। भग. ९२२१ अणत्थमियसंकप्पे-सूर्यानस्तसमयभोजनसंकल्पवान्। अणज्ज-अनार्यम्, अनार्यवचनत्वात् अधर्मदवारस्य बृह. १७९ अ। तृतीयं नाम। प्रश्न. २६॥ अणत्थो-अनर्थः अपायः। प्रश्न०६२ अनर्थहेतृत्वात् अणज्जधम्मे-अनार्यधर्मः, क्रूरकर्मकारी। सूत्र० १५८ परिग्रहस्यैकविंशतितमं नाम। प्रश्न. ९२ अणज्जभावे-अनार्यभावः। क्रोधादिमान्। स्था० २०९। अणदिढ-अनादिष्टं-अविशेषितम्। बृह. ६६अ। अणज्जे-अन्याय्यः, न न्यायोपेतः। प्रश्न अणन्नदंसी-अनन्यदर्शी-यथावस्थितपदार्थदृष्टा, अणज्जो-अनार्यः, म्लेच्छचेष्टितः। दशवै. २७५१ भगव-दुपदेशादन्यत्र न रमते। आचा. १४५१ पापकर्मा। प्रश्न. ४० अणन्नपरम-अनन्यपरमः-संयमः। आचा० १६६| अण्ज्झाए-अकाले, अस्वाध्यायिके वा। निशी. १० अणन्नारामे-अनन्यारामो-मोक्षमार्गादन्यत्र न रमते। अणट्टा-अनार्तः आर्तध्यानविकलः। उत्त०४४८। सकल- आचा०१४५ दोषविगमतोऽबाधिता। उत्त० ४४९। अणपज्झो-अजाणमाणो। निशी. ११९ अ। अणट्ठा-अनर्थक्रिया, अनर्थाय यत्करणम, क्रियाया अणपन्निय-अवान्तरव्यन्तरभेदः। जीवा० १७२। दवितीयो भेदः। आव०६४८१ अणप्पगंथो-अनल्पग्रन्थः (अनZग्रन्थः) बह्वागमः अणहादंडे- अर्थविलक्षणो दण्डः। सम० २५। अविद्यमानो वाऽऽत्मनः सम्बन्धी ग्रन्थोअणणुगामी-अननुगामुकः-स्थितप्रदीपवत्। आव०४२। हिरण्यादिर्यस्य सः। भावधनयुक्तः। औप० ३७ अणण्णं-अनन्यः-ज्ञानादिकः। आचा० १६३। अणप्पज्झ-(देशी) अनात्मवशः। बृह० २०९ आ। अणण्हकर- 'स्न-प्रश्रवण' इति वचनात् आस्नवः- अणप्पज्झो-अनात्मवशः। बृह० २५८ अ। आश्रवः कर्मोपादानं तत्करणशील अणप्पियं-अनर्पितविषयविभागम्। ब्रह. ११० अ। आस्नवकरस्तन्निषेधादनास्न-वकरः अविशेषितम्। स्था० ४८१।। प्राणातिपाताद्याश्रववर्जित इत्यर्थः। स्था०४०९। अणप्किडतं-उचलत्। निशी० २२ अ। अणण्हय-अनाश्रवः। आव० २८० अणबलो- ऋणबलः, बलवान्त्तमर्णः। प्रश्न० ३०| अणण्हयत्तं-अनंहस्कत्वम्-अविद्यमानकर्मत्वं। उत्त० | अणभञ्जकः- ऋणं-देयं द्रव्यं भजति न ददाति यः ५८३ सः। प्रश्न०४६| अणण्हयफले-अनाश्रवफलः, संयमः। भग० १३८१ अणभिक्कंत-अनभिक्रान्तः, अनतिलवतः। आचा. अणति-प्रज्ञापयति। उत्त० १२८। शब्दयति। निशी. ९ १९३। नाभिक्रान्ता जीवितादनभिक्रान्ता सचेतनेत्यर्थः। आ। आचा० ३२३। अणतिक्कमणिज्ज-अनतिक्रमणीयम्, अचालनीयम्। अणभिगताणं-अपरिणताणं। बृह. १३० अ। भग०१३५ अणभिग्गहिओ-अविद्यमानमभीति-आभिमुख्येन अणत्तद्विए-अनात्मार्थिकः, नात्मार्थ एव यस्यास्त्यसौ गृहीतं ग्रहणं-ज्ञानमस्येत्यनभिगृहीतः- अनभिज्ञः। परमा-र्थकारी। प्रश्न. ११११ उत्त० ५६५। अनङ्गीकृता। उत्त०५६५ अणत्तद्वियं-अस्वीकृतम्। आचा० ३२५ अणभिग्गहिय-न विद्यते आभिमुख्येनोपादेयतयागृहीतं अणत्तपन्ने-अनात्मप्रज्ञाः-नात्मने हिता प्रज्ञा येषां ते। ग्रहणमस्येत्यनभिगृहीतः। प्रज्ञा०६० आचा०२३४ अनिश्चितमशिवा-दिभिर्निर्गमभावात्। स्था० ३०९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [38] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अणभिग्गहियमिच्छादसणवत्तिया अणवठ्ठया-अनवस्थाप्यता, अनभिग्रहीतमिथ्या-दर्शनप्रत्ययिकी, जेहिं न किंचि हस्ततालादिप्रदानदोषादुष्टत-रपरिणामत्वाद व्रतेष कुतित्थियमयं पडिवण्णं| आव०६१२ नावस्थाप्यते इति अनवस्थाप्यः, तद्भावः। आव० ७६४। अणभिग्गहिया-अनभिगृहीता, अनभिग्रहा यत्र न स्था० २००१ प्रतिनियता-र्थावधारणं सा भाषा। प्रज्ञा० २५६) अणवडिओ-अनवस्थितः। बृह. १२५ अ। असत्यमषाभाषाभेदः। दशवै. २१० अर्थानभिग्रहेण अणवडियं-अनवस्थितं, सन्ततम्। जीवा० ३४५) योच्यते। भग. ५०० अनियतप्रमाणम्। सूर्य ८७। अणभिजोए-अनभियोगः, इच्छा। आव०६६८ अणवट्ठिया-नावश्यंभाविनः। स्था० ३७४। अणभिहियं-अनभिहितं, अन्पदिष्टं स्वसिद्धान्ते अणवट्ठिया-अनवस्थिता-येन सूत्रदोष-विशेषः। आव० ३७५ पुनःप्रतिसेवितेनोत्थापनाया अप्ययोग्यः सन् अणभिज्जय-अच्छिद्रे, अभिन्ने। (मरण) कंचित्कालं न व्रतेषु स्थाप्यते यावन्नाद्यापि विशिष्ट अणराए-रण्णो कालगते-णिब्भए वि जाव णो राया ठवि- तपश्चीर्णं भवति पश्चाच्च चीर्णतपास्तद्दोषोपरतो व्रतेष ज्जति। निशी० ७१ । स्थाप्यते। व्यव० १४ आ। अणरायं- राजयुवराजोभयाभिषेकरहितं राज्यम्। बृह. अणवत्था- अनवस्था, यद्यकार्यसमाचरणात्प्रायश्चित्तं ८२। मते रायाणे जाव मूलराया युवराया य एते दोवि | न दीयते क्रियते वा सा। ओघ० २२७। अणभिसित्ता। निशी. १०आ। अणवदग्गं-अनवदनम्, अनन्तम्। प्रश्न०६३ स्था. अणलगिरि-अनलगिरिः। आव २९९। १२० औप० ४८। अपर्यवसानम्। सूत्र० ३६२। अणला- अपर्याप्ताः, दीक्षापालनेऽसमर्थाः। ब्रह. २८७ । अणवन्निय-अणपन्निकाः, अणलो-अनलः, असमर्थः। आव० २५९। वेयावच्च प्रति व्यन्तरनिकायानामुपरिवर्तिनो व्यन्तरजातिविशेषाः। सुत्ते अत्थे अभिगमे परिहरणे। निशी. ४९ आ। प्रश्न०६९। वाणमन्तरविशेषः। प्रज्ञा. ९५ अणल्लिअंता-अनाश्रयन्तः। ओघ० ९७ अणवयक्खित्ता-अनवेक्ष्य पश्चाद्भागमनवलोक्य। भग. अणवः-स्वल्पाः उत्त०४२०| ३१२ अणवं- ऋणवान्। सूर्य. १४६। जम्बू. ४९१। अणवयग्गं-अनवनताग्रं-अपर्यन्तम्। स्था०४४ अणवकंखवत्तिया- अनवकाक्षाप्रत्ययिकी, विंशति- अनन्तं, अपारं, अनवनताग्रं-अनवनतं-अनासन्नं क्रियामध्ये पञ्चदशी। आव० ६१२। अनवकांक्षा अग्रं-अन्तो यस्य तत्। अनवगताग्रं-अनवगतंस्वशरीराद्यनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः सा। स्था० अपरिच्छिन्नं अग्रं-परिमाणं यस्य तत्। भग० ३५ ४३। इहलोकपरलोकापा-यानपेक्षस्येति। स्था० ३१७। कालतोऽपरिमाणम्। व्यव० २५५) अणवगल्ल-अनवकल्पः, जरसा अनभिभूतः। भग० अणवयग्ग- अनवदत्, अनपगच्छत्। उत्त० ५८५ २७६। जम्बू. ९० अणविक्खया-अप्रेक्षणा (गणि०) अणवज्जं- अनवद्यम्, सामायिकदशमपर्यायः। आव. अणसणं- अनशनं, भोजननिवृत्तिः । औप० ३७। बाह्यत४७४। सामायिकम्। आव० ३६४। पापानबन्धरहितम्। पोs शः उत्त०६०० दशवै० ११५ अणसण-अनशनम्, आहारत्यागः। दशवै. २६। भग० अणज्जय-अणवय॑ता। आव० ३७३। ९१२१ अणवज्जुत्तो-तत्रस्थः, अपृथग्भूतः। आव०७५८५ अणसणा-अनशनम्, व्रतविशेषः, उपवासः। भग० १२८। अणवढप्पा- अनवस्थाप्यः-नावस्थाप्यते-नाधिक्रियते। । अणसायणा- अनाशातना, अहीलना। दशवै० २४१। स्था० १६४। कृततपसो व्रतारोपणम्। भग० ९२०९ मनोवा-क्कायैरप्रतीपप्रवर्तनम्। उत्त. १७ अणवठ्ठप्पारिहे- कृततपसो व्रतारोपणम्। भग. ९२० अणसिओ-अनशितः, न अशितः-भिक्षाप्रदानानभिज्ञेन मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [39] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ४३ लोकेनाभ्यर्हितः। आव० १४४। ४३ अणहं- अनघं, अक्षतम्। सूर्य. २९२। अणाउत्तआइयणया-अनायुक्तवस्त्रादिग्रहणता। स्था० अणहशब्दोऽक्षतपर्यायो देशश्यस्तेनाणहं-अक्षतं। जम्बू० २२११ अणाउत्तमज्जणया- अनायुक्तपात्रादिप्रमार्जनता। स्था० अणहवीया-अविणद्ववीया। निशी० ८०अ। ४३ अणहारए- ऋणधारकः। विपा०७२। अणाउत्तो-अनाकुलः-अक्षणिकता। बृह० ४४ आ। अणहारेणं-स्वदेशजाहाराभावेनेति। स्था० ५४। अणाउल-अनाकुलः, क्रोधादिरहितः। दशवै० १६६। अणहिअपरमत्था- अनधिगतपरमार्थाः। (गणि०) अणाउले-अनाकुलः, आचा० ४२४। अणहिकडा- अनधिकृता अणाउलो-अनाकुलः। आव०४०४। तल्लक्षणायोगतस्तत्रानन्तर्भाविनी। प्रज्ञा० २४८। अणाए-अनया। आव० ३९९। अणहियासिया-अनध्यासिनी। आव०४२८१ अणाएसे-अनादेशः, न आदेशः, सामान्यम्। उत्त० ३२| अणहियासी-अनधिकासिकाः, सजावेगोत्पीडितः सन् | अणागई- अनागतिः, सिद्धिः, अशेषकर्मच्यतिरूपा या याति सा। ओघ० २००१ लोकाग्राकाशदेशस्थानरूपा वा। सूत्र. २२३। अणहे- अनघः, नास्याघमस्तीति, निरवद्यानुष्ठायी। अणागतं-अनागतम्, अनागतकरणात्, सूत्र०६९ पर्युषणादावाचार्यादिअणहो-अनघः, अक्षतशरीरः। प्रश्न. ११५ वैयावृत्त्यकरणान्तरायसद्धावादारत एव अणाइण्णं- पणगपरिहाणीक्रमेण पत्तं। निशी. १५७। तत्तपःकरणम्। आव० ८४०, स्था०४९८१ अणाइण्णा-अणासेविय। नि० १४४ आ। अणागमणधम्मिणो-अनागमनधर्माणः-यस्मिन अणाइन्नं-अनाकीर्णः-असंक्लः। उत्त० ४२८। मनुष्यलोके अनागमनं धर्मो येषां ते, न पुनर्गहं अणाइयं-अणातीतं, अनादिकं, अज्ञातिकं, ऋणातीतं । प्रत्यागमनेप्सवः। आचा० २४३। अणातीतं वा, अविदयमानादिकं, अविदयमानस्वजनं, अणागमो-अनागमः-अनवसरः। आचा. १२२ ऋणं वाऽतीतं ऋणजन्यदुःस्थतातिक्रान्तम्, अणागयं-अनागतम्, एष्यत्कालम्। आव० ५०९। दुःस्थतानिमित्ततयेति ऋणातीतं, अणं वा अणकं- अणागय-अनागताम्, आयत्याम्। आव० ५०९। अनागतं, पापमतिशयेनेतं-गतमणातीतम्। भग० ३५। आ अनागतकरणादनागतम्। भग० २९६) समन्तादतीव इतो-गतोऽनाद्यन्ते संसारे आतीतः, न | अणागलिय-अनिर्गलतः-अनिवारितोऽनाकलितः। भग० आतीतः अनातीतः, अनादत्तो वा संसारो येन स तथा, ६७३ संसारार्णवपारगामी। आचा० २८६। अणागारं-अनाकारम, अविद्यमानाकारम्। आव०८४० अणाइत्तो-अनुपयुक्तः। (महाप्र०) स्था०४९८1 अविदयमानाकारंअणाइयंतो-विवादानतिक्रामन। व्यव०१०। यविशिष्टप्रयोजनसम्भवा-भावे कान्तारदुर्भिक्षादौ अणाइले- अनाविलः, अदीनस्य चतुर्थं नाम। अन्त० २२॥ महत्तराद्याकारमनुच्चारयद्धिर्विधीयते तदनाकारम्। अकलुषः। प्रश्न० १११। अकल्षः, शुद्धस्वभावः। प्रश्न भग० २९६। १३६| अणागारपासणया-अनाकारपश्यत्ता-चिन्त्यमानायां अणाइसेसि-अनतिशयी, अवध्यादयतिशयरहितः। आव. प्रकृष्टं परिस्फुटरूपमीक्षणमवसेयम्। प्रज्ञा० ४३०| २४०। अणागारो-अनाकारः, यथोक्ताकारविकलः। जीवा. १८५ अणाई- अनादिः, नास्यादिरस्तीति संसारः। सूत्र. ३४११ सामान्यग्राही। भग०७३ अणाउट्टी- अनाकुट्टिः। आव० ३७३। अणाजीवी-अनाशंसी। निशी. १८ अ। अनाजीविको अणाउत्तं- असावधानता। औप० ४२। अनुपयुक्तः। स्था० | निःस्पृहः। दशवै० १०६ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [40] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] अणाडिया - अनादृतिः । आव० ९५ । अपराधः । बृह० ३० आ आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) अणाढायमाणे- अनाद्रियमाणः संखडिमनादरयन्। आचा० ३२९| अणाढिअस्स- अनाहतनाम्नः जम्बूद्वीपाधिपतेः । जम्बू० ३३४, जीवा० ३२६ | अणाढिउ जम्बूवृक्षस्थो देवः स्था० ६९। अणाढियं - अनादृतम्, अनादरं सम्भ्रमरहितम्, कृतिकर्मणि प्रथमदोषः । आव० १४३॥ अणाढिय- अनादृतः जम्बूद्वीपाधिपतिर्व्यन्तरसुरः । उत्त० ३५ अनादृताद-अनादराया सा अनादृता, शिथिलस्य या सा। स्था० ४७४ | अणाणत्ता - अनानात्वा:- नानात्ववर्जिता येष्वेवाधारभूताकाशप्रदेशेष्वेके तेष्वेवेतरेऽपि । भग ९६१| नानात्ववर्जिताः देशभेदेनालक्षितनानात्वाः । प्रज्ञा० ७४| अणाणाए— अनाज्ञया, स्वैरिण्या बुद्ध्या | आचा० ११३| स्वमनीषिकाचरितोऽनाचारः । आचा. २२७| अणाणुकित्ती - जो एवं ण कथयति । निशी 333 आ अणाणुगामिते अवधिज्ञानस्य द्वितीयो भेदः । स्था० ३७०१ अागामियत्ता - अननुगामिकत्वायअशुभानुबन्धाय। स्था० १४९, ३५८ अणाणुपुव्वी - अनानुपूर्वी, यत्र पूर्वपश्चाद्विभागो नास्ति। भग॰ ८०\ अत्थाग्गहणाईए पदे अप्पत्तो। निशी. ५३ अ अनियतक्रमानुपूर्वी स्था० ४ यथोक्तप्रकारद्वयातिरिक्त-स्वरूपा अनुयो० ७३ ॥ बंधन विद्यतेऽनुबन्धः - सातत्यप्रस्फोटकादीनां यत्र तदननुबन्धि स्था० ३६१। अणादिट्ठी- अनादृष्टिः, अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य त्रयोदश-मध्ययनम् । अन्त० ३ अणादीओ - अणादिकः, अणं पापं कर्म आदिः कारणं यस्य सः । ऋणातीतः, ऋण-अधर्मेण न देयं द्रव्यं तदतीतोऽति-दुरन्तत्वेनातिक्रान्तः । प्रश्न- ४॥ अनादिकः, प्रवाहापेक्षयाऽऽदिविरहितः। प्रश्न ४ अणादीयं- नास्त्यादिरस्येत्यनादिकं स्था० ४४१ अणादेज्ज- अनादेयम्-यदुदयवशादुपपन्नमपि ब्रुवाणो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [41] [Type text] नोपा-देयवचनो भवति, नाप्युपक्रियमाणोऽपि जनस्तस्याभ्युत्थानादि समाचरति प्रज्ञा- ४७या अणापुच्छा - अनापृच्छा। आव० १९८ । अणाबाहं अनाबाधकत्वं वेदनाभावत्ववत्। उत्त० ५१०१ अणाबाहि- अनाबाधः मोक्षसुखम् स्था० ४८८ अणाभिगता - अगहियसुत्तत्था निशी. १४० अ अणाभिडंतो- अस्पृशन्। निशी० १८७ अ अणाभोगं - अनाभोगम्, अतिचारविशेषः । आव० ५६४ | विस्मृतिः । स्था० ४८५ अणाभोगनिव्वत्तिए- अनाभोगनिर्वर्तितः, यदा त्वेवमेव तथा-विधमुहूर्त्तवशाद्गुणदोषविचारणाशून्यः, परवशीभूय कोपं कुरुते तदा सकोपः प्रज्ञा० २९१ अणाभोगबकुसो अनाभोगबकुशः, योऽनाभोगेनाजानन् करोति सः, बकुशस्य द्वितीयो भेदः। उत्त॰ २५६। सहसाकारी स्था० ३३७ | अणाभोगवत्तिया - अनाभोगप्रत्ययिकी, विंशतिक्रियामध्ये चतुर्दशी आव० ६१२| अनाभोगेन पात्रायाददतो निक्षिपतो वा स्था० ३१७| अनाभोगअज्ञानं प्रत्ययो - निमित्तं यस्याः सा । स्था० ४३ | अणाभोगे अनाभोग अज्ञानम्। भग० ९१९| एकान्तविस्मरणम् । व्यव० ३३२ आ अणाभोगो- अनाभोगः, अत्यन्तविस्मृतिः । आव० ८५०ण निशी० २९ आ आजानं निशी० १४७ आ विस्मृतिः । आव० ८४८ अणायगे- अनायकः, अन्यो विद्यते नायकोऽस्येति अनायकः–स्वयम्प्रभुश्चक्रवर्त्यादिः। सूत्र॰ ६१। अविद्यामाननायको राजा । सम० ५३ । अणायण- अनायतनम् विरुद्धस्थानम्। दश• २२६॥ अस्थानम्, वेश्यासामन्तादि दशकै १६५ अणायतणं - अनायतनं, साधूनामनाश्रयः । प्रश्र्न० १३८ निशी० ११६ अ । स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तं स्थानम् ओघ० १२ अणाययणं- पशुपक्षिमद्गृहं । बृह० १९५ आ । अणाययण - स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तगृहवज्जणं निशी. २५आ। अणायरिया- अनार्या अर्द्धषड्विंशजनपदवायानि । आचा० ३७७ | “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ३३१ अणायवेतियं- छायायाम्। निशी० ७६ आ। अणासायणाविणअ-अनाशातनाविनयः, अणाया- अनात्मा घटादिपदार्थः। सम०५ उपचारविनयभेदः। दशवै. २४९। अणायार-अनाचारः, सावदययोगः। दशवै० २३३। अणासेवियं-अनास्वादितम्। आचा० ३२५१ अणायारो-अनाचारः। आव०७७८। गिलिते सति अणाहपव्वज्जा-उत्तराध्ययनस्य आधाकर्मणि दोषविशेषः, विंशतितमाध्ययननाम। सम०६४। यावल्लम्बनोत्क्षेपोत्तरकालम्। आव०५७६) अणाहप्पाओ-अनाथात्मानौ। आव०७१। व्यभिचारः। आव. ५७८ आचारस्य साध्वाचारस्याभावः अणाहसाला-अनाघशाला-आरोग्यशाला। व्यव० ५७आ। परिभोगतो ध्वंसः। व्यव० ९० अ। निशी० ३८ आ। अणारखं-अनारब्धम्, अनाचीर्णम्। आचा० १४८ अणाहसालालओ-अनाथशालालयः आचा० ११९| अणारिओ-अनार्यः म्लेच्छादिः। प्रश्न ५ करकर्माणः। | अणाहारो- अनिष्टं शोभनमपि न रोचते परि अणाहारो आचा. १८६] भवति। निशी. ५१ | अणारिय-आचार्य मुक्त्त्वा । बृह. २४५ अ। म्लेच्छाः । अणाय-अनाहतः, अनित्यपिण्डः, अनभ्याहृतो वा, स्था० ३०९। स्पर्धा-रहितः। भग० २९३। भग० २९४। अणारिया-कामकहा। निशी० २५८ अ। अनार्यः- अणिंगालं-रागपरिहारेणेत्यर्थः। प्रश्न. ११२ क्षेत्रभाषाकर्मभिर्बहिष्कृतः। सूत्र. ३९६। उत्त० ३५८। अणित-अनिर्गच्छन्। निशी० २५८ आ। अनार्यः-न आर्यः, अज्ञानावृतत्वादसदनुष्ठायी। सूत्र० । अणिंदियं-अनिन्दितं-शिष्टनिन्दयेन स्वपरप्रशंसादिहे-तुनाऽनुत्पादितम्। उत्त० ६६७। अणारोहए- अनारोहकः, योधवर्जितः। भग० ३२२॥ अणिंदिआ- अनिन्दिता, अष्टमी दिक्कुमारी। जम्बू. अणालावे-अनालापः कुत्सित आलापः। स्था० ४०७। ३८३| अणालिओ-अचेष्टा। आव० ३७० अणिदिया-अनिन्दिता, अधोलोकवास्तव्या दिक्कमारी। अणावडतो- अस्पृशन्। निशी. १८७ अ। आव० १२११ अणावसं-अवशम्। (मरण०) अणिंदिया- अनिन्द्रियाः अपर्याप्ताः, केवलिनः, सिद्धाः अणावाय-अनापातः। आचा० ३३५। अनापात-आपा- उपयोगतः। स्था० ३५५, ५१९। तादिरहिता उच्चारभूमी। दशवै. २३१। उत्त० ५१८ | अणिगणा-अनग्ना, अनग्ना नाम द्रुमगणाः। जम्बू० ९९। विजनम्। आचा० ३३९। स्त्र्याद्यापातरहितः। उत्त. अणिगामसुक्खा-अनिकामसौख्याः-अप्रकृष्टसुखाः। ६०८1 उत्त० ४०० अणावायमसंलोए-अनापातासंलोकम्। ओघ. १२२ अणिगिण-अनग्नत्वम्, सवस्त्रत्वं तद्धत्त्वादनग्ना अणाबाहो-मोक्खो। दशवै. १३ इति। सम० १८१ अणासगं-परिज्ञा। निशी० ३५२ आ। अनशनं। निशी. अणिगृहंतो- अनिगृहन, प्रकटयन्। आव० ५३४। २५८ । अणिगहियबलविरिए-अनिगहितबलवीर्यः, न निगहिते अणासए- अनश्वः, अश्वरहितः। भग० ३२२१ बलवीर्ये येन सः बलं-शारीरं वीर्य-आन्तरः अणासन्नं-अनासन्नं, यद्व्यासन्नं भावासन्नं वा न शक्तिविशेषः। आव. २५९। भवति। ओघ० १२३ अणिग्गहो- अनिग्रहः, अनिषेधो मनसो विषयेषु अणासवो-अनाश्रवः, मध्यस्थो रागद्वेषरहितः। सूत्र० प्रवर्तमानस्य, अब्रह्मण एकादशं नाम। प्रश्न०६६। २४४। कर्मबन्धनिरोधोपायत्वात्, अहिंसायाः स्वैरः। प्रश्न० ३१॥ पञ्चत्रिशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। अनास्रवा-व्रतविशेषाः। | अणिच्च-अनित्यम्, न नित्यमस्थिरत्वात्। प्रश्न. ९६| आचा० १८२। | अणिच्चमावासं-अनित्यावासः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [42] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ७१। मनुष्यादिभवस्तच्छरीरम्। आचा० ४२९। अणिमिसा-अनिमेषा। आव० १२४१ अणिच्चाणुप्पेहा-अनित्यानुप्रेक्षा अणिमिसे-अनिमिषाः, मत्स्याः । दशवै० १०२१ जीवितादेरनित्यस्यान्प्रेक्षा। स्था० १९० अणियं-अणिकं, अग्रम-तुण्डमा प्रश्न.११५ अनीकअणिच्चेऊण-अ(न) चयित्वा। आव० १४६। कटकम्। उत्त०४३८५ अणिच्छियत्ता-अनीप्सितता, आप्तुमनिष्टता। भग० । | अणियट्ट-अनिवर्तः, मोक्षः। आचा. १९३१ २३। प्राप्तुमनभिवाञ्छितत्वम्। भग० २५३। प्रज्ञा० ५०४। | अणियट्टिबायरो- अनिवृत्तिबादरः, निवृत्तिबादरादूर्ध्वं अणिच्छियव्वो-अनेष्टव्यः, मनागपि मनसाऽपि न लोभाणुवेदनं यावत् भूतग्रामस्य नवमं गुणस्थानम्। प्रार्थनीयः। आव० ५७२, ७७८1 आव०६५० अणिज्जिण्णा- अनिर्जीणः, अणिअट्टी-भरते भविष्यज्जितः। सम० १५४| सामस्त्येनात्मप्रदेशेभ्यऽपरिशा-टितः। प्रज्ञा०६०२। अणियण-अनग्नकारणत्वादनग्न-विशिष्ट अणिज्जुहियाअंसी-अनिएंढा-कृतविभागापि नान्यत्र वस्त्रदायिनः, संज्ञाशब्दो वाऽयमिति। स्था० ३९९। नीतां-शिका। बृह. १९९आ। अणियणो-अनग्नः। आव०११११ अणिज्झाएत्ता-अनिद्ध्याय चक्षुरव्यापार्य। भग० ३१२ अणियतो- अनियतः, अनियमवान, अनवस्थित। पश्न अणिटुं-अनिष्टम्, सतामनभिलषणीयम्। आव० ५८९। ૨૮, अणिहत्ता-अनिष्टता, इष्टा-मनसा इच्छाविषयीकृता अणियत्तो- अनिवृतः। आव०८२३। तदविपरीता अनिष्टा तस्या भावः। प्रज्ञा०५०४। अणियदरिसणं-हयगजरथपदात्यनीकदर्शनम। निशी. अनिष्टता, इच्छाया अविषयता। भग० २५३। अणिण्हवणं-अनपलापः। निशी. ९ अ। अणियया-अनियता-अनिर्धारिता। प्रज्ञा० ३३९। अणितणा-वस्त्रदायिनः। स्था० ५१७। अणिया-अनिदा, अकारणम्। आचा० ३४१ अणितिए- अनितिकः-अविदयमाननियतस्वरूपः। भग० | मेधाधारणेन्द्रिय-पाटवदेहायुर्वर्धनकारी। निशी० २५४ ४६९। अ। अनाभो-गतः। सम. १४६| अणित्थंत्थं-अनित्थंस्थम, इतीदंप्रकारमापन्नमित्थं, । अणियाणे-प्रार्थनारहितः। भग० १२३ इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं, न इत्थंस्थं अनित्थस्थमिति, | अणियाहिवई-अनीकाधिपतयः-गजादिसैन्यप्रधाना केनचित्प्रकारेण लौकिकेनास्थितमिति। आव०४४५ एरावता-दयः। स्था.११७ नेत्थं तिष्ठतीति, अनियताकारम्। जीवा० २५० अणिलामयी- वातरोगिणी- बृह. २१९ । अणित्थंथे-अनित्थंस्थं परिमण्डलादिव्यतिरिक्तम्। अणिलो-निलओ जस्स नत्थि। दशवै. ९८१ भग०८५८, ८५९| अणिवारिए-अनिवारितः, निषेधकरहितः। विपा. ५२। अणिदा-अनिदा-अनिर्धारणा। भग० ४४। चित्तविकला अणिविद्धं-कम्मं एकारविज्जति। निशी० १०६अ। सम्यग्विवेकविकला वा। प्रज्ञा० ५५७) अणिव्वणं-सचितं। निशी०४३ आ। अणिदाणो-अनिदानः, देवेन्द्रादयैश्वर्याप्रार्थकः। प्रश्न अणिसिडिं- अनिसृष्टं, बहसाधारणे सत् यदेक एव १४७ ददाति। प्रश्न० १५५ परिहारिकम्। निशी. १६१ आ। अणिज्जंतं-अणिदयत्तियं कम्मंण कारविज्जति। मकर्तव्यं। ओघ० २१४। स्था० ४६०भग०४६६। निशी. निशी. १०६अ। १६ अ, ४८ आ। तत्स्वामिनानऽनत्संकलिम। आचा० अणिमिसच्छो-अनिमेषाक्षः, निश्चलनयनः। आव० ३२५ दोषविशेषः। आचा० ३२९। साधारणं बह७८४१ नामेकादिना अननुज्ञातं दीयमानम्। स्था० ४६७। दोषअणिमिसनयणे-अनिमिषनयनम, विकसितं नयनम्। विशेषः। प्रश्न० १४४१ भग० १७११ | अणिसिद्धो- अनिषिद्धः, अनुपयुक्तः। आव० २६७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [43] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] ८९। स्तोकप्रदेशम्। प्रज्ञा० २६३। पश्चाद्भावे स्तोके च। बह. ३३। स्तोकम्। प्रज्ञा० ५०२। प्रमाणतो वज्रादि। दशवै० १४७। लघुः, हीन। सूर्य० २६१ जम्बू० ५२२ अणुअतणुअ- अनुकतनुकानां-अतिसूक्ष्माणाम्। जम्बू० २३७ अणिस्सि(ब्भि) अप्पा-अनिभृतात्मा, अनिदानः। आव. ८४३। अणिस्सिए-अनिश्रितः, द्रव्यभावनिश्रारहितः प्रतिबन्धवि-मुक्तः । दशवै० २२३।। अणिस्सिओवहाणे-अनिश्रितोपधानं, ऐहिकामुष्मिकापेक्षा-विकलं तपः, योगसंग्रहे चतुर्थो योगः। आव० ६६४। अनिश्रितं तपः। प्रश्न. १४६। अणिस्सितं-अनिश्रितम्। आव० ३५८। सर्वाशंसारहितः। भग. ३८५ अणिस्सियं-अनिश्रितम्, कीर्त्यादिनिरपेक्षम्। प्रश्न. अणुओग-अनुयोगः, अर्थकथनम् सूत्रादनपश्चादर्थस्य योगोऽनुयोगः सूत्राध्ययनात्पश्चादर्थकथनम्। अणोर्वा लघी-यसः सूत्रस्य महताऽर्थेन योगोऽनुयोगः। आचा० २। व्याख्यानः। ओघ०८१| | अणुओगत्थो-अनुयोगार्थः, व्याख्यानभूतोऽर्थः। आचा० १२६ ७) अणिस्सिय-अनिश्रितम्, कुलादिष्वप्रतिबद्धम्। दशवै. | अणुओगदारं- अनुयोगद्वारम्, सूत्रविशेषः। आव० ७४०| ७२। अस्वाध्याये परिहर्तव्यसूत्रविशेषः। निशी० ७१ आ०| अणिस्सेयस-अनिश्रेयसः-अमोक्षाय। स्था० १४९। | अणुओगदारे- अनुयोगद्वारम्, अनुयोगद्वारसूत्रम्। अकल्याणाय, अमोक्षाय। स्था० २९२ अकल्याणाय। भग. २२१। स्था० ३८५ अणुओगो-अनुयोगः, सूत्रस्यार्थेनानुयोजनम्, अभिधेये अणिस्सो-अनिश्रः-कस्यचित्संबन्धिनाऽवष्टम्भेन व्यापारः सूत्रस्य योगो वा, अनुकूलोऽनुरूपो वा योगः। रहितः। उत्त०६३३॥ आव० ८६, स्था०४८११ अणिहय-अनिहतः, अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य सूत्रपाठानन्तरमनुपश्चामत्सूत्रस्यार्थेन सह योगोतृतीयम-ध्ययनम्। अन्त०३। घटना। जीवा. २ अनुकूलःअविरोधी सूत्रस्या-र्थेन सह अणिहे- अनिभः, अमायः। दशवै. २६८। अनिहः, योगो वा। जीवा० २। सूत्रस्यार्थेन सह सम्बन्धनं, परीषहोपसर्गनिहन्यत इति निहः, न निहः अनिहः- अनुरूपोऽनुकूलो वा योगो व्यापारः सूत्रस्यार्थउपस-गैरपराजित इति। सूत्र०६९। अस्रिहः प्रतिपादन-रूपः। अणोः-लघोः पश्चाज्जाततया अष्टकर्मरहितः, अरागः-रागद्वेषरहितः, वाऽनशब्दवाच्यस्य योऽभिधेयो योगोभावरिपभिरनिहतः। आचा. १९०| स्निह्यत इति व्यापारस्तस्तत्सम्बन्धो वाऽणुयोगो अनु-योगो वा। स्निहः, न स्निहः-सर्वत्र ममत्वरहित इति। सूत्र०६९। जम्बू. ४॥ दृष्टिवादचतुर्थो भेदः। सम० १२८। नियोगः। अकुट्ठिले। दशवै० १५१|| आव० ६९४। अनुयोजनम्, अनुकूलो वा योगः। अणुअणीए-अनीकम्, सैन्यम्। भग० ८९। सूत्रं, महान् अर्थस्ततो महतोऽर्थस्याणुना सूत्रेण योगो अणीयजसे- अनीकयशाः, नागस्य गाथापतेः कुमारः।। वा। ओघ० ४। विचारः। स्था० ४८१, ४९५) अनुरूपोsअन्त०४१ नुकूलो वा योगः। सम० १३१। अध्ययनार्थः। आव० ५४। अणीयसे- अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य प्रथममध्ययनम्। सूत्रस्पर्शकनियुक्तिः सूत्रानगमश्च। आव० ८६। परीक्षा। अन्त०३। आव० १५७ अणीसहूं- हस्तमानावग्रहादस्फिटितम्। बृह० २३९ । | अणुकंपं- अनुकम्पां-उपष्टम्भम्। स्था० १७०। अणीहारि-अनिर्हारि, तपोभेदः। उत्त०६०० अणुकंपओ-अनुकम्पकः-अनुरूपक्रियाप्रवृत्तिः। उत्त. अणीहारिमे- अनिर्हरणाद् गिरिकन्दरादौ अनशनम्। ३५१ स्था० ९४। जइ बहिं पडिवज्जइ। निशी०५८ अ। | अणुकंपा- अनुकम्पा, अनुग्रहः। दशवै० ६७। भक्तिः । अणु-अनु-प्रतिदिवसम्। सूर्य. १३६, १३३। थेवे दशवैः । ओघ० १९६। आव० ३४८। सम्यक्त्व गुणविशेषः। आव. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [44] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] १४७ ५९१। अनुक्रोशः। सम. १२७ दीनानाथविषयं दानम। अणुगीया-अनुगीता तीर्थकरादिभ्यः श्रुत्वा प्रतिपादिता। स्था०४९६। उत्त० ३८५ अणुकंपाए- अनुकम्पया-अनुग्रहेण। व्यव० १७२ आ। अणुग्गह-अनुग्रहः, अनुग्रहपरिहरणा अक्खोडभंगअणुकंपे-अनुकम्पते, उपकुरूते। उत्त० ४१९। परिहरणा, (अकृष्टभूशुल्कपरिहारः) आव० ५५२। अणुकड्ढइ-अनुकर्षयति। आव० २१८ ज्ञानायुपकारः। स्था० १५५ अणुकुएति-प्रच्छादयति, अक्षिप्ता। निशी. १८० अ अणुग्गहकसिणं-छण्हं मासाणं आरोवियाणं छदिवसा अणुकूला-संजमविग्घकरा (राज्यार्पणादिकाः) निशी. गता, ताहे अण्णो छम्मासो आवण्णो, ताहे जं तेण १९४ आ। अद्धवूढं तं ज्झोसितं जं पच्छाआवण्णं छम्मासितं तं अणुक्कंतो-अनुक्रान्तः-अनुचीर्णः। आचा० ३०६) वहति एत्थ पंच-मासा चउव्वीसं च दिवसा तेण अणुक्कम-अनुक्रमः। आव० ३४२। पारम्पर्यम्। उत्त. ज्झोसिया। निशी. १३५अ। अणुग्गहत्थं- अनुग्रहार्थं-अनुग्रहः-उपकारोऽभिधीयते, अणुक्कमंतो-अनुक्रम्यमाणः, प्रेर्यमाणः। सूत्र० १३६। अर्थशब्दः प्रयोजनवचनः। औघ ०४। अणुक्कसाई- अनुत्कशायी, अणुकषायी, उत्कण्ठितः अणुग्गहपरिहारो-अनुग्रहपरिहारः-राजकृतानुग्रहवशेन सत्कारादिषु शेत इत्येवं शील उत्कषायी, न तथा। यो न | एकदवित्र्यादिवर्षमर्यादया यथोक्तरूपं खोटादिभंजन सत्कारादिकमकुर्वते कुप्यति, तत्सम्पात्तौ वा एक वै त्रीणिवर्षाणि यावत् वसति, यावन्तं वा कालं नाहङ्कारवान् भवति सः। उत्त० १२४१ अणवः-स्वल्पाः राज्ञानुग्रहः कृतस्तावन्तं कालं वसति, न च हिरण्यादि संज्वलननामान इतियावत् कषायाः-कोधादयो यस्य। प्रददाति, नापि वेष्टिं करोति, न चापि चारभटादीनां उत्त०४२० भोजनादि प्रदानं विधत्ते, एष खोटादिभंगो। व्यव०४५ अणुगच्छइ-अनुगच्छति, आसन्नो भवति। जम्बू. १८७ | । तत्तियं कालं सो दव्वादिस् परिहरिज्जति अणुगच्छण-अनुगमनम्, आगच्छतः प्रत्युद्गगमनम्। तावत्कालं न दप्पतेत्यर्थः। निशी० ८९ आ। दशवै. २४१। | अणुग्गहो- अनुग्रहः, उपकारः। ओध०४ अणुगच्छमाणो- अनुगच्छन्-अवगच्छन्-बुद्ध्यमानः | अणुग्गामो-अनुग्रामः, विवक्षितग्रामानन्तरो ग्रामः। सन्। आचा० २२२ औप० २२॥ अणुगम- अनुगमः, अनुगमनमनेनास्मादस्मिन्निति वा | अणुग्घाई-अनुद्घातिकं यत्र गुरूमासादि प्रायश्चितं अर्थक-थनम्। आचा० ३। वर्ण्यते । प्रश्न. १४५ अणुगमणं- अनुगमनम्, आगच्छतः प्रत्युद्गमनम्। | अणुग्घाडिया-अनुद्घाटिता, अस्पृष्टा। दशवै० ४१। उत्त०१७ अणुग्घाता- गुरवः। निशी० ८७ अ। अणुगमिओ-अनुगमितः, अनुनीतः। आव० ५५५ अणुग्घातियं-जं णिरंतरं वहति गुरुं। निशी० ३०५आ। अणुगमो- अनुगमः निक्षिप्तसूत्रस्यानुकूलः गुरुगं| निशी. २५७ । परिच्छेदोऽर्थकथ-नम्। जम्बू० ५ अणुग्घायं-आचारप्रकल्पस्य सप्तविंशतितमो भेदः। अणुगयं- अनुगतं, अनवच्छिन्नम्। प्रश्न० ६६। युक्तम। आव०६६० दशवै० २०७। अभिप्रायानुवर्तिनमात्मानम्। उत्त० ३२२॥ | अणुग्घायकसिणं-जं कालगं जहा मासगुरूगादि अहवा जं युक्त। उत्त० ६३१॥ णिरंतरं दाणं एस मासलहगापि णिरंतरं दिज्जमाणं अणुगाम- अनुग्रामः, ग्राममार्गानुकूलः लघुर्वा ग्रामः, । अणुग्घातं भवति। निशी. १३५ आ। रूढित एकस्माद्वा ग्रामादन्यो ग्रामः। उत्त० ९९।। अणुग्घायण-अणोद्घातन-अणत्यनेन अणुगामियत्ताए- अनुगामिकतापरम्परया शुभानुबन्धो | जन्तुगणश्चतुर्गतिकं संसारमित्यणं-कर्म तस्योत्सुखाय भविष्यति। जीवा. २४२ प्राबल्येन घातनम्-अपनय-नम्। आचा० १४७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [45] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अणुग्घायाणि- गुरूणि प्रायश्चित्तानि। बृह० ६७ अ। स्था० ३। अणुपच्छाभावओ य थेवे य। बृह. ३३ अ। अणघदृता-अतृप्यन्तः। ओघ०७८१ विचारः। सम० ५० सूत्रस्यार्थेन सह सम्बन्धनम्, अणुघाईय-अणुद्घातं, न विद्यते उद्घातो सूत्रस्यार्थप्रतिपादनरूपः। स्था० ३। लघुकरणलक्षणो यस्य तपोविशेषस्य तत् यथाश्रुतदानं, अणुज्जंगी- अनवद्याङ्गी, शिवादेवीविशेषणम्। उत्त. तदयेषां प्रतिषेवाविशे-षतोऽस्ति ते। स्था० ३११ ४१६। श्रीमहावीरस्वामिनः सुता जमाले र्या, अणुचरिया-चरिका, नगरप्राकारयोरपान्तराले। बह० ५३ | प्रियदर्शनाऽपरनाम। उत्त. १५३| । अणुज्जइज्जमाणाई- एकं स्वरूपतोऽनृजूनि अपरं च तेषां अणुचिण्णो-अनुचीर्णम्, आचरितम्। आव० २२७। क्वचित्कार्येऽनुपयोगात्केनचिदनक्रियमाणानि। उत्त. अनुष्टितः। ओघ० १०३ ५४९। अणुचिंतणं-अनुचिन्तनम्, पर्यालोचनम्। आव० ५८९| | अणज्जता- ऋजुभावविरहितः। निशी. २८९आ। अणुचिन्नं- अनुचीर्णम् सम्यक् अणुज्जा-अनवद्याङ्गी, श्रीमहावीरस्वामिनो ज्येष्ठा तदर्थावगमासंगशक्तिग- निवर्तकसमभावप्राप्त्या भगिनी, सुदर्शनाऽपरनाम। उत्त० १५३। धर्ममेघनामकसमाधिरूपेण परिणमितम्। जीवा०४। महावीरस्वामिनः पुत्रीनाम। आचा० ४२२॥ अनुचीर्णाः-कायसंगमागताः सम्पातिमादयः। आचा. अणुज्जियत्तं- वराकत्वम्। बृह० २आ। २१७ अणुज्जुए- अनृजुकः, कश्चिदृजूकर्तुमशक्यतया। उत्त० अणुचिय- अनुचितः-भावितःशैक्षो वा। बृह० २३८ अ। ६५६। अणुजत्तं-अनुयात्रम्। उत्त० ३०४। अनुयात्रा, अणुज्जुकं-अनृजूकम्, वक्रम, अधर्मदवारस्य नवमं राजपाटिका। आव०७२० नाम। प्रश्न. २६॥ अणुजत्ता-अनुयात्रा। आव० ३६५ अणुट्ठाणे- अनुत्थाने। स्था० ३३०| अणुजाए- अनुजातः, तदृशः। सूर्य० २३३ अणुट्ठिएसु-अनुत्थितेषु-श्रावकादिषु। आचा० २५६। अणुजाणं- रथयात्रा। बृह० १५५ । बृह० २५८ आ। व्यव० | | अणुट्ठिया- अनुत्थिता, निविष्टा। आव० ७२७। १७ आ। अणुहिहंतो-अनुत्तिष्ठन्तः। बृह० ४ अ। अणुजाणपेक्खओ- अनुयानप्रेक्षकः। आव० ५७७। | अणुण्णवण- अनुज्ञापयति। ओघ० १९९। अणुजाणे- अनुजानन्। उत्त० २९३। अणुण्णवणाजयणा- वसत्यायनुज्ञापनदोषगुणाः। अणुजाते- पितृसमः। स्था० १८४। निशी० १२आ। अणुजायं- अनुयातं, भृतम्। जम्बू० २१२। अणुण्णवेति- अनुज्ञापयन्ति। आव० ११७॥ अणुजीवंति-अनुजीवन्ति-तदुपार्जितवित्तायुपभोगतः | अणुण्णासं- नासिकाविनिर्गतस्वरानुगतम्। जम्बू. ४०। उप-जीवन्ति। उत्त०४४१। अणुण्णेत्ता- अनुनीय-प्राप्य ध्यात्वा। सम० १२३। अणुजोगगत- तीर्थंकरादिपूर्वभवादिव्याख्यानग्रंथो | अणुतडियभेय-अनुतटिकाभेदः, अवटतटभेदवद् यो गण्डिका-नुयोगश्च भरतनरपतिवंशजानां भेदः। भग० २२४१ निर्वाणगमनानुत्तरविमानवक्त-व्यताव्याख्यानग्रन्थ अणुतडियाभेदे- अनुतटिकाभेदः, इक्षुत्वगादिकः। प्रज्ञा० इति दविरूपेनयोगे गतोऽनयोगगतः। स्था० ४९॥ રછ| अणुजोगी-अनुयोगी-अनुयोगो-व्याख्यानं प्ररूपणं वा। | अणुत्तपत्तो- लज्जनीय। निशी० २६६ आ। स्था० ३७५ अणुत्तरं- अनुत्तरम्, सम्यक्। दशवै० १५९) अणुजोगो-अणोः-लघोः पश्चाज्जाततया वा अनन्यसदृशः। आव०६०। अन्त्तरंअनुशब्दवाच्यस्य सूत्रस्य योऽभिधेये योगो सर्वसंयमस्थानोपरिवर्तिनं। उत्त. ३९३| व्यापारस्तेन सम्बन्धो वा सोऽणु-योगोऽनुयोगो वेति। | अनुत्तरां- सर्वलोकाकाशोपरिवर्तिनीमतिप्रधानां वा। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [46] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] २५७। उत्त० ३९३| अणुनवनं- अनुज्ञातम्। ओघ० १६०| अणुत्तर-अनुत्तरम्, वृद्धिरहितम्। आचा० १४१ अणुनाओ-अनुज्ञातः। ओघ० २१५॥ अणुत्तरणवासो-अनुत्तरणपाशः, आत्मनः | अणुनास-सानुनासिकं नासिकाकृतस्वरम्। स्था० ३९६। पारतन्त्र्यहेतुतया पाशवत्पाशः, अन्त्तरणश्चासौ अणुन्नया- अनुन्नया-नोर्ध्वमुखा। व्यव० २३७ आ। पाशश्च। उत्त० ४३। अनुत्तरणवासः न विद्यते अणुन्नवणा-अनुज्ञापना, वन्दनके द्वितीयं स्थानम्। उत्तरणं-पारगमनमस्मिन् सती-त्यनुत्तरणः, स चासौ | आव. ५४८ वासश्च-अवस्थानम्। उत्त०४३। अणुन्नविय-अनुज्ञापितः। आचा० ४२६| अणुत्तरनाणी-केवलज्ञानवान्। उत्त० २७० अनुज्ञाप्ययाचित्वा। आचा० ३३८१ अणुत्तरधरे-न विद्यते उत्तरमन्यत्प्रधानमेषामिति। अणुन्नवेमाणउत्त० ३५७ तत्स्वजनादींस्तत्परिष्ठापनायानुज्ञापयन्तः। स्था० अणुत्तरधरो-अनुत्तरधरः, न विद्यते उत्तरं ३५४३ अन्यत्प्रधानमेषा-मित्यनुत्तराः, ते च | अणुन्ना- अनुज्ञा, अनुमोदनम्। सूत्र० ३२९। प्रकमात्प्रकर्षप्राप्ता ज्ञानादय एव गुणा-स्तान् सूत्रार्थयोरन्यप्रदानम्। व्यव० २६ अ। अधिकारदानं। धारयतीति। अनुत्तरान् गुणान् धारयतीति वा। उत्त. स्था० १३९। अणुन्नायं- अनुज्ञातम्, भोग्यतयैव वितीर्णम्। प्रश्न. अणुत्तरविमाणे-नैषामन्यान्युत्तराणि विमानानि सन्ति | १०२ इति अनुत्तरविमानानि। अन्यो० ९२ अणुपभु-जुवराया, सेणावति। निशी. १७४ आ। अणुत्तरे-स्थित्यादिभिः सकलनरकज्येष्ठेऽप्रतिष्ठान सेनाधिपतिः। बृह. ९०आ। इति। उत्त० ३९२ अणुपरियन्ति-अनुपरियन्ति, सातत्येन पर्यटन्ति। अणुत्तरो-अनुत्तरः-न विद्यन्ते उत्तरा:-प्रधानाः उत्त० २९६ स्थितिप्र-भावसुखयुतिलेश्यादिभिरेभ्योऽन्ये देवाः। | अणुपरिवट्टइ- अनुपरिवर्तयते, आत्मनश्चावयते। सूर्य उत्त० ७०२१ १०७ अणुत्तरो- अनुत्तरः, कृष्णवासुदेवागमनम्। आव० १६३। | अणुपरिवट्टिय- अनुपरिवर्त्य, प्रादक्षिण्येन परिभ्रम्य। अचल ? विजयभद्र २ बलदेवत्रयागमनम्। आव० १६३ | जीवा० ३७५, ३९९| अणुत्तरोववाइय-अनुत्तरोपपातिकम्। भग० २२२। अणुपरिहारी-जतो जतो परिहारी गच्छति ततो ततो अणत्तरोववाइया-अनुत्तरोपपातिकाः प्रज्ञा०६९| | अणपिट्ठतो गच्छति। अण-थोवं पडिलेहणादि साहेज्जं अणुदिन्नं- (अनुदीर्णम्)। भग० ५८१ करेतीति। निशी. १३२आ। अणुदिसा-अनुदिशः, प्रतिदिशः। दशवै २०१। एकप्रदेशा | अणुपविटे- अनुप्रविष्टः-तदुदयवर्ती। स्था० २१९। अनुत्तराः (दिक्कोणाः)। स्था० १३३। अणुपस्सओ- अनुपश्यतः-पर्यालोचयतः। उत्त० ३१०| अणुद्दिहो-अनुद्दिष्टः, यावन्तिकादिभेदवर्जितः। प्रश्न. अणुपात्तं-कम्मंण कारविज्जतित्ति। निशी० १०६) १०८ अणुपालइत्ता- अनुपाल्य-सततमासेव्य। उत्त० ५७२। अणुद्धरी-अनुद्धरी, आत्मदोषोपसंहारविषये अणुपालणा- अनुपालना, अनुयो॰ विशुद्धिः, द्वारवत्याम-महमित्रवेष्ठिभार्या। आव०७१४। | प्रत्याख्यानशुद्ध्या पञ्चमो भेदः। आव० ८४७। अणुचुअ-अनुभूताम्, आनुरूप्येण यथामार्दङ्गिकविधि अणुपालणासुद्धे- अनुपालनाशुद्ध-कान्तारादिषु न भग्नं उद्धृता-वादनार्थमुत्क्षिप्ता। जम्बू. १९४। यत्प्रत्याख्यानम्। स्था० ३४९। अणुधम्मो-अनुधर्मः। सूत्र० ३९९। अणुपालियं-अनुपालितं, पूर्वकालसाधुभिः अणुनई- अनुनदि, नदी नदी प्रति। आव० ४५३। | पालितत्वाद्विव-क्षितसाधुभिश्चानु मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [47] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] पश्चात्पालितमिति । प्रश्न० ११३ | अणुपालिया- आत्मसंयमानुकूलतया पालिता । स्था० ४४०| अणुपालेइ- अनुपालयति । भग० १२५ । अणुपालेम - अनुपालयामि, पौनःपुन्यकरणेन । आव ० ७६१ ॥ आगम- सागर- कोषः ( भाग :- १) अणुपिट्ठि - आनुपूर्व्या । सम० ६८| अणुपव्वसो- अनुपूर्वतः क्रमेण । उत्त० २५२॥ आनुपूर्व्याक्रमेण। उत्त॰ ५१८| अणुपुव्वि- आनुपूर्वी, मूलादिपरिपाटी । जम्बू० २९| शास्त्रीयोपक्रमभेदः । आचा० ३। अणुपुव्विविहारीणं- अनुपूर्वविहारिणां प्रतिपालितदीर्घसंयमानां शास्त्रार्थग्रहणप्रतिपादनोत्तरकालमवसीदत् संयमाध्ययनाध्यापनकियाणां निष्पादितशिष्याणामुत्सर्गतः द्वादशसंवत्सरसंलेखनाक्रमसंलिखितदेहानां । आचा० २६०१ अणुपुव्वेणं- आनुपूर्व्या-यथेष्टकालावश्यकक्रियारूपया चतुर्थषष्ठाचाम्लादिकया। आचा० २८४ | अनुक्रमेणपरिपाट्या यौगपद्येन । आचा० २४१ | [Type text] अणुप्पेहा- मनसा। बृह॰ ५४ आ । अनुप्रेक्षा, अर्हद्गुणानां मुहुर्मुहुः सततमनुचिन्तना। आव० ७८६ । यो मनसा परिवर्त्तयति, न वाचा । दशकै० ३२ | ध्यानोपरमकालभाविनी अनित्यत्वाद्यालोचनारूपा । आव॰ ५९०। सूत्रार्थानुस्मरणं ध्यानस्य पश्र्चात् पर्यालोचनानि, भावना । स्था० १९० सूत्रवदर्थेsपि सम्भवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षणं, चिन्तनिका । स्था० ३४९। ग्रंथार्थयोः चिन्त-नम्। ओघ० १८९| अणुफासे- अनुस्पर्शः, अनुभावः । दशवै० १९८ । अणुफासो - अणुभवो। दशवै० ९६ । अणुबंध- अनुबन्धः, निरन्तरम्। ओघ० १०८| सन्तानभावेन प्रवृत्तिः । जम्बू० १२५ | अणुबंधो- विवक्षितपर्यायेणाव्यवच्छिन्नेनावस्थानम् । भग० ८०८ | सातत्येन भवनं तन्मरणानाम् । उत्त० २३९ | अणुबद्धं - अनुबद्धमं, सन्ततम् आव० २२८ \ स्था० ४३० | अणुबद्धरोसपसरो- अनुबद्धः - सन्ततः कोऽर्थः - अव्यवच्छिन्नो रोषस्य - क्रोधस्य प्रसरो-विस्तारोऽस्येति अनुबद्ध-रोषप्रसारः । उत्त० ७११| अणुबद्धा - सन्ततमालिंगिता । सम० १२६। अणुबलं - अनुबलम्। उत्त० १७८। अणुभो - अनुद्भटः, अनुल्बणः । जीवा० २७५ | उत्त० ५८७ अणुपुव्वो- अनुपूर्वः, पूर्वस्याः पूर्वस्याः अनु । जीवा० २७० हा अनुप्रेक्षा, अनु - पश्चाद्भावे प्रेक्षणं, स्मृतिः, ध्यानाद्भ्रष्टस्य चितचेष्टा। आचा॰ ५८३। अणु- अनुगुणनं करोति। ओघ० ८४ | अणुप्प- अनर्प्यः-अनर्पणीयः, अढौकनीयः । स्था० ४६५। अणुप्पग्गंथे- अनुरूपतया - औचित्येनं विरतेर्नत्वपुण्योदया-दणुरपि वा - सूक्ष्मोऽप्यल्पोऽपि प्रगतो ग्रन्थो - धनादिर्यस्य यस्माद्वा । स्था० ३६५ | अणुप्पयाडं- अनुप्रदातु-परंपरकेण प्रदातुम् । व्यव० २१७ । अणुभागकम्मे - अनुभागकर्म-कर्मप्रदेशानां अणुप्पवाए - अनुप्रवादः, पूर्वविशेषः। उत्त॰ १६३। अणुप्पवादपुव्वं - अनुप्रवादपूर्वम्। आव० ३१६। अणुविसे- अनुप्रविशेत्, मनसि लब्धास्पदो भवेत् । संवेद्यमानताविषयो रसस्तद्रूपं कर्म। भग० ६५| अणुभागो - अनुभागः, उत्त० ९९| अणुप्पसूयाइं - अनुप्रसूता - आश्रिता । आचा० ३४८ | अपि अनुमतम् । बृह० ३ अ अप्पे- धर्मध्यानस्य पश्चात्प्रेक्षणानिपर्यालोचनान्यनु-प्रेक्षा। भग० ९२६ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [48] अणुभवणसण्णा - अनुभवनसंज्ञाः, आहाराद्याः । आचा० १२ अणुभाग- अणुभागः, आयुर्द्रव्याणामेव विपाकः । भग० २८०| अचिन्त्या शक्तिर्वैक्रियकरणादिका । स्था० ६९, १४४ | विशिष्टवैक्रियादिकरणविषयाऽचिन्त्या - शक्तिः जीवा० १०९| सामर्थ्यम्। प्रज्ञा० ८८ अणुभावकम्मे— अथाबद्धरसो वेद्यते तदनुभावतो वेद्य कर्मानु-भावकर्मेति। स्था० ६६। अणुभावनामनिहत्ताउए- अनुभावनामनिधत्तायुः - अनुभावः- प्रकर्षप्राप्तो विपाकः, तत्प्रधानं नाम, “आगम-सागर- कोषः " [१] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] यद्यस्मिन् भवे तीव्रवि-पाकं नामकर्मानुभूयते त(य) था | अणुमाणे- अनुमानम्, अनुनारकायुषि अशुभवर्ण लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणादेः गन्धरस्पर्शीपघातानादेयदुःस्वरायशःकीर्त्यादिनामानि पश्चान्मीयतेऽनेनेत्यनुमानम्। भग० २२२ तदनुभावनाम तेन सह अन्वितिलिंग-दर्शनसम्बन्धानुस्मरणयोः पश्चान्मानंनिधत्तमायुरनुभावनामनिधत्तायुः। प्रज्ञा० २१८ ज्ञानमनुमानम्। स्था० २५४। अणुभावे- अनुभावः, विपाको रसविशेषः। भग. ३५ अणुमाणे- अनुमान्य, सम्यक् क्षमयित्वा। व्यव० २५४। तीव्रतमदुःखादिः। आव०४९६। अनभावः सूर्य २७९। अणुमोदणे-साइज्जणाभेओ। निशी० १०३आ। विपाकः। उदयो रस इत्यर्थः। स्था० ४२४| | अणुम्मुअंतो-अनुम्मुञ्चन, अपरित्यजन्। आव० ४०७५ अनुभावो-अनुभावः, माहात्म्यम् सूत्र. १२६। विपाकः। | अणुयत्तंतं-अनुवर्तयन्। आव० ३०५ प्रज्ञा० २१८। स्वभावः, स्वरूपाम्। जम्बू० २९९। अणुया- अणुकाः। दशवै० १९३। तीव्रादिभेदो रसः सम० १० शापानग्रहसामर्थ्यम्। उत्त० | अणुयाणं-रथयात्रा। बृह. ६१ आ। पडिमातिमहिमा। ३६५। प्रभावः। जम्बू० २४६। कारणम्। जीवा० ३३९। निशी० २३९ आ। विपाकोदयः। जीवा० १३०| सामर्थ्यादिलक्षणः। आव. अणुरंगा- गड्डीए। निशी० ३२४ अ। घंसिका, यान५९६। विपाकः। आव० ५९८। रसः। उत्त. २३० विशेषः। बृह. १२५ आ। अणुभासइ-अणुभाषते। आव० ३१११ अणुरंगिणी- अनुरङ्गिनी, अनुरज्यते-अनुकारं अणुभासणा- अनुभाषणा, प्रत्याख्यानशुद्धिः। आव० ८४७ | विदधाती-त्येवंशीला। जम्बू. ५१८। सूर्य. १३६| अणुमए- अनुमतम्, मानितम्। भग० १२२। अणुरंगो-घंसिओ। निशी० ३७ आ। कार्यव्याघातस्य पञ्चादपि मतः। भग० ४६८। अणुरत्ता-अनुरागः - भावतः प्रतिबन्धः। उत्त० ३९४। अणुमओ-अनुमतः, अभिष्टो मोक्षाङ्गता। आव० ३२६। । आन्तरप्रतियोगतः परस्परस्नेहवन्तौ। उत्त० ५२१॥ अभिप्रेता। बृह. २८९ आ। अनुरक्ताः -सततं प्रतिबद्धाः। उत्त० ७०८। अणुमगा-शीघ्रम्। (आतु०) अणुराओ- अनुरागः। आव० ३०४॥ अणुमतं-अनुमतं, वैगुण्यदर्शनस्यापि पश्चान्मतम्। | अणुरागयं- अन्वागतम्, अनुरूपमागमनम्। भग० ११७। औप. ९६| अणुराधा-अनुराधा, नक्षत्रविशेषः। सूर्य. १३०| अणुमन्ना-अनुमतिः। बृह. १२८ अ। अणुराहा- नक्षत्रविशेषः। स्था० ७७ अणुमयं-अनुमतम्, अभिरुचितम्। ओघ०६४। | अणुलिंपइ-अनुलिम्पति जीवा० २५४। अनुमतः-सम्मतः। जीवा० २७६। अणुलिंपणं- अनुलिम्पनं-सकृल्लिप्ताया भूमेः अणुमया-अनुमता, अनुज्ञाता। प्रज्ञा० २५७। पुनर्लेपनम्। प्रश्न० १२७ विप्रियदर्शनस्य पश्चादपि मता। विपा. ४२१ | अणुलिहंतं- अनुलिखत्, अभिलङ्घयत्। सूर्य २६४, अणुमहत्तरो- मूलमहत्तरे असण्णिहिते जो पुच्छणिज्जो । जीवा० ३७९, जम्बू० २९७। अनुलिखत्-अतिलङ्घयत्। धुरे ठायति सो। नि० चु० १५८ आ। प्रज्ञा. ९९। अणुमहयरो- मूलमहत्तराभावे प्रष्टव्यः। पुरःस्थानश्च। | अणुलिहति-अनुलिखति, अभिलङ्घयति। जीवा० २०९। बृह. १९०आ। अणुलेवणं- अनुलेपनम्, सकृल्लिप्तस्य पुनः अणुमाणं- अनुमानम्, स्वार्थम्। आव० ४२७। दृष्टान्तः। | पुनरुपलेपनम्। प्रज्ञा० ८० दशवै० १३०, १२६ अणुलोम-अनुलोमम्, अनुकूलमनुगुणं वा। जीवा० ३। अणुमाणइत्ता- लघुतरापराधनिवेदनेन मृदुदण्डादित्व- | अनुकूलकरणम्। स्था० ३७६) माचार्यस्याकलय्य यदालोचनम्। भग० ९१९। अनुमानं | अणुलोमछाया- अनुलोमच्छाया, सूर्यच्छायाविशेषः। कृत्वा। स्था० ४८४१ | सूर्य० ९५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [49] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम- सागर- कोषः ( भाग :- १) [Type text] अणुलोमणा - अनुलोमना - प्रज्ञापना। बृह० १२३ आ । अणुलोमवाउवेगो - अनुलोमवायुवेगः । अनुलोमःअनुकूलो वायुवेगः, शरीरान्तर्वर्त्तिवातजवो यस्य सः । वायुगुल्मरहितो- दरमध्यप्रदेशः । जीवा० २७७ अलोम अनुलोमम्, मनोहारि । दशवै० २२३ | अलोमियं कटुगफरिसादिदोसवज्जियं जं भासमाणो अभासओ लभ । दशवै० ११५| अणुल्लय- द्वीन्द्रियविशेषः । उत्त० ६९५| अणुल्लसिओ - असिच्यमानः । आव० ६२१| अणुल्लावे- अनुलाप - पौनःपुन्यभाषणम् । स्था० ४०८ | अणुवत्तो - अनुपयुक्तः, साधुं प्रत्यदत्तावधानः । ओघ ० २३| अणुवकथं- अनुपकृतम्, परैरवर्तितम् । आव० ५९७ अणुवघाइए - अनुपघातिके - उपघातश्च यत्र न भवति । उड्डाहादि तस्मिन् । ओघ० १२२ ॥ अणुवघाइया - आचारप्रकल्पस्य षड्विंशतितमो भेदः । सम० ४७ | अणुवचओ - अनुपचयः, अनुपचीयमानता, अनुपादानमिति । उत्त० ६ । अणुवते - अनुपतिष्ठति, अरुह्यमाणे अरुज्झते। ओ० १४५ | अणुवट्टावणीया- अनुवर्तनीया । ओघ० १३४ ॥ अणुवट्टेति करोति । भग० ३२०| अणुवत्त- अनुवृत्तः-भूयः प्रवृतो वारद्वयं प्रवृतः । व्यव० ४४१ अ अणुवत्तइ- अनुवर्त्तते। आव० ५६१। अणुवत्ति- अनुवृत्तिः-सर्वेषु अर्थेषु अप्रतिकूलता। बृह ४३ अ अणुवत्तिओ - अनुवर्तितः । आव० १११ । परिगृहीतो महाजनेन । व्यव० ४४१ आ । अणुवत्तिया - परिवेष्टिता । निशी० १८४आ । अणुवत्ती - अनुवृत्तिः । आव० ५१५ । अणुवत्ते- अनुवर्तमानः - साम्प्रतकालभावी । दशवै० ६२ ॥ अणुवदिट्ठे- जं नो आयरियपरंपरागयं मुत्कलव्याकरणवत्। निशी० २३आ। अणुवदेसा - अनुपदेशः- गुरुणाऽनुक्तः। ओघ० १५१। अणुवज्जो - संसक्तासवपिशितादिराहारः, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] शुषिरतृणवल्क-लादिरुपधिः । बृह० ४७अ । अणुवमा - अनुपमा। जीवा० २७८ अणुवयमाणा- अनुवदतः - अनु - पश्चाद्वदतः पृष्ठतो वदतोऽन्येन वा मिथ्यादृष्ट्यादिना कुशीला इत्येवमुक्तः । आचा० २५१ | अणुवयारं - निडुरं । नि०चु० २७८ अ । अणुवरय- अनुपरतम्, अविरतम् । भग० १८१| अणुवरयकाइया- अनुपरतकायिकी–देशतः सर्वतो वा सावद्ययोगाद्विरतः नोपरतोऽनुपरतः कुतश्चिदप्यनिवृत्त इत्यर्थः तस्य कायिकी । प्रज्ञा० [50] ४३६| अणुवरयकायकिरिया - अनुपरतस्य अविरतस्य सावद्यात् मिथ्यादृष्टेः सम्यग्दृष्टेर्वा कायक्रियाउत्क्षेपादिलक्षणा कर्म्म- बन्धनिबन्धनम् । स्था० ४१| अणुवसंते - अनुपशान्तः, उदयावस्थः । प्रज्ञा० २९१ | अणुवसंपज्ञमाणगती - अनुपसम्पद्यमानगतिः, परस्परमुपष्ट-म्भरहितानां पथि गमनं, विहायोगतेश्र्चतुर्थो भेदः । प्रज्ञा० ३२७| अणुवसु- अनुवसु- सरागः श्रावकश्च । आचा० २४०| अणुवाए - अनुपातः, अनुसारः । प्रज्ञा० १४४ । अनुगमनंअनुरागः। उत्त॰ ६३१ अणुवायगइए- अनुपातगतिः - अनुसारगतिः । सूर्य० १६ । अणुवाल - गोशालक श्रावकविशेषः । भग० ३७० | अणुवासग- अनुपासकः, मिथ्यादृष्टिः । निशी० २५| अणुवासणा - अनुवासना, अपानेन जठरे तैलप्रवेशनम् । विपा० ४१| अणुविद्धं - अनुविद्धं - मिश्राः व्याप्ताः। जम्बू॰ १९३। अणुवी - अनुवीचि, आनुकूल्यम्, मैथुनाभिलाषम्। सूत्र १११| अनुचिन्त्य, विचार्य सम्यग्निश्र्चित्य। आचा॰ ३८६। आलोच्य। दशवै० २२१ | अणुवीइनिट्ठाभासी - अनुविचिन्त्य निष्ठाभाषी - विचार्य निश्चितभाषकः । आचा० ३९२ ॥ अणुवीइभासए- अनुविचिन्त्यभाषकः पर्यालोच्य भाषकः, द्वितीयव्रतस्य द्वितीया भावना | आव० ६५८ । अणुवीति- चिंतेऊण | निशी० १०० अ । अणुवीय-पुत्विं बुद्धी अणुचिंतियं । दशवै० ११५ | अणुवहेत्ता - अणुबृंहयिता- परेण स्वस्य क्रियमाणस्य “आगम- सागर- कोषः " [१] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] तस्या-नुमोदयिता, तद्भावे हर्षकारी। स्था० ३८९। अणुसट्ठि-अनुशासनम्-अनुशास्तिः अणुवेलंधर- लवणसमुद्रशिखारक्षकः। सम० ३३। सद्गुणोत्कीर्तनेनो-पबृंहणम्। दशवै० ४६। धम्मकहा। अणुवेलंधरराया-अनुवेलन्धरराजा, भुजगेन्द्रः। जीवा० निशी० १७० । ३१३॥ अणुसट्ठी-उवदेसपदाणं, थुतिकरणं वा। निशी. १३४ आ। अणुवेलंधरनागरातीणं- अनुवेलंधरनागराजा-नागजाति- सद्भावपुरस्सरं प्रज्ञापना। बृह० ८७ आ। उवदेसो। विशेषः। स्था० २२८१ निशी. २०७आ। ५१ । इहलोकापायदर्शनम्। बृह. अणुवेहसलागा-शस्त्रकोशविशेषः। निशी. १८ आ। १०३ अ। अनुशासनम्। स्था० १५५ अणुव्वट्टे- अनुवर्तयन्, तत्रस्थ एव। आव० ३३९। अणुसम-अनुसमा-अनुरूपा, अविषमा। स्था० ४५० अणुव्वणो-अगर्वितः। बृह. ४ | अणुसमय-समयमाश्रित्य। उत्त० २३१। अनुसमयं, अणुव्वतं-अनुव्रतम्। आव० ८२३। प्रतिक्षणम्। सूर्य० ८०। भग० २०| सततम्। उत्त० २३९। अणुव्वत्ता-अनुव्रतानि-अनु–महाव्रतकथनस्य अणुसया-अनुशयः-पश्चात्तापः। जम्बू० १२३। पश्चात्तद-प्रतिपत्तौ यानि व्रतानि कथ्यन्ते तानि | अणुसार-अनक्षरमपि यदनुस्वारवदुच्चार्यते अथवा सर्वविरता-पेक्षया अणोः-लघोर्गुणिनो व्रतानि। रणादित् तत्। आव. २५ अलाक्षणिकः स्था० २९११ सुखमुखोच्चारणार्थः। दशवै० ८६। अणुव्वय-अनुवर्तिनी, परिणामिकीबुद्धिदृष्टान्ते भार्या। | अणुसासणाणि-अनुशासनानि-दुःस्थस्य सुस्थताआव० ४३५। अन्विति-कुलानुरूपं व्रतम्-आचारोऽस्या । | संपादनानि। सम० ११८ शिक्षणम्। उत्त० २६७। अनुव्रता पतिव्रता इति, वयोऽनुरूपा वा। उत्त० ४७६। | अणुसासम्मि-अनुशास्ति। उत्त० ५५२। अनुव्रतं-स्थूलप्राणातिपातनिवृत्तिः । दशवै० १९२ अणुसासिज्जंतो-अनुशास्यमानः, तत्र तत्र चोद्यमानः। अणुव्वाणं- अनाव्या(स्या)नं-स्निग्धम्। ओघ० १७१। दशवै० २५६| अणुव्विग्गो-अनुद्विग्नः-प्रशान्तः अणुसिट्ठी- अनुशासनमनुशास्तिःपरीषहादिभ्योऽबिभ्यत्। दशवै. १६३, १७९) सद्गुणोत्कीर्तनेनोपब्रहणं सा विधेयेति यत्रोपदिश्यते अणुसंचरे-अनुसञ्चरेः, अन्विति-लक्षीकृत्य सञ्चरेः-त्वं सा। स्था० २५३। अशिष्टिः उपदेशप्रदानम्। व्यव० सम्यक् संयमाध्वनि यायाः। उत्त० ४४६। १९७अ। शिक्षाम्। उत्त० ३२३। धर्मकथाम्। ओघ०७३। अणुसंसरइ-अनुसंसरति, दिग्विदिशां गमनं | अणुसूयगा- अनुसूचकाः-नगराभ्यंतरे चारमुपलभन्ते, भावदिगागमनं वा स्मरति, अनुसंस्मरति वा। आचा० । सर्वमनुसूचकेभ्यः कथयंति। व्यव० १७० आ। अणुसूयत्तं- अपरशरीराश्रितता, परनिश्रा। सूत्र० ३५७। अणुसजइ-अनुसजति, सन्तानेनानुवर्तते। जीवा० २८४ | अनुस्यूतत्वं-परनिश्रया कृम्यादित्वम्। सूत्र० ३५७। अणुसज्जणा-अनुसर्जना। आव० १५७। अव्यवच्छेदं अणुसोयचारी-अनुश्रोतश्चारि-प्रतिश्रयादारभ्य करोति। उत्त० ५८४। अनुवर्तना। बृह. २८९ अ। भिक्षाचारी। स्था० ३४२। नद्यादिप्रवाहगामी। स्था० अणुसज्जमाणा- अनुषञ्जन्तः, सन्तानेनानुवर्तमाना। ર૭રી. जम्बू० ३५५ अणुस्सासिय- अनुच्छ्वसत्। दशवै० १९। अणुसज्जित्था- अनुसक्तवन्तः, अणुस्सियत्त-अनुत्सिक्तत्वम्-अनुद्धतत्वम्। उत्त० पूर्वकालात्कालान्तरमन-वृत्तवन्तः। भग० २७८१ अणुसज्जित्था- अनुषक्तवन्तः, | अणुस्सुयं-अनुश्रुतम्-अवधारितम्। उत्त० २४७। कालात्कालान्तरमनुवृत्तवन्तः सन्ततिभावेन भवन्ति । अणुस्सुयत्तं-अनुत्सुकत्वम्-विषयसुखं प्रति स्म। जम्बू०१२८१ निःस्पृहत्वम्। उत्त० ५८६) अणसह अशिष्ट-उत्कलनम्। व्यव. १९९ अ। अणेगचित्ते-अनेकचित्तः, अनेकानि चित्तानि २०१ ५९११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [51] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] कृषिवाणिज्या-वलगनादीनि यस्यासौ, खलुरवधारणे, | ३४५। (भक्त०) संसारसुखाभिलाष्य-नेकचित्त एव भवति। आचा० १६३। | अणोल्हविज्जंतो-अविध्यापितः। आव. ३८४। अनेकसंख्यानि चञ्च-लतया चित्तानि-मनांसि यासां अणोवणिहिआ-अनौपनिधिकीसा। उत्त०२९७ वक्ष्यमाणपूर्वानपूर्व्यादि-क्रमेणाविरचनं प्रयोजनं यस्या अणेगगुणा- अनेकगुणाः-अनेकप्रकाराः। बृह. ७५ । । इति। अनुयो० ५२ अणेगतालाचराणुचरियं-नानाविधप्रेक्षाचारिसेविताम्।। अणोवमा-अनुपमा। प्रज्ञा० ३६४। भग० ५४४ अणोवमाइ-खाद्यविशेषः। जम्बू. १९८१ अणेगपत्ती-अनेकपत्नी। आव० ९५ अणोहडे- अजाजियं, कोंटलाति उवकारेण विरहियं। अणेगरूवधुणा-बहनि वस्त्राणि एकीकृत्य धुनाति। ओघ | निशी. १८३ अ। ११० अणोहंतरा-संसारतरणासमर्थाः। आचा० १२३। अणेगरवधुणे-अनेकरूपा चासौ सङ्ख्यात्रयातिक्रमणतो | अणोहट्टिए-अनपघट्टकः, यो बलाद्धस्तादौ गृहीत्वा युगपदनेकवस्त्रग्रहणतो वा धनना च प्रकम्पनात्मिका प्रवर्त्तमानं निवारयति सोऽपघट्टकस्तदभावात्। विपा० अनेकरूपधूनना। उत्त० १४२॥ ५२ अणेगवासानउयं-अनेक वर्षनयुतं, अनेकवर्षाणां-असङ् | अणोहियं ख्येयवत्सराणां नयुतं-सङ्ख्याविशेषम्। उत्त० २७७। अविदयमानजलौधिकामतिगहनत्वेनाविदयमानोहां वा। अणेगावाती-परस्परविलक्षणा एव भावाः इति वादिनः। भग०६७ स्था०४२५ अण्णउत्थिए-अन्ययूथिकाः अन्ययूथंअणेलिसं-अनीदृशं-अनन्यसदृशम्। आचा०४२९। विवक्षितसंघादपरः संघस्तदस्ति येषां तेऽन्ययूथिकाः अणेव्वाणी-जाहे ताणि सुरादीणि ण लब्भंति ताहे तेसिं । तीर्थान्तरीयाः। भग. ९८ अन्यतीर्थिकाः। जीवा० १४३। अभावे परमं दुक्खं समप्पज्जतित्ति, मोक्खऽभावो वा। | अण्णउत्थिया-तच्चण्णियादि बंभणा खत्तिया गारत्था। दशवै० ८८ निशी। अणेसणा-अनेषणा-भिक्षादोषविशेषः। आव० ५७५१ अण्णओमुहो- अन्यतोमुखः। आव० ६४० अणेसणिज्जं-अनेषणीयम्-आधाकर्मादिदोषदुष्टम्। | अण्णओहुत्तं- अन्यतोभूतम्। आव० २०५। आचा० ३२११ अण्णगच्छेल्लय-अन्यगच्छीयः। आव० ३२३। अणोक्कंता-अनुपक्रान्ता-अनिराकृता। औप० ३४। अण्णगिलायं-अन्नग्लानः-पर्यषितमन्नं मया अणोग्घसिअ-अनिर्मार्जनम्। जम्बू०५७। भोक्तव्यमित्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहः। बृह. ३१२ । अणोज्जा- अनवद्या, स्वामिदुहिता। आव० ३१२॥ अण्णगिलायए-अन्नग्लायकः। औप० ३९| बृह. ११२ अणोतप्पया-अलज्जनीयता। बृह. ३०९ आ। अण्णतित्थियपवत्ताणुजोगे- अन्यतीर्थिकेभ्यःअणोमदंसी-अवमं-हीनं मिथ्यादर्शनाविरत्यादि कपिलादिभ्यः सकाशाद्यः प्रवृत्तःतदविपर्य-स्तमनवमं तददृष्टं शीलमस्येत्यनवमदर्शी, स्वकीयाचारवस्तुतत्त्वानामनुयोगो-विचारः सम्यग्दर्शनज्ञा-नचारित्रवान्। आचा० १६४। तत्पुरस्करणार्थः शास्त्रसंदर्भ इत्यर्थः सोऽन्यतीअणोमाणं-अपमानं अनादरकृतं न भवति। ओघ० १०३ | र्थिकप्रवृत्तानुयोगः। सम० ४९।। अणोरपारं-अनर्वाक्पारम्-विस्तीर्णस्वरूपम्। प्रश्न. ६ | अण्णतित्थिया-रक्तपटादयः। निशी. ७६अ। अनाद्यपर्यवसितम्। आव०६०१| अन्तीर्थिका-चरकपरिव्राजकशाक्याजीवकवृद्धश्रावकप्रअर्वाग्भागपरभागवर्जित-मनाद्यनन्तम्। सूत्र० ४०३ । भृतयः। निशी. १४७ आ। अनर्वाक्पारमिव महत्त्वादनर्वाक्पारम्। प्रश्न० ५१। अण्णत्थ-अन्यत्र, परिवर्जनार्थे। आव० ८५० देशीवचनं, प्रचुरार्थे, आराद्भागपरभाग -रहिते। आव. अण्णदत्तहरे- अन्यदत्तहरः-अन्येभ्यो दत्तं-राजादिना मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [52] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] वितीर्ण हरति अपान्तराल एवाच्छिनत्ति। उत्त० २७४। | अण्णियपुत्तो-अर्णिकापुत्रः। निशी. १९४ आ। अन्यादत्तहरः-ग्रामनगरादिषु चौर्यकृत्। उत्त० २७४। | अण्णिया-अर्णिका, दक्षिणमथुरायां वणिक्पुत्री। आव० अण्णमण्णघडत्ता-अन्योऽन्यघटता, अन्योऽन्यं ૬૮૮ घटासमुदाय-रचना यत्र तदन्योऽन्यघटं तद्भावस्तत्ता, अण्णियापुत्ते-अर्णिकापुत्रः। बृह. २३५आ। जालिका। भग० २१५ अण्णोयत्ता-ईषदवनता। व्यव० १२४ आ। अण्णवं-अर्णवः-अण्र्णो-जलं विदयते यत्रासावर्णवः। अण्हयंति-क्षरति (तन्दु०) उत्त. २४१। अण्हय-आस्नवः, आ-अभिविधिना स्नौति-श्रवति कर्म अण्णसंभोइय-अन्यसाम्भोगिकः। आव० ८४७। यस्मात् स आश्रवः प्राणातिपातादिः। प्रश्न. २ अण्णहम्मिणी- परतीर्थिका अगारस्था अविरतिका। बृह. | अण्हयकरं-आश्रवकरं। औप० ४२। ४७ आ। अण्हयकरिं-कर्माश्रवकरीं। आचा० ३८८1 अण्णाइहसरीरं-अन्याविष्टशरीरम, अण्हयकरे-कर्माश्रवकारी। आचा० ४२५ व्यन्तराधिष्ठितशरीरम्। आव० ६३३। अण्हाणं-अस्नानम्। आव० १५४। अण्णाइट्ठो-अन्याविष्टः, परायत्तः, यक्षाविष्टो वा। अण्हायगो-अस्नायकः। आव० ८३१| उत्त. ११३। आविष्टः। अन्त०२० अतज्जाय-अतज्जातपारिस्थापनिकी, पारिस्थापनिक्या अण्णाइत्तो-अपराद्धः। निशी० १०१ अ। द्वितीयो भेदः। आव० ६१९। अण्णाएसि-अज्ञातैषी, अज्ञातो जातिश्रुतादिभिः एषति- अतज्जायं-अतज्जातीयं, भिन्नजातीयम्। आव०६२३। उञ्छति पिण्डादीति। उत्त० १२४। अतडं-अतीर्थं, अन्यतीर्थं वा। बृह० ३१ अ। अतित्थं। अण्णाणं-अज्ञानम्। चतुर्थः कुडङ्गः। आव० ८५६) निशी०१७। एकविंशतितमः परिषहः, अतति-सततमवगच्छति। स्था० १० कर्मविपाकजादज्ञानान्नोविजेत। आव०६५७) अतन्त्रम्-शास्त्रलक्षणरहितम्। आव० १२०० अण्णाणदोसे-अज्ञानदोषः। औप०४४। अतरं-तरीतमशक्यं, विषयगणं भवं वा। उत्त० २९२ अण्णाणिय-अज्ञानिकः, कत्सितं ज्ञानमस्यास्तीति। अतरंतं- ग्लानम्। बृह. २२९ आ। अतरन्त-अतिग्लानः। आव० ८१७ ओघ. १८३। अण्णाणियवाई-सप्तषष्टिभेदा अज्ञानवादिनः। सम. अतरंत-ग्लानाः। स्था० १३८ १११| अतरंते- अतरत्-असहः। व्यव० ३७ अ। अण्णाणो-अज्ञानः, कुदृष्टिमोहितः। आव. ३४६) अतरंतो-अतरन्, अशक्न्व न्। आव०८४७। अशक्नुवन्अण्णातचज्जा-अज्ञातचर्या। आव० ८२२॥ असमर्थः। दशवै०८९। अशक्नवान्। आव० ६३७ अण्णातपिंडे- अज्ञातपिण्डः, अन्तप्रान्तः, अज्ञातेभ्यो वा ग्लानः। ओघ० ४५। यदाऽऽकाशव्यवस्थिताभ्यां पूर्वापरासंस्तुतेभ्यो वा पिण्डोऽज्ञातोञ्छवृत्त्या लब्धः। पादाभ्यां न शक्नोति स्थातुं तदा। ओध० ८४ गिलाणी। सूत्र० १६४ निशी० ४३ अ, ३० आ, ३६० अ। ग्लानः। बृह० ५आ, अण्णायं-अज्ञातोञ्छं। बृह. १८६ आ। निशी० ८४ । अण्णाय-अज्ञातम्, अनुमानतः अज्ञातम्। भग० १९७, अतरण-अतरणः, अशक्तः, ग्लानः। ओघ०६७, बृह. २००। २३४ आ। अण्णायया-अज्ञानता, तपसोऽप्रकाशनम्। प्रश्न. १४६। | अतरो- ग्लानः। बृह. २२४ अ। रत्नाकरः। बृह. ३७) अज्ञातता, तपस्यज्ञातता, योगसङ्ग्रहे सप्तमो योगः।। अतसी-अयसी, धान्यविशेषः। स्था०४०६गच्छविशेषः। आव०६६४१ प्रज्ञा० ३२ धान्यविशेषः। निशी० १४४ आ। अण्णावदेसो-अदंसियभावो। निशी० ७२ आ। अतहणाणे-अतथाज्ञानम्। स्था०४८१। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [53] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) अतारं - अतारम्, तरितुमशक्यम्। भग॰ ८२| अतारिमा - दुस्तराः । सूत्र० ८६ अति:- अतिशयवान्। स्था० ४७३। अतिंति - प्रविशन्ति । निशी० २०३ अ अतिंतिणः- अतिन्तिणः, अलाभे आगम- सागर - कोषः ( भाग :- १) नेषयत्किञ्चनभाषी । दशवै० २३३ | अतिन्तिनः, न सकृत्किञ्चिदुक्तः सन्नसूयया भूयो भूयो वक्ता, प्रतिपूर्णः सूत्रादिना । दशवै० २५८ | अतिअत्तिय- आदियात्रिकाः, सार्थरक्षकाः। बृह १२५ अतिउच्चाओ अतिश्रान्तः, प्राघूर्णकादिः ओघ. १८६६ अतिउव्वरिए अत्युद्धरिते ओघ० १३८८ अपिकाए- महोरगेन्द्रः । स्था० ८५ा अतिकाय: महोरगभेटविशेषः । प्रजा० ७०% अतिक्कमा अतिक्रमः - अतिलङ्घनं, विनाशः । आचा० १३५ प्रतिश्रवणतो मर्यादाया उल्लंघनम् । व्यव० ९० अ। अतिक्कीलावासो- अतिक्रीडावासः, सुस्थितलवणाधिपस्य भौमेयविहारविशेषः । जीवा. ३१५| अतिक्खतुंडो- अतीक्ष्णतुण्डम् अतीक्ष्णमुखम् । आव ० ७६४ | अतिक्रान्ता - अतीता। आचा० १७८ । अतिखदं प्रभूतम् । बृह० १८७ अ अतिखड़ गुरोरालोके भोक्तव्यम्, अतिप्रचूरं भक्षयेत् । ओघ० १८२ अतिगए- अतिगतः आव० १७३३ अतिगओ - अतिगतः। दशकै ४१ अतिगता- प्रविष्टाः । बृह० १८४ अ अतिगमणं - प्रवेशः । बृह० १६३ आ । अतिगमनं, प्रवेशनम्। बृह० २७५ आ । अतिगुपित अतिगूढम् । आव० २९६ । अइगुलिया अतिगुलिका- कुक्कुसा। बृह० १९५अ अतिघरं - संजतिपडिस्सतो। निशी० २३७ आ । अतिच्छिए अतिक्रान्तायाम् ओघ १५२३ अतिजाति- पविसति निशी० ३४ आ अतिजाते - समृद्धतरः । स्था० १८४ | अतिज्जाणं- अतियानम् आव० ३६६॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] अतिज्जाहि- अतियास्यति -प्रवेक्ष्यति। स्था० ४६३ । अतिणिओ- आनीतः । आव० २०४ | अतिणीओ- अतिनीतः, प्रापितः आव० ८००| अतिणेउं प्रवेश्य बृह. ७४ आ अतिण्णो- ग्लानः । बृह० २८८ आ । अतितणित- आगच्छद्गच्छत्। निशी. १२० आ अतिताणकहा— अतियानकथा - नगरादौ प्रवेशकथा। स्था० २१०| [54] अतिताणगिहाति- अतियानगृहाणि - नगरादिप्रवेशे यानि गृहाणि । स्था० ८६॥ अतितेया- अतितेजा, रात्रिनामविशेषः । सूर्य० १४७ अतित्थ- अतीर्थम्, तीर्थस्याभावोऽतीर्थम्, तीर्थस्याभावश्रचानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो वा प्रज्ञा० १९ । अतित्थसिद्धा अतीर्थ-तीर्थान्तरे साधुव्यवच्छेदे जातिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्गा मरुदेवीवत् सिद्धा अतीर्थसिद्धाः स्था० ३३॥ - अतित्थाविते - प्रत्याख्यातः, निषिद्धः। निशी० १८५ अतित्थिओ - अस्तमितो | निशी० ३१२अ समाप्तेत्यर्थः । निशी० १२६अ। अतिददाति - (अइए) प्रकरोति अतिगच्छति वेति । स्था० २९८ अतिधाडिय - अतिधाडितः - भ्रमितः । प्रश्र्न० ५३ | अतिपरिणामकं- अपवादैकमतिः । बृह० १३२अ । अतिपरिणामा अतिपरिणामाः, अतिव्याप्त्या परिणामो यथोक्तस्वरूपो यस्य सः । व्यव० ७२ अ अतिपात प्राणिनः विभ्रंशः स्था० २९० अतिपातनम् - प्राणवता सह वियोजनम् । स्था० २६ । अतिपास अतिपाश्र्व एरवतावसर्पिणीतीर्थकरः । सम. १५३| अतिपुरुष- किंपुरुषभेदविशेषः प्रज्ञा- ७०| अतिप्पणया- अश्रुलालादिक्षरणकारणशोकानुत्पादनेन । भग० ३०५| अतिबलराया- अतिबलराजा आव० ११६| अतिमन्द्र - गम्भीरः । जम्बू० ५२९ । अतिम (मुत्तकुमारो राजर्षिनाम। निशी. २७ आ अतिमुक्तक:- षड्वर्षप्रव्रजितः । भग० ५८६ । अतिमुक्तकः- नालबद्धपुष्पविशेषः । प्रज्ञा० ३७ | “आगम- सागर-कोषः” [१] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] १८२ अतिमुक्तकचन्द्र- (अइमुत्तचंदए) पुष्पविशेषदलम्। अतिविद्वान-विदितागमसद्भावः सन्। आचा. १९२| भग० १३१| अतिवेगो-अतिवेगः-अतिक्रान्ताशेषवेगः। प्रश्न. ५१| अतिमुत्तग-अतिमुक्तकलता-लताविशेषः। जीवा. अतिशुक्लो- शुक्लशुक्लो। स्था० ३७४। अतिसेसे-शेषाण्यतिक्रान्तं सातिशयम्। स्था० ३८४| अतिमुत्ते-अतिमुक्तः, कुमारश्रवणः। अन्त०६। अतिशेषाः-अतिशयाः। स्था० ३२९। अतिशेषे-अतिशये। विजयराज्ञः श्रीदेव्याः सुतः। अन्त०२३ उत्त० २८७ अतियाण- अतियानं-नगरप्रवेशः। स्था० १७३। प्रवेशः। अतिसंधेइ-अतिसन्दधाति। आव० ११० निशी. २७३ । अतिसओ-मनःपर्यवावधिज्ञाने अतिशयवन्त्यध्ययनानि अतियातो-अतियातः, गतः। उत्त० ४८१। च। निशी० १६अ। अतियारे-अतिचारः-अतिचरणं ग्रहणतो अतिसाहसिकः-आत्मवत् प्रसाधितमग्निलोकं यः व्रतस्यातिकरणम्। व्यव० ९० अ। प्रत्याचक्षीत सः। आचा०५२ अतिराउले-स्वामिक्लम्। प्रज्ञा० २५३। अतिसेसि-स्फीतानि। ओघ० ९६) अतिरायितं-अताडितम्। ओघ० ११० मनःपर्यवादयतिशयवान्। निशी. २०० अ। अतिरिच्छच्छिन्नं-अतिरश्चीनच्छिन्नं अतिसेसी-पात्रभूतः, प्रवचनाधारः। बृह० २१ आ। तिरश्चीनमपाटितं। आचा० ४०५। अतिस्निग्धमधुरम्- वाण्यतिशयः। सम०६३। अतिरित्तं- अतिरिक्तम्, कुक्षिपूराहारप्रमाणातिक्रान्तम्। अतिहिपूआ- अतिथिपूजा आहारादिदानेन। दशवै० २४०। प्रश्न. १५४१ अतिहिवणीमते-भोजनकालोपस्थायी अतिरित्तसज्जासणिए-अतिरिक्ता-अतिप्रमाणा प्राघूर्णकोऽतिथिस्तद्दानप्रशंसनेन तद्भक्तात् यो शय्याव-सतिरासनानि च पीठकादीनि यस्य सन्ति लिप्सति सोऽतिथिमाश्रित्य वनीपकोऽतिथिवनीपकः। सोऽतिरिक्तश-य्यासनिकः। सम० ३७ स्था० ३४१। अतिरित्ता-घंघशाला| निशी. १०६ आ। अतिहिसंविभागो-अतिथिसंविभागः-साधसंविभागः। अतिरूपः- भूतभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० आव०८३७ अतिरेगं-अतिरेकः, आधिक्यम्। भग. १८६। अतिरेकम् । अतिही-अतिथिः-भोजनार्थं भोजनकालोपस्थायी, अत्यर्थम्। ओघ. २२७ आत्मार्थं निष्पादिताहारस्य गृहव्रतिनः साधरेव। आव. अतिलोलुपः-अतीव रसलम्पटः। उत्त० ३४५। ८३७ निःस्पृहोऽभ्यागतः। आचा० ११५ अतिवट्टमाणे-अतिवर्तमानः-सर्वबामात् सर्वाभ्यन्तरं भोजनकालोपस्थाय्य-पर्वो वा। आचा० ३२५ प्रतिगच्छन्। सम. ९७ आगन्तुकम्। आचा० ३१४, भग० ५२०॥ अतिवट्टिय- अतिवर्तितः-भ्रामितः। प्रश्न. ५६। विशिष्टतिथ्यभावे। बृह. ९० अ। अतिवतित्ताणं-अतिव्रज्य-अतिशयेन गत्वा। प्रज्ञा. अतीओ-आगतः। आव. १४५१ ५१० अतीय-अतीतम्-उत्तीर्णम्। भग० २९३। अतिवयती- अतिव्रजति, बाहुल्येन गच्छति। जीवा० अतीति-एति। उत्त० ३०२ अतीमि-अटामि। आव. २२० अतिवासा-अतिवर्षा, अतिशयवर्षा वेगवदवर्षणम्। भग० अतीरंगमा-अतीरङ्गमाः, तीरं गच्छन्तीति तीरङ्गमाः, १९९| न तीरङ्गमा अतीरङ्गमाः। आचा० १२४। अतिवाहयति-प्रेरयति, विनयति च। प्रश्न०६४। अतुक्कोसे- आत्मनः परेभ्यः सकाशाद्गुणैरुत्कर्षणम्अतिविज्जे-अतिविदयः, तत्त्वपरिच्छेत्री विदया यस्य। | उत्कृष्टताभिधानम्। भग० ५७२। आचा० १५९ | अतुरियं-अत्वरितम्, कायिकत्वरारहितम्। भग० १४०। १२९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [55] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] स्तिमितम्। ओघ० १०८ हन्त्यात्मप्रश्नहा। उत्त० ४३४१ अतुरियगति-अत्वरितगतिः-मन्दगतिः। उत्त०७१११ | अत्तभासिओ-अण्णस्य संतियलाभं णो भुंजति। निशी. अतुरियभासी-अत्वरितभाषी। आचा० ३९२१ ३३४ अ। अतोया-शीतोदकविरहिताः संपत्यः काजिकेनाचा- अत्तमाया-आत्मना आदाय। भग० २८६) मनकारिणी। बृह. १८० अ। अत्त(त)रंतस्स-अशक्नुवतः ग्लानादेः। ओघ० १२७। अत्त-आत्मा, सिद्धिः। उत्त० १०४। आप्तः, अप्रतारकः। अत्तलदिउ- यदात्मना लभते तदाहारयति। ओघ. १५०| दशवै०७५ अत्तवं-आत्मवान्, सचेतनः। दशवै० २३६। अत्तए-आत्मजः-पुत्रः। भग० ४६०५ अत्तसंपग्गहिए-आत्मसम्प्रगृहीतः, आत्मैव सम्यक् अत्तगवेसए-आत्मगवेषकः-आत्मानं गवेषयति-कथं । प्रकर्षण गृहीतो येन। दशवै. २५६) मया ऽऽत्मा भवान्निस्तारणीयः इत्यन्वेषयते। उत्तः । अत्तसमाहिए-आत्मसमाहितः, आत्मना समाहितः १०४ आत्मानं-चारित्रात्मानं गवेषयति-मार्गयति। ज्ञानदर्श-नचारित्रोपयोगेन सदोपयक्त इत्यर्थः। आत्मा उत्त० १२० वा समाहितोऽ-स्येत्मसमासहितः। सदा अत्तगवेसी-आत्मगवेषी, आत्महितान्वेषणपरः। दशवै. शुभव्यापारवानित्यर्थः। आचा० १९११ २३७। अत्तसरिसो-आत्मसदृशः, कलानुरूपः उत्त०४०। अत्तचिंतओ अत्तहिय-आत्महितः, मोक्षः। दशवै० १५०। मोक्खो। अभ्युद्यतजिनकल्पयथालन्दकल्पानामेकतरं विहारं । दशवै० ६८ प्रतिपत्स्य इत्यात्मचिन्तकः, गणे वा तिष्ठन् न वहति । | अत्ता-आत्मा। आव० २९८१ मोक्षः, संयमो वा। सूत्र. ९० तप्तिमन्येषां साधूनाम्। व्यव० २३२ आ। आत्ताः-गृहीताः, स्वीकृताः। स्था०६३। आ अत्तहागुरुओ-आत्मार्थगुरुः, आत्मार्थ एव जघन्यो अभिविधिना त्रायन्ते-दुःखात् संरक्षन्ति सुखं गुरुः-पापप्रधानो यस्य सः। दशवै० १८७ चोत्पादयन्तीति आत्राः आप्ता वा एकान्तहिताः। भग. अत्तट्ठियं-स्वीकृतम्। आचा० ३२५ ६५६। आर्ता:-क्षुत्तृड्भ्यां पीडिताः, आप्ताःअत्तहेति-आत्मार्थयन्ति-परिभञ्जते। बृह. २७८ अ। रागद्वेषरहिताः, आत्ताः -गीतार्थाः। बृह. १४३ अ। अत्तहो-अप्पणो अट्ठो भत्तादिउ। निशी० १३२ आ। अत्ताणओ-अत्राणः। आव. २११। अत्तणा-आत्मना कृतं। स्था० ४९२। अत्ताणा-यष्टिद्वितीयाः पान्थाः, कार्पटिकाः, संयता अत्तणिस्सेसकारए-आत्मनिःशेषकारकः, आत्मनो वा। बृह० ८२आ। निः-शेषमिति-शेषाभाव प्रक्रमात् कर्मणः करोति- अत्ताणो-अत्राणः, अनर्थप्रतिघातवर्जितः। प्रश्न. १९। विधत्त इत्या-त्मनिःशेषकारकः। उत्त० ३०५) त्राण-रहितः, अनर्थप्रतिघातकाभावात्। प्रश्न. ११| अत्तणोउवन्नासं-आत्मन उपन्यासः। दशवै.५२ गवादिहारिणो। निशी० ११। अत्तते-आत्मजः। स्था० ५१६) अत्ताहिट्ठिय-आत्माधिष्ठितः। ओघ. १५० अत्तत्ता-आत्मता-जीवास्तिता स्वकृतकर्मपरिणतिर्वा। अत्ति(ति)मुत्तय-अतिमुक्तकः, आचा० २३८५ पुष्पप्रधानवनस्पतिविशेषः। जम्बू० ४६ अत्तत्तासंवुड-आत्मात्मसंवृतः आत्मन्यात्मना संवृतः- अत्तुक्कोसे-आत्मोत्कर्षः। सम०७१। प्रतिसंलीनः। भग० १८४। आत्मग्णाभिमानः। स्था० २७५१ अत्तदोस-आत्मापराधम्। स्था० ४२४। अत्तेय-आत्रेय ऋषिनाम। आव० ३७२। अत्तदोसोवसंहार-आत्मदोषोपसंहारः, योगसङ्ग्रहे अत्तो-आप्तः, मोक्षमार्गः, प्रक्षीणदोषः, सर्वज्ञः। सूत्र. एकविंशतितमो योगः। आव०६६४। १९५१ रागादिरहितः। दशवै. १२८ अत्तपण्हहा- आत्मनि प्रश्नः आत्मप्रश्नस्तं अत्तोवणीए-आत्मैवोपनीतः-तथा निवेदितो-नियोजितो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [56] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] यस्मिन् । स्था० २५११ अत्यं- अस्त्रम्, नाराचादि क्षेप्यायुधम्। प्रश्न. १९१६ । अर्थः विषयः । आव० २८३ अर्थः ज्ञेयत्वात् सर्व्वमेव वस्तु, अभिधेयः । उत्तः ३६८८ अभिधेयः, जीवादितत्त्वरूपो वा उत्त० २८५ अर्थ्यत इत्यर्थ:स्वर्गापवर्गादिः । उत्तः ४४८ । व्याख्यानं । स्था० ५२ | सूत्रस्य व्याख्यानं स्था० १७०१ अत्यंगओ अत्थे पव्वए गतो, अचक्खुविसयपंथे वा गतो दश० १२३ आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) अत्यंतमयम्म- अस्तमयति । उत्त० ४३५ | अत्थंतरं - अर्थान्तरम्, पृथग्भूतम् । आव० ६०१ | अत्यंतरभावे- अर्थान्तरभावः भेदः । आव• ४७६१ अत्य- (अत्थपुरिसे) अर्थपुरुषः, अर्थार्जनपरः आव २७७| अर्थः, निरुपमसुखरूपमोक्षः। दश. १८९ अर्थनम्, असम्प्राप्तकामभेदः, तदभिप्रायमात्रम् । दश १९४| अस्तः, अस्तपर्वतः अदर्शनं वा । दशवै० २३२ | आदेशः । बृह० २२आ। अत्यअवगमो - अर्थावगमः अर्थपरिच्छेदः । दश- १२५ अत्थई - गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ | अत्थकंखिया - प्राप्तेऽप्यर्थेऽविच्छिन्नेच्छाः । भग० ६७१ | अत्थकरो- अर्थकर, विद्याद्यर्थकरणशीलः, भावकरविशेषः । आव० ४९९ | अत्थकहा- अर्थकथा, विद्या शिल्पमुपायोऽनिर्वेदः सञ्चयश्च दक्षत्वं साम दण्डो भेद उपप्रदानम् । दशवै० १०७ | अत्थक्के- अकाण्डः । अनवसरः । दशवै० ९३ । अत्थगवेसणया- अर्थगवेषणया, अर्थगवेषणनिमित्तम् । सूर्य- २९२ अत्यग्धं अस्ताघः ओघ ३२ अस्ताघम् आक० ४१९| अत्यजुत्ती - अर्थयुक्तिः, हेयेतररूपा अर्थयोजना दश १६२॥ अत्यजुत्तो- अर्थयुक्तः, अर्थसार, अपुनरुक्तो, महावृत्तः जीवा. २५५ अत्यदूसणं- अर्थदूषणव्यसनम् अर्थोत्पत्तिहेतवो ये सामादयु-पायचतुष्टयप्रभृतयः प्रकारास्तेषां दूषणम्। व्यव० १५७ | अत्थधम्मगई- अर्थश्च धर्मश्चार्थधर्मौ यदि मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [57] [Type text] वाऽध्यतेहितार्थि-भिरभिलष्यते, गतिः गत्यर्थानां ज्ञानार्थतया हिताहितलक्षणा स्वरूपपरिच्छित्तिः । उत्त० ४७२॥ अत्थनिउरंगे- संख्याविशेषः सूर्यः ९१। अत्थनिउरे - संख्याविशेषः । सूर्य० ९१ । अत्थनिकुरं अर्थनिकुरं, चतुरशीतिरर्थनिकुराङ्गशतसहस्राणि जीवा. ३४५ अत्थनिकुरंगं- अर्थनिकुराङ्गम्, चतुरशीतिर्नलिनशतसहस्राणि । जीवा० ३४५। अत्थपर्य- अर्थपदम, युक्तिर्हेतुर्वा सूत्र- १५३| अत्थपिवासिय अप्राप्तार्थविषयसंजाततृष्णाः । भग - ६७१ | अत्यहुत्त - अर्थपृथक्त्व - श्रुताभिधेयोऽर्थोः तस्मात् सूत्रं पृथक्, अर्थेन वा पृथु अर्थपृथु तद्भावः अर्थपृयुत्वं । आव ० ६१ | अत्थमणमुहुत्तं- अस्तमनमुहूर्तम्, अस्तोपलक्षितं मुहूर्तम्। जम्बू. ३५९ ॥ अत्थमंत- अर्थवताम्, प्रयोजनवताम् । भक्षणादयर्हाणाम्। जम्बू० २४३१ अत्थमंतमेत्त- अस्तमयति मित्रे सूर्ये, सायम्। जम्बू २४३| अत्थरणं- आस्तरणम्, आस्तरणं करोति। ओध० ४१% अत्थरय आच्छादनम्। जम्बू० ५५| आस्तरकेण, अस्तरजसा वा । भग० ५४२ | अत्थलोला- अर्थे लोला:- अर्थलोला :- लम्पटाः - चौरादयः । उत्त० ५९०| अत्थविगप्पणा- अर्थविकल्पना आव० ४८४१ अत्थविणिच्छय- अर्थविनिश्चयः - अपायरक्षकं कल्याणावहं वा अर्थावितथभावम्। दशकै २३५| अत्यसंजुत्तं सब्भावसंजुत्तं । दशवें. ८९॥ अत्थसंपयाणं- सांवत्सरिकार्थदानम्। आचा० ४२२| अत्थसत्थं- अर्थशास्त्रम् आव० ४२२१ अर्थोपायप्रतिपादनं शास्त्रम्। प्रश्र्न॰ ९७| नीतिशास्त्रादि । जम्बू० २१९| अत्थसिद्धे- अर्थसिद्धः, शास्त्रीयदशमदिवसनाम। सूर्य० १४७, जम्बू ० ४९० अत्थस्स अस्तो मेर्यतस्तेनान्तरतो रविरस्तं गत इति व्यपदिश्यते तस्य पर्वतराजस्य गिरिप्रधानस्य । सम० “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] ६५ अत्थिकाय-अस्तिकायः, प्रदेशराशिः, अस्तीति सन्ति अत्था-अर्थाः, द्रव्याणि। उत्त. ३८४१ अर्थ्याः, प्रार्थनीया आसन भविष्यन्ति च ये कायाः प्रदेशराशयस्ते वा। उत्त० ३८४ अर्यन्त-गम्यन्त इत्यर्थाः। ओघ० ५ अस्तिकायाः। भग. १४८ प्रदेशसङ्घातः। जीवा० ६। शब्दादयः। स्था० २५३, आचा० २०११ फलानि, वस्तूनि। धर्मास्तिकायादिः। दशवै. १३४॥ स्था० ३३। अर्थ्यन्ते-अभिलष्यन्ते क्रिया-र्थिभिरर्यन्ते अत्थिकायउद्देसए- गवतीदवितीयशतकस्य वा अधिगम्यन्ते। स्था० ३३५। नियुक्तिभा दशमोद्देशकनाम। भग०६०८। ष्यसंग्रहणिवृत्तिचूर्णिपञ्जिकादिरूपाः। सम० १११। अत्थिकायधम्म-अस्तिकायधर्मः। दशवै. २११ अत्थाणं-देशविशेषः। भग०६८० अत्थिकायधम्मे-अस्तयः-प्रदेशास्तेषां कायोअत्थाणमंडविया-आस्थानमण्डपिका। आव०८९। राशिरस्ति-कायः स एव धर्मो-गतिपर्याये जीवपद अत्थाणि-आस्थानिका। उत्त० ११५ गलयो रणात्। स्था० ५१५ अत्थाणिमंडवो-आस्थानमण्डपः। निशी. २७४ आ। अत्थिक्क- आस्तिक्यम्अत्थाणियं- आस्थानम्। उत्त.१४६ जीवस्यास्तित्वनित्यत्वकर्तुत्वअत्थाणियमंडविया-आस्थानमण्डपिका। बृह. २७ आ। भोक्तृत्वमोक्षतत्साधनश्रद्धानम्। आव० ५९१। अत्थाणी- आस्थानी। आव०६७२ आस्थानिका। आव० अत्थिनत्थि-अस्तिनास्तिनामपूर्वः। स्था० १९९। १४५, २९८१ अत्थिय-अस्थिक-बहबीजवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२| अत्थाणीवरगओ-आस्थानीवरगतः। आव० २१६) अस्ति-कायः। भग०८१। अत्थिकम्, अत्थामा- अस्थामानः, सामान्यतः शक्तिविकलाः। अस्थिकवृक्षफलम्। दशवै० १७६) जम्बू. २३९। अस्थामा, सामान्यतः शक्तिविकलः। अत्थिया- बहबीजकवृक्षः। भग० ८०३। भग० ३२३ अत्थी-अर्थज्ञाता। बृह. ११२। अत्थायणयं-आस्थानिका। आव० ३४२ अत्थीनत्थिपवायं- यदयथा लोके अस्ति नास्ति च अत्थायाणं- अर्थादानं-द्रव्योपादानकारणमष्टांगनिमित्तं | तद्यत्र तथोच्यते चतुर्थपूर्वनाम। सम० २६। तद्द-दत्-प्रयुञ्जानः। स्था० १६४| अत्थुआ-आस्तृता। आव० १७३। अत्थावत्ती- सामर्थ्यगम्या। बह० १२१ आ। अत्थुरणं-आउरणं। निशी० ६१ अ। अत्थावत्तीदोसो-अर्थापत्तिदोषः, यत्रार्थादनिष्टापत्तिः, | अत्थव्वइ-(अत्थरइ) आस्तीर्यते। ओघ० ८३| सूत्र-दोषविशेषः। आव० ३७४। अत्थे- अनेन ह्यन्तरितः सूर्यादिरस्त इत्यभिधीयते। मेरु अत्थाहं- अस्ताघम्, अविद्यमानस्ताघम्, अगाधम्। नाम। जम्बू. ३७५ भग०८२। अस्ताधः। निरस्ताधस्तलम्। भग० ८२। अत्थेगइया-सन्त्येकके। प्रज्ञा० ५४५। अप्रमाणम्। आव० ३७४। अत्थो-अर्थः, अभिधेयः, प्रयोजनं वा। प्रश्न. ११५ अत्थि- येन येन यदा यदा प्रयोजनं तत्तत्तदा तदाऽस्ति कारणं, तात्त्विकः पदार्थो वा। जीवा. ९८ अर्यतेभवति जायते इति सुखमानन्दहेतुत्वादिति। स्था० गम्यत इति अर्थः। आव०१०| पव्वओ, ४८८। अस्ति, विद्यन्ते, सन्तीत्यर्थः, अथवाऽस्ति अयं अचक्खुविसयपयत्थो वा। दशवै. १२३। अर्यते गम्यत पक्षो यदुत। भग० ३२। प्रदेशः। भग० १४९, जीवा०६। इति, विवृतं प्रबोधितं विकचकल्पम्। आव०८६) अस्ति, निपातः सर्वलिङ्गवचनः। प्रज्ञा. ५६३। प्रदेशः। अभिप्रेतपदार्थः। आव० ४१५। द्रव्यम्। आव०६०७। आव० ६०० त्रिकालवचनो निपातः। अभूत, भवति, अर्थ्यत इति। उत्त०६८ विद्यादिः। दशवै० ११४१ भविष्यति च। आव० ७६८ अस्तिद्वारम्, अत्थोग्गहणं- फलनिश्चयम्। भग० ५४१। अस्त्यन्यश्चैतन्यरूपः। दशवै. १२५ अत्थोग्गहे-अर्थावग्रहः, अर्थस्यावग्रहणम, अनिर्देश्यअत्थिकाए-अस्तिकायः प्रदेशराशिः। भग० ३२४| सामान्यरूपाद्यर्थग्रहणम्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [58] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालमेकसा आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) मायिकमनिर्देश्यं सामान्यमात्रार्थ ग्रहणम् । प्रज्ञा- ३११। अर्थस्य सामान्यनिर्देश्यस्वरूपस्य शब्दादे: अवेतिप्रथमं व्यञ्जनावग्रहानन्तरं ग्रहणं परिच्छेदनमर्थावग्रहः सम० १२१ भग० ३४४५ व्यञ्जनावग्रहचरमसमयोपात्तशब्दाद्यर्थावग्रहणलक्षणः । आव० १० । अर्यते-अधिगम्यतेऽर्थ्यते वा अन्विष्यत इत्यर्थः- सामान्यरूपादेः प्रथमपरिच्छेदनमर्थावग्रहः । स्था० ५१ | अत्योभ- अस्तोभकं, वैहिहकारादिपदच्छिद्रपूरणस्तोभक-निपातशून्यम, सूत्रगुणः । आव० ३७६ | अथंडिलं- सचित्तभूमी निशी० ३८ आ अथ- अथशब्दः प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रति - वचनसमुच्चयेष्वित्यानन्तर्यार्थः स्था० ४९५ वाक्योपन्यासार्थः परिप्रश्नार्थो वा । भग० १४| प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु । प्रज्ञा० २४७ अथक्क- अप्रस्तावः । बृह० ५५ आ । अथक्कागओ - अकाण्डागतः । आव० ८०० | अथक्को अविश्रान्तः आव० १०२ रा अथालंदोग्गहो - यथालन्दिकावग्रहः । निशी० २३९ अ । अथाह जत्थ पुण बुड्डति नासिता तं निशी पटा अथिरो- अस्थिरः, क्षणावस्थायी सूत्र० ६ ॥ ६। अदंडे - अदण्डः, प्रशस्तयोगत्रयमहिंसामात्रं वा । सम० ५ । अदंसणो अन्धः स्था० १६५९ । अदक्खु - अदक्षः, अनिपुणः । सूत्र० ७४। अदृष्टः, अर्वा ग्दर्शनः । सूत्र. ४1 अदक्खुदंसणो अचक्षुर्दर्शन: अचक्षुर्दर्शनमस्यासौ, केवल दर्शनः सर्वज्ञः सूत्र. ७६४१ अदक्खेयव्वं ग्राह्यम् ओघ १६३। अदमेव अदृष्टवै उत्त० २१३| अदढो विणावि गेलण्णएण जो दुब्बलो निशी. १९८ अदण्णा विषादीकृता । निशी० ३२१अ अदत्तं - अदत्तम्, अदत्तद्रव्यग्रहणम्। प्रश्र्न० ४ | अवितीर्णम्, अधर्मद्वारस्य तृतीयं नाम । प्रश्न० ४३ | अदन्न - आत्मरक्षणपरा । बृह० १९० आ । अदसा - अदशा-दशिकारहिता क्षौमा ओघ० २१७१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] [59] अदसी- अलसी । आव० ८५४ | अदिच्छाविज्जिहिह- अदित्सिध्येये, निषेत्स्येथे दशकै १०| अदि- अदृष्टम्, प्रत्यक्षापेक्षया अदृष्टम्। अग. १९७ २००१ अदिइलाभिय- अदृष्टिपूर्वेण दीयमानं गृहणाति सः । प्रश्नः १०६ | अदिट्ठहडा- अदृष्टाहृता अदृष्टोत्क्षेपमानीता, प्राभृतिका । आव० ५७६ । अदिट्ठि - अदृष्टे - तिरोहिते। ओघ० १६७ | अदिण्णे- अदत्तादानक्रिया, अदत्तादानाय यत्करणम्, क्रियायाः सप्तमो भेदः आव. ६४८१ अदिन्नादाणवत्तिए अदत्तादानप्रत्ययः । सम० २५ अदिन्ने- अदत्तादानक्रिया - आत्माद्यर्थमदत्तग्रहणम्। स्था० ३१६ | अदिस्समाणे- अदृश्यमानः, अनपदिश्यमानः । आचा० १३१| अदीणवं अदीनवन्तम्, अदीनं, दैन्यरहितम् । उत्तः २८ अदीणो- पसण्णमणो निशी. १८९ अ अदीन, अविक्लवः । उत्त० १२० | अदीनाकारयुक्तः । अनुत्त ४। शोकाभावः । अन्तः २२ अदु- अथ, 'अतः' इत्यर्थे सूत्र ६१ । अथवा उत्त० २९५| अदुअक्खरिय- जुगुप्सिता, अवट्यक्षरिका । निशी० १८ अ। अदुआलिआ मथिका, मन्थनकारिणी दशकै ६०% अदुक्खणया- अदुःखनता, दुःखस्य करणं दुःखनं तदविद्य-मानं यस्यासावदुःखन, तद्भावस्तत्ता अदुःखकरणमित्यर्थः । भगः ३०५ अदुगुधिअं- अजुगुप्सनीयम्, सामायिकाष्टमपर्यायः । आव० ४७४ | अदुडो- अद्विष्टः अदुष्टो वा दायके आहारे वा प्रश्न. १०९ | अदुतं अद्भुतं, अनुत्सुकम्। प्रश्न. ११२। अदुत्तरं अथोत्तरम्, अथवपरम्। भग० १५५ ३०६ । अथान्यत् जीवा. PEEI अथापरं । औप० ३७ अदुयं अशीघ्रम् भग० २९४१ “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ४७ अ(दुयबंधणं-अन्दुकबन्धनम्। सूत्र० ३२८१ अद्दा-आर्द्रानामनक्षत्रम्। स्था० ७७। अदुवं- अथवा। उत्त० ११० अदाए- आदर्शः। निशी० ३८७ अ। अदुव-अथवा। भग० १३० अदाओ-आदर्शः। आव. २९८, ४१६] अदुवा- अथवा, अदागं- आर्द्रकं। ओघ. १७२। दर्पणः। ब्रह. १३६ आ। पक्षान्तरोपन्यासद्वारेणाभ्युच्चयोपदर्शनार्थः। आचा. आदर्शः। स्था० २४३, सम. १२४१ ओघ १४८। अद्दागो-आदर्शः। स्था० ५१२ अयालियं-उन्मिश्रितम्। उत्त० १४६। अद्दाणक्खत्ते-आर्द्रानक्षत्रम्। सूर्य. १३० अदूर- प्रत्यासन्नम्। आव. २३२१ अद्दामलगमेत्तं-आर्द्रामलकमात्र। आव० ८५७। अदूरसामंते-अदूरसामन्तम्, नातिदूरे नातिनिकटे। सूर्य | अदायं-आदर्शः। आव०६५ अद्दाय-आदर्शः। प्रज्ञा० २९३। अदेसकालप्पलावी-जहा भायणं पडिक्कमियं अद्दारिद्वे-आर्द्रारिष्ठः, कोमलकाकः। जम्बू. ३२१ अट्टकरणपिसे कयं लेवितं, रूढ ततो पमाणतं भग्गं ताहे | अद्दिज्जमाणेहि-आद्रैःसो अदेसकालप्प-लावी मए पुव्वं चेव णायं एयं पुत्रकलत्राद्यनुषङ्गजनितस्नेहादाी-क्रियमाणैः। आचा० भज्जिहिति। निशी० ८०आ। अदेशकालप्रलाती, अतीते २१२ कार्ये यो वक्ति-यदिदं तत्र देशे काले वाऽकरिष्यत् ततः | अद्दी-अर्दिः, याञ्चा। प्रश्न. ९३। सुन्दरमभविष्यदिति। उत्त० ३४७। अद्दीण-अद्रीणः, अश्रुमिनः। प्रश्न० १०१। अद्द-आर्द्रम, सरसम्। प्रज्ञा० ९१। सूत्रकृताङ्गस्य अद्दीणमाणसे-अदीनमनसा। आचा० ४२४। षष्ठमध्य-यनम्। उत्त०६१६। आव०६५८१ अद्दीणा-अदीनाः, कथं वयमम्त्र भविष्याम इति गुच्छविशेषः। प्रज्ञा० ३२ वैकलव्य-रहिताः परिषहोपसर्गादिसम्भवे वा न अद्दइज्ज-आर्द्रकीयम्, सूत्रकृताङ्गस्य षष्ठमध्ययनम्। | दैन्यभाजः। उत्त० २८२। सूत्र. २८५। सूत्रकृतागाध्ययननामविशेषः। सम०४२ अद्धं-अर्द्धम्। सूत्र०१६ अद्दए-आर्द्रकम्, अनन्तकायभेदः। भग० ३००। अदंसं-उत्तरासङ्गः। बृह. २५४ अ। निशी. १९१ अ। अद्दकुमारिज्जं-आर्द्रककुमारीयम् (महाध्ययनम्)। स्था० | अद्ध-अद्धाकालः३८७ चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीप-समुद्रानार्वर्ती अद्दक्खु-अद्राक्षुः, दृष्टवन्तः। भग० २१९। समयादिलक्षणः। आव० २७७। कालो। निशी० ३३७ अ। अद्दण्णो-पीडितः। आव० ७००। अधृतिमापन्नः, कातरः। । अर्द्धम, भागमात्रा। भग० २०८ तिर्यग्व-लितम्। जम्बू आव०८००। अधृतिमुपगतः। आव०४१६। अधृतिमापन्नः। दशवै० ४८१ अक्षणिकः। बृह० ४६ अ। अधृति- अद्धकविद्वगसंठाणसंठिते-अर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितम मुपगतः। आव. १९० चन्द्रविमानस्वरूपम्। सूर्य. २६२। अद्द(ड)न-माषविशेषनामः। व्यव० ३५७ अ। अद्धकवित्थसंठाणसंठियं-अर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितम् अद्दन्ना-आकुलीभूताः। बृह० २९० आ। उत्तानीकृतमर्द्धकपित्थं तस्येव यत्स्थानं तेन संस्थितम् अद्दपुरं- आर्द्रपुरं, आईकराजधानी। सूत्र० ३८५। | जीवा० ३७८१ अद्दया- आर्द्रका, हरिद्रा। उत०२१८। अद्धकायसमाणा-आलोककव्यन्तरादिकार्यार्धप्रमाण। अद्दवदवं-आर्द्रवद्रवम्, निगालितम्। आव० ८५४। जम्बू० १७ अद्दसुतो-आर्द्रसुतः, आर्द्रकराजकमारः। सूत्र० ३८५। अद्धखल्लया- पादार्धाच्छादकं चर्म। ब्रह. २२२ आ। अद्दहिज्जति-आद्रहति। निशी० ३१७ अ। अद्धखल्ला-अद्धं जाव खल्लया जीए उवाणहा। निशी. अद्दहिया-आद्रहणम्। आव०८५४। १३६ आ। १२॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [60] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) अद्धखित्तं- अर्द्धक्षेत्रम् । यदहोरात्रप्रमितस्य क्षेत्रस्यार्द्धं चन्द्रेण सह योगमनुते तन्नक्षत्रम् सूर्य. १७७] जम्बू, ४७८८ अद्धचंदं अर्द्धचन्द्र, बाणविशेषः आव• ६९७| अद्धचंदा- अर्द्धचन्द्राः, खण्डचन्द्रप्रतिबिम्बानि आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) चित्ररूपाणि जम्बू. २०१ । अद्धचंदो– अर्द्धचन्द्रः, सोपानविशेषः । प्रश्न० ८ द्वारादिषु रत्नमयश्चिह्नविशेषः प्रज्ञा० ९९| सूर्य. २६४५ आव. ४२५ | जीवा० १७५ अद्धचक्कवाला चक्रवालार्धरूपा। भग. ८EEI अर्धवलया कारः । स्था० ४०७ | अद्धजंघा– जङ्घार्धपिधायि चर्म । बृह० २२२आ। अद्धजंघमेत्तो- अद्धजड़धा निशी ७९आ । अद्धद्धामीसग अद्धद्धमिश्रा, सत्यामृषाभाषाभेदः। दशव २०९ | अद्धद्धामीस - अद्धद्धामिश्रकं, अद्धा दिवसो रजनी वा तदेकदेशः प्रहरादिः अद्धद्धा तद्विषयं मिश्रकं सत्यासत्यं । स्था० ४९१ अद्धादा, दिवसस्य रात्रेव एकदेशः । प्रज्ञा० २५९| अद्धा दिवसरजन्येकदेशः। दशकै० २०११ अद्धद्धामिस्सिया अद्धादामिश्रिता दिवसस्य रात्रेर्वा एकदेशोऽद्धाद्धा सा मिश्रिता यया सा भाषा प्रज्ञा० २५६ । अद्धनारायं- अर्द्धनाराचम्, यत्रैकपार्श्वे मर्कटबन्धो द्वितीये च पार्श्वे कीलिका तत् । जीवा० १५, ४२ प्रज्ञा० ४७२ अद्धपत्थए- मानविशेषः । भग० ३१३ | अद्धपलितंका- अर्द्धपर्यङ्का - ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणा । स्था० २९९, ३०२ श अद्धपलियंकसंठिते- अर्द्धपल्यइकसंस्थितम् । सूर्य. १३० अद्धपल्लंका एक जानुमुत्पाट्योपवेशनम् बृह० २०० अ अद्धपेडा- गोचरचर्याभिग्रहविशेषः । उत्त० ६०५ | स्था० ३६६ | अद्धपेला- गोचरचर्याभिग्रहविशेषः । निशी० १२अ । अद्धमंडल अर्द्धमण्डलम्। जम्बू• ४७८१ अद्धमंडलसंठिती- अर्द्धमण्डलसंस्थितिः, अर्द्धमण्डलव्यवस्था सूर्य० १६ । अद्धमागहविक्रमं अर्द्धमागधविभ्रमम्, गृहविशेषः । जीवा० २६१| जम्बू. १००% मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text ) अद्धमागहा- अर्द्धमागधी, अर्द्ध मागध्या इत्यर्द्धमागधी भाषा | भग० २२१ | मागधभाषालक्षणं किञ्चत्किञ्चिच्च प्राकृतभाषा लक्षणं यस्यां सा, अर्द्ध मागध्या इत्यर्द्धमागधी भग० २२१| मगहद्धविसयभासानिबद्धं, अट्ठारसदेसी भासाणियतं । निशी० ३६ अ अद्धमासिएसु- अर्धमासिका आचा० ३२७ | अद्धरत्तकालसमओ - अर्द्धरात्रकालसमयः । आव० १२१ | अद्धसंकासा- अर्द्धसङ्काशा, सर्वकामविरक्तत्ताविषये देवला-- -सुतराजस्य तापसावस्थायामुत्पन्ना पुत्री । आव ० ७१४ | असम अर्द्धसमम, पद्यविशेषः । दशवै० ८८त एकतरसमम् । स्था० ६९७ | अद्धसेलसुत्थियं अर्द्धशैलसुस्थितम्। जीवा० २६९॥ अद्धहारा- अर्धहारा, नवसरिकः । जम्बू० २४, १०५| अद्धहारभद्दो- अर्धहारभद्रः, अर्द्धहारे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिदैवः । जीवा. ३६९। अद्धहारमहाभद्दो- अर्द्धहारमहाभद्रः, अर्द्धहारे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | | अद्धहारमहावरो- अर्द्धहारमहावर, अर्द्धहारे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | अद्धहारवरभद्दो- अर्द्धहारवरभद्र, अर्द्धहारवरे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | अद्धहारवरमहाभद्दो- अर्द्धहारवरमहाभद्रः अर्द्धहारवरे समुद्रेऽ- परार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । अद्धहारवरमहावरो अर्द्धहारवरमहावर, अर्द्धहारवरे समुद्रे: परार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९॥ अद्धहारवरावभासभद्दो- अर्द्धहारवरावभासभद्रः, अर्द्धहाराव - भासे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९। अद्धहारवरावभासमहाभद्दो- अर्द्धहारवरावभासमहाभद्रः, अर्द्धहारावभासे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | अद्धहारवरावभासमहावरो- अर्द्धहारवरावभासमहावरः, अर्द्ध-हारवरावभासे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा॰ [61] ३६९| अद्धहारवरावभासवरो- अर्द्धहारवरावभासवरः, अर्द्धहारवरावभासे समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | अद्धहारवरावभासो- अर्द्धहारवरावभासः द्वीपविशेषः । समुद्र- विशेषश्च जीवा० ३६९ ॥ । “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] अद्धहारवरो- अर्द्धहारवरः, अर्द्धहारवरे समुद्रे पूर्वार्धाधिपति- | अद्धाणसुत्ते- अद्धाणविहिजयणाविदंसणसुत्तगं। निशी. देवः। जीवा. ३६९। वीपविशेषः, समुद्रविशेषश्च। जीवा. __१४८ अ। ૩૬૮. अद्धामिस्सिया-अद्धामिश्रिता, अद्धा-कालः स चेह अद्धहारो- अर्द्धहारः, नवसरिकः। औप. ५५ जीवा. १८१ प्रस्तावाद्दिवसो रात्रिर्वा, स मिश्रितो यया सा भाषा। भूषणविधिविशेषः। जीवा. २६८ दवीपविशेषः। प्रज्ञा० २५६। समुद्रविशेषश्च। जीवा० ३६८ प्रज्ञा० ३०७। अद्धामीसए- कालविषयं सत्यासत्यम्। स्था०४९० अद्धा-अध्वा, पन्थाः। आव०६६। समयः। विशे०९६१ | अद्धामीसग-अद्धामिश्रा, सत्यामृषाभेदः। दश. २०९। कालः, अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वती समयादिलक्षणः। | अद्धासमय-कालसमयः, अद्धाया निर्विभागो भागो वा। विशे०८३७। कालम्। स्था० ४४। कालस्याख्या। प्रज्ञा० ९। जीवा०६। अवधिलब्धिकालः। आव०४३। अध्वा-मार्गः। आव० | अद्धिती- अधृतिः। आव० ३५३। ६१७। कालः। आव० ८४० दिवसो रात्रिर्वा। प्रज्ञा० २५९। अछुट्टाइं-अर्द्धचतुर्थानि। आव० ३९| अद्धा, षट्षष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणा। सूर्य | अद्भुट्ठाण-अध्युष्टानाम्, अ‘धिकतिसृणाम्। प्रश्न०७३। १११ जङ्घाए अद्धं जाव कोसो। निशी. १३६ आ। अद्धोवमिए- अद्धौपमिकम्-यत्कालप्रमाणमनतिशयिना अदाउए-अद्धा-कालः तत्प्रधानमायः-कर्मविशेषोऽधायः, ग्रहीतुं न शक्यते तत्। स्था० ९०| भवात्ययेऽपि कालान्तरानगामी। स्था०६६। अद्भुतम् - वाण्यतिशयः। सम०६३ अदाए- कालस्य पौरुष्यादिकालमानमाश्रित्य इति। स्था० | अधम्मजुत्ते- येन उक्तेन ४९८ काले अर्थादागामिन्याम्। उत्त० २८० प्रतिपाद्यस्याधर्मबुद्धिरुपजन्यते तदधर्मयुक्तम्। अद्धाकालः-अद्वैव कालः, कालशब्दो हि वर्णप्रमाणका- स्था० २५३ लादिष्वपि वर्तते, ततोऽद्धाशब्देन विशिष्यत इति। अधम्मपलज्जणो- अधर्मप्ररक्तः, अधर्मप्रायेषु कर्मसु स्था० २०११ चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयदवीप- | प्रकर्षण रज्यत इति। सूत्र. ३२९। समुद्रान्त-वर्त्यद्धाकालः। दशवै०९। अधम्मपलोई-अधर्मप्रलोकी, अधर्मानेव-परसम्बन्धि अद्धाकाले- चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीप- दोषानेव प्रलोकयति-प्रेक्षते इत्येवंशीलः। विपा० ४८१ समुद्रा-न्तर्वर्ती समयादिः। भग० ५३३। अधम्मो-अधर्मः, अचारित्ररूपत्वात्। अब्रह्मणः षोडशं अद्धाढए-अ ढकः, मानविशेषः। भग० ३१३। नाम। प्रश्न०६६। अधर्मास्तिकायः अखाणं- पहो। निशी० ५१ आ। महदरण्यं। बृह. १७४ आ। स्थित्युपष्टम्भगुणः। स्था० ४०। अधर्मेअघ्वा-पन्थाः । ब्रह. १२२ अ। महंता अडवी। निशी०५० श्रुतलक्षणविहीनत्वादनागमे अपौरुषेयादौ। स्था० ४८७। आ। छिन्नापातं महदरण्यम्। बृह. २१ आ। अधर्मास्तिकायः। सम०६। अविद्यमान-सदाचारः। उत्पत्तिप्रलयरूपम्। उत्त० २६८१ उत्त०४३४॥ अदाण- अध्वनः। आव० ५३५। अध्वा-विप्रकृष्टो मार्गः। अधरं-आत्यन्तिकं कारणम्। बृह० १९ अ। बृह. २३८ आ। अधरफाण- पार्णिका। व्यव० २९९ अ। अद्धाणतेणो-पंथे मुसंतो। निशी० ३८ आ। अधरिम- अविद्यमानधारणीयद्रव्यम् ऋणमुत्कलनात्। अद्धाणपडिवन्ने-अध्वप्रतिपन्नः, मार्गप्रतिपन्नः। भग. भग०५४४। ११६) अधरो-अधरः, अधरतनौष्ठः। प्रश्न.१४० अधीरः। अद्धाणपरिस्संतो-अद्धानपरिश्रान्तः। ओघ० १०७ उत्त० १५३ अडाणपवण्णगो-अध्वप्रपन्नकः। आव० ५७८1 अधरोहा-अधरोष्ठः, अधस्तनो दन्तच्छदः। जम्बू. ११२ अद्धाणसीसए- यतः परं समदायेन गन्तव्यं प्रश्न०८१ सम्यग्मार्गावहनात्। बृह. ६१ आ। | अधस्तनकाय- पादपाणिशिरोग्रीवमुच्यते। स्था० ३५७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [62] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अधस्तारका- पिशाचभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०। | अधिद्विज्जा-अधितिष्ठेत्-योन्याकर्षणेन संगृहणीयात्। अधारणिज्जं-अधारणीयं, धारयितुमशक्यम्, स्थातुं स्था० ३१३॥ वाऽशक्यम्। विपा०६२। अविदयमानधमर्णम्। विपा० अधिद्वेति- परिभुजति। निशी. २२५आ। ६३। अप्रशस्तप्रदेशखञ्जनादिकलकाङ्कितत्वात्। अधिमरगा-अहिवत्। अनपकृतेऽप्यपकारे मारका। आचा० ३९६ निशी० ११ । अधिकरणं-अधिकं-अतिरिक्तं उत्सूत्रं करणं, अवरा अधियं-अधिकम, वर्णादिभिरभ्यधिकं, सत्रदोषविशेषः। अधमा जघन्या गतिः तामात्मानं ग्राहयति। कषाय- आव० ३७४। भावः। निशी. २९४ अ। अधोकरणं, अधितिकरणं, अधियासितो- अध्यासितः, अधिवासितः। आव० ३४३। अबुद्धिकरणम्। निशी. २१३आ। कलहो। निशी० ३४४ अधिशय-आश्रयतः। आचा० २५५। आ, २३९ । अधिष्ठानम्- गुदास्थानम्। दशवै. ११८ अधिकरणनिर्वतिनी-खड़गादिनिर्वतिनी, अधीकारो- प्रयोजनम्। बृह. २२५ अ। अधिकरणिकी-क्रियाया दवितीयो भेदः। आव०६११।। अधीकारवशः-प्रसङ्गः। आचा० २४१। अधिकरणप्रवर्तिनी-चक्रमहः पश्बन्धादिप्रवर्तिनी अधीता-अधीता, श्रुतनिबद्धा सती पठिता। प्रश्न. २४१। क्रिया, अधिकरणिकीक्रियायाः प्रथमो भेदः। आव०६१११ | अधीतान्वीक्षिकीकस्य-दुर्गहीतहेतुदृष्टान्तलेशस्य। अधिकरणसाला- अधिकरणशाला, लोहपरिकर्मगृहम्। आचा० २२३ भग०६९७। अधुवं- अध्रुवं-नावश्यभाविनम्। प्रश्न. ९६| अधिकरणाणं-अधिकरणानां कलहानां यन्त्रादीनां प्रातिहारिकम्। निशी० ११७ अ। वोत्पा-दयिता। सम० ३७ अधुवे-न ध्रुवः, सूर्योदयवन्न प्रतिनियतकालेऽवश्यंभावी। अधिकरणिखोडी-अधिकरणिखोडी-यत्र काष्ठेऽधिकरणी | भग० ४३९। अध्रुवं-स्वल्पकालानुज्ञापनात्। आचा० निवेश्यते। भग०६९७ ३९६। नित्यो न। उत्त. २८९। अधिकरणिसंठिते-अधिकरणीसंस्थितम्। स्था० ४३४। अधो- भूमौ। ओघ. १६२। अधिकरणीतो-चुल्ली। निशी० १०१ अ। अधेणू-सुक्का वञ्झा वा। निशी० ३२७ अ। अधिकासिका-याः सज्ञावेगेनापीडितः सर सशावगनापाडतः सुखेनैव गन्त अधोघट्टना-अधो भुवं घट्टयति। ओघ० १०९। शक्नोति ताः। ओघ. १९९। अधोणता- गजदंतवत् अवनता। निशी० ४९ आ। अधिके-अर्गले। उत्त०६६० अधोदृष्टिता-दोषविशेषः। उत्त०४९० अधिक्खाउ-अधिकतरं खाए सो। निशी० १५१ अ। अधोभागा-भूमिभागः। जम्बू. ३२१। अधिगम-दर्शनभेदः। आव. ५२७। अधोभावो-अधोभावः, तिरस्कारबुद्धिः। आव० ६९९। अधिगरणं-अधिकरणं, अधिक्रियते-स्थाप्यते अधोविवृतम्-अनाच्छादितममालगृहम्। स्था० १५७। नरकादिष्वा-त्माऽनेनेति, अनुष्ठानविशेषः। प्रज्ञा०४३५ अधोवेदिका-जाननोरधो हस्तयोर्निवेशः। स्था० ३६२१ अधिगरणंसि-विरोधे। स्था०४४१| अध्यसनं-अजीर्णे भोजनम्। स्था० ४४७१ अधिगरणिया-अधिकरणिकी, अधिकरणेन निर्वत्ता। अध्यास्यन्ते-सह्यन्ते। प्रज्ञा० ८० प्रज्ञा० ४३५१ अध्याहार- व्याख्यानम्। आचा० ५५ अधिगारो-अधिकारः, नियोगः। प्रश्न०६६। अध्येष्टया- यदृच्छया। सम० ३७ अधिघटिकया-कपिलदरिद्रदृष्टान्तविशेषः। आचा. १६३। | अध्वर-यज्ञः। उत्त. ५२५१ अधिद्वणं-संणिसेज्जवेढिए चेव उपवेसणं। निशी० २४६ ।। अनक्कभिन्नेहि-अनस्तितैः। भग. ३७२। आ। अनग्गओ-अनग्नकः, द्रमविशेषः। जीवा० ३६९। अधिट्ठाणं-अधिष्ठानम्। ओघ १४८१ | अनङ्गसेन- चंपावासिसुवर्णकारः। बृह० १०८ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [63] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अनतिचारम्- छेदोपस्थापनीयभेदविशेषः। स्था० ३२३। | अनाहो- अनाथः, नाथरहितः, अनतिविलम्बितम्- वाण्यतिशयविशेषः। सम०६३। योगक्षेमकारिनायकाभावात्। प्रश्न. ११| अनध्यवसायः-संशयो विपर्ययो वा। आचा० १५० योगक्षेमकारिविरहितः। प्रश्न. १९। अनन्तकम्-समयभाषया वस्त्रमिति। स्था० ३४६) अनिंद-अनिन्दयम, सामायिकसप्तमपर्यायः। आव० अनन्तरवल्ली-मात्रादयः षट्। बृह. ४२ आ। ४७४। अनन्यत्वद्रव्यशुद्धि-आदेशतो द्रव्यशुद्धेर्भेदः, यथा शुद्ध- अनिन्द्रियं-मनः। बृह. ९ । दन्तः । दशवै० २११। अनिकाम- परिमितम्। बृह० ४ अ। अनपनीतम-वाण्यतिशयविशेषः। सम०६३। अनिन्दितः-किन्नरभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० अनब्भुवगओ- अनभ्युपगतः, अनिउणमई-अनिपुणमतिः। आव० ४९२१ श्रुतोपसम्पदाम्पसम्पन्नः। आव० १०० अनिग्गहे- अनिग्रहः-न विदयते इन्द्रियनिग्रहःअनभिग्रहिकः-मिथ्यात्वविशेषः। स्था० २७५ इन्द्रियनिय-मात्मकोऽस्येति। उत्त० ३४४। अनममाणे- अनममानान्, निघृणतया अनिज्जूहित्ता-अदत्त्वा। भग०७०१ सावद्यानुष्ठायिनः। आचा० २५४। अनिद्वं-अनिष्टम्, इष्यन्ते अनर्गलितकपाटम्- उद्घाटकपाटम्। ओघ० १६६। स्मेतीष्टास्तन्निषेधादनिष्टाः। भग०७२। अनर्थकम्-अर्थशून्यम्। आव०५१| अनिद्वता-अनिष्टता, अवल्लभता। भग० २३। अनलं- अनलम्-अभिष्टकार्यासमर्थं हीनादित्वात्। | अनिट्ठभओ-अनिष्ठीवकः, मुखश्लेष्मणोऽपरिष्ठापकः। आचा० ३९६। न अलो अनलः-अपच्चलः। निशी० २५। । अनलगिरी-अनलगिरिः, प्रदयोतस्य हस्ती, तृतीयं अनित्थंत्थं-अनित्थंस्थं, इदं प्रकारमापन्नमित्थं, इत्थं रत्नम्। आव०६७३ तिष्ठ-तीति इत्थंस्थं, न इत्थंस्थं अनित्थंस्थंअनलसा- उत्साहवन्तः। ओघ० १०० वदनादिशुषिरप्रति-पूरणेन अनवत्राप्यता-अविद्यमानमवत्राप्यं-अवत्रपणं लज्जनं पूर्वाकारान्यभाभावतोऽनियताकारमिति। प्रज्ञा० १०९। यस्य सः, अवत्रापयितुं-लज्जयितुमर्हः, शक्यो अनित्यत्वम्-अतावदवस्थ्यम्। जम्बू०२६ वाऽवत्राप्यो लज्जनीयः न तथा तद्भावः। उत्त० ३९। अनिद्देस-अनिर्देशदोषः, यत्रोद्देश्यपदानामेकवाक्यभावो अनवयग्ग-अनवदग्रम्, अनन्तम्। भग० २४८१ न क्रियते, एतादृशः सूत्रदोषविशेषः। आव० ३७४। अनवसर-अनागमः। आचा० १२२ अनिभृता-निष्ठुरवक्रोक्त्यादिरूपा। बृह. २१३ अ। अनाकारा-सामान्यांशग्रहणशक्तिः । भग०७३। अनिदोज्जं-अनिर्भयं, अस्वस्थम्। व्यव. २४३ आ। अणाघायं- अनाघात अमारिघोषणा। आचा० २६० अनियट्टि- अनिवृत्ति-शुक्लध्यानचतुर्थभेदरूपम्। उत्त. अनाचारश्रुतम्-सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चममध्ययननाम। ५८९। स्था० ३८७ अनियट्टी- ग्रहविशेषः। स्था० ७९। जम्बू. ५३५॥ अनाचीर्णम्-अनारब्धम्। आचा. १४८। अनियओ-अनियतः, अनियतवृत्तिः । उत्त० २६९। अणाजुत्ता- अनायुक्ता-लोपकृता। ओघ. १८६) अनियतवृत्ति-अनियतविहाररूपा। उत्त० ३९। अनियतअनाद्यन्तं- आद्यन्तरहितम्। स्था० १२० । विहारः। स्था०४२३।। अनानुगामिकः- अनानुगामिकः-शृङ्खलाप्रतिबद्धदीप इव | अनियाओ-अनियता। ओघ०७३। यो गच्छन्तं पुरुषं नानुगच्छति। प्रज्ञा० ५३९। अनियाणे-अनिदानः, न विदयते निदानमस्येति अनाभवद्व्यहार-अस्वामित्वव्यवहार। आव०८२११ निराकाइक्षो-ऽशेषकर्मक्षयार्थी संयमानुष्ठाने प्रवर्तेत। अनाभोगिक-मिथ्यात्वविशेषः। स्था० २७। सूत्र. २६४ अणालीढं- अनालीढं-अनवबुद्धः। ओघ० २२७। | अनिरक्खिय-क्षिप्तः। आव०६८१। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [64] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अनिरुद्ध-अनिरुद्धः, अन्तकृद्दशानां उद्देशनिर्देशनिर्गमादिदवार-कलापात्मको वा। सम. चतुर्थवर्गस्याष्टमाध्य-यनम्। अन्त०१४॥ ११५। अनुगमनम्, अनुपातः। उत्त० ६३१| अनिरुद्धो- अनिरुद्धः, कृष्णवासुदेवापत्यनाम। प्रश्न०७३। | अनुगामि-यन्मोक्षाय अनुगच्छति। व्यव० ३१८ अ। अनिर्विष्टं-न दत्तफलम्। बृह० ५०आ। अनुगामिकता-परम्परया शुभानुबन्धसुखम्। जीवा० अनिव्वुइ-अनिवृतिः, अस्वास्थ्यनिबद्धना कायादिचेष्टा ર૪રા. | आव०४९९। अनुगुणं-अनुकूलमन्लोमं च। जीवा० ३। अनिलः- अनिलनरेन्द्रः यवराजर्षिपिता। बृह. १९० आ। अनुग्गहे-अनुग्रहकृत्स्नं, यत् षण्णां मासानामारोपितं अनिलसुओ-अनिलसुतः यवराजा। बृह. १९१ ।। षट् दिवसा गतास्तदनन्तरमन्यत् षण्मासान् अनिल्लंछिएहि-अवर्द्धितकैः। भग० ३७२। आपन्नस्ततो यत् अव्यूढं तत्समस्तं झोषितं पश्चात् अनिवृत्तिकरण-सम्यक्वप्राप्तौ करणविशेषः। स्था० यदन्यत् पाण्मासिकमापन्नं तदवहति। व्यव० ११८ ३१ अनिवृत्तिकरणं, न निवर्तनशीलम्। आव०७५ आ। अनिवृत्तिबादरः-दर्शनसप्तकलोभोपशमयोरन्तरम्। अनुज्ञा-विधिः। आव० ७१३॥ आव० ८२ अनुज्ञातभक्तादिभोजनम्अनिव्वाणि-अनिर्वाणिः-असुखम्। व्यव० ६२। खेदः अदत्तादानविरमणचतुर्थभावना। प्रश्न० १२८१ (गणि) अनुज्ञातसंस्तारकग्रहणम्अनिव्वुइकरो-अनिवृतिकरः, अदत्तादानविरमणद्वितीयभावना। प्रश्न० १२७। अस्वास्थ्यनिबद्धनकायादिचे-ष्टाकरः। आव० ४९९। अनुज्ञापनाय-अनुमत्यै। आव० ५४२। अनिव्वुडं-अचित्तभोजी त्रिदण्डोवृत्तभोजी। दशवै. अनुतटभेदः- वंशवत् तटभेदः। स्था० ४७५) अनुत्संकलितम्-अवितीर्णम्। आचा० ३६। अनिश्रितवचनता- रागाद्यकलुषितवचनता। उत्त० ३९। | अनुदिशं- उपाध्यायप्रवर्तिनीलक्षणम्। व्यव० २०० अ। अणिप्फण्णायावणा- अनिष्पन्नातापना-आतापनाया । अदिक्। व्यव० १९६ आ। व्यव० २०४ आ। भेदः। औप०४०१ अनुद्धातकृत्सन-कालगुरु निरन्तरं वा। व्यव० ११८ आ। अनिसाइ-अनिशादी। सम०२० अनुद्धरिः- कुन्थुविशेषः, त्रीन्द्रियजीवभेदः। उत्त० ६१५) अनिसीहं-अनिशीथम, निशीथादविपरीतम्। उत्त. २०४। | चलन्नेव कुन्थः स विभाव्यते। स्था० ४३० बद्धश्रुतम्। आव०४६४१ अनुनादि- वाण्यतिशयविशेषः। सम०६३। अनिहुआ-त्रिदण्डिनः। बृह० २३५ आ। कन्दर्पबहुला | अनुपथ-मार्गमध्यः। अचा० २६५। मायिनश्च। बृह. १९५आ। अनुपरतम्- उत्सन्नं, बाहुल्येन। आव० ५९०। अनिहो- अनिहः-अमायः, न निहन्यत इति वा परीषहै- अनुपरिहारकाः- पारिहारकवैयावृत्त्यकराः। स्था० ३२४॥ रपीडितः, अस्निहः-स्नेहरूपबन्धनरहितः। सूत्र०४००१ | अनुपयाएइ-अनप्रवाचयति अन्-परिपाट्या प्रकर्षण अनीहडं-अनिर्गतम्। आचा० ३२५। विशिष्टार्थावगमरूपेण वाचयति। जीवा० २५४ अनीहारिमे-अनिर्दारितम्। अटव्यादिकृतमनशनम्। अनुप्रास-अलङ्कारविशेषः। जम्बू. १४३। भग० १२०| गिरिकन्दरादौ अनशनम्। स्था० ९४। भग. अनुप्रेक्षितम्-ध्यातम्। स्था० १७३। ६२५१ अनुभवसज्ञाअनु- पश्चात्। आव० २४२। सातत्यम्। उत्त० ६२७। स्वकृतासातवेदनीयादिकर्मविपाकोदयसमत्था। जीवा. अनुकूलं-अनुगुणं, अनुलोमं च। जीवा० ३। १५ अनुगमः सूत्रस्य न्यासानुकूलः परिच्छेदः। स्था० ४। अनुमतं- कामम्। आव० ५२७ संहितादिव्याख्यानप्रकाररूपः, अनुमान-साधनधर्ममात्रात् साध्यमात्रनिर्णयात्मकम्। ५११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [65] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ ६३ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] स्था०४९ अन्नकाले- अन्नकालः, सूत्रार्थपौरुष्युत्तरकालं अनुयोगद्वाराणि- व्याख्याङ्गानि। आचा० ३। भिक्षाकालः। सूत्र० ३०१। अनुलिखन्-अभिलङ्घयन्। जीवा० १७५ अन्नकिच्चकरो- अन्यतृप्तिकरः। आव० ७२० अनुलेपनेन- सकृल्लित्पस्य पुनः पुनरुपलेपनेन। सम० अन्नगिलाय- पर्युषितम्। आचा० ३१३। १३६ अन्नत्थ- अन्यत्र, परिवर्जनार्थे। प्रज्ञा. २५३। व्यव. १६४ अनुलोम-उत्सर्गः। ओघ०६५। आ। अनुलोमवचनसहितत्वं-प्रतिरूपविनयविशेषः। व्यव० अन्नधम्मिय-अन्यधार्मिकः, मिथ्यादृष्टिः। ओघ २४ अन्नपर-अन्यपरं-अन्यरुपतया परमन्यत्। आचा० अनुल्बण-अनुटः। जीवा० २७५१ ४१५ अनुपातनम्- उच्चारणम्। आव० ८३५) अन्नपाणं-अन्नपानम्, ओदनकाम्जिकादि। उत्त. ३६३। अनृतम्-असत्यम्। स्था० ५००। अन्नभयं- परचक्कभयं। निशी० २१ । अनेकजातिसंश्रयादविचित्रम्- वाण्यतिशयविशेषः। सम० | अन्नभावेणं- अन्यभावः-योऽसौ गन्ता सोऽन्यभावः, उन्निष्क्र-मितुकामः। ओघ० २२॥ अनैकान्तिकः- हेतुदोषविशेषः। स्था० ४९३। अन्नमन्नं-अन्योऽन्यं-परस्परं। स्था० १६२ अनुशयः- क्रोघः। उत्त० ३७७ अन्नमन्नओगाढाइं- एकक्षेत्राश्रितानि। भग० ७५८४ अनुश्रेणि- ऋजुश्रेणिः। उत्त० ५९७) अन्नमन्नगढिया- अन्योऽन्यग्रथिता, परस्परगुम्फिता। अणुट्ठाणं- अनुष्ठानं-विहितम्। आव० ६१९। भग. २१५१ अनुसारगतिः- अनुपातगतिः। सूर्य. १६। अन्नमन्नगुरुयत्ता- अन्योऽन्यगुरुकता, अन्योऽन्येन अन्नं-अन्यत्। उत्त० १३७ ग्रन्थनाद्गुरुकता-विस्तीर्णता। भग० २१५) मण्डकखण्डखाद्यादिसमस्तमपि भोजनम्। उत्त. अन्नमन्नगुरुयसंभारियत्ता३६९। अन्योऽन्यगुरुकसम्भारिकता, अन्योऽन्येन गुरुकं अन्नंति-अनयन्ति, आगच्छन्ति। ओघ. १२६) यत्सम्भारिकं तद्भावस्तत्ता। भग० २१५ अन्नंदाई-असूया, अन्यामिदानी वा। आव० ५०९। अन्नमन्नघडत्ताए- परस्परसमुदायता। भग०७५८। अन्न-अन्यः। भग० ३१७। अन्न-भतः। दशवै० २१६। अन्नमन्नपुट्ठाई-आगाढश्लेषतः। भग०७५८। अन्नइलाय-अन्नतिलाए, दोषान्नभोजी। प्रश्न. १०६। अन्नमन्नबद्धाइं- गाढाश्लेषतः। भग० ७५८१ अन्नइलायए- अन्नं विना ग्लानो भवति। भग० ७०५। अन्नमन्नभारित्ता- अन्योऽन्यभारिकता, अन्योऽन्यस्य अन्नइलायचरए-अन्नग्लानको दोषान्नभूगिति, अथवा यो भारः स विद्यते यत्र तदन्योऽन्भारिकं अन्नं विना ग्लायकः-समुत्पन्नवेदनादिकारण एव, तद्भावस्तत्ता। भग० २१५ अन्यस्मै वा ग्लायकाय भोजनार्थं चरतीति अन्नयरंसत्थं- अन्यतरत् शस्त्रम्। सर्वशस्त्रम्, अन्नग्लानकचरकोऽन्नग्लाय एकधारादिश-स्त्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्पम्। कचरकोऽन्यग्लायकचरको वा। स्था० २९८। दशवै. २०११ अन्नउत्थिए-अन्यतीर्थिकः, चरकपरिव्राजकभिक्षुभौता- | अन्नयर-अन्यतरम्, स्तोकम् दशवै. १९८१ प्रतिकूलम्। दिकः। आव०८११। आचा० ३४२॥ अन्नउत्थिता-अन्ययूथिकाः-अन्यतीर्थिकाः। स्था० अन्नयरायम्मि-अन्यतरस्मिन्। उत्त. ५४३। १३५ अन्न भण-अन्येनाकृष्यमाणः। ओघ० १६५। अन्नउत्थिय-अन्ययूथिकः, अन्यतीर्थिकः, चरकादिकः। | अन्नलिंगे- अन्यलिङ्गम् साधुलिङ्गम्। आव० १३४। जीवा०१४३। | अन्नवत्थुवन्नास-अन्यवस्तूपन्यासः, उपन्यासस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [66] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] द्वितीयो भेदः दशवै० ५५ अन्निआपुत्तो- गङ्गाप्राप्तकेवल आचार्यः। (संस्ता०) अन्नवालए- अन्यपालः-अन्ययूथिकः। भग. ३२३। अन्निकापुत्रिक- आचार्यविशेषनाम। व्यव० १९२ आ। अन्नवेल-तत्रान्यस्यां अन्नितो- अन्वितः-युक्तः। उत्त०४४८।। भोजनकालापेक्षयाऽऽदयावसानरूपायां वेलायां-समये अन्नियपुत्ता-अर्णिकापुत्राः, वैनयिक्यामाचार्याः। आव. चरतीति। स्था० २९८१ ४२९। अन्नहाभावो-अन्यथाभावः। बृह. २८९ अ। अन्नियपुत्तो-अन्निकापत्रः, आर्यिकालाभद्वारे उन्निष्क्रमणाभिप्रायः। ओघ० ८१। आर्यिकाऽऽनीताहारभोक्ता आचार्यः। आव० ५३७। अन्नाइटे-अन्याविष्टः-अभिव्याप्तः। भग०६८३। अन्ने-नानादेशापेक्षया अन्नाओ-अन्यस्मात्, अन्नेन दवारेण। उत्त. २१९। गौरवकुत्सादिगर्भमामन्त्रणवेचनमिदम्। दशवै. २१६) अन्नाणं-अज्ञानम्, मिथ्याज्ञानम्। उत्त० १५१| अन्नेसमाण-अन्वेषमाण भगवदाज्ञामनपालयन। दशवै. द्रव्यपर्यायविषयबोधाभावः। स्था० १५४। लौकिकश्रुतम्। त्रुतम्। । १८७ स्था०४५११ अन्नेसिं- अन्वेषयेत् गवषयेत्। आचा० ७७। अन्नाणतावादा-अज्ञानमेव श्रेय इत्येवं प्रतिज्ञाः। स्था० अन्नो-अन्यदीयम्। सूत्र० ३०८ ર૬૮ अन्नोन्नं- अन्यदन्यद। ओघ. १४३। अन्नाणकिरिया-अज्ञानात् वा चेष्टा कर्म वा सा। स्था० अन्नोन्नकारणं- परस्परवैयावृत्यकरणम्। बृह. २९२ अ। १५३ अन्नोन्नघडत्ता-अन्योऽन्यघटता, परस्परसम्बद्धता। अन्नाणदोसे-अज्ञानदोषः-अज्ञानात्-कशास्त्रसंस्कारात् | जीवा. ९३॥ हिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्ध अन्यत्वम्-अनगारद्वयसम्बन्धिनो ये पुद्गलास्तेषां याऽभ्यु-दयार्थं वा प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषः, अज्ञानमेव भेदः। भग०७४१ दोषः। स्था० १९० अन्यत्वद्रव्यशुद्धि-अन्यद्रव्यशुद्धिः, आदेशतो अन्नाणियवाइ-कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदयेषामस्ति द्रव्यशुद्धर्भेदः, यथा शुद्धवासा। दशवै २११। तेऽज्ञानि-कास्ते च तै वादिनश्चेत्यज्ञानिकवादिनः। | अन्यद्रव्यनानाता- परमाणोद्धर्य पुद्गलादिभेदभिन्नता। भग. ९४४ आव० २८१। अन्नाणी-अज्ञानी, मिथ्याज्ञानः। जीवा० ४३९। अण्णपुट्ठ- अन्यपुष्टः-कोकिलः। उत्त० ६५३ ज्ञाननिह्नववादी। सूत्र० २०८५ | अन्योऽन्यक्रियासप्तैकक-सप्तमसप्तकम्। स्था० ३८७) अन्नाणमूढा-जे सक्कादिमता अन्नाणा नाणबुद्धीए अन्योऽन्यप्रगृहीतम्- वाण्यतिशयविशेषः। सम०६३। गेणंति। णे जतिणं हेउसएहिं दंसियं घडमाण मत्थंपि | अन्योऽन्याविभागसम्बद्ध-क्षीरनीरादिकसम्बद्धम्। आव. गिणंति। निशी०४३ अ। ३२१ अन्नातचरते-अज्ञातः-अनपदर्शितस्वाजन्यर्द्धि अन्वीक्षिष्यामि-अन्वेषयिष्यामि। आचा० २८२ मत्प्रव्रजिता-दिभावः सन् चरति अन्वेषयेत्-प्रार्थयेत्। आचा. २९० भिक्षार्थमटतीत्यज्ञातचरकः। स्था० २९८१ अन्यतीर्थिकः-सरजस्कादयः। आचा० ३२४। अन्यानि च अन्नायउंछ-अज्ञातोञ्छम्, विशुद्धोपकरणग्रहणविषयम्। | तान्यर्हत्प्रणीततीर्थादन्यत्वेन तीर्थानि चदशवै.२८० निजनिजाभिप्रायेण भवजलधेस्तरणं प्रति करणतया अन्नायएसी-अज्ञातैषी-अज्ञातः विकल्पितत्वेनान्यतीर्थानि तेषु भवाः, ते च तपस्वितादिभिर्गुणैरनवगतः एषयते-ग्रासादिकं शाक्यसरजस्कादयः। उत्त० २९९। गवेषयति। उत्त० ४१४१ अपइहाणे-अप्रतिष्ठानः, सप्तम्यां नरकावासविशेषः। अन्निं-अन्यदीयम्। सूत्र० ३०८१ प्रज्ञा०८३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [67] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अपकर्षणं- ह्रासः। स्था० २२२॥ निशी० ३३६ । अपकसंती-परिह्रसन्ती नीयमाना वा। स्था० ३२८१ अपडिकम्म-शरीरप्रतिकर्मवर्जितम। भग०६२६। अपकिट्ठ- अपकृष्टम्। किञ्चिदूनम्। भग० २९२। अपडिण्णे-अप्रतिज्ञः, नास्य प्रतिज्ञा विद्यते। आचा० अपक्खग्गाही-अपक्षग्राही, न पक्षं शास्त्रबाधितं १३२। अनिदानो, वसुदेववत् संयमानुष्ठानं कुर्वन् गृह्णाति इति। स्था० ४४१। निदानं न करोति। आचा० १३३। यदि वा अपक्खो-कालपक्खो। निशी० ३३ आ। स्याद्वादप्रधानत्वान्मौनीन्द्रागमस्यै-कपक्षावधारणं अपचयद्रव्यमन्दः-कृशशरीरतया प्रवासं न कर्तुमीष्टे। प्रतिज्ञा तद रहितः। आचा० १३३। अनि-दानः। आचा. बृह. ११३। ३०६। अपचयभावमन्दः- बुद्धेरभावेन हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्ती | अपडिबद्धया-अप्रतिबद्धता, स्वजनादिषु स्नेहाभावः। न कर्तुमीष्टे। बृह. ११३। भग० ९७ अपच्चक्खाणकसाए- देशविरतिप्रतिबन्धको मोहः। अपडिभाणी-अप्रतिभाषी। आचा० ३०६ सम० ३१| अपडिरूवा-अप्रतिरूपा। उत्त. ११३। अपच्चक्खाणकिरिआ-सूत्रकृताङ्गे अपडिलेह-अल्पार्थे नञ्, ततोऽप्रत्य्पेक्षित इति द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययन-विशेषः। सम० ४२ अल्पोपकर-णत्वादल्पप्रत्यपेक्षः। उत्त० ५९०| अपच्चक्खाणकिरिया-अप्रत्याख्यानक्रिया, अपडिवाती-अवधिज्ञानभेदः। स्था० ३७०| विंशतिक्रियामध्ये पञ्चमीक्रिया। आव०६१२ अपढमसमयनियंठो-अप्रथमसमयनिर्ग्रन्थः, यः शेषेषु अविरतिस्तन्निमित्तः कर्मब-न्धः। स्था०४१। समयेषु वर्तमानः सः। उत्त० २५७। निवृत्त्यभावेन क्रिया-कर्मबन्धकारणम्, अपतिहिए-अप्रतिष्ठितः-आक्रोशादिकारणनिरपेक्षः सम्यग्दृष्टेश्चतुर्थी क्रिया। प्रज्ञा० ३३४। केवलं क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सः। स्था० १९३। प्रत्याख्यानक्रियाया अभावः, अप्रत्याख्यानजन्यः अपत्तं-अपात्रं-अभाजनम। निशी० ८०। कर्मबन्धो वा। भग०१०१ अपत्तपडिच्छण-अप्राप्तामपि वेलाम् प्रतिपालयति। अपच्चक्खाणा-अप्रत्याख्यानः। प्रज्ञा० ४६८। कषाया ओघ०४९। एव। आव०७७। देशविरत्यावारकः। स्था० १९४| अपत्ति-अप्रीतिः। आव.२०११ अपच्चलो-अपच्चलः, असमर्थः। आव० ५३७। अयोग्यः। | अपत्तियं-अप्रीतिकम्। आव. २७३। अपात्रिकाम्-अविनिशी० २५॥ द्यमानाधारम्। भग० ७०५। अपच्छिम-अपश्चिमम्, चरमम्। आव० ५४४। अपत्तियंते-अप्रत्येति। बृह. २२८ आ। पश्चात्कालभाविन्यः। सम० १२० अपत्थं-अपथ्यं-अहितम्। उत्त० २७६। अपच्छिमा-अपश्चिमा। आव० ८३९। अपत्थिअपत्थिआ-अप्रार्थितप्रार्थकः। आव. १९२१ पश्चिमैवामङ्गलपरि-हारार्थमपश्चिमा। स्था० ५७। अपत्थियपत्थए-अप्रार्थितं प्रार्थयते यः सः। भग. १७४। अपज्जतं-अपर्याप्तम्-अशक्तः। उत्त० ४०८। अपदंसो-पित्तारुअं। निशी० ११७ अ। अपज्जत्ता-अपर्याप्ता, पर्याप्तभाषाविपरीतो भाषाभेदः। अपद्रापयेत्- जीविताद्व्यपरोपयेत्। आचा० ४२८॥ दशवै० २१० अपदलम्-अपशदं द्रव्यं (दलं) कारणभूतं मृत्तिकादि अपज्जत्तिया-अपर्याप्तिका, या मिश्रतया यस्यासावपदलः, अवदलति वा दीर्यत इत्यवदलः उभयप्रतिषेधात्म-कतया वा न आमपक्वतयाऽसार इत्यर्थः। स्था० २७९। प्रतिनियतरूपतयाऽवधारयितुं शक्यते सा, भाषाया अपद्रावन्ति-प्राणान्मुञ्चन्ति। आचा० ५५) द्वितीयो भेदः। प्रज्ञा० २५५ अपद्वार-कुत्सितदद्वारम्। स्था० ४०२। अपज्जोसवण-अपत्ते अतीते वा जो पज्जोसवति। अवदारिआ-अपद्वारिका-स्थानविशेषः। बृह. २७२ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [68] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] अपध्यानम् - विस्रोतसिका आव०६०२ | अपनीत:- विधूतः प्रकम्पितो वा आव. ५०७ अपनीता विनाशिता ओघ ४६॥ आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) अपभ्रंश:- तत्तद्देशेषु शुद्धं भाषितम् । जम्बू. २५९| अपमज्जियं- अप्रमार्जितम्, द्वितीयासमाधिस्थानम् । आव० ६५३ | अपमज्जियचारि - अप्रमार्जितचारी, असमाधिस्थाने द्वितीयो भेदः । सम० ३७ अपमज्जियदुप्पमज्जियसिज्जासंधारएअप्रमार्जितदुष्प्र-मार्जितशय्यासंस्तारकः, शय्यादेश्चक्षुषा न प्रत्युपेक्षणं, शय्यादेरुद्भ्रान्तचेतसा प्रत्युपेक्षणं दुष्प्रत्युपेक्षणं यस्य सः आक० ८३५१ अपत्ते - अम्मत्तः - निद्रादिप्रमादरहितः । आचा० ३०७॥ अपमानभीरु- भिक्षां भ्रमन्नपि न यस्य तस्यैव वेश्मनि प्रवेष्टु-मिच्छति, यदि वा 'ओमाणं' प्रवेशः, स च स्वपक्षपरपक्षयो-स्तद्भीरुर्गृहिप्रतिबन्धेन मा मां प्रविशन्तमवलोक्यान्ये साधवः सौगतादयो वाऽत्र प्रवेक्ष्यन्तीति । उत्त० पपरा अपमित्यक:- षष्ठः शबलदोषः प्रश्न. १४४ अपयं- अपदम् पद्यविधाँ पदये विधातव्येऽन्यच्छन्दोऽभिधानम् । सूत्रदोषविशेषः । आव० ३७४ न विद्यते पदम् अवस्थावि शेषो यस्य स । आचा० २३१| अपयाण- अपादानं - मर्यादया दानं (खण्डनं ) | आव० २७८ । अपया - लोमसी आदि । निशी० ३ आ । अपर- संयमः । आचा० १६७ । अपरच्छं- अपराक्षम्, असमक्षं, अधर्मद्वारस्य त्रिंशत्तमं नाम | प्रश्न० ४३| अपरद्धो- अपराद्धः, व्याप्तः । आव० १०८ अपरमं - दुक्खम् । दशवै० ६२ अपरमविद्धम् - वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ | अपराइआ वप्रावतीविजये अपराजिता राजधानी जम्बू• ३५७ । अपराइए प्रतिवासुदेवनाम सम० १५४ अपराइय- पद्मबलदेवस्य पूर्वभवनाम सम० १५३ अपराजिअ अपराजितः, अरजिनप्रथमभिक्षादाता। आव ० १४७ । - मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [69] [Type text] अपराजिआ अपराजिता, राजधानीनाम जम्बू० ३५1 पौरस्तयरुचकवास्तव्याऽष्टमी दिक्कुमारी जम्बू ३९१ | रात्रिनाम | जम्बु० ४९१ | चन्द्रस्यायमहिषीनाम | जम्बू. ४३२१ पद्मबलदेवमाता आव. १६२रा अपराजिए ग्रहविशेषः । स्था० ७९। अपराजित - जगतीद्वारनामविशेषः । सम० ८८ अपराजिता अपराजिता, अञ्जनपर्वते पुष्करणीविशेषः । स्था॰ २३१। अनुत्तरोपपातिकविमानविशेषः । प्रज्ञा० ६९ | अपराजिते - जगतीद्वारनामविशेषः । स्था० २२५ | अपराजिय- कुन्थुजिनप्रथमभिक्षादाता सम० १५१। अपराजिया- अपराजिया सैद्धान्तिकरात्रिनाम | सूर्य० १४७ अष्टमबलदेवमाता सम० १५1 अड़गारकमहाबहस्यारा- महिषी भग०५०५ स्था० २०४१ सुविधिनाथदीक्षा शिबिका। सम० १५१। विदेहेषु राजधानीविशेषनाम स्था० ८०| राजधानीविशेषः । स्था० , ८०| अपराधालोचना- आलोचनाभेदः । व्यव० ४८ आ । अपरिआविआ अपरितापिताः, स्वतः परतो वाऽनुपजातकायमनः परितापाः । जम्बू० १२६ । अपरिकम्म- अपरिकर्म व्याघाते गिरिभित्तिपतनाभिघाता-दिरूपे संलेखनामविधायैव भक्तप्रत्याख्यानादि क्रियते तत् । उत्त० ६०३ | अपरिक्खि- अनालोच्य । निशी० ९८ आ । अपरिखेदितं - वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ | अपरिगहियागमणे - अपरिगृहीतागमनम्, वेश्या अन्यसत्कगृहीतभाटी कुलाङ्गना अनाथा वा तस्या गमनं मैथुनासेवनम् । आव०८२५ अपरिग्गहो- अपरिग्रहः, धर्मोपकरणवर्जपरिग्राह्यवस्तुध मौपकरणमूर्च्छावर्जितः । प्रश्न. १४२१ न विद्यते धर्मोप करणादृते शरीरोपभोगाय स्वल्पोऽपि परिग्रहो यस्य सः। सूत्र॰ ४९। अगीतार्थः तदायत्ताश्च । व्यव० २३३| अपरिणत- अमार्गस्थः आव० ८५१| अपरिणते- भोजनपरिणत्यभावः । ओघ० २३| अपरिणय- सेहप्रायः ओघ ८९| कालग्रहणभावोऽपगतोऽन्यचित्तो वा जातः। ओघ० २०३ अपरिणतः “आगम-सागर-कोष :" [१] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) एषणा- दोषविशेषः । आचा० ३४५| अविध्वस्तः । आचा० ३४८ अपरिणामा अपरिणामाः, अपरिणामिकः । व्यव० ७२ अ। आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) अपरितंतजोगी अपरितान्तयोगी, अविश्रान्तसमाधिः । अन्त० २३, अनुत्त० ४। अपरितान्ताः - अश्रान्ताः योगाः - मनःप्रभृतयः सदनुष्ठानेषु यस्य सः प्रश्नः १०९ | अपरिततो वैयावृत्त्यादाँ अनिर्वेदी गृहरु ९२ आ । अनिविण्णो बृह० २२१अ अपरिताविय- अपरितापितः, स्वतः परतो वाऽनुपजातकाय-मनः परितापः । जीवा० २८४। अपरिपुर्ण अपरिपूर्णम्, सद्गुणविरहात्तुच्छम् । सूत्र० ३२६| अपरिभुत्तं- अपरिभुक्तम्। आचा० ३२५ अपरिभुत्त- अपरिभुक्तः, अनाक्रान्तः । ओघ० ५७ अपरिमाण अपरिमाण:- अनन्तः । आचा० २४९१ अपरिमितम्- अमितम् । आव० ५९५ । अपरिमियपरिग्गहं- अपरिमितपरिग्रहः आव० ८२५ अपरिमियमणंता- अपरिमितानन्ताः - अत्यन्तानन्ताः । प्रश्न० ९२ ॥ अपरियाइत्ता- अपर्यादाय समन्तादगृहीत्वा । स्था० २०१ अपर्यादाय अगृहीत्वा भग० ६४३ | जीवा० ३७५५ स्था० ४६। अपरियाणित्ता- अपरिज्ञाय । स्था० ४६ | अपरियावणया शरीरपरितापानुत्पादनेन । भग. ३०५ अपरिसाडि अनवयवोज्झनम्। भग० २९४ अपरिसाडि अपरिशाटि, परिशाटिवर्जितम्। प्रश्न. ११२॥ अपरिसाडी- वंसकंषिमादी निशी. १६८अ अपरिसुद्धं अपरिशुद्धम्, अयुक्तियुक्तम् आक० १७६। अपरिस्सा - न परिश्रवति नालोचकदोषानुपश्रुत्यान्यस्मै प्रतिपादयति य एवंशीलः सोऽपरिश्रावीति स्था० ४२४१ अपरिस्सावी- अपरिश्रावी अबन्धको निरुद्धयोगः । भग० ८९२] अझरकः (आतु०) अपरिहत्यो अदक्ष आव• ५६७। अपरिहरित्ता- अपरिहत्य द्वित्रैर्मासैर्व्यवधानमकृत्वा । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [70] आचा० ३६६ | अपरिहारिया- अपरिहारिका साधर्मिकाः । आचा० ३५२ अपरीत्ता साधारणशरीराः स्था० १३२ अपवरगो- अपवरकः । जीवा० २६९ | अपवरकम्, अन्तर्गृहम् ओघ० १५३| [Type text] अपवरिका अपवरकम्। व्यव. २०७ आ अपवर्तनम् - कर्मणां स्थित्यादेरध्यवसायविशेषेण हीनताकरणम् । भग० २५| अपवर्त्तना- हानिकरणम् । सूर्य० ११३ । अपवर्त्तयन्- तिरश्चीनं कुर्वन् । आचा० ३४३ ॥ अपवाद:- करणं, विशेषवचनं च । जम्बू० १४१। विभागः । निशी० १०५आ। अपवादम्- प्रवचनरहस्यम्। बृह० १३१ अ अपवादापवादरूपम् - शाक्यादीनां प्रयोजने यद्राज्ञो विज्ञापनम्। स्था० ३१२ | अपव्वावितो न प्रव्रजितः न मुंडितानि कृतानि । व्यव० - २८ आ अपसत्थविहायगति - अप्रशस्तविहायोगतिःनामकर्मविशेषः । प्रजा० ४७४१ अपसिणा - अप्रश्नाः– या पुनर्विद्या मंत्रविधिना जप्यमाना अपृष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति एताः । सम० १२४ | अपसू- अपशु-द्विपदचतुष्पदादिरहितः आचा० ४०३| अपहार - मत्स्यः । स्था० ३०९ | अपहुप्पते अप्रभवति, अपूर्यमाणे पिण्ड० ८८ अपगतान्योत्तरम् - वाण्यतिशयविशेषः सम० ६३ | अपाईणवाए- अप्राचीनवातः यः प्रतीच्या दिशः समागच्छति वातः सः । प्रज्ञा० ३०| अपाचीनै:- अशुभैः । आचा० २५०१ अपान्तरालम्- अबाधा। जीवा० ९४| अपायं अपादम, विशिष्टच्छन्दोरचनायोगात् पादवर्जितं गद्यगुणः। दशवं. ८८ अपायतो विश्लेषतः स्था० ४२८० अपारंगमा- अपारङ्गमाः पारः तटः परकूलं तद्गच्छन्तीति पारङ्गमाः न पारङ्गमाः अपारङ्गमाः । - - आचा० १२४ | अपावते अपापकः शुभचिन्तारूपः । स्था० ४०९ | “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अपावभाव- अपापभावः, शुद्धचित्तः। दशवै. २३। द्रव्यानयोगानां प्रतिसूत्रमविभागेन वर्तनम्। आव. २८५ अपिः अपृथक्त्वानुयोगः-एकस्मिन्नेव सूत्रे सर्व एव सम्भावनानिवृत्त्यपेक्षासमुच्चयगर्हाशिष्यामर्षण- । चरणादयः प्ररूप्यन्ते। दशवै०४। भूषणप्रश्नेष्विति। स्था०४९५। बाढम्। जीवा० १९८१ | अपूरतो-अपूरयन्, अकुर्वन्। आव० २७१। अकृर्वन्, विद्यमानः। आव० ४५० च। उत्त० १८२इति। ओघ. अनाचरन्। आव० २६३ ३६। यथाशब्दार्थः, समुच्चयार्थश्च। आचा० ६५ पुनः। अपूर्वभक्तिकम्-अपूर्वरचनाकम्। स्था० ४०१। आचा० २८२। बाढार्थे। जम्बू०४६। एवकारार्थे। आव० | अपेक्षाकारणम्-दिग्देशकालाकाशपुरुषचक्रादि। स्था० ५४९। अभ्युपगमवादसंसूचकः। आव० ५३१। बाढम्। ४९४| जम्बू०४१३। अपेज्ज-अपेयम्। जीवा० ३७० अपेयम्-सुरादिकम्। अपिट्टणया-यष्ट्यादिताडनपरिहारेण। भग० ३०५। व्यव० ८। अपियत्ता-अप्रियता, सर्वेषामेव दवेष्यतया। भग. २३ । अपोद्धारः-साक्षाक्तिः । आचा०४९। निरासः। आव० अपीओ- अपीतः, न पीतः। उत्त० ८७। ३०९। अपुज्जो-अपूज्यः, अवन्दनीयः। आव० ५१९। अपोरसीय-अपौरुषेयम्, अपुरुषप्रमाणम्। भग० २९०| अपुट्ठवागरणं-अपृष्टव्याकरणम्, अपृष्टे सति अपोरुसियं-अपौरुषेयम्, पुरुषप्रमाणरहितम्। भग०८२ प्रतिपादनम्। भग० १५७। अपोह-अपोहः, पृथग्भावः। ओघ० १२। अपोहनंअपुणरावत्तयं- अपुनरावर्तकम्, निश्चयः। आव०१८ विपक्षनिरासः। भग०४३३। कर्मबीजाभावाद्भवावता-ररहितम्। भग०७। अपोहत्ते- एवमेतत् यदादिष्टमाचार्येणेति अपुणरावित्ति- अपुनरावर्तकम्-अविद्यमान पुनस्तमर्थमागृहीतं धारयति करोति च सम्यक् पुनर्भवावतारम्। सम०५१ तदुक्तमनुष्ठानमिति। आव २६| अपुत्तो- अपुत्रः, स्वजनबन्धुरहितः, निर्मम इत्यर्थः । अप्पं- अल्पम्, मूल्यत एरण्डकाष्ठादि। दशवै० १४७ आचा० ४०३ अभावः, स्तोकं वा। आव० ५८६| अपुप्फिय- अपुष्पितं-तरिकारहितम्। ओघ० १२२। अप्पइहाणे-अप्रतिष्ठानः। सम०२। मोक्षः।आचा० २३१| मच्छम्। बृह० ६८ । अप्पइहिते- अप्रतिष्ठितः-निरमलम्बन एव अपुम- नपुंसकम्। ओघ० ९० केवलक्रोधवेदनी-पापजायते यः क्रोधः। प्रज्ञा० २९० अपुरिसंतरकडं- अपुरुषान्तकृतं तेनैव दात्रा कृतम्। | अप्पईकारं- अप्रतीकारम्, सूतिकर्मादिरहितम्। प्रश्न. आचा० ३२५ રરા अपुरिस-अपुरुषः, नपुंसकः। स्था० ३७२। अप्पउलिओसहि भक्खयणा-अपक्वौषधभक्षणता। अपुव्वो- अपूर्वः, अननुभूतपूर्वोऽनुभूतपूर्वो वा। अनुयो० आव०८२८१ अप्पए-शरीरे। आव० ५५५ अपुव्वं- अपूर्वम्, अपूर्वकरणम्। आव० ८५२। अप्पकम्मपच्चायाते-अल्पकर्मप्रत्यायातः-अल्पैःअपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानम्-आतुरप्रत्याख्यानादिकम्। आव. स्तोकैः कर्मभिः करणभूतैः प्रत्यायातः-प्रत्यागतो ४७९। अप्राप्तपूर्व, अवृत्तपूर्वम्। आव० २३०, बृह. १९४ मानुषत्वमिति, अथवा एकत्र जनित्वा ततोऽल्पकर्मा । सन् यः प्रत्यायातः, स तथा लघुकर्मतयोत्पन्नः। स्था० अपुव्वकरणं- अपूर्वकरणं-असदृशाध्यवसायविशेषम्। १८०|| भग० ४३६। अप्राप्तपूर्वम्। आव०७५ सम्यक्त्वप्राप्तौ | अप्पकिरियतराए- अल्पक्रियत्वम्करण-विशेषः। स्था० ३१ तथाविधकायिक्यादिक-ष्टक्रियाऽपेक्षम्। भग० ७६९। अपुहुत्ते-अपृथक्त्वं, अपृथग्भावः, चरणधर्मसङ्ख्या- | अप्पकुक्कुई- अल्पकौत्कुचः, अल्पस्पन्दनः, अल्पं १३७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [71] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] असत् 'कुक्कुयं' कौत्कुचंकरचरणभूभ्रमणाद्यसच्चेष्टात्मकमस्येति । उत्तः पश अप्पक्खमं- आत्मक्षमां आत्महिताम् ओघ० १८९१ अप्पक्खरं- अल्पाक्षरम् सूत्रगुणः । आव• ३७६२ अप्पग्ध- अल्पार्धम, स्वल्पमूल्यम् । भग० १९९| अप्पच्चओ अप्रत्ययः प्रत्ययाभावः अधर्मद्वारस्य चर्तुर्विंशतितमं नाम । प्रश्र्न० २६| अप्रत्ययकारणत्वात्। अधर्मद्वारस्य सप्तदशं नाम । प्रश्न० ४३ | अप्पच्चक्खाय- अप्रत्याख्याय- अनिराकृत्य । उत्तः २६६ | अप्पच्छन्दमईओ- आत्मच्छन्दमतिः, आत्मच्छन्दास्वाभिप्रायकार्यकारी आद० १००१ आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) अप्पजूहिए- सिद्धेऽप्योदनादिके। आचा० ३३५1 अप्पज्झं- आत्मवशं, स्वस्थचित्तम् । बृह० २१०अ । अप्पज्झाणं- आत्मध्यानम्, अमुकोऽहं अमुककुले अमुगसिस्से अमुगधम्मट्ठाणडिइए न य तव्विराहणेत्यादिरूपम् । प्रश्न० १२८ । अप्पझंझे- अल्पझञ्झः, अविद्यमानकलहविशेषः । औप० ३९॥ अप्पझंझा- अल्पझंझाः विगततथाविधविप्रकीर्णवचनाः । स्था० ४४२| अप्पडकुडाई अप्रतिकुष्टे अनिवारिते स्था० ९३ अप्पडिबजे अप्रतिबद्ध - मनसि निरभिष्वंगता। उत्तः ५८७ । अप्पडिबुज्झमाणे - अप्रतिबुद्ध्यमान - शब्दान्तराण्यनवधारयन् अप्रत्युह्यमानो वा - अनपहियमाणमानसो अग० ४८३| अप्पडिरुवा - अप्रतिरूपा । आव० ६७५ | अप्पडिस्वे अप्रतिरूपः, अविद्यमानं - प्रतिरूपमतिप्रकर्षवत्त्वे - नानन्यतुल्यमस्येति । उत्त १८८ अप्पडिलेहणा- अप्रत्युपेक्षणा, मूलत एव चक्षुषाऽनिरीक्षणाः । आव० ५७६ । अप्पडिलेहियदुष्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमि- अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखितोच्चारप्रश्नवणभूमिः पौषधेऽतिचारः । आव• ८३५ अप्पडिलेहियदुपडिलेहियसिज्जासंधारण अप्रति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [72] [Type text] लेखित दुष्प्रतिलेखितशय्यासंस्तारकः- पौषधेऽतिचारः । आव० ८३५| अप्पडिलेहियदूसे अप्रतिलेखितदूष्यः स्था० २३४५ अप्पडिले हियपणयं अप्रतिलेखितदूष्यपञ्चकम्, दूष्यपञ्चकस्य प्रथमो भेदः, तुल्युपधारनक गण्डोपधानालिङ्गि-नीपोतमयमसूरभेदभिन्नम् । आव ० - ६५२ अप्पडिवाइ- अप्रतिपाति, अनुपरतस्वभावम् । आव. ६०८ अप्पडिसुणणं- अप्रतिश्रवणम्, अप्रतिश्रोता। आव० ७२६ । अप्पडिसेवी - अप्रतिसेवी- न कुत्सितं कर्म आचरति । ओघ १६५ अप्पडिहओ - अप्रतिहतः, सौगन्धिकानगर्यधिपतिः । विपा. ९५५ अपडिहद्दु- अणप्पणित्ता | निशी० १६९अ अप्पsिहयं- अप्रतिहतं, अप्रतिस्खलितम् । जीवा० २५६ । अप्पsिहयपच्चक्खायपावकम्मे अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, न प्रतिहतं तपोविधानेन मरणकालादारात्क्षपितं प्रत्याख्यातं च मरणकालेऽप्याश्रवनिरोधेन पापकर्म येन सः । न प्रतिहतं सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तितः प्रत्याख्यातं च सर्वविर-त्यङ्गीकरणतः पापकर्म-ज्ञानावरणाद्यशुभं कर्म येन सः । भग० ३६ | अप्पडिहयवरनाणदंसणधरे - अप्रतिहतवरज्ञानदर्शधरः, योऽप्रतिहते कटकुट्यादिभिरस्खलितेऽविसंवादके वा वरे- प्रधाने ज्ञानदर्शने - विशेषसामान्यबोधात्मके धारयति सः । भग० ७ | अप्पडिहो - अप्रतिधः (भक्त) अप्पणच्चिय- आत्मीयम, स्वकीयम् भग० १३२ अप्पणट्ठा - आत्मार्थम्, आत्मनिमित्तम् । दशवै० २४९ | अप्पणियं - आत्मीयं | आव० १८९ | अप्पणिया- आत्मीया । आव० २१२ | अप्पतिद्वाणं- अप्रतिष्ठानम्, नरकविशेषः आक० ३४८१ अप्पतुमतुमा अल्पतुमन्तुमाः विगतक्रोधकृतमनोविकार- विशेषाः । स्था० ४४२ अप्पतुमतुमे अल्पम् - अविद्यमानं त्वं त्वमिति स्वल्पापरा-धिन्यपि त्वमेवं पुरापि कृतवान् त्वमेवं सदा “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आ। । करोषीत्यादि पुनः पुनः प्रलपनं यस्य सः। उत्त०५८९| | अप्पयं-आत्मानम्। अल्पमेव वा। उत्त. ९०| अप्पतेअं-अल्पतेजः-तेजशून्यः। दशवै० २७६) अप्पयाणयं-अप्रयाणम्। आव० ३८५ अप्पत्तियं-अप्रीतिकम्। उत्त० ९० दशवै० १२५) अप्परए-अल्परतः, अल्पं-अविद्यमानं रतमिति क्रीडितं पच्चामरिसकरणम्। निशी० ३१ अ। मनसः पीडा मोहनीयकर्मोदयजनितमस्येति, लवसप्तमादिः, कुर्यात्। आचा० ४०५। क्रोधः। सूत्र० ३४ अप्रेम। भग० अल्परजाः, प्रतनुबध्यमानकर्मा। उत्त०६७ २९। मनसः दुष्प्रणिधानम्। सूत्र० ३३१| अप्परिसाडियं-अपरिसाटिकम्, परिसाटविरहितम्। अप्पपरिकम्म-तूननं, सन्धानं दशाछेदनं वा। बृह. २०२ | उत्त०६१ अप्परिहारिए- अपरिहारिकः-पार्श्वस्थाकन्नकशील अप्पपाणं-अल्पप्राणम्, अल्पाः-अविद्यमानाः प्राणः- संसक्त-यथाच्छन्दरूपः। आचा० ३२४॥ प्राणिनो यस्मिंस्तत्, अवस्थितागन्तुकजन्तुविरहितम्। | अप्पलीयमाणा-अप्रलीयमानाः-अनभिषक्ताः। आचा. उत्त०६० २४१। अप्पपुण्णेहि-अपुण्यैः-अनार्यैः पापाचारैः। आचा० ३०३। | अप्पलेवा-अल्पलेपा, निर्लेपा, चतुर्थी पिण्डैषणा। आव. अप्पभाए-अप्रभातः। आव० ३०१| ५७२। अप्पलेवा-जस्स दिज्जमाणस्य अप्पभक्खी-अल्पलघुभक्षी-अल्पानि-स्तोकानि लघूनि णिप्पावचणगादिगस्स लेवो ण भवति सा। निशी० १२ निःसाराणि निष्पावादीनि भक्षयितुं शीलमस्य। उत्त. ४२० अप्पवणिज्जोदग-अपातव्यजला मेघाः। भग० ३०६) अप्पभु-अप्रभवः-भृतकादयः। ओघ० १६३। अप्पवुहिकाए- अल्पवृष्टिकायः, अल्पःअप्पभूतं-अल्पभूतां-अल्पां। स्था० २९४१ स्तोकोऽविद्यमानो वा वर्षणं वृष्टिः-अधःपतनं अप्पमज्जणा-अप्रमार्जना, मूलत एव वृष्टिप्रधानः कायो-जीवनिकायो व्योमनि पतदप्काय रजोहरणादिनाऽस्पर्शना। आव० ५७६) इत्यर्थः, वर्षणधर्मयुक्तं वोदकं वृष्टिः, तस्याः कायोअप्पमज्जियदुप्पमज्जियउच्चारपासवणभूमी राशिर्वष्टिकायः अल्पश्चासौ वृष्टिकायश्चाल्प अप्रमार्जितदु-ष्प्रमार्जितोच्चारप्रश्रवणभूमिः वृष्टिकायः। स्था० १४१ पौषधेऽतिचारः। आव० ८३५१ अप्पसत्थाओ-अप्रशक्ताः-आश्रेयस्योऽनादेयाः। स्था० अप्पमत्तो-अप्रमत्तः, १७५ गुरुपारतन्त्र्यापहारिप्रमादपरिहर्ता। उत्त० २२३॥ | अप्पसद्दा-अल्पशब्दाः विगतराटीमहाध्वनयः स्था० अप्रमत्तसंयतगामः, भूतग्रामस्य सप्तमं गुणस्थानम्।। ४४ आव० ६५०। आत्महितेषु जाग्रन्। आचा० १७२। अप्पससरक्खं- अल्परजस्कम्। आचा० ३३७) प्रयत्नवान्। ओघ. २२११ अप्पसागारियं- अल्पसागारिकम्। आव० १९५। अल्पगृहअप्पमाए-अप्रमादः, योगसङ्ग्रहे षड्विंशतितमो योगः। स्थम्। उत्त. ९० आव० ३५८१ आव. १७२ प्रयत्नवान्। ओघ. २२११ अप्पसावज्ज-अल्पसावदयम, अपापं, स्तोकपापं वा। अप्पमाओ-अप्रमादः, उत्तराध्ययनेष् आव० ५८६। एकोनत्रिंशत्तममध्य-यनम्। उत्त०९। सम०६४। अप्पसाहणो-अल्पसाधनः, बलादिरहितः। आव०७१२ उवओगपुव्वकरणकिरियाल-क्खणो। निशी० २९ । अप्पहाणो-अप्रधानः, लघः। उत्त० १४९। अप्पमाणभोती-अप्रमाणभोजी, अप्पहिढे-अप्रहृष्टम्, अहसन्। दशवै० १६६। दवात्रिंशत्कवलाधिकाहारभो-क्ता। प्रश्न १२५ अप्पा-आत्मा, अभिहितरूपस्तदाधाररूपो वा देहः। उत्त. अप्पमातो- अप्रमादः प्रमादवर्जनम्, अहिंसाया ५३। शरीरम्। प्रज्ञा० ३०५। अतति सन्ततं गच्छति एकोनपञ्चाश-त्तमं नाम। प्रश्न. ९९। शुद्धिसङ्क्लेशात्मकपरिणामान्तराणीति। उत्त० ५२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [73] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] निशी० १५अ । आत्मा स्वभावः । स्था० ६१| अप्पाइय- आप्यायितः । आव० ७१६ । अप्पाउरण- अप्रावरणः, अभिग्रहविशेषः । आव० ८५४ | अप्पाणं- आत्मानम्, आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) अतीतसावद्ययोगकारिणमश्लाध्यम् । अत्राणम्अतीतसावद्द्ययोगत्राणविरहितम् । अतनम् अतीतं सावद्ययोगं सततभवनप्रवृत्तं निवर्तयामि आव० ४८६ । अप्पाणमेव- आत्मनैव । उत्त० ३१४ | आत्मानं अंतरात्मानम्। आचा० २८३ | अप्पायंक- अल्पातङ्कः, रोगरहितः । आव ७९३ ॥ अरोगी । आचा० ३९३ | अप्पाहंति सन्दिशन्ति । बृह० ४४ आ अप्पाहहु - आहत्य, व्यवस्थाप्य, अपाहृत्य वा । सूत्र० २७४ | २७ स्था० १४९ | अप्पाहारे अल्पाधारः तमेव पृष्ट्वा सूत्रार्थवाचनां ददाति । बृह० १३३आ। अल्पाहारः, अष्टकवलाहारः । औप० ३८ भग० ९२१॥ स्तोकाहारः साधुः। भग. २९२॥ स्तोकाशी, षष्ठाष्टमादिसंलेखनाक्रमायातं तपः कुर्वन् यत्रापि पारयेत्तत्रा- प्यल्पमित्यर्थः । आचा० २९० | अप्पाहारो - जो आयरिओ संकियसुत्तत्थो तं चेव पुच्छिउं वाणं देति तारिसं ति मोत्तुं ण गंतव्वं निशी. ९३३ अप्पाहिंति - सन्दिशन्ति बृह० ११४ आ सन्दिशतः । आव० ३०२ अप्पाहिकरणे अल्पाधिकरणं निष्कलहं स्था० ४१६| अप्पाहितो- सन्दिष्टः । उत्त० २१९ | अप्पाहे- तद्गुरोस्तत्प्रवर्तिन्या वा एवं सन्दिशतिययैतामात्मसकाशे कुस्त। ओघ• ४३१ अप्पा - सन्दिशति । दशवै० १०३ | अप्पाहेति संदिसह निशी. २११ आ । अप्पाहेत्ता- सन्दिश्य । उत्तः १७३) आव० ३१०| अप्पिच्छे अल्पेच्छ, अल्पा- स्तोका अल्पशब्दस्याभाववादित्वेनाविद्यमाना वा इच्छा - मुनि दीपरत्नसागरजी रचित ५०४| अप्पियवहा- अप्रियवधाः अप्रियं दुःखकारणम् तत् घ्नन्ति आचा० १२२ अप्पुण्णकप्पिया अपूर्णकल्पिका- अन्योन्यस्य सुखदुःखोप- संपदं प्रतिपद्यते। व्यव० ३७८ आ । अप्पाहणया सन्देशकस्तथैव दातव्यः ओघ० १०२१ अप्पाहारं- अप्पधारणा, सामर्थ्यम्, अप्पाहारता जत्थ तं । अप्पुत्थायी - अल्पोत्थायी, अल्पमुत्थातुं शीलमस्येति। प्रयो- जनेऽपि न पुनः पुनरुत्थानशीलः । उत्त० ५८ | निशी० ८२आ। अप्पाहार- अल्पाहारः, ऊनोदरतायाः, प्रथमो भेदः । दशवै० अप्पुस्सुए- अल्पौत्सुक्यः । भग० १७४ । त्वरारहितः। भग १२३ | अविमनस्कः आचा० ३७९१ [74] [Type text] वाञ्छा वा यस्येति । उत्त० १२४ | न्यूनोदरतयाऽऽहारपरित्यागी । दशवै० २३१| अप्पिणिच्चिया आत्मीया आव० २०२१ अप्पितणप्पिते अर्पित विशेषितं, अनर्पितं अविशेषितम् | स्था० ४८१ | अप्पियं अर्पितम् आहितम्। भग०८९। अप्पिय- अप्रियम्, अनिष्टम् । भग० ७२॥ अर्पितः, विशेषः । विशे० १३४६ | अप्पियणियं- अप्रीतिकम्, कलहः । उत्त० ३५५| अप्पियत्ता- अप्रियता, अप्रेमहेतुता भग० २५३३ प्रज्ञा० अप्पे - आप्यः, अपां प्रभवः ह्रदः । भग० १४१ | अप्पो - अल्पः, सर्वथाऽविद्यमानः । जीवा० १२१ ॥ नास्ति किञ्चिदित्यर्थः। ओघ० १७७ । निषद्याद्वयोपेतं रजोहरणं मुखवस्त्रिका चोलपट्टकाश्च बृह० १५० आ । अप्पोद - अल्पोदके-भौमान्तरिक्षोदकरहिते । आचा० २८५ | अप्पोल्लं- दृढवेष्टनाद् घनवेष्टनात् । ओघ० २१४ | अप्पोवही अल्पोपधिः, अनुल्बणयुक्तस्तोकोपधिः । दशवे. २८०१ अप्पोसे- अल्पावश्याये- अधस्तनोपरितनावश्यायविप्रुड्वजिते। आचा. २८५ अप्फंदणया- भाण्डोचितहस्तपादादिचेष्टाविकलता। व्यव० २३६ अ अप्फच्चितो अइक्कंते निशी. १४७ आ अप्फालिया- शिक्षिता:- उपालब्धाः उक्ताः आव. ५५ठा अप्फालेड़- आस्फालयति, हस्तेनाऽऽताडयतिउत्तेजयति । औप ६४१ अप्फिडिऊण- आस्फाल्य। आव० ३४४ | - “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अप्फुण्णा-व्याप्ताः। बह०७० आ। अबंधिउं- पात्रकबद्धग्रन्थिमदत्त्वा। ओघ. १४४१ अप्फुण्णे- आपूर्णः-परिपूर्णशरीरः। उत्त० ४८३। अबभं- अब्रह्म, अकुशलं कर्म, मैथुनम्। प्रश्न० ६५ अप्फुण्णो- व्याप्तः। आव० ३५४। अकुशलानुष्ठानम्, अब्रह्मणः प्रथमं नाम। आव ७६१] अप्फेया-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ अबंभ-अब्रह्मवर्जकः, श्रावकस्य षष्ठी प्रतिमा। आव. अप्फोआ- वनस्पतिविशेषः। जम्बू०४६। ६४६। अप्फोडेइ-आस्फोटयति, करास्फोटं करोति। भग. १७५ | अबंभचारिणो- अब्रह्मचारिणः, मैथुनं आसेवितं शीलं अप्फोया- वनस्पतिविशेषः। जीवा० २०११ धर्मो वा येषां ते। उत्त० ३५८१ अप्फोव-आस्तीर्णे, वृक्षगुच्छगुल्मलतासंछन्नः। उत्त० | अबद्धिआ- अबद्धिकाः, अबद्धं सत्कर्म कंचुकवत्पार्श्वत ४३८५ स्पृष्टमात्रं जीवं समनुगच्छन्तीत्येवं वदन्ति। औप. अप्रकीर्णप्रसृतं- वाण्यतिशयविशेषः। सम०६३। १०६| अप्पडिहय-अप्रतिहत कटकुडपर्वतादिभिरस्खलिते, अबद्धिगा-अबद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकाः। आव. अविसंवादके वा। सम०४१ ३११। अबद्धिकः, बद्धं-जीवप्रदेशैरन्योऽन्याविभागेन अप्रत्याख्यानम-दवितीयकषाय चतुष्कम। आचा. ९१| सम्पृक्तं न बद्धं-अबद्धं, अर्थात्कर्म, अप्रमार्जितचारित्वम्-द्वितीयमसमाधिस्थानम्। प्रश्न तदभ्युपगमविषयमेषामस्तीति। उत्त० १५२ १४४१ अबद्धिता-अबद्धिकाः-स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकाः। स्था० अप्सरा-दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्यां ४१० भूतावतंसि-काराजधान्यधिष्ठात्री, शक्रदेवेन्द्रस्य अबला-अबलाः, शारीरशक्तिविकलाः। जम्बू. २३९। दवितीयाग्रमहिषी। जीवा० ३६५ शक्रस्याग्रमहिषी। अबले- अबलः, शरीरशक्तिवर्जितः। भग० ३२३॥ जम्बू. १५९। अबहस्सुए-अल्पश्रुताय-अवगाढस्तोकशास्त्राय। सर्य. अफलवंतकी-अफलवान्, अप्राप्तिकः। प्रश्न०६४। २९६। अफव्वंता-अलभमानाः। निशी० १८३आ। अबहुस्सुतो-जेण आयारपगप्पो ण ज्झातितो। निशी. अफासुअ-अप्रास्कम्, सचित्तसन्मिश्रादि। दशवै. २३११ २५। सचित्तम्। आचा० ३२१॥ अबहोड-अवखोटकः, बन्धविशेषः। उत्त. ११३। अफासुए- अप्रासुकम्, न प्रगता असवः-असुमन्तो अबाधाए-अबाधया अपान्तरालं। सूर्य. २६२ यस्मात्त-दप्रासुकम्-सजीवमित्यर्थः। भग० २२६। अबाल-अष्टाधिकवर्षः। निशी. १७३ आ। अफुडिय-अस्फुटितः-राजीरहितः। आव० २३९। अबाहा-अबाधा, कर्मणो बन्धोदययोरन्तरम्। भग० २५५ अफुण्णे-आपूर्णम्। प्रज्ञा० ५९२ अन्तरं, अन्तरालत्वाप्रतिघातरूपा। अफुसं-अस्पृश्यम्, अबन्धनीयम्। भग० १०४१ अव्यवधानेनान्तरम्। जम्बू०४३५। अफसमाणगतिपरिणामे-अस्पृशदगतिपरिणामः, दूरवर्तित्वेनानाक्रमणमपान्तरालम्। जम्बू०६४। अस्पृशतो गतिपरिणामः। प्रज्ञा० २८९। अन्तरं-व्यवधानम्। जम्ब०६५ अपान्तरालम्। जीवा० अफुसमाणगती- अस्पृशद्गतिः, यत्परमाण्वादिकमन्येन ९४, २०४। अन्तरालत्वाव्याघातरूपा। जीवा० ३०२ पर-माण्वादिना सह परस्परसम्बन्धमननुभूय गच्छति अन्तरालम्। ओघ० ९०| आव०४६। अन्तरं जम्बू०४३५१ सा, विहायोगतेवितीयो भेदः। प्रज्ञा० ३२७। अबाहाए- अबाधया, व्यवधानेन कृत्वा। सम० २१| अबंधव-अबान्धवः, स्वजनरहितः। प्रश्न. १९| अबाधायां कृत्वा, अपान्तरालेषु मुक्त्वा । जीवा० २२२॥ अबंधवो-अबान्धवः, बान्धवरहितः, अबाहिरा-अबायाः, न बाह्या इति। आव० ४५) स्वजनसम्पादयकार्या-भावात् कर्मनिगडबद्धः। प्रश्न. अबितिज्जओ-अदवितीयः, सहायो न भवति। प्रश्न ११| १२११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [75] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] २९। अबुद्धा अबुद्धजागरियं-अबुद्धाः केवलज्ञानाभावेन अब्भत्थं- अध्यात्मस्थम्, अभिप्रेतम्। उत्त० २६५। यथासंभवं शेषज्ञानसद्भावाच्च बुद्धसदृशास्ते चाबुद्धानं- यदयस्याभिमतं सुखम्। उत्त. २६५। अध्यात्ममात्मनि छद्मस्थज्ञानवतां या जागरिका। भग० ५५४। यद्व-र्तते, मनः। उत्त० २६५। अध्यात्मकरणम्, अबुहजण-अबुधजनः, अविपश्चिज्जनः-परिजनो यस्य क्रियाया अष्टमो भेदः। आव०६४८१ सः, अकल्याणमित्रपरिजनः। दशवै० ८६| अब्भत्थिए-आध्यात्मिकः, आत्मविषयः। भग० ११५ अबोट-अनाक्रमणीय। ओघ. ९२२ अब्भत्थियं-अभ्यर्थितम्। आव० ३५९। अबोहि-अबोधिः, मिथ्यात्वकार्यम्। आव० ७६२१ अब्भपडलं-अभ्रपटलम्, मेघवृन्दम्। औप०६६। प्रज्ञा० मिथ्यात्वसंहतिः। दशवै. २४४। २७। मणिभेदः, पृथिवीभेदः। आचा० २९। उत्त०६८९। अबोहिअ-अबोधिकम्, मिथ्यात्वफलम्। दशवै० २०५१ | अब्भपडलो-अभ्रपटलः। प्रज्ञा० २६६। जीवा० २३। अबोहिकलुसं- अबोधिकलुषः, मिथ्यादृष्टिः। दशवै. १५८१ | अब्भ(त)रया- अभ्यन्तरका-ये राजानमति अब्बहुलकाण्डम्- रत्नप्रभायां तृतीयकाण्डः। सम० ८८५ प्रत्यासन्नीभूया-वलगन्ति। व्यव० २८२ अ। अब्बुयं-द्वितीयसप्ताहगर्भावस्था (तन्दु०) अब्मरहितो-आसन्नो। निशी. १३आ। अब्भ-अभ्रम्, सामान्याकारेण प्रतीतम्। जीवा० २८३। | अब्भरुक्खो-अभवृक्षः, अभ्रात्मको वृक्षः। भग० १९५ अब्भंगिएल्लय-स्नेहाभ्यक्तशरीरः। ओघ०७४। वृक्षाकारपरिणतमभत्। जीवा० २८३। अब्भंगिओ-अभ्यङ्गितः। आव. १९७५ अब्भरुह-अभ्यारुहः-वृक्षस्योपरिवृक्षः, वनस्पतिविशेषः। अब्भंगेति-थेवेण अब्भंगणं| निशी. ११६ आ। भग०८०२ अब्भंगो-थोवेण| निशी. १८८ । अब्भवालुए-अभ्रवालुका, मणिभेदः, पृथिवीभेदः। आचा० अब्भंतरं- लोकेऽन्यैरनुगतम्। दशवै० १४१ अब्भंतरकरणं-द्वयोः साध्वोः गच्छमेढीभूतयोरभ्यन्तरे | अब्भवालुया- अभ्रवालुका, अभ्रपटलमिश्रा वालुका। प्रज्ञा० कुला-दिकार्यनिमित्तं २७। उत्त०६८९। जीवा० २३ परस्परमुल्लपतोस्तृतीयस्योपशुश्रूषोः बहिःकरणं। अब्भसंथडा-अभ्रसंस्थितानि, व्यव० २३८ । मेधैराकाशाच्छादनानीत्यर्थः। स्था० २८७ अब्भंतरगे-अभ्यन्तरम्-अभ्यन्तः मध्य भवं। स्था० अब्भा-अभ्राणि। भग. १९५१ अब्भाइक्खइ-अभ्याख्याति-निराकरोति। आचा. ५२ अभंतरे पोग्गले-भवधारणीयेनौदारिकेण वा शरीरेण ये | अब्भाइक्खिज्जा-अभ्याख्यानम्-असदभियोगः। आचा. क्षेत्रप्रदेशाः अवगाढास्तेष्वेव ये वर्तन्ते तेऽवसेयाः, ४४। प्रकटमसदोषारोपणम्। स्था० २६। विभूषापक्षे तु निष्ठीवनादयोऽभ्यंतरपुद्गलाः। स्था० अब्भावगासं-अङ्गणम्। निशी० १९२। १०५ अब्भावगासियं-आकाशम्। बृह. १७९ अ। अब्भक्खाणं- अभ्याख्यानम्, परमभि असतां अब्भासं-पच्चासण्णं। निशी. ६० अ। अभ्यासः-हेवाकः। दोषाणामाख्या-नम्, अधर्मदवारस्य सप्तदशं नाम। स्था० २८५। प्रश्न. २६। असदभियोगः। सूत्र. २६२। असद् अब्भास-अदूरसामत्थे, अच्छेअव्वम्। दशवै. ३१| दुषणाभिधानम्। प्रश्न. ४११ असदोषारोपणम्। प्रज्ञा. अब्भासकरणं-जो धम्मच्चुओ तं पुणो धम्मे ठवेंतेण। ४३८ असंतभावुझावणं। निशी० २५ अ। निशी. २३८ । असद्दोषाविष्करणम्। भग०८० अब्भासगं-अभ्यासकम। ओघ. १५९। अब्भक्खाणे- अभ्याख्यानम्, आभिमूख्येनाख्यानं अब्भासवत्ति-अभ्यासवर्ती-गरोरभ्यासे-समीपे वर्तते दोषावि-ष्करणम्। भग० २३२ इति शीलः, गुरुपादपीठिकाप्रत्यासन्नवर्ती। व्यव० २० अब्भडिओ-आस्फालितः, आहतः। आव० ४३१। आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [76] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अब्भासवत्तियं- प्रत्यासत्तिवर्तित्वम्, श्रुताद्यर्थिना हि । सूर्य. २६३। आचार्यादिसमीपे आसितव्यम्। स्था० ४०९। अभ्यासो- अब्भग्गओ-अभ्युदगतः, आभिमुख्येन सर्वतो गतः। गौरव्यस्य समीपं तत्र वर्तितं शीलमस्येत्यभ्यासवर्ती जीवा० १७५) अभ्रोद्गतः-युवा आकाशे उद्गता तद्धा-वोऽभ्यासवर्तित्वं, अभ्यासे वा प्रीतिकं-प्रेम। भग० प्रबलतया सर्वत-स्तिर्यक् प्रसृता। जम्बू० २९७) ९२५ अब्भुग्गय-अभ्युद्गतः, आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गतः। अब्भासवत्तिया-अभ्यासवृत्तिता, समीपवर्तित्वम्। प्रज्ञा० ९९। अभिमुखमुद्गतः, अग्रिमभागे मनाक् औप०४३। उन्नतः। जीवा० २०५। संजातः। सम० १३९। अब्भासासन-अभ्यासासनं अब्भुग्गयमूसिय-अभ्युद्गतोच्छ्रितः, अभ्युद्गतमभ्रोद् उपचरणीयस्यान्तिकेऽवस्थानं। सम. ९५१ गतं वा यथा भवत्येवमुच्छ्रितः, अथवा अब्भासिया-द्रविडादिदेशोद्भवाः। बृह. २११ आ। मकारस्यागमिकत्वादभ्युद् अब्भासे- अभ्यासः, अदूरासन्नम्। दशवै० ३१। आसन्ने। गतश्चासावुच्छ्रितश्चेत्यभ्युद्गतोच्छ्रितः, अत्यर्थमुच्च ओघ० ७८१ समीपे। ओघ. १४० इत्यर्थः। भग० १४५१ अब्भासो-अभ्यासः, आसेवनालक्षणः। आव० ५९१। अब्भुग्गया- अभ्युद्गता, आभिमुख्येन सर्वतो अब्भाहतो-अभ्याहतः, मत्तः। उत्त० ३००। विनिर्गता। जीवा० ३७९। अग्रिमभावे मनागुन्नता। अभिंतरं-आभ्यन्तरम्, प्रायश्चित्तादि। प्रश्न. १५७ जम्बू. ५०। अभ्युद्गता, अतिरमणीयतया द्रष्ट्रणां अभिंतर-योऽवधिः सर्वास दिक्षु स्वयोत्यं क्षेत्र प्रत्यभिमुखमुत्प्राबल्येन स्थिता। जीवा० २२६। प्रकाशयति। प्रज्ञा० ५३६| आभ्यंतर अब्भुग्गयाओ-अभ्युद्गतान्यभ्रोद्गतानिवोच्चानि। चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेत्स्तपः। सम० १२१ भग०६७२ अभिंतरए- अभ्यंतरम् आन्तरस्यैव शरीरस्य तापनात्, अब्भुग्गयुच्छितपभासियं-अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितं, सम्यग्दृष्टिभिरेव तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्च। औप. अभ्युद्-गताआभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृताः प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तया सितम्। अबिभंतरओ तवो जीवा० ३७९। लौकिकैरनभिलक्ष्यत्वात्तन्त्रान्तरीयैश्चः। अब्भुज्जयं- अब्भुज्जतमरणेण अब्भुज्जयविहारेण वा। भावतोऽनासेव्यमानत्वान्मोक्षप्राप्त्यन्तरंगत्वाच्चाभ्य निशी० ३५। न्तरतपः। दशवै. ३२ स्था० ३६५ अब्भुज्जया- अभ्युद्यता, सुविहिता। अनुत्त० ३। अभिंतरमलो-आभ्यन्तरमलः, मूत्रपुरीषादि। आव० | अब्भुज्जियविहारो-जिणकप्पादि। नि० २६३आ। ७५८ अब्भुट्ठाणं- अभ्युत्थानम्, आगच्छति गच्छति च दृष्टे अभिंतरलावणग-आभ्यन्तरलावणिकः, लवणसमद्रे गुरावासनमोचनम्। उत्त०१७ शिखाया अर्वाक्चारी चन्द्रः। जीवा० ३१८ ससम्भ्रममासनमोचनम्। उत्त० १२४। अभिंतरसंबक्का-संखनाभिखेत्तोवमाए आगिइए अंतो अभीत्याभिमुख्येनोत्थानं-उदयमनम्। उत्त० ५३५। आढ-वति बाहिरओ संणियट्टइ। उत्त०६०५ विनयाहस्य दर्शनादेवासनत्यजनं। स्था० ४०८। अभिंतरिया-अभ्यन्तरिका, नगरीविशेषः। आव० २००९ आसनत्यागः। सम. ९५। गौखाईदर्शनेविष्टरत्याग। अभिडिऊण-आस्फाल्य। उत्त. १४९।। भग० ६३७ जओ दीसइ तओ चेव कायव्वं। दशवै० ३० अब्भक्खेइ-अभ्यक्षति, अभिमुखं सिञ्चति। जीवा० । आगतस्याभिमुखमत्थानम्। दशवै० २४० २५६। अभ्युक्षति, सिञ्चति, स्नपयति। जम्बू. १९२ | अब्भुद्विज्ज-सिंहासनादभ्युत्तिष्ठेयुरिति। स्था० १२७। अब्भुक्छेति-अभ्युक्षन्ति सिञ्चन्ति। जम्बू० २७५। । | अब्भुडिओ-अब्भुट्टिएत्ति सामाइयकडो पडिक्कंता अब्भुग्गए- अभ्युद्गतः, आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गतः। | व्रतारो-पितः। निशी० ८४ आ। ३७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [77] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ७८1 अब्भुहितो- वैयावृत्त्यकरणोयतः। निशी० ३३४ अ। | तृतीयाध्ययनम्। विपा०३५ अब्भुहित्तए-अभ्युत्थातुम्-अभ्युपगन्तुम्। स्था० ५७ | अभज्जियं-अभग्नाम्-अमर्दितामविराधिताम्। आचा. अब्भूद्वियं-अभ्युत्थितम्-अभ्युदयतं। उत्त० ३०७ ३२३ अभ्युत्थापन-वंदनकप्रतीच्छनकादिकं। व्यव० १७२ अभडप्पवेसं-अभटप्रवेशम्, कौम्बिकगेहेष राजवर्णवतां आ। अभ्युत्थित-उद्यतः। ओघ० १८० भटानामविद्यमानप्रवेशम्। विपा०६३। अब्भुट्टेमि-अङ्गीकरोमि। भग० १२११ अभत्तच्छंदो-अभक्तच्छन्दः, भक्तारुचिरूपः। उत्त. अब्भुत्तरोमा- प्रदीप्तरोमाः। निशी० ६१ अ। अब्भुदए- अद्भुतकान् , आश्चर्यरूपान्। उत्त० ३१७। अभत्तटुं-अभक्तार्थम्, उपवासः। आव० ८५२। अब्भुदओ-उत्सवविशेषः। बृह. १९८ । अभत्तहो-अभक्तार्थः, न भक्तार्थः उपवासः। आव. अब्भुन्नय-अभ्युन्नतः, अभिमुखमुन्नतः। जीवा० २७५। ८५३ अब्भुवगमिया-आभ्युपगमिकी, या स्वयमभ्युपगम्य । | अभय-अभयः, श्रेणिकपुत्रनाम। सूत्र. १०३। दानविशेषः। वेदयते (वेदना)। भग० ४९७। प्रश्न. १३५। अभयः, संयमः। आचा०६श कुमारविशेषः। अब्भुवगमे-स्वेच्छया अभ्युपगम्य वादकथा क्रियते। निशी० ७आ, निशी० ३७ अ। बृह. ३१ आ। वृक्षाधिष्ठायकव्यंतरदर्शी। व्यव. १७ अ। अब्भुवगमो-अभ्युपगमः, स्वयमङ्गीकारः। प्रज्ञा० ५५७। अभयकरा-मल्लिजिनदीक्षाशिबिका। सम० १५१ भग०६८३ अभयकरो-अभयकरः। आव०४९९। अब्भे-आभिन्द्यात्, आच्छिन्द्यात्। आचा० ३८॥ अभयकुमार-प्रद्योतस्यापकारकः। सूत्र० ३१३॥ अब्भोवगमिया-आभ्युपगमिकी औत्पातिकी बुद्धेदृष्टान्तः। बृह. १८६अ। आर्द्रकुमाराय केशोल्लुञ्चनातापनादिभिः शरीरपीडा। प्रज्ञा० ५५७ प्रतिमा-प्रेषकः। सूत्र० ३८५ शिरोलोचब्रह्मचर्यादिनामभ्युपगमे भवा (वेदना)। स्था० प्रद्योतगणिकाभिर्धार्मिकवञ्चनया वञ्चितः। सूत्र २४७ ३२९। कालसौकरिकस्तसुलससखा। सूत्र. १७८1 अब्रह्म- मैथनम्। आचा० ३३१| संवरपूर्विकैहिकार्थसिद्धौ दृष्टान्तः। जम्बू. १९७५ अभओ-अभयः। आव.९५ अभयकमारोऽष्टमकारी।। रोहिणीयस्य लौकिकसूक्ष्मपरिनिर्वापणः। व्यव० २०९। अन्त०९। व्यक्तिविशेषः। आव. ३६८1 उदाहरणदोषे अभयकुमारो- दृष्टांतविशेषः। निशी. १९४ अ। अभयकुमारः। दशवै०५३। नामविशेषः। बृह० ४६ आ। अभयदए-अभयदयः, अभओ सव्वस्सवि-अभयं सर्वस्यापि प्राणापहरणरसिकेऽप्युपसर्गकारिणि प्राणिनि यो न भयं प्राणिगणस्याभयम्। अहिंसाया दविपञ्चाशत्तमं नाम। दयते ददाति, अभया सर्वप्राणिभयपरि-हारवती वा दया प्रश्न.९९ - अनुकम्पा यस्य सः। भग०७ अभयं - अभक्तार्थः- खमणः, क्षपणः। व्यव० १८१ आ। विशिष्टमात्मनःस्वास्थ्य अभग्गं- अभग्नम्, अपीडितम्। आव० ७७२। निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता परमा अभग्गजोगो-अभग्नयोगः। आव०७९३। धृतिरितिभावः तदभयं ददति। जीवा० २५५ अभग्गसेण-अभग्नसेनः, विजयस्य चौरसेनापतेः अभयदयेणं-अभयदयः, न भयं दयते प्राणापहरणरसिस्कन्दश्री-भार्यायाः पुत्रः। विपा० ५७ विजयस्य कोपसर्गकारिण्यपि प्राणिनि ददातीत्यभयदयः। सभ० चौरसेनापतेः पुत्रः। विपा० ६०। अभग्नसेन, ४ अभया वा-सर्वप्राणिभयपरिहारवती दया-घृणा विपाकश्रुताध्ययनम्। स्था०४०७। यस्यासावभयदयः सम०४| अभग्गो-अभग्नः, अभग्सेनः, अभयसेण- अभयसेनः, संवेगोदाहरणे वारत्रकपुरे राजा। विजयाभिधचौरसेनापतिपुत्रः, अन्तकृद्दशासु आव०७०९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [78] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ३७ अभयसेणो-वारत्तपुरं नगरं, तत्थ अभयसेणो राया। | अभिकंख-अभिकाझ्य-उद्दिश्य। आचा० २८१। निशी० ५४ आ। वारत्रकपुरराजा। बृह. ३४९ आ। पर्यालोच्च। आचा० ३८८ अभयसेन- छर्दितदोषदृष्टान्ते राजा। पिण्ड० १६९। अभिकंखमाणो- अभिकाङ्क्षन, मायारहितः। दशवै. अभयसेना-वापीनाम। जम्बू० ३७०८ २५२ अभया- हरीतकी। आचा० १३०| निशी. १४१ आ। अभिकंता-अभिक्रान्ता-शय्यायास्तृतीयप्रकारः। बृह. अभये-अभयः, अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य ९३ । दशमाध्ययनम्। अनुत्त०१। अभिक्कंतं-अभिक्रान्तम, अभिक्रमणम्। प्रज्ञापकं, अभवसिद्धिय-अभवसिद्धिकः, अभव्यः। जीवा० ४४९। प्रत्यभिमुखं क्रमणम्। दशवै० १४१। स्था० ३०१ अभिक्कमंति-अभिलसंति। दशवै.६२ अभविय-अभव्यः-अयोग्यः उत्त०७१३। अभिक्कममाणे- अभिक्रामन्-गच्छन्। आचा० २१७१ अभाग-अभाग्यः, अशोभनः। आव०७०८। अभिक्खसेवा- पुणो पणो गमनं। निशी. ३९ आ। अभावं-नञः कुत्सायामपि दर्शनादशोभनं भावं-सर्वतो । अभिक्खं-अभिक्ष्णं, अनवरतम्। भग० २२, ४१। आचा. निष्काशनलक्षणं पर्यायम्। उत्त०४६। ३६५। सूत्र० ११५। उत्त० ३४३, २१४। आव० ४०७ अभाविआ-अगीतार्थाः। बृह. १६६ आ। अनुसमयम्। भग० ४३। पुनः पुनः। उत्त० ३४४, ४२८१ अभाविओ-अभावितः। आव० १०१। अभावितः-अपरि- स्था० ३०१॥ णतजिनवचनस्तस्य निर्लेपनाभावे माऽभूद अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारइत्ता-शबलदोषः। सम. विपरिणामः। बृह. २७२। अभाविते-असंसर्गप्राप्तं प्राप्तसंसर्ग वा। स्था०४८१। अभिक्खणंऽभिक्खमोहारी-अभीक्ष्णमभीक्ष्णमवधारकः, अभावितो- कृताभ्यासः। निशी० १३१ आ। योऽभीक्ष्णमवधारिणी भाषां भाषते, यथा दासस्त्वं चौरो अभावुक-नलस्तम्बः। ओघ० २२३। वेति, यद्वा शकितं तन्निःशङ्कितं भणति। अभावो- असंभवः। दशवै० ३९। विनाशः। ब्रह. ७२ आ। एकादशममसमाधिस्थानम्। आव०६५३, ६५४| अभासो-स्वदेशभाषाया अज्ञः। ब्रह० १९ आ। अभिगच्छंति-अभिगच्छन्ति, समीपमभिगच्छन्ति। अभि-पृथग्। बृह. १९४ अ। भग. १३७ अभिई-अभिजित्, नक्षत्रविशेषः। सूर्य. ११४१ स्था० ७७ | अभिगता-अभिगताः, अभिगतजीवाजीवाः। आव० ३०४। अभिओग-अभियोगः, अज्ञाप्रदानलक्षणः। दशवै० २४९। | अभिगम-अभिगमः, ज्ञानम्। उत्त० ५९२। बोधिलाभः। विकुर्वणा। भग० १९१। बलात्कारः। उत्त० ३६५ सम० १२०। मैथनासेवना, गमनं च। आव० ८२५ अभिओगकया-अभियोगकृता, या अभिगम्य, विज्ञाय, आसेव्य। दशवै. २५८५ वशीकरणचूर्णमन्त्रयोः संयोजिता सा। ओघ. १९३। अभिगमकुसले-अभिगमक्शलः, लोकप्राघूर्णकादिप्रअभिओगपावणं-अभियोगप्रापणं, हठाव्यापारवर्तनम्। | तिपत्तिदक्षः। दशकं. २५५ प्रश्न. २२१ अभिगमणं-अभिगमनं, अभिओगिओ-आभियोगिकः। आव० १२४। सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरप्रवेशनम्। जीवा० ३४५। अभिओगे-अभियोगः, प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यमाणत्वम्। सूर्य. २४३। जीवा. २४३। अभिगमरुई- अभिगमरुचिः यस्य श्रृतज्ञानमर्थतो दृष्टं अभिओगो-अभियोगः, पारवश्यम्। विपा० ५४। गर्वः।। स भवति। प्रज्ञा. १६। अभिगमो-ज्ञानं ततो रुचिर्यस्य आव० ७७२। वशीकरणचूर्णो मन्त्रश्च। ओघ. १९३। स, येन ह्याचारादिकं श्रुतमर्थतोऽधिगतं भवति सः। अभिओग्गो- अभियोग्यः, अभिमुखं कर्मसु युज्यते स्था० ५०४१ अभिगमरुचिः-अभिगमो-ज्ञानं तेन व्यापार्यत इति वा, तस्य भावः कर्म वा। जीवा० २८० | रुचिर्यस्य सः। उत्त० ५६३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [79] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अभिगमसड्ढे- अभिगमश्राद्धकः-यत्र कारणे आपन्ने | १३२। अभिचन्द्रः-अमुष्यामवसर्पिण्यां चतुर्थकुलकरः। प्रविश्यत। ओघ. १५६| स्था० ३६८1 अभिगमसड्ढो-सम्मद्दिट्ठी-गिहीताणुव्वओ। निशी. अभिचारकमन्त्रविदयादि-अशिवपुररोधादौ तत्पशमनार्थं १९९ आ। प्रयुञ्जान इत्यर्थः। स्था० १६४। अभिगम-अभिगमः, विस्तरबोधः। भग. १०० अभिचारुअं-चारकता। निशी. २७४ आ। प्रतिपत्तिः । भग. १३७ अभिचारुकं- वसीकरणं। निशी० १०१। अभिगमो-अभिगमः, यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदः। अभिजाए- अभिजातः, शास्त्रीयद्वादशदिवसनाम। जम्बू० आव० ८३८ साधूणमागयाणं जा विणयपडिवत्ती सा। । ४९० विनीतः। उत्त० १८८1 कुलीनः। जम्बू. १८२ दशवै० १४१५ अभिजाओ-शिष्टः। बृह० २५५ आ। अभिगया-जीवाजीवादिपदार्थाभिगमोपेता श्राविकेत्यर्थः। | अभिजाणइ-अभिजानाति, विवेचयति। आचा. २०३। बृह. १३९ आ। अभिजातं-वाण्यतिशयविशेषः। सम०६३। अभिगहियट्ठ-अभिगृहीतार्थम्, अभिजाति-कुलीनता। उत्त० ३४७) प्रश्नितार्थस्याभिगमनात्। भग० १३५ अभिजातिए- अभिजातिगः, अभिजातिः-क्लीनता तां अभिगाहइ-सेवते। आचा. ११४१ अभिगाहन्ते-सेवन्ते। गच्छति-उत्क्षिप्तभारनिर्वाहणादिनेति। उत्त० ३४७। आचा० १३३ अभिजाते-अभिजातः, शास्त्रीयैकादशदिवसनाम। सूर्य अभिगिञ्झ-अभिगृह्य, आलोच्य। दशवै. २१६ १४७ अङ्गीकृत्य, तदभिमुखीभूय। स्था० ५६। अभिजाय-अभिजातम्-क्लीनम्। भग० ४६९। अभिग्गह-अभिग्रहः, गुरुवियोगकरणाभिसन्धिः । दशवैः | अभिजायइ-अभिजायते, २४१ उपभोग्यतयाऽऽभिमुख्येनोत्पद्यते। उत्त० १८७ अभिग्गहियमिच्छादंसणवत्तिया अभिजित-नक्षत्रदेवविशेषः। प्रश्न०१५। उदायनपुत्रः। अभिगृहीतमिथ्यादर्शन-प्रत्ययिकी, स्था० ४३१ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकीक्रियाया दवितीयो भेदः। आव० अभिजुजंति-अभियञ्जते, ६१२१ विद्यादिसामर्थ्यतस्तदनुप्रवेशेन व्यापारयितुम्। भग० अभिग्गहिया-अभिगृहीता, प्रतिनियतार्थावधारणम्। प्रज्ञा० २५६। अभिग्रहिका-वस्त्राणि वा पात्राणि वा अभिमुंजिया-अभियुज्य, व्यापार्य, स्मारयित्वा। सूत्र० पुरणीयानि अपरेण वा येन प्रयोजनमिति १३९। योजयित्वा, अभियोगं ग्राहयित्वा, व्यापारयित्वा। प्रतिपन्नाभिग्रहाः। बृह. ९९। आचा० १२३। आश्लिष्य-वशीकृत्य। स्था० १०६) अभिग्गहो-अभिग्रहः-प्रत्याख्यानविशेषः। आव० ८५२। सम्बन्धमुपगत्य, प्रतिस्पद्व्यास्था० १७७) कुमतपरिग्रहः। स्था०४९। नियमः। भग० ६२१ अभिजोइंति-तिरस्कुर्वन्ति, निर्भर्त्सयन्ति। बृह. २८१। अभिग्रहिकः- मिथ्यात्वविशेषः। स्था० २७। अभिजोययंति-वशीकुर्वन्ति। बृह० २५५ अ। अभिघट्टिज्जमाणस्स-अभिघट्टयमानस्य-वेगेन अभिज्ज-अभेद्यं। उत्त० २०७ गच्छतः। जम्बू० ३७। जीवा० १९३| अभिज्जा-अभिध्यानमभिध्येत्यस्य। सम०७१। लोभः, अभिघातो-उवलओ वा घात्तिज्जति। निशी. १०५ अभिध्यानं वा। प्रश्न. ९७। अभिचंदे-अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्थकुलकरः। सम० १०३, | अभिज्झा-अभिध्या-अदृढाभिनिवेशः, चित्तलक्षणः। १५०| अभिचन्द्रः, अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्याष्टमा- | भग० ५७३। अभिध्या, अभिध्यानम्, अभिलाषः। प्रज्ञा० ध्ययनम्। अन्त० ३। अभिचन्द्रः-मुहूर्तविशेषः। सूर्यः | ५०४। १४६। जम्बू. ४९१। कुलकरविशेषः। आव० १११। जम्बू. | अभिज्झिअ- अभिध्यातम्, इष्टम्। दशवै० २७७। १९११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [80] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अभिज्झियत्ता-अभिध्यितता, भिध्या-लोभः सा अभितोसइज्जा-अभितोषयति, येन वा तेन वा यापयति। सजाता यत्र सो भिध्यितो, न भिध्यितोऽभिध्यितस्तद TSभाध्यतस्तद् | दशवै. २५३ भावस्तत्ता। भग० २५३। अभिध्यितता, | अभिदुग्गा-अभिदुर्गा, आभिमुख्येन दुर्गा-दुःखोत्पादिका अभिध्यानमभिध्या-अभिलाषः, सा सजाताऽस्मिन् । सूत्र० १२९। तस्य भावः। प्रज्ञा० ५०४। अभिध्येयता-अहृद्यत्वं, अभिद्दवं-अभिद्रवन्ति। आचा०४२९। अशुभत्वं। भग० २३ अभिय- अभिद्रुतः, सर्वात्मना व्याप्तः। जीवा० १३० अभिणए-अभिनयः, अभिधानं- वचनपर्यायः। आव. २९। चतुर्भिरागिकवाचिकसात्त्विकाहार्यभेदैः अभिधारए- अभिधारयेत्-यायात्। दशवै. १८६। किमेते समुदितैरसमुदितैर्वाऽभिनेतव्यवस्तुभावप्रकटनम्। उपसर्गा ममाचलितचेतसः कर्तुमलमिति। चिन्तयेत्। जम्बू०४१४१ उत्त० १०९। अभिधारयेयः-अन्तर्भावितेव। उत्त० १०९। अभिणंदणो- अभिनन्दनः, अभिनन्दयते अभिधारणा- धारणा, विचारणा, संकल्पः। व्यव० ३७३। देवेन्द्रादिभिरिति, चतुर्थजिनः, गर्भात्प्रभृतिरभीक्ष्णं अभिधारयामो- गर्हणाबुद्ध्योद्घट्टयामः।सूत्र० ३९२। शक्रोऽभिनन्दितवानिति। आव. ५०२। अभिधारेमाणे-अभिसन्धारयतः-गच्छतः। आचा० २३९। अभिणदिए-अभिनन्दितः-लोकोत्तरप्रथममासनाम। अभिधास्ये-कीर्तयिष्ये। आचा०४। जम्बू. ४९० अभिनंदिज्जा-अभिनन्देत्, अनुमन्येत। उत्त० १२० अभिणंदियाइओ-अभिनन्दितवान्। आव० ५०२। अभिनयिका-नृत्यकलाभेदः। सम० ८४| अभिणंदे-अभिनन्दः, लोकोत्तरप्रथममासनाम। सूर्य अभिनव-विशिष्टवर्णादिगुणोपेतः। जीवा. १२११ १५३ अभिनवम्- नवम्। सूर्य. १८१ अभिणिक्खंतो-अभिनिष्क्रान्तः। आव० ११७ अभिनिक्खमणं-अभिनिष्क्रमणं-दीक्षा। आचा०४२ अभिणिबोहे- अभिनिबोधः, अर्थाभिमुखो नियतः अभिनिक्खमति-अभिनिष्क्रामति-धर्माभिमुख्येन प्रतिनियतस्वरूपो बोधो-बोधविशेषः, गृहस्थ-पर्यायान्निर्गच्छति। उत्त० ३०६। अभिबुध्यतेऽस्माद अस्मिन् वेति। अभिनिचरिका-आभिमुख्येन नियता चरिका सूत्रोपदेशेन तदावरणकर्मक्षयोपशमः। प्रज्ञा०५२६| बहिजिकादिषु दुर्बलानामाप्यायनिमित्ते पूर्वाह्नकाले अभिणिवट्टमाणे- अभिनिवर्तमानः, पृथग्भवन्। सूत्र० समुत्कृष्टं समुदानं लब्धं गमनं। व्यव० ३९ अ। ३५४ अभिनिदुवारं- अनेकद्वारम्। बृह० १२आ। अभिणिविट्ठ-अभिनिविष्ट, अभिनिबोधविशिष्टविशिष्टतराध्यवसायभा अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वान्नियतोऽसंशयरूप-त्वाद् वतोऽतितीव्रानुभावजनकतया व्यवस्थितम्। प्रज्ञा० बोधः-संवेदनम्। स्था० ३४७। ४०३। अभिनिपयाए-अभिनिप्रजा-अभि-प्रत्येक अभिणिवेसे-अभिनिवेशः, चित्तवष्टम्भः। औप० १०६ नियताविविक्ता प्रजा चुल्ली। व्यव० ३३९ अ। अभिणिव्वट्टित्ता-अभिनिर्वयं, समाकृष्य। सूत्र. २७९) अभिनिवर्तनम्- क्रिया। उत्त० ५८१। अभिण्णाणं-अभिज्ञानं, चिह्नम्। उत्त० १४९। आव. अभिनिविट्टा-अभिनिवृत्ता। आव. २२७। ३४४) अभिनिविद्वं- अभिनिविष्टम्। तीव्रानुभावतया अभिण्णाय-अभिज्ञातम्, अभिमतम्। भग० १९७ निविष्टम्। भग. ९० अभितावयंति-अभितापयन्ति, अपनयन्ति। सूत्र. १३३। | अभिनिविद्वाइं-अभि-अभिविधिना निविष्टानिअभितर-अभि-आभिमख्येन त्वरस्व-शीघ्रो भव। उत्त | सर्वाण्यपि जीवे लग्नानि। भग० ५३९। ३४० | अभिनिवुडच्चे-अभिनिर्वृत्ताच्चः-शरीरसंतापरहितः। | अभिानवुडच्चामा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [81] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] सूर्य आचा० २८४१ इन्द्रसम्बन्धिनी यस्य स तथा। स्था० १०३। अभिनिवेशिकः-मिथ्यात्वविशेषः। स्था० २७। अभिमुह-पव्वज्जाभिमुहो, संपद्वितो। निशी. १०४। अभिनिवेसए-अभिनिवेशयेत्, कर्यात्। दशवै. २३२१ अभिमुहो- अभिमुखः, उद्युक्तः। दशवै. २४५ अभिअभिनिवेसं-अभिनिवेशः। आव. ३११| आग्रहः। भग. भगवन्तं प्रति मुखमस्य। सूर्य०६| ४८९ अभियोग-आज्ञा। स्था० ५२१। कार्मणं कुर्यात्। बृह. ९९ अभिनिव्वट्टित्ता-अभिनिर्वयं, विधाय। भग० २२४। आ। अभिनिव्विगड-विष्यक् अपवरकः। व्यव० १९०आ। अभियोग-आभियोग्यः, अभियोगार्ह आदेशकारी देवः। अभिनिव्वगडा-अभिनिर्व्याकृत-पृथग्विभिन्नद्वारायां प्रश्न १२११ वसतौ। व्यव०४० आ। अभियोगो- वशीकरण। व्यव० ३१५६ आ। अभिनिव्वगडाए-अभि-प्रत्येकं नियतो वगडः-परिक्षेपो | अभियोजनम-विदयामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादि। यस्यां सा अभिनिव्वगडा। व्यव. १८१ अ। प्रज्ञा०४०६। अभिनिसिज्जा-अभिनिषद्या-रात्रिस्वाध्यायभूमिः, अभिरई-अभिरतिः, आभिमख्येन रतिः। आव०४५१। अभिनैषधिकी सामान्यस्वाध्यायभूमिः। व्यव० १२७ अभिरामयंति-अभिरमयन्ति, आभिमुख्येन विनयादिष् । युञ्जते। दशवै० २५६। अभिनिसिहो- अभिनिसृष्टः, अभिमुखं बहिर्भागाभिमुखं अभिरू-मध्यमग्रामस्य सप्तममुर्छनानाम। स्था० ३९३। निसृष्टः। जीवा० ३६१, २०६। अभिरूप-स्वाभावमिवोपगतः। भग० ४६७। अभिनिस्सवति-अभिनिःश्रवति, जिघ्रतामभिमुखं अभिरूप- अभिमुखमतीवोक्तरूपं आकारो यस्य सः। निस्सरति। जीवा. १९२० अभिन्नं-अव्यपगतजीवं। बृह. ३५ आ। अभिरुवं-अभिरूपं, अभि-सर्वेषां द्रष्ट्रणां मनःप्रसादाअभिन्नाय-अभिधाय-ज्ञात्वा। आचा० ३०४। नुकूलतयाभिमुखं रूपं यस्य तत्, अभिप्पाओ-अभिप्रायः, बुद्धिः। आव० ४१४१ अत्यन्तकमनीयमिति। जीवा. १६१। प्रज्ञा०८७) अभिप्पेय-अभिप्रेतः। कामयन्। दशवै. १९५। अभिप्रेते- अभिरुवा-अभिरूपाणि, कमनीयानि। सम० १३८ अभिअभिरुचिते। उत्त० २५४। सर्वेषां द्रष्ट्रणां मनःप्रसादानकूलतया अभिमुखं रूपं । अभिभवे-अभिभवकायोत्सर्गः-उपसर्गाभियोजने यस्यः सा, अत्यन्तकमनीया। जम्ब० २११ अभिरूपाःद्वितीयः। आव० ७७१। कमनीयाः। स्था० २३२। अभिभूतः-आकलः। आव०५८९। प्रारब्धः, अपराद्धो वा। । अभिलंघमाण-अनिलङ्घयत्, अनुलिखत्। जम्बू. २९७। प्रश्न०६० अभिलसंति-अभिलषन्ति। औप० २४१ अभिभूय-तिरस्कृत्य। आचा० ३०८सर्वथा तत्सामर्थ्य- अभिलसइ-अभिलषति, अभिलषणं-तल्लालसतया मुपहत्य। उत्त० ८१। पराजित्य। सूत्र. १४५ वाञ्छनम्। उत्त० ५८७ अभिव्याप्य। सूत्र. २८५४ अभिलावपुरिसे-अभिलापपुरुषः। अभिमरए-अभिमरकः। आव० ८१९| पॅल्लिङ्गाभिधानमात्रम्। आव० २७७। स्था० ११३। अभिमरा-अभिमरा। उत्त० १६२ आव० ३१६) अभिलाषः-तीव्रलोभोदयप्रभव आत्मपरिणामः। आव. अभिमुखं-अभिमुखं। व्यव० ९९ अ। ५८० अभिमुहनामगोत्तं- अभिमुखनामगोत्र-नोआगमतो अभिलोयणं-अभिलोकनम, अभिलोक्यते यत्रस्थैस्तत, द्रव्यद्रुमस्य तृतीयः प्रकारः। दशवै० १७। अभिमुखे- उन्नतस्थानम्। प्रश्न. १३८१ संमुखे जघन्योत्कर्षाभ्यां अभिवंदओ-अभिवन्दकः, अभिवन्दिष्यत इति। आव. समयान्तर्मुहूर्तानन्तरभावितया नामगोत्रे ____ १६७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [82] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) अभिवंदिऊण- अभिवन्द्य, अभिमुखं वन्दित्वा - प्रणम्य। प्रज्ञा० ३ | अभिवढिए अभिवर्द्धितः तृतीयः पञ्चमश्च युगे संवत्सरी सूर्य १५ स्था० २४४७ अभिवढिए णं मासे- अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य चतुश्चत्वारिं आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) शदहोरात्रद्विषष्टिभागाधिकत्र्यशीत्यधिकशतत्रयरूप स्य द्वादश भागः । सम० ५६ | अभिवर्द्धितमासः, अभिवर्द्धितो नाम मुख्यतस्त्रयोदशचन्द्रमासप्रमाणसंवत्सरः बृह. १८६ आ। अभिवढियवरिसं जत्थ अधिकमासगो पडिति वरिसे तं । निशी० ३३९ अ अभिवड्ढियसंवच्छरे— अभिवर्द्धितसंवत्सरः । सूर्य० १६९, १७१ | अभिभवंति- अभिभवन्ति - न्यक्कुर्वन्ति । स्था० १७७ अभिवद्धी- अभिवृद्धिः, उत्तराभाद्रपदाया देवता । जम्बू० ४९९| अभिवयणा- 'अभी त्यभिधायकानि वचनानि शब्दा अभिवचनाति, पर्यायशब्दाः भग- ७७६। अभिवादणं- अभिवादनम्, शिरोनमनचरणस्पर्शनादिपूर्वमभिवादये इत्यादि वचनम् । उत्त० १२४ | अभिवायण - अभिवादनं - नमोक्काराइकरणं । दशवै० १६४ | अभिवाहारो- अभिव्याहारः, आचार्यशिष्ययोर्वनप्रतिवचने ऽभिव्याहरणम् । आव ४७१। अभिविधग्गहणं- पर्यापन्नपरिष्ठापितादेर्ग्रहणम् । बृह २४| अभिवुद्धित्ता- अभिवर्ध्य सूर्य० १२ अभिवड्ढेमाणे- अभिवर्द्धयन् । सूर्य० १२ । अभिव्यज्यते - अनन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य ततत्सहकारिकारणसन्निधाने तत्तद्रूपम्। स्था० ४९० अभिशंसनम् - असदध्यारोपणं अभ्याख्यानं च आव० ८२१| अभिसंधारिज्जा- अभिसन्धारेयत्, पर्यालोचयेत् । आचा० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [83] [Type text] ३२९| अभिसन्धि- आलोचनम् । प्रज्ञा० ५०० | अभिभूया - अभिसम्भूताः प्रादुर्भूताः । आचा० ३७६ | अभिसमण्णागए- तद्भोगापेक्षया भग. १५९| गवेषयता लब्धं । भग० २२८ अभिसमन्नागच्छामि- अभिसमागच्छामि, अभिविधिना साङ्गत्येन चावगच्छामि - सर्वैः परिच्छित्तिप्रकारैः परिच्छिनद्मि । भग० ७२५ | अभिसमन्नागयं परिणमयितुमारब्धम् । भगः २२५ उदयाभिमुखीभूतम् । भगः ९० अभिसमन्वागतम्उदयाभिमुखीभूतम् । प्रज्ञा० ४०३ | विशेषतः परिच्छिन्नम्। भग- २२३1 अभिसमन्नागया- अभिसमन्वागताः, अभिःआभिमुख्येन सम्यग् - इष्टानिष्टावधारणतयाऽन्वितिशब्दादिस्वरूपावगमात्श्चादागताः ज्ञाताः - परिच्छिन्ना यस्य । आचा० १५३ | मोग्यावस्थां गताः । स्था० २४५ | अभिसमन्नागवाई- अभिविधिना सर्वाणीत्यर्थः समन्वागतानि - सम्प्राप्तानि । भग० ५३९ ॥ अभिसमागच्छति - अभिसमागच्छति साध्यसिद्धी व्यापारणतः सम्यक् प्राप्नोति । भग० २३९ | अभिसमागम - अभिसमागमः वस्तुपरिच्छेदः । स्था० १७२॥ अभिसमेच्चा- आभिमुख्येन सम्यगित्वा-ज्ञात्वा । आचा० ४४| अभिसित्त- अभिषिक्तः, दीक्षासंस्कृतः दशवें २४५ अभिसेअ- अभिषेकः श्रियोऽभिषेकः । आव० १७८१ अभिसे असिला- अभिषेकशिला, अभिषेकाय जिनजन्मस्नात्राय शिला जम्बू० ३७१। अभिसेआ - पवत्तिणी । निशी० १३२ आ । अभिसेए- आचार्यपदस्थापनार्हः सूत्रार्थतदुभयोपेतः । बृह० २७३ आ । अभिसरण - अभिषेकेण शुक्रशोणितनिषेकादिक्रमेणेति । आचा० २३९ | अभिसेओ- अभिषेक:- सूत्रार्थतदुभयोपेत आचार्यपदस्थाप- नार्हः । व्यव० १४१ आ । जीवा० २७६ । अभिसेक्कमंडे - अभिषेकभाण्डम, अभिषेकोपस्करः । “आगम-सागर-कोष :" [१] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ८६ जीवा. २३६। प्रश्न० ४२ अभिसेग-अभिषेकः, अभिषिक्तः। बृह. १७७ आ। | अभैत्सुः- कणिकाकारं कुर्युः। आचा० ३४३। अभिसेगपत्ता-अभिषेकप्राप्ता।-प्रवर्तिनीपदयोग्या। | अभ्यन्तरशम्बूका- यस्यां बृह० २२आ। क्षेत्रमध्यभागाच्छङ्खववृत्तया परिभ्रमणभङ्ग्या अभिसेगसिलाओ-अभिषेकशिलाः, तीर्थकराणामभिषे- मिक्षां गृह्णन् क्षेत्रबहिर्भागमागच्छति। बृह. २५७ अ। कार्थाः शिलाः। स्था० २२५ अभ्यन्तरान्-अवगाहक्षेत्रस्थान्। स्था० २८४। अभिसेज्जं-अभिशय्या, अभिनिषदया। व्यव० १२८ अ। अभ्यन्तरानिवृति-बाह्यनिवृतेः खङ्गधारासमानायाः अभिसेय-अभिषेकः-उपाध्यायः। व्यव० १६५ अ। | स्वच्छत-रपुद्गलसमूहात्मिका। प्रज्ञा० २९४१ अभिसेयसभा-अभिषेकसभा। जीवा०२३६।। अभ्यस्तः-जित उचितो वा। आव०५९४ अभिसेयसभा-अभिषेकसभा यस्यां राज्याभिषेकेणा- अभ्यस्तम्- कृतं, निर्वतितम्। आव०५९३। भिषिच्यते। स्था० ३४२अभिषेकभवनविमानभाविनी अभ्यागत-अतिथिः। उत्त० ३९१ सभा। प्रश्न. १३५ अब्भासगुणे- अभ्यासगुणे, भोजनादिविषयः। आचा० अभिहआ-अभिहताः, अभिमुखेन हताः, चरणेन घट्टिताः, उत्क्षिप्य क्षिप्ता वा। आव० ५७३। अभ्यासराशि- गुणकारः। सम० ९१| अभिहड-अभ्याहृतम्, स्वग्रामादेः अभ्युदयतविहारेण-जिनकल्पादिना। बृह० २१० आ। साधुनिमित्तमभिमुखमा-नीतम्। दशवै० ११६) अमंडलिउवजीवो-अमण्डल्युपजीवकः-तत्र गृहस्थेनानीतं। आचा० ३२५ निष्पन्नमेवान्यतः योऽमण्डल्युप-जीवकः स साधुगुरुसगासं गत्वा तमेव समानीतम्। आचा० ३६१। अभ्याहृतं-स्वग्रामादिभ्य गुरुं भणति यथा हे आचार्याः । संदिशत-ददत यूयमिदं आहृत्य यद्ददाति। स्था०४६०| भग०४६७। भोजनं प्राघूर्णकक्षपक-अतरन्तबालवृद्ध शिक्षकेभ्यःअभिहणंति-अभिघ्नन्ति, अभिमुखमागच्छन्तो साधुभ्य इति। ओघ. १७८1 घ्नन्ति। प्रज्ञा० ५९२ अमंथरम्- अविलम्बितम्। ओघ. १८७ अभिहणह-आभिमुख्येन हणथ। भग० ३८१। अमओ-अमयः, न किम्मयोऽपि। दशवै० १३३। अभिहणिज्ज-अभिहन्यात्, पादेन ताडयेत्। आचा० अमग्गो-अमार्गः, मिथ्यात्वादिः। आव०७६२ ૪ર૮. अमच्च-अमात्यः, राज्याधिष्ठायकः। भग. ३१८ अभीक्ष्णमवधारकत्वम् सचिवः। दशवै०१०७ शकितस्याप्यर्थस्यावधारकत्वम्। प्रश्न. १४४। अमच्चा-अमात्याः, राज्याधिष्ठायकाः। भग० २६४। अभीति- अभिचिः, उदायननृपपुत्रः। भग० ६१८॥ अमच्चो-अमात्यः। आव० ११६| राज्यचिन्तकः। प्रश्न अभीयी- अभिजित्, नक्षत्रविशेषः। सूर्य. १२९। ७९, ९६। राज्याधिष्ठायकः। औप०१४। राजमन्त्री। बृह. अभीरू-सत्त्वसम्पन्नः। ओघ० २०२१ ३३ अ। यौ राज्ञोऽपि शिक्षा प्रयच्छति सः। व्यव० १६९ अभु(ब्भुज्जियमरणं- परिण्णादि। निशी० २६३ आ। आ। उत्त० ३८० अभुत्त-अमुक्तः, यः कुमार एव प्रव्रजितः। ओघ० ९१। | अमच्छरी-अमत्सरी, परगुणग्राही। प्रश्न०७४। अभइभाव-अभूतिभावः, असम्पदावः। दशवै० २४३। अमणाम-अमनोऽमम्, न मनसा अन्तः संगम्यन्ते, अभूएणं-अभूतेन, असद्भुतेन। सम० ५२। पुनः पुनः स्मरणगम्यम्। भग०७२। अभूतोद्भावनम्- यथा सर्वगत आत्मा। स्था० २६। अमणामत्ता-अमनोऽम्यता, अमनोगम्यता। भग० २३॥ अभूतिभावो-विणासभावो। दशवै. १३१| न मनसा अम्यते-गम्यते अभेज्ज-अभिध्या, रौद्रध्यानम्। प्रश्न०४२ संस्मरणतोऽमनोऽम्यस्तद्भावस्तत्ता, अभेज्जलोभो-अभिध्यालोभः, रौद्रध्यानान्विता मूर्छा। | प्राप्तुमवाञ्छितत्वम्। भग० २५३। भोज्यतया मन मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [84] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आप्नुवन्तीति मन आपाः प्राकृतत्वाच्च पकारस्य मकारत्वे मणाम इति सूत्रे निर्देशः, न मनआपा आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) अमन आपाः । प्रज्ञा० ५०४ | अमणुण्ण- अमनोज्ञम्, न मनसा :- अन्तः संवेदनेन शुभतया जायन्ते । भग० ७२ अमनोज-रटनशीलः । ओघ० १५३ | अमनोज्ञः - असंविग्नः । ओघ० १२० | अमणुण्णसंपओगसंपत्ते अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तः - अम-नोज्ञः - अनिष्टो यः शब्दादिस्तस्य यः संप्रयोगो - योगस्तेन संप्रयुक्तो यः सः | औप० ४३ | अमणुण्णा - असाम्भोगिकाः । बृह० १८आ। अमणुन्नत्ता- अमनोज्ञता, न मनोज्ञा अमनोज्ञाः, विपाककाले दुःखजनकतया न मनः प्रह्लादहेतुः । प्रज्ञा० ५०४ । न मनसा ज्ञायते सुन्दरता। भग० ३५३। कथयाऽप्यमनोरमतया । भग० २३ | अमणुन्ने- अमनोज्ञो - न कश्चित् प्रतिभाति रटनशीलत्वात्ततश्चैकाकी हिण्डते ओघ० १५०१ सर्वेषामप्यनिष्टः । बृह• २६६ अ अमणी- अमनस्कः, मनोरहितः सम्मूर्च्छजः ओघ० , । २२१| अमत- अमृतम् क्षीरोदधिजलम्। जीवा. २१०| अमम अममः, ममकाररहितः भग• २७६॥ द्वादशोऽर्हन् । स्था० ४३४) जातिवाचकः शब्दः । जम्बू० १२८, ३१३। भरते वर्षे मनुष्यभेदविशेषः । जम्बू० १२८ अममायमाणे- अममीकुर्वन् - अस्वीकृर्वन् । आचा० १३२ अममे- जिनविशेषनाम सम० १५३| शतद्वारे द्वादशोऽर्हन्। अन्त० १६ अममः, पञ्चविंशतितमो | मुहूर्तः । जम्बू• ४९१| मुहूर्तनामविशेषः । सूर्य- १४६ । अमम्मणा - अनपखञ्च्यमानता। औप० ७८ | अमयं - अमतं, अशोभनं मतम्, नास्तिकादिदर्शनम्, अमृतं वा अमृतमिवामृतं, आत्मनि परमानन्दोत्पादकतया धनम्। उत्त० २०६ | अमृतस्यक्षीरोदधिजलस्य । जे० 99 अमयघोसो - चंडवेगच्छिन्नो मुनिः । (संस्ता) अमयमेहे - अमृतमेघ:- यथार्थनामा महामेघः । जम्बू १७४ | अमयरसरसोवमं- अमृतरसरसोपमम्, परमान्नम् । आव ० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [85] [Type text] १४४ | अमर- अमरः-देवः। आव० ६० मयूरः, अमरो वा । प्रश्न ८४ अमरकका धातकीखंडपूर्वभरते पद्मनाभराजधानी । प्रश्न० ८७| अमरवइ- अमरपतिः - इन्द्रः । भग० १५८ | अमरसोवमं- आम्ररसोपमम् । निशी० ३४७ अ अमरिसं - अमर्षः, असहिष्णुता । दशवै० ३८ \ अमरिसणा- अमसृणाः, प्रयोजनेष्वनलसा अमर्षणा वा, अपराधेष्वपि कृतक्षमाः । सम० १५७। अमर्षणा, अपराधासहिष्णवः अमसृणा वा कार्येष्वनलसाः । प्रश्न ७४ | अमरिसिओ- अमर्षितः । आव० ५६५| अमर्षः - मत्सरवि शेषः । आव० २४१ | अमरिसो- अमर्षः, अत्यन्ताभिनिवेशः । उत्त० ६५६ । अमर्षाध्मात:- मत्सरपूरितः आव० ३४१॥ अमला— शक्रदेवेन्द्रस्याग्रमहिषीनाम। जम्बू० १६९ | भग० 9091 दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्य पूर्वस्यां भूताराजधान्यधिष्ठात्री, शक्रदेवेन्द्रस्य प्रथमाग्रमहिषी । जीवा० ३६५॥ अमलाते शक्रस्याग्रमहिष्या राजधानीविशेषः । स्था० २३१| अमाइ- अमायी, यः शाठ्येन शिष्यान्न वाहयेत् सः । दश 91 अमाघाओ- अमाघातः, अमारिः, अहिंसायास्त्रिपञ्चाशत्तमं नाम प्रश्न० ९९| अमात्यः- राजमन्त्री । आव० ५५। अमात्यः । स्था० १५५। अमायपुत्ते- अमातापुत्रः - रौद्रे नगरविनाशे स्वस्वजीवित- रक्षणाक्षणिकतया यत्र माता पुत्रं न स्मरति। बृह॰ ३०४। अमावासासंगुणं - अमावास्यासंगुणम्, याममावास्यां ज्ञातुमिच्छसि तत्सङ्खय्यया गुणितम् । सूर्य- ११३ । अमिअतितो- अमृततृप्तः, आबाधारहितत्वात्। आव० ४४७ अमिए- अमितः, भवनपतीन्द्रविशेषः । जीवा० १७० | अमिज्जं (अमेयं), विक्रयप्रतिषेधादेवाविदद्यमानमातव्यां “आगम- सागर-कोषः” [१] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अविद्यमानमायां वा। भग० ५४४। अमूढदिट्ठी-अमूढदृष्टिः , कोउगामिगा- अमितकौत्काः कौतुकान्मगा इव मृगा बालतपस्वितपोविदयातिशयदर्शनैर्न मूढाः अज्ञत्वात्प्राकृतत्वादमितकौतुकाः। उत्त. ५०१। स्वभावाच्चलिता दृष्टिः-सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावअमितगति-भवनपतीन्द्रविशेषः। स्था० २०५८ मूढदृष्टिः प्रज्ञा० ५६। अचलितसम्यग्दृष्टिः। दशवै. अमितवाहणे- उत्तरदिग्वर्ती वायकुमारेन्द्रः। स्था० ८४ १०२। ऋद्धिमत्कुतीर्थिकदर्शनेऽप्यनवगीतमेवाअमितवाहन-भवनपतीन्द्रविशेषः। स्था० २०५। स्मद्दर्शनमिति मोहविरहिता सा चासौ दृष्टिश्चअमितसेणे- भरतेऽतीतोत्सर्पिणीकुलकरः। स्था० ५१८५ बुद्धिरूपा। उत्त० ५६७। अमित्रक्रिया- यन्मातापितृस्वजनादीनामल्पेऽप्यपराधे | अमूढलक्खो-अमूढलक्षः, सर्वज्ञेयाविपरीतवेत्ता। आव. तीव्रदण्डस्य दहनाङ्कनताडनादिकस्य करणम्। स्था० २३४। ३१६| अमृतरसा-वापीनाम। जम्बू० ३७१। अमियं-अमृतम्, अमितम्, मृष्टां पथ्यां वा, सार्थिकां अमेज्झं- अमेध्यम्। आव० २१३। अपरिमितम्। आव. ५९५ अमितम्, अनेकभवोपात्त- | अमोसलिं-न विदयते मोसली यत्र तदमोसलि। स्था. मनन्तम्। आव० ६१०। अमितः-प्रमाणाभ्यधिकः।। ३६११ ओघ. १४२। अमितः-दिक्कुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा० । अमोहं- अमोघम्, अन्तरिक्षम्। सूत्र. ३१८ अवन्ध्य म्। ९४। (अमितः), अष्टमो दक्षिणनिकायेन्द्रः। भग० १५७) दशवै० २३३। जूवगो। निशी० ७० आ। अमियगती- वायुकुमारेन्द्रविशेषः। स्था० ८४१ | अमोहदंसणं- अमोघदर्शनम्, पुरिमताले उद्यानम्। अमियणाणि-अमितज्ञानी, जिनः। सम० १५३ विपा० ५५ अमियवाहण-अमितवाहनः, भवनपतीन्द्रविशेषः। जीवा० | अमोहदंसि-अमोहदर्शी, योऽमोह-यथावत्पश्यति। दशवै. १७१। રછ| अमियवाहणे-अमितवाहनः, दिक्कुमाराणामधिपतिः। | अमोहदंसी- अमोघदर्शी, प्रज्ञा० ९४। उत्तरनिकाये अष्टम इन्द्रः। भग० १५७) परिमतालनगरेऽमोघदर्शनोदयाने यक्षः। विपा०५५ अमिल-अमिलम्, ऊर्णावस्त्रम्। दशवे. १९३। अमोहपहारी-अमोघप्रहारी, जितशत्रो राज्ञो रथिकः। अमिला-उरभाः। ओघ. १३५। उन्निया। दशवै० ९२१ उत्त० २१४१ वस्त्राणि। निशी. १४४ आ। रोमेस् कया। निशी० २५५ | अमोहरहो-अमोघरथः, जितशस्त्रो राज्ञो रथिकः। उत्त. । नमिजिनप्रवर्तिनीनाम। सम० १५२। अम्लान २१३॥ (अव्यादि) स्था० ३४० अमोहसत्थं- अमोघशस्त्रम्। आव०४०७। अमिलाणि-अम्लाना (तन्दु०)। अमोहा- अमोघा, पूर्वदिग्भागञ्जनपर्वतस्य दक्षिणस्यां अमुगिच्चगं-अमुकदेशोद्भवम्। बृह. ९८ आ। दिशि पुष्करिणीविशेषः। जीवा० ३६४। स्था० २३० अमुच्छ- (अमूर्छा) उपधावसंरक्षणानुबन्धः। भग० ९७। अनिष्फला, जम्ब्वाः सुदर्शनाया द्वितीय नाम। जीवा० अमुणिओ-अमुनयः, गृहस्थाः । आचा० १५२॥ २९९। सफला। जम्बू० ३३६। अमोघाः, आदित्योदयाअमुणी- अमुनयः, मिथ्यादृष्टयः। आचा० १५२। स्तमययोरादित्यकिरणविकारजनिता दण्डाः। भग अमुत्ती-अमुक्तिः, सलोभता, परिग्रहस्य षड्विंशतितमं १९६। सिद्धशिलानाम। (दे०)। नाम। प्रश्न. ९२२ सूर्यबिम्बस्याधःकदाचिदुपलभ्य-मानशकटोर्द्धिसंस्थिता अमुय-अस्मृतम्, मनोऽपेक्षया अस्मृतम्। भग० १९७ श्यामादिरेखा। जीवा० २८३। अमुहं-अमुखं, निरुत्तरम्। व्यव० १६० अ। अमोहे- अमोहः, वैश्रमणस्य त्रस्थानीयो देवः। भग. अमुहा- अमुखाः, निर्वाचः। भग० ३७६) २०० ग्रैवेयकविमानप्रस्तटनामविशेषः। स्था० ४५३। अमूढ- अमूढः, अविप्लुतः। दशवै० २६६) अमोहो- अमोघः। उत्त०४०३। अमोघः, आदित्यकिरण मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [86] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] विकारजनित आदित्योद्गमनास्तमयने आताम्रः कृष्णश्यामो वा शकटोर्द्धिसंस्थितो दण्डः, यूपकः । आव ० ७३६) अमोहः, शाहजनीनगर्या देवरमणोद्याने यक्षः । विपा.६५% आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) अम्मड- अम्मडः, परिव्राजकः । भग० ६५३ | अम्माई - धात्री । उत्त० ३३१ | अम्मया- अम्बा, पुरुषसिंहवासुदेवमाता। आव० १६२ अम्बा | आव० ७१६ | अम्माहिती - पञ्चमवासुदेवमाता सम० १५२) व्यव० १८० आ अम्मि (ब्भि) ओ - अभ्यागतः । आव० ५६० | अम्मो- अम्बा | आव० २७२॥ अम्मोगइया - अहंपूर्विका । आव० २९३ | अम्मोगतियाए अभिमुखः आव. ३००| अम्लः- (अंबिलं), आश्रवणक्लेदन कृत् । स्था० २६| अम्लम् - काञ्जिकम् । स्था० ४९२ । रसविशेषः । प्रज्ञा० ४७३ | अम्लवेतस अम्लरसपरिणताः । प्रज्ञा० १०| अम्हएहिं अस्मदीयम् आक ८१३३ अम्हच्चयं - अस्मदीयम् अस्मत्सम्बन्धि दशकै ११२ अम्हच्चय- अस्माकीनः आव० २९५१ अयं अयं प्रत्यक्षगोचरीभूतः संसारी आचा० १६३ । इष्टफलं, कर्म । जीवा० ३२ | लोहं । भग० ६९७| इष्टफलम् । भग० ४| अयंतिय- अयन्त्रितः, अनियमितः । उत्त० ४७८ । अते- अयंते पुनः कायिकां व्युत्सृज्य वसतिं प्रविशतः । ओघ०८११ अयंपिर- अजल्पनशीला, नोच्चैर्लग्नविलग्ना दशवै. २३६| अयंपुले वरुणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० १९९ । मत्स्य-बन्धविशेषः । विपा० ८१ । गोशालक श्रावकः । भग० ६८० | अयंबुले— आजीवकोपासकविशेषः। भग॰ ३७०। अय- अयः लोहः । प्रज्ञा० २७ पृथिवीभेदः । आचा० २९ ॥ अयआकरो- लोहाकर, यत्र लोहं ध्मायते । स्था० ४१९ । अयकक्करभोई- अजकर्करभोजी, अजः छागस्तस्य कर्करं यच्चनकवद्भक्ष्यमाणं कर्करायते तच्चेह मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [87] [Type text] प्रस्तावान्मेदोदन्तुर-मतिपक्वं वा मांसं तद्भोजी वा। उत्त० २७४ | अयकरए अजकरकः, यहविशेषः स्था० ७८ जम्बू० ५३४| अयकोसि लोहप्रतापनार्थे कुशूले भगः ६९७ अयकोट्ठसंठितो - अयः कोष्ठसंस्थितः, अयः कोष्ठः, लोहमयः कोष्ठस्तद्वत्संस्थिताः । जीवा० १०५। अयगरा - अजगराः, उरः परिसर्पभेदविशेषाः। प्रज्ञा. ४५| अयगरो- अजगरः, उरः परिसर्पविशेषः । जीवा० ३९ | अयगोलो- बालो गिद्धम्मो वा निशी ६२अ अयण - अयनं, त्रय ऋतवः । जीवा० ३४४ सूर्य० ९१। अयणाति- अयनानि ऋतुत्रयमानानि स्था० ८६ अयनं- अयणे त्रय ऋतवः । भग० ८८८ अजय- अयतं अयतनया । ओघ० २१९ | अयथार्थम्- पलाशाभिधानवत्। आव० ५१। अयमाणे- आददानः, प्रवर्त्तमानः । सूर्य० १२ आयान् आगच्छन् । सम० ९४ | अयमाणे- (अयमीणे) - अददानः । जम्बू० ४४२ अयरामरं अजरामरम, अविद्यमानौ जरामरौ यस्मिन् तत् । आव० ८१ अयलं- अचलं स्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियाव्यपोहात्। जीवा॰ २५६। अचलः– स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहेत्वभावात् । निश्चलः, भग० ७ | अयलपुरं- अचलपुर, नगरविशेषः । उत्त० ९९| पिण्ड १४४ | अयलभाया- अचलभ्राता, नवमगणधरः । आव० २४० | अयले- अचलः, प्रथमबलदेवः । आव० १५१, १७४, सम० ८टा अन्तकृद्दशानांप्रथमवर्गस्यषष्ठाध्ययनम् । अन्तः १। अयलो- अचलः, उज्जयिन्यां वणिग्दारकः । उत्त० २१८८ स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहेत्वभावात् । सम० ५| अयवीही- अजवीथी, शुक्रमहाग्रहस्य सप्तमी वीथी। स्था० ४६८। अयशः कीर्त्तिनाम - (अजसोकित्तिणाम), यदुदयवशात् मध्यस्थस्यापि जनस्याप्रशस्यो भवति तद् प्रज्ञा० ४७५ | अयशोभयम् अश्लाघाभयम् आव० ६४६ "आगम- सागर-कोषः " [१] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अयसि-अतसी, धान्यविशेषः। दशवै० १९३। भग० ८०२, अरक्खुरी-आरक्षुरीम्, संवेगोदाहरणे मित्रप्रभस्य ८०३। भङ्गी, धान्यविशेषः। भग० २७४। अतसपुष्पम्। प्रत्यन्त-नगरम्। आव०७१० उत्त० ४६०| कुसुंभिआ। ओघ० १४६| अरगंतरं-अरकान्तरम्। आव० ३४४। अयसिकुसुम-अतसीकुसुमम्। प्रज्ञा० ३६० अरगाउत्तासिया-आरकोत्तासिता, अरकैरायुक्ताअयसिवणं-अतसीवनम्। आव० १८६। अभिविधि-नाऽन्विता अरकाय्क्ता, 'सिय'त्ति स्यात्अयसिवणे-अतसीवनम् भग० ३६) भवेत्, अथवाऽऽ-कारकाउत्तासिता-आस्फालिता यस्यां अयसी-औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। धान्यविशेषः। उत्त० सा। भग०१५४ ६५३ अरजा-अरजपूः। जम्बू. ३५७। अया-द्विखुरविशेषः। प्रज्ञा० ४५) अरणी-काष्ठविशेषः। प्रज्ञा० २९। अयागरं-अयआकरः, यस्मिन् निरन्तरं अरण्णं- अरण्यम्, काननम्। दशवै०१४७ महामषास्वयोदलं प्रक्षिप्याऽय उत्पाट्यते सः। जीवा. अरण्णवडिंसगं-विमानविशेषः। सम० ३९। १२३। लोहाकरः-यत्र लोहं ध्यायते। भग. १९९ अरण्णानी- अरण्यम्। उत्त० ३८१। अयि-अयि!, कोमलामन्त्रेण प्रयुज्यमानः शब्दः। दशवैः | अरति-अरतिः, मोहनीयोदयजश्चित्तविकार ४९। उद्वेगलक्षणः। स्था० २६। अयोगी-न सन्ति योगा यस्य स, न योगीति वा | अरते- अरजा, ब्रह्मलोके विमानप्रथमप्रस्तटनाम। स्था० योऽसावयोगी, शैलैशीकरणव्यवस्थितः। स्था० ५० ३६७ अयोग्यः- (अजोग्गो), अनलः, अपच्चलः। निशी० २५ | अरय- अरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात्। सम० १४० आ। अरयं-अरतं, रतस्याभावरूपः, अरजो-रजसोऽभावरूपः। अयोध्या-दशरथराजधानी। प्रश्न० ८७ अरसं-शृङ्गारादिरसाभावम्। उत्त० ४४८१ भरतसगरादिचक्र-वर्तिनां नगरी। प्रज्ञा० ३००। कोशला। | अरविंद-अरविन्द, प्रत्येकवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३७ जम्बू० १३६। जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३ अयोमुहा- अयोमुखः, एकादशमान्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५०| | अरसं-अरसम्, हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतम्। प्रश्न० १०६। अव्यापारोपेक्षाः- मृतकस्वजनादिभिस्तं प्रश्न०६३। अविद्यमानाहार्यरसम्। हिङ् सक्रियमाणमपेक्ष-माणास्तत्रोदासीनाः। स्था० ३५३। ग्वादिभिरसंस्कृतमिति। प्रश्न. १६३। असंपत्तरसम्। अव्याहतपौर्वापर्यम्-वाण्यतिशयविशेषः। सम०६३। दशवै. ८३। असम्प्राप्त-रसम्, हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतम्। अरंजर-अरजरम्, उदकुम्यो, अलजरम्। स्था० २८३, दशवै. १८० ૨૨૮૫. अरसजीवी- अरसेन जीवितुं शीलमाजन्मापि यस्य स। अरइ-अरतिः, मोहनीयोदयाच्चित्तोद्वेगः। भग० ८०| स्था० २९६। अरइकम्म- अरतिकर्म, यदुदयेन तेष्वेवारतिरुत्पद्यते अरसमेहं-अरसमेघः, अमनोज्ञमेघः। भग० ३०६। तत्। स्था० ४६९। अरसाहारे-अरसाहारः, अरसं-हिङ् अरइमोहणिज्जं-अरतिमोहनीयम्-यद्दयवशात् ग्वादिभिरसंस्कृतमाहार-यतीति, अरसो वाऽऽहारो पुनर्बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु अप्रीतिं करोति। तत्। प्रज्ञा० यस्यासावरसाहारः। स्था० २९८१ ४६९। अरसाहि-प्रहरणविशेषैः। उत्त० ४६० अरइयं-अरतितो जंण प्रच्चति। निशी. १८९ अ। अरसिया-अऑसि। उत्त० १२११ अरई-अरतिः, इष्टाप्राप्तिविनाशोत्थो मानसो विकारः। अरसेहि-अविद्यमानरसैः। भग० ४८४१ आचा. १६८ वातादिजनितश्चित्तोदवेगः। उत्त० ३३८। अरसो-अरसः, हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतः। औप०४०। अरए-अरजाः ग्रहविशेषः। जम्ब०५३५ स्था०७९| अरहंत-अर्हन्तः, अशोकादयष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [88] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] पूजा-महन्तीति। दशवै०६२। अथवा नास्ति रहः-प्रच्छन्नं किञ्चिदपि येषां अरहंतघरं- अर्हद्गृहम्। आव० २९५ प्रत्यक्षज्ञानित्वात्ते। स्था. १७४| जिनः। सम० १५३। अरहंता-अर्हन, अर्हन्-पूजामर्हती। अरहाः, नास्य रहस्यं विद्यत इति अमरवरविनिर्मिताशोकादिमहाप्रातिहार्यरूपां वा। उत्त०२५७ पूजामर्हतीति। भग० ३। अरहोऽन्तः-अविद्यमानं रहः- | अरहितं-समपादेनेक्षणं लेष्टुकारोहेण वा साधुसाध्व्योः एकान्तदेशोऽन्तो-मध्यं गिरिग्रहादीनां सर्ववेदितया परस्परं दृष्टिबन्धो वा। बृह. १४ अ। येषां ते। भग० ३। अरथान्तः-अविद्यमानो रथः- अरायाणि-अराजानि, यत्र राजा मृतः। आचा० ३७८। स्यन्दनः सकल-परिग्रहोपलक्षणभूतः अन्तः-विनाशो | अरि-अरिः, सामान्यतः शत्रुः। जम्बू. १२० जरायुपलक्षण भूतो येषां ते। भग० ३। अरहन्तः- अरिक्को- अरिक्तः। ओघ. १९९। क्वचिदप्यासक्तिमगच्छन्तः। भग० ३। अरहयन्- अरिट्ठ-अरिष्टः, पिचमन्दः वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१| प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसम्पर्केऽपि अरिहनेमि-अरिष्टनेमिः। आव. २७३, ५१५ दशवै. ३६, वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावमत्यजन्। भग० ३१ अर्हाः- ९६। तीर्थकरविशेषः। बृह. ३० आ। अन्त०२, ५ अर्हन्तः । आव० ४०६। प्रज्ञा० ५५ समुद्रविजयसुतः। उत्त०४८९। समुद्रविजयस्य प्रथमः अशोकाद्यष्टमहाप्राति-हार्यादिपूजामर्हतीति तीर्थकरः। पुत्रः। उत्त० ४९६ आव० ४८१ अर्हत्ता। स्था० ३३२१ अरिद्वयं-अरिष्टकं, फलविशेषः। प्रज्ञा० ३६० अरहंतुवएस-अर्हदुपदेशः, आगमः। आव० ४५१। अरिहा-मंडवगोत्रस्य नामविशेषः। स्था० ३९० अरह-अर्हन्, अष्टविधमहाप्रातिहार्यरूपपूजायोगात्। अरिडे-धर्मजिनप्रथमशिष्यः। सम० १५२। स्था० ४६५। अर्हः-पूजार्हः। भग०६७। अरिणो-अरयः, अरहट्ट-अरघटिक। (आतु०)। इन्द्रियविषयकषायपरीषहवेदनोपसर्गरूपाः। आव०४०६। अरहट्टो-अरघट्टः। ओघ० १५८ अरिदमन-अरिदमणो, अभयप्रदानप्राधान्ये वसन्तरे अरहण्णए- मुनिविशेषः। (मरण)। राजा। सूत्र. १५० अरहण्णओ-अर्हन्नकः, ईर्यासमितौ यस्य देवतया | अरिमर्दन-संवासदृष्टान्ते वसन्तपुरे राजा। पिण्ड० ४८। पादच्छिन्नः। आव०६१६| अरिष्टनगरम्- राममातुलहिरण्यनामराजधानी। प्रश्न अरहण्णग-तगरायामष्णाभिहतः। (मरण)। अहँतकः, ८८ सद्व्यवहारकाचार्यः। व्यव० २५६। आ अरिष्टपुरम्-रुधिरराजधानी। प्रश्न. ९० अरहदत्ता-अर्हद्दत्ता, अरिस-अर्शासि, रोगविशेषः। विपा० ४० निशी. १८९ अप्रतिहतराजकुमारमहाचन्द्रमार्या। विपा० ९५ | निशी० ६२ आ। अर्शः, गुदाकुरः। जम्बू० १२५ अरहन्नओ-अरहन्नकः। आव० ३८८1 उत्त० ९० अरिहंत-अर्हन्तः, अरुहन्तः-न रुहन्तीति। दशवै०७९। अरहन्नग-अरहन्नकः, मनिविशेषः। बृह. ५९ अ। अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीति अरहमित्तो-अहमित्रः, आत्मदोषोपसंहारविषये अर्हन्तः-शास्तारः। आव० ११९। दवारवत्यां श्रेष्ठिविशेषः। आव०७१४१ अर्हन्मित्रः। आव | अरिहंतचेइयं-अर्हच्चैत्यम्, तीर्थकरप्रतिमा। आव०७८६] ૨૮૮. अरिहंता-अरिहन्ता, कर्मारिविनाशकः। भग० ३। अरहया-अर्हता, तीर्थकरता। आव० २३५ कर्मारिहन्ता। भग० ३। अरिहन्तारः, अरहस्सं-अतीवरहस्यभूतं छेदशास्त्रार्थतत्त्वम्। ब्रह. इन्द्रियविषयकषाय-परीषहवेदनोपसर्गशम(नाश)काः। २६५आ। आव० ४०६। अरिहन्तारः, रजोहन्तारः। आव० ४०६) अरहसिज्जा-अर्हच्छय्या, अर्हद्भवनम्। व्यव. २५आ। अरिहमित्तो-अर्हन्मित्रः। उत्त. ९० अरहा- देवादिकृतां पूजामर्हन्तीति अर्हन्तः, अरहसः | अरिहा- अर्हाः। आव० ३८७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [89] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अरिहो- अरिः, शत्रुः। प्रश्न० ७६। जीवा० ३६७ अरी-अरिः, शत्रु। जीवा० २८०१ अरुणा-शिखरिपर्वतवासिदेवनाम। स्था०८० अरुअ-अरुः, व्रणं। बृह० ११ आ। अरुः-व्रणं। बृह० २०८ अरुणाभं-ब्रह्मलोककल्पे विमानविशेषः। सम.१४| आ। अरुणाभे-अरुणाभः, राहवप्रलापीमते कृष्णपुद् अरुगं-अरुकं, व्रणः। बृह. २५४ अ। गलविशेषः। सूर्य० २८७। सौधर्मकल्पे विमानः। भग. अरुज्झंते- अरुह्यमाणे-एतस्मिन् पात्रके। ओघ० १४५। ५५१ अरुण-अरुणः, नन्दीश्वरसमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं | अरुणावभासो- अरुणावभासः, अरुणावभासद्वीपसत्कः समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७। सप्तमहाकुष्ठेषु प्रथमभेदः। । समुद्रः। जीवा० ३६७। आचा० २३५ अरुणे- ग्रहविशेषः। स्था० ७९। अरुणत्तरवडिंसगं- ब्रह्मलोककल्पे विमानविशेषः। सम० | अरुणो- अरुणः-लोकान्तिकदेवविशेषः। आव. १३५१ १४१ महाकुष्ठस्य प्रथमो भेदः। प्रश्न. १६११ ग्रहविशेषः। अरुणप्पभा-शीतलनाथदीक्षाशिबिका। सम० १५१ जम्बू.५३५ द्वीपविशेषः, यो देवप्रभया अरुणप्पभो-अरुणप्रभः, चतुर्थोऽनवेलन्धरनागराजः। पर्वतादिगतवज्ररत्नप्रभया चारुण इति। जीवा० ३६७। तस्यैवावासपर्वतश्च। जीवा० ३१३। स्था० २२६। देवः। जम्बू० ३०५। अरुणमहावरो- अरुणमहावरः, अरुणवरोदे समुद्रेऽपरा - | अरुणोए- अरुणोदः, अरुणद्वीपसत्कः समुद्रः, सुभद्रसुधिपतिर्देवः। जीवा० ३६७ मनोभद्रदेवाभरणयुत्याऽरुणम्-आरक्तमुदकं अरुणवर- अरुणवरः, अरुणसमुद्रानन्तरं द्वीपः, यस्यासौ। जीवा. ३६७। तदनन्तरं समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७। दद्वीपविशेषः। स्था० | अरोणोदए-अरुणोदकः, अन्धकार, तमस्कायस्य नाम। २१७ भग० २७० अरुणवरभद्दो- अरुणवरभद्रः, अरुणवरद्वीपे अरुणोद-समुद्रविशेषः। स्था० २१७। पूर्वार्धाधिपति-र्देवः। जीवा० ३६७ अरुणोपपात- सुत्रविशेषः। बह० ६२आ। अरुणवरमहाभद्दो-अरुणवरमहाभद्रः, अरुणोववाते- अरुणोपपातः, इहमरुणो अरुणवरदवीपेऽपरा -धिपतिर्देवः। जीवा. २६७। नामदेवस्तत्समय-निबद्धो ग्रन्थस्तदुपपातहेतुः, अरुणवरावभासः- अरुणवरसमुद्रानन्तरं द्वीपः अघ्ययननाम। स्था०५१३। तदनन्तरं समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७) अरुयं-अरुक्, अविद्यमानरोगः। भग० ९। अरुः-व्रणः। अरुणवरावभासभद्दो-अरुणवरावभासभद्रः, सूत्र. ९२। अरुज, शरीरमनसोरभावेनाधिव्याधिरहितम्। अरुणवरावभासद्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६७। जीवा० २५६। अरुजम्-अविद्यमानरोगं अरुणवरावभासमहाभद्दो- अरुणवरावभासमहाभद्रः, अरु- शरीरमनसोरभा-वात्। सम०५१ णवरावभासद्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६७। अरुयं-अरुः। आव०८२० अरुणवरावभासवरो- अरुणवरावभासवरः, अरुह-न रुहोऽरुहः अपनर्भावी। आचा. २३११ अरुणवरावभा–ससमुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६७। । | अरुहंत-अरोहन, क्षीणकर्मबीजत्वादनपजायमानः। भग० अरुणवरावभासो- अरुणवरावभासः, ३ अरोहन, अनुपजायमानः क्षीणकर्मबीजत्वात्। भग. अरुणवरोदसमुद्रसत्को द्वीपः। जीवा० ३६७) अरुणवरो-अरुणवरः, अरुणोदसमुद्रसत्को द्वीपः। | अरूपिणः- अमूर्ताः। स्था० १९६| जीवा० ३६७। अरुणवरोदे समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। | अरूवी-अरूपि, अमूर्तम्। भग० १५०| जीवा० ३६७ अरेण-आरतः। आव० २८५) अरुणवरोए- अरुणवरोदः, अरुणवरद्वीपसत्कः समुद्रः। | अरो- अरः, तीर्थकृच्चक्रवर्तिविशेषः। उत्त० ४४८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [90] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] गमनिकेत्यर्थः । स्था० ४२३१ अर्थ:-सूत्राभिधेयं वस्तु निरिति भृशं यापना- निर्वाहणा पूर्वापरसाङ्गत्येन स्वयं ज्ञानतोऽन्येषां च कथनतो निर्गमना उत्त० ३९॥ अट्ठपदा- अर्थपदानि, अर्थप्रधानानि पदानि । उत्त० ३४१। अर्थशास्त्रं धनुर्वेदादि बृह० १३० आ । अरोगी- अरोगी रोगविप्रमुक्तः दशवें० २०१ अरोस- अरोषः, चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्र्न० अर्थाज्ञया - पुनरभिनिवेशतोऽन्यथा प्ररूपणादिलक्षणया । १४ | सम० १३२ | [Type text] सप्तमचक्रवर्ती। आव० १५१। सम० १५२१ सर्वोत्तमे कुले वृद्धिकरो जायतेऽतः, अष्टादशो जिनः, यस्मिन् गर्भगते मात्रा स्वप्ने सर्वरत्नमयोऽतिसुन्दरोऽतिप्रमाणश्चारको दृष्टोऽतः आव० ५०५१ आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) अर्गलम् - अधिकम् । उत्त० ६६०| अर्गलपाशका - अग्गलपासगाणि, यत्रार्गला ग्राणि निक्षिपन्ते। आचा. ३३७ अग्गला - अर्गला, उपकरणभेदः । आचा० ६० | परिघः । उत्त० ३११ | अग्ध- अर्धति, अर्हति । उत्त० ३१६ | अच्छे- अर्चा, लेश्या, शरीरं क्रोधादयध्यवसायात्मिका ज्वाला | आचा० २८४ | अच्ची- अर्चि, अच्छिन्नमूलः । स्था० ३३६ | अर्चि:मूलप्रतिबद्धा। ज्वलनशिखा । उत्त० ६९४। अच्चीए- अर्चिषा, शरीरनिर्गततेजोज्वाला स्था० ४२११ अर्जितदुःखा- अर्जितं - उपार्जितं दुःखं यैस्ते । उत्त० २६३। अर्जुन तृणविशेषः । प्रज्ञा०] [३०] उत्त• ६९२१ जीवा० २६| जम्बू. १३| अज्जुणसुवन्नग - अर्जुनसुवर्णकम्, अर्जुनं शुक्लं तच्च तत्सुवर्णकम् । उत्तः ३८पा अर्जुनसुवर्णमयी- सर्वात्मना कनकमयी । जम्बू० ३७३ | अति:- शारीरमानसी पीडा तत्र भवा । आचा० १३९ । अर्थ अर्यते गम्यते, परिच्छिद्यत इति। आक० १०१ आज्ञा । आव० ६०४ | सिद्धशब्दपर्यायः स्था० २५ अर्थम् - निमित्तम् । उत्तः ४७३॥ अडकर अर्थकर मन्त्री, नैमित्तिकः स्था० २४११ अनुजायं अर्थजाता अर्थः कार्यमुत्प्रव्राजनतः स्वकीयपरिणेत्रादेर्जातं यया सा, पतिचौरादिना संयमाच्चाल्यमानेत्य र्थस्तां वा । स्था० ३२९ | अट्ठादंडे - अर्थदण्डः त्रसानां स्थावराणां वा आत्मनः परस्य वोपकाराय हिंसाऽर्थदण्डः, दण्डयतेऽऽत्माऽन्यो वा प्राणी येन स दण्डः । स्था० ३१६ | अर्थधर्माभ्यासानपेतम् - वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ | अर्थनिर्यापणा- अर्थस्य पूर्वापरसाङ्गत्येन मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [91] अट्ठ- अर्थात् निमित्तात्। उत्त० ४९१। अत्थाहिगारो- अर्थाधिकारः शास्त्रीयोपक्रमस्य पञ्चमभेदः । आचा० ३। स्था• ४ वक्तव्यताविशेष एव स चैकत्व - विशिष्टात्मादिपदार्थप्ररूपणलक्षण इति । स्था० ५१ आव० ५६ | अध्ययनसमुदायार्थः । आक० १८ अर्थान्तराभिधानम् गामश्वमित्याद्यन्यार्थप्रतिपादनम् । आव० ४८८त अर्थान्तरोक्ति- मृषावादविशेषः । स्था० २९० | अर्दवितर्दा विश्वला जम्बू. १७०१ अद्धचंद- अर्द्धचन्द्र सम० ३०, १३९| अर्द्धतृतीया अर्द्ध तृतीयं येषां ते प्रज्ञा० ४७॥ अर्द्धपेटा यस्यां तु साधुः, क्षेत्रं पेटावच्चतुरसं विभज्य मध्यवत्तीनि गृहाणि मुक्त्वा चतसृष्वपि दिक्षु समश्रेण्या भिक्षामटति सा पेटा, एवमेव, नवरमर्द्धपेटासदृशसंस्थानयो-र्दिग् द्वयसम्बद्धयोगृहश्रेण्योरत्र पर्यटति बृह० २५७ । अर्द्धभारम् - पलसहस्रात्मकम्। जम्बू० २५३ अर्द्धमागधभाषा- भाषाविशेषः । जम्बू० १४| अर्द्धांसन्यासम् - उत्तरासंगरूपम् । बृह० १२५ अ अर्वाक्- अधः आक• ८२७| अर्हन्- सातिशयरूपसम्पत्समन्वितः आचा• ४१२ अलं- अल्म्, अत्यर्थम् । दशवै० २३८ । अलंकार - अलंकारः। निशी. २७६ आ अलङ्कारान्, वस्त्रादीन्। जम्बू० १४५ आव०१८२ अलंकारियसभा अलङ्कारसभा जीवा० २३६| अलङ्कारभवनविमानभाविनी सभा | प्रश्न० १३५ | अलंकारित- अलङ्कारिका, यस्यामलङ्क्रियते । स्था० २५२ अलंकियं - अलङ्कृतम्, उपमादिभिरुपेतम् । सूत्रगुणविशेषः । आव ३७६। “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] अन्योऽन्यस्फुटशुभस्वरविशेषाणां करणात्। जम्बू ४०% मुकुटादिभिर्विभूषितम् । भग. ११९ । काव्यालङ्कारयुक्तम्। स्था० ३९७| अन्यान्यस्वरविशेषाणां स्फुटशुभानां करणात्। स्था• ३९६ अलंकृतं। जम्बू. ४२० | अलंगारो- अलइकारः, आभरणम्। जीवा० २४५१ अलंदकं - वंसीमूलम् । बृह० १७९ अ । अलंबुसा– अलम्बुषा, उतररुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव॰ १२२| उत्तररुचकवास्तव्या प्रथमा दिक्कुमारी महत्तरिका। जम्बू० ३९१ । अलकम् - ललाटम्। जीवा० २७३ | अलकापुरी- अलकापुरी, लौकिकशास्त्र धनदपुरी जम्बू. १८१| वैश्रमणयक्षपुरी अन्त० १। आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) अलक्खं अलक्षम् । गुप्तम्। आव• ४२११ अलक्खे- अलक्ष्यः, वाणारस्यां राजा । अन्त० २५ | अन्तकृद्दशानां षष्ठमवर्गस्य षोडशाध्ययनम् । अन्तः १८ \ अलत्त- अलत्तकः । उत्त० ६५३ | अनत्तगपहो- जंमेत्तं अलत्तगेण पादो रज्जति तंमेत्तो कदमो जंमि पहे सो अलत्तपहो। निशी. ७९ आ । अलत्तगा - रंगोविशेषः । निशी० १८८ अ । अलब्धमध्यमः- गम्भीरः । उत्त० ५५४ | अलमंथु समयभाषया समर्थोऽभिधीयते । स्था० २१६| अलमत्यु- अलमस्तु, पर्याप्तं भवतु। भग. ६७] निषेधों | भवतु, निषेधकः स्था० २१६ | । अलल्ल - अलल्ला, व्यक्ता भाषा । दशवै० २३५| अलवो अलपः, मौनव्रतिको निष्ठितयोगः, गुडिकादियुक्तो वा । सूत्र० ३९३ । अलसंडविसयवासी- अलसण्डविषयवासिनः, म्लेच्छविशेषाः । जम्बू. २२०१ अलस- अलसः, अन्येन सह प्रभूतं पर्यटितुमसमर्थः । ओघ० १५०| गण्डूलकः । प्रश्न० २४| अलसगे— हस्तपादादिस्तम्भः श्वयथुर्वा । आचा० ३६२ अलसा- अलसाः, प्रयत्नरहिताः । ओघ० २२२ | द्वीन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९५ अलाङ- अलाबु, अलाबुतुम्बयोर्लम्बत्ववृत्तत्वकृतभेदः । जम्बू. २४४ अलातं उल्मुकम् ओ०१७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [92] [Type text] अलाउय- अलाबुकं । आचा० ४०० | अलाते - अलातम्, उल्मुकम्। जीवा० २९ १०७) प्रज्ञा० २३९\ ओघ० १७। स्था० ३३६ | दशवै० १६९ | अलातद्रव्यम्- वक्रतयाऽभासमानमेकान्तवाद्यभ्युपगतं वा वस्तु स्था० ४८२ अलाभ अलाभः, याचितभिक्षाद्यलाभः, पञ्चदशः । परीषहः । आव० ६५७। अभिलषितविषयाप्राप्तिः । उत्त ८३| अलायं अलातम्, उल्मुकम्। उत्त० ८३३ दशकै० २२८, १५४| अलाहि— हलम्। आव० ११६, ७०२ | भग० ४७० ओघ० १५९| अलिंजरम् - कूप्यम् । दशवै० २६०| अलिंद- कुण्डकम्। ओघ० १६६ । अलिंदडिओ - अलिन्दकस्थितः । उत्त० उपपा अलिंदे - अलिन्देन - कुण्डकेन । ओघ० १६७। अलिंदो - दोषविशेषः । बृह० ६२अ । नट इव । व्यव० १६४ अ। अलिए - अलीकम्, भूतनिनवरूपं, असत्यं वा भग० २३२रा अलित्तय- अलित्रम् आचा० ३३ अलिय- अलीकं, मृषावादः प्रश्न. ९५१ मिथ्या, अधर्मद्वारस्य प्रथमं नाम प्रश्न० २६| सद् भुतार्थनिनवरूपम्। प्रश्न. १२१ अनृतं अभूतोद्भावनं भूतनिह्नवश्च सूत्रदोषविशेषः । आव० ३७४॥ शुभफलापेक्षया निष्फलः। प्रश्न. २७१ अलियवयणे- अलीकवचनम्। स्था० ३७०1 अलिया- अलिका, पक्षिविशेषः । अनुत्त० ४। अलियाण- अलीकाजः, अलीका आज्ञा-आगमो यस्य सः। प्रश्न० ४०| अलिसिंदा चवलगारा निशी. १४४ आ अलुडो अलुब्धः आव• ८५९| अलेप- म्रक्षणेन सर्पिषा-घृतेन वसया च निर्वृत्तो लेपोऽलेपो ज्ञातव्यः । बृह• ८२ आ अलेभडो- अस्थिर, अनाहारः आव० २१२२ अलोए- अलोकः केवलाकाशरूपः । औप ७९% अलोला- इंदियविसयणिग्गहकारी, एसणं ण पेल्लेति । 7 “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] निशी. ३३२ आ। २७८। गुरुमाश्रितः। औप० ८८। इषल्लीनः। आव० १९७। अलोलुओ-अप्पडिबद्धो। दशवै० १४० आलीनः। आव०६३ आश्रितः (आतु०)| आसमन्तात् अलोहे- अलोभः, योगसङ्ग्रहेऽष्टमो योगः। आव०६६४। लीना आलीना। व्यव० ४४० आ। स्वल्पलोभः। जम्बू. १४८१ अल्लेसेहि-अश्लेषैः। आव०६३ अलौकिकत्वम्-असाधारणम्। दशवै. १६७ अवं- (अवाङ्), अधस्तात्। आचा० ६३| अल्पझञ्झ-अविद्यामानवाक्कलहः। उत्त० ५८९। अवंगाओ-अपाङ्गाः, नयनप्रान्तम्। जम्बू. ५२ अल्पपरिकर्माणि- यानि क्वचिन्मनाक तूर्णितानि। अवंगुअ-अप्रावृतम्। निशी० २०४ अ। ओघ. १३२ अवंगुदुवारे-अप्रावृत्तद्वारःअल्पलेपा-चतुर्थी पिण्डैषणा। आचा० २५७। कपाटादिभिरस्थगितगृहदवारः। औप. १००। अल्लइ- वृक्षविशेषः। भग० ८०३। अवंगुय-अप्रावृत्तम्, न स्थगयति। बृह० २५आ, १६४। अल्लइकुसुमं- अल्लकीकुसुमम्, लोके प्रतीतम्। प्रज्ञा० | अवंगुतंमि-उद्द्याटिते। बृह. २५० आ। ३६१। जम्बू० ३४१ अवंगुयदुवारो- अप्रावृतद्वारः, अप्रावृतं द्वारं येन सः, उद् अल्लग-आर्द्रकम, कन्दविशेषः। आव० ८२८1 आई द्घाटितद्वारः। सूत्र० ३३५ आर्द्रकं च। आव० ८२८१ अवंगो- अपाङ्गः, नयनोपान्तम्। जीवा० २०६। अल्लपल्लो- अली, वृश्चिकपच्छाकृतिः। विपा०७१। अवंझ-अवन्ध्यं, एकादशपूर्वनाम। स्था० १९९। अल्लय-आर्द्र (संस्ता०) अवंझपुव्वं-अवन्ध्यपूर्व-यत्र सम्यग्ज्ञानादयोऽवंध्याःअल्लिउं-अभिद्रोतम, आश्रयितं वा। आव० ४३७। सफला वर्ण्यन्ते तत्, एकादशपूर्वनाम। सम० २६। अल्लितो-अर्पितः। आव०४३४। अवंतिवद्धण-अवन्तीवर्धनः अज्ञातोदाहरणे अल्लियतुं- उपसर्तुम्। आव०६५) प्रद्योतात्मजपा-लकस्तः। आव० ६९९| अल्लियंतो-आश्रयन्। आव०४००। अवंतिसुकमार-प्राणिनः आहारविमोचने दृष्टांतः। आचा. अल्लियइ-आश्रयति। आव०६९५) २९१। अल्लियस्सह-आश्रयत। उत्त० ३९६। अवंतिसुकुमालो-अवन्तिस्कमालः, योगसङ् अल्लियह-आलीयेताम्-आश्रयताम्। उत्त० ३९४। ओघ० ग्रहेऽनिश्रितोप-धानदृष्टान्ते उज्जयिन्यां सुभद्रापुत्रः। १५९| आव० ६७०। वंश-कुडंगेऽनशनी (मरण०)। अल्लियावं- प्रवेशम्। आव० ३४१। शृगालीभक्षितः (भक्त)। अल्लियावणबंधे-अल्लियावणं-द्रव्यस्य अवंतिसेण-अवन्तीषेणः, अज्ञातोदाहरणे धारिणीपुत्रः। द्रव्यान्तरेणश्लेषादिना-ssलीनस्थ यत्करणं तद्पो यो आव०६९९। बन्धः सः। भग० ३९५ अवंती- देशविशेषः। बृह. २१८ अ। उत्त०४९। अल्लियावो- प्रवेशः, आश्रयणम्। उत्त०१४५ अवंतीजणवए-अवन्तीजनपदः, देशविशेषः। आव. २८९। अल्लिविओ-अर्पितः। आव० ४२१। उत्त०४९। निशी. ६४ आ। अल्लिवेइ- अर्पयति, सुश्लिष्टम्। जम्ब० ५२९। आलीनः मस्तकभित्तौ किञ्चिल्लग्नो न तु टप्परौ। जम्बू अवंतीसकुमार-नामविशेषः, उदाहरणविशेषः। ब्रह. २२४ ११३। मनोवाक्कायगुप्तावाश्रितौ वा, यद्वा अलीनौपृथगवस्थानेन परस्परमश्लिष्टौ। उत्त० ४९९। | अवंतीसुकुमालो- नामविशेषः, उदाहरणविशेषः। बृह० गुरुजनमाश्रितः। अनुशा-सनेऽपि न गुरुषु २२४ । द्वेषमापद्यन्ते, अथवा आ–समन्तात्सर्वासु क्रियासु | अवंतीसुकुमालो-वंशकुडंगेऽनशनी (मरण)। शृगालीलीना-गुप्ता नोल्वणचेष्टाकारिणः। जम्बू. ११७। जीवा० | भक्षितः (भक्त०) अ॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [93] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अवंतीसुत- शृंगालीभक्षितो मुनिः। (संस्ता०) अपक्रान्तः-अकमनीयः। स्था० ३६६। आव० ५०४। अवंतीसोमालो- अवन्तीसुकुमाल। निशी. १३७ आ। अवक्रान्तः-अवस्थितः। उत्त० १५६) अव-अपृथक्त्वम्। आव० २७८। अधः। प्रज्ञा० ५२६। उत्त० | अवक्कमइ-अपक्रामति, च्यवते। जीवा० ११०| गच्छति। ५५७ जीवा० २४३, ३०६, ३२२, ४००| अपक्रामति। आव० १९६) अवइदो-अपविद्धः, तोमरादिना सम्यग्विद्धः। प्रश्न० ४९। अपक्राम्यति। उत्त. १५७। अवइन्नगो-अवकीर्णकः। आव०७१८१ अवक्कमिज्जा-अपक्रामेत्-गच्छेत्-आचा० ३८५) अवउज्जिअ-अधोऽवनम्य। आचा० ३४४। अवक्कमित्ता-अवक्रम्य, गत्वा। दशवै. १७८। अवउज्झत्ति-परित्यज्यते। आव०७६५ अवक्कमेज्ज-अपक्रामेत, अपसर्पत, अवउज्झियथोवमाहारो-उज्झितस्तोकाहारः, उत्तमगुणस्थानकाद् हीनतरं गच्छेदित्यर्थः। भग० ६४। उज्झितधर्मा स्तोकः-स्वल्प आहारो यस्य सः। आव० | अवक्कासे-अपकर्षणं, अवकर्षणं, अप्रकाशो वा। भग. ક૬૮૫ १७ अपकर्षः। सम०७११ अवउडगं-अवकोटनम, ग्रीवायाः पश्चाद्भागनयनम्। अवक्कियं-असक्कं। दशवै. ११३ विपा० ५३। अवकोटकः, कृकाटिकाया अधोनयनम्। अवक्रम्य-विनिर्गत्य। व्यव० १४६ आ। विपा०४७ अवक्खारणं-अपक्षारणम्, अपशब्दं क्षारायमाणं वचनं, अवए-अवकम्, अनन्तजीववनस्पतिभेदः। आचा०५९। अपक्षकरणम्-सानिध्याकरणम्। प्रश्न. ४१| जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३१, ३३। साधारणबादरवनस्पति- | अवक्खित्तो-आक्षिप्तः। उत्त० ११७ कायविशेषः। जीवा० २६| प्रज्ञा० ३४। साधारणवनस्पति- अवगति- बुद्धिः। उत्त० ३९२ विशेषः। प्रज्ञा०४०१ अवगम-संज्ञा। आचा० १२| अवएडए-तापिकाहस्तकान्। भग० ५४८1 अवगाढ- अवस्थिताः। स्था० ५१४। अवओडयबंधणयं-अवमोटनतोऽवकोटनतो वा पृष्ठदेशे अवगाढगाढ- गाढावगाढम्, अतिगाढम्, प्राकृतत्वादेवं बाहशिरसा संयमनेन बन्धनं यस्य सः। अन्त० १९| रूपम्। भग०३७ अवकंखइ-अवकाङ्क्षति, अपेक्षते, अनुकम्पते, भग० | अवगाढा-आश्रिताः। स्था० ५२७। १०२ अवगाढाअवगाढं-अवगाढावगाढम्अवकरिसो-अपकर्षः-अभावः। प्रश्न०६२ अत्यन्तव्याप्तिदर्शनम्। भग० १५३। अवकारं-अपकरणम्, अङ्गारोपरिक्षेपः। प्रश्न०४०। अवगायति-परिभवति। आचा० १०६) अवकिन्नतो-अवकीर्णकः, करकण्डोः प्रथमं नाम। उत्त. | अवगासो- अवकाशः, यद्यस्योत्पत्तिस्थानम्। सूत्र० ३०१ ३५०| गमनादिचेष्टास्थानम्। आव० ८३५) अवकिरति-उत्सृजति। आव० ७७१। अवस्थानमवतारो। स्था० २३७। बहना अवकिरियव्वं-अवकरणीयम्, विक्षेपणीयम्, त्याज्यम्। विवक्षितद्रव्याणामवस्थानयोग्यं क्षेत्रम्। भग०६०५ प्रश्न. ९६| अवगाहणा-आश्रयभावः। भग०६०९। अवकुंडिय- अवगाढ-व्याप्त। (मरण०) अवगीत-वाङ्मात्रेणापि केनचिदप्यननवय॑मानः। अवकुज्जियं- उट्टाए तिरियहुत्तकरणं। निशी० ५९।। आचा० १०६। अवकोडकबंधणं-अवकोटकबन्धम्, बाहशिरसां अवगीतम्- निन्दितम्। भग० १११ पृष्ठदेशबन्ध-नम्। प्रश्न. १४। अवगुणंति-अपावृण्वन्ति। भग० ६८३| अवकोडयं-अवकोटकम्, कोटायाः-ग्रीवाया अधोनयनम्। | अवगृहितो- अवगृहितः। आव० ३४४। प्रश्न. ५६। अवगुण्ठ्यते-लिप्यते। आचा० १४७। अवक्कंत-अपक्रान्तः, सर्वशुभभावेभ्योऽपगतः-भ्रष्टः, | अवग्गहो-अवग्रहः, अव इति-प्रथमतो, ग्रहणं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [94] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ૨૦૮૧ परिच्छेदनम्। स्था० २८३। अवष्टम्भः। ओघ० २११| | सामायिकसाधूनामवश्यं भविनः। स्था० २७४। सामान्यार्थस्या-शेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य | अवडिंसगमयं-अवतंसकभूतम्, शेखरकल्पम्, रूपादेरवग्रहणम्। आव० ९| प्रधानमित्य-र्थः। प्रश्न. १३७। अवग्रहावधि-कारणे आपन्ने संयमार्थं यो गृह्यते। ओघ. | अवडेंसग-अवतंसकः, शेखरकः। भग० ३२२ अवडं- कृकाटिकाम्। भग० ३७९। अवघाटनप्रायश्चित्तं- शेषप्रायश्चित्तानि शोधयति। अवड्ढं- अपार्द्धम्, अर्धमात्रम्। सूर्य ३०, १०४१ व्यव. ९३आ। अर्द्धध्रुवमात्रम्। ओघ० ८६। अवच-जघन्यः । सूत्र. १९२। अवड्ढक्खेत्ता- अपार्द्धक्षेत्रम्, अपार्द्ध-समक्षेत्रापेक्षया अवचए-अपचयः, ह्रासः, शरीरेभ्यउ पुद्गलानां अर्द्धमेव क्षेत्रम्। स्था० ३६७ विचटनम्। प्रज्ञा० ४३२। देशतोऽपगमः। भग. ५४० अवड्ढखेत्तं- अपार्द्धक्षेत्रम्, अर्धमात्रक्षेत्रम्। सूर्य. १०४। अवचयो-अपचयः-हीनत्वम्। सूर्य. १६) पञ्चदशमुहूर्तभोग्यं नक्षत्रं अभिचिर्वा, अवचनम्-त्रिविधवचनप्रतिषेधः। स्था० १४१। पञ्चदशमुहूर्तभोग्यानि भरणी आर्द्रा अश्लेषा अवचूल-अवचूलम्। भग० ३१८ स्वातिज्येष्ठा च। बृह. १४८ आ। अवच्चलेणसारक्खणा-अपत्यलयनसंरक्षणा। आव. अवड्ढगोलावलिच्छाया-अपार्द्धगोलावलिच्छाया, ४०५५ गोलानामा-वलिर्गोलावलिस्तस्या छाया अवच्चे-अपत्ये। आव० १९९| गोलावलिच्छाया अपार्द्धायाः-अपार्द्धमात्राया अवच्छेए-अवच्छेदः। देशः। स्था० २०५१ गोलावलेश्छाया। सूर्य.९५४ अवजाते-अपजातः-अप-हीनः, जातोऽपजातः, पितुः अवड्ढचंदो- अपार्धचंद्रः-अर्धचंद्रः। ब्रह. १०९ अ। सकाशादीषद्धीनगुणः। स्था० १८४। अवड्ढवाविसंठित-अपार्द्धवापीसंस्थितः। सूर्य. १३० अवज्जं-अवद्यम्, पापं। आव० ३६४। अवड्ढा-अपार्द्धा। स्था० १४९। अवज्जपडिच्छन्नो-अवद्यप्रतिच्छन्नः, अवड्ढो-अद्ध। निशी. १४२ आ। पापप्रच्छादितः। आव० ५३७ अवड्ढोमोअरिया-अपार्भावमोदरिका, दवात्रिंशत्तोऽर्द्ध अवज्जभीरू-अवयभीरूः, साधः। ओघ० २२४। षोडश, एवं च अवज्जुत्तं-पृथग्भूतम्। आव०७५८। दवादशानामर्द्धसमीपवर्तित्वादपाभवमोदरिका दवादअवज्झा-अवध्या, गन्धिलविजयराजधानी। जम्बू० शभिरिति। औप० ३८ भग० २९२। ३५७ अवणए-अपनयः-पूजासत्कारादेरपनयनम्। स्था०४१८। अवज्झाणायरिए-अपध्यानाचरितः, अवणयं- एकान्ते स्थापनम्। बृह. २६४ अ। अप्रशस्तध्यानाचरितः। आव० ८३० अवणिज्जंतु-अपनीयन्ताम्। आव० ४३६। अवढिए-अवस्थितः, नित्यः। भग०७६० अवणितमूलो-अपनीतमूलः, अपनीतमूलत्रिभागः, एवमभयरूपतया। स्था० ३३३। निश्चलत्वात्। स्था० त्रिभाग-निर्वाटितवाटः, ऊर्श्वभागादपि। त्रिभागहीन ३३३। अवस्थितानि-शाश्वतानि। स्था० १४६। अवधेः इति। जीवा. २५५ पञ्चमभेदः। प्रज्ञा० ५४३। आव० २८१ अवणीओवणीयवयणं-अपनीतोपनीतवचनम्, अवडिय-अवस्थितः, स्थितम्। भग० ११९। अवर्द्धिष्ण। यन्निन्दित्वा प्रशंसति। प्रज्ञा० २६७। जीवा० २७२ अवस्थिता-स्वप्रमाणावस्थिता। जीवा० अवणीयं-अपनीतम्, स्थानान्तरस्थापितं निराकृतगणं ९९। स्वप्रमाणेऽवस्थिता मानुषोत्तरपर्वताबहिः । वा। औप० ३९। समुद्रवत्। जम्बू० २७। अवणीयवयणं-अपनीतवचनम्, निन्दावचनम्। प्रज्ञा. अवट्ठिया कप्पा-अवस्थिताः कल्पाः २६७ गुणापनयनरूपम्। प्रश्न. ११८ निंदावचनम्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [95] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आचा० ३८७ | अवणीयोवणीयवयणं अपनीतोपनीतवचनम्, यत्रैकं गुणम-पनीय गुणान्तरमुपनीयते। प्रश्न० ११८| अरूपवती स्त्री किन्तु सद्वृत्ता आचा• ३८७ अवणेति- महामणि प्रकाशयति । निशी० ११६ आ । अवणेज्जा - अपनयेत्, परित्यजेत् । दशवै० १५६ । अवण्ण- अवर्णः, अवजा वा अनादरः, वर्णनाया आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) अकरणम् । औप० १०५ । अलाधात्मकः । उत्त० ७१० निन्दा | आव० १०३ | अवण्हाणं- अपस्नानम्, तथाविधद्रव्यसंस्कृतजलेन स्नानम् । विपा० ४१ अवतंसो- पुरुषव्याधिनामको रोगः बृह• २४९ अ अवतासण- बाहाहिं अवतासिता । निशी० ११३ अ अवत्त- अप्राप्तम्-अस्पृष्टम् । भग० १२७ | अव्यक्तः, अष्टानां वर्षामधो बालः ओघ० १६२२ अवत्तदंसणे - अव्यक्तदर्शनः - अव्यक्तं - अस्पष्टं दर्शनं अनुभवः । भग० ७०९ | अवत्तव्यं अवक्तव्यम्। प्रज्ञा० २३४| यच्चरमशब्देनाचरमशब्देन वा स्वस्वनिमित्तशून्यतया वक्तुमशक्यं तत् । प्रज्ञा० २३५| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित विनाशयतीत्येवंशीलः । उत्तः ५४८१ [96] [Type text ) अवदाले अवदालयति, उत्पाटयति। प्रज्ञा- ६००| अवटू- कृकाटिका । विपा० ७२ अवद्दहणा- दम्भनम्। विपा० ४१॥ अवहार अपदद्वारम् आव० ३०६। अवद्धगाढलगोलछाया— अपार्द्धगाढलगोलच्छाया । सूर्य ९५| अवद्धगोलच्छाया- अपार्द्धगोलच्छाया । सूर्य० ९५| अवद्धगोलपुंजछाया अपार्द्धगोलपुञ्जच्छाया सूर्य० ९५ अवद्धचंद- अपकृष्टमर्द्धं चन्द्रस्यापार्द्धचन्द्रः । स्था० ७१ | अवद्धजवरासिसंठासंठिए अपार्द्धयवराशिसंस्थानसंस्थितः अपगतमई यस्य सः, स चासौ यवश्च राशिश्रच अपार्द्धयवराशी तयोरिव यत्संस्थानं यस्य तेन संस्थितः । जीवा० ३४३ | अवद्धपोरिसी- अपार्द्धपौरुषी, अपतमर्द्धं यस्याः सा अपार्द्धा सा चासौ पौरुषी । सूर्य ० ९५| अवद्राय - मृत्वा । जीवा० २६२ ॥ अवधारियं - तात्पर्यग्रहणतो हृदये विश्रामितं । व्यव० २५७। अनन्तगुणं दशकै २२९| अवत्तव्वगसंचिता - अव्यक्तव्यक्तसंचिता - समये समये अवधिज्ञानम् - ज्ञानस्य तृतीयभेदः । स्था० ३३२ एक तयोत्पन्नाः । स्था० १०५ | अवधिज्ञानजिना:- विशुद्धावधिज्ञानाः । व्यव ८५अ अवधीरयेत् - उपेक्षेत । उत्त० ११२ ॥ अवधीरित- परिभूतः । आचा० १०६ । अवधूतम् - अवज्ञातम् । ओघ० १५ । अवन्नं - अवर्णम, निन्दा आव० ६६२ अश्लाघामवजां । स्था० २६० | अवत्ता- छगणमट्टियाए पाणिएण य। निशी० २३२अ | अवत्तिता- अव्यक्तिकाः, अव्यक्तं-अस्फुटं वस्तु अभ्युपगमतो विद्यते येषां ते स्था० ४१०| अवत्तो- सोलसवरिसारेण वयसा निशी० २९० आ अवत्थयं- अपार्थकम्, पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बद्धार्थ, चतुर्थ सूत्रदोषः । आव० ३७४१ अनुयो० २६११ अवदारं- अपद्वार। आव० ३०६ | अवदारिगं अवदारितम्, उद्घाटम् आव० ६८७ अवदाल- पादादिन्यासेऽधोगमनम्। भग० ५४० | अवदालिओ - अवदारितः । आव० १७५ अवदालियं - अवदालितम्, रविकरैर्विकाशितम् । औप० १७| रविकिरणैर्विकासितम्। जीवा० २७३ | सञ्जातावदलनंविक सितम्। प्रश्र्न० ८२| अवदाली- अवदारयति - शकटं स्वस्वामिनं अवन्ना अवज्ञा, परिभवः । ओघ० १८६ | अवपंगुरे अपवृणुयात् उद्घाटयेत्। दश. १६७ अवपात- पर्वतविशेषाः, येषु वैमानिका देवा अवपतन्ति अवपत्य च मनुष्यक्षेत्रादावागच्छति। प्रश्र्न० ९६। अवपीलाई अवपीडयति, जलेन प्लावयति । जीवा० ३२६ ॥ अवबोह-अवबोधः, मतिः । आचा० १२ | अवभासियं अपभासितं दुष्टभाषणं, विरूपं भाषते । अवधिकेवली - केवलिद्वितीयभेदः। निशी. १३९ आ । अवधिजिन:- विशिष्टावधिधरः आव० ५०१ । व्यव० २० अ । अवमंधित अवाङ्मुखीकृतः । बृह० ८०आ। “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अवमः- लघुः पर्यायेण। स्था० २४२। अवयासिं-आलिङ्गनम्। बृह. २६ आ। अवमण्णइ-अवमन्यते, अवज्ञाऽऽस्पदं मन्यते। भग० अवयासिज्जमाणे-अपत्रास्यमानः, अप्रयास्यमानो वा। १६६| औप० १०२ अवमण्णह- उचितप्रतिपत्त्यकरणेन। भग० २१९। अवयासित्ता-अवकाश्य। आव० ३५७। अवमद-अवमद। जम्बू० १०१। अवयासेउं-निवारयितुं, निरोद्धम। आव०४३८। अवमई-अपमर्दम्, उपमर्दनम्। प्रश्न. ३७) अवरं- उपरं, पश्चात्कालभावी। आचा० १६७। अवमप्रतिजागरणम्-गुणविशेषः। आव०५३४। अवरञ्झियाउ-अपराद्धवान्। आव०८३५) अवमा-हीना। आचा० ३३२ अवरकंका-अपरकका, ज्ञातायं षोडशाध्ययनम्। आव० अवमाणणं-अपमाननम्, विनयभंशः। प्रश्न. ९७। ६५३। षष्ठाङ्गे षोडशं ज्ञातम्। उत्त०६१४। सम० ३६) अनभ्य-त्थानादिकरणम्। भग० २२७। मानहरणम्। अवरगज्जभो-अपरगर्जभः। आव० ३८७१ प्रश्न. ४१। अपमानम्, अपूजनम्। औप० ४६। अवरज्झइ-अपराध्यंति, अपराधमाप्नोति। दस० १९६| अवमाणो-अपमानः, दैन्यम्। प्रश्न. १३८५ अवरण्हसंखडी-दिया गहियं रायो भत्तं, राईभोयणस्य अवमानं- हस्तादि। स्था० १९८५ बितियभङ्गो। निशी. १५अ। अवमारियं-अपस्मारः-अपगतः स्मारः स्मरणं यस्मात् अवरत्त-अपरात्रः, अपकृष्टा रात्रिः, पश्चिमस्तद्भागः। सः अपस्मारः, तस्मिन् सति तद रोगिणः सर्वविशेषा भग१२७। रत्तीए पच्छिमजामो। दशवै. १६४। स्मृतिः नश्यति। आचा० २३३। अवरदक्खिणा-अपरदक्षिणा। आव० ६३० अवमोदरः- अवमं-ऊनमुदरं-जठरं यस्य सः। स्था०१४८१ अवरदारिता-अपरवारिकानि, अपरस्यां दिशि गम्यन्ते अवम्मो-अवाम्यः। आव० १०१| येष्। स्था०४१४१ अवयक्काओ-अवपाक्यास्तापिकाः। भग. ५४८। अवरदं-अपराद्धम्, दष्टम्। उत्त० १४३। अवयक्खंत-अपेक्षमाणः (भक्त)। पृष्ठतोऽभिमुखं अवरदिगा- लूता फोडिआ, तस्यां लूतास्फोटिकायामुत्थिनिरूपनयन्। ओघ० १२७। तायां दाहोपशमार्थमचेतनेन पृथिवीकायेन परिषेकः अवयक्खमाणस्स- अवकाङ्क्षतोऽपेक्षमाणस्य वा। भग. क्रियते। ओघ० १३०| सर्पदंशस्तस्मिन् परिषेकादि ४९६| क्रियते। ओघ० १३० अवयग्गं- अन्तः, अन्तवाचको देशीवचनोऽयं शब्दः। अवरभू-अवरभूः, अधोभूः। सूर्य० ४६। भग. ३५ अवदग्रम्-पर्यन्तम्। स्था०४४। अवररायं-अपररात्रं-रात्रेः पाश्चात्यः यामः। आचा० २१० अवयणं-अवचनम्। आव० ३४३ अवरविदेहकूडे-अपरविदेहकूटम्, निषधे अष्टमकूटः। अवयव- अवयवाः, प्रतिज्ञादयः। दशवै.७५। अवयवः- जम्बू० ३०८1 अपरविदेहाधिपकूटम्। जम्बू० ३७७। प्रमाणाङ्गलक्षणः। दशवै०७७। अवयवाः अवरविदेहे-अपरविदेहः, मेरोर्जम्बूद्वीपगतः तथाविधविचित्रपरिणा-मापेक्षया। स्था० १११ पश्चिमविदेहः। जम्बू ३१०| महाविदेहापरभागः। स्था० अवयविद्रव्यता-तथाविधैकपरिणामिता। स्था० १११ ६८ निषधे कूटविशेषः। स्था०७२ नीले कुटविशेषः। अवयवी-अवयवानां तथारूपः सङ्घातपरिणामविशेषः। जीवा०६। अवरवीयावो-अपरबीजापः। आव० ३८७। अवयाणं-तैलविशेषः। ब्रह. २२१ आ। अवराइअ-अपराजितः, पद्मबलदेवपूर्वभवनाम। आव. अवयानी- अनश्रोतोगामिनी। व्यव० २५ आ। १६३ अवयारो-अवतारः, प्रस्तावः। व्यव० २५आ। अवराइआ-अपराजिता, शखविजये नगरी। जम्ब० अवयासं-आलिङ्गनम्। ओघ. १६४। ३५७ अवयासणं-वृक्षादीनामालिङ्गापनम्। बृह. २१५। | अवराजिआ- अपराजिता, पूर्वदिग्रुचकवास्तव्या स्था०७२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [97] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] दिक्कुमारी। आव० १२२ अवलम्बए- अवलम्बत-अवष्टम्भादिकां क्रियां र्यात्। अवराजिया-अपराजिता, आचा. २९३। उत्तरदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्योत्तरस्यां पुष्करिणी। अवलितं- वस्त्रं शरीरं वा न वलितं कृतं तत्। स्था. ३६१| जीवा० ३६४। यथाऽऽत्मनो वस्त्रस्य च वलितमिति मोटनं न भवति। अवराह-अपराधः, गुरुविनयलङ्घनरूपः। आव० ५४१| उत्त० ५४१ अवराहखामणा-अपराधक्षमणा, वन्दनके षष्ठं स्थानम्। अवलियं-अवलितम्। ओघ. १०९। आव०५४८१ अवलेहणिया-वासासु कद्दमफेडणी। निशी. १२४ अ। अवरुंडिओ-आलिङ्गितः। आव. २७४। अवलेखक-मायायाः लक्षणम्। आचा० १७० अवरुत्तरा-अपरोत्तरा। आव०६३० अवलोकनम्- गवाक्षः। बृह. २०७अ। अवरेय-अवरेकः, रिक्तता। उत्त० ३०५ अवलोवो-अपलोपः, वस्त्सद्भावप्रच्छादनम्। अवरेण-अपरेण-जन्मादिना सार्द्धम्। आचा० १६७। अधर्मदवारस्य त्रिंशत्तमं नाम। प्रश्न- २७। अवरो-अववादो। निशी. १४६ अ। अवल्ल- गोणी। आव०६६५१ अवरोप्परमसंबद्ध-परस्परमसम्बद्धः। आव० ६३५) अवल्लखेवा-सविलंबाः क्षेपाः। निशी० ७८ अ। अवण्णे- अवर्णः, अश्लाघा। असद्दोषोघट्टनम्। स्था० अवल्लगं-ओघ. ३३। निर्यामकाः। (मरण) २७५अयशः, सर्वदिग्गामिन्यप्रसिद्धिः। स्था०४८। अववं-अववम्, चतुरशीतिरववाङ्गशतसहस्राणि। जीवा० अवन्न-अवर्णः अप्रसिद्धमात्रम्। भग०४८९। अश्लाघा। ३४५ ओघ० १२१। अयशः। ओघ० १२५ अववंग-अववाङ्गम, चतुरशीतिरववाङ्गशतसहस्राणि। अवलंबण-अवलंबिज्जतित्ति अवलंबणं, सो पण वेतिता | जीवा० ३४५। भग०८८८ मत्तावलंबो वा। निशी. ११९ । बाह्यादिमात्रैक- अववरय-अपवरकः, गृहान्तर्भागः। दशवै.४२ देशग्रहणम्। बृह० २३० अ। अववाओ-अपवादः, दवितीयपदम्। निशी० ९२ अ। अवतरतामुत्तरतामवलम्बन-हेतुभूताः। जम्बू०४३। अववाडणं-अवपाटनम्, विदारणम्। भग० १२०० अवलम्बनः, अवतरतामुत्तरतां चालम्बने हेतुभूतः। अववाय-अपवादः, परदूषणाभिधानम्। प्रश्न. ११६) जीवा. १९८१ अवलम्बनं देशे ग्रहणम्। स्था० ३२७) | अववायसुत्तं-तिहमन्नयरागस्य इत्यादि। बृह. २०१ अवलंबणबाहा-अवलम्बनबाहा, उभयोरुभयोः आ। निशी. ११ । पार्श्वयोर-वलम्बनाश्रयभूता भित्तिः। जीवा० १९८१ | अववायाववाओ-अववाए प्ण अन्नो अववाओ। निशी. अवलंबनीयम्-लम्बयितव्यं रज्ज्वादिनिबद्ध हस्तादिना ६५आ। धरणीयम्। भग०४७ अवविहे- आजीविकोपासकविशेषः। भग० ३६९। अवलंबमाणे-अवलम्बयन हस्तवस्त्राञ्चलादौ गृहीत्वा। अववे- कालविशेषः। भग० २१०, २७५, ८८८1 सूर्य ९११ स्था० ३५३ अवश्रावणम्-आयामम्। ओघ० १३३। अवलंबमाने-अवलम्बमानः, पतन्ती बाह्यादौ गृहीत्वा अवष्टम्भम्- उपग्रहः। ओघ० १५४। उत्त० ५५) धारयन्। स्था० ३२७ अवष्टब्धाः-आक्रान्ताः। आचा०२५८५ अवलगका-सेवकाः। भग०४६४। अवसण्णा-अवसन्नाः । आव०६७५। खग्गूडप्रायाः। ओघ. अवलगनं-सेवा। आचा० १३२ १५६| अवलद्ध-अपलब्धःन्यक्कारपूर्वकतया। स्था० ४६६) अवसद्दो-अपशब्दः। आव०४०११ ईषल्लब्धः, अलब्धो वा। प्रश्न० १३८। अवसरो-अवसरः, उपयोगकालः। सूत्र०११ अवलद्धि-अपलब्धिः , अलाभोऽपरिपर्णलाभो वा। भग. | अवसाणं-अवसानम्। आव० ३८४| अन्तः। प्रज्ञा० ३९७) १०१ अवसायः-निश्चयः। प्रश्न.१०४| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [98] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अवसावणं-अवश्रावणम्, काजिकम्। बृह. १२९ आ। जम्बू० २९ अवसिद्धंतो- अपसिद्धान्तः। आव० ३२० अवाईणपत्ता- अवाचीनपत्राः, अधोमुखपर्णाः, अधोमुखअवसोहिय-अवशोध्य अपसार्य, पृथक्कृत्य, परिहृत्य। पलाशा वा। औप०७। अवातीनपत्राः-अवातोपहतबर्हाः। उत्त० ३४० औप. ९। अवसेसं-अवशेषम्, उद्धरितम्। उत्त० ५९६। भिक्षाप्रक्र- अवाउड-अप्रावृतम्, प्रावरणरहितम्। दशवै० ११९) मात्पात्रनिर्योगोद्धरितम्, यदवापगतं शेषमपशेषम्। अप्रावृता। ओघ० १६७। प्रावरणाभावः। भग० १२५) उत्त०५४४। अवाउडए-अप्रावृतकः, प्रावरणवर्जकः। औप०४० न अवस्कन्दः-शिबिरः। आचा० १४० विद्यते प्रावरणकम्। स्था० २९९। अवस्थानम्-संस्थितिः। सूर्य०७ अवाउडिय-अप्रावृतिक, सकलां रात्रिं यावद् अप्रावरणाअवस्सं-अवश्चम, नियोगतः। आव. २६५ भिग्रहवान्। बृह. २९२ अ। अवह-अव्याप्रियमाणः। बृह. २७ आ। अवाए-अवायः, अवधारणात्मको निर्णयः। प्रज्ञा० ३१० अवहट्टण-त्यागः। (मरण०) अपायः-अवग्रहज्ञानेन ईहितस्यार्थस्य निर्णयरूपो योsअवहट्ट-अपहृत्य, त्यक्त्वा । भग० १००। परिहत्य। औप. ध्यवसायः। प्रज्ञा०३१० २४। परित्यज्य। ओघ० ११४१ आहृत्य-निष्कृष्य, त्य- | | अवाओ-अवायः-प्रक्रान्तार्थविनिश्चयः। भग० ३४४। क्त्वा। आचा० ४००। ईहार्थविशेषनिश्चयः। आव०९। अवहट्टअसंजमे-अपहत्यासंयमः-अविधिनोच्चारादीनां | अवाधाय-अव्याघातः, परिष्ठापनतो यः सः। सम० ३३ प्रव्रज्यासूत्रार्थग्रहणादिकयाऽऽनुपूर्व्या अवहट्टसंजमो-अपहृत्यसंयमः-प्राणिभिः संसक्तं भक्तं । विपक्त्रिममायुष्कक्षयमन्भवतो यो भवति पानमथवाऽविशुद्धमुपकरणं पात्रादि यदवाऽतिरिक्तं सोऽव्याघातः। आचा० २६२ भवेत तत्परिष्ठापनं विधिना। आव०६५३। अवाच्यप्रदेश:-गुह्यम्। प्रज्ञा०४३०| अवहडे-अपहृतम्। भग० २७७। अवातदंसी-अपायदर्शी। स्था० ४८४। अवहन्न-उदूखलम्। बृह. ६० अ। अवातीणपत्तो-अवातीनपत्रः, न वातोपहतं पत्रं, अवहारइ-अवधार्यते, प्रथमतया स्थाप्यते। सूर्य. ११३ वातेनापतितं पत्रम्। जीवा. १८७। अवहारवं-अवधारणावान्। स्था० ४८४। अवाते-अपायः-अनर्थः। स्था० २५३। अवहाराइ-अपहृतवन्तः-गृहीतवन्तः। आचा० ३३७। अवदाणे-अपादानः-विश्लेषतो मर्यादया दीयते, अवहारो-अपहारः, अधर्मदवारस्य दसमं नाम। प्रश्न. खण्ड्यते, गृह्यते, अवधिमात्रम्। स्था० ४२८१ ४३। जलचरविशेषः। प्रश्न० ६२ अवधार्यः-ध्रुवराशिः। अवायदंसी-आणालोएंतस्स पलिउंचंतस्य पच्छित्तं सूर्य. १३) जम्बू०५०७ अकरेंत-स्स संसारे जम्मणमरणादिद्ल्लभबोहियत्तं च अवहितचित्तः- एकाग्रमनाः। उत्त० ५९९। परलोगावाए दरिसेति इहलोगे च ओमासिवादी सो अवहीयं-अपधीकम्, अपसदा-निन्दया धीर्यस्मिंस्तत्। अवायदंसी। निशी० १२८ आ। सातिचारस्य अधर्मद्वारस्याष्टाविंशतितमं नाम। प्रश्न. २६। पारलौकिकापायदर्शीति। स्था० ४८६। अपायान्अवहेडयं-अर्द्ध शिरोरोगम्। अत्त०१४३। अनर्थान् शिष्यचितभङ्गानिर्वाहा-दीन् अवहेडियं-अवहेठितम्, अवेत्यधो, हेठितं-बाधितं अधो- दुर्भिक्षदौर्बल्यादिकृतान् पश्यतीत्येवंशीलः सम्यगनानामितमिति। उत्त० ३६७। लोचनायां वा दुर्लभबोधिकत्वादीन् अपायान् शिष्यस्य अवाअ-अपायः, उदाहरणस्य प्रथमो भेदः। दशवै. ३५। दर्शयति। स्था० ४२४१ अवाईण-अवाचीनम्, अधोमखम्। औप०७) | अवायाणुप्पेहा- अपायानुप्रेक्षा, अवातीनानि, न वाणोपहता, न वातेन पातितानि। | आश्रवाणामपायानामनुप्रेक्षा। स्था० १८८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [99] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आ। अवालुयाखिल्ल-अवारितश्लेष्म। (तन्द०) अविकुलं-अपूतिकुलं। (मरण०) अवावारे-अव्यापारः, इन्द्रियाव्यापारः। आव०६५२ अविगणिया-अविमता। आव०६९२ अवाहाणं-देशविशेषः। भग०६८० अविगियवयणो-अविकृतवदनः, अविंदंत-अलभमानः। आव० ५३५ नात्यन्तनिर्घाटितमखः। ओघ. १८२ अविंधणं- आव्यधनम्, मनत्रावेशम्। प्रश्न. ३८१ अविगीत-अविप्रतिपन्नः। व्यव. १९२ अ। अवि-अपि, अपिशब्दः पदयबन्धत्वेन पादपूरणार्थं अविगुह-अवारित। (मरण) एवकारार्थो वा। जम्बू. २४५ प्रकारवाची। निशी० १६८ अविग्गहगइसमावन्नग-अविग्रहगतिसमापन्नः, ऋजुगतिकः, स्थितो वा। भग० ८५ अविअ-अपि च, अभ्युच्चये। ओघ० ३६। विग्रहगतिनिषेधादृजुगतिकः अवस्थितश्च। भग० ८७७। अविअत्तो-अव्यक्तः, मुग्धः-सहजसदविवेकविकलः। | अविग्गहमणे- अविग्रहमनाः, अकलहचेताः अव्यद् सूत्र० ३४। ग्रहमना वा, अविदयमानासदभिनिवेशः। प्रश्न.१११| अविइ-समन्ताद वीचय इव वीचयः उत्त. २३१| अविघाटा-अप्रकटा। व्यव. २०३ अ। अविउमाणो-पीड्यमानः। सूत्र० ५१४१ अविघुटुं- विक्रोशनमिव यन्न विस्वरम्। स्था० ३९६। अविउप्पकड-अविद्वत्प्रकृता, अव्युत्प्रकटा वा न विक्रो-शनमिव यद्विसवरं न भवति तत्। जम्बू०४० विशेषत उत्प्राबल्यतश्च प्रकटाः। भग० ३२५ अपि अविच्युति-धारणाभेदः। दशवै. १२५ शब्दः सम्भा-वानार्थः उत्-प्राबल्येन च प्रकृता-प्रस्तुता | अविज्जा-अविद्या, न विद्या-मिथ्यात्वोपहतकुत्सितवा उत्प्रकृतो-त्प्रकटो वा। भग० ७५३। ज्ञानात्मिका। उत्त० २६२। अविउस्सिया-अव्युत्सृज्य, अपरित्यज्य। सूत्र० ३९४। अविज्जापुरिसा-अविद्यापुरुषाः, अविद्याअविओगिओ-अवियोगिकः, वियोगासहिष्णुः। आव० मिथ्यात्वोपहतकु-त्सितज्ञानात्मिका तत्प्रधानाः ४३६| पुरुषाः। अविद्यमाना वा विदया-प्रभूतश्रुतं येषां ते। अविओगो- अवियोगः, धनादेरत्यजनम्। परिग्रहस्य उत्त० २६२ पञ्चविंश-तितमं नाम। प्रश्न. ९२ अविज्ञोपचितम्- अविज्ञानमविज्ञा तयोपचितं, अविओसित-अवयवसितम्, अनपशान्तम्। स्था० १६६। __ अनाभोगकृत-मिति। सूत्र० ११ अविकत्थण-अविकत्थनः-न बहुभाषी। दशवै०५ | अविणए-अविनयः। आव०७९३। अविकत्थनम्-हितमितभाषणम्। आचा० २। अविणासी-अविनाशी, क्षणापेक्षयाऽपि न अविकप्पं-अविकल्पः, निश्चयः। आव० २६४। निरन्वयनाशधर्मा। दशवै. १२९। अविकलकुल-अविकलकलाः, ऋद्धिपरिपूर्णकलाः। भग० | अविणीअप्पा-अविनीतात्मा, भवान्तरेऽकृतविनयः। ४६९। दशरू. २४९। विनयरहिता अनात्मज्ञाः। दशवै० २४८। अविकोविओ- जो वा भणिओ अज्जो ! जइ भुज्जो भुज्जो | अविणीओ-अविनीतः, सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहितः। से विहिसि तो ते छेदं मूलं वा दाहामो, एसो वि कोविदो, स्था० १६५। अविनीताः, ये बहशोऽपि प्रतिनोद्यमानाः एतेसि चेव विवरीता जो य पढमताए पच्छित्तं प्रमादयन्ति, ते च छन्देऽवर्तमाना भण्यन्ते। बह० पडिवज्जति ते अकोविआ भण्णंति। निशी० १२१ अ। २०९। अविक्कडिय-अविकटित, अखंडित। व्यव० ५३ आ। अविण्णाय-अविज्ञातम्, अवध्यपेक्षया अज्ञातम्। भग. अविक्कयेण-अविक्रयेण-भाटकेन। व्यव. २३८ आ। १९७, २०० अविक्किअ-असंस्कृतम्, सुलभमीदृशमन्यत्रापि। दशवै. अवितथभावः- अर्थविनिश्चयः। दशवै० २३५) २२१॥ अवितह-अवितथम्, सत्यम्। आव ७६१। भग. १२१| अविक्कीवो-आसायमाणो। दशवै० १२३। अवितहमेयं-अवितथमेतत् न कालान्तरेऽपि मा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [100] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] २७११ विगताभिमत-प्रकारम्। भग० ४६७) अवियारं-अपराक्रममप्रभवति काले। (भक्त०) अविदलकडाओ-अद्विदलकृताः, न द्विदलकृता अवियार-अविचारम्, अद्विदल-कृताः, अनूद्ध्वपाटिताः। आचा० ३२३ चेष्टात्मकविचारविरहितमरणानशनतपः। उत्त०६०२ अविद्दवंतो-अविद्रवन्। उत्त० २७९। अविकारा-गीतादिविकाररहिताः। ब्रह. ३१० आ। अविद्धकन्नए-अविद्धकर्णः, अव्युत्पन्नम्। भग० ६७७) अवियोगज्झवसाणं-अवियोगाध्यवसानम्, अविप्रयोगअविद्वत्थ- अविध्वस्तः, प्ररोहसमर्थः। दशवै० १४० दृढा-ध्यवसायः। आव०५८५ अविद्यमानम्-मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणम्। जीवा० अविरइ-अविरतिः, इच्छाया अनिवृत्तिः । भग० १०१। अविरइय-अविरतिकः। आव. २१८, ६२०, ६४०, ४०४, अविधिभिन्ने-ऊर्ध्वफालिरूपाः पेश्यः कृतं तदृजुकभिन्नं, | १६० दशवै० ८९| गृहस्थी। ओघ. १९४| यत्पुनस्तिर्यक्बृहत्कत्तलिकाकृतं तच्च अविरए-अविरतः, प्राणातिपातादिविरतिरहितः, विशेषण कलिकाभिन्नमेते द्वे। बृह. १७५अ। वा तपसि रतो यो न भवति सः। भग० ३६। अविधो-कुच्छितो। निशी. २७७ अ। अविरओ-अविरतः, न विरतः, सावदयव्यापारादनिवृत्तअविपक्कदोसा-कषायेन्द्रियनिग्रहेऽसमर्था, अकोविदा मनाः। प्रज्ञा० २६८१ वा। बृह. १४१ । अविरतओ-अविरतः। आव० ३९६) अविपरीतदर्शन- साम्प्रतेक्षी। सूत्र० ३८४ अविरतकायिकी-कायिकीक्रियायाः प्रथमो भेदः। अविपु(घु)हूं- अविप(घ)ष्टम्, न विस्वरं क्रोशतीव। जीवा. | मिथ्यादृष्टेरविरतसम्यग्दृष्टेश्च। उत्क्षेपणादिलक्षणा १९४१ क्रिया कर्मबद्धनिबन्धना। आव०६११। अविप्पकड-अविप्रकटा, आनुकूल्येन प्रकृता-प्रक्रान्ता, । अविरति-अविरतिः, अब्रह्म। स्था० ३७२। अप्रत्याख्यानअथवा न विशेषेण प्रकटा अविप्रकटा। भग० ३२५) मथवा अविरतिरूपो भावः, शस्त्रम्। स्था० ४९२। अविप्पणासो- अविप्रणाशः, शाश्वतं, सिद्धानां अविरतिः। आव. ९३। नमस्कारार्हत्वे हेतुः। आव० २६३। अविरतिया-अविरतिका, न विदयते विरतिर्यस्याः सा। अविबंधणो-अविबन्धनः, स्था० ३७२ अविरतिका। आव० ३९६। अविद्यमानमन्त्रादिनियन्त्रणः। उत०४७९। अविरत्ताए-अविरक्तया विप्रियकरणे। भग. १७९। अविभागा-अविभागाः, अनभाषाः। स्था० २२२॥ अविरत्तो-अविरक्तः। औप० १३ अविभागपलिच्छेदो-अविभागपरिच्छेदः, अविरय- अविरतः, अनिवृत्तः। प्रश्न. ३० मिथ्यादृष्टिः केवलिप्रज्ञाछेदेना-विभागम्। बृह. १५आ। सम्यग्दृष्टिश्च। आव. ५८८ अविमणे-अविमनाः, न शून्यचित्तः, अदीनस्य दवितीयं | अविरयसम्मद्दिही-अविरतसम्यग्दृष्टिः, नाम। अन्त०२ देशविरतिरहितः सम्यग्दृष्टिः, भूतग्रामस्य चतुर्थ अविमोत्ति- अविमुक्ती, गृद्धिः। निशी० १५५अ। गुणस्थानम्। आव० ६४० अवियं- उच्छिष्टम्। बृह. २७१ आ। अविरलं- परस्परासन्नम्। प्रश्न० ८३। अवियत्तकलं बहणावि कालेण भिक्खा न लब्भइ। | अविरलपत्तो-अविरलपत्रः। जीवा. १८७। अविरहिएदशवै. ७७ अविरहितम्-चूक्कस्खलितन्यायादपि न विरहितः, अवियद्धो-अविदाधः, अतृप्तः। (महाप्र०) अथवा प्रदीर्घकालोपभोग्याहारस्य सकृद्-ग्रहणेऽपि अवियाइं-इत्येवमादीनद्दिश्य। आचा० ३५३। भोगोऽनसमयं स्यादतो ग्रहणस्यापि सातत्यअवियाउरी-अप्रसविनी। आव. २१२१ प्रतिपादनार्थम्। भग. २०| अवियाणओ-अविजानन्, अविरहिय-अविरहितः, अविमुक्तः। आव० ५३२ हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यमनाः। आचा०७० अविरहो- अविरहः, सातत्येनावस्थानम्। आचा०६१| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [101] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] अविराहणं-अविराधना। भग०८१८ अविहाव-अविभाव्य, अविभावनीयस्वरूपः। प्रश्न. १९। अविराहियसंजम-अविराधितसंयमः, अविहि-अविधिः। आव० ५२ अयतना। बृह. १५अ। प्रव्रज्याकालादारभ्या-भग्नचारित्रपरिणामः, अविहिगहिअं-अविधिग्रहणम्, अशुद्धस्य-उद् सज्वलनकषायसामर्थ्यात्प्रमत्तगुण गमादिदोषा-न्वितस्य यद् ग्रहणं, अथवा गुडादेव्यस्य स्थानकसामर्थ्यादवा। मण्डकादिना प्रच्छाय यदेकत्र पात्रकदेशे स्थापनं तत्। स्वल्पमायादिदोषसम्भवेऽप्यनाचरि-तचरणोपधातः। ओघ. १९२१ भग०५० अविहिपरिवावणिया-अविधिपरिष्ठापनिकी। आव. अविरिक्का-अविरक्ता, अविभक्तरिक्था। बह० २४३ अ। ६३८५ अविरेकछः- रोषः। व्यव० १३७ अ। अविहेडए- अविहेडकः, न क्वचिदचितेऽनादरवान्। दशवै. अविरुद्धो-अविरुद्धः, वैनयिकः। औप. ९० २६६। अविलं- लोगपसिद्ध। दशवै० ६। गडुलमाकुलं वा। सम० | अवीइ-अवीचिः, वीचिः-विच्छेदस्तदभावात्। उत्त. ५३ २३१| अविलंबियं-अविलम्बितम्, नातिमन्थरम्। भग० २१४१ अवीरिए-अवीर्यः, उत्थानादिक्रियाविकलः। भग० ९५ अमन्थरम्। ओघ. १८७। अनतिमन्दम्। प्रश्न. ११२१ मानसशक्तिवर्जितः। भग. ३२३। अविवन्न-अविपन्नः, अप्राप्तविपत् अवीरिय-अवीर्यः, सिद्धः। भग. ९५१ मन्त्रादिभिरनियन्त्रितः। उत्त० ४७१। अवीसंभो- अविश्रम्भः, अविश्वासः, प्राणवधस्य तृतीयः अविसेस-अविशेषः, विशेषरहितः। भग० ९६१। प्रज्ञा०७४ | पर्यायः। प्रश्न. ५ अविसंधि- प्रवाहे णाव्यवच्छिन्नम्। भग० ४७१। अवीहीपुच्छण-अविधिपृच्छा, वस्त्रपात्राय॒पकरणं अव्यवच्छिन्नम्। आव०७६१। विहारार्थमुद्ग्राह्य पृच्छन्ति। बृह० २४१ अ। अविसंवावण- अविसंवादनम्, पराविप्रतारणम्। उत्त. | अवुन्नं- अपुण्यम्। उत्त० २१० १७१। अवेइअ-अवेदितः, मनसाऽप्यनालोचितः। आव० ४१५) अविसंवायणाजोगे-अविसंवादनायोगः। स्था. १९६| अवोच्छिन्ना- अव्यच्छिन्ना यावदेकोऽपि तिष्ठति अविसादी-अविषादी, चिन्तारहितः, अदीनस्य पञ्चमं तावत्। आव० ७२७ नाम। अन्तः २२ अव्युच्छेदम्- वाण्यतिशयविशेषः, विवेक्षितार्थानां अविसारओ-अविशारदः। प्रज्ञा०६० सम्यक्सिद्धिं यावदनवच्छिन्नवचनप्रमेयम्। सम०६३। अविसुद्धलेस्से-अविशुद्धलेश्यः, कृष्णादिलेश्यः। जीवा० अव्वए-अव्ययम्, व्ययरहितम्। भग० ११९| १४२। विभंगज्ञानः। भग० २८४१ अव्वओ-अव्ययः, अव्ययशब्दवाच्यः। जीवा० १८३१ अविसुद्धो-पासत्थादी तेसिं मज्झातो जो आगतो विहारा- | अव्वते-अव्ययः पर्यायापगमेऽप्यनन्तपर्यायतया। स्था. भिमुहो तस्य जो पुव्वोवही सो अविसुद्धो। निशी० ११३ ३३३। अवयवापेक्षया। स्था० ३३३। व्ययाभावः। भग. अ। ७६० अविसेसियं-अविशेषतम्, विशेषरहितम्। जम्बू०८८1 | अवत्तं-अव्यक्तः, अव्यक्तमतं, अस्फुटमतं, अविसोहिकोडी-अविशोधिकोटिः। दशवै. १६२ संयताद्यवगमे सन्दिग्धबुद्धिः। आव० ३११| अविहम्ममाण-विविधं परीषहोपसगैर्हन्यमानो अव्यक्तम्। औप० १०६। अगीतार्थस्य ग्रोः सकाशे विहन्यमानः, न विहन्यमानोऽविहन्यमानः, न यदालोचनं तत्। स्था० ४८४॥ निर्विण्णः सन् वैहानसं गार्द्ध-पृष्ठमन्यद्वा बालमरणं अव्वत्तगसंचिया-अवक्तव्यसञ्चिताः, द्वय्यादिसङ् प्रतिपद्यत इति। आचा० २५९। ख्याव्य-वहारतः शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽसङ् अविहाड-अप्रगल्भः । व्यव० ३७९ अ। ख्यातव्यवहारश्च सङ्ख्यातत्वेनासङ्ख्यातत्वेन च मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [102] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] वक्तुं न शक्यतेऽसाववक्तव्यः स पौरुष्यामित्यर्थः। व्यव. २२७ आ। चैककस्तेनावक्तव्येन-एककेन एकत्वोत्पादेन अव्वक्कंताई-अव्युत्क्रान्ताः, अविध्यस्तपर्यायाः आचा० सञ्चिताः। भग० ७९६| ३४८१ अव्वत्तलिंगो-अव्यक्तलिङ्गः। आव० ३५२। अव्वुच्छित्तिनयट्ठया-अव्यच्छित्तिनयार्थता, अप्रत्यक्षलिङ्गः। आव. ५६५) द्रव्यास्तिकनय-मतम्। सूर्य. २८६। अव्वत्तस्य-अव्यक्तस्य-अगीतार्थस्य अव्वुच्छिन्ननयहता- अव्यवच्छिन्ननयार्थता, सूत्रार्थापरिनिष्ठितस्य। आचा. १९६| द्रव्यास्तिकनय-मतम्। सूर्य० २५८। अव्वत्तो-जाव कक्खादिसु रोमसंभवो न भवति, ताव | अव्वो- संबोधने, अहम्। व्यव० २०३ आ। अहवा जाव सोलसवरिसो ताव अव्वत्तो। निशी० ८२ अव्वोगडं-अव्याकृतम्, गुरुभिर्विशेषतोऽनाख्यातम्। अ। श्रुतेऽगीतार्थः वयसि अर्वाक षोडशभ्यः। ब्रह. १३२ भग० १००। दायादादिभिरविभक्तं अनन्ज्ञातं वा। बृह. अ। अगीयट्ठो। निशी. १७३ आ। ५० अ। अव्याकृतं नाम दायिनां सामान्य न अव्वया-अव्यया। जीवा. ९९। अव्ययशब्दवाच्या, पुनस्तैर्विभक्तं यदि विकृतं न केनापि विकारमापादितं, मनागपि स्वरूपचलनस्य जातुचिदप्यसम्भवात्। यद् भवेत् पूर्वराजेन संदिष्टं, वंशस्य परम्परया जम्बू. २७। तदारम्भकप्रदेशापरिहाणेः। जम्बू. २५७। समागतम्। व्यव. २७९ आ। अविभक्तम्। व्यव० २७९ अव्ववसितस्य-अव्यवसितस्य अ। अव्यक्तोऽपरिस्फुटः। आचा० ३२० अनिश्चयवतोऽपराक्रमवतो वा। स्था० १७६। अव्वोगडा-अव्याकृता, अविसंसृता। आव० ७२७। कृतेऽपि अव्वहिओ-अव्यथितः, परेणानापादितदुःख। जम्बू भागे निर्देशहीना अंशिका। बृह. १९९आ। अतिगम्भी१२६। जीवा. ९९। आचा० ४२४। अदीनमनाः। दशवै. रशब्दार्था, अव्यक्ताक्षरप्रय्क्ता वा । २३२ अदीणो। दशवै० १२३ असत्यामृषाद्वादशभेदः। प्रज्ञा० २५६। अव्वहे-अव्यथम, देवादिकृतोपसर्गादिजनितं भयं चलनं | अव्वोच्छित्तिणए-अव्यवच्छित्तिनयः, वा व्यथा तस्या अभावो अव्यथम्। स्था. १९२ द्रव्यास्तिकनयः। उत्त०१५) अव्वाबाधं-अव्याबाधम्, केनापि अव्वोच्छित्तिणयद्वया-अव्यवच्छित्तिनयार्थता, विबाधयितुमशक्यत्वात्। जीवा० २५६। वन्दनके तृतीयं अव्यवच्छि-त्तिप्रधानो स्थानम्। आव० १४८ अव्याबाधः, परेषां नयोऽव्यवच्छित्तिनयस्तस्यार्थोद्रव्यमव्यवच्छित्तिपीडाकारित्वाभावाद्विनष्टबाधः। भग०७। नयार्थस्तद्धावस्तत्ता। भग० ३०२ अव्याबाधम्-उपरतसकलपीडं मौक्तम्। उत्त. १७८१ | अव्वोच्छिन्न-अव्यवच्छिन्नम्, अखण्डितम्। आचा० अव्वाबाह- शुक्राभविमानवासी सप्तमो लोकान्तिकदेवः। । ४०५। अव्यवच्छिन्नाः, अनवरतम्। ओघ० १२६| भग० २७१। स्था०४३२। अव्याबाधः अव्वोच्छिन्ना-कृतोऽपि भागे मलराशेरव्यवच्छेदो सप्तमलोकान्तिकदेवः। आव० १३५। अपीडाकारित्वम्। यावत्। बृह. १९९ । सम०५ अव्वोच्छिन्नाओ-अव्यवच्छिन्नाः, व्यवच्छिन्नाअव्वायडा-अव्याकृता, अस्पष्टा अप्रकटार्था, जीवरहिता न व्यवच्छिन्ना अव्यवच्छिन्नाः। आचा० असत्यामृषा-भाषाभेदः। दशवै. २१० ३२३ अव्वावारपोसहे- अव्यापारपौषधः। आव० ८३५ अव्वोयडा-अव्याकृताः, गम्भीरशब्दार्था अव्वाहयं-अव्याहतम्, एकान्तिकमिहपरलोकाविरुद्ध मन्मनाक्षरप्रयुक्ता वाऽनाविर्भावितार्था। भग. ५०० फला-न्तराबाधितं वा। आव० ४१५) अशरणानप्रेक्षा- अशरणस्य-अत्राणस्यात्मनोऽनप्रेक्षा। अव्वाहितो-अव्याहितः, अनाहतः। जीवा. १६६। स्था० १९०१ अव्वितिगिट्ठ-अव्यतिकृष्टे, उद्घाटायां | अशुषिरे- अज्झुसिरे, तृणपर्णायनाकीर्णे। उत्त० ५१८॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [103] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अशून्यान्तरा-न शून्यानि अन्तराणि यासां ता। आव० | असंखयं-असंस्कृतम्। दशकं. १०५| उत्तराध्ययनेषु ३५ चतुर्थमध्ययनम्। उत्त० ९। सम० ६४। अशोकपल्लवप्रविभक्तिः-विंशतितमो नाट्यविधिः। असंखया-असङ्ख्यकाः, सङ्ख्याविरहिताः। उत्त० ३१६) जीवा. २४७ असंखेजजीविया- असङ्ख्यातजीविकाः वृक्षविशेषाः। अशोकलता- लताविशेषः। आचा० ३० भग० ३६४। यथा निम्बाम्रादीनां मूलकन्दस्कन्धत्वक् अश्रयः- (अंस), कोणाः, कोट्यः। स्था० ४३५। छाखाप्र-वालाः। स्था० १२२॥ चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवाः अंखेज्जवित्थडे- असङ्ख्येयविस्तृतः असंङ्ख्येयं विस्तृतं पर्यड्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरं, आसनस्य यस्य सः। जीवा. १०६। ललाटोपरिभागस्य चान्तरम्, दक्षिणस्कन्धस्य असंखेप्पद्धा-असक्षेप्याद्धा, त्रिभागादिना प्रकारेण या जाननश्चान्तरम्, वामस्कन्धस्य दक्षिण सङ्क्षप्तुं न शक्यते सा चासौ अद्ध च। प्रज्ञा० ४८९) जानुनश्चान्तरमिति। जम्बू. १५) असंगहरुई-असङ्ग्रहरुचिः, गच्छोपग्रहकरस्यचतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवाः। स्था० ३५७। पीठादिक-स्योपकरणस्यैषणा दोषविमुक्तस्य अश्रुतनिश्रितम्- यत्पुनः पूर्वं तदपरिकर्मितमतेः लभ्यमानस्यात्मभरित्वेन न विदयते सङ्ग्रहे क्षयोपशम-पटीयस्त्वादौत्पत्तिक्यादिलक्षणम्पजायते रुचिर्यस्यासौ। प्रश्न. १२५१ तत्। आव०९। असंगे-असङ्गः, वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग. अश्वंदमः- वाहकः। उत्त०६२ २००१ अश्विनी- प्रथमं नक्षत्रम्। दशवै. २३६। असंघयणो-आदिल्लेहिं तीहिं संघयणेहिं वज्जितो। अष्टभाग- अट्ठभागो-अष्टमो भागः। भग० ८३२ निशी० १३२ । अहमीपोसहो- अष्टमीपौषध-अष्टम्यां पौषधः असंघातिमो- एगंगिओ। निशी० ७९ अ। उपवासा-दिकोऽष्टमीपौषधः। आचा. ३२७ असंचइआ-असंचयिताः-ये मासिके दवैमासिके अहमीपोसहिया- अष्टमीपौषधिका-उत्सवाः। आचा० त्रैमासिके चतुर्मासिके पञ्चमासिके षण्मासिके वा ३२७ प्रायश्चित्ते वर्तन्ते ते। व्यव० ९७ आ। अष्टापदम्-अट्ठावय, तीर्थविशेषः। आचा० ४१८ आव० | असंचेअयओ-असंचेतयतः, अजानानस्य। ओघ० २२० २८७ बृह० ५ । असंजअ- असंयतः, गृहस्थः। आचा० ३४२ अष्टाष्टकिका- चतुःषष्टिः। व्यव० ३४७ आ। असंजगविसओ-भगवयापडिसिद्धो। निशी. १८ अ। अष्ठीवती-जानुनी। प्रश्न० ८० असंजण-असंगो, अगेही। निशी० ८१ अ। अष्ठीवान-जान्। जीवा० २७० असंजमो-असंयमः, प्राणवधस्य चतुर्दशपर्यायः। प्रश्न असंकमणो-अशकमनाः, न विद्यते शङ्का यस्य अधर्मद्वारस्य षष्ठं नाम। प्रश्न. ४३। मनसस्तद-शङ्कम् अशकं मनो यस्य स। आचा. असंजय-असंयतः चरणपरिणामशून्यः। भग०४९। १२। गृहस्थः । दशवै० २२२ असंयमवान्। प्रश्न० ३० असंकिया- अशकिता। आव० ५६१। असंजलं-जम्बूद्वीपैरवते पञ्चदशतीर्थकरनाम। सम० असंकिलिट्ठ-असक्लिष्टम्, निर्दूषणम्। औप० ५९। १५३ विशुद्ध्यमानपरिणामवान्। प्रश्न. ११० असंजोगरया-असंयोगरताः-संयोगः-सम्बन्धः पत्रकलअसंखडं- कलहः, वैरं वा। बृह० ४८ अ। बृह. ८६अ। त्रमित्रादिजनितस्तत्र रताः निशी० ३१अ। कलहः। (गणि०)। ओघ० ८० संयोगरतास्तदविपर्ययेणैकत्व-भावनाभाविता असंखडबोलो- कलहबोलः। आव०६१४१ असंयोगरताः। आचा० १८० असंखडिओ- असंखडिकः, कलहकारकः। ओघ. १५१| | असंजोगिमे-असंयोगिमः, संयोगिमादविपरीत मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [104] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आदित्यबि-म्बादिः। उत्त० २१२।। असंदीणो- असन्दीनः, सन्दीनादितरः जलप्लावनात् न असञ्झा-असन्ध्या, विगतसन्ध्या। ओघ. २०२१ क्षयमाप्नोति। उत्त० २१ आदित्यचन्द्रमण्यादिः। असण्णी- असंज्ञी-अविदितपूर्वमूदातम्। व्यव. ३७७ आ। आचा० २४७। प्रचूरेन्धनतया विवक्षितकालावस्थायि। असंतई-असन्तानः, असत्ता वा। बृहः । असन्ततिः आचा. २४७। कषतापच्छेदनिर्घटितोऽसन्दीनः। आचा. (त्ता) परिणामविशेषः। आव० ८४८॥ २४८। कुतर्काप्रधृष्यतयाऽसन्दीनः अक्षोभ्यः, प्राणिनां असंतकं-असत्कम्, असदर्थाभिधानरूपत्वात, त्राणाया-श्वासभूमिः। आचा. २४८। द्वितीयाधर्म-द्वारस्य पञ्चमं नाम। प्रश्न. २६) असंधिए-असन्धितः, असंयोजितः। उत्त०२१२ असंतगं-असत्, असद्भतार्थम्। अशान्तं असंधिया- पोरवज्जिता। निशी० १६१ अ। अनुपशमप्रधानम्। अशोभनं वा। प्रश्न १२१। असत्कं- असंनिहिसंचय-असन्निधिसञ्चयः, न विदयते अविद्यमानार्थम्, असत्यमिति। प्रश्न० ३६। सन्निधिरूपः सञ्चयो यस्य सः। जीवा० २७८१ असंतती-भायणवोच्छेदो अभाव इत्यर्थः। निशी० ११६ । | असंपओगचिंता-कथञ्चिदभावे सत्यसम्प्रयोगचिन्ता। आ। आव. ५८५ असंतय- अशान्तकः, अनुपशान्तः, असत्-अशोभनम्। | असंपओगाणुसरणं- सति वियोगे सम्प्रयोगानुस्मणम्प्रश्न.४१ चिन्त-नम्। आव० ५८४१ असंतरणए- असंस्तरणे। ओघ० १४३। असंपग्गहिया-असंप्रग्रहिता-संप्रग्रहरहितता। व्यव. असंतासंते-मार्गितस्याप्यलाभः। बृह० २७२ आ। ३९१ । असंते-असत्, नाभाववचन शब्दोऽयम्। आचा०७४। असंपत्त-असम्प्रात्तः। दशवै. १९४१ असंलग्नम्। जीवा. अवि-द्यमानः। उत्त०६१७ १८१। विशिष्टान् वर्णादीनन्पगतः। जीवा० २३। असंतोसो-असन्तोषः, परिग्रहस्य त्रिंशत्तमं नाम। प्रश्न | असंप्रग्रहः-आत्मनो जात्यादयुत्सेकरूपग्राहवर्जनमिति ९३ भावः। स्था०४२३ असंथडाइं-असंकृतानि, बीजादिभिरव्याप्तानि। उत्त० असंप्रग्रहता-असम्प्रग्रहः, समन्तात्प्रकर्षण जात्यादिप्रकृष्टता-लक्षणेन ग्रहणम्-आत्मनोऽवधारणं असंथडो-छट्ठऽट्ठमादिणा तवेण किलंतो असंथडो, सम्प्रग्रहस्तदभावः। जात्याद्यन्त्सिक्ततेति। उत्त०३९। गेलण्णेण वा दुब्बलशरीरो, दीहठाणेण वा पज्जंतं असंफुरो- असंवृतः। बृह. ३ आ, बृह. २२४ आ। सङ् अलभंतो। निशी. ३१३। कुचितपादो, ग्लानः। बृह. २२९ । असंथरताणं- अणुघटुंताणं। ओघ० ८७। असंबद्ध-असम्बद्धम्, स्वशरीरात्पृथग्भूतम्। जीवा० १२० असंथरमाणा- असंस्तरमाणाः, अतृप्ताः। ओघ० ७८। असंभंते-असम्भ्रान्तम्, असम्भ्रान्तज्ञानः। भग० १४० असंथरे-असंस्तरताम्। ओघ. १५४ असंभवंता-असम्भवन्तः, ते असंथुओ-इय वइरित्तो संणायगो अनायगो वा। निशी. गौरवत्रिकान्यतरदोषाज्ज्ञानादिके मोक्षमार्गे न १२१ ॥ सम्यग्भवन्तः-नोपदेशे वर्तमानाः। आचा० २५० असंदिग्धम्- वाण्यतिशयविशेषः, असंशयकारिता। सम० | असंभासो-असम्भाष्यः। आव. २२११ असंभम- असम्भ्रमः, न भयं कर्तव्यम्। ओघ० ५२। असंदिग्धवचनता- परिस्फुटवचनता। उत्त० ३९। असंमत्तं-असम्यक्त्वम्, द्वाविंशतितमः परीषहः। असंदिदं-असन्दिग्धां, स्पष्टाम्। दशवै० २१३। असन्दि- आव०६५७ ग्धम्-सूत्रस्य द्वितीयगुणः, असंलोए-असंलोके, न विद्यते संलोको-दूरस्थितस्यापि सैन्धवशब्दवल्लवणघोटकाद्य-नेकार्थसंशयकारिन । स्वपक्षादेरालोको यस्मिंस्तत्। उत्त० ५१८ आचा० ३३५ भवति। आव० ३७६। सन्देहवर्जितम्। भग० १२११ असंववहारिए-असांव्यवहारिकः, अनादिकालादारभ्य ४८७ ६३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [105] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते ते | असगडपिया-अशकटपिता, अशकटायाः पिता। उत्त० व्यवहारपथातीतत्वात्। प्रज्ञा० ३८० १३०| नामविशेषः। व्यव० १८ । निशी. १५ असंविग्गा-पासत्थोसण्णो कसीलो संसत्तो अहछंदो। असगडा- अशकटा। उत्त. १२९, १३०| एतन्नाम्नी निशी० ३३ । आभीरपुत्री। दशवै० १०५ असंविभागी-संविभजति-गुरुग्लानबालादिभ्य असगडाताए-अशकटापिता। व्यव० १८ अ। उचितमश-नादि यच्छतीत्येवंशीलः संविभागी, न तथा | असच्चसंघत्तणं-असत्यसन्धत्वम्, असत्यं-अलीकं य आत्मपो-षकत्वेनैव सः। उत्त०४३४। सन्द-धाति अच्छिन्नं करोतीति, तद्भावः। आचार्यग्लानादीनामेषणा-गुणविशुद्धिलब्धं सन्न दवितीयाधर्मदवारस्य षड्विंशतितमं नाम। प्रश्न. २६ विभजतेऽसौ। प्रश्न. १२५ असच्चो-असत्यः, सद्भ्योऽहितः। प्रश्न० ३० असंवुडबउसो- असंवृतबकुशः, यो मूलगुणादिष्वसंवृतः असज्झं(ब्भ)- ग्राम्यवचनं, कर्कशं, कटकं, निष्ठ, सन् करोति, बकुशस्य चतुर्थो भेदः। उत्त० २५६। भग० जकारा-दिकं वा। निशी. ८० आ। ८९० प्रकटकारी। स्था० ३३७। असज्झाइयं-अस्वाध्यायिकम, अशोभन आध्याय एव, असंवुडे- असंवृतः, प्रमत्तः । भग० ३१५१ रूधिरादिकारणे कार्योपचारात्। आव०७३१| असंशुद्धम्-सङ्कीर्णम्। आव० ७६० असढ- शठभावरहितः। ओघ० २२० असंसट्ठा-दायगो असंसद्धेहिं हत्थमत्तेहिं दोतित्ति। असढकारणो- ‘सढ' च्छादने, जो अप्पाणं मायाए ठातिनिशी. १२। असंसृष्टा-अक्खरडिय। स्था० ३८६| असढो होऊणं करणं करीत। निशी. १४९ अ। असंसारसमावण्णा- असंसारसमापन्नाः, मुक्ताः। प्रज्ञा. असढत्तण-अशठत्वम्। आव०५२। १८१ असण-अशनम्, घृतपूर्णादि। आव०८११। असंसारो- असंसारः, संसारप्रतिपक्षभूतो मोक्षः। जीवा. मण्डकौदनादि, आशु-शीघ्रं क्षुधां-बुभुक्षां शमयतीति। न संसारोऽसंसारः, मोक्षः। प्रज्ञा० १८ आव० ८५०। बीजकः। आव० १८६। अश्यत इत्यशनम्, असंहनन-असंघयण, आदिमानां त्रयाणां संहननानाम- ओदनादि। दशवै. १४९। अश्यते-भज्यत इति न्यतमेनापि संहननेन विकलः। व्यव० ११४ । अशेषाहाराभिधानम्। उत्त०६०० अस-अशनरूपाणि। व्यव० १२९ आ। असणवण-अशनवनम्, बीजवनम्। आव० १८६) असई-असकृद्, अनेकधा। उत्त० ३१३॥ वनविशेषः। भग० ३६| असइ-अशतिः, अवङ्मुखहस्ततलरुपा मुष्टिः जम्बू असणि-अशनिः, वज्रम्। दशवै.१६४। आकाशे २४४१ पतन्नग्निमयः कणः। जीवा. २९। प्रज्ञा. २९। असई-असती। ओघ० १४६। संस्तरणाभावे। बृह. १९३ वइरोयणिंदस्य अग्गम-हिसी। भग० ५०४१ स्था० २०४। आ। असणिमेहा- अशनिमेघाः, करकादिनिपातवन्तः, असईपोसणया- असतीपोषणता, असतीः पोषयति। पर्वतादि-दारणसमर्थजलत्वेन वज्रमेघाः। जम्बू. १६८। आव०८२९। करका-दिनिपातवन्तः पर्वतादिदारणसमर्थजलत्वेन वा असक्कओ-असंस्कृतः, न विद्यते संस्कृतं-संस्कारो वज्रमेघाः। भग० ३०६। यस्य सः। असत्कृतः-अविद्यमानसत्कारः। प्रश्न. ४१। | असणे- अशनं, वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१| बीयकः। उत्त. असक्कयमसक्कय-असंस्कृतासक्कृतः, ६५३ अविद्यमानसं-स्कारसत्कारः। न विद्यते संस्कृतं- असण्णातय-असज्ञातीय। आ०८४६। संस्कारो यस्य सोऽसं-स्कृतः, असत्कृतः असतिं-असकृत्, अनेकवारम्। जीवा० १२८१ अविद्यमानसत्कारः। प्रश्न०४१। असत्थ-अशस्त्रम्, सप्तदशभेदः संयमः। आचा०५३। असगडतातो- ज्ञानासहनः। (मरण०) असत्थस्स-अशस्त्रस्य, निरवद्यानुष्ठानरूपस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [106] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] १६४१ संयमस्य। आचा० १५६|| असब्भूय-असद्भुतम् , अनृतम्, आव० १८८५ असद्- अविद्यमानम्। उत्त० ३४७) असभ्यम्-अश्लीलम्। आव०८३४। खरपरुषादि। उत्त. असद्दहंतो-अश्रद्धानः, अश्रद्दधानः। आव०१८१| ३४७ असद्दहणं-अश्रद्धानम्। आव० ५७३। असमंजसं-अननुकुलम्। उत्त० २२६। असद्भुतै - साधोः कर्तृमयुक्तैः। आचा० २४२। असमओ-असमयः, असम्यगाचारः, असनिरूपेण-ईतिरूपो हि पतङ्गादेरापात इति। दशवै. दवितीयाधर्मदवारस्य पञ्चविंशतितमं नाम। प्रश्न २६। असनो-अशनः, बीयकः। आचा०४११॥ असमणपाउग्गो-अश्रमणप्रायोग्यः। आव०७७८। असन्निआउए-असंज्यायुः, असज्ञी सन् परभवयोग्यं असमणुन्न-असमनुज्ञः, आचारागेऽष्टभाध्ययनस्य बद्धमायुः। भग० ५११ प्रथमोद्दे-शकः। आचा० २६०| असमनोज्ञाः, असन्निभूए- असञीमूतिः असजिम्य उत्पन्नः। प्रज्ञा० असाम्भोगिकाः। ओघ० ५४१ ५५८ असमर्था-अतिभारेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुम्। असन्निभूया- असज्ञीभूता, असज्ञिनां या जीयते सा। आचा० ३९१। प्रज्ञा० ३३९। असमाणो-असमानः, न विद्यते समानोऽस्य असन्नी-असज्ञी, मिथ्यादृष्टिरमनस्को वा। प्रज्ञा. गृहिष्वाश्रया-मूर्छितत्वेनान्ययतीर्थिकेषु ३३९। यथोक्तमनोविज्ञानविकलः। प्रज्ञा० ५३३, ४०७) वाऽनियतविहारादिनेति, असदृशः समानो वा साहकारो असबलायारे-अशबलो यस्य सितासितवर्णोपेतबलीवर्द न तथेति। उत्त० १०७ इव कर्बुर आचारो-विनयशिक्षाभाषागोचरादिकः। व्यव० | असमारभमाणस्य-असमारभमाणस्य, २३५ । सङ्घट्टादीनामविषयी-कुर्वतः। स्था० ३२४। असबलो-अशबलः, एकान्तशुद्धः। उत्त० २५७। असमासदोसो-असमासदोषः, समासव्यत्ययः, असब्भं- असभ्यम्, अनुचितं जकारमकारादि। आव. सूत्रदोषवि-शेषः। आव० ३७४। ५८८ असमाहडा-असमाहृता, अनङ्गीकृता। सूत्र० ३१४| असब्भावं-असद्भावम्, अविदयमानाः सन्तः असमाहडाए-अशुद्धया लेश्यया-उद् परमार्थसन्तो भाव-जीवादयोऽभिधेयभूता यस्मिन् गमादिदोषदुष्टमिदतित्येवं चित्तविप्लत्या। आचा. तत्। उत्त० १५१ ३३२ असब्भावगिहंतरं- गृहस्य पार्श्वतः पुरोहडेऽङ्गणे मध्ये | असमाहि-असमाधिः, अस्वास्थ्यनिबन्धना वा। बृह. २३ आ। कायादिचेष्टा। आव०४९९। समाधिः-समाधानंअसब्भावठवणा-एक एवाक्षः पिण्डकल्पनया बुद्ध्या ज्ञानादिषु चित्तैकाग्य, न समाधिः। उत्त०६१४| कल्प्यते तत्। ओघ० १२९। असद्भावस्थापना, चित्तोद्वेगरूपम्। उत्त० ५५१। असद्धावकल्पना। जीवा. १२२१ असमाहिकरो-असमाधिकरः, अस्वास्थ्यनिबद्धनकरः। असब्भावपट्ठवणा-असद्धावप्रस्थापना। आव० १५१| आव० ४९९। असब्भावभावणा-असद्भावभावना। उत्त. १६५, २२३ | असमाहिठाणा-असमाधिस्थानानि, न असब्भावुब्भावणा-असद्भावोद्भावना। उत्त. १५७ आव. चित्तस्वास्थ्यस्या-श्रयाः। प्रश्न. १४४। सम० ३७) ३१४१ असमिक्खियप्पलावी-बुद्धीए अणूहियं पुव्वावरं असब्भावो-असद्भावः। आव० ३२० इहपरलो-यगणद्दोसं वा जो सहसा भणइ। निशी० ८० असब्भूए-असद्भतम् , अभूतोद्भावनरूपमशोभनरूपं वा। आ। असमीक्षितप्रलापी, अपर्यालोचितानर्थकवादी। भग. २३२ प्रश्न.३६ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [107] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] असमीक्ष्य-अनालोच्य। उत्त० ३४७) असासयं- अशाश्वतम्, प्रतिक्षणं विशरारुत्वम्असमोहएणं-अनुपयुक्तेनात्मना। भग० २८९। अनित्यम्। प्रश्न. ९६ असमोहयावि-दण्डादुपरता असमुद्घाता वा। भग० ७६४। | असाहया-असाधुता, द्रोहस्वभावता। उत्त० ११४। असम्मोहे- असम्मोहः, देवादिकृतमायाजनितस्य सूक्ष्म- | असाहू- असाधुः, अपगतभावसाधुत्वः। उत्त० ५८ पदार्थविषयस्य च सम्मोहस्यमूढतायानिषेधात्। स्था० असि-असिः, खड्ग। जीवा. ११७ भग०१८२ प्रज्ञा. ९७। १९ तलवारः। आव० ५८८,४८७, ३६०| खङ्गाभ्यासम्। असरण-अशरणः, शरणरहितः, अर्थप्रापकाभावात्। प्रश्न. ९७। खङ्गः-करवालः। भग० १९१। शस्त्रविशेषः। प्रश्न. ११।अर्थकारकविरहितः। प्रश्न. १९। गृहं नात्र आव० ३६० शरणमस्ती-त्यशरणः संयमः। आचा० ३०३। असिअं-असितम्, कृष्णमशुभं च संसारानुबन्धित्वात्। शरणमनालम्बमानोऽदीन-मनस्कः। आचा० ३०६) आव०४३९। असहीण-असत्। बृह. १८७ अ। अस्वाधीनः, परायत्तः। | असिअएणं-दात्रेण। भग० ६५० आचा०१५२ असिए- असितः-अबद्धः-तैः सार्धं संगमर्वत् भिक्षुः। असहु- सुकुमारो राजपुत्रादिप्रव्रजितः। स्था० १३८॥ आचा० ४३०। अशक्तिष्टः। निशी० ३६० अ। असहिष्णुः। ओघ० १४३१ | असिकच्छप-अस्थिकच्छपः, कच्छपविशेषः। सम० असमर्थः-राजपुत्रादिः। ओघ० १३८५ १३५ असहू-असमर्थः-क्षुत्पीडितः। ओघ० ४४। असिक्खग-अशिक्षकः, चिरप्रव्रजितः। दशवै. ३९। राजादिदीक्षितः। बृह० २२४ अ। रायाजुवराया सेट्ठि असिखेडगं-असिखेटकम्, असिनासहफलकम्। प्रश्न अमच्चपुरोहिया य एते असहू। निशी० १०१ अ। २१॥ भिक्षावेलां प्रतिपाल-यितुमशक्तः। ओघ० ८६। असिचम्मपायं-असिचर्मपात्रम्-स्फुरकः, अथवा असिः असहिष्णुः । आव० ८५८ असमर्थः। ओघ. १९५१ खड्गश्चर्मपात्रं च - स्फुरकः, खड्गकोशको वा। भग० असांव्यवहारिक-छेकः। आव० ५२७। १९११ असाए-असातः, असातोदयकलितः। जीवा० १३० असिचम्मपायहत्थकिच्चगए-असिचर्मपात्रहस्तकृत्वा असाडभूई-आषाढभूतिः, मायापिण्डोदाहरणे कृतः, असिचर्मपात्रं हस्ते यस्य स तथा कृत्यंधर्मरूचिशिष्यः। पिण्ड. १३७५ सङ्घादिप्रयोजनं गतः-आश्रितः कृत्यगतस्ततः असाढए-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कर्मधारयः, अथवाऽसिच-र्मपात्रं कृत्वा हस्ते कृतं असाढा- अषाढा, पूर्वोत्तराषाढानक्षत्रविशेषः। आव १२०। । यैनासौ असिचर्मपात्रहस्तकृत्वाकृतः, प्राकृत्वाच्चैवं असाधू- असाधवः, असंयताः। स्था० ३९९। समासः, अथवाऽसिचर्मपात्रस्य हस्तकृत्यां-हस्तकरणं असामन्नं-असामान्यम्, अनाचीर्णपूर्वम्। सूर्य० २३८५ गतः-प्राप्तो यः स तथा। भग. १९१| आसारजरढा-अकालवृद्धा। ओघ० २१८ असिहो-अशिष्टः, अप्रतिपादितः। प्रश्न. १११ अशिष्टः। असारणा-अवगेषणा। बृह. १५६अ। आव० २१८ असारवणा-अगवेसणा। निशी. १३६ अ। असिणाइ-अन्ये श्रमणादयो येऽम्मग्रपिण्डमशितवन्तः। असारहिए- असारथिकः सारथिरहितः। भग. ३२२१ आचा० ३३७। असारिए-असागारिके| निशी. ३१ आ। असिणाणए-अस्नानतया। आचा० ३६४| असावज्जं-असावद्यम्, आयतनस्य प्रथमः पर्यायः। | असिता- गृहवासविमुक्ता। आचा० २२२॥ ओघ. २२२॥ असिद्ध-न सिद्धः, हेतुदोषविशेषः। स्था० ४९३। संसारी। असासए-अशाश्वतम्, प्रतिक्षणमावीचीमरणेन मरणम्। | जीवा० ४३६। आचा०६६। क्षणनश्वरत्वम्। भग०४६९। असिपंजरं- असिपञ्जरम्, शक्तिपञ्जरम्। प्रश्न०११५ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [108] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] असिपत्त-असिपत्रं, असीनां पत्रम्। विपा०७१। खड् | स्था० १५३ गपत्रम्। जीवा० १०६। असिः-खड्गःस एव पत्रम्। स्था० | असीलया- अशीलता चारित्रवर्जितत्वात्। अब्रह्मणः २७३। असयः-खङ्गास्तद्वद्धेदकतया पत्राणि सप्तदशं नाम। प्रश्न०६६) पर्णानियस्मितत्। उत्त०४६० प्रज्ञा० ८० असुआ-असूया, अव्याजम, ईर्ष्या। दशवै० २४३। परमाधार्मिकेषु नवमः। उत्त०६१४। नवमः। असुइ-अशुचिः अश्रुतिर्वा। प्रश्न०६३। स्नानब्रह्मचर्यादिपरमाधार्मिकः। आव०६५० सूत्र. १२४१ सम० २९। वर्जितत्वात्। अशुचिः, शास्त्रवर्जितो वा अश्रुतिः। भग. असिपुत्रिकः । उत्त०४७ ३०८। स्नानब्रह्मचर्यादिवर्जिताः, अश्रुतयः, असिय-असितः, कृष्णः। प्रज्ञा० ९१ शास्त्रवर्जिताः। जम्बू. १७०| विगन्धं शरीरमलादि। असियअं-दात्रम्। आव० २९५१ जीवा० २८ असियग-असियगम्, दात्रम्। आचा०६१। असुति-अशुचीति, अमेध्यानि मूत्रपुरीषाणि। स्था० ४७६। असिरयणं-असिरत्नम्, चक्रवत्तरेकेन्द्रियपञ्चमरत्नम्। असुद्ध-अशुद्धम्, आधाकर्मादिः। ओघ० १७७। जम्बू० २३८१ स्था० ३९८१ असुन्नकाल- अशून्यकालः नारकभवानुगसंसारावस्थानअसिलट्ठी- असियष्टिः, खड्गलता। विपा० ५६। असिः- कालस्य द्वितीयभेदः। भग० ४७। खड़गः स एव यष्टिः-दण्डोऽसियष्टिः, अथवा असिश्च असुभ-अशुभकार्ये मृतकस्थापनादौ। व्यव० १३९ अ। यष्टिश्च। जम्बू. २६४। असुभजोग-अशुभयोगः, अनुपयुक्ततया असिलायं-विस्वरम्। बृह. २५आ। प्रत्युप्रेक्षादिकरणम्। भग० ३२ असिलिटुं- अश्लिष्टम्। आव० ९९। असुभणाम-अशुभनाम, यदुदयवशात् नाभेरधस्तनाः असिलोगभते-अश्लोकभयम, अकीर्तिभयम्। स्था० पादा-दयोऽवयवा अशुभा भवन्ति तत्। प्रज्ञा० ४७४। ३८९। अश्लाघाभयम्। आव०४७२। असुभत्ता-अशुभता, न शुभता। प्रज्ञा० ५०४। असिलोगो-अश्लाघा, अयशः। आव०६४६। अमङ्गल्यता। भग० २४३ असिव-अशिवम्, व्यन्तरकृतं व्यसनम्। आव० ६२६| | असुभाणुप्पेहा-अशुभानुप्रेक्षा, अशुभत्वं उद्दा-इयाए अभिद्दतं। नि० ९७ अ। निशी. ७५अ। | संसारस्यानुप्रेक्षणं-अनुस्मरणम्। स्था० १८८१ व्यन्तरकृत उपद्रवः। बृह. २३१ अ। देवतादिजनितो | असुभाते- असुखाय-दुःखाय। स्था० १४९। अशुभाय, ज्वरायुपद्रवः। ओघ० १३, १४१ अपुण्यबन्धाय असुखाय वा। स्था० २९२। पापाय, असिवाइखेत्तं-अशिवादिक्षेत्रम्, अशिवादिप्रधानं क्षेत्रम्, -दुःखाय। स्था० ३५८१ आदिशब्दादूनोदरताराजविष्टादिपरिग्रहः। दशवै० ३९| | असुयंग- अश्रुताङ्गम्, नोश्रुताङ्गम्। उत्त० १४४। असिवुवसमणी- अशिवोपशमनी कृष्णस्य चतुर्थी भेरी। | असुय-अश्रुतं परवचनद्वारेण। भग० २००, १९७। आव० ९७ असुर-रौद्रकर्मचारी। उत्त० २७६) असिवोवसमणी-अशिवोपशमनी, कृष्यस्य चतुर्थी भेरी, असुरकुमार-असुरकुमाराः, देवविशेषः। भग० १९७१ षण्मासान् सर्वे रोगोपशमनी। बृह. ५६अ। असुराश्च ते नवयौवनतया कुमारा इव असी-असिः, अस्युपलक्षितः सेवकपुरुषः। जीवा० २७९। कुमाराश्चेत्यसुरकु-माराः। स्था० २८१ हीरो। निशी. १४१। खडगः, यमपजीव्य जन भवनपतिभेदविशेषः। प्रज्ञा० ३९। सुखवृत्तिको भवति, यद्वा साहचर्यलक्षणया असुरकुमारीओ- असुरकुमार्यः, देवीविशेषाः। भग० १९७। असिशब्देन अत्र अस्युपलक्षिताः पुरुषा गृह्यन्ते। असुरदारे-सिद्धायतनस्य द्वितीयं द्वारम्। स्था० २३०। जम्बू० १२२॥ असुरसुरं- असुरसुरम्, अनुकरणशब्दोऽयम्। भग० २९४१ असील-अशीलः, अविदयमानशीलः, सर्वथा सरडसरडं अकरितो। ओघ. १८७। एवंभतशब्दरहितम्। विनष्टचारित्र-धर्मः। उत्त० ३४५। अशीलाः-दुःशीलाः। । प्रश्न० ११२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [109] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] اوا3 असुरा-असुराः, न सुरा असुराः, भवनपतिव्यन्तराः। स्था० २। भवनपतिविशेषः, भवनपतिव्यन्तरा वा। असोगसिरी-पाडलिपुत्ते असोगसिरी राया। निशी० ४४ स्था० १०४। असुरक्मारः। भग० १३५) आ। बृह. १५३ आ। भवनपतिव्यन्तरलक्षणः। स्था० ४६६| असोगा- अशोका, नलिनविजयराजधानी। जम्बू. ३५७। असुरो-असुरः, आसुरभावान्वितत्वाद्, यक्षः। उत्त. नागकुमारेन्द्रस्याग्रमहिषी। भग० ५०४। स्था० २०४। ३६६। भवनवासी। बृह० २६४ अ। असोच्चा-अश्रुत्वा। भग०४२५ आगमानपेक्षम्। भग० असुह-अशुभम्, अशुभस्वभावम्। भग०७२। अशुभः- ४५५ अतीवासातरूपः। असोणिअ-अशोणितम्, रक्तरहितम्। आव०७६४। असुहदुक्खभागी- असुखदुःखभागी, असोत्थो-अश्वत्थः। आव०४१७ दुःखानुबन्धिदुःखभागी। भग० ३०८१ असोयणया-अशोचनता, दैन्यानत्पादनेन। भग० ३५१ असुहया-अशुभदा, असुखदा। आव० २३६। असोयलया-अशोकलता, लताविशेषः। भग० ३०६। असुहिय-असुखितः, अविद्यमानसुहृद् वा। प्रश्न० ४१। असोही-अशोधिः, प्रतिसेवना, स्खलना। ओघ. २२५ असुइअ-असूचितम्, व्यञ्जनादिरहितम्। दशवै. १८११ अस्तमयनप्रविभक्ति-नवमाट्यभेदः। जम्बू० ४१६। असूचया- साक्षात्। स्था० ३०४। अस्तान्ते- अत्यंतंमि, अस्तमयपर्यन्ते। उत्त० ४३५१ असूयपुत्तो-असूयपुत्रः। आव० २११। अस्ति-अत्थि, प्रदेशः। स्था० १५, ४१६) असया-अप्पणो दोसं भासति ण परस्स। निशी. २७८ अस्तिकायः- अत्थिकाय, धर्मादिपञ्चविधास्ति अ। आतगता। निशी. २७८ अ। कायमाश्रित्य कायः। आव०७६७ असूचा-स्फुटमेव परदोषोद्घट्टनम्। बृह. १२८ अ। अत्थिकायधम्म- अस्तिकायधर्म अस्तिशब्देन प्रदेशा असेयं-मुखं। निशी. ८८आ। उच्यन्ते, तेषां कायो-राशिरस्तिकायः स चासौ संज्ञया असोंडो-अमज्जपाणो। निशी० १४४ अ। धर्मश्चेति, गत्युपष्टम्भलक्षणः धर्मास्तिकायः। स्था० असोअ-अशोकः, सुप्रभबलदेवपूर्वभवनाम। आव० १६३। । १५४॥ योऽस्तिकायानां धर्मादीनां धर्मोगत्यपष्टम्भादिः। अरुणदवीपे महर्द्धिको देवविशेषः। जीवा० ३६७। उत्त०५६६। द्विसप्तति-तमग्रहः। जम्बू. ५३५।। वृक्षविशेषः। जीवा० | अस्तिकायाः- अत्यिकाया, अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो २२२। किन्नरव्यंतराणां चैत्यवृक्षः। स्था० ४४२ निपातः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना, अशोकनामदेवः। जम्बू. ३२० लताविशेषः। प्रज्ञा० ३२ अतोऽ-स्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति, बिन्दुसारपुत्र। बृह० ४७ अ। वृक्षविशेषः। मगच्छा० अस्तिशब्देन प्रदेशाः क्वचिदच्यते, ततश्च तेषां वा ८०३। एकास्थिकवृक्ष-विशेषः। प्रज्ञा० ३१। स्था० ७९| काया अस्तिकायाः। स्था० १९६। अस्तीनां-प्रदेशानां मल्लिनाथस्य चैत्यवृक्षः। सम० १५२। विजयपुरस्य सङ्घातात्मकत्वात् कायः। स्था० १५) नन्दनवनोध्याने यक्षः। विपा० ९५ बिंदुसारपुत्तो। अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वम्-अत्थिनत्थिप्पवातपुव्वं, चतुर्थं निशी० २४३ । पूर्वम्। स्था० ४८४। तत्र यवस्तु लोकेऽस्ति असोगचंदो-अशोकचन्द्रः, योगसङ्ग्रहेषु शिक्षायां धर्मास्तिकायादि यच्च नास्ति खरशृङ्गादि तत् दृष्टान्तः। आव० ३७९|| प्रवदति, सर्वं वस्तु स्वरूपेणास्ति पररूपेण नास्तीति असोगदत्तो-अशोकदतः, मायोदाहरणे साकेतरे प्रवदति। नन्दी. १४१५ समुद्रदत्त-सागरदत्तपिता। आव० ३९४।। अस्थानस्थापनम्-अठाणठवणं-अयोग्यतास्थापनम्। असोगललिए- चतुर्थंबलदेवपूर्वभवनाम। सम० १५३। ओघ. १३११ असोगवण-अशोकवनम्। आव० १८६। पुष्करिण्यां अद्विग-अस्थिका कपालिकापर्यायः। व्यव. २०६अ। वनम्। स्था० २३०| वनखण्डनाम। जम्बू. ३२०| भगः | अस्थितकल्पिकः- साधुभेदविशेषः। भग०४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [110] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) अडिमिंजा अस्थिमिंजा अस्थिमध्यरसः स्था० १७० | अमिंजाणुसारी- अस्थिमिंजानुसारि । स्था० ३७५१ अथिरं अस्थिरम् जीर्णम्। आचा० ३९६ | अथिरणाम- अस्थिरणाम यदुदयवशाज्जित्वादीनामवयवानामस्थिरता भवति आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) तत् । प्रज्ञा० ४७४ | अणिह अस्निहः स्निह्यते श्लिष्यतेऽष्टप्रकारेण कर्म्मणेति स्निहः, न स्निहोऽस्निहः, यदि वा स्नियतीति स्निहो रागवान् यो न तथा सोऽस्निहः, उपलक्षणार्थत्वाच्चास्य रागद्वेषरहित इत्यर्थः । आचा. १९१] स्नेहरहितः । आचा० २१० स्निह्यतीति स्निहो, न स्निहोऽस्निह:- रागद्वेषरहितत्वात् अप्रतिबद्धः । आचा० २५८ अस्पृशद्गति - समयप्रदेशान्तरमस्पृशती। आव• ४४१ अफुडिआ - अस्फुटितम् सर्वविराधनापरित्यागः । दशवै० १९६| अस्संजए- असंयतः - गृहस्थः, स च श्रावकः प्रकृतिभद्रको वा आचा• ३२९| असंयताः असंयमवन्तः, आरम्भपरि यहप्रसक्ताः, अब्रह्मचारिणः । स्था० ५२४१ अस्संजतो गिहत्यो निशी. ३० आ अस्संजमो- असंयमः प्राणातिपातादिलक्षणः । आव ० ५१६ | अस्संपडियाए - न विद्यते स्वं द्रव्यमस्य सोऽयमस्वो निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, तत्प्रतिज्ञया । आचा० ३२५ | अस्सकण्णी - अश्वकर्णी, वनस्पतिविशेषः । आचा० ५७ । साधारणवनस्पतिकायिकभेदः । जीवा० २७ अस्सकन्नि साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४| अस्सकन्नी- अनन्तकायभेदः। भग ३००1 भग०८०४१ कन्दविशेषः । उत्त० ६९१ | अस्सतरो अश्वतरः खरतर, एकखुरश्चतुष्पदः । जीवा० ३८ एकखुरचतुष्पदः । प्रज्ञा० ४५१ अस्सपुरं- अश्वपुरम्, पुरुषसिंहपुरम्। आव० १६२। अस्सपुरा- अश्वपुरी, पक्ष्मविजयराजधानी जम्बू. ३५01 अस्सरोनिवाएं- अप्सरोनिपातः, चप्पुटिका जीवा० ३९९ | अस्सलेसा- नक्षत्रविशेष: स्था. 661 अस्सवाणियओ अश्ववणिक्। आव २२० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] अस्सवाहणिया- अश्र्ववाहनिका । उत्तः २७७॥ आव० ५६ । अस्ससेणे- अश्वसेनः सनत्कुमारपिता आव. १६२ पार्श्वपिता आव. १६१। अस्सादणसगोत्ते- आस्वादनसगोत्रम्, अश्विनीनक्षत्रगोत्रम् । सूर्य० १५०| अस्सामिणी- अस्वामिनी । आव० २२४ | अस्सायणे आश्वायनम्, अश्विनीगोत्रम् | जम्बू० १००| अस्सासणे- अष्टाशीतिमहाग्रहे चतुर्दश महाग्रहः । स्था० - ૭૮૧ अस्सासो आश्वासः प्राणिनामेव आश्र्वासनम्, अहिंसायाः पञ्चाशत्तमं नाम प्रश्न० ९९| अस्सिं अयम् । स्था० १३८८ अस्सिंपडियाए- एतत्प्रतिज्ञया एतान् साधून् प्रतिज्ञायउद्दिश्य | आचा० ३६१ | अस्सिलोए अयं लोकः अयं मनुष्यलोकः जीवा० ३४४१ अस्सिणि- अश्विनी, नक्षत्रविशेषः । सूर्य० १३० \ स्था० ७७ | मेतार्य जन्मनक्षत्रम् । आव० २५५ | अस्सीई- अश्विनी, नक्षत्रविशेषः । स्था० ४६९। अस्सेसा अश्लेषा सूर्य० १301 अस्सो अश्व, घोटक, एकखुरश्चतुष्पदः । जीवा० ३८ अर्श: जीवा० २८४ प्रजा० ४५ अहं अर्ध-अधस्तात्। आचा. ६३] अधः- बुध्ने ओघ ० १६८ | अह - एष | निशी० ११८ अ । व्यव० १०७ आ । अयं । निशी० ९२ आ । अहक्खाओ - यथास्थितः । (संस्ता०) अहक्खायं - अथाख्यातम्, अथ शब्दो यथार्थे, आङ्-अभिविधी, याथातथ्येनाभिविधिना वा यत् ख्यातं कथितं अकषायं चारित्रम् प्रज्ञा० ६८। यथाख्यातंयथैवाख्यातम् अकषायम् आव• ७८१ यथैख्यातंयथाख्यातं प्रसिद्धं सर्वस्मिन् जीवलोके, अकषायचारित्रमिति । आव० ७९ । अथ शब्दो यथार्थः, आख्यातं - अभिहितं अथाख्यातम् । स्था० ३२४ | अहगुरु- येन प्रव्राजितो यस्य पार्श्वे अधीतः, रत्नाधिकतरकः । व्यव० ३९५ अ अहछंदो- यथाछन्दः, ययैच्छयैवागमनिरपेक्षं प्रवर्तते यः । आव० ५१८ | [111] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] अहछंदिया- अथाछन्दिका, अव्यापारिता, स्वयं प्रवृत्ता। । एवेष्टो-वल्लभः पूजितो वा येषां ते धर्मेष्टाः, धर्मिणां बृह. २६१ । वेष्टा धर्मीष्टाः। अतिशयेन वा धर्मिणो अहण्णे-अधन्यः। उत्त० ३२९। धर्मिष्ठास्तन्निषेधादधर्मेष्टा अधर्मिष्टा अधर्मिष्ठा वा। अहतह- ययातथं, सूत्रकृताङ्गाद्य श्रुतस्कन्धे भग. ५६० त्रयोदशमध्य-यनम्। आव०६५१। सूत्रकृताङ्गस्य अहम्मिटे- अर्धमिष्ठः, अतिशयेनाधर्मो-धर्मरहितः। त्रयोदशमध्ययनम्। उत्त०६१४| विपा० ४८ अधर्मेष्टः अधर्मो-धर्मविपक्षः-पापमिति स अहत्ता- अधस्ता, गुरुपरिणामता। प्रज्ञा० ५०४। भग० इष्टः-अभिलषितोऽस्येति, यदवा अधर्मग्णयोगादधर्मः, २३। जघन्यता। भग० २५४। अतिश-येनाधर्मः। उत्त० २७४। अहत्थे-यथास्थान, यथावस्थितान् यथार्थान् वा अहम्मियं-आधार्मिक-अधार्मिकाणामिदम। प्रश्न. यथाप्रयो-जनान् भावान् जीवादीन, यथा द्रव्यान, ११० पर्यायान्। स्था० ३५१ अहय- अहतम्, मलमूषिकादिभिरनुपदूषितं, अहप्पहाण- यथाप्रधानः। भग०६७९,६८३॥ यथाप्रधानः, प्रत्यग्रमिति। औप०६६। अव्यवच्छिन्नम्। औप०७४। यो यत्र ग्रामादौ प्रधानः। ओघ०५९। अपरिमलितम्। जीवा० २५४| तंतुम्गतं। निशी० २५३ अहम-अधमम्, जघन्यम्। आव० ५८५। । आख्यानकप्रतिबद्धम्, अव्याहतं, नित्यं, अहमंती- अहं अंता इति अन्तो नित्यानुबन्धि वा। जीवा० २१७। प्रज्ञा० ८९। जम्बू०६३। जात्यादिप्रकर्षपर्यन्तोऽस्या-स्तीत्यन्तः अहमेव अव्याहतम्। भग० १५४। सूर्य. २६७। अपरिभक्तम्। जात्यादिभिरुत्तमतया पर्यन्तवर्ती। स्था० ४७३। भग०२५४१ अहमिंदा-अहमिन्द्राणि, अहं अहं इत्येवमिन्द्राः। सम. अहर-अधरम्, अधः-नरकतिर्यक्। दशवै.२७ नरकः। ४३ आव० ५३२ अहमो- अधमः, मलाविलत्वाऋगुप्सितः। सूत्र०८२ अहरगतिगमणं-अधरगतिगमनम, अध-र्मपोषकं दानं अधर्मकारणत्वात्। स्था० ४९६) अधोगतिगमनकारणम्। प्रज्ञा० ३६८। अहम्म-अधर्म, असंयमः। दशवै०२७१। धर्मविपक्षः- अहराई-अहोरात्रिकी। आव०६४८१ पापम्। उत्त०२७४। धर्मप्रतिपक्षः। उत्त. २४८५ अहवण- अथवा। बृह. १४ आ। विकल्पप्रदर्शने। निशी. अधर्मः, भारहरामायणादिपावस्तं निशी० ४ आ। २९० अ। विकल्पार्थो निपातः। ब्रह) २४६। धर्मविपक्षं विषयासक्तिरूपम्। उत्त. २८५४ | अहवा- अनन्तरम्। निशी. १८ आ। अयं निपातः। निशी. अहम्मक्खाई-अधर्माख्यायिनः, न धर्ममाख्यान्तीत्ये- १६८ आ। वंशीलाः, न धर्मात् ख्यातिर्येषां ते। भग० ५६०/ | अहव्वणवेद-अथर्वणवेदः, चतुर्णा वेदानां चतुर्थः वेदः। अहम्मखाई-अधर्माख्यायी, अधर्मभाषणशीलः। भग० ११२ अधर्मख्या-तिः-अधार्मिकप्रसिद्धिको वा। विपा० ४८१ अहसंथडं-निष्प्रकम्पं चम्पकपट्टादि। बृह. ३१ अ। अहम्मजुत्तं-अधर्मयुक्तम्, पापसम्बद्धम्। दशवै० ५२। | अहसिता- न सहेतुकमहेतुकं वा हसन्नेवास्ते। उत्त० अहम्मपलज्जणे-अधर्मप्ररञ्जनः, अधर्मे हिंसादौ ३४५ प्ररज्यते अनुरागवान् भवतीति। विपा० ४८॥ अहसुद्धो- यथाशुद्धः, निर्दोषोपदेशदाता। बृह० ७१ आ। अहम्माणी-अहंमानी, अहमेव विद्वान् इति अहस्सिरे-अहसनशीलः। उत्त० ३४५ मानोऽस्येति। आव. २४१। अहस्ससच्चे-अहास्यात्सत्यः, हास्यपरित्यागात्सत्यः, अहम्माणुए-अधर्मानुगः, अधर्मान्-पापलोकान् दवितीयव्रतस्य प्रथमा भावना। आव०६५८ अनुगच्छ-तीति। विपा० ४८१ अहाअत्थं- यथार्थम्अहम्मिट्ठा-अधर्मीष्टा अधर्मिष्ठा वा-धर्मः श्रुतरूप | निर्युक्त्यादिव्याख्यानानतिक्रमणेत्यर्थः स्था० ३८८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [112] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अर्थस्यनिर्युक्त्यादेरनतिक्रमेण। स्था० ५१९। अहातच्चे-यथातथ्यो, यथातत्त्वो वा, यथा-येन प्रकारेण अहाउअकाल-यथाय्ष्ककालः, देवाद्यायष्कलक्षणः। तथ्यं सत्यं तत्त्वं वा। भग०७०९। दशवै.९। अहातच्चो-जहेव दिह्रो तहेव जो भवति सो अहातच्चो अहाउनिव्वत्तिकाले- यथायुर्निवृत्तिकालः, यथायेन भवति। निशी० ८६अ। प्रकारे-णायुषो निर्वृत्तिः-बन्धनं, तथा यः कालः- अहापज्जत्तं- यथापर्याप्तम्। भग० १३९। अवस्थितिरसौ। भग० ५३३। अहापडिरूवं- यथाप्रतिरूपम्। आव० १९९| भग०६६१| अहाउयं- यथायुष्कम्, यथाबद्धमायुष्कम्। प्रश्न. १९| अहापदं- यथापदम्। आव० ३५२। यथा-युष्कम्। आव० ११५, २५८। यथायुः अहापरिग्गहिए- यथाप्रतिगृहीतम, यथाप्रतिपन्नम्। आयुषोऽनतिक्रमेण। उत्त. १८८१ भग० १३६। अहाकडं-यथकृतम्, गृहस्थेनस्वार्थनिर्वतितम्। प्रश्न अहापरिन्नायं-यावन्मात्रं क्षेत्रमनजानीषे तावन्मात्रं कालं १२७| ताव-न्मात्रं च क्षेत्रमाश्रित्यवयंवसाम इति यावत्। अहाकडा-आधाकृता, साधूनाधाय–सम्प्रधार्य कृता। बृह. आचा०४०३ ९२ । अहापवत्तं- यथाप्रवृत्तम्। आव० ११५ अहाकप्पं- यथाकल्पम्, प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण अहाबायरा- यथाबादराः, यथोचितबादरा आहारपुद्गला तत्कल्पव-स्त्वनतिक्रमेण वा। भग० १२४१ इत्यर्थः। भग० १८९। यथाबादराणि, कल्पनीयानतिक्रमेण प्रति-मासमाचारानतिक्रमेण वा। स्थूलतरस्कन्धान्य-साराणि। भग० २५१। स्था० ३८८५ अहाबायरे- यथाबादरम्, स्थूलप्रकारम्। भग० २५१| अहाकम्म-यथाकर्म, बद्धकर्मानतिक्रमेण। भग०६५ असारम्। भग०१५४। अहागडा-प्राशुकानि, अल्पपरिकर्माणि। ओघ ९२ | अहाभद्दगो- यथाभद्रकः। आव० ७३९। अहागडे- यथाकृतम्, आत्मार्थमभिनिर्वतितम्। दशवैः | अहाभद्दे- यथाभद्रः, शासनबहुमानवान्। बृह. ३०३ अ। ७२। अहाभदो-दाणरुयी। निशी. १९९ आ। दंसणविरहितो अहाचरा-अधश्चराः-बिलवासित्वात्सप्र्पादयः। आचा० अरहंतेसु तस्सासणे साधू उभयभद्दसीलो। निशी. ३२५ २९१ अहाच्चय-दृष्टिवादे सत्रभेदः। सम० १२८। अहाभावो-स्वपरिग्रहे धारणम्। बृह. २४ आ। अहाच्छंदे-यथाछन्दान, स्वच्छन्दान्। ओघ० ५६। अधाप्रवृत्ति। निशी० २५१ आ। प्रतिस्वामितं-प्रतिअहाछंद- यथाछन्दाः-यथा कथश्चिन्नागमपरतन्त्रतया | गृहीतं न त् भुज्यते यत्पात्रादि। बृह. २८६ आ। छन्दः अभिप्रायो-बोधः। भग. ५०२॥ यथा स्वाभिप्रेतं । | अहामग्गं-यथामार्गम, ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमे तथा प्रज्ञापयन्। निशी. २३ आ। क्षायोपशमि-कभावानतिक्रमेण वा वर्तमानम्। भग. अहाजातो- अप्पोवधी। निशी. १३१ आ। १२४। मार्गः क्षायो-पशमिको भावस्तदनतिक्रमेण। स्था० अहाजायं- रजोहरणमुखवस्त्रिकाचोलपट्टयुतः ३८८५ रचितकरपुटश्च। बृह. १० आ। अहारिणो- मनसोऽनिष्टाः। आचा. २४२ अहाडं- यथाकृतम्, परिकर्मशून्यं। बृह. २०२ आ। अहारियं- यथारीतम्, रीतं-रीतिः-स्वभावः, अहाणी-असीयणं| निशी० ५आ। तस्यानतिक्रमेण वर्तते तत्, यथास्वभावमित्यर्थः। अहातच्चं- यथातत्त्वम्, तत्त्वानतिक्रमेण वर्तमानम्। | भग० २१२॥ यथाऽऽर्यम्। आचा० २७९। यथाऋजु। आचा० भग. १२८ ३८१ सप्तसप्तमिकेत्यभिधानार्थानतिक्रमेणान्वर्थसत्याप- | अहालंद-मध्यममष्टपौरुषीमानम्। बृह. ३५आ। नेनेत्यर्थः। स्था० ३८८ शब्दार्थानतिक्रमेण। स्था० ५३९। | पोरिसी। निशी. १८ अ। जघन्येन । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [113] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] तरुणीदकार्यकरशोषकालः, उत्कृष्टतः पूर्वकोटी बृह ३२ आ । संजोगवर्जिते तृतीयभेदः। निशी. २३९ अ यावन्मात्रं कालं भवाननुजानाति। आचा० ४०३ अहालहुस्सए— स्तोकप्रायश्चित्तदानम् । बृह० २०९ आ । अहालहुस्सगाई- यथालघुस्वकानि, 'यथेति यथोचितानि लघुस्वकानि - अमहास्वरूपाणि, महतां हि तेषां नेतुं गोपयितुं वाऽशक्यत्वादिति यथालघुस्वकानि, अथालघूनि - महान्ति-वरिष्ठानीति वृद्धाः । भग० । अहावच्चा— यथापत्यानि, पुत्रस्थानीयाः । भग० १९७| अहासंयड- णिप्पकपं पट्टे निशी. १७० अ अहासंथडा- अचला। निशी. १६० आ - आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) ६५३| अहासच्चं- यथासत्यम्, इदं यन्मया कथितं कथ्यमानं च अहिकिच्च - अधिकृत्य - आश्रित्य । भग० २४| तद्यथासत्यम् याथातथ्यम्। आचा० १८३३ अहासन्निहिआ यथासन्निहिताः आव १७५ अहासम्म यथासाम्यम्, समभावानतिक्रमेण अहिक्खेव अधिक्षेतः, निन्दाविशेषः । प्रश्न० ४१ अहिगमरुइ- अधिगमरुचिः, विशिष्टं परिज्ञानं तेन रुचिर्य-स्यासौ । प्रज्ञा० ५८ वर्त्तमानम् । भग० १२४ | अहिगमास - अधिकमासः । दशवै० २७० | अहासुत्तं यथासूत्रम् सूत्रानतिक्रमेण स्था० ३८८० सामान्यसूत्रानतिक्रमेण वर्त्तमानम् । भग० १२४ | अहासुहुमणियंठो - यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थः यथासूक्ष्म एतेषु सर्वेषु । उत्तः २५७/ अहासुयं यथाश्रुतं यथासूत्रं वा आचा० ३०१ | अहासहुमकसायकुसील- कषायकुशीलस्य पञ्चमो भेदः । अहिगमो - अधिगमः, विशिष्टं परिज्ञानम्। प्रज्ञा० ५०| ज्ञानम्। आव• ५३०] अभिगमः सेवा सम० ५३३ अहिगरणं- अधिकरणम्, कलहः । सूत्र० ६६ । बृह० १५२ आ। कूटपाशरूपम्। भग० ९३ । अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणं अनुष्ठानं बाह्यं वा वस्तु चक्रमहादि। आव० ६११ | कलहः यन्त्रादि वा । आव ० ६५४१ ज्योतिषादि। आव० ६६२ अनुष्ठानविशेषः, बाह्यं वा वस्तु चक्र-खड्गादि । भग० १९१। अनुष्ठानं बाह्यं वा वस्तु। स्था॰ ४१ वास्तूदूषलशिलापुत्रकगोधूमयन्त्रकादि। आव• ८३१। राटिः। ओ० १८२ भग० ८९० | अहासहुमपुलाए- पुलाकस्य पञ्चमो भेदः । भग. ८९०| यथासूक्ष्मपुलाकः, पुलाकस्य पञ्चमो भेदः । पञ्चस्वपि पुला-केषु यः स्तोकं विराधयति सः। उत्त॰ २५६। अहासहुमबउस बकुशस्य पञ्चमो भेदः । भग०८९० उत्त॰ २५६। यथासूक्ष्मबकुशः, योऽक्ष्णोः पुष्पिकामपनयति, शरीराद्वा धूल्यादिकमपनयति । उत्त० २५६ | 3 अहासहुमे यथासूक्ष्मान् सारान्। भग० १५५ अहि- सर्पः पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः आचा० ५५१ सर्पः। उत्त० ६९९। उरः परिसर्पभेदः । सम० १३५ | परिसर्पविशेषः । प्रज्ञा० ४५१ अहिंडेंतओ अहिण्डमानः, असहिष्णोदेवितीयभेदः । - आव० ८५८० अहिंसा - अनुकम्पा प्रश्न. १०३। प्राणातिपातविरतिः । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित ०२११ अहि- अधिकम्, अहितम्, अपथ्यम् । जम्बू० १६७ | अहिअगामिणि अहितगामिनीम्, उभयलोकविरुद्धाम् । दश- 2341 अहिउत्थ - अभ्युषितः । उत्त० १२० अहिकरणं - अधिकरणम्, गन्त्रीयन्त्रकादिः । भग० १३५ | अहिकरणकरो- अधिकरणकरः, योऽन्येषां कलहयति, द्वादशमसमाधिस्थानम् । आव० ६५३ । अहिकरणोईरण- अधिकरणोदीरणः, योऽन्येषां यन्त्रादीन्युदी -रयीत, त्रयोदशमसमाधिस्थानम् । आव ० [Type text] अहिगरणकिरिया अधिकरणक्रिया, दुर्गतौ ययाऽधिक्रियन्ते प्राणिनः सा प्रश्न. ३७ अहिगरणि- अधिकरणिः सुवर्णकारोपकरणम्। जम्बू २२६| अहिगरणिए अधिकरणकरं कलहकरम्। आचा० ४२५१ अहिगरणिया- अधिकरणिकी- अधिक्रियते नरकादिष्वात्माऽनेनेति अधिकरणं अनुष्ठानविशेषः बाह्यं वा वस्तु चक्रख इगादि, तत्र भवा तेन वा निर्वृत्ता, क्रियाभेदविशेषः । भग. १८१। अधिक्रियत आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणम्-अनुष्ठानं बाह्यं [114] - आगम-सागर-कोषः " [१] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ४६) वा वस्तु चक्रमहादि, तेन निर्वृत्ता क्रिया। आव०६१११ | अहिमर-अभिमरः, अभिमुखमाकार्य मारयति मियते सम०१० वेति। ओघ० १८अभिमुखं परं मारयति यः सः। प्रश्न अहिगरणी-अधिकरणी, यत्र लोहकारा अयोधनेन लोहानि कुट्टयन्ति। भग० २५११ अहिमरका-घातकाः। बृह. ८२आ। अहिगरणे-अधिकरणसिद्धान्तः। बृह. ३१ आ। अहिमार-अधिभारः, वृक्षविशेषः। उत्त.१४३। अहिगारनिउत्तो-अधिकारनियुक्तः। आव०७६८1 अहिमासयम्मि-अधिकमासे। आव० ५५७। अहिगारो- अधिकारः, प्रयोजनं, प्रस्तावः। आव. २७६। अहियं-अधिकं, अहितं वा अधिकं, अपथ्यं वा। भग. ओघतः प्रपञ्चप्रस्तावरूपः। दशवै०२७८। आ-अध्ययन- ३०६। अर्गलम्। उत्त०६२३। अर्गलं, शीघ्रतरम्। उत्त. परिसमाप्तेर्योऽनुवर्तते स। दशवै०१३। नियोगः। प्रश्न. ७ अति-शयेन। जीवा० २२९। जीवा ३५५ अहितम, ६६। प्रयोजनम्। दशवै० १३५व्यव० ४ अ। अश्रेयः। आचा० ३८१ अहिगरिणता-अधिकरणिकी-खड्गादिनिर्वतनी। स्था० | अहियपिच्छणिज्जं-अधिकप्रेक्षणीयम्। आचा०४२३ ३१७ अहियाते-अहिताय, अपथ्याय। स्था० १४९। अपायाय। अहिछत्ता-अहिच्छत्रा-नगरीविशेषः। उत्त० ३७९| स्था० २९२। अपथ्याय। स्था० ३५८१ पार्श्वना-थस्य धरणेन्द्रमहिमास्थानम्। आचा०४१८ । अहियासएज्जा-अधिसहेत, वर्तयेत्, पालयेत्। सूत्र. जङ्गलेषु जन-पदेष्वार्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५ १६४ सङ्गपरिहरणविषये पुरी। आव० ७२३॥ अहियासणा-अभिसहना, उपसर्गसहनम्। आव० ६६०| अहिजजिय-अभियज्ज, वशीकत्य, आश्लिष्य वा। भगः | अतिसहना। आव०७९९। १३२ अहियासेत्तए-अध्यासितम्। दशवै० ९३। अहिज्ज-अधित्य। उत्त० ३६२१ अहियासेमि-अध्यासयामि-वेदनायामवस्थानं करोमि। अहिज्जिउं- अध्येतुम्, पठितुम्, श्रोतुम्, भावयितुम्। स्था० २४७ दशवै०१३८ अहियोगो-अभियोगः, बलात्कारः। बृह. २७ अ। अहिट्ठए- अधिष्ठाता, तपःप्रभृतीनां कर्ता। दशवै० २३८५ अहिरिया-अधिराजा, मौलः पृथिवीपतिः। बृह. ४ अ। अधितिष्ठति यथावत् करोति। दशवै० २५६) अहिरिक्कं-उत्रासनम्। व्यव० १४९ अ। अहिट्ठग-अधिष्ठाता, कर्ता। दशवै. २०६। | अहिरीमाणा- अहीमनसः-अलज्जाकारिणः। आचा० अहिट्ठाणं- अधिष्ठानम्, अपानप्रदेशः। आव० ४१९। २४११ अहिट्ठाणजुद्ध- अधिष्ठानयुद्धम्। आव० ९८४ अहिर्बुध्न-उत्तरभाद्रपदादेवता। जम्बू. ४९९। अहिहित्तए-अधिष्ठात्म-परिभोक्तम्। बृह. २१८ | | अहिलाणं-मुखसंयमनम्। भग० ४८०, जम्बू० २६५। औप० अहिहित्ता-अधिष्ठाय, आरोहणं कृत्वा। दशवै०६१ ७१। मुखसंयमनविशेषः। जम्बू० २३५) अहिठाणि-अधिष्ठाने, अपानप्रदेशे। ओघ०६९। अहिलिंति-समागच्छन्ति। बृह. १०८ अ। अहित-अनुचितविधायी। बृह. २१४। अपथ्यम्। अहिलोडिया- गोपालिकाख्यो हिंसकजीवः। बृह. १९० उत्त० २७६| अहिल्लियाए- अहिन्निका, मैथने दृष्टान्तः। प्रश्न० ८९। अहितुंडए-आहितुण्डिकः, गारुडिकः। दशवै० ३७। अहिवई-अधिपतिः-आचार्यः। ओघ०७४। अहिनंदइ-अभिनन्दति, बह मन्यते। आव० ४९०। अहिवास-अधिवासः-अवस्थानः। भग० ४७० अहिन्नायदंसणे-अभिज्ञातदर्शने-सम्यक्त्वभावनया अहिवासिऊण-अधिवास्य। आव० ३६१। भावितः। आचा०३०४१ अहिसंका-अभिशङ्का, तथ्यनिर्णयः। सूत्र० ३९३। अहिमडे-अहिमृतः, मृताहिदेहः। जीवा. १०६) अहिसक्कणं-उस्सूरे आगच्छति। निशी. १४२आ। अहिमन्त्र-मन्त्रसाधनोपायशास्त्राणि। सम० ४९। अभिष्वष्कणं-तस्यैव विवक्षितकालस्य संवर्द्धनं, परतः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [115] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] करणमित्यर्थः। बृह. २६८ आ। यत्पन्नगस्याड़े तस्येव रूपमाकारो यस्य सः, अहिसरणेहिं-अग्गतो वा सरेति। निशी० ४९ आ। अधःपन्नगार्द्धवदतिसरलो दीर्घश्च। जीवा० २०६। अधःअहिसरिया-अभिसृता। आव० ३७२। अधस्तनं यत्पन्नगस्यार्द्ध तस्येव रूपम्-आकारो यस्य अहिसलागा-मुकुलि-अहिभेदविशेषः। प्रज्ञा० ४६। सः। जीवा० ३६१। अहिसेया-अभिसेका, गणावच्छेदिनी। बृह. २६३ । | अहेऊहिं- अहेतुभिः, क्रियावाद्यादिपरिकल्पितकहेतुभिः। अही-अहिः, सर्प, उरःपरिसर्पविशेषः। जीवा० ३९। प्रज्ञा० उत्त०४४९। ४५) मुकुलि-अहिभेदविशेषः। प्रज्ञा० ४६। सामान्यतः । | अहेवाए-अधोवातः, योऽध उदगच्छन् वाति वातः। सः। सर्पः। जम्बू० १२५ जीवा० २९ अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं अहेविगडे-अधोविकटे-अधः-क्ड्यादिरहिते अहीनप्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरः, प्रतिपूर्णानि छन्नेऽप्यपरि तदभावेऽपि च। आचा० ३०९। स्वकीयस्वकीयप्रमाणतः, प्रतिपण्यानि वा-पवित्राणि | अहेवियर्ड-पार्श्वतोऽपावृतं गृहम्। बृह. १८१ अ। पञ्चेन्द्रियाणि-करणानि यस्मिंस्तत्तथा, अहीनम- अहेसणिज्जे-यथाऽसावदगमादिदोषरहित एषणीयो गोपाङ्गप्रमाणतः प्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियं प्रतिपण्य भवति तथाभूतो दुर्लभः। आचा० ३७६। यथाऽसौ पञ्चेन्द्रियं वा शरीरं। स्था० ४५८ मूलोत्तरगुण-दोषरहितत्वेनैषणीयो भवति, तथाभूतो अहीणपुन्नपंचिंदियशरीरं- अहीनानि स्वरूपतः पूर्णानि दुर्लभ इति। आचा० ३६८१ सङ्ख्यया, पुण्यानि वा पूतानि। पञ्चेन्द्रियाणि यत्र | अहेसि-अभूवम्। आव० १४६। अभूत्। उत्त०४९६| तत्तथा तदेव-विधं शरीरं यस्य सः। भग० ५४१। अहो- अधः, अर्वाक्। आव० ८२७। दीणभावे, विम्हए, अहीणो-अहीनः, प्रकृष्टः, अधीनोवास्वायत्तः। प्रश्न. आमंतणे य। दशवै. ९६। उदगस्रोतोऽनुकुलम्। निशी. १३६| अहीनग्रहणं-समग्रहणम्। व्यव० ८६ आ। अहोकायं-अधःकायः पादलक्षणः। आव० ५४७) अहीलणिज्ज-अहीलनीयम्, अवज्ञातुमनुचितम्। उत्तः । अहोत्था-अभूत्। उत्त०४७५ ३६५ अहोधारं- अहतधारा वर्षा। आव. २९१। अहुणुव्वासिय-अधुना यदुद्वसितम्। ओघ० ५७। अहोधिय-नियतक्षेत्रविषयोऽवधिस्तद्रुपं ज्ञानदर्शनम्। अहुणोत्तणो-अधुनातनः। आव० ४२१। स्था०४७३ अहुणोववन्ने-अधुनोपपन्नः, अचिरोपपन्नः। स्था० | अहोरत्ता- अहोरात्राः-त्रिंशन्महतप्रमाणाः। स्था० ८६। १८७ अहोरत्ते- अहोरात्रम्। भग०८८ अहमरेतो- उपद्रवन्। आव० २७३। अहोराइयाभिक्खुपडिमा- अहोरात्रप्रमाणा एकादश भिक्षु अहे- अधः, आकाशः। सूर्य० ४५। अथ शब्दार्थे। बृह. प्रतिमा। सम० २११ १७९| आमन्त्रणार्थो निपातः। भग० ४६०। अथ-आनन्त- | अहोलोए-अधोलोकः, तिर्यग्लोकस्याधस्ताल्लोकः। र्यार्थोऽयं शब्दः। भग० ८३, ८६। गर्तायाम्। उत्त० २१३ | प्रज्ञा० १४४ भूमिलते। प्रज्ञा० ८० अधः। स्था० १६२। अथेतिपरि- अहोलोयतिरियलोए-अधोलोकतिर्यग्लोकः, प्रश्नार्थः। स्था० ४०६। अधः-अधस्तात् नीचैः। भग० यदधोलोकस्यो-परितनमेकप्रादेशिकमाकाशप्रदेशप्रतरं २६९। अथशब्दश्चेहपदत्रयेऽपि त्रयाणामप्याश्रयाणां यच्च तिर्यग्लोकस्य प्रतिमा-प्रतिपन्नस्य साधोः कल्पनीयतया तुल्यता- सर्वाधस्तनमेकप्रादेशिकमाकाशप्रदेशप्रतरम्, प्रतिपादनार्थः। स्था० १५७। यथार्थः। स्था० ३२४। एतद्वयमपि। प्रज्ञा० १४४। अथशब्दार्थे। बृह. १७९ अ। आधाकर्म। ब्रह० ८३ । । अहोवाए-अधोवातः, अध उदगच्छन् यो वाति वातः सः। अहेपन्नगद्धरूवो-अधःपन्नगार्द्धरूपः, अधस्तनं प्रज्ञा०३० ६३आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [116] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] अहोविहारो- आश्चर्यभूतो विहारः। आचा० १०७ अहोवेइया- अधोवेदिका, यत्र जान्वोरधो हस्तौ कृत्वा प्रतिलिख्यते सा। ओघ० ११० जाणू हेट्ठाओ हितेसु हत्थेसु पडिलेहेति। निशी. १८२ अ। अहोसिरा-अधःशिरसः, अधोमुखाः। जम्बू. १५४| -x-x-x-x आ आंगुल-व्याक्षिप्तः। निशी. ३४७ अ। आंटरगमादि-वनस्पतिविशेषः। निशी. १५७ अ। आइं-निपातः। भग०६७५। विस्मयतश्चर्यन्ते। स्था० ५२३। वाक्यालङ्कारे। भग० १७६। वाक्यालङ्कारार्थः। प्रश्न. ११७। अलङ्कारे। प्रश्न. १२६। वाक्यालङ्कारे, अवधारणे वा निपातः। उपा०२७ आदिः-धर्मस्य प्रथमा प्रवृत्तिः। जीवा० २५५। गणितप्रक्रियाया आदिः (अंगांकसंख्या-न्यासः)। सूत्र. ९| यस्मात्परमस्ति न । पूर्वम्। अनुयो० ५४। स्वभेदः। अनुयो० ३४॥ आइंखिणिया- डोम्बी तस्याः-कुलदैवतं घंटीकयक्षोनाम स प्रष्टः सन् कर्णे कथयति, सा च तेन शिष्टं-कथितं सदन्यस्मै कथयति, घंटिय सिहँ परिकहेइ। बृह० २१५ आइच्चजसे-आदित्ययशा, भरतचक्रिप्तः। स्था० ४३० आइच्चसंवच्छरे-आदित्यसंवत्सरः, युगभाविसंवत्सरविशेषः। सूर्य. १६८१ 'पुढविदगाणमित्यादिलक्षणः संवत्सरविशेषः। सूर्य १७१। आइज्ज-आदेयः-रम्यः। प्रश्न० ८३। आइज्जा-आदेया, दर्शनपथमुपगता, उपादेया सुभगा च। जीवा. २७१। आइट्ठ- विशिष्टम्। बृह. ६६अ। आविष्टा-अधिष्ठिता। स्था० ३२८१ आइ(य)इढि-आत्मर्द्धिः, आत्मशक्तिः, आत्मलब्धिर्वा । भग० १०७, ४९२ आइणग-चर्ममयं वस्त्रम्, जम्बू०३६। मूषकादिचर्मनिष्पन्नानि। आचा० ३९४। आजिनक-चर्ममयो वस्त्रविशेषः। भग० ५४०। आइण्णं-आकीर्णम्, समन्तान्निक्षिप्तम्। भग० १५३। सम्बाधनं स्त्रीस्पर्शादिदोषाः। ओघ०४८ आचीर्णम्। निशी० १५७ अ। भावितकुलम्। बृह. २७० अ। आइण्णंतो-प्रोतयन्। आव० ४२७ आइण्णपोग्गलं-जं काकसाणादीहिं अणिवारियविप्पकिण्णं (मांस) णिज्जति। निशी ७२ । आइण्णा- आकुला। निशी. १८६ अ। साधूण कप्पणिज्जा। निशी. १८६ अ। संकुला। आचा० ३३१। आइण्णे-आकीर्णः, गुणैर्व्याप्तः। जीवा० २७०। जात्यः। औप०७१। खित्तमिव खलियं गणेहिं जयविजयाईहिं आपूरिओ, अस्सो जातिरेव वा। दशवै० १६५ आइद्ध-आरब्धं। (मरण०) आदिग्धः, आलिगितः। प्रश्न०४१। अविद्धः, प्रेरितः। आव०६०२। आइन्नं-आचीर्णम्, आसेवितम्। आचा० ५। आयरियपरंप-रएणं वालंकलाओ आदिण्णं णिम्मीसोवक्खडं आसेवितं तं आइन्नं। निशी. १५७ आ। आत्मीयात्मीयाssवास-मर्यादान्लंघनेन व्याप्ताः। भग० ३७। कल्प्यम्। पिण्ड० १६५। आकीर्णम्राजकुलसखडय्यादि। दशवै. २८० आइन्नवर- जात्यधानः। भग० ३२२, ४८१। आइन्नसंलिक्खं-स्त्र्यादिचित्राकीर्ण। आचा० ३८१ । आइअत्ती-सार्थचिन्तकः। बृह. २४९ अ। आइक(ग)रे-आदिकरः, आदौ-प्रथमतः श्रुतधर्मम्आचा-रादिग्रन्थात्मकं करोति-तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवं-शीलः। भग०७। आइक्खंति-आख्यान्ति, सामान्यतः कथयन्ति। भग. ९८। ईषद् भाषन्ते। स्था० १३६। आचक्षते। आचा० १७८। आइक्खगा-आख्यायकाः, शुभाशुभकथकाः। जम्बू. १४२॥ यः शुभाशुभमाख्याति। प्रश्न० १४१] आइक्खणं-संहितोच्चारणम्। बृह. २५ अ। आइक्खिए-मातंगविद्या यद्पदेशादतीतादि कथयन्ति डोण्ड्यो बधिरा इति लोकप्रतीताः। स्था०४५१| आइगर-आदिकरः, ऋषभनामा भगवान्। उत्त०६२०/ आइच्च-आदित्यः, अर्चिमालिविमानवासी द्वितीयो लोका-कान्तिकदेवः। भग० २७१। आदित्मासो येन कालेनादित्यो राशिं भुंक्त। सम० ५६। आदित्यः। आव. १३५। सूर्य २९२। आइच्चजसाई-आदित्ययशःप्रभतिः। नन्दी. २४२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [117] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आइन्ना-आकीर्णानि, गुणवन्ति। जम्बू० २३२॥ आउं- वैदयकम्। आव.६६० भवस्थितिहेतवः कर्म पद आइन्ने-आकीर्णः, आकीर्यते-व्याप्यते गलाः। आचा० १०२ विनयादिभिर्गुणैरिति जात्यादिगुणोपेतं। उत्त० ३४९| | आउंटणं-आकुञ्चनम्, गात्रसङ्कोचनलक्षणम्। आचा० व्याप्तः। उत्त० ३४८1 ५७४। आइन्नो-आकीर्णः, सङ्कीर्णः, गुणव्याप्तो मनुष्यजनः। | आउंटणपसारणं-आकञ्चनप्रसारणम्। आव० ८५३। औप० २। विनीतः। उत्त०४८१ आउंटियं-संकोचितम्। भग०६३१॥ आचार्यगुणैराचारश्रुतसंपदादिभि-र्व्याप्तः-परिपूर्णः।। आउ-आयुः, स्थितिः। भग० २३६। उताहो। बृह० २१० अ। उत्त० ५५० एति-उपक्रमहेतुभिरनपवर्त्यतया यथास्थित्यैवान् आइमउ- आदिमृदु, प्रथमतः कोमलम्। अनुयो० १३१।। भवनीयतां गच्छतीति। उत्त० ३३५। जीवितं। स्था० आइमूलं- वृक्षादिमूलोत्पत्तावाद्यं कारणम्। आचा० ८७ १०८। आयः, कर्मविशेषः। स्था० २२० आइयणं- अदनं, भक्षणम्। आचा० ७२६। व्यव० १८० अ। | आउकाए- अप्कायः, पूर्वसमुद्रः, पश्चिमसमुद्रो वा। सूर्य भोजनम्। बृह. १२६ आ। समुद्देशनम्-भोजनम्। बृह. ४७ ४ आ। आपानम्। बृह० ३४ अ। स्था० ३३१। भूयः आउक्खएणं- आयुःक्षयेण, आयुःपूर्णीकरणेन। आचा० प्रत्यापिबति। बृह. १८५ आ। ४२११ आइयंति-आददति, गृह्णन्ति, बध्नन्तीत्यर्थः स्था० आउखेम- आयुःक्षेम-आयुषः सम्यक् पालनं। आचा० ३२० २९० जीवितं। आचा० २९१। आइयति-आदत्ते। उत्त० १९८१ आउज्जं-आतोद्यम्, वादित्रं, मृदंगादि। आव० ५२८। आइलं-आविलम्-गइलम्। जीवा० ३७०। पटहभेरीवंशवीणाझल्लर्यादीनि। आचा०६१। आइल्लचंदसहिय- उद्दिष्टचन्द्रसहितः। सूर्य० २८० आउज्जंगं-आतोद्याङ्गम्, आतोदयकारणम्। उत्त. आइसुए-आदिश्रुतः, सामायिकादिश्रुतः। बृह. ३८ आ। १४३ आइसुयं-पञ्चमङ्गलम्। बृह. २४९ आ। आउज्जिय-आयोगिकः, उपयोगवान, ज्ञानी। भग. १४० आइस्सइ-आविश्यते-अधिष्ठीयते। भग०७४९। आउज्जिया-आयोजिका, आ-मर्यादया केवलिदृष्ट्या आई-आदिः, संसारः, धर्मकारणानां वाऽऽदिभूतं शरीरम्। | योजनं-शुभानां योगानां व्यापारणम्। प्रज्ञा०६०४। सूत्र.१६२ सामीप्यम्, व्यवस्था, प्रकारः, अवयवश्च। | आउज्जियाकरणं-आयोजिकाकरणम्। प्रज्ञा०६०४। प्रश्न.७ निवेशः। औप.११ आउज्जीकरणं-आवर्जीकरणम, उदीरणावलिकायां आईए- आतीतः, आ-समन्तादतीव इतो कर्मप्रक्षे-पव्यापाररूपम्। औप. ११० आवर्जितकरणम्। गतोऽनाद्यनन्ते संसारे। आचा. २८५। प्रज्ञा०६०४१ आईणं-आजिनकम्, चर्ममयं वस्त्रम्। जीवा. १९२ आउज्जो-आवर्जः, आत्मानं प्रति मोक्षस्याभिमुखीकरणं आईणगं-आजिनकम्, चर्ममयं वस्त्रम्। जीवा० २१० आत्मनो मोक्षं प्रत्युपयोजनमिति, अथवा आवय॑तेऔप०११। जम्बू. ५५) जम्बू. १०७। निरया० १। अभि-मुखीक्रियतेमोक्षोऽनेनेति वाआईय-आ-समन्तादतीव इतो-गतोऽनाद्यनन्ते संसारे शुभमनोवाक्कायव्यापारविशेषः। प्रज्ञा० ६०४। भ्रम-णम्। आचा० २८६) आउट्ट-आकुट्टम, आलजालम्। उत्त० १४६। आवर्जितः। आईयडे-आ-समन्तादतीव इताः-ज्ञाताः परिच्छिन्ना बृह. ३४ आ। जीवा-दयोऽर्था येन सोऽयमातीतार्थः आदत्तार्थो वा, आउट्टइ-आवर्तते, प्रवर्तते। भग. २८९। यदिवाs-तीताः-सामस्त्येनातिक्रान्ता अर्थाः आउट्टणं-आकम्पनम्, बृहपृ०८५। प्रयोजनानि यस्य स तथा, उपरतव्यापारः। आचा० आउट्टणया-आवर्तना, आवर्तना, आवतते-ईहातो २८६। | निवृत्यापायभावं प्रत्यभिमुखो वर्तते येन मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [118] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] बोधपरिणामेन सः, तद्भावः, अपायपर्यायः। नन्दी. | २५०। आकुट्टयति, ताडयति। जम्बू. २२४। आकुट्टयति। १७६| भग० १७३। आवद्दति-निवर्तते। सूत्र. १९०| आवर्तते-निवर्तते । आउत्त-आयुक्तम्, उपयोगपूर्वकम्। भग० १८४। सम्यक् तमालोचयतीत्यर्थः। स्था० १३९। करोति। निशी० २५६ प्रवचनमालिन्यादिरक्षणतया। प्रज्ञा० २६८। उपयुक्तः। । स्था०४०९। प्रयत्नपरो मरणाराधनयुक्तः। उपयुक्तः। आउट्टा-आराधिता। बृह. ११२ । आवर्जिता। ओघ० ओघ. २०२। उपयोगतत्परम्। ओघ० १७६। आयुक्तः । १५९| व्यव. २६६अ। आउट्टामो-प्रवर्तामहे। आचा० ३३१| आउत्तगो-आवर्तकः। उत्त० ३०४। आउट्टावेज्ज-अभिमुखयेत्। आचा० ३६४। आउत्तियं-आयुक्तिकम्। उत्त० ११९। आउट्टिआए-आकुट्या-उपेत्य। सम० ३९। आउत्तो- आयुक्तः, व्यवस्थितः। दशवै. २२६। आउट्टिज्जमाणं-आकोट्यमानम्, सङ्कोच्यमानम्। सूत्र | आउय-आयुष्कम्, जीवितम्। आव. ३४१| २९८ आयुष्ककालः, देवाद्यायुष्कलक्षणः। आव० २५७। आउट्टि-उपेत्य। व्यव. १६ आ। आउयकम्मस्स गालणा-आयुःकर्मणो गालनं, आउट्टिय- ज्ञात्वा। आव० ७५८। उत्तमार्थकृतः। आहारः। प्राणवधस्य द्वादशः पर्यायः। प्रश्न. ५१ निशी. १७ आ। आउयकम्मस्स णिहवणं- आयुःकर्मणो निष्ठापनम् आउट्टिया-आउट्टिया नाम आभोगो जानान इत्यर्थः। प्राणवधस्य द्वादशः पर्यायः। प्रश्न. ५। निशी. ५९ आ। आवर्जिताः। बृह. १८६ आ। आउयकम्मस्स भेय-आयुःकर्मणो भेदः, प्राणवधस्य आउट्टी-समाधानम्। बृह. १२३ आ। द्वादशः पर्यायः। प्रश्न०५ आउट्टे- कर्तुमभिलषेत्। आचा० ४१७। निवर्तयेत्। आउयकम्मस्स संवट्टगो-आयुःकर्मणः संवतकः, आचा० १११। आवर्तयेत्-अनुकूलयेत्। व्यव० २८२ आ। प्राणवधस्य द्वादशः पर्यायः। प्रश्न ११ आवृत्तः-व्यवस्थितः। आचा० २७९। समन्तात् आउयकम्मस्सुवद्दवो- आयुःकर्मण उपद्रवः, प्राणवधस्य व्यवस्थितः। आचा० २७९। द्वादशः पर्यायः। प्रश्न. ५ आउट्टेउं-आवज़ं। बृह. ३४ अ। आउयबंधद्धा-आयुबन्धाद्धा। प्रज्ञा० ४८९। आउट्टो- व्यावृत्तः। उत्त० ३३२। आवर्जितः। हृष्टः। उत्त | आउयसंवट्टए-आयुःसंवर्तकः-आयुरुपक्रमः। स्था०६७। ३३२। स्वस्थः। उत्त० ३५५ आव० २२०| उत्त० १०८५ | आउर-आतुरः, शरीरसमुत्थेनागन्तुकेन वा व्रणेन आवृत्तः। आव० १७८, २९४, ५३६, २८७। उत्त०३२४। ग्लानः। दशवै० २७०। क्षुधापिपासया वा पीडितः। व्यव. आवर्जितः। आव० ४१२। २३ आ। दृष्टान्तः। निशी० २०२ आ। आत्रः, आउडिज्जमाण- 'जुड'बन्धने, इतिवचनाद 'आजोड्यमा- क्वचिदपिस्वा-स्थ्यमलभमानः सन् आकुलः। जीवा. नेभ्यः' आसम्बध्यमानेभ्यो मुखहस्तदण्डादिना सह १२२ आतुरः-दुःखः। भग०७०५। ग्लाने सति शङ्खप-टझल्लर्यादिभ्योवाद्यविशेषेभ्य प्रतिजागरणार्थं (प्रति-सेवा)। स्था० ४८४| आकुट्यमानेभ्यो वा। एभ्य एव ये जाताः। शब्दास्ते, अत्यन्ताकुलतनः। उत्त०८६) कामेच्छाऽन्धाः। आचा. आजोड्यमाना आकुट्यमाना एव वोच्यन्ते, २३८ प्रतिसेवनाभेदः। भग० ९१९। आतुरः, चिकित्साया अतस्तानाजोडय्यमानाकुट्यमानान् वा शब्दान् अविषयभूतः। विपा० ७६। चिकित्साया अविषयभूतो श्रृणोति, इह च प्राकृतत्वेन शब्दशब्दस्य रोगी। बृह. २८१ आ। मर्तुकामः। उत्त० २७३। नपुंसकनिर्देशः, अथवा आकुट्यमानानि आउरपच्चक्खाण-प्रकीर्णकनाम। आव०८०४| श्रुतप्रत्यापरस्परेणाभिहन्यमानानि। भग० २१६) ख्यानम्।आव०४७९| अस्वास्थ्यमनाः। आचा०७२। आउडेइ-आजुडति, सम्बद्धं करोति, लिखति। जम्बू० | आतुरः-चिकित्साक्रियाव्यपेतः तस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [119] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] प्रत्याख्यानवर्णनम्। नन्दी० २०६। आउस्सियकरणं-आवश्यककरणम्, आवर्जिकरणम्। अपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानम्। आव० ४७९। प्रज्ञा०६०४१ आउरसरणं- आरोग्गसाला। दशवै. ५१ आउहं-आयुधम्, क्षेप्यं शस्त्रम्। प्रश्न०४७। अक्षेप्यम्। आउरस्सरण-आतुरशरणम्, दोषातुराश्रयदानम्। दशवै. विपा० ४६। खेटकादि। जीवा० २५९। क्षेप्यास्त्रम्, भग० १९८1 आतुरस्मरणम्, क्षुधाद्यातुराणां १९४| शस्त्रम्, अथवाऽऽयुधं-अक्षेप्यशस्त्रं खड्गादि। पूर्वोपभुक्तस्मरणं चानाचरितम्। दशवै०११७) भग० ३१८ आउरीभूएहिं-आकुलीभूतैः, आतुरीभूतैः। बृह. ३८ अ। आउहसाला- आयुधशाला-शस्त्रागारम्। आव० १४८१ आउल-आकुलम्। व्यग्रम्। आव० ५८५। प्रचुरम्। भग० आऊ-आयुः, एति-आगच्छति प्रतिबन्धकतां ९५। गडुलं, आविलं वा। सम० ५३ स्वकृतकर्म-बद्धनरकादिकुगतेर्निष्क्रमितुमनसो आउलगमणं- आकुलगमनं-एकत्र मिलिता गच्छन्ति। जन्तोरिति। अथवा आसमन्तादेति-गच्छति भवाद् ओघ० १२६॥ भवान्तरसक्रान्तौ विपाको-दयमिति वा। प्रज्ञा०४५४| आउलमाउलं-आकुलाकुलम्, आए- अनन्तकायः-कुहणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। आत्मना। स्त्र्यादिपरिभोगविवाहयुद्धा-दिसंस्पर्शननानाप्रकारम्। स्था० १३९ आव० ५७४ आएस- प्राघूर्णकः। ओघ०६७ निर्देशः। निशी. १९ आ। आउला-आकुला, त्वरमाणा। बृह० ६५अ। प्राघूर्णक आयातः। ओघ० १०१। आज्ञा। निशी. २८५ आउलाकुल-आकुलाकुलः, अतिव्याक्लः। प्रश्न. ५० आ। आदेश-कृत्रिमकृतभृकुटीभंगादयः। आचा० ९१। आउली- तडवडावृक्षः। जीवा० १९१| प्राघूर्णकः। आचा० १३९, ३५२। कर्मकरादिः। आचा० आउलो-आकुलः, अभिभूतः। आव० ५८९। ४१५ व्यापारनियोजना।आचा० ३१८ दृष्टांतः। आचा० आउसं- आयुः-जीवितं तत्संयमप्रधानतया प्रशस्तं प्रभूतं २६२ आदिश्यते इत्यादेशः आचार्यपारम्पर्यश्र-त्यायातो वा विद्यते यस्यासावायुष्मांस्तस्यामन्त्रणम्। स्था० ७) वृद्धवादो, यमैतिह्यमाचक्षते। आचा० २६२। वृद्ध-वादः। आउसंत- आयुष्मान्, चिरजीवी। दशवै० १३७। आवसन् आचा० २६३। प्राघूर्णकः। स्था० १३८1 उपचारो, व्यवहारः गुरुमूलमावसन् वा। दशवे. १३७।। (देशे प्रधाने च)। स्था० २२३। आदेशः, विशेषः, आङिति आउसंतेणं- आजुषमाणेन, श्रवणविधिमर्यादया गुरून् मर्यादया विशेषरूपानतिक्रमात्मिकया दिश्यते-कथ्यत सेव-मानेन। उत्त० ८० भगवतेत्यस्य इति। उत्त० ३२॥ प्राघूर्णकसाधुः। आव० २६३। प्राघूर्णकः। विशेषणमायुष्मता-चिर-जीवितवता। सम० २। ओघ. १८३। आदेश:-प्रकारः सामान्यविशेष-रूपस्तत्र श्रवणविधिमर्यादया गुरूनासेवमानेन। स्था० ९। चादेशेन-ओघतो द्रव्यमात्रतया न त् तद्गतसर्वआयुष्मदन्ते, आयुष्मता। नन्दी० २१२। आजु-षमाणेन-। विशेषापेक्षयेतिभावः, अथवा आदेशेनप्रीतिप्रवणमनसा। सम० २। हे आयुष्मन्। सम० २।। श्रुतपरिकर्मिततया। भग० ३१७। आदेशः, कथनम्। नन्दी० २१२। आमृशता-गुरूक्रमयुगलं संस्पृशता। सम० उत्त० १४७। संखडिविषयो दृष्टान्तः। ब्रह. १३५आ। २। गुरुकुलमावसता। दशवै० १३७। आवसता गुरुकुले। प्राघूर्णकः। निशी० १४ आ। पाहण्णकं। निशी० २९३ आ। सम. आयुष्मन्, शिष्यामन्त्रणम्। उत्त०८० प्राघूर्णकः। बृह. १९५अ। प्रायश्चित्तप्रकारः। बृह. ९८ आउसंवट्टणं-आयुरुपक्रमः। निशी. २७४ अ। आ। अस-त्यार्थादेशः। प्रश्न०१७। विध्यन्तरम्। दशवै. आउसणाहि-आक्रोशना मृतोऽसि त्वमित्यादिभिर्वचनैः। १३। व्यपदेशः। आचा० ७४। अभ्यर्हितः प्राहुणकम्। भग० ३८३ उत्त० २७२। अधि-कारः। बृह० २७६ आ। अनुज्ञा। व्यव० आउसेइ-आक्रोशयति, शपति। भग० ३८३। ३४६ अ। उपचारः, व्यवहारः, स च बहतरे प्रधाने आउसो- आयुष्मन्, पुत्रादेरामन्त्रणम्। भग० १३५) वाऽऽदिश्यते। स्था० २२३। नयान्तरविकल्पः। व्यव० आउस्स-आक्रोशः, असभ्यवचनरूपः। सूत्र. ९३। ३५४ आ। आदिश्यते-आज्ञाप्यत इत्यादेशः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [120]] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ६१ कर्मकरादिः। आचा०४१५१ आकड्ढविकढिं करेइ-आकट्टविकटिं करोति, आएसणं- आवेशनं, अयस्कारकुंभकारादिस्थानम्। औप० | आकर्षविकर्षिकां करोति। भग० १६७। आकरणम्-आगरणं, आह्वानम्। ओघ० २०४। आएसणाणि-आदेशनानि-लोहकारादिशालाः। आचा. आकाशम्-आडिति सर्वभावाभिव्याप्त्या काशत इति। २६६। उत्त०६७ सर्वभावावकाशनात, आ-मर्यादया आएसपर-आदेशः कर्मकरादिः स चासौ काशन्ते-दीप्यन्ते पदार्थसार्था यत्र तत्। आपरश्चादेशपरः। आचा०४१५ अभिविधिना काशन्ते-दीप्यन्ते पदार्था यत्र तत्। आएसावि-आगमिष्याः । सूत्र०७६| अनुयो०७४ आडिति मर्यादया-स्वस्वभाआएसियं-आदेशम, विभागौद्देशिकतृतीयभेदः। पिण्ड. वापरित्यागरूपया काशन्ते-स्वरूपेणैव प्रतिभासन्ते ७९| तस्मि-पदार्था इति। उत्त०६७२ बृह. ९१ अ। आओ-उताहो। बृह. ७ | भागः। आव० ३४२ आकाशगा-आगासगा, भतविशेषाः। प्रज्ञा०७० ज्ञानादिनामायहेतुत्वादध्ययनम्। स्था०६। भूमिस्फोट- | आकासाहि-आकर्षय। आचा० ३७८१ कविशेषः। आचा० ५७ आकासिइ-खाद्यविशेषः। जम्बू० ११८1 आओग-आयोगः, द्विगुणादिवृद्ध्याअर्थप्रदानम्। भग. आकिण्णं-अतिकीर्ण| निशी० १३अ। १३५ द्विगुणादिवृद्ध्यर्थप्रदानम्। जम्बू. २३२। आकुट्टि-हिंसा। आचा० ३०५१ अर्थलाभः। औप० ११ अर्थोपायः आकुट्टिय-उत्पेत्य। बृह. १२२ आ। यानपात्रोष्ट्रमण्डलिकादिः। सूत्र० ४०७। परिकरः। औप० । आकुल-आकुलः, व्याप्तः। जम्बू. १८८1 ६३ आकेवलिआ-आकेवलिकाः, न केवलं अकेवलम्, तत्र आओगपओगसंपउत्ताइं-आयोगेन-दविग्णादिलाभेन भवा आकेवलिकाः-सद्वन्द्वाः -सप्रतिपक्षा इतियावत् द्रव्यस्य प्रयोगः-अधर्मर्णानां दानं तत्र सम्प्रयुक्तानि- असम्पूर्णा वा। आचा० २४१। व्यापृतानि तेन वा सम्प्रयुक्तानि सङ्गतानि तानि। | आकोट्टिम-आकुट्टिकं यथा रूप्यकोऽधस्तादपि उपर्यपि स्था० ४२२। आयोगो-द्विगुणादिवृद्ध्याऽर्थप्रदानं मुखं कृत्वाऽऽकुट्यते। दशवै० ८६ प्रयोगश्च-फलान्तरं तौ संप्रयुक्तौ-व्यापारितौ यैस्ते। आकोडनं-आकोटनम्, कुट्टनेनाङ्गे प्रवेशनम्। प्रश्न भग० १३५ आओगपयोगसंपउत्ते-आयोगप्रयोगाः आकोडेमाणे-आउडेमाणे, आकुट्यमानम्, द्रव्यार्जनोपायवि-शेषाः संप्रयक्ताः-प्रवर्तिता येन। आहन्यमानम्। भग० २५११ स्था०४६३। आकोसायंतं- आकोशायमानम्, विकचीभवत्। जीवा. आओडावेइ-आखोटयति, प्रवेशयति। विपा०७२। २७१। जम्बू० १११ आओसे-प्रदोषे। ओघ०७६| आक्षोधुका-क्षुधारहिता। दशवै. १२७ आओसेज्जा-आक्रोशयेत्। उपा०४२। आख्यातिकम्- क्रियाप्रधानत्वात् धावतीति। अनुयो. आओहणं-आयोधनम्, (युद्धम्) स्था० ४०२। ११३ आकंदियं-आक्रन्दितम्, ध्वनिविशेषकरणम्। प्रश्न. २०| | आख्यायिकास्थानानि-अक्खाइयठाणाणि, आकंपइत्ता-वैयावृत्त्यादिभिः आकम्प्य-आवर्त्य। कथानकस्था-नानि। आचा०४१३। स्था० ४८४। यदालोचनाऽऽचार्य आगंतागारं- गामपरिसट्ठाणं, आगंतागारं-बहिया वासो। वैयावृत्त्यकरणादिनावमं यदालोचनम्। भग० ९१९| निशी. १८३। आगन्तुकानां आकविकट्ठि-आकर्षवैकर्षिकाम। भग०६८५ कार्पटिकादीनामगारमाग-न्तागारम्। सूत्र. ३९३। आकर्हि-आकृष्टिं। भग०६८३। ग्रामादेर्बहिरागत्यागत्य पथिकादय-स्तिष्ठन्ति। आचा. اواو मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [121] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ३६५ कुशला-वागमकुशलौ। उत्त० ५२१॥ आगंतार-यत्रागारिण आगत्य तिष्ठन्ति आगमणं- प्रयोजनपरिसमाप्तौ पुनर्वसतिं गमनम्। तदागन्तुकागारम्। बृह० ४८ आ। प्रसङ्गायाता आगत्य आव० ५७३। आकसणं। निशी. ६३ आ। वा यत्र तिष्ठन्ति तदा-गन्तारम्, आगमणगिह-सभाप्रपादेवकलादिपथिकस्थानम्। ब्रह. तत्पुनामान्नगराद्वा बहिः स्थानं तत्र। आचा० ३०७। १७९ आ। आगमनगृहं-सभाप्रपादि, आगन्तागारम् (धर्मशाला) आचा० ३०६। पत्तना- पथिकादीनामागमने-नोपेतं, तदर्थं वा गृहम्। स्था० बहिर्गहम्। आचा० ३४८१ १५७ आगंतु-आगन्तुकः-पथिकादिरगारस्थजनो यत्रागत्य आगमतः-आगममाश्रित्य (ज्ञानापेक्षयेत्यर्थः)। अन्यो. सन्तिष्ठते। बृह. १७९ आ। १४॥ आगंतुओ-आगन्तुकः, कण्टकादिप्रभवः। आव० ७६४। आगममाणे- आगमयन्-आपादयन्। आचा० २७८। २८३। आगंतुगो-आगामुकः। आव० २७०। आगंतुएण सत्था- अवगमयन्, बध्यमानः। आचा० २४५। तिणाकओ जो सो। निशी. १८८ आ। आगमववहारी-आगमववहारी, छव्विहे-केवलणाणी आगंतुय-आगन्तुकः। दशवै० १०८५ ओहिणाणी मणपज्जवणाणी चोद्दसपुव्वी आगंतू-आगन्तुकः। उत्त० १९३। अभिण्णदसपुव्वी नवपुव्वी य। निशी. १०० अ। आगंपिया- वशीकृता। निशी. ९७ अ। आगमव्यवहारिणः व्यवहारपञ्चके प्रथमभेदः। व्यव० आगइ-आगतिः, प्रत्यावृत्त्या-प्रातिकूल्येनागमनम्। ५। प्रत्यक्ष ज्ञानिनः। व्यव० ६३ । आव० २९१। प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थाने आगमनम्। स्था० आगमसत्थ-आगमशास्त्रम्, आ-अभिविधिना १३३ सकलश्रुत-विषयव्याप्तिरूपेण मर्यादया वा आगम-आगमनम्-आगमः-आ-अभिविधिना मर्यादया यथावस्थितप्ररूपणारूपया गम्यन्ते-परिच्छिद्यन्तेऽर्था वा गमः-परिच्छेद इति। आव. २६। येन स आगमः, स चैवं व्युत्पत्त्या आचार्यपारम्पर्येणागतः, आप्तवचनं वा। अनुयो० ३८१ अवधिकेवलादिलक्षणोऽपि भवति ततस्तदव्यवच्छेदार्थ आगम्यन्ते-परिच्छिदयन्ते अर्था अनेनेति, विशे-षणान्तरमाह-शास्त्रेति शिष्यतेऽनेनेति केवलमनःपर्यायावधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवक-रूप। शास्त्रमागमरूपं शास्त्रमागमशास्त्रम्। नन्दी. २४९। स्था० ३१७। सूत्रार्थोभयरूपः। आव० ५२४। आग-म्यन्ते- | आगमिएल्लगो-ज्ञातः। आव० ३१७ परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेन इति आगमः-आप्तवचन- | आगमिओ-आगमितः, ज्ञातः। आव० ४३७) सम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः। स्था० २६२१ आगमियं-ज्ञातम्। आव० ११६। ओघ० १०५। ज्ञातः। गुरुपारम्पर्येणा-गच्छतीति आगमः, आ आव० ३१६ समन्ताद्गम्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति आगमियाणि- प्राप्तानि, अधीतानि। आव० ४३३। वा। अनुयो० २१९। आप्तप्रणीतः। आचा०४८। आगमिस्सं- आगमिष्यम्, आगामि, आचा० १६७। (आगमसिद्धः) स्था० २७। सूत्रम्। आव०६०४। आगमिसस्सभद्दत्ताए-आगमिष्यदितिअध्ययनम्। आव० ३००। आगमः, प्राप्तिः । दशवै०१६। आगामिकालभावि भद्रं-कल्याणं यस्मिंस्तथा तस्य सङ्ग्रहम्। बृह. ३२आ। अर्थपरिज्ञानम्। व्यव. २५१ भावस्तत्ता तया, यदि वाऽऽगमिष्यतीत्यागमःआ। आ-अभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण आगामी कालस्तस्मिन् शश्वद्भद्र -तयामर्यादया वा यथावस्थितप्ररूपणारूपया गम्यन्ते अनवरतकल्याणतयोपलक्षितम्। उत्त० ५८५१ परिच्छि-दयन्तेऽर्था येन सः। नन्दी. २४९। आगच्छति | आगमेति-जानाति। विपा०७३। गुरुपारम्पर्ये-णेत्यागमः। भग० २२२ आगमेयव्वं-आगमयितव्यम्-ज्ञातव्यम्। बृह. १९२ अ। आगमकुसला-आगमः-श्रुतिस्मृत्यादिरूपस्तस्मिन् | आगमेसा- आगमिष्यन्ती। आव० १७४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [122] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आ। आगमेसिभद्दा-आगमिष्यत् भद्रा-द्वितीयभवे सामायिकस्य ग्रहणानि प्रतिपत्तये। अन्यो० २६०। अन्तकृतः। उपा०२९। आगलणं-वैकल्पम्। व्यव० १३२ आ। आगमेस्संति-आगमिष्यामि-गृहीष्यामि। व्यव०४१८ आगलति-आकलयन्ति, जेष्याम इत्यध्यवस्यन्ति। भग० १७४। आगमेस्सा- भविष्यतः(मरण)। आगल्लो-ग्लानः। ब्रह. १२२ आ। आगमेस्साणं-आयत्याम्। आव० ३५८। भविष्यताम्। आगसणं-आकृष्यत इति आगसणं तं च दविणं। निशी. (महाप्र०)। १७४ आ। आगमोगं-आगमौकः, पथिकायगारिणां स्थानं, तेषां आगढ़-कर्कशम्। बृह०७३ आ। तीव्रः। आव०५८८ आगमने वा यद् गृहं तत्। बृह. १७९ आ। अत्यर्थम्। व्यव. २५२ अ। आगयं-आगतम्-स्वीकृतम्। आचा० १८१। आगाढजोग-आगाढयोगः, गणियोगः। ओघ. १८११ आगया-आगताः-सिद्धाः। रागद्वेषाभावात् आगाढपण्ण-आगाढप्रज्ञः, आगाढा-अवगाढा परमार्थपुनरावृत्तिरहिताः सर्वज्ञाः। आचा० १६७। पर्यवसिता तत्त्वनिष्ठा प्रज्ञा-बुद्धिर्यस्यासौ। सूत्र० २३७। आगयपण्हय-आयातप्रश्रवा शास्त्राणि। व्यव. २२६ अ। पुत्रस्नेहादागतस्तनमुखस्तन्ये-त्यर्थः। भग०४६० आगाढो- आगाढतरां जम्मिजोगे जतणा सो। निशी. १९७ आगर-आकर, यत्र संनिवेशे लवणादयुत्पद्यते। स्था० । ४४९। उत्पत्तिस्थानम्। (मरण)। अन्त०७) आगामिपह-आगामिपथः, आगामिनो-लब्धव्यस्य पृथिव्याद्याकरः। आव० ६२२। लोहाद्युत्पत्तिभूमिः। वस्तुनः पन्थाः। स्था० ९८१ स्था० २९४, ७८६। आकरः, हिरण्याकरादि। प्रज्ञा० ४८। आगार- गृहम्। अनुयो० २४४। आकारःखानिः। प्रश्न. ३८ ओघ०९। रत्नादीनामुत्पत्तिभूमिः। आक्रियतेऽनेनाभिप्रेतं ज्ञायत इति, बाह्यभेष्टारूपः। प्रश्न. १३४१ उत्त०६०५ हिरण्याकरादिकः। जीवा. आव० २८१। प्रत्याख्यानापवादहेतवोऽनाभोगादयः। २७९। लोहायुत्पत्ति-स्थानम्। प्रश्न. १२७। अन्यो० आव० ८४० आकारः-आक्रियत इत्याकारः१४२। आगत्य तस्मिन्कु-र्वतीत्यारः। आचा०५) प्रत्याख्यानापवादहेतुर्म-हत्तराद्याकारः। भग० २९६) हिरण्याकरादिः। जीवा० ४०। लोहादयुत्पत्तिस्थानम्। आकारः-प्रत्याख्यानापवाद-हेतवोऽनाभोगादयः। स्था० भग० ३६। भिल्लपल्ली भिल्लकोट्टं वा। निशी. २४२ । ४९८ शरीरगता भावविशेषः। व्यव० ६४ आ। बृह. २४६ अ। कृत्रिका-पणादिः। बृह. २४२ । जत्थ प्रतिनियतोऽर्थग्रहणपरिणामः। प्रज्ञा० ५२६। घरट्टादिसमीवेसु बहु जव भुसुटुं सो। निशी० ६२ । तच्छायामात्रम्। प्रज्ञा० ३७१। प्रत्याख्यानापवादहेरूप्यसुवर्णादयुत्पत्तिस्था-नम्। नन्दी० २८८१ तरनाभोगादिः। आव०८४० आकृतयः, स्वरूपाणि। सुवर्णादेरुत्पत्तिस्थानम्। ओघ० ९५) अनुयो० १३१। स्था० ३९५ दिगवलोकनादि। बृह० ४३ ताम्रादेरुत्पत्तिस्थानम्। आचा० ३२९। सुवर्णादिधातूनां अ। आकृतिः। जीवा० २०७। प्रभा। जीवा. २६५। खानिः। निशी. ७० आ। प्रतिवस्तु प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः। जीवा० १८१ आगरमहेस- आकरमहो-खानिमहोत्सवः। आचा० ३२८१ मूर्तिः । जीवा० २७३। विशेषांशग्रहणशक्तिः । भग०७३। आगररूवं-आकररूपम्। भग० १९३। स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावाभिव्यञ्जको आगरिस-आकर्षः-चारित्रस्य प्राप्तिः। भग० ९०५। दिगवलोकनामिः। उत्त०४४। सन्निवेशविशेषः। सूर्य. आकर्षः-तथाविधेन प्रयत्ने कर्मपुद्गलोपादानम्। प्रज्ञा० २९३। २१८ आकर्षणम्, प्रथमतया मक्तस्य वा ग्रहणम्। आगारधम्म- आगारधर्मः-दवादशव्रतरूपो गृहस्थधर्मः। आव० ३६३। एकानेकभवेषु ग्रहणानि। आव० १०५। | आगारभाव-आकारभावः, स्वरूपविशेषः। जम्बू०१८ आकर्षणमाकर्षः-एकस्मिन्नानाभवेषु वा पुनः पुनः जीवा. १७६| आकार एव भावः। आव० ३३८1 मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [123] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आगारभावपडोयारे-आकारभावप्रत्यवतारः, विशेषः। जीवा० २५३। जम्बू० २७५। भग० १०॥ आकारस्यआ-कृतेर्भावाः-पर्यायाः, अथवा आकाराश्च आगासफलितोवमा-आकाशस्फटिछोपमा। प्रज्ञा० ३६४। आकारभावास्तेषां प्रत्यवतारः-अवतरणमाविर्भावः। आगासफलोवमाइ-खाद्यविशेषः। जम्बू० १९८५ भग.२७७ आगासवासिणो-जातिजंगितविशेषाः। निशी. ४३। आगारभावमायाए-आकारभाव एव आकार भावमात्र। आगासाइवाई-आकाशादिवादिनः, आव०३३ अमूर्तानामपिपदार्थानां साधन(ने) समर्थवादिनः। आगारभेए-आकारभेदः। प्रज्ञा०५३१| औप. २९। आकाशातिपातिनः-आकाशआगाल-आगालः, आगालनमागालः व्योमातिपतन्ति-अतिक्रामन्ति आकाशगामिविसमप्रदेशावस्थानम्। आचा० ५। द्याप्रभावत् पादलेपादिप्रभावाद्वा आकाशाद्वा आगास-आकाशम्, अनावृतस्थानम्। प्रश्न० १३८। हिरण्यवृष्ट्या-दिकमिष्टमनिष्टं वाऽतिशयेन आकाशम्, सर्वद्रव्यस्वभावानाकाशयति-आदीपयति पातयन्तीत्येवंशीलाः। औप. २९। तेषां स्वभावलाभेऽवस्थानदानादिति, आङ् आगासिया-आकाशिता, आकाश-अम्बरमिता प्राप्ता, मर्यादाऽभिविधिवाची, तत्र मर्यादायामाकाशे भवन्तोऽपि | आकर्षिता वा-आकृष्टा, उत्पाटितेति वा। औप० २२ भावाः स्वात्मन्येवाऽऽसते नाकाशतां यान्तीत्येवं आघं- सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे दशमाध्ययननाम। सूत्र. तेषामात्मसादकरणाद्, अभिविधौ तु १८६। आख्यातवान्। सूत्र० १८० सर्वभावव्यापनादाकाशमिति। स्था० ५५ 'आङ्' इति | आघसणं- एतेहिं एक्कंसिं आघसणं। निशी० ११९ अ। मर्यादया स्वस्वभावापरित्यागरूपया काशन्ते-स्वरूपेण | निशी. १९०। प्रतिभासन्ते अस्मिन् व्यवस्थिताः पदार्था इत्याकाशम्, | आघवइत्ता-धर्ममाख्याय, आख्याय सामान्यतो यथा यदा त्वभिविधावाड़ तदा 'आङ्' इति कार्यो धर्मः। स्था० ११९। आख्यायकः-प्रज्ञापकः। सर्वभावाभिव्याप्त्या काशते इत्याकाशम्। प्रज्ञा. ९। स्था० २६७ आकाशम्-तृणादिरहितम्। बृह० ९१ अ। आ-मर्यादया आघवउ-आख्यातः, तस्मिन् क्षेत्रे प्रसिद्धः। आव० ५२४। अभिविधिना वा सर्वेऽर्थाः काशन्ते-स्वं स्वभावं लभंते आघवणा- आख्याना। उपा०४७। यत्र तदाकाशम्। भग० ७७६। आङिति मर्यादया आघवणा-आख्यातः, स्वस्वभावापरित्यागरूपया काशन्ते-स्वरूपेणैव सामान्यविशेषपर्यायाभिव्याप्तिकथनेन। उत्त०५९८१ प्रतिभासन्ते तस्मिन्पदार्था इत्याकाशं, यदा आघविज्जति-प्राकृतशैल्या आख्यायन्तेत्वभिविधावाङ्तदा आङिति-सर्वभावाभिव्याप्त्या सामान्यविशेषाभ्यां कथ्यन्ते। सम० १०९। नन्दी० २१२। काशत इति। उत्त०६७२ आघवियं-अर्घापितम्, अर्घः-पूजा तस्य आपःआगासगामितं- आकाशगामित्वम्। स्था० ३३२ प्राप्तिर्जाता यस्य तत्, अर्घ वा आपितं-प्रापितं यत्तत्। आगासगयं-आकाशगतं-व्योमवर्ति आकाशकं वा- प्रश्न. ११३ प्रकाश-मित्यर्थः। सम०६१ आघवेइ-आख्यापयति सामान्यविशेषरूपतः। स्था. आगासतल-आकाशतलम्। जीवा० २६९। ५०२ भग०७१। कटाद्यच्छन्नक-ट्टिमम्। जम्बू. १०६। आव०६९४, | आघवेज्ज-आग्राहयेच्छिष्यान् अर्घापयेद् वा६९९। प्रतिपादनतः पूजां प्रापयेत्। भग० ४३६। आगासथिग्गलं-आकाशथिग्गलं, शरदि आघाअ-आघातः। दशवै० २०११ मरणम्। सूत्र. १७८। मेघापान्तरालवा -काशखण्डम्। प्रज्ञा० ३६०| शरदि तथाविधयतनयाऽन्यप्राणिनामात्मनश्च विधिवत् मेघमुक्तमाकाशखण्डम्। जम्बू० ३२।। संलि-खितशरीरतया यस्मिंस्तत्। उत्त. २४९। आगासफलिहं- आकाशस्फटिकम्, अतिस्वच्छस्फटिक- | आघातणं- आघातनम्, यत्र सङ्ग्रामे बहूनि मृतानि तत्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [124] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) आव० ७४४ | आघातो- जावंतो भूतो अगणि सगासमल्लियंते ते सव्वे घातयतीति । दशकै १८८ आघादियं - कथयित्वा । नि०च० ७१ अ आघायठाणं- आघातस्थानम्, वधस्थानम् । आव ०७४१ । आघायण- आघातनम्, वध्यभूमिमण्डलम्। प्रश्न ५१ जत्थ (मूषकादि) हतो तं । निशी० ७२अ । आघायाय- आघातयन्, संलेखनादिभिरुपक्रमकारणैः समन्ताद्घातयन् विनाशयन् । उत्त० २५४ | आचरियं आचरितम्, कल्प्यम् । दशकै ११६७ आयार- आचारः चक्रवालसामाचारीरूपः । बृह० २४९ आ शास्त्रविहितो व्यवहारः। उत्तः ७११। व्यवहारः । स्था. ६४१ वेषधारणादिको बाह्यः क्रियाकलापः । उत्त० ४९९ । पूर्वपुरुषाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिः, तत्प्रतिपादको ग्रन्थः । नन्दी ० २०९ | चारित्रम् । उत्त० ५८३ | आचरणमाचारः उचितक्रिया विनय इतियावत् । उत्त० ३४४ | आयारपणिही आचारप्रणिधि दशवैकालिकस्याष्टममध्ययनम् । दशवै• २२४ आयारवत्थू- आचारवस्तु नवमपूर्वगततृतीयवस्तु । उत्तः २५८1 आयारसंपया- आचारसम्पत् संयमधुवयोगयुक्ततादिचतुर्भेद- भिन्ना सम्पत् । उत्तः ३९ | आयरियं आचारिकम् निजनिजाचारभवमनुष्ठानम्। उत्त० २६६ | आयरियपरिभासित्तं- आचार्यपरिभाषित्वम् पञ्चमसमाधि स्थानम्। प्रश्न. १४४) आचालो आचालः, आचाल्यतेऽनेनातिनिविडं - कर्मादीत्या चालः । आचा० ११ आच्छिद्दणं- एक्कसि ईष्ट्वा छेदनम् । निशी० १८९ अ आजवजवीभाव- पुनः पुनर्भमणभावः आचा० ४९ उत्त ३३६| आजवंजवे- अजवंजवी, पुनः पुनर्भमणम्। आचा० १६१। आजाइ- आजायन्ते तस्यामित्याजातिः, आचारपर्यायः । आचा० ६ | आजाति- मनुष्यजन्म गर्हिता जात्यैश्वर्यरूपादिरहिततया स्था• ४९९ सम्मूर्च्छनगर्भोपपाततो जन्म स्था० ५१२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] च्युतस्योद्वृत्तस्य वा कुमानुषत्वतिर्यक्त्वरूपा गर्हिता कुमानुषादित्वादेव स्था० १३२ आजाइसहस्स– आजातिसहस्रम् अनेकेषु देवादिजन्मसु प्रतिजीवं क्रमप्रवृत्तेषु अधिकरणभूतेषु बहून्यायुष्कसहस्राणि तत्स्वामिजीवानामाजातीनां च बहशतसहस्रसङ्ख्यत्वात्। भग. २१५| आणिभद्दो- आजिनभद्र:, आजिने द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | आजिणमहाभद्दो- आजिनमहाभद्रः, आजिने द्वीपेऽपरार्द्धा-धिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । आजिणयं आजिनकम्, धर्ममयं वस्त्रम् जीवा० २६९ | आजिणवरभदो- आजिनवरभद्रः, आजिनवरे द्वीपे पूर्वार्द्धा-धिपतिर्देवः । जीवा० ३६९| आजिणवरमहाभद्दो- आजिनवरमहाभद्रः, आजिनवरे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | आजिणवरमहावरो- आजिनवरमहावरः, आजिने समुद्रे आजिनवरे समुद्रे चापरार्द्धाधिपतिर्देवः जीवा० ३६९ | आजिणवरावभासभद्दो- आजिनवरावभासभद्रः, आजिनवरावभासे द्वीपेऽपूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | आजिणवरावभासमहाभद्दो- आजिनवरावभासमहाभद्रः, आजिनवरावभासे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९| आजिणवरावभासमहावरो- आजिनवरावभासमहावरः, आजिनवरावभासे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | आजिणवरावभासववरो आजिनवरावभासवर, आजिनवरावभासे समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ | आजिणवरावभासो- आजिनवरावभासः द्वीपविशेषः, समुद्र विशेषश्च जीवा० ३६९ | । आजिणवरो- आजिनवरः, आजिने समुद्रे, आजिनवरे समुद्रे च पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९। द्वीपविशेषः, समुद्र विशे षश्च जीवा. ३६८० आजिणो- आजिनः, द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३६८ आजीव- आजीवः, आजीविका पिण्ड० १२१| आजीविकः । व्यव० १६३ अ भगवत्यष्टमशतकपंचमोद्देशकः । भग. ३२८ [125] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) आजीवक - (आजीवग) गोशालकमतानुसारी दशकै ၃၃၃ आगम- सागर - कोषः ( भाग :- १) आजीवगदितो- आजीवदृष्टान्तः, आसकलजगदभिव्याप्त्या जीवानां यो दृष्टान्तःपरिच्छेदः सः, सकलजीवदर्शनम् । जीवा० १३७ । आजीवगा- आजीविकाः पंडरभिक्खुआ। निशी० ९८८ आजीवगो - आजीवगः, आ समन्ताज्जीवन्त्यनेनेत्याजीवः - अर्थनिचयस्तं गच्छीत-आश्रयत्यसौ, आजीवगः - अर्थमदः । सूत्र० २३७| आजीववत्तिया आजीववृत्तिता, जात्यादयाजीवनेनात्मपालना। दशवे. ११७l आजीवणपिंडो- जातिमातिभावं उवजीवतित्ति आजीवणपिंडो | निशी० ९७आ। आजीवभयं - आजीविकाभयम्, निर्धनः कर्थ दुर्भिक्षादावात्मानं धारयिष्यामीति भयम् । आव० ६४६ । वृत्तिभयम् । प्रश्र्न० १४३ | दुर्जीविकाभयम् । आव० ४७२ | आजीवियसुत्तपरिवाडीए आजीविकसूत्रपरिपाट्याम् गोशाल-कमतप्रतिबद्धसूत्रपद्धत्याम् । समः ४२ आजीविया आजीविका, पाषण्डिविशेषाः, नाग्न्यधारिणः गोशालकशिष्याः, आजीवन्ति वा येsविवेकिलोकतो लब्धि पूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीनि ते आजीविकाऽस्ति त्वेनाजीविकाः । भग० ५०| पाखण्डविशेषाः, गोशालमतानुसारिणः, आजीवंति विवेकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिश्चरणादीनि । प्रज्ञा० ४०६ औप० १०६ आजीविका: गोशालक शिष्याः । भग० ३६७ । स्था० २३२| आजीविकाः गोशालकप्रवर्तिताः। सम० १३०| आजोअणंतरं- आयोजनान्तरम्, योजनपरिमाणम् । आव० २३१| आजोग - आयोगः, व्यापारणम् । उत्त० ७१० | आव० ६९४ | आजोजिया - आयोजिका, आयोजयति जीवं संसारे इति, क्रियाविशेषः । प्रज्ञा० ४४५ | आडंबरो - आडम्बरः, मातङ्गनामा यक्षः । आव० ७४३ | पटहः । स्था० ३९५| अनुयो० १२९ ॥ आडहड़- आदधाति, नियुङ्क्ते । औप० ६४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित आडा - लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ । आडोसेतीय- आडातीकः पक्षिविशेषः प्रश्नः ८ आडआनित्तं मिश्रितं विलोडितम् आव० ३४२१ आडोव - आटोपः स्फारता प्रश्न. ४८० औफ० ५३% आडोवेइ आटोपयेत् वायुना पूरयेत्। भग० ८२ आडोहित्तो- जलं विलोढयन्। बृह. ७२ आ आढइ- गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० १२१ आढकी, गुच्छविशेषः । आचा० ५७| [Type text] आढए- आढकः, मानविशेषः । भग० ३१३ | आढगं- आढकः, प्रस्थचतुष्टयनिष्पन्नः अनुयो. १५११ चतुः प्रस्थपरिमाणम् । आव० २३८ आढगमो - आढककः, मानविशेषः । उत्त० १४३ | आढणं- आदरः। बृह० ७८ आ आढत्तं - आरब्धम्। भग- २८१ आढत्ता - आरब्धा । आ० २३७ | आढत्तो - आरब्धः । आव० १०३, ४१३, २६२॥ दशवै० ९७ । आढयं आढकः, सेतिकाप्रमाणः जम्बू० २४४५ आढवेड- आरभते । दशकै ३८ । आढवेऊण- आरभ्य । आव० ३४१ | आढा - आदरः । बृह० ६७ आ । आढाति आदियते दशवें० ५९ आ०व०१२८१२ आढायमाणे- आद्रियमानः । आचा० २८४ | आणं- आज्ञां-योगेषु प्रर्त्तनलक्षणम्। स्था० ३३१। विधिविषयमादेशम्। स्था० ३८६ । आणंतरिए - आनन्तर्यम् - सातत्यमच्छेदनमविरहः । स्था० ३४६ | आणंद - आनन्द, द्वितीयमासक्षपणे भिक्षादाता। आव ० २००| उपासकदशांगाद्यध्ययनम्, तन्नाम श्रावकः । उपा० १| गाथापतिः आव० २१५ नालंदबाहिरिकायां गाथा - पतिः । भग० ६६२ | आनन्दः । षष्ठो बलदेवविशेषः । आव० १५९ | श्रुतेन सामायिकाप्तौ दृष्टांतः। आव० ३४७। षोडशः मूहूर्तःविशेषः । सूर्य० १४६| जम्बू. ४९१| धरणेन्द्ररथानीकाधिपतिः । स्था० ३०२१ षष्ठो बलदेवः । सम० १५४) शीतलजिनाद्यगणभृत्। सम० १५२| भगवान् महावीरशिष्यः । भग० ६६८ | अवधिनिर्णविषये श्रमणोपासकः । सूत्र. ९ प्रथमा श्रावकनाम | आव०२१५ | [126] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आणंदकूडे - आनन्दनाम्नो देवस्य कूटमानन्दकूटम् । जम्बू० ३१३ | आनंदपुर-आनन्दपुरम, इहलोकगुणविषये कच्छदेशे नगरम् । आव• ८२४ द्रव्यमूढोदाहरणे पुरं निशी. ४२ अ स्थलपत्तनविशेषः। निशी० २२९ अ (मार्गोपसंपदि) नगरविशेषः । निशी० २४१ अ नगरविशेषः। निशी० ७१ अ क्षेत्रविपर्यासे नगरविशेषः । निशी० ८ आणंदपुरे- मूलचैत्यगृहे सर्वजनसमक्षं दिवसतः कल्पकर्षणं भवति। निशी ३५५अ आणंदर क्खिए- आनन्दरक्षितः, पाश्र्वपत्यस्थविरनाम । भग० १३८ आणंदा - आनन्दा, पूर्वदियुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव० १२२| दक्षिणदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्यापरस्यां पुष्करिणी । जीवा० ३६४] अंजनकपर्वते पुष्करिणी । स्था॰ २३०| पौरस्त्यरुचकवास्तव्या तृतीया दिक्कुमारी । जम्बू० ३९१ | आदिए- आनन्दितः, तृष्टः, हृष्टः, ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगतः । भगः ११९ आगम- सागर - कोषः ( भाग :- १) ३१७ | आनंदियं आनन्दितम् स्फीतीभूतम् जीवा० २४३ | इंति - आनयन्ति । बृह० १०९ अ । आणक्खिऊण- परीक्ष्य आव० २९१ आणक्खिस्सामि- अन्वीक्षिष्यामि - अन्वेषयिस्यामि । आचा० २८२ आणक्खेड- परीक्ष्य ओघ २३३ अनुमीय बृह. १६४ आ। आणक्खेऊण- ज्ञात्वा निश्चित्य निशी. ६आ। आणात्तं एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकं विमानम् । सम० ३७| आणत्तं- अन्यत्वम्-अनगारद्वयसम्बधिनो ये पुद् लास्तेषां भेदः । भग० ७४१ | आणत्तिअं - आज्ञप्तिकाम्, आज्ञां प्रत्यर्पयत । जम्बू० १६२ | आणत्तो- आज्ञप्तः । आव० ४१९ । आणपाण- आणप्राणः। सूर्य० २९२ | आणपाणकालो- आनपानकालः, उच्छ्वासनिःश्वासौ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] समुदि-तावेकः । जीवा० ३४४ | आणपाणलदी- अंतर्मुहूर्तेन चतुर्दशपूर्वपरावर्तनशक्तिः । ओघ १७८० आणमंति- आमनन्ति भग० १९ उच्छ्वसन्ति, अन्तःस्फुरन्तीमुच्छ्वासक्रियां कुर्वन्ति, आनमन्ति उच्छ्वसन्ति। प्रज्ञा० २१९ | 'णमु प्रवत्वे' इत्येतस्यानेकार्थत्वेन श्रवस - नार्थत्वात्, आनमन्ति इत्यनेनाध्यात्मक्रिया। भग. १९| आणमणिया- आज्ञापनी, विंशतिक्रियामध्ये द्वादशी क्रिया आव• ६९२] कार्ये परस्य प्रवर्तनं यथेदं कुर्विति भाषा | प्रज्ञा० ६५३| आणय- आनतः, नवमदेवलोकनाम प्रज्ञा० ६९| आणरुई - आज्ञारुचिः, आज्ञा - सर्वज्ञवचनात्मिका तस्या रुचि :- अभिलाषो यस्य स आज्ञारुचिः। जिनाजैव मे तत्त्वं न शेषं युक्तिजातमिति योऽभिमन्यते स आज्ञारुचिः । प्रज्ञा० ५६ | 1 आणरुती- आज्ञारुचिः, आज्ञा सर्वज्ञवचनात्मिका तया रुचिर्यस्य स तथा यो हि प्रतनुरागद्वेषमिथ्याज्ञानतयाऽऽचार्यादीनामाज्ञयैव कुग्रहाभावाज्जीवादि तथेति रोचते सः । स्था० ५०३ | आणवणप्पओगे आनयनप्रयोगः आव० ८४३ इह विशिष्टावधिके भूदेशाभिग्रहे परतः स्वयंगमनायोगाद्यदन्यः सचि-त्तादिद्रव्यानयने प्रयुज्यते सन्देशकप्रदानादिना त्वयेदमानेयम् इत्यानयनप्रयोगः (देशावकाशिके अतिचारः) । उपा० १०| आणवणिया आज्ञापनिका, जीवाजीवानानाययतः । स्था० ३१७| आज्ञापनस्य- आदेशनस्येयमाज्ञापनमेव वेत्याज्ञापनी सैवाज्ञापनिका, तज्जः कर्म्मबन्धः, आदेशनमेव वेति, आनायनं वा आनायनी । स्था० ४३ | आणवणी आज्ञापनी, असत्यामृषाभाषाभेदः। दशवें० २१०| कार्ये परस्य प्रवर्तनी। भग० ५००| आणवेस्सामि- आनाययिष्यामि । आव० ४१० | आणा आज्ञा, मौनीन्द्रवचनम्। आचा० ४४ तीर्थकरगण. धरोपदेशः। दशकै २६५१ ज्ञानाद्यासेवारूपजिनोपदेशः । भग• ५४१ कर्त्तव्यमेवेदमित्यादयादेशः भग. १६७। दुवालसंग गणिपिडगं । निशी० ४अ उपदेशः । सूत्र० [127] “आगम-सागर-कोष :" [१] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] १८३। अर्थः। आव० ६०४। आज्ञाप्यत स्वस्वसैन्यं प्रत्यद्भुत-माज्ञाप्राधान्यम्। प्रज्ञा० ८९। आज्ञाहिताहितप्राप्तिप-रिहाररूपतया सर्वज्ञोपदेशः। आणाकंखी-आज्ञाकांक्षी, आगमानुसारप्रवृत्तिकः। आचा० ११३। आज्ञया सूत्रा-ज्ञया आचा० २१० अभिनिवेशतोऽन्यथापाठादिलक्षणया अतीतकाले आणानिद्देसयरे-आज्ञानिर्देशकरः, आज्ञा-'सौम्य । इदं अनंता जीवाश्चतुरन्तं संसारकान्तारं-नारकतिर्यग् कुरु इदं च मा कार्षीः' इति गुरुवचनं तस्या निर्देशः, नरामर-विविधवृक्षजालदुस्तरं भवाटवीगहनमित्यर्थः, इदमित्थमेव करोमीति निश्चयाभिधानं, तत्करः। उत्त. अनुपरावृत्त-वन्तो जमालिवत् अर्थाज्ञया ४४। भगवद-भिहितागमरूपया उत्सर्गापवादाभ्यां पुनराभिनिवेशतोऽन्यथाप्ररूप-णादिलक्षणया प्रतिपादनमाज्ञानिर्देशः इदमित्थं विधेयमिदमित्थं गोष्ठामाहिलवत् उभयाज्ञया पुनः पंचविधा वेत्येवमात्मकः तत्करणशील-स्तदनुलोमानुष्ठानो वा। चारपरिज्ञानकरणोद्यतगुर्वादेशादेरन्यथाकरण उत्त०४४। आज्ञानिर्दे-शतरः-आज्ञानिर्देशेन वा तरति लक्षणया गुरु-प्रत्यनीकद्रव्यलिंगधार्यनेकश्रमणवत् भवाम्भोधिमिति। उत्त०४४। सूत्रार्थोभयैर्विराध्येत्यर्थः, अथवा आणानिसे-आज्ञानिर्देशः, आज्ञाद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षमागमोक्तानुष्ठानमेवाज्ञा तया भगवदभिहितागमरूपा तस्या निर्देशःतदकरेनेत्यर्थः। सम० १३३॥ हे साधो ! भवतेदं विधेयमि- उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनम्। उत्त० ४४। त्येवंरूपामादिष्टिः। स्था० ३०१। गूढार्थपदैरगीतार्थस्य । आणापाण- आनप्राणः, उच्छवासनिःश्वासकालः। भग० पुरतो देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनाय गीतार्थो २११॥ यदतिचारनि-वेदनं करोति सा। स्था० ३०१| आणापाणू-आनप्राण-अच्छवासनिःश्वासकालः, संख्यायदगीतार्थस्य पुरतो गूढा तावलिकाप्रमाणाः। स्था० ८५ र्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातिचारालोचनं आणाफलं-आज्ञाफलम्-जनेन इतरस्यापि तथैव शुद्धिदानं सा। भग. ३८४ स्था० ३१८1 यथोदितवचनप्रतिपत्तिरूपा फलं प्रयोजनं अस्य। उत्त. आदेशः। भग० १२२। जीवा० २४३। सर्वज्ञ वचनात्मिका। ५८० प्रज्ञा० ५८ आङिति स्वस्वभावावस्थानात्मिकया आणाम- (अननम्-श्वसनम)। भग० १०९। मर्यादयाऽ-भिव्याप्त्या वा ज्ञायन्तेऽर्था अनयेति, आणामियं-आनामितम्, ईषन्नामितम्। प्रश्न० ८२। भगवदभिहितागमरूपा। उत्त०४४। आगमः। सूत्र०४०५१ | आरोपि-तम्। जीवा० २७३। आव०८६२। उत्त०४४९। अनुज्ञा। पिण्ड० १६९। आणाय-आज्ञाय, स्वरूपाभिव्याप्त्याऽवगम्य। उत्त. गुरुनियोगात्मिका। उत्त० ५७२यथोक्ताज्ञापरिपालना। १०४ आनायम्, जालम्। उत्त०४०७। प्रश्न० २२ नन्दी० २४८। द्वादशांगं सूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधं, आणारुइ-आज्ञारुचिः, आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिकां तया दवादशांगमेव चाज्ञा, आज्ञाप्यते जन्तुगणो हितप्रवृत्तौ रुचिर्यस्य सः। उत्त. १६३। आज्ञा-सूत्रव्याख्यानं निर्ययया साऽऽजेति, अथवा पंचविधाचा-रपरिपालनशीलस्य क्त्यादिश्रद्धानम्। औप० ४४। सूत्रव्याख्यानं निर्युक्तादि परोपकारकरणैकतत्परस्य गरोहि-तोपदेशवचनमाज्ञा। तत्र तया वा रूचिः-श्रद्धानम्। स्था० १९०। भग० ९२६) नन्दी० २४८१ आणाविजए- आज्ञाविचयम्, आज्ञागुणानुचिन्तनम्। आणाइणो-आज्ञादयः, आज्ञाभङ्गादयः पिण्ड०६९। औप०४४। प्रवचनपर्यालोचनविषयमाज्ञालोचनविषयं आणाइयं-आज्ञातिगं-आज्ञा-जिनादेशमतिगच्छति- धर्मध्यानम्। स्था० १९० आणाविजय-आज्ञाअति-क्रामति यत्तत्, अधर्मद्वारस्य जिनप्रवचनं तस्या विचयो-निर्णयो यत्र पाठान्तरेणाष्टाविंशतितमं नाम। प्रश्न. २७१ तदाज्ञाविचयम्। भग० ९२६। आज्ञा वा विजीयते आणाईसरसेणावच्चं-आज्ञेश्वरसेनापत्यम, अधिगमदवारेण परिचिता क्रियते यस्मिन्निति। स्था. आज्ञाप्रधानस्य सतो यत् सेनापत्यम्। भग० १५४| १९० आ-अभिविधिना ज्ञायन्तेऽर्था यया साss मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [128] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ज्ञाप्रवचनं सा विचीयते-निर्णीयते पर्यालोच्यते वा आत्मतमः-आचार्यादिः। आत्मनि तमः-अज्ञानं क्रोधो अस्मिंस्तत्। स्था० १९०| वा यस्य स आत्मतमाः। स्था० २१४। आणावियं-आनायितम्। आव० ४२२ आत- (आय)-अप्पा। निशी. ३२ अ। आणासाएमाणे- अनाशयमानः, आतवेतावच्चकरे-आत्मवैयावृत्यकरः, अलसो आशावीषयमकुर्वाणोऽना-स्वादयन विसम्भोगिको वा। स्था० २४१। आत्मवैयावृत्त्यकरःवाऽभुजानोऽतर्कयन्नस्पृहयन्नप्रार्थयमानोऽनभिलषन यस्मात् स तपसा पूर्वसंचितकर्ममलं शोधयन्नात्मन | उत्त० ५८८1 एवोपकारे वर्तते ततः सः। व्यव० १४८ आ। आणितिल्लयं-आनीतः। आव० ५५८। आतसरीरसंवेगणी-आत्मशरीरसंवेगनी-यदेतदस्मदीयं आणिमलो-अनलगिरिगजस्य विष्ठा। निशी० ३४९ अ। शरी-रमेतदशुचि आणुकंपिए- अनुकम्पितः, कृपावान्। भग० १६९। अशुचिकारणजातमशुचिद्वारविनिर्गतमिति न आणुग- अनूपः-नद्यादिपानीयबहलः। बृह. १७५आ। प्रतिबन्धस्थानमित्यादिकथनरुपा। स्था० २१२। आणुगामिए- देशान्तरगतमपि ज्ञानिनं यदनुगच्छति आतावणा-आतापना। प्रश्न. १०७ लोचनव-दिति तदेवानुगामिकम्। स्था० ३७०। आतावते-आतापयति-आतापनां शीतातपादिसहनरूपां धूमादिहेतुरनुगामि ततो जातमानुगामिकम्-अनुमानं | करोति इति आतापकः। स्था० २९९। तद्रूपो व्यवसायः। स्था० १५१।। आतियं-आचितम्, रचितम्। प्रश्न० ४७ आणुगामियं- आनुगामिकम् औप० ५८। आनुगामुकः- आतियणो-अदने भक्षणे। व्यव० १८० अ। अनुग-मनशीलः। आव० २८१ आतियाणे-भुंजणवेलाए ठाति। निशी० ३८ आ। आणुगामियत्ताए-आन्गामिकत्वाय, आतूलुगा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा. शुभानुबन्धायेत्यर्थः। भग० ४५९। ३४१ भवपरम्परानुबन्धसुखाय। भग० ११५) आतो-आयः। उत्त.१४७ आहोस्वित्। उत्त० ३२३। आणुपुव्वी-आनुपूर्वी, शिष्यप्रशिष्यपरम्परात्मिका। | आतो(उ)ज्ज-आतोदयम, वादयभ। प्रश्न. ८ पटहादिः। उत्त० ८। क्रमेण मरणकालं पत्तस्स आणुणुव्वी। निशी. | स्था०६३। ५३ अ। वृषभनासिकान्यस्तरज्जूसंस्थानीया, यया | आत्तएणं- आदत्तेन-गृहीतेन, आत्मीयेन वा। अन्यो. कर्मपद्गलसंहत्या विशिष्टं स्थानं प्राप्यतेऽसौ, यया । २२ वोर्वोत्तमाङ्गा-धश्चरणादिरूपो नियमतः शरीरविशेषो | आत्ततरः- दृढतरः, अयमनयोरतिशयेनात्तो-गृहीतो भवति सा। आव० ८४| यथाऽऽसन्नम्। भग० २१॥ यत्नेना-ध्यवसित इत्यर्थः। आचा. २९४। मुलादिपरिपाटी। जीवा. १८७ आव०८०३। क्रमेण अत्तपण्णहा-आत्तप्रज्ञाहा, आत्तां-सिद्धान्तादिश्रवणतो यथाऽऽसन्नम्। जम्बू०४६१। शास्त्रीयोपक्रमाद्यभेदः। गृहीतामाप्तां वा-इहपरलोकयोः सद्बोधरूपतया हितां स्था० ४। आव० ५६। यदुदया-दन्तरालगतौ जीवो याति प्रज्ञाम्-आत्मनोऽन्येषां वा बुद्धिं कुतर्कव्याकुलीकरणतो तदानुपूर्वीनाम। सम० ६७ उत्त० ६४१। आनुपूर्वी- हन्ति यः स। उत्त०४३५४ यथासन्नम। जीवा० २०१ आत्मछन्दाः- आत्मनैव उपधेरानयनाय छन्दोऽभिप्रायो आणुपुव्विंगढिया- अनुपूर्व्या-परिपाट्या ग्रथिता- विद्यते येषां तु आत्मछन्दसः। व्यव० २१ आ। गुम्फिता इति आनुपूर्वीग्रथिता। भग० २१४॥ आत्मरक्षी-विषयाभिलाषविगमान्निर्निदानः सन् आणुपुव्वो-आनुपूर्वः, क्रमेण नीचैर्नीचैस्तरभावरूपः। आत्मानं रक्ष-त्यपायेभ्यः-कगतिगमनादिभ्य जीवा० १९८१ इत्येवंशीलः। उत्त. २२५ आणूं-उस्सासो। दशवै० ५४। आत्मवादी-अस्त्यात्मा स्वतो नित्य इतिवादी। आव. आतंतमे-आत्मतमः-आत्मानं तमयति-खेदयति इति । ८१६) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [129]] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] आत्मसमीपे-आत्मोत्सङगे। ओघ. ११८ आदाणभयं-आदानभयम्, धनस्य चौरादिभ्यो यद्भयम्। आत्मसंवेदनीय-आत्मना क्रियत इति। आव० ४०५ आव०६४६| धनहरणभयं। आव०४७२। आदानं-धनंआत्मागम-अत्तागम, गुरूपदेशमन्तरेणात्मन एव तदर्थं चौरादिभ्यो यद्भयम्। स्था० ३८९। द्रव्यमाश्रित्य आगमः। अनुयो. २१९ भयम्। प्रश्न १४३ अत्ताहिट्ठियजोगी-आत्माधिष्ठितयोगी, आत्माधिष्ठि- | आदाणभरियसि-आद्रहणभृते। उपा० ३४। तेनल-ब्धेन भक्तादिना युज्यत इति, अत्तलद्धिओ। आदाणिज्जं-आदानीयम्, सूत्रकृताङ्गस्य ओघ० १५१ पञ्चदशाध्ययनम्। सूत्र० २५२। अत्तढे-आत्मार्थ अर्थ्यमानतया स्वर्गादिः, यदवा आदाणियं-आदानीयम्, आदीयते-गृह्यते उपादीयत आत्मैवार्थः। उत्त. २८४। विशोधनम्। व्यव० ११५। इति, पदमर्थो वा। सूत्र. ९। अत्तद्वियं- आत्मार्थिकम्- आत्मनोऽर्थः, आदाणीय-आदानीयः, उपादेयः। सम० ८१। स्था० ३६९। आत्मार्थस्तस्मिन् भवम्। उत्त० ३६० परमार्थतो भावादानीयं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं तत। आचा. आदंसग-आदर्शकः-दर्पणः। उत्त०६५० १४० आदंसगहत्थिआ-आदर्शहस्ता। आव० १२२॥ आदितियमरण-यानि हि नरकाद्यायुष्कतया आदंसिआइ-खाद्यविशेषः। जम्बू. १९८४ कर्मदलिकान्य-नुभुय म्रियते मृतश्च न आदण्ण-खिन्नः। आव. ९४, ३५५ पुनस्तान्यनुभूय पुनर्मरिष्यत इत्येवं यन्मरणं। भग. आददति-विदधति। प्रश्न. १०७ ६३४॥ आदर्शकगृहं-भरतकेवलज्ञानस्थानम्। प्रज्ञा० २०| आदि-आदिः, कारणम्। प्रश्न० ४। अद्दागसमाण- आदर्शसमानः आदर्शसमानो, यो हि आदिए- आददीत, गृहणीयात्। उत्त० ५१७। साधुभिः प्रज्ञाप्यमानानुत्सर्गापवादादीनागमिकान् आदिकरः- आइगर, आदौ प्राथम्येन भावान् यथावत्प्र-तिपदयते सन्निहितार्थादर्शकवत्स श्रुतधर्ममाचारादिग्र-न्थात्मकं करोतिआदर्शसमानः। स्था० २४३ तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्वेवंशील आदिकरः। सम० आदाण- आदानम्, आदीयते-स्वीक्रियतेऽष्टप्रकारं कर्म ३। प्रथमतया प्रवर्तनशीलः। व्यव० ३८५ अ। येन तत्, कषायाः, परिग्रहः, सावद्यानुष्ठानं वा। सूत्र० । | आदिगरमंडलगं- आदिकरमण्डलम्। आव० १४६। २६४। (बहिद्धादाणं)-बहिर्द्धा-मैथुनम् आदानं च- | आदिच्चो- आदित्यः। जीवा० ३२१। सूर्यसंवत्सरः। सूर्य परिग्रहः, परिग्राह्यं वा वस्तु करणाद बहिः। स्था० | १२ २०२। मोक्षार्थिनाऽऽ-दीयते-गृह्यत इति, संयमः। सूत्रः | आदिट्ठ-आदिष्टः, विशेषितः। भग०४७। २२९। कारणम्। निशी. ११६ | प्रभवः, प्रसूतिः। आदिवा- गृहीता। निशी. २०७ आ। निशी० पू० ११६अ। ग्रहणम्। आव० ८२२ आदीयत आदित्यमासः-त्रिंशदहोरात्राणि रात्रिन्दिवस्य चार्द्ध, इति, धनम्। आव० ६४६। निशी० ३१७ अ। आदानः, दक्षिणा-यनस्योत्तरायणस्य वा षष्ठभागमानः। बृह. अंशः। सूर्य २०९। १८६ आ। आदाणणिक्खेवणासमिती-आदानिक्षेपणासमितिः, जं । आदित्ययशा-भरतपुत्रनाम। व्यव० १३९ आ। वत्थ-पायसंथारगफलगपीढगकारणट्ठा गहनिक्खेवकरणं आदिमा भावा- आवश्यकादयः सूत्रकृताङ्गं यावद् ये पडिलेहिय पमज्जिय सा। निशी. १७अ। आगमग्रन्थास्तेषु ये पदार्था अभिधेयास्ते। बृह० १२८ आदाणनिक्खिवणअणाभोगकिरिया आ। आदाननिक्षेपानाभोग-क्रिया, रजोहरणेनाप्रमाW आदित्यरथः- वालिसुग्रीवपिता विदयाधरः। प्रश्न०८९| पात्रचीवरादीनामादानं निक्षेपं वा करोति सा। आव. आदियणं- ग्रहणं। निशी. १३४ अ। पिबंतस्स। निशी. ६१४॥ ६५आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [130] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आदियणआ-आदानम्, ग्रहणम्। आव०६१४ आधिदैविकम-दैवादिसत्कं दुःखम्। उत्त० २६६) आदियणा-आदानम्, परधनस्य ग्रहणं, आधिभौतिकम्- अन्यभूतसत्कं दुःखम्। उत्त० २६६। तृतीयाधर्मद्वारस्य पञ्चदशं नाम। प्रश्न. ४३। आधूय-भ्रमयित्वा जलेन सदाहत्याहत्य। जम्बू. २३०| आदीअदिद्वभावे-आदौ-आवश्यकादिशास्त्रेषु वर्तमाना आधूयारुहकम्- हरितभेदः आचा. ५७ अदृष्टा भावा येनः सः। बृह१२६ आ। अञ्झत्थियं- आध्यात्मिकम् आत्मसत्कं दुःखम्। उत्त० आदेज्ज-आदेया, दर्शनपथमुपागता सती पुनः पुनराकाङ् | २६६। आत्मनि क्रियमाणम्। आचा०४१६| क्षणीया। जम्बू. १११। आदेयः, रम्यः। प्रश्न० ८३ आनगारिकम्-अनगारेषु-भावभिक्षुषु आदेज्जनाम-आदेयनाम, यद्दयवशात् यच्चेष्टते भाषते | भवमानगारिकमनुष्ठानम्। उत्त० ३३९। वा तत्सर्वं लोकः प्रमाणीकरोति दर्शनसमनन्तरमेव च | आनन्द-श्रुतसामायिकलाभे दृष्टान्तः। आव० ३४७। जनोऽ-भ्युत्थानादि समाचरति तत्। प्रज्ञा०४७५ आनन्दपुरम्-स्थलपत्तने नगरविशेषः। बृह. १८१ आ। आदेयवचनता-सकलजनग्राह्यवाक्यता। उत्त०३९।। जितारिराज्ञः राजधानी । बृह० १०७ आ। नगरविशेषः। आदेशकषाय- कैतवकृतभृकुटिभंगुराकारः। आव० ३९०| व्यव० १४६ अ, ४आ। व्यव० २६६अ। आदेशिकं- श्रमणानुद्दिश्यादेशम्। बृह. ८३ अ। आनन्दविजयः- आचार्यनामविशेषः। जम्बू. ५४५ आदेसं-उद्दिट्ठ। निशी. २३० आ। विशेष आनन्दविमलः- आचार्यनामविशेषः। जम्बू. ५४३। प्रतिनियतव्यक्त्यात्मकम्। उत्त० ६७३। आनुगामिकः-आआदेसतिगं- आदेशत्रिकम्, मतत्रिकम्। पिण्ड० १० समन्तादनुगच्छतीत्येवंशीलमानुगामिकः, अनुगमः आदेसदव्वसुद्धी-आदेशद्रव्यशुद्धिः, द्रव्यशुद्धिभेदः। दशवैः | प्रयोजनं यस्य सः। प्रज्ञा० ५३९। अनुगच्छति २११। साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः सोऽनुगामी ततो आदेसा- पाहुणा। निशी० १११ अ| प्राघूर्णकाः। बृह० ८५ | जात-मानुगामिकं, अनुमानं, तद्रूपो व्यवसयायः। स्था० १५१| आदेसे-आदेशः, आदिश्यते यस्मिन्नागते सम्भ्रमेण | आनुपूर्वी- यथासन्नम्। प्रज्ञा० ५०३। परिजनस्तदासनदानादिव्यापारे सः, प्राघूर्णकः। सूत्र० कूर्परलाङ्गलगोमूत्रिका-कारेण यथाक्रम द्वित्रिचतुःसमयप्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोआदेसो-आदेशः, प्रकारः। जीवा० ५३। सत्ताएसो। निशी. त्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानश्रेणिनियता ७१ | अनुज्ञा। व्यव० ३४६ अ। नयान्तरविकल्पः। गमनपरिपाटी। प्रज्ञा० ४७३। व्यव० ३५४ आ। अनुक्रमः- अनुपरिपाटी। अनुयो० ५१। आद्यशब्द-तर्कणादोषादिप्रतिपादनः। निशी० २२५ आपणवीही-आपणवीथिः, रथ्याविशेषः। जम्बू० ४१३। आद्रहणम्- उच्छलदुष्णजलम्। दशवै. १७४१ पिण्ड० ३५ आपणवीथिः। भग० ४७६। आधरिसितो-आधर्षितः। आव.३१| आपन्नपरिहार-मासिकं वा विमासिकं वा यावत् आधत्त-आधत्तम्, ग्रहणके मुक्तम्। बृह. १२० । षण्मासिकं वा प्रायश्चित्तं। व्यव० ४५ आ। आधरिसेहिति-आधर्षिष्यति। आव. १७४। आपाकः- भाण्डपचनस्थानम्। स्था० ४१९। आधाकम्मिए-आधाय-आश्रित्य साधून आपागपत्तं-आपाकप्राप्तम्, ईषत् पाकाभिमुखीभूतम्। कर्मसचेतनस्याचे-तनीकरणलक्षणा अचेतनस्य वा प्रज्ञा० ४५९। पाकलक्षणा क्रिया यत्र भक्तादौ तदाधाकर्म आपाण्डु-आ-ईषच्छुभ्रत्वभाजः, पाण्डुः। उत्त०६८९) तदेवाधाकर्मिकम्। स्था०४६० आपीड:- शेखरकः। जीवा० २७२। आमेलकः-शेखरकः। आधायणं-जत्थ वा महा संगामे मता। निशी० ७३ अ। जीवा. २०७, ३६१। आधिः- मनःपीडा। भग०४| | आपुच्छणा- आप्रच्छनमापृच्छा, आ। ३००। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [131] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] विहारभूमिगमनादिप्रयोजनेषु गुरोः कार्या, समाचार्याः | आभरणविधी- हारऽद्धहारादिया आभरणविधी। निशी. षष्ठभेदः। आव० २५९। आपृच्छना। ओघ० १५१। भग० | २७६ आ। उपभोगविधिविशेषः। उपा०३। ९२०| स्वकार्यप्रवृत्तावापृच्छनम्। बृह. २२२ । | आभरणवुट्ठी-आभरणवृष्टिः । भग० १९९। विहारभूमिगमनादिषु प्रयोजनेषु गुरोः पृच्छा। स्था० आभरणाणि-आभरणानि, अङ्गपरिधेयानि। जम्बू. ४९९ २२११ आभरणप्रधानानि। आचा० ३९४१ निशी० २५५ अ। आपूरितं-आपूर्यमाणम्, परिसंस्थिते पवने भूयो जलेन आभवंतितो-आभवन्तिकः-व्यवहारः। व्यव० ३८१ आ। ध्रिय-माणम्। जीवा० ३०८1 आभवति-स्वं भवति। आव०८२११ अत्त-आप्त, ज्ञानदर्शनचारित्राणि येनाप्तानि स, आभव्वं- आभाव्यं, शैक्षः शैक्षिका वा। ब्रह. ७० आ। रागदवेषप्रहीणः, इष्टाः शोध्यै शैधि विषये ये आप्ताः। | आभा-आभा, आकारः। प्रज्ञा० ८० छायावर्णः। सम. व्यव० ३८९ आ। १४०। प्रतिभासः। जीवा० ३११। वर्णस्वरूपम्। जीवा. आप्तप्रज्ञाहा- सिद्धान्तादिश्रवणतो गृहीतामाप्तां वा १०३ इहपरलो-कयोः सद्बोधरूपतया हितां-प्रज्ञाम् आभागी-भोक्ता। आव० ८१५१ आत्मनोऽन्येषां वा बुद्धिं कुतर्कव्याकुलीकरणतो हन्ति आभासइ-आभासयति, समन्ततः सर्वासु दिक्षु अवभायः सः। उत्त०४३५ सयति। जीवा० ३१२ आप्नोति-आत्मवशतां नयति। प्रज्ञा० ३६२। आभासिआ-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ आप्रच्छना-भदन्त ! करोमीदमित्येवं गुरोः आभासिता-लवणान्तरदद्वीपनाम। स्था० २२५१ प्रच्छनमाप्रच्छना। अनुयो० १०३। सम० १५८ आभासितो-आभाषिकः, अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० आप्फोडिऊण-आस्फोट्य। आव० १६८। १४४१ आबद्धसेओ-आबद्धस्वेदः। आव. ५१५ आभासियं-अभाषिकम्-विवक्षितभाषामजानानः। आव० आबद्धो-आबद्धः, आरब्धः। आव०५१५) ६१४१ आबाहा-आबाधा, ईषद्बाधा। भग० २१८। जम्बू० १२४॥ आभासिय-आभाषिकः, म्लेच्छविशेषः। प्रश्न.१४ जन्मजरामरणक्षुत्पिपासादिका आबाधा। स्था० ४८८ आभासियदीवे- अन्तरदवीपनाम। स्था० २२५। आबाहाए- अन्तरे कृत्वेति शेषः। सम० १६) आभिओग-आ-समन्तादाभिमख्येन यज्यन्तेआभंकर-सनत्कुमारकल्पे त्रिसागरस्थितिकं विमानं। प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्ते इति आभियोग्याःसम शक्रलोकपालप्रेष्यकर्म-कारिणो व्यन्तरविशेषाः। जम्ब० आभंकरपभंकर-आकरवत्। सम1 ७५ आभियोग्यम्। कर्मकरभावः। दशवै. २४८। आभंकरे-आभकरः, सप्ततितमग्रहनाम। स्था० ७९। अभियोग्यभावना-कुत्सित-भावना। उत्त० ७०७) अष्टषष्टितमग्रहनाम। जम्बू. ५३५) अभियोगभावनाजनितः। स्था० २७४। आभट्ठो-आभाषितः, संलप्तः। आव. २४१। आभिओगसेढीओ-आभियोग्याःआभरण-आभरणानि, मुकुटादीनि। जम्बू० १४५। शक्रलोकपालप्रेष्यकर्मका-रिणो आभरणचङ्गेरी-देवछन्दके पूजोपकरणम्। जीवा० २३४१ व्यन्तरविशेषास्तेषामावासभूते श्रेण्यौ। जम्बू०७५१ आभरणपिया। निशी. ९। आभिओगिए-आभियोगिकः अभियोगे-प्रेष्यकर्मणि आभरणवासा- आभरणवर्षा, आभूषणवर्षणम्। भग० व्यापार्यमाणत्वे नियक्ताः। जीवा० २४३। १९७१ आभिओगिय-आभियोगिकः, वशीकरणाय आभरणविचित्ताणि-आभरणविचित्राणि, मन्त्राभिसंस्कृतम्। आव० ६४२ गिरिविडकादि-विभूषितानि। आचा० ३९४१ निशी. २५५ | आभिओग्ग-आभियोग्यम्, वशीकरणादि द्रव्यतो द्रव्य। संयोगजनितं, भावतो विदयामन्त्रादिजनितम्, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [132] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] बलात्कारो वा। प्रश्न० ३८1 आभियोगः-कार्मणम्। बृह. | इति भावार्थः। आव०७ अभिनिबोधिकम्, आत्मैव १२२ आ। वाऽभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वाद अभिनिबुध्यत आभिग्गहिओ-आभिग्रहिकः, अभिग्रहेण निवृत्त इति वा। आव०७ कायो-त्सर्गः। आव०७८३। आभियोगिकआभिचारुका-विद्याविशेषः। ब्रह. २०३ आ। अभियोगभावनाभाविततत्वेनाभियोगिकदेवे-षत्पन्ना आभिडणं-आवडणम्। ओघ. २०४। अभियोगवर्तिनः। भग. १९० आभिणिबोहिय-आभिनिबोधिकम, अभिमुखो आभियोगिय-आभियोगिकः, अभियोजनंयोग्यदेशाव-स्थितवस्त्वपेक्षया नियतः विदयामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादि येषां ते। प्रज्ञा० स्वस्वविषयपरिच्छेदकतयाऽव-बोधः ४०६। अवगमोऽभिनिबोधः, स एवाभिनिबोधिकम्। उत्त. आभियोगी-आभिओगा५५७। अर्थाभिमुखो नियतः-प्रतिनियतस्वरूपो किकरस्थानीयदेवविशेषास्तेषामिय-माभियोगी। ब्रह. बोधोबोध-विशेषः, अभिबुध्यतेऽस्माद् अस्मिन् वेति। २१२आ। आभियोग्याः-आभिमुख्येन युज्यन्तेप्रज्ञा० ५२६। आभिनिबोधिकम्-मतिज्ञानम्। आव०१८ प्रेष्यकर्मणि व्यपार्यन्त इत्याभियोग्याः, किङ्करआभिमुख्येन निश्चितत्वेनावबुध्यते-संवेदयते आत्मा स्थानीयदेवविशेषाः। बृह. २१२ आ। तदिति, आभि-निबोधः, अवग्रहादिज्ञानं, अथवा आत्मा | आभिसेक्कं-आभिषेक्यम्, अभिषेकयोग्यं, तेन प्रस्तुतज्ञानेन तदावरणक्षयोपशमेन वा करणभूतेन | राजपरिधेयम्। जम्बू० २१६) घटादि वस्त्वभिनिबु-ध्यते, तस्माद् वा प्रकृतज्ञानात् । आभीरविसओ-आभीरविषयः, देशनाम। आव० ४१२१ क्षयोपशमाद्वाऽभिनिबध्यते, तस्मिन् वाऽधिकृतज्ञाने, निशी० १०२ आ। क्षयोपशमे वा सत्यभिनिबुध्यतेs आभोइत्ता-आभोगयित्वा, ज्ञात्वा। दशवै० १७९। वगच्छतीत्यभिनिबोधो ज्ञानम, क्षयोपशमो वा, सो वा आभोइतो-आभोगितः। उत्त० १३३॥ 'अभिणिबुज्झएत्ति, अथवाऽभिनिबुध्यते वस्त्वभिग- आभोएउं-आमोगयित्वा, उपयोगपूर्वकेनावधिना च्छतीत्यभिनिबोधः, स एवाभिनिबोधिकम् (?) विज्ञाय। आव० १२८१ अभीत्या-भिमुख्ये नीति नैयत्ये, आभोएति-आभोगयति। आव० १२४१ ततश्चाभिमुखोवस्तुयोग्यदेशावस्था-नापेक्षी आभोग- आभोगः, जानता योऽतिचारः कृतः। आव. नियतइन्द्रियाण्याश्रित्य स्वस्वविषयापेक्षी बोधः, १६४। अभिसन्धिः । भग. २०| आलोचनमभिसन्धिः । अभिनिबध्यते आत्मना सः। अभिनिबध्यते वस्त्वसौ प्रज्ञा० ५००। उपकरणम्। ओघ०३३। उपयोगः। बृह. २११ इत्यभिनिबोधः स एवाभिनिबोधिकम्। अनुयो० २॥ आ। स्था० ५०५१ आभोगनमाभोगः, उपयोगविशेषः। आभिणिबोहियनाण- अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वात् आव०६१९, ६२६। विस्तारः। विपा० ३९। नियतोऽसंशयरूपत्वाद्बोधः-संवेदनमभिनिबोधः स एव | आभोगण- आभोगनम्, अर्थावग्रहसमानन्तरमेव सद् स्वार्थिके कप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिकं ज्ञातिर्जायते भूतार्थ विषयाभिमुखमालोचनम्। १७६। वाऽनेनेति ज्ञानम् आभिबोधिकं च तज्ज्ञानं चेति आभोगणिव्वत्तिए- यदा परस्यापराधं सम्यगवबुद्ध्य आभिनि-बोधिकज्ञानम्, इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तो बोध कोपकारणं च व्यवहारतः पृष्टमवलम्ब्य नान्यथाऽस्य इति। भग० ३४३। इन्द्रियपञ्चकमनोनिमित्तो बोधः। शिक्षोपजायते इति आभोग्य कोपं विधत्ते तदा स कोप अनुयो । अर्था-भिमुखो नियतो बोधः, अभिनिबोधे आभोगनिर्वतितः। प्रज्ञा० २९११ आभोगेन निर्वतितःभवं तेन वा निर्वृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वा, अथवा उत्पादित आभोगनिर्वतित आहारयामीतीच्छापर्व अभिनिबुध्यते तत्, अथवा अभिनिबुध्यते निर्मापितः। प्रज्ञा० ५०० ऽनेनास्माद्वा अस्मिन् वा तत् तदावरणकर्म-क्षयोपशम | आभोगबउस-आभोगबक्शः, य आभोगेन जानन् करोति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [133] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] । सः, बकुशस्य प्रथमो भेदः। उत्त० २५६। आभोगः-साधू- | आमज्जति-अक्खिपत्तरोमे संठवेति। निशी० १९० अ। नामकृत्यमेतच्छरीरोपकरणविभूषणमित्येवं ज्ञानं हत्थेण आमज्जति। निशी. १८७ आ। तत्प्रधानो बकुश आभोगबक्शः। भग०८९०| आमज्जमाणे-आमर्जयन्, सकृद्धस्तादिना शोधयन्। शरीरोपकरणभूषयोः सञ्चिन्त्यकारी। स्था० ३३७| आचा० ३४३। आभोगिणी-यं परिजपिता सती मानसं आमज्जिज्ज-सकृदामज्यात्। आचा० ३३७| परिच्छेदमुत्पादयति सा। ब्रह. ३३। जा विज्जा आमट्ठ-विपर्यासीकृतम्, परामट्ठ। ओघ० १९२। आमृष्टम्, जविता माणसं परिच्छे-दमुत्पादयति सा। निशी. १७७ तेजःप्रकर्षारोपणाय मनःशिलादिना समन्तात्पराकृष्टम्। उत्त०५२७। आम-आमम्। दशवै० १७६। अपरिणतम्। पिण्ड०६५ । आमडागं-आमपत्रम्, अरणिकतन्दुलीयकादि अविशोधिकोटिः। ब्रह. २०१ अ, ५१ अ। आमंणाम जं तच्चाद्धपक्व-मपक्वं वा। आचा० ३४८१ अपोलियं अग्गिणा ण पक्कंति, अण्णेण वा केणइ आममहुरे- आममधुरम्, ईषन्मधुरम्। स्था० १९६। पगारेण न पक्कं-णिज्जीवं। निशी० १५७ अ। आमरणदोसो-आमरणदोषः, महदापदगतोऽपि स्वतो असत्थपरिणयं। दशवै. ५१। अन्मतार्थद्योतकम- महदा-पगतेऽपि च परे आमरणादसजातानुतापः, व्ययम्। बृह. १६६अ। सचित्तं। दशवै० ८६| अपि त्वसमाप्ता-नुतापानुशयपर इति। आव०५९०| अपक्वरसम्। प्रश्न०६० अनुमतौ सम्मतमेतदस्माकं | आमरणंतदोसे-आमरणान्तदोषः-आमरणान्तमसंजातासर्वमितिभावः। व्यव०७१ अ। अपक्वः। व्यव० १०६ । नुपातस्य हिंसादिषु प्रवृत्तिः सैव दोषः स्था० १९०| आ। जओ तेहिं उग्गमा-दिदोसेहिं घेप्पमाणेहिं चारित्तं | आमौषधिः-ऋद्धिविशेषः। प्रज्ञा०४२४। अविपक्कं अपज्जत्तं आमं भवति तेण ते आमं आमलए-आमलकम्। आव०८३१ आमरकः, सामस्त्येन भण्णति, शब्दमात्रोच्चारणम् सरडीभूतं जो मारिः। स्था० ५०८1 फलविशेषः। पिण्ड० २२। दशवै. वरिसतायुपुरिसो वरिससतं अंतरे मरंतो आमो भण्णति। १०० निशी० १२६ अ। अपक्वम्। आव० १३०। स्वी आमलकप्प-आमलकल्पा, नगरीविशेषः। आव०३१४, कारेऽव्ययम्। आव०६४ आव. १९४| आव०४०८। ३१५,७०७| उत्त०१५९। अशस्त्रोपहतम्। आचा० ३४८1 दशवै० २२९। अजीर्णम्। आमलग-आमलक, बहबीजो वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२| दशवै. २७०। आमाम्-असिद्धां, सचेतनाम् अपरिणतं, भग०८०३। अपक्वाम्। दशवै० १८५। अपरिशुद्धम्। आचा० १३१| आमलगा-आमलकानि। अन्यो० १९२१ आमंडे-आमलकम्, परिणामिक्यां सप्तदमोदाहरणम्। आमलपाणगं- फलविशेषप्रक्षालनजलं। आचा० ३४७ नंदी। १६५ आम्लकम्-आमलकम्। आव०४३६) आमाघाओ- अमाघातः, (अमारीपटहः)। आव० ४०१। आमंतणी-आमन्त्रणी, असत्यामृषाभाषायाः प्रथमो आमिस-आमिषः-मांसः। उत्त० ६३४। आमिषाद्-गृद्धिभेदः। दशवै० २१०। हे देवदत्त ! इत्यादिरूपा भाषा। हेतोरभिलषितविषयादेः। उत्त०४०९। प्रज्ञा० २५६। हे देवदत्त ! इत्यादिका, असत्यामृषाभाषा। | आमिसभोगगिद्ध-आमिषभोगगृद्धः, आमिषस्यभग. ५०० मांसादेर्भोगः-अभ्यवहाररस्तत्र गृद्धः। उत्त० ६३४। आमंतयामो-आमन्त्र्यावहे, पृच्छावः। उत्त० ३९८१ आमिसावत्ते-मांसाद्यर्थं परिभ्रमणम्। स्था० २८८१ आमंतिओ-आमन्त्रितः, सम्भाषितः, पृष्ठो वा। उत्त. आमुसंत-आमृशन्, स्पृशन्। दशवै. १३७। आचा. १११ ३९२ आमृशन्, भगवत्पादारविन्दं भक्तिः करततलयुगादिना आमंतेयव्वो-आपच्छियव्वो। निशी. ९७ आ। स्पृ-शन्। स्था० ९। उत्त० ८० आमगं-अपक्वम्। भग०६८४ आमुसिज्जा-आमर्षणम्, सकृदीषवा। स्पर्शनम्। दशवै. आमगंधि- आमगन्धयः, विश्राः। सम० १३६। १५३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [134] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) - आमे आम, अविशोधिकोट्‌याख्यदोषः सूत्र. १४५ आमेड- आमेलः, आपीड, शेखरकः जीवा. १७२२ आमेडणा- आमेडना, विपर्यस्तीकरणम्। प्रश्न० ५६ ॥ आमेल- आपीडः, शेखरकः । प्रज्ञा० ९६| भग० ४५९॥ पुष्पशेखरकः । औप० ५१| आगम- सागर - कोषः ( भाग :- १) आमेलओ - आमेलकः, आपीडः, शेखरकः । जीवा० ३६१ । आभोडकः–पुष्पोन्मिश्रो वालबन्धविशेषः । उत्त० १४३ | आमेलग- आमेलकः, आपीडकः, शेखरः । जीवा० २७५ | आपीड, शेखरकः । जम्बू० ५१ जीवा० २०७१ आमेलय- आमेलकः, चूडा। भग- ६३२ आमेलिय आपीडिका, चूडा। अग० ३१८१ आमो असत्योवहतो निशी १९६ अ आमोअ- आमोद, मानसे उत्सवः आव ०७२११ आमोकः–कचवरपुञ्जः । आचा० ४११ आमोक्ख- आमोक्षः, आमुच्यन्तेऽस्मिन्नित्यामोक्षणं वाss - मोक्षः । आचा० ६ | आमोडणं- हत्थेहि आमोडणं निशी २४५ अ आमोडेति सीमन्तयति । निशी० ३१ अ आमोद- गन्धः । उत्त० ३६९ | आमोयगो- आमोदकः । जीवा २६ आमोगा- आमोषकाः, चौराः । स्था० ३१५ | आमोसलि- आमर्शवत्तिर्यगूर्ध्वमधो वा कुड्यादिपरामर्शवदद्यथा न भवति । उत्त० १४१। आमोसहि- आमर्षौवधिः, तत्रामर्षणमामर्षःसंस्पर्शनमित्यर्थः, स एवौषधिर्यस्यावामर्षौषधिः, करादिसंस्पर्शमात्रादेव व्या-ध्यपनयनसमर्थों लब्धिलब्धिमतोरभेदोपचारात्साधुरे-वामर्षोषधिः । आचा० १७८ । आमर्षौषधिः । स्था० ३३२ | आमर्षणमामर्षः - संस्पर्शनमित्यर्थः, स एवौषधिः । आव ० ४७। आमर्षणमामर्षः- हस्तादिसंस्पर्शः । औप० २८ आमोसे आमर्षणम् आमर्ष:- अप्रमृज्य करेण स्पर्शनम् । आव० ५७४| आमोषाः-आ- समन्तान्मुष्णन्ति - स्तेन्यं कृर्वन्तीति । उत्त० ३१२१ आम्लम् - चतुर्थरसम् । आव• ८५४| अंबिला उत्त• ६७७ आयं तोसलिविसए सीयतलाए आयाणं खुरेसु सेवालतरिया लग्गंति, तत्थ वत्था कीरंति निशी. २५४ आ कर्मा श्रवलक्षणम् सूत्र० १८९१ इष्टफलम्। भग० ४५ , मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] आयंक- आतङ्कः, आशुघाती रोगः आक ७५९ | सद्योघाती रोगः । दशवै० २७३ | कृच्छ्रजीवनं दुःखं । आचा० ७५% आशुघाती शूलादिः । जम्बू. १२५| भग ४७१। सद्योघातिव्याविः भग० १२२ नरकादिदुःखम् । आचा० १६० कृच्छ्रजीवितकारी, सद्योघातीत्यर्थः शूलादि । स्था० ११९। शूलविशुचिकादिः सद्योघाती । स्था० १५० | व्याधिः । भग० ६९०| आङिति सर्वात्मप्रदेशाभिव्याप्त्या तंकयन्तिकृच्छ्रजीवितमात्मानं कुर्वन्ति इत्यातंकाःसद्यो - घातिनो रोगविशेषाः । उत्त० ३३८ । आतङ्कः, सद्योघातिनः। ऑप. ९६| आक० ५८५ ज्वरादि । पिण्ड, १७७) आचा० २९७॥ कृच्छ्रजीवितकारी ज्वरादिः । भग० ७०२१ आतङ्कः, आशुकारी व्याधिविशेषः दशवै. १४ | रोगः । उत्त० ४८६ । ज्वरादि। आव० ८४८ ओघ० १९०| कष्टजीवितकारी विपा० ४० आशुजीवितापहारी शूलादिकः। सूत्र० २९२। आचा० २०५, ३३०, ३६२ आयंकसंपओग - आतङ्कसम्प्रयोगः, आतङ्क - रोगः तस्य योगः । औप० ४३ | आयंगुल पुरुषात्मसम्बन्धि आत्माङ्गुलम् अनुयो० १५६| अड्गुलस्य प्रथमभेदः । प्रज्ञा० २९९ । आयंचामि गोमुत्तं । निशी. १२७ अ व्यव० १०४ आ । आयंचणं - लिंपामि, आसिञ्चामि । उपा० ३२ | आयंतकरे- आत्मनोऽन्तम्- अवसानं भवस्य करोतीति आत्मान्तकरः, धर्म्मदेशनानासेवकः, प्रत्येकबुद्धादिः । स्था० २१३ | अयंति- आगच्छन्ति, उत्पद्यन्ते। आव० १७९ आयंतियमरणे यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति । सम० ३३१ आयंती - आयान्ती । आव० ३०७ | आयते आचान्तः, नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकप्रक्षालनेन गृहीताचमनः । जीवा० २४३॥ कृतपानः । भग० १६४ आनंदमे आत्मदमः आत्मानं दमयति-शमवन्तं करोति शिक्षयति वेति। स्था० २१४१ - आयंबिलं आचाम्लम्, ओदनकुल्माषादि। औप. ४०१ आचाम्लम् आक• ८५ शुद्धोदनादि। अनुत्त० ३ [135] “आगम-सागर-कोष :" [१] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] सकूरा। आव० ८५५। पानकम्। ओघ० १३३। प्रवृत्तिरूप आत्मयोगः, स यस्यास्ति स तथा, आयंबिलपाउग्गं-आचाम्लप्रायोग्यम्, (कूरविहाणाणि)। धर्मध्यानावस्थितः। सूत्र. ४३२१ आव०८५५ आय-आत्मनोऽर्थ आत्मार्थः, स च आयंबिलवड्ढमाणं-आचाम्लवर्द्धमानम्, तपोविशेषः। ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकः, आत्मने हितंअन्त० ३२ प्रयोजनमात्मार्थं, चारित्रानुष्ठानमेव, आयतःआयंबिलिए-आचाम्लिकः। स्था० २९८। अपर्यवसानान्मोक्षः स एवार्थः। आयत्तः-मोक्षः, अर्थःआयंभरे-आत्मानं बिभर्ति-पष्णातीत्यात्मम्भरिः। प्रयोजनं यस्य। आचा० ११०| आत्महितं। आचा० १०९। स्था० २४८१ ज्ञानादिरूपं स्वकार्यम्। बृह. ७१ अ। आयंस-आदर्शः, बृषभादिग्रीवाभरणम्। अनुयो०४७। आयद्वी-आत्मार्थी, यो ह्यन्यमपायेभ्यो रक्षति सः, दर्पणः। जम्बू० ३९२१ आदर्शः। जम्बू. ५१०| आत्मवान्। सूत्र० ३४२। आयंसघरं- आदर्शगृहम्। आव० १७० आयणाणं-आत्मज्ञानम्, वादादिव्यापारकाले किमम आयंसघरगं-आदर्शगृहकम्, आदर्शमयमिव गृहकम्। प्रतिवादिनं जेतुं मम शक्तिरस्ति न वा ? जीवा० २००। जम्बू० ४५ इत्यालोचनम्। उत्त० ३९। आयंसमुहदीवे- आदर्शमुखद्वीपः, अन्तरद्वीपनाम। आयणीली- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ स्था० २२६। आयण्णं- आकीर्णम्, स्थानविशेषः। ओघ० १५४। आयंसमुहा- आदर्शमुखनामा नवमोऽन्तरद्वीपः। प्रज्ञा० आयतंगुली-एगापएसिणी। निशी० २०८ अ। ५०| जीवा० १४४१ आयतगुत्ते-आत्गुप्तः-सततोपयुक्तः। आचा० २७२। आयंसलिवी- ब्राह्मीलिपिपञ्चदशभेदः। प्रज्ञा. ५६| आयतजोग-आयतयोगः-सुप्रणिहितं आय-आयः, श्रुतनाम। दशवै० १६। लाभः। अनुयो० १५४। | मनोवाक्कायात्मकम्। आचा० ३१४| ज्ञानचतुष्टयेन आत्मा-शरीरम्। उत्त०४१५। जीवश्चित्तं वा। उत्त सम्यग्योगप्रणिधानं। आचा० ३१४| ५०४। अतति-सततं गच्छति तानि आयतण-आयतनम्, गणानामाश्रयः, अहिंसायाः तान्यध्यवसायस्थाना-न्तराणीति आत्मा-मनः। उत्त. सप्तच-त्वारिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। आविष्करणं ३१४१ कथनं, निर्णयनं वा। सूत्र. १८११ स्थानम्। ओध० २२२ आयइ-आयतिः-अनागतं, उत्तरकालम्। आव. ५०९। निशी० १९२आ। देवकुलम्। निशी० ३९ आ। दोषाणां आयकाय-अनंतकायविशेषः। भग० ८०४। स्थानं। आचा० ३२९। ज्ञानादित्रयम्। आचा० २०७। आयक्खाहि-आख्याहि, कथय, निवेदय। भग० ११२ आयतणा-आयतनानि-बन्धहेतवः। स्था० ३५१| आयगय-आत्मनि गतः आत्मगतः, आत्मज्ञ इति। सूत्र० आयतणाई-आयतनादीनि, दोषरहितस्थानानि, १२४ वसतिग-तानि, संस्तारकगतानि च। आचा० ३७२। आयगवेसए-आत्मगवेषकः, आत्मानं देवकुलपाा -पवरकाः। आचा० ३६६। कर्मोपादानानि। कर्मविगमाच्छुद्ध-स्वरूपंगवेषयति-अन्वेषयतेयः सः। आचा०४०७। उपभोगास्पदभूतानि। आचा० १२७। आगयवेषकः-आयः-सम्यग्दर्शनादिलाभस्तं कर्मोपादानस्थानानि। आचा० ३५६। दोषस्थानानि। गवेषयतीति। आयतगवेषकः-सूत्रत्वादायतो वा आचा० ३८६। मोक्षस्तं गवेषयतीति वा। उत्त० ४१५ आयतरो-तवबलिओ। निशी० १२३ अ। आयगुत्ते-आत्मा-शरीरं तेन गुप्तः आत्मगुप्तः-न आयतसंठाण-आयतसंस्थानम्। प्रज्ञा० ११| यतस्ततः करणचरणादिविक्षेपकृत, गप्तो आयता-दीर्घा। जीवा० १६४। रक्षितोऽसंयमस्थानेभ्य आत्मा येन सः। उत्त० ४१५ आयती- सन्ततिः। बृह० २१३ अ। आयजोगे-आत्मयोगी, आत्मनो योगः-कुशलमनः- आयतीहितं-आगामिकालहितं, आत्मना हितं वा। दशवै. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [136] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] १५७ णिल्लेवणं। निशी० २२० आ। पुरीषात्सर्गानन्तरं आयते-आयतः, संस्थानपञ्चमभेदः। प्रज्ञा. २४२। भग. शौचकरणम्। पिण्ड० १११ आचमनम्। स्था० ३३९। ८५८ आयमाणे-आददानः, प्रवर्तमानः। सूर्य. १२ आयतो- आयतः, मोक्षः। सूत्र० १७३। मोक्खो। दशवै. आयमेज्जा-निर्लेपनं चापाने एवमेव कर्यात्। ओघ. १२५१ आयत्तं- आयत्तम्, सम्मिश्रम्। पिण्ड० ८१। आयय-आयतम्, प्रसारितम्, दीर्घम्। भग. २३० आधिनीकृतम्। आव० ३६६। आयतः-मोक्षः, आयतम्-अत्यन्तम्। दशवै० २५८। आयत्ताए- आत्मत्वाय-आत्मीयकर्मानुभवाय। आचा० आकृष्टं, दीर्घश्च। भग. ९३, ३३३। मोक्षः। व्यव० १९७ २३३ अ। आत्मा। आचा० १२२ मोक्षः संयमो वा। उत्त० ५८७। आयपइहिते-आत्मप्रतिष्ठितः, आत्मना वा संयतः। आचा० ३१४। प्रयत्नवान्। भग. ९३। दीर्घः परत्राक्रोशादिना प्रतिष्ठितो-जनित आत्मप्रतिष्ठितः। । सर्वकालभवनात् मोक्षः। सूत्र०७५ स्था० ९२आत्माप आययकण्णायत्तं-आयतकर्णायतम्, प्रयत्नवत्कर्ण राधेनैहिकामुष्मिकापायदर्शनादात्मविषयः। स्था. १९३। यावदा-कृष्टम्। भग० ९३। आयपतिहिए-आत्मप्रतिष्ठितः, आत्मन्येव प्रतिष्ठितः। | आययचक्खू-आयतचक्षुः दीर्घमैहिकामुष्मिकापायदर्शि प्रज्ञा०२९० चक्षुः-ज्ञानं यस्य स। आचा० १३६। आयपवायं- आत्मप्रवादं, सप्तमपूर्वम्। स्था० १९९) आययहिए-आयतार्थिकः, मोक्षार्थी। दशवै० २५६। आयप्पवाय- आत्मप्रवादः, यत्रात्मनः आययद्विया-आयतार्थिकाः, आयतो-मोक्षः संयमो वा स संसारिमुक्ताद्यनेक भेद-भिन्नस्य प्रवदनम्। दशवै. एवार्थः प्रयोजनं विदयते येषामिति। उत्त० ५८७ १२ आत्मानं-जीवमनेकधा नय-मतभेदेन यत्प्रवदति आयतः-मोक्षस्तत्र स्थिता आयतस्थिता तत्। नन्दी० २४१ उद्यतविहारिणः संविग्ना इत्यर्थः। व्यव० १९७ अ। आयप्पवायपुव्वं-आत्मप्रवादनाम सप्तमपूर्वम्। सम० । आययट्ठी-आयतार्थी, मोक्षार्थी। दशवै. १८७ २६॥ आययणं-आयतनम्। आव०२११। आदानम्। अन्त० आयभाव-आत्मभावः, स्वस्वरूपः। अन्यो० २२६। जीव- २४। गमनम्, गृहम्। जीवा० २७९। स्थानम्। जम्बू०७७। सम्बन्धः। अनुयो० २२० दशवै. १९८ आइ-अभिविधौ समस्तपापारम्भेभ्यः उत्थानशयनगमनभोजनादिरूप आत्मपरिणामविशेषः। आत्मा आयत्यते-आनियम्यते यस्मिन् कुशलानुष्ठाने भग. १४९। अनादिभवाभ्यस्तो मिथ्यात्वादिकः, वा यत्नवान् क्रियत इत्यायतनं-ज्ञानादित्रयम्। आचा. विषयगृध्नता वा। सूत्र. २४०। २०६। उत्पत्तिस्थानम्। उत्त०६२३ आयभाववंकणया-आत्मभाववंकनता, आत्मभावस्याप्र- | आययतरे-आयततरः, आयमनयोरतिशयेनायत शस्तस्य वकनता वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता। आयततरः। आचा० २९४१ यत्नेनाध्यवसितः। आचा. स्था०४२ २९३ आयभाववंचणा-आत्मभाववञ्चनता, आयरंति-आचरन्ति, आसेवन्ते। दशवै. १९८१ मायाप्रत्ययिकीक्रियायाः प्रथमो भेदः। आव०६१२ आयरंतो-आचरन्, व्यवहरन्, कुर्वन् वा। उत्त०६४। आयभाववत्तव्या-आत्मभाववक्तव्यता, अहंमानिता। आयरक्खा-आत्मरक्षा, स्वाम्यात्मरक्षा। भग० १९४| भग०१३९ अंगरक्षा राज्ञाम्। स्था० ११७ आयमणं-आचमनम्, निर्लेपदादि। ओघ. १३७, १९०, आयरक्खिए-आत्मरक्षितः, आत्मा रक्षितो १६२ आशातनायाः दशमभेदः। आव०७२५। गण्डू- दुर्गतिहेतोरप-ध्यानादेरनेनेति। उत्त. ९९। आयरक्षितःषादिकरणम्। उत्त० ३७० निर्लेपनम्। बृह. २०४ आ। आयोवाज्ञाना-दिलाभो रक्षितोऽनेनेति। उत्त. ९९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [137] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) आत्मा रक्षितो दुर्गति-पतनात् त्रातोऽनेनेति, रक्षिता आयाः सम्यग्दर्शनादिलाभा येनेति । उत्त ४९५ आवरणं- आचरणम्, अनुष्ठानम् । उत्त० ५३३ | आयरणया- आदरणं, अभ्युपगमं आचरणम् वा भग ५७३| आयरणा - आचरणा, विधिः, मर्यादा, सीमा च । आव ० ६३९। ततियभङ्गविकप्पो । निशी० १९८ अ । चर्या । बृह १२९ आ आयरिअ आचार्यः, शिल्पोपदेशदाता भग० ३१७ ऑप. ६२] अनुयोगाचार्यः उत्त. १७ व्यव० १३७ अ अनुयोगधरः । आचा० ३५३ | सपरसिद्धंतपरुवगो निशी० १६ अ आयरिए - आचार्यः - प्रतिबोधकप्रव्राजकादिः अनुयोगाचार्यो वा स्था० १४३, २४४ आयरियं- आचरितम्, आसेवितं। आव० २६३] आर्यआराद् यातः पापकर्मेभ्य इति । भग० ९० | आचरणमाचरितं तत्तक्रियाकलापः । उत्त० २६६ | आरायातं सर्वकुयुक्तिभ्य इत्यार्य-तत्त्वं तत् । उत्तः २६६। आर्यम् आर्याणां कर्त्तव्यं आचार्य वा मुमुक्षुणा यदाचरणीयं ज्ञानदर्शनचारित्रम् सूत्र० १८४ पापकर्मेभ्य आरायातमित्यार्यम् । स्था० ११९| आयरिय- आचार्यः। प्रज्ञा० ३२७ | शिल्पी | जम्बू० २१२ | आङित्यभिव्याप्त्या मर्यादया वा स्वयं पञ्चविधाचारं चरत्याचरयति वा परान, आचर्यते वा, मुक्त्यर्थिभिरासेव्यत इति । उत्त० ३७ आ-मर्यादयातद्विषयविनयरूपया चर्यते सेव्यते, ', आगम- सागर- कोषः ( भाग :- १) जिनशासनाथपदेशकतया तदाकाडिक्षभिरिति, आचार:- ज्ञानाचारादि, आ-मर्यादया वा चारो-बिहार आचारः तत्र यः स्वयंकरणात्प्रभाषणात्प्रदर्शनाच्च साधुः स, आ-ईषत् - अपरिपूर्णाः हेरिका ये ते चाराः- आचारचार-कल्पाः, युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेयाः शिष्यास्तेषु यो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया भग- 31 आयरियउवज्झाए - आचार्योपाध्यायः, आचार्येण सहोपा - ध्यायः भग० २३रा आचार्येवोपाध्यायः। निशी० १९६ आ। आयरियजणवय- देशविशेष: । निशी० ३४४ आ आयरियते आचार्यकम् तद्यन्थव्याख्यातृत्वम्। व्यव. १६६ अ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित आयरियव्वं पठियव्वं निशी. ५आ आयवणाम- आतपनाम - यदुदयात् जन्तुशरीराणि स्वरूपेणानुष्णान्यपि उष्णप्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातपनाम, तद्विपाकश्च भानुमण्डलगतेषु पृथिवीकायिकेष्वेव न वहन, प्रवचनेऽपि निषेधात्, तत्रोष्णत्वमुष्णस्पर्शनामोदयात् । उत्कटलोहितवर्णनामोदयाच्च प्रकाशकत्वम् । प्रज्ञा० [Type text] ४७३ | आयरिया- आचार्याः प्राणाचार्या वैद्याः उत्त मज्जा व्यव० १७१ अ आयरिसो- आदर्श आचा०५१ आयरेणं- आदरेण प्रयत्नेन । जम्बू. १९२१ आयरो- आदर, आद्रियते आदरणं वा परिग्रहस्याष्टमं नाम | प्रश्न. ९२| सम्भ्रमः । बृह० ११ अ आर्य- अज्ज, पितामहः । व्यव० १७१ अ अजुगुप्सीत्कारी व्यव० १४ अ आयवं- आतपवान्, चतुर्विंशतितममुहूर्त्तनामविशेषः। सूर्य० १४६ । जम्बू ० ४९१ | रविबिम्बजनित उष्णप्रकाशः । उत्त० ५६१। आतपः, आ-समन्तात्तपति सन्तापयति जगदिति । उत्त० ३८ | घर्म । उत्त० १२१ | आयवतत्तए- आतपतप्तं पयः । भग० ६८० | आयवत्ताइं आतपत्राणि, छत्राणि जम्बू• ८१ आयवाइ- विश्वकारणात्मवादिनः । आव० ८१६ । आयवाई - आत्मवादिनः, क्रियावादिविशेषः । सम० ११० । 'पुरुष एवेदं ध्नि' मित्यादि प्रतिपत्तुरिति । स्था० २६८ आयवाभा आतपाभा, सूर्यस्य ज्योतिषेन्द्र द्वितीया अग्र-महिषी जीवा० ३८५| सूर्यस्य पत्नीनाम। भग - [138] ५०५| आयवी- आत्मवित आत्मानं श्वभ्रादिपतनरक्षणद्वारेण वेत्तीति । आचा० १५४ | आयवीरियं वीर्यस्य पञ्चभेदः। निशी० १९ अ । आयसंचेयणिज्जा - आत्मना संचेत्यन्ते - क्रियन्त इति आत्मसंचेतनीया (घट्टन-पतन स्तंभन श्लेषजन्या उपसर्गाः) । स्था० २८० आयसंचेयतो- आत्मसंचेतनीयः - आत्मनैवात्मनो दुःखो त्पादनम् । व्यव० १९६ अ । आयसा- आत्मना। सूत्र० १०६ । “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आयसी-लोहमयी, दर्भमयी च। प्रश्न. १३ व्यव. २१८ आ। हिंसायाश्रवद्वारमष्टादआयसंवेणिज्जा-आत्मसंवेदनीया-आत्मना क्रियन्ते ये, शपापस्थानरूपं वा तत्स्थितेनिमित्तत्वात्कषाया वा। उपसर्गाः। आव० ४०५ आचा० १७१। आदीयत इति आदानः, धनधान्यादि। आयसरीरसंवेयणी-आत्मशरीरसंवेजनी, उत्त. २६५ आदीयत इति आदिः-प्रथमम्। उत्त० १७० संवेजनीकथायाः प्रथमो भेदः। दशवै०११२ आदीयन्ते-गृह्यन्ते शब्दादयोऽर्था एभिरिति आयसरीराणवकंखिया-स्वशरीरक्षतिकारिणी क्रिया। आदानानि-इन्द्रियाणि। बृह० २११ आ। आदीयतेस्था०४३ सद्विवेकैर्गृह्यत इति, चारित्रधर्मः। उत्त० ३३८। आयसेण-आत्मसेनः, जंबूदवीपैरवते अस्यामवसर्पिण्यां | आदीयते गृह्यतेऽर्थः अनेनेत्यादानम्-इन्द्रियम्। भग. चतुर्थतीर्थकृत्। सम० १५९। २२४। आदानः, आदेयो रम्यः। प्रश्न०८१। आदीयतेआया- आत्मा, जीवः। आचा० १६। आत्मा। भग० १२२॥ स्वीक्रियते आत्महितमनेनेति आदानः-संयमः। उत्त. आत्मा, रूपं। नन्दी. २१२। दवादशशते २२५। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपम्। सूत्र. ४०५५ आत्मभेदनिरूपणार्थो दशमोद्देशकः। भग० ५५२। आयाणपएण-आदीयते-प्रथममेव गृह्यत इत्यादानं अतति-सततमवगच्छति अतसातत्यगमन' इति तच्च तत्पदं चादानपदं तेन आदानपदेन। आचा० १९६। वचनादतो धातोर्गत्यर्थत्वागत्य-र्थानां च आयाणपय-आदानपदम्, ज्ञानार्थत्वादनवरतं जानातीति निपातनादात्मा-जीवः शास्त्रास्याध्ययनोद्देशकादेश्चादि-पदम्। अनुयो० १४१| उपयोगलक्षणत्वादस्य सिद्धसंसार्यवस्थाद्वयेऽप्युपयो- | आयाणपरिसाडे- आधानपरिसाटम्, गभावेन सततावबोधभावात्, अतति-सततं गच्छति गर्भाधानपरिसाटरूप-मूलकर्मतृतीयभेदः। पिण्ड. १४२ स्व-कीयान् ज्ञानादिपर्यायानित्यात्मा, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिईसंसार्यपेक्षयानानागतिष सततगमनात् मुक्तापेक्षया च आदानभाण्डमात्रनिक्षेप-णासमितिः, भाण्डमात्रे भूततद्भावत्वादात्मेति। स्था० १० आदाननिक्षेपविषया समितिः-सुन्दरचेष्टा। आव०६१६) आयाए- आत्मविराधनादोषः। ओघ० ७९। आदाने-ग्रहणे भाण्डमात्रायाःआयाणं- आदानम्, ईप्सितार्थग्रहणम्। औप०१८ वस्त्रायुपकरणरूपपरिच्छदस्य, उपकरणस्य वा, अर्गलास्थानं वा। औप०१८ दुष्प्रणिहितमिन्द्रियं। भाण्डस्य-वस्त्रादेम॒न्मयभाजनस्य वा मात्रस्य चआचा० ३०४। कर्मादानम्। आचा. ३३७ आदीयते- पात्रविशेषस्य निक्षे-पणायां-विमोचने ये समिताःस्वीक्रियते प्राप्यते वा मोक्षो येन तत्, सुप्रत्युपेक्षितादिक्रमेण सम्यक् प्रवृत्तास्ते। औप० ३५ ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयम्। सूत्र. ५२। डगलगा। निशी० २२० | आयाणरक्खी-आदानरक्षी, आदीयते-स्वीक्रियते आ। गहणं, जेण मग्गेण गंतण दगमट्टियहरियादीणि | आत्महितमनेनेत्यादानः-संयमस्तद्रक्षी। उत्त० २२५। घेप्पंति तं दगमट्टियं। दशवै० ७८ कुचादिग्रहणम्, आयाणसो- आदानशः-आदेरारभ्य। सूत्र० ४२४। सम्प्राप्तकामस्यैकादशो भेदः। दशवै. १९४१ आदानः- आयाणसोय-आदानस्रोतः, आदीयते-सावद्यानुष्ठानेन आदीयतेऽनेनेत्यादानो-मार्गः। दशवै. १६८। इन्द्रियम्, स्वी-क्रियत इति आदानम्-कर्म संसारबीजभतं तस्य करणम्। भग० २८६। आदीयतेद्वारस्थग-नार्थ गृह्यत स्रोतांसि-इन्द्रियविषया इत्यादानः। जम्बू. १११। आदीयते-गृह्यते मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा वा। आचा. १९२ आत्मप्रदेशैः सह श्लिष्यतेऽष्टप्रकारं कर्म येन आयाणसोयगढिए- संसारबीजभूतेन्द्रियविषयः तदादानम्, हिंसाद्याश्रवद्वारमष्टादशपापस्थानरूपं मिथ्यात्वादि-गृद्धः-अध्यपपन्नः। आचा० १९३। वा। आचा० १७०| संयमानुष्ठानं। आचा० १२८। आयाणिज्जं-आदानीयम्-श्रुतं। आचा० १२२। कर्म। कर्मोपादानं। आचा. २४३, ३३० आदीयते आचा० २४। आदातव्यं भोगाङ्ग, आदानीयं-कर्म। सावद्यानुष्ठानेन स्वीक्रियते। आचा० १९३। आदिः। | आचा० १२२। ग्राह्यः, आदेयवचनश्च। आचा० १९१| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [139]] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) आयाणी - क्वचिद्देशविशेषेऽजाः सूक्ष्मरोमवत्यो भवन्ति, तत्पक्ष्मनिष्पन्नानि आजकानि भवन्ति । आचा० ३९४ आयाणीय आदानीयम्, ग्राह्यम्। आचा० ३८० आयाती- आयातिः, गर्भान्निर्गमः । स्था० ६७ आयापरिणामो- आज्ञया परिणामः । व्यव० ४५० अ । आयाम- अवशायनम् । आव• ५४| दैर्घ्यम् । अनुयो० १८०, १७१| भग० ११९| स्था० १८४ । अवश्रावणम् । ओघ० १३३| पिण्ड० १७| आचामः । स्था० ३३९ | अवसामणं । निशी० ४७ आ । आचाम्लम् । उत्त० ७०६ | उच्चत्वम् । भग० २६९| आयामगं- आयामकम् अवश्रावणम्। उत्तः ४१९१ आयामणया- आकर्षणम्। भग० ९३१ आयामते आयामकम् अवश्रावणम्। स्था० १४७१ आयामविक्खंभो आयामविष्कम्भः । आव० १५०१ आयामुसिणोदगं अवश्रावणमुष्णोदकं च स्था० ३३९ | आयामे - आयामः, दैर्घ्यम् । प्रज्ञा० ४२७ आयामेति- ददाति । भग० ६६३ | आयामेत्ता आयामेन समाकृष्य सूत्र. ३०९ आयम्य, आकृष्य। भग० ९३। आयामेत्था भोजितवान्। भग. ६६२२ आयाय - आदाय स्वीकृत्वा चारित्वा उत्त० रस्त अवगम्य । आचा• ३३९| गृहीत्वा मयैतदर्थ यतितव्यमिति निश्चित्य बुद्ध्यासम्प्रधार्येतियावत् । उत्त० २६८ बुद्ध्यागृहीत्वाऽभ्युपगम्य । उत्तः २५३1 गृहीत्वा अवगम्य आचा० ३३५ बुद्ध्यागृहीत्वा । उत्तः १०४ | 7 आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) , आयार- स्वरूपम्। जम्बू० १८१ मूलगुणादिः । दशवै० २५६ । लोचास्नानादिः । दशवॅ. ११० आइ मर्यादायां चरणं चार:- मर्यादया कालनियमादिलक्षणया चार आचार इति आव• ४४८॥ चतुर्यनिर्युक्तिः आव०६१। श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि । भग० १२२| व्यवहारः। स्था॰ ६४ | चारित्रम् । उत्त० ५६३ | ज्ञानाचारादि। उत्त० पटा आयारअक्खेवणी- आचाराक्षेपणी, आचारो-लोचास्नाना दिस्तत्प्रकाशनेन आक्षेपणी स्था० २१० | आयारकुसल ज्ञानाद्याचारेण कर्मशुकानां लावकः । व्यव० २३४१ आचारे ज्ञातव्ये प्रयोक्तव्ये वा दक्षः, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text ) अभ्युत्थाना-सनप्रदानाद्युपहितान्तगुणानामाकरो वा । व्यव० २३६ | आयारक्खी आत्मरक्षी आत्मानं रक्षयत्यपायेभ्यः कुगतिं गमनादिभ्य इत्येवं शीलः । उत्तः २२५ आयारगोअर - आचारगोचरः, क्रियाकलापः । दशवै० १९१ | आचार:- मोक्षार्यमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरः । आचा० ३६६ । आयारग्ग- चूलिका। आचा० ७ | आयारतेणे- आचारस्तेनः, विशिष्टाचारवत्तुल्यरूपः । इति । दशकै १९० आयारदंसणं- आचारदर्शनम्, प्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनम्। आव• ४४८१ आयारदोसो - आचारदोषः आव० ६५४१ आयारपकप्प - आचारप्रकल्पः, आयरणं आयारो सो य पञ्चविहो—णाणदंसणचरित्ततववीरियायारो य, तस्य पक-रिसेणं कप्पणा - सप्तभेदप्ररूपणेत्यर्थः । निशी० ४ आ। आचार-प्रथमाङ्गं तस्य प्रकल्पः - अध्ययनविशेषो निशीथ मित्यपराभिधानं, आचारस्य वा साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पो व्यवस्थापनमित्याचारप्रकल्पः सम० ४८ उत्त० ६९६| (निशीथः) आचार एव आव० ६६०। प्रत्याख्यानपूर्वस्य विशतितमं प्राभृतं। आचा. ३१९, ३२० निशीथाध्ययनम् । स्था० ३३५| आयारपभासणं- कालनियमाद्याचारव्याख्यानम् । आव ० ४४८ आयारफलं - आचारफलम्, मुक्तिलक्षणम्। उत्त० १८३श आयारभंडए - आचारभाण्डम् अनुत्त० १। आयारभंडग- आचारभाण्डक पात्रकम् । ओघ० १५११ आयारभाव - विशिष्टाचारः । दशवै० १९०| आयारमंतरे - आचारान्तरे । आव० ७९३ । आयारवं- पंचविहं आयारं जो मुणइ आयरह वा सम्मं सो निशी ० १२८ आ । ज्ञानादिपञ्चप्रकाराचारवान् । स्था० ४२४, ४८४ । आयारवंत आकारवत्, सुन्दराकारं आकारचित्रं वा । औप० 1 आयारसमाही - आचारसमाधिः, चतुर्थ विनयसमाधिस्थानम् दश 3491 [140] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आयारे - आचारः। निशी० १४८ आ । ज्ञानादिविषयाssसेवा स्था• ३२५| आचार्याणां नमस्कारार्हत्वे तृतीयहेतुः तानाचारवत आचाराख्यापकांश्च प्राप्य प्राणिन आचारपरिज्ञानानुष्ठानाय प्रभवन्ति । आव ० आगम- सागर - कोषः ( भाग :- १) ३८३ | आयारो - आचारः साधुसामाचारी प्रश्न. १२५| आचार्यते आसेव्यत इत्याचारः । आचा० ५। आचारः । व्यव० ३९१ अ। आयावए- आपातनाकारी । प्रश्न० १०७ | आयावगा - असुरकुमारविशेषः । भग. ६२० आयावणा- आतापनास्थानम् । आव० ३९१ | आयावादी आत्मवादी आचा. २२ आयावतं- सकृदीषवा तापनमातापनम्। दशवै० १६३ | आयाविंतो- आतापयन्। आव० ३७१। आयास- पीडा । ओघ० १५७ | लोहमयम् । भग० ३१९ | मनःप्रभृतीनां खेदः, परिग्रहस्य चतुर्विंशतितमंनाम। प्रश्न० ९२ ॥ आयासकर आदेशितः आदेश, आदेशत इति आदेशः। व्यव० ३३६ आ। आयाहिणं पयाहिणं- आदक्षिणप्रदक्षिणः, आदक्षिणात्दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः परितो आम्यतो दक्षिण एव। सूर्य० ६। आव० १२४| जम्बू० १७| भग० ११४| आयाहिण - आदाहिणा, आदक्षिणाप्रदक्षिणा । आव० २३२ आयुः कर्मानुभूतिः स्थितिर्जीवनमिति । प्रज्ञा० १६९। आयुः क्षेमस्य जीवितस्य आचा० २९१। आयुषः क्षेम:। सम्यक्पालनं तस्य । आचा० २९० | आयुर्वेद:- वैदकशास्त्रम् । विपा० ७५| आयो- लाभः । भग० ९॥ गमनं, वेदनम्। स्था• ३४८१ आयोगठाणं- आयोगस्थानम् मेलनस्थानम् । आव ० ८२३| आयोग्गहो- आयपमाणं खेत्तं । निशी० २४६ आ आयोधनस्थानम् - अट्टालकम् । उत्त० ३११ | आरं- आरः संसारः । बृह० ५१ अ, २०१ अ । इहभवः, गृहस्थत्वम्, संसारो वा सूत्र• १६ इहलोकाख्यं मनुष्य लोकं वा। सूत्र० १५२। आरंभ- आरम्भः जीवोपघातः, उपद्रवणं, सामान्येन वाss श्रवद्द्द्वारप्रवृत्तिः । भग० ३१ श्रावकस्याष्टमी " मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [141] [Type text] प्रतिमा। आव० ६४६ | आरभ्य। आव० ६८८। सावयानुष्ठानम् । आधा• ७८] जीवोपघातः । भग. ७५३] पृथिव्याद्युपमर्दनं । स्था० १०८ सावद्यक्रियानुष्ठानम्। आचा० १५६ | आरम्भणमारम्भः शरीरधारणायान्नपानाद्यन्वेषणा | आचा० २९० | द्रव्योत्पादनव्यापाराः । उत्त० ४५६ | पृथिव्याद्युप-मर्दनम्। प्रज्ञा० ३३५ | जीवाः, कृष्यादिव्यापार, जीवानामुपद्रवणं वा प्रश्न ६। निशी० ३३ आ । व्यापारः । प्रश्न० ६३ | . हलदन्तालखननः । आव० ८१८ | आरंभ- आरभते पृथिव्यादीनुपद्रवयति । भगः १८३१ आरंभओ - आरम्भजः, आरम्भात् हलदन्तालखननाज्जायते सः । आव० ८१८ | आरंभकहा- आरंभकथा, छागतित्तिरमहिषारण्यकादिका हता अत्रेति प्रशंसनं द्वेषणं वा । भक्तकथायास्तृतीयभेदः । आ० ५८१ । तित्तिराद्युपयोगकथा | स्था० २०९ | आरंभपरिण्णा आरम्भ :- पृथिव्याद्युपमर्दनलक्षणः परिज्ञातः - तथैव प्रत्याख्यातो येनासावारम्भप्रतिज्ञातः, श्रमणोपासकाष्टमी प्रतिमा सम० १९ आरंभसमारंभ - आरंभसमारंभः, आरंभा - जीवास्तेषां समारंभः - उपमर्दः, अथवा आरंभ:कृष्यादिव्यापारस्तेन समारंभो जीवोपमर्दः, अथवा आरंभो-जीवानामुपद्रवणं तेन सह समारंभः, परितापनमिति वा, प्राणवधस्यैकादशपर्यायः । प्रश्न० ५ | आरंभिया - आरंभिकी, आरंभः पृथिव्याद्युपमर्दनं स प्रयोजनं कारणं यस्याः सा सम्यग्दृष्टेः प्रथमक्रिया । प्रज्ञा० ३३४ | विंशतिक्रियामध्ये प्रथमा । आव० ६१२ | आरम्भ-णमारम्भः तत्र भवा आरम्भिकी। स्था० ४१ | आरक्खि आरक्षकः चौरग्राहकः । ब्रह. १०७ आ आरक्षिकः ओघ० ८९ आरक्खिगो- दंडवासिगो । निशी० ३० आ । आरक्खितो- कोडवालो निशी० २६२अ आरक्खिय- आरक्षकः । उत्त० १६५९ दण्डनायकः । दश १६६ । आव ६३३३ ओ. १०६ | आरक्षिकाणामप्युपरि स्थायिनोहिंडिका आरक्षिकाः, पुररक्षिकाः। व्यव. १४५ आरक्खियपुरिसो- आरक्षकपुरुषः । आव० ३५१। आगम-सागर-कोषः " [१] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आरगय-आराद्गतम् आरसियं-आरसितम्, शब्दितं। आव. २२७१ आराद्भागस्थितमिन्द्रियगोचरमागतमि-त्यर्थः। भग. आरा-आरा, प्रवणदण्डान्तर्वतिनी लोहशलाका। प्रश्न २१७ २श तुट्टोवाणहसिव्वणट्ठा। निशी. १८ अ। आरटन्ती- रुदन्ती। नन्दी. १५४। आराडी- आराटी, आरसनम्। आव०६७७) आरणं-संशब्दनम्। ओघ०८१| आरादण्डः- प्रतोदः। दशवै. २५० आरणा-आरणाः, कल्पोपगैकादशवैमानिकभेदः। प्रज्ञा० आराम-तत्र रमणीयतातिशयेन स्त्रीपुरुषमिथूनानि यत्र ६९। आरमन्ति स विविधपुष्पजात्य्पशोभित आरामः। आरण्ण-आरण्यः, तापसादिः। अन्यो० २४४। अनुयो० २४। विविधपुष्पजात्युपशोभितः। स्था० ३१२। आरण्णगतणं- श्यामाकादितृणम्। बृह. २२० । रतिः। आचा० २२९। आरामः-आरमन्ति आरण्णिय-आरण्यकः, अरण्ये भवः, तिर्थिकविशेषः। यस्मिन्माधवीलतादिके दम्प-त्यादीनि स आरामः। सूत्र०४२२ भग. २३८ आरामाः-दम्पत्यादीनि येष्वारमन्ति ते। आरण्यकम्-लौकिकश्रुतम्। आव०४६५। अनुयो० १४९। वाटिका। प्रश्न० ८ आरम-न्ति-यस्मिन् आरतः-अत्र इतो वा। उत्त० ५४० माधवीलतागृहादौ दम्पत्यादीनि क्रीडन्तीति। औप. ३। आरत्तं-आरक्तम्, ईषद्रक्तम्। आचा० १२१| पुष्पप्रधानवम्। औप०४१। दम्पत्योर्नगरासआरनालं-कजियं (देसीभासाए)। निशी० ४७ अ। नरतिस्थानम्। जम्बू. ३८८1 आगत्य रमन्तेऽत्र आरनिबद्धा-आरकनिबद्धा, गन्त्री। पिण्ड० १०२ माधवी-लतागृहादिषु दम्पत्य इति सः। जीवा० २५८। आरन्निय-अरण्ये वसतीति आरण्यकः। सूत्र० ३१५ दम्पतिरम-णस्थानभूतमाधवीलतादिगृहयुक्तः। प्रश्न आरबके-आरबदेशोद्भवान्, म्लेच्छविशेषान्। जम्बू० १२७। दम्पति-रतिस्थानलतागृहोपेतवनविशेषः। प्रश्न. २२० ७३। माधवीलता-दयुपेतो दम्पतिरमणाश्रयो वनविशेषः। आरबदेशजा-आरब्यः। जम्बू. १९१] प्रश्न. १२६॥ आरबी-आरबदेशवासिनी स्त्री। भग०४६० आरामाइ-विविधवृक्षलतोपशोभिताः आरबो-आरबः, चिलातदेशवासी म्लेच्छः। प्रश्न. १४। कदल्यादिप्रच्छन्नगृहेषु स्त्रीसहितानां पुंसा आरभंती-आरभमाणा, षट्कायान् विनाशयन्ती। पिण्ड० रमणस्थानभूताः। स्था० ८६| १५७ आरामागार-आराममध्यवर्तिगृहम्। औप०६१। उद्यानआरभटभसोलः-त्रिंशत्तमो नाट्यविधिः। जीवा० २४७ | गृहम्। आचा० ३६५ आचा० ३०६] आरभड-आरभटम्, नृत्यविशेषः। जम्बू०४१२। निशी. १ | आरामिओ-आरामिकः। आव० ३९० अ। जहाभिहितविधाणतो विवरीयं, अहवा तरियं आराहइत्ता-आराध्य, अण्णंमि वा दरपडिलेहति अण्णं आढवेंति। निशी. १८१ उत्सूत्रप्ररूपणादिपरिहारेणाबाधयित्वा। उत्त० ५७२। आ। वितथकरणरूपा, त्वरितं सर्वमारभमाणस्य, यथावदुत्सर्गापवादकुशलतया यावज्जीवं तदअर्द्धप्रत्युपेक्षित एवैकत्र यदन्यान्यवस्त्रग्रहणं सा। स्था० सेवनेन। उत्त० ५७२। ३६१। विपरीता प्रत्युपेक्षणा, आकुलं आराहए-आराधयति, प्रगणीकरोति। दशवै० २२४। आरायदन्यान्यवस्त्रग्रहणं तद्वा। ओघ० १०९। सोत्साहः धकः-निरतिचारपालनकृत्। उत्त० ५७८ सुभटः तेषामिदम्। जम्ब०४१७। अष्टाविंशतितमो आराहओ-आराधकः, अविराधकः। ओघ.११२१ नाटय्यविधिः। जीवा० २४७ जम्बू. १४७ आराहगा-आराधकाः-आराधयन्ति-अविकलतया निष्पाआरयं- आरतं, उपरतम्। सूत्र० १०५। अभिविधिना दयन्ति सम्यग्दर्शनादीनि इत्याराधकाः। उत्त० २३३ आसक्तं। प्रश्न. १३८१ आवर्जकाः। उत्त. ३६११ आरसि-आरस्य, रुदित्वा। आव०५०४। | आराहण-आराधनम्, अखण्डकालकरणम्। भग० २९७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [142] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आराहणा- आराधना, सम्यगासेवना । उत्त० ५८६ । अनुष्ठानम् । उत्त० ५९१ । ज्ञानाद्याराधनात्मिका । उत्त० ५८२ | आवर्जनार्थम् । उत्त० ५९१ । अखण्डकालस्य करणम् । आव ८४०] चरमकाले निर्वापणरूपा दशवै. २६२| मोक्षमार्गाखण्डना आव० ५६२२ अष्टमशते दशमोद्देशकः । भग० ३२८ । अखण्डकालकरणम्। उपा० १२] मोक्षारा धनाहेतुत्वात्। अनुयो० ३१। निरतिचारज्ञानाद्यासेवा । स्था० ९८ । आराहणामरणंते- आराधनामरणान्ते, मरणकाले आराधना, योगसङ्ग्रहे द्वात्रिंशत्तमो योग । आव० ६६४ | आराहणी आराधनी, आराध्यते-परलोकपीडया यथावदभिधीयते वस्त्वनया, द्रव्यभावभाषाभेदः। दशवै० २०८८ आराहा- आरोहन्ति ते आराहा। निशी० २७७ अ आराहिय आराधितम् एभिरेव प्रकारैः सम्पूर्णैर्निष्ठां नीता स्था० ३८८ सफलीकृतः । उत्त० २९८१ आराहियचरणया- आराधितचरणता, आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) चरणप्रतिपत्तिसम-यादारभ्य मरणान्तं यावन्निरतिचारतया तस्य पालना भग- ६९५ आराहेड़ आराधयति, साधयति उत्त० १८ आरिए आर्या, आराद याताः सर्वहेयधम्र्मेभ्य इत्यार्याः -संसारार्णवतटवर्त्तिनः क्षीणघातिकर्म्माशाः संसारोदरविवरवर्त्तिभावविदः तीर्थकृतः। आचा॰ ११६। ऋद्धिप्राप्ता अर्हदादयः, क्षेत्रजात्याद्यार्याः । सम० १३५ | आर्यः- चारित्रार्हः । आचा० १३१ | आरओ-आर्यः, आराद् यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इति । सूत्र० ३३। आरायातः सर्वहेयधर्मेभ्य इति, मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः । सू० १७२१ आरियदंसी आर्य प्रगुणं न्यायोपपन्नं पश्यति तच्छीलश्चेति आर्यदर्शीप्रहेणकश्यामाशनादिसंकल्परहितः । आचा० १३१ | आरियपदेसिए - आर्यप्रदेशितः- तीर्थंकरप्रणीतः । आचा० २४७ | -पृथक् आरियपन्ने - आर्यप्रज्ञः-श्रुतविशेषितशेमुषीकः । आचा० १३१| आरिया आर्या, आरादेयधर्मेभ्यो याताः प्राप्ता उपादेयध-मैरिति। प्रज्ञा० ५५५ आरुग्ग- आरोग्यं सिद्धत्वम् आव० ५०७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] " आरुग्गबोहिलाभो - आरोग्यबोधिलाभः, आरोगस्य भाव आरोग्यं सिद्धत्वं तदर्थ बोधिलाभ:- प्रेत्य जिनधर्मप्राप्तिः | आरोग्याय बोधिलाभः आव० ५०८१ आरुमिता छायाया नवमभेदः सूर्य• ९५| आरुहयं आर्हतम् आव. ४६५१ आरुहेत्- आचा. ३७९। आरुह्यते- अध्यास्यते । उत्त० ५१० | आरुढ - आरुढः, अध्यासितः । उत्त० ३४९ | आरुढे पाउयाहिं— आरुढः पादुकयोः-काष्ठमयोपानहोः, एषणायां नवमदायकदोषः । पिण्ड० १५७/ आरुवणा आरोपणा, यत्रैकस्मिन्प्रायश्चित्तेऽन्यदप्यारोप्यते । प्रश्र्न० १४५ । आचारप्रकल्पस्याष्टाविंशतितमो भेदः । आव० ६६० | पच्छित्तं निशी० २३९ आ आरे - पंकप्रभापक्रान्तमहानरकाः । स्था० ३६५ | आरेण आरतः प्रत्यूषसि । ओघ० १४८१ आरात् । सूत्र ४२३| आरोगसाला- अणाहसाला निशी ३८ आ । आरोग्गं आरोग्यं, रोगाभावः। आव० ३४१ | नीरोगता । - " आव० ३४१| आरोग्गा अरोगाः जरादिवर्जिताः । स्था० २४७१ आरोवणा - आरोपणा, आरोपणमेकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुन आसेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताध्यारोपणम्। स्था० २००| प्ररूपणायाः प्रथमभेदः । आव० ३८२ परस्परावधारणम् । आव० ३८३३ प्रायश्चित्तम्। बृह० ८५ आ। चडावना (मायाप्रत्ययमधिकप्रायश्चित्तम्) | स्था०३२५ चडावणा, अहवा जं दव्वादि पुरिसं विभागेण दाणं सा आरोवणा। निशी. ८५अ [143] आचाराङ्गस्याष्टाविंशतितममध्ययनम् । उत्त० ६१७| आरोवणाकसिणं- आरोपणाकृत्स्नं, षाण्मासिकं ततः परस्य भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थ आरोपणस्याभावात् । व्यव० ११८ आ । आरोवणापायच्छित्तं प्रायश्चित्तभेदः । व्यव० ११ अ । आरोहणा आरोपणा प्रायश्चित्तविशेषः । व्यव० १२४॥ आरोहपरिणाहयुक्तता आरोहो दैर्घ्य परिणाहो-विस्तरस्ताभ्यां तुल्याभ्यां युक्तता, शरीरसम्पत्प्रथमभेदः । उत्त० ३९| “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] १४६ आरोहा- महामात्रा। विपा०४६। आलंबण-आलम्बनम्, प्रपततां साधारणस्थानम्। आव. आरोहो- उस्सेहो। निशी. २६६ आ। नातिदैर्घ्य ५३४ प्रवृत्तिनिमित्तं शुभमध्यवसानम। आव० ५८६। नातिहस्वता शरीरोच्छ्रयो वा। बृहपृ० ३०१ आ। ग्लानादि। उत्त० ५८७। रज्ज्वादिवदापगर्ताआर्जिका-अज्जिए, आर्यिका, मातः पितुर्वा माता। दशवै. दिनिस्तारक-त्वादालम्बनम्। भग०७३८, ७३९। २१६ आश्रयणीयं गच्छकुटुं-बकादि। स्था० १५४। आर्ताः-दुःखिनः रागद्वेषोदयेन। आचा० १८३। आलंबणबाहा-अवलम्बनबाहाः, द्वयोः आर्द्रकः-आईकनगराधिपतिः। सूत्र. ३६। विशिष्टतप- पार्श्वयोरवलम्बनाश्र-यभूता भित्तयः। जम्बू० २९२ श्चरणफलवान्। सूत्र. २९९। सचित्तंतरुशरीरम्। आव० | आलइअ-आलगितम्, आविद्धम्। आव० १८५। यथास्थानं ૮૨૮. स्थापितम्। जम्बू० १६० प्रज्ञा० १०१। आर्द्रकुमारः- प्रतिमादर्शने दृष्टान्तः। बृह. १८५। आलइयमालमउड-आलगितमालमुकुटम्, आलगितमालं सदाचारप्रयत्नवज्ज्ञातं। सत्र. ३८५ मुकुटं यस्य सः। भग० १७४। आलगितमालमुकुटः। आर्यः-आरात्-सर्वहेयधर्मेभ्योऽर्वाग् यातः। नन्दी०४९। आचा०४२३। आर्यकम्- हरितम्। दशवै० १८५ आलए-आलयः, आश्रयः। जीवा० २७९। उत्त० ४५४। अज्जकण्हे- आर्यकृष्ण आचार्यनाम। जम्बू. १८ वसतिः, सुप्रमार्जिताः आर्यखपुट-विद्याबले दृष्टान्तः। बृह. १५६ अ। विद्या- स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता वा। आव० ५२९। सिद्धः, सिद्धमन्त्रः। दशवै १०३। आलग्गो-अधृतिमापन्नः, कातरः। आव० ८००। आर्यमंगु-आचार्यनाम। बृह. २४ अ। आलपाल- प्रलापः। आव०६६९। अज्जरक्खिय- आर्यरक्षित आचार्यनाम। आलभिआ-आलंभिका नगरीविशेषः, वीरस्य अज्जवयणं-आर्यवचनम्, आर्याणां-तीर्थकृतां वचनम्- सप्तमवर्षारा-त्रस्थानम्। आव. २०९, २२१ आगमः। उत्त०५२६|| आलभिया-आलंभिका, नगरीविशेषः। भग. ५५०| आर्यवजः- कर्णाभ्यां श्रुते दृष्टान्तः। बृह० ६३ । नगरीविशेषः। भग०६७५ आर्यश्यामः-आचार्यविशेषः। प्रज्ञा०६०६। आलय-आवासः। ओघ० ११६। आश्रयः। जीवा. १७६। आर्यसमुद्रः-आचार्यविशेषः। बृह. २४ अ। जम्बू. १२१॥ आर्यसुहस्ती-आचार्यविशेषः। बृह० २४ आ। आलयविन्नाणं-आलयविज्ञानं-ज्ञानसंततिः। सूत्र. २६। अज्जा-आर्या, प्रशान्तरूपा। अन्यो० २६। भिक्षुणी। आलयगुणेहि-आलयग्णैः, बहिश्चेष्टाभिः ओघ० २०८१ प्रतिलेखनादिभिरु-पशमगुणेन च। बृह० ६२ अ। अज्जासुत्तं- आर्यासूत्रम्, सूत्रभेदः। बृह. २०१आ। आलवंते-आलपन, अत्यर्थं लपन। अनयो० १४२ आर्जिका- आर्यिका मातुः पितुर्वा माता। दशवै० २१६। आलपति, आङिति ईषल्लपति-वदति। उत्त ५५ आर्यः- तीर्थकुद्भिः। आचा० २७४। सकलहेयधर्मेभ्यो दूर आलविज्ज- ईषत्सकृद्वा लपनमालपनम्। दशवै. २१६| यातैस्तीर्थकरादिभिराचार्यैर्वा। उत्त. २९३। आलवित्तए-आलपनम्, सकृत्सम्भाषणम्। आव०८११| आलंकारिअभंड-आलङ्कारिकभाण्डम्, आलपितुं-सकृत्सम्भाषितुम्। उपा० १३। आभरणभृतभाजनम्। जम्बू० २५५) आलस्स- आलस्यम्, अनुद्यमस्वरूपम्। उत्त० १५१| आलंकारियं-आलङ्कारिकम्, अलङ्कारयोग्यं भाण्डम्। अनुत्साहात्मा। उत्त० ३४५। जीवा० २३६। आला- विद्युत्कुमारीमहत्तरिका। स्था० ३६१। आलंच-आलञ्चः, द्रव्यस्य बह्त्वेतरादिभिर्लोके आलाएति-आलगयति। आव० १०० प्रतीतभेदः। प्रश्न. ५६। आलानम्- हस्तिबन्धनस्तम्भम्। नन्दी. १५३। आलंब-आलम्बः, प्रलम्बः। भग० १७५। आलाव-आलापः, सकृज्जल्पः। भग० २२३। आलापः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [144] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] सपा आङ ईषदर्थत्वादीषल्लपनम्। स्था०४०७। अन्त०१७ आलित्र, नौवाहनोपकरणः। आचा० ३७८। आलावगो-आलापकः। आव० २६० आलिद्धा-आदिग्धाः, शिलायां शिलापत्रके वा लग्नाः। आलावणबंधे-आलापनबंधः-आलाप्यते-आलीनं क्रियत | भग० ७६६। एभिरित्यालापनानि रज्ज्वादीनि तैर्बन्धस्तुणादीनाम्। | आलिन्दकम्-अलिंदग, कुण्ड्ल्क म्। अन्यो० १५१| भग. ३९५, ३९८१ आलिसंदग- चपलकाः। जम्बू. १२४॥ चवलकप्रकाराः, आलावो- बहमाणणेहभरितो सरभसं चवलकाः। भग० २७४धान्यविशेषः। भग० ८०२। णमोक्खमासमणाणंतितो गुरुआलावो भण्णति। निशी० | आलिसिंदया-चवलया। स्था० ३४४| २३७ आ। आलिहइ-आलिखति, विन्यस्यति। जम्बू. १९२ आलिं-वनस्पतिविशेषः। जीवा. २०० आलिहमाण-आलिखन, ईषत्सकृद्वाऽऽकर्षन्। भग. आलिंग-आलिङ्गः, यो वादकेन मुरजमालिङ्ग्य ३६५ वाद्यते। जम्बू. १०१। मुरजो वाद्यविशेषः। जम्बू. ३१॥ आलिहाविज्जा-ईषत्सकृदवाऽऽलेखनम्। दशवै० १५२। मृन्मयो मरजः। जीवा० १०५ आलिहित्ता-आलिख्य, आकारकरणेन कृत्वा आलिंगकसंठित-आलिङ्गसंस्थितः, आवलिकाबाह्यस्य | अन्तर्वर्णका-दिभरणेन पूर्णानि कृत्वा। जम्बू. १९२| चतुर्दशं संस्थानम्। जीवा० १०४। आलीढं- आलीढम्, आक्रान्तम्। आव०७०४। दक्षिणपादआलिंगण-आलिङ्गनम्, ईषत्स्पर्शनम्, मग्रतो भूतं कृत्वा वामपादं पश्चात्कृत्यापसारयति, सम्प्राप्तकामस्य दशमो भेदः। दशवै० १९४। स्पृशनम्। अन्तरं दद्वयोरपि पादयोः पञ्च पादाः, लोकप्रवाहे प्रथम निशी० २५६ आ। स्थानम्। आव० ४६५। यत्र दक्षिणं पादमग्रतः कृत्वा आलिंगणवट्टि-आलिङ्गनवर्ती, शरीरप्रमाणम्पधानेन वामपादं पृष्ठतः सारयति, अन्तरं द्वयोरपि पादयोः वर्तते यत्। जम्बू० २८५ जीवा० २३२। सूर्य. २९३। पञ्च पदानि तत्स्थानम्। उत्त० २०५। दक्षिणमुरुमग्रतो आलिंगणि-आलिगिनी, अप्रतिलेखितदूष्यपञ्चके मुखं कृत्वा वाममूरुं पश्चा-त्मुखमपसारयति, अन्तरा च चतुर्थो भेदः। आव० ६५२ द्वयोरपि पादयोः पञ्च पदाः ततो वामहस्तेन आलिंगपुक्खरे-आलिङ्गपुष्करम्, मुरजमुखम्। भग० धनर्गहीत्वा दक्षिणहस्तेन प्रत्यञ्चामाकर्षति तत्। १४५ व्यव०४६ आ। योधसंस्थानं। आचा०८९। योधस्थानम्। आलिंगणी-पुरुषप्रमाणं पार्श्वमुपधानं। बृह. २२० । । स्था० ३। वामरुअं अग्गओ काउंदाहिणपिट्ठतो वामहजाणुकोप्परादिसु जा दिज्जति सा। निशी० ६१ । । त्येण धणू घेत्तूणं दाहिये एयं गच्छइ। निशी. ९० अ। आलिंगिता-पुरिसेणित्थीस्तनादिषु स्पृष्टा। निशी० ११३ | आलीणाणि- ईसिं लीणाणि। दशवै० १२५१ आलीणे-आलीनः। जीवा. २७३| गुरुसमाश्रितः, संलीनो आलिंगो-आलिङ्ग्यः। जीवा. २६६। आलिङ्गः, मुरजो । वा। भग०८११ वाद्यविशेषः। जीवा० १८९। आलीवग-आदीपिकः, गृहादिप्रदीपनककारी। प्रश्न०४६। आलिंपइ-सकृत् लिंपइ। निशी. ७६ आ। आलीवणं- व्याकुललोकानां मोषणार्थं आलि-वनस्पतिविशेषः। जम्बू०४५। जीवा० २००९ ग्रामादिप्रदीपनकम्। विपा० ३९। औषधविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ आलुंचनं-आलुञ्चनं, ग्रहणम्। आव० ५६२। आलिघरं-आलिगृहकम्, वनस्पतिविशेषस्तन्मयं आलुंपे-आलुम्पः, गृहकम्। जीवा० २००५ निर्लाञ्छनगलकर्तनचौर्यादिक्रियाकारी। आचा० १०२ आलिट्ठमणालिहूं-आलिष्टानाश्लिष्टम्, कृतिकर्मणि | आलए-आलकः-अनन्तकायभेदः। भग० ३०० कन्दचतुर्भ-गभिन्नः सप्तविंशतितमो दोषः। आव०५४४ विशेषः। उत्त० ६९१। आलुकम्-साधारणवनस्पतिकायिआलित्त-अभिविधिना ज्वलितः। भग० १२१। आदीप्तः। | कभेदः। जीवा० २७। आलुका-कुण्डिका। अनुत्त० ५५। । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [145] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आलुयं- आलुकम्, कन्दविशेषः। अनुत्त० ६। त्रयोविंश- | आलोएज्जा-आलोचनं-गुरुनिवेदनम्। स्था० १३७। तितमशतकाद्योद्देशकः। भग०८०४१ आर्द्रकम्। भग. आलोएत्तो-आलोयणा। व्यव० १०८ अ। ८०४१ आलोको-आलोक्यत इति आलोकःआलेखः-विचित्रम्। जीवा० १९९ स्थानदिगादिनिरूपणम्। ओघ. १८१। आलेवणं- आलेपनम्। आव० ६२३। आचा० ३२ अतिस्निग्धदीपशिखादिदर्शनम्। उत्त०६३१। सावकाश आलेहो-आलेखः, चित्रम्। जम्बू. ३२१ मुक्त्वाऽभ्यन्तरे स्वपन्ति। ओघ. १०७। आलोक्यन्ते आलो-आलं, अशक्यक्रियम्। आव. ९४। दिशोऽस्मिन् स्थितैरिति। उत्त०४५११ आलोअं-अवलोकः, नि!हकादिरूपः। दशवै० १६६। बहिः- | आलोग-आलोकम्, सौरप्रकाशम्। जम्बू० २२९| चोपप्रस्थानभाविनि शकुनानुकूल्यालोकेन। जम्बू. २६३। लपादी। दशवै०७६ समो भूभागः। ओघ. १९३। सौरप्रकाशम्। प्रज्ञा० ५००० आलोकनमालोको यावद्दृष्टिप्रसरः। ओघ० २३। आ(अव)लोअचलं-आ(अव)लोकचलम्, अवलोकनमा- | आलोचयति- गणयति प्रेक्षते च। आव० ५३६। लोकस्तस्मिंश्चलं, दर्शनलालसम्। आव० ७८४१ आलोयं-आलोकम्। ओघ० ८४ दृष्टिपथम्। औप०६९। आलोअणं-आलोकनम्, निरूपणम्। ओघ. ५२। अण्णेसिं | स्थानदिक्प्रकाशादिसप्तधाssलोकम्। बृह. १४६ आ। आख्यानं। निशी० ३३४ अ। आलोक्यन्ते दिशो-ऽस्मिन् प्रकाशः। आव० ६४२। आलोकस्थानं-गवाक्षादिकं। स्थितैरिति। उत्त० ४५१। आलोचनम्-गुरुनिवेदनम्। आचा० ३४१। स्था. १३७। प्रायश्चित्तभेदः। स्था० २०० आलोयणं-आलोचनम्, यथागृहीतभक्तपाननिवेदनम्। आलोअणा-आलोचना, आभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रका- प्रश्न. १११। आलोचना, प्रयोजनतो शनम्। आव०४६९। हस्तशताबहिर्गमनागमनादौ ग्रोर्विकटना, आलोअभायणं-आलोकभाजनम्, मक्षिकाद्यपोहाय मिथ्यादुष्कृतं च। आव०७६४। एकादशी गुर्वाशातना। प्रकाशप्र-धानं भाजनम्। दशवै. १८० आव० ७२५। गुरोः पुरतो वचसा प्रकटीकरणम्। व्यव० आलोइज्ज-आलोचयेत्-प्रकाशयेत्। उत्त० ५४४ १४ अ। स्था० २००। अलवणं। व्यव० ३३५अ। सकृत् आलोइज्जा-आलोकयेत्-पश्येत्-ब्रुयात्। आचा० ३२८१ अनेकशः प्रलोकनम्। निशी० २२२१ अवलोकयेत्। आचा० ३९६| आलोयणा-आलोचना, आङिति-सकलदोषाभिव्याप्त्याआलोइता-आलोकिता, ईषदष्टा। उत्त० ४२५ लोचना-आत्मदोषाणां गुरुपुरतः प्रकाशना। उत्त० ५७९। समन्तादृष्टा। उत्त० ४२५ आलोचना। ओघ. २२७ योगसङ्ग्रहे प्रथमो योगः। आलोइत्तए-आलोचयित्म, आव० ६६३। परस्स पागडं करेइ। निशी० ८५ अ। व्यव. गुरवेऽपराधान्निवेदयितुमिति। स्था० ५६। १०७ आ। आलोइयं-आलोकितं-प्रत्यपेक्षितं। आचा० ४२८। | आलोयणाणुलोम-आलोचनानुलोम्यम्, पूर्व लघवः आलोइयपडिक्कंते-आलोचितप्रतिक्रान्तः, आलोचितं आलो-च्यन्ते पश्चाद् गुरवः। आव० ७८१। गुरूणां यदतिचारजातं तत्प्रतिक्रान्तम् आलोयणारिह-आलोचना-निवेदना तल्लक्षणां शुद्धिं अकरणविषयीकृतं येनाथ यदर्हत्यतिचारजातं तदालोचनाहम्। भग० ९२०। वाऽऽलोचितश्चासावालोचनादानात्प्रतिक्रान्तश्च आलोयभायणं-आलोकभाजनम्, प्रकाशम्खे भाजने, मिथ्याद्-ष्कृतदानादालोचितप्रतिक्रान्तः। भग० १२८१ अथवा आलोके-प्रकाशे नान्धकारे आलोए-आलोकः, दर्शनम्। भग० ३१८ दर्शनं, दृश्य- पिपीलिकावालादीनामनुप-लम्भात्, तथा भाजने-पात्रे, मानता। जीवा० ३९१। आलोचयेत्-दत्तावधानो भवेत्। पात्रं विना जलादिसम्पतित-सत्त्वादर्शनादिति। प्रश्न. आचा० ३४२। चक्षुर्दर्शनपथे। ओघ. १८३ ११२ आलोएइ-आलोचयति। आव०७२५१ आलोविअ-अलोपिकः। दशवै०४४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [146] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ३६७। आलोवेइ-आलोचयति। आव०७१०१ आवडो-आवतः, आवर्तयति-प्राणिनं भ्रामयतीति। आवंति- आचारप्रकल्पे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य सूत्र०८६। उत्त. १८३१ जीवा. २४३ पञ्चममध्ययनम्। प्रश्न. १४५। आचाराङ्गस्य आवड-आवतः-मणीनां लक्षणः। जीवा० १८९| पञ्चममध्ययनम्। उत्त०६१६। आचारांगे आवडइ-आपतति, भवति। ओघ० ९०| प्रथमश्रुतस्कंधस्य पंचमाध्ययनम्। सम०४४। आचा० आवडण-अभिघातः, आपतनं वा। बृह० ७७ आ। १९६| आचा. १८५ आचारप्रकल्पस्य पञ्चमो भेदः। प्रस्फोटनम्। ओघ. १२२ आभिडणं। ओघ. २०४। आव०६६० पक्खलणं। निशी. ४९ अ। आपतनं-दवारादौ शिरसो आवंती- लोकसारापराभिधं, आचारांगपंचमाध्ययनम्। घट्टनम्। बृह. २९५ । स्था०४४४१ आवडणपडणादी-आपतनपतनादयः। ओघ० ९० आवइ-आगच्छत्यापतति। उत्त० २८० आवडणा-उसूआदिस् पक्खलणा। निशी. २१ अ। आवईसु दढधम्मया-आपत्सु दृढधर्मता, योगसङ्ग्रहे आवडिऊण-आपत्य। आव० १९६) तृतीयो योगः। आव०६६४। आवडिए-अवकोटितानि, अधस्तादामोटितानि। उत्त. आवकधाते-यावत्कथा-यावज्जीवम्। स्था० २३६। आवकहियं-यावत्कथिकम्, आवडिओ-आपतितः। आव. १७८1 आस्फालितः। आव. प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकालादारभ्या-प्राणोपरमात् तच्च १९६। आपतितम्। उत्त. १७० आव० ३२० भरतैरावतभाविमध्यवाविंशतितीर्थकरती आवडिया-आपतितौ, प्राप्तौ। उत्त. ५३० र्थान्तरगतानां विदेहतीर्थान्तरगतानां च आवण-आपणः, हट्टः। भग० २३८, १३६। प्रश्न साधूनामवसेयम्। प्रज्ञा० ६३। सकृद्गृहीतं वीथिः। दशवै. १७६। जम्बू. १०७। अनुयो० १५९| यावज्जीवमपि भावनीयम्। आव०८३९। यावज्जीविकं आपणः, पण्यस्थानम्। प्रश्न. १२७। व्रतादिलक्षणम्। आव० ५६३| यावज्जीविकं आवणवीहि-आपणवीथिः, हट्टमार्गः, रथ्याविशेषः। महाव्रतभक्तपरिज्ञादिरूपम्। स्था० ३८०। ये जीवा. २४६। कल्पसमाप्त्यन्तरमव्यवधानेन जिनकल्पं आवणाइ-आयतनानि, आपतनानि वा उपभोगार्थमागप्रतिपत्स्यन्ते ते यावत्कथिकाः। प्रज्ञा०६८ मनानि। जम्बू० १२१॥ आवज्जणं-आवर्जनम्। ओघ. १६९। आवण्ण-आपन्नपरिहारिकाः। बृह. २० अ। आवज्जय-आवर्जकः, आराधकः। उत्त० ३६१। आवण्णपरिहारो-आवन्नपरिहारिकः, जो मासियं वा आवज्जीकरणं-आवर्जीकरणम, आवर्जितः जाव छम्मासियं वा पायच्छित्तं आवण्णो तेण सो अभिमुखीकृतः मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं- सपच्छित्ती असुद्धो अ विसुद्धचरणेहिं साहहिं परिहक्रिया शुभयोगव्यापारः। प्रज्ञा०६०४। आवर्जीकरणम्- रिज्जति इह तेण अहिकारो। निशी० ८९ आ। अन्तमौहर्तिकं उदीरणाव-लिकायां आवण्णसत्ता-आपन्नसत्त्वा, गर्भवती। उत्त० ५३। कर्मप्रक्षेपव्यापाररूपम्। स्था० ४४२। आवती- प्रतिसेवनापंचमभेदः। भग० ९१९। आपत्यःआवट्ट-आवतः शङ्खसत्कः। उत्त०६०५। संसारः। द्रव्यतः प्रासकद्रव्यं दुर्लभं क्षेत्रतोऽध्वप्रतिपन्नता आचा०६२। कालतो दुर्भिक्षं भावतो ग्लानत्वं। स्था० ४८४ आवट्टजोणी-आवतयोनिः, आवतॊपलक्षिता योनिः। | आवतीगंगाउत्त०१८३ गंगामहागंगासादीनगंगामृत्युगंगालोहितगंगातः आवट्टणं-आवर्तनम्, परिभ्रमणम्। सूर्य २७६। सप्तगुणा आवतीगंगा। भग० ६७४। आवदृती-आवर्त्यते, पीड्यते-दुःखभाग्भवति। सूत्र० १९०| | आवत्त- आवतः, आवर्तनम्, प्रादक्षिण्येन परिभ्रमणम् आवट्टितो-आवृत्तः। आव० ९५ | । जम्बू. १८७। षोडशसागरस्थितिकं महाशुक्रविमानम्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [147] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] सम० ३२| आवर्तकः, पयसां भ्रमः। जम्बू. १११। आवरणप्रविभक्तिः - अष्टमनाट्यभेदः। जम्बू. ४१६। चिकरसंस्थानविशेषः। जम्बू. १८३। मणीनां लक्षणानि। आवरिसणं-पाणिएण उप्फोसणं। निशी. १७२ आ। जम्बू. ३१| महाविदेहे विजयनाम। जम्बू. ३४६। आवरेत्ता-आवृत्य-अवष्टभ्य। भग० ५७६) अप्राप्तम्-अस्पृष्टम्, आवत आवृत्तिरावर्तनं- आवर्जनम्-आराधना। उत्त० ५९१| आवर्षणं गन्धोदकापरिभ्रमणम्। भग० १२८। आवर्तिका। जीवा० २४४। दिना। अनुयो० २६। आवत्तकूडे- आवर्तकूटम्, नलिनकूटे तृतीयकूटनाम। आवर्तना-आउट्टणा, आवर्जनं, निवेदनम्। बृह० ४७ आ। जम्बू० ३४६) आवलगनादिकाः-क्रियाविशेषाः। आचा० १२४| आवत्तगा- एकखुरविशेषचतुष्पदः। प्रज्ञा०४५ आवलणं- आवलनम्, मोटनं, अथवा गलकस्य आवत्तणपेढिया-आवर्तनपीठिका, यत्रेन्द्रकीलिका। बलादावलनं मारणं चेति। प्रश्न. २२ जीवा० २०४। यत्रेन्द्रकीलको निवेशितः। जीवा० ३५९। | आवलियपविट्ठो-आवलिकाप्रविष्टः, श्रेणिव्यवस्थितः। यत्रेन्द्रकीलो भवति। जम्बू. ४८१ अग्रवारम्। निशी. जीवा० १०५ १९ अ। आवर्तनम्-भक्तीभवनम्। व्यव. २०३ आ। आवलिया-आवलिका-असंख्यातसमयमाना। स्था०८५) आवत्ता-आवर्ता, ग्रामविशेषः। आव. २०६। आवलिका, श्रेणिः। जीवा० १०५ असंख्येयसमयसंघाआवतबहुल-जला नदी। बृह. १६२ आ। धातकीखंडे तोपलक्षितः कालः। आव०६१। परंपरा। आव०८५८ तन्नाम महाविदेहगतो विजयः। स्था० ८० असङ्ख्यातसमयात्मिका। भग० २११। वंशः, प्रवाहः। आवत्ते- आवतः, विजयस्य नाम। जम्बू. ३४६। जम्बू. १६६। तत्र या विच्छिन्ना एकांते भवति मण्डली घोषव्य-न्तरेन्द्रलोकपालः। स्था० १९८१ सा आवलिका। व्यव० २१ । असङ्ख्येयसमयसमुदाआवत्तो-आवतः, एकखुरविशेषः। प्रश्न०७। यिका। सूर्य. २९२। वंशः, प्रवाहः, जम्बू० २५८। एकखुरश्च-तुष्पदः। जीवा० ३८ नाट्यविशेषः, भ्रमद आवलियाठावगो-आवलिकास्थापकः आचार्यपारम्पर्यम्। भ्रमरिकादा-नैनतनम्। जम्बू०४१४जीवा. २४६। आव०३०७ आवपनम्-लोहमयं शकटोपकरणम्। पिण्ड० २२१ आवलियापविट्ठ-आवलिकाप्रविष्टम, यत्पू आवबहुले- अब्बहुलम्, जलबहुलं, रत्नप्रभापृथव्यास्तृ- दिक्षु श्रेण्या व्यवस्थितम्। जीवा० ३९७। तीयकाण्डः। जीवा० ८९।। आवलियाबाहिरं-आवलिकाबाह्यम्, यत्पनरावलिकाSSआवयं-आवतः, अहोकायमित्यादि सूत्रगर्भो गुरुचरण- | विष्टानां प्राङ्गणप्रदेशे क्स्मप्रकर इव यतस्ततो न्यस्त-हस्तशिरः स्थापनारूपः, सूत्राभिधानगर्भः काय- विप्रकीर्णम्। जीवा० ३९७ चेष्टाविशेषः। आव० ५४२१ आवली-हारः। बृह. ४८ अ। पदगलानां दीर्घरूपा श्रेणिः। आवयइ-अतिपतति। आचा० २६५) सूर्य. १३०| आवली, पङ्क्तिः । ओघ० ८२। आवरणं-आवरणम्, स्फ़रकादि। प्रश्न०१३ आवियते । आवल्लो-बलीवर्दः। आव०६६५ उत्त. १९२ आकाशमनेनेति, भवनप्रासादनगरादि तल्लक्षणशास्त्रम् | आवसंत-आवसन, विवसन्। आचा० ११। आङिति-गुरु। स्था० ४५१। सन्नाहः। प्रश्न०४९। कवचादि। उत्त. | दर्शितमर्यादया वासना। उत्त० ८० स्था. ९। मया १४३। आव० ३४६। कपाटं। बृह० १११ अ। कवचः। भग० गुरुकुले आमृशन्। सम० २। आवसन्-सेवमानः। आचा. ९४। आवरणे-प्रच्छादनपटे। जम्बू० २३६। फलकादि। आचा० ६०| स्फुरककण्टकादि। भग० ३१८ आङो | आवसह-आवसथः, आश्रयः। उत्त० ६२६। दशवै० २४५) मर्यादेषदर्थवचनत्वात् ईषन्मर्यादया वाऽऽवृणव शेषभवनप्रकारः। उत्त० ३८५ आवसथः, न्तीत्यावरणाः, ततश्च सर्वविरतिनिषेधार्थ एवायं वर्तते | परिव्राजकस्था-नम्। प्रश्न. १२६। औप० ६१| न देशविरतिनिषेधे खल्वावरणशब्दः। आव० ७८। खेटकं परिव्राजकाश्रयः। प्रश्न.1 उटजाकारं गृहम्। सूत्र सन्नाहं वा। जम्बू० ३५९। सन्नाहं। स्था० ४५०। ३१५ चतसृषु २१३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [148] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आवसहिय-आवसथिकः, तीर्थिकविशेषः। सूत्र० ४२२ । बृह० २२४ । आवसिया-आवश्यिकी, अवश्यकतव्ययोगैर्निष्पन्ना। | आवहो-दारकपक्षिणामावहः। व्यव० ३४२ आ। आव० २५९ आवाए-आपातः, अन्यतोऽन्यतआगमनात्मकः। उत्त. आवस्सए-आवश्यकम्, अवश्यकतव्यं संयमव्यापारनि- ८६| ष्पन्नम्। आव० ११९। कायिकादिव्युत्सर्गम्। ओघ. आवागसीसाओ-आपाकशिरसः। नन्दी. १७७ १४७ आवागो-आपाकः, भ्राष्ट्र। आव० १०१। आवस्सग-आवश्यकम्, समन्तादात्मवश्यकारकम्। | आवाडा-आपाता इति नाम्ना किराताः। जम्बू० २३२। अनुयो० ११। अवश्यं कर्तव्यं आवश्यकं आवातभद्दते-प्रथममीलके दर्शनालापादिना भद्रकारी। कायिकाव्युत्सर्गरूपम्। ओघ० १४९। कायिकोच्चारादि। । स्था० १९७५ ओघ० ८७ प्रतिक्रमणम्। ओघ० ९३, ५८। सामायिकादि | आवाय- आपातः, तत्प्रथमतया संसर्गः। भग० ३२६। षडध्ययनकलापः। अन्यो०७। आवश्यकम्, आभिमुख्येन समवायः। आव० ३२६। अभ्यागमः। ओघ. श्रमणादिभिरवश्यं क्रियत इति, ज्ञानादिग्णा मोक्षो वा ११९ आ-समन्ताद् वश्यः क्रियतेऽनेन इति, आ-सम- आवारि-लघ्वापणम्, आस्पदम्। आव०६७५) न्तावश्या इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो येषां ते तथा, आवावकहा-आवापकथा, ईयदद्रव्या शाकघृतादिश्चात्रोतैरेव क्रियते यत् तत्। अनुयो० ३१। आवासकं वा पयुक्ता इत्यादि प्रशंसनं द्वेषणं वा, भक्तकथायाः समग्रगुणग्रामा-वासकं वा। अनुयो० ३१| प्रथमभेदः। आव० ५८१। शाकघृतादीन्येतावन्ति तस्यां दोषत्यागलक्षणमवनतादिकम्। आव० ५४५ गुणानां रसवत्यामुप-युज्यन्त इत्येवंरूपा कथा आवापकथा। आ-समन्ताद्वश्यमात्मानं करोति। अनुयो० १०॥ स्था० २०९ नियमतः करणीयम्। आव० ५९४। भद्रम्। आव० ४२६। आवास-आवासः, देववासस्थानम्। जम्बू. ३९७) मूलगुणोत्तरगुणानुष्ठानलक्षणः। आव० २६७) आवश्यकम्-प्रतिक्रमणम्। आव० ७८४१ ओघ० २००९ आवर्तादिकम्। आव० ५११। कायिकाव्यत्सर्गलक्षणम्। प्रज्ञा० ६०६। निवासः। जीवा० १८० ओघ० १५२। सामायिकादिषविधम्। स्था०५१। अवश्यं आवासग-आवासकम्, समन्ताद्वासयति गणैरिति। कर्तव्यमावश्यकं, अथवा ग्णानामावश्यमात्मानं अनुयो० ११। गुणशून्यमात्मानमावासयति गुणैरिति, करोतीत्या-वश्यकं, यथा अन्तं करोतीत्यन्तकः, अथवा | गुणसान्निध्य-मात्मनः करोतीति भावार्थः। आव० ५१। 'वस निवासे' इति गणशून्यामात्मानमावासयति प्राभातिकवैका-लिकप्रतिक्रमणलक्षणे। व्यव० १८२ अ। गुणैरित्यावासकम्। आव० ५११ आवासिय-आवासितः, स्थितः। दशवै. १०७ आवस्सय-सज्ञा कायिकीलक्षणम्। बृह. २६१ अ। आवासेंति-आवासयन्ति, वसन्ति। आव०६५४| आवस्सयाइं-आवश्यकानि, शरीरचिंतादेवतार्चनादीनि। आवाह- सरीरवज्जा पीडा। निशी० ३३५ अ। व्यव० १६९ आ। आवाह-आवाहः, विवाहात्पूर्वं ताम्बूलदानोत्सवः। जम्बू आवस्सिआ-आवश्यकी, क्वचिदबहिर्गमनकार्ये १२३। जीवा० २८१ समुत्पन्नेऽव-श्यंगन्तव्यमितिभणनम्। बृह. २२२ ।। | आवाहणं- आवाहनम्, गमनम्। प्रश्न० २० ज्ञानाद्यालम्बनेनोपाश्रयाद् बहिरवश्यंगमने आवाहिओ-आहूतः। आव० ३६९, ३९३। सम्पस्थितेऽव-श्यंकर्तव्यमिदमतो गच्छाम्यहमित्येवं | आवाहो- आवाहः, अभिनवपरिणतस्य वधूवरस्यानयनम् गुरुं प्रति निवेदना। अनुयो० १०३। । प्रश्न. १३९। सुहं दिवसं। निशी. ९२ आ। वध्वा आवस्सिता-चतुर्थी सामाचारी। स्था० ४९९) वरगृहानयनम्। बृह० ४३ आ। आहूयन्ते आवस्सिया-आवश्यिकी, स्वजनास्ताम्बू-लदानाय यत्र सः। जीवा० २८१। अवश्यकर्त्तव्यैश्चरणकरणयोगै-निर्वृता। आव० ५४७५ | आविंध- परिधेहि। आव. ९९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [149] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आवि-आविः, जनसमक्ष प्रकाशदेश इतियावत। उत्त. आवेलिज्ज-आपीडयेत्, गाढमवगाहयेत्। उत्त०४७५) ५४१ आवेसणं-लोगसमवायट्ठाणं। निशी०६९ आ। आआविइ-अनुसमयम्-प्रतिक्षणमं। भग० ६२५ समन्तादविशन्ति यत्र तदावेशनम्-शून्यगृहम्। आचा० आविए-आपिब। उत्त० ३३९। ३०७ आविद्ध-परिहितम्। जम्बू. १९०, २७८ आलगितम्।। आशाम्बराः-दिगम्बराः। प्रज्ञा० २०९ प्रज्ञा० १०१। व्याप्तम्। उत्त०५४८ समन्तात्ताडितः। आश्रयं गच्छामि-भक्तिं करोमीत्यर्थः। आव० ५७१। उत्त०४९५। शिरस्यारोपणेन आविद्धः। भग. १९३। आश्रित्य- प्रतीत्य। जीवा० ५६। उत्त०६०२ आविद्धामो-परिदध्मः। आव०६५ आसं-अश्वम्, मनः। प्रज्ञा०६०० आशां-भोगाकांक्षा। आविलं-आविलम्, सकालुष्यमाक्लं वा। प्रश्न. ५३। आचा० १२७ अविमलमस्वच्छं प्रकृत्या। जीवा० ३०३। आसंकलनम्- चयनम्। स्था० १७९| आवी- गंगागामी नदीविशेषः। स्था० ४७७) आसंतर- अश्वतरः, वेगसरः, अजात्याघोटकः। दशवै. आवीईमरणे-आ-समन्ताद्वीचय इव वीचयः १९४१ आयुर्दलिक-विच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिंस्तदावीचि, आसंदओ-आसन्दकः। आव० ५५८४ अथवा वीचिः-विच्छेदस्तदभावादवीचि, दीर्घत्वं तु आसंदग-कट्ठमओ। बृह. २११ अ। कट्ठमओ अज्झूसिरो। प्राकृतत्वात्तदेवंभूतं मर-णमावीचिमरणं निशी० २०८ | पल्यङ्कः। आव० ३५८१ प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणम्। सम० ३३। आसंदयं-आस्यन्दकम्। आव०६९३। आवीचिमरणं-आवीचिमरणं, सप्तदशमरणभेदे प्रथमः। | आसंदी-मञ्चिका। पिण्ड० १०९। उपवेशनयोग्या उत्त०२३० मञ्चिका। सूत्र. ११८ दशवै. २०४। उपवेशनार्हमासनम् आवीचियगरणं-आ-समन्ताद्वीचयः-प्रतिसमयमनुभूय- । दशवै. ११७। आसनविशेषः। सूत्र. १८२१ मञ्चकः। मानायुषोऽपरापरायुर्दलिकोदयात्पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्यु- | सूत्र० २७८। तिलक्षणाऽवस्था यस्मिन् तदावीचिकं, आसंसइयं-असंशयितं, निःसंशयं मनःसंश्रितं वा। सूत्र. अथवाऽविद्यमाना वीचिः-विच्छेदो यत्र तदवीचिकं ३१० अवीचिकमेवाविचिकं तच्च तन्मरणं आसंसपओगो-निदानकरणं। निशी० ३५अ। चेत्यावीचिकमरणम्। भग०६२४१ आसंसा-आशंसा-अप्राप्तप्रापणाभिलाषः। आचा० ११५ आवीलए-आईषदर्थे, ईषत्पीडयेद-अविकृष्टेन तपसा आस-अश्वः, वाल्हीकादिदेशोत्पन्नः, जात्यः। दशवै. शरीरकमापीडयेत्, एतच्चप्रथमप्रव्रज्याऽवसरे। आचा० | १९४| क्षेपः। आव० ३६४। १९२ आसइ-आस्ते। आव० ३९६| आवीलाविज्जा-आपीडनम्, सकृदीषवा पीडनम्। दशवै. | आसइत्तु-आसितुम्, उपवेष्टुम्। दशवै० २०४। १५३ आसएण-आश्रयतीति आश्रयः-धूमबलकादिः। अनुयो. आवेउं- आपातुम्, भोक्तुम्। दशवै० ९६) २१४१ आवेढिओ- एगदुतिदिसिद्वितेसु, अहवा एगपंतीए आसकण्णो-अश्वकर्णः, सप्तदशान्तरदवीपः। जीवा. समंताठिएस्, आङ् मर्यादयाऽऽवेष्टितः। निशी० ४६ आ। | १४४१ आवेढियं-आवेष्टितम्, सकृदावेष्टितम्। स्था० ५०२। आसकन्नदीवे-अन्तरदद्वीपनाम। स्था० २२६। आवेढियपरिवेढिए-आवेष्टितपरिवेष्टितः, गाढतरं आसकन्ना-अश्वकर्णः, सप्तदशान्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५० संवेल्लितः। प्रज्ञा० ३०६। आसकरणं-आससिक्खावणं। निशी० ७१ अ। आवेयणं-आवेदयति, निवेदयति कालमित्यर्थः। ओघ. आवकिसोरो-अश्वकिशोरः। आव० ३७०, २६१। २०४। आसक्खंघसंठिते-अश्वस्कन्धसंस्थितम, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [150] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] अश्विनीनक्षत्र-संस्थानः | सूर्य० १३० | आसखंधसंठिओ अश्र्वस्कन्धसंस्थितः उभयोरपि पार्श्वयोः आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) पञ्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्तेऽश्वस्कन्धस्येवोन्नतत या षोडशयोजनसहस्रप्रमाणोच्चैस्त्वयोः शिखायाभावात् | जीवा० ३२५ | आसगं- आस्यकम, मुखम्। जीवा० ११९ । आस्यके, पिठरादिमुखे । स्था० १४८| आसग्गीव- अश्र्वग्रीवः, त्रिपृष्ठवासुदेवशत्रुः । आव० १५९ । महामाण्डलिकराजा आव. १७४ आसचडगर - अश्र्वसमूहः । आव० ३७०। आसज्ज आसाद्य अंगीकृत्य आचा० १५९| आसण- आसनं सिंहासनादि । प्रश्न० १६१| आधारलक्षणानि । धर्मास्तिकायादीनां लोकाकाशादीनि, स्वस्वरूपाणि वा । आव० ५९९ । पीठफलकादिकम् । आव ० ६५४| स्थानम्। उत्त० १०९ | पीठकादि। आव० ७९५ । दश० २८१| अपवादगृहीतं पीठकादि। दशवै० २३१ दशकै २२८ वसत्यादि। सूत्र० ६६ कट्ठपीढगादि। दशवै. १२६ । विष्टरम् । प्रश्न० १३८ प्रश्न ८ सिंहासनादि । जीवा० ४०६ | आसन्दकादिविष्टरं आस्यते. स्थीयतेऽस्मिन्निति वाssसनशय्या आचा० १३४१ उपवेशनम्। उत्त० ६०९ | अवस्थानम् । उत्त० ६२६ । आसनं गोदोहिकोत्कुटुकासन- वीरासनादिकः । आचा० ३१२॥ पादपीठपुञ्छनादि। उत्तः ४२३३ सिंहासनादि । उत्त० २६रा पीठकादि सम० ३८] शक्रादीनां सिंहासनम् | स्था० ११७ | आसन्दकादि। दश- २९८८ आचा० ६०% भग० २३८१ आसण-आसनप्रदानं, गुर्वादीनां समागतानां पीठकादयुपनयनम् । व्यव० २३५ आसणअणुप्पदाणं- आसनानुप्रदानम्, स्थानात्स्थानं सञ्चारणम् । दशवै० ३०| आसणअभिग्गहो- आसनाभिग्रहः, तिष्ठत एवासनानयनपूर्वकमुपविशतोऽत्रेतिभणनमिति । सम० ९५| स्था० ४०८ आसणगाणि पंताणि पांशूत्करशर्करालोष्टाद्युपचितानि काष्ठानि च दुर्घटितानि । आचा० ३१०१ आसणत्थ आसनस्थं निषद्यागतम् आव० ५४१| आसणदाणं- आसनदानम्, पीठकाद्युपनयनम्। दशकै , मुनि दीपरत्नसागरजी रचित २४१| पीठादिदानम् उत्त० ६०९। आसणमणुप्पयाणं- आसनानुप्रदानम्, आसनस्य स्थानान्त-रसञ्चारणम् । स्था० ४०८ । सम० ९५| आसणाणुप्पयाणं- आसनानुप्रदानं, गौरव्यमाश्रित्यासनस्य स्थानान्तरसंचारणम्। भग [Type text] ६३७ | आसणाभिग्गह- आसनाभिग्रहः- तिष्ठत एव गौरव्यस्यासनान-यनपूर्वकमुपविशतेतिभणनम्। भग० ६३७। यत्र यत्रोपवेष्टु-मिच्छति तत्र तत्रासननयनम्। औप. ४२% तिष्ठत दशदें. 301 आसणेय आश्वासनः जम्मू० १३४१ आसतरगा - वेसरा । निशी० १४४ आ । एवादरेणासनानयनपूर्वकमुपविशताऽत्रेतिभणनम्। आसत्त- आसक्त, भूमौ लग्नः । जम्बू० ७६ | आ-अवाङ् अधोभूमौ सक्त आसक्तः, भूमौ लग्नः । प्रज्ञा० ८६ जीवा० १६०| जीवा० २२७ भूमौ सम्बद्धः । औप० ५ | आसत्तमल्लदामा - आसक्तमाल्यदामा । आव० १८४ | आसत्ती आसक्तिः, धनादावासङ्गः, परिग्रहस्यैकोनत्रिंशत्तमं नाम प्रश्न. ९३३ आसत्थ- पीप्पलकः । भग० ८०३ | असुरकुमारचैत्यवृक्षः । स्था० ४८७ ॥ मनागाश्वासितः । ओघ० ५२| अनंतजिनचैत्यवृक्षविशेषः समः १५२) आश्वस्तः । आव० ३९० | आसन्दकम् आसनम्। दशवै० २९८१ आचा० १३४ ॥ आसन्नं - संमुखीनम् । निर०८ आसपुराओ धातकीखंडे विदेहविशेषस्य राजधानी स्था० [151] ८०1 आसम - आश्रमः, तापसादिस्थानम्। भग० ३६ | अनुयो० १४२१ सूत्र ३०९ | तीर्थस्थानम्। आचा• ३२९ स्था २९४| स्था० ८६। तापसावसथोपलक्षित आश्रयः । आचा० २८५१ प्रथमतस्तापसादिभिरावासितः पश्चादपरोऽपि लोकः तत्र गत्वा वसति । बृह० १८१ आ । तापसावसथादि, आ-समन्तात् श्राम्यन्तितपःकुर्वन्त्य-स्मिन्निति । उत्त० ६०५ | व्रतग्रहणादिरूपः । दश- २७९१ आश्रमः, तापसादिनिवासः । प्रश्न ५२१ तापसावसथोप- लक्षित “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आश्रयः। प्रज्ञा० ४८१ जीवा० ४०। जीवा० २७९। नोव्यापारः। दशवै. २७९। जलप्रवेशस्थानम्। व्यव. तापसायावासः। औप०७४। १६७आ। पापोपादानहेतुरारम्भादिः। जीवा. १२८। आसमडे- अश्वमृतः, मृताश्वदेहः। जीवा० १०६) शुभाशुभकर्मादानहेतुः। स्था० ४४६। आसमपय-आश्रमपदम्, पार्श्वनाथदीक्षास्थानम् आव. | आसवदारं-आश्रवद्वारम्, कर्मबन्धद्वारम्। आव०८५१| १३७ आ-समन्तात् श्राम्यन्ति-तपःक्र्वन्त्यस्मिन्नि- आश्रवणं-जीवतडागे कर्मजलस्य संगलनमाश्रवःत्याश्रमः तापसावसथादिस्तदुपलक्षितं पदं-स्थानम्। कर्मनिबन्धनमित्यर्थः, तस्य दवाराणीव दवाराणिउत्त०६०५ उपाया आश्रवदवाराणीति। स्था० ३१६) आसममारी-मारीविशेषः। भग० १९७१ आसवपीतो-पीतासवः। उत्त० २६३। आसमरूवं-आश्रमरूपम्। भग. १९३। आसववुच्छेओ-आश्रवव्यवच्छेदःआसमित्त-अश्वमित्रः, कौण्डिन्यशिष्यः। आव० ३१६) कर्मबन्धदवारस्थगनेन संवरणेनेत्यर्थः। आव०८५१| उत्त० १६३। चतुर्थनिह्नवनाम। स्था०४१०| आसवार-अश्ववारः, अश्वारूढपुरुषः। भग० ४८१| यस्मात्सामुच्छेदा उत्पन्नाः। आव० ३११| आससणाय वसणं-आशसनाय-विनाशाय व्यसनम्, आसमुहदीवे- अंतरद्वीपभेदः। स्था० २२६। तृतीयाधर्मद्वारस्य षड्विंशतितमं नाम। प्रश्न. ४३। आसमुहा-अश्वमुखनामा त्रयोदशान्तरद्वीपः। प्रज्ञा० । आससप्पओगे- आशंसा-इच्छा तस्याः प्रयोगो-व्यापारणं ५०| जीवा० १४४ करणं आशंसैव वा प्रयोगो-व्यापारः आशंसाप्रयोगः। आसय-आशयः, निदानम्। आव०६१० स्था०५१५ आसयइ-आस्वादते-अभिलषति, आश्रयति वा। सम०५५ | आससा-आशंसा। आव० ३२२अप्राप्त-प्रार्थनम्। स्था० आसरयणे-अश्वरत्नम्। स्था० ३९८। १४५१ आसरह-अश्ववहनीयो रथः। भग. ३२२। अश्वरथः- आससाए-आशंसया, यदयत्यन्तप्रवर्षणं भावि तदा नियुक्तोभयपार्श्वतुरङ्गमो रथ इत्यर्थः। जम्बू. १९८१ स्थलेषु फलावाप्तिरथान्यथा तदा आसल-आसलं, आस्वाद्यम्। जीवा० ३३१। जीवा० ३७० निम्नेष्वित्येवमभिलाषात्मिकया। उत्त० ३६११ आस्वादनीयः। जीवा० ३५१। | आससेण-अश्वसेनः, पार्श्वजिनपिता। सम० १५२। पंचआसव-आसवः, मद्यम्। उत्त० ६१९। पत्रादिवासकद्रव्य- | मचक्रिपिता। सम० १५१| भेदादनेकप्रकारः। जीवा० २६५। पुष्पप्रसवमद्यम्। उत्त | आसा-अश्वाः। आव० २६१। आशा-इच्छाविशेषः। प्रश्न. ६१४। आश्रवाः-उपादानहेतवो हिंसादयः। उत्त० ५९२ | ६४। औप०४७। चन्द्रहासादिकम्। जीवा० १९८१ चन्द्रहासादिपरमासवम्। आसाइज्जा-आशातयेत्-हीलयेत्, बाधयेत्। आचा० २५७। जम्बू०४२ निशी. ३५अ। आश्रवः-सूक्ष्मरन्ध्रम्। भग. आसाएज्जा-आस्वादयेत्-परिभूजीत। आचा० ३९८। ८३। आश्रवन्ति-प्रविशन्ति कर्माण्यात्मनीत्याश्रवः- आसाएमाणे-आस्वादयन, ईषत्स्वादयन्। भग. १६३ कर्मबन्धहेतुरितिभावः, स आसादयेत्-संस्पृशेत्। आचा० ३८० चेन्द्रियकषायाव्रतक्रियायोग-रूपः। स्था०१८ आश्रवं। आसाढ-आषाढः, निह्नवनाम। यस्मादव्यक्ता प्रज्ञा०५६। उत्पन्नाः। आव० ३११। तृतीयो निह्नवः। स्था० ४१०| आसवा- आस्रवाः-कर्मबन्धस्थानानि। आचा० १८१। आसाढग-तृणभेदः। भग० ८०२। पापोपादानस्थानानि। आचा०४१३। बन्धकाः। आचा. | आसाढबहुलं-आषाढबहुल, आषाढकृष्णपक्षम्। आव०। १८२१ पत्रादिविशेषेण व्यतिरिक्त आसवः। प्रज्ञा० ३६४। | आसाढभूई-आषाढभूतिःआश्रवः-आ-समन्तात् शृणोति-गुरुवचनमाकर्णयतीति। देशभाषानेपथ्यादिविपर्ययकरणे दृष्टांतः। सूत्र. ३२९| उत्त०४९। कर्मबन्धहेतुर्मिथ्यात्वादिः। आव० ५९८४ दर्शनपरीषहभग्नः । (मरण)। व्यव० १९६ अ। आश्रवः-इन्द्रियजयादिरूपः परमार्थपेशलः कायवाङ्म- | आसाढायरिया–चेल्लयसुरेण थिरीकया आयरिया। व्यव० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [152] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] १९ ॥ आसासि-आश्वासय, स्वस्थीकुरु। उत्त० १२७) आसायए-आशातयति, कदर्थयति। दशवै. २४४| आसासिआ-आश्वासिता। आव २२२१ आसायण-आशातकपाराञ्चिकः। स्था० १६३१ आसाहीणाएहिं-दुईतेहिं। दशवे. ११६| आसायणसील-आशातनाशीलः, शातयति-विनाशयती- | आसिआवणं-स्तैन्यम्। बृह. ८६ आ। त्याशातना तस्यां शीलं-तत्करणस्वभावात्मकमस्येत्य- | आसिङ्गा-तिष्ठ। (मरण)। त्याशातनाशीलः। उत्त०५७९| आसित्ता-आस्वाद्य-भुक्त्वा। आचा० ३३० आसायणा-आशातना, लघ्तापादनरूपा अथवा स्वस- आसित्तो-आसिक्तः, सबीजः। बृह. ९७ आ। जस्स पुण म्यग्दर्शनादिभावापहासरूपा। दशवै० २४४। अवच्चं उप्पज्जति सो। निशी० ३१ अ। ज्ञानाद्यायस्य शातना। आव० ५४७। आशातना। प्रश्न | आसियं-आसिक्तं, आसेचनं, ईषदुदकच्छट्टकः। प्रश्न १४६। आ-सामस्त्येन शात्यन्ते-अपध्वस्यन्ते १२७। उदकच्छटम्। जीवा० २४६। निर्धटनं, यकामिस्ता आशा-तना-रत्नाधिकविषयाविनयरूपाः निष्काशनम्। बृह. ६१ आ। पुरतोगमनादिकाः। स्था० ५११। आयः आसियावणं- हरणं। निशी० २६७ अ। अपहरणम्। बृह. सम्यग्दर्शनादयवाप्तिलक्षणस्तस्य शातनाः-खण्डनं ३०९ आ। हरति। निशी. १आ। निरुक्तादाशातनाः। सम०५९। आसिले-आसिलः, महर्षिविशेषः। सूत्र. ९५ आसायणिज्ज-आस्वादनीयम्, सामान्येन स्वादनीयम्। । | आसिवावितो- प्रवाजितः। निशी० २८६ अ। जीवा० २७८१ आसी-आश्यो-दंष्ट्राः। प्रज्ञा०४७ आव०४८। आसीःआसालए-आशालकः, अवष्टम्भसमन्वित दंष्ट्रा। आव०५६६| आसनविशेषः। दशवै. २०४। आसीणे-आसीनः, आश्रितः। आचा. २९३। आसालओ-ससावंगमं (सावटुंभं) आसणं। दशवै० ९९ | आसीयावणा-निष्कषायितुमासादनम्। व्यव० ३६अ। आसालिए-आसालिकः, उरःपरिसर्पभेदः। सम० १३५। आसीविस-आशीविषः शङ्खविजये वक्षस्कारः। जम्बू. आसालिय-आसालिकः, उरःपरिसर्पविशेषः। प्रश्न० ८। ३५७। नागः। प्रश्न. १०७। आश्यो-दंष्ट्रास्तास् विषं येषां जीवा० ३९। उरःपरिसर्पभेदविशेषः। प्रज्ञा०४५ ते। स्था० २६५। जीवा० ३९। सीतोदादक्षिणतः वक्षआसास-आश्वासः, आश्वसन्त्यस्मिन्नित्याश्वासः। स्कारः। स्था० ३२६। उरःपरिसर्पविशेषः। जीवा० ३९। आचा० ५। आश्वासयति अत्यन्तमाकलितानपि जनान् उत्त० ३१८ आशीविषः-भुजङ्गः। आव० ५६७। स्वस्थी-करोतीति। उत्त० २१२ आसु- आशु, शीघ्रम्। उत्त० ६३८१ जम्बू० २०२। आसासग-अश्वस्यास्य-मुख, तत्र गतः फेन सोऽश्वास्य- | आसुकारिणः-दुष्टाः। निशी० ७५आ। गतः। प्रज्ञा. ९५ आसासकः-बीयकाभिधानो वृक्षः। आसुकोहो-तक्खणमेव कोहो। दशवै. १२५ राज०९| | आसुक्कारो-आशु-शीघ्रं सजीवस्य निर्जीवीकरणम्, अहिआसासणय-आशंसनम्, मम पुत्रस्य शिष्यस्य वा विषविशूचिकादिः। बृह. १४७ अ। शीघ्रकारः, अहिविइदमिदं च भूयादित्यादिरूपा आशीः। भग. १७३। षविशूचिकादिकः। आव० ६२९। आसासदीव-आश्वासद्वीपः, आकुलितजनस्वस्थकारको । | आसुपन्ने- आशुप्रज्ञः, शीघ्रमुचितकर्तव्येषु द्वीपविशेषः। उत्त० २१२। आश्वासननाश्र्वासः, यतितव्यमिति प्रज्ञा-बुद्धिरस्येति। उत्त० २१७। आश्वासाय द्वीप आश्वासद्वीपः। आचा० २४७। सततोपयुक्तः। आचा० २६८१ आश्वास्यतेऽस्मिन्नि-त्याश्वासः, आश्वासश्चासौ आसुर-असुरभावनाजनित आसुरः, भवनपतिविशेषस्याद्वीपञ्चाश्वासद्वीपः। आव० २४७) यमासुरः। स्था० २७४। कोहो। दशवै० १२२॥ आसासय- आशासकः, वृक्षविशेषः। औप० १११ | आसुरत्तं- आसुरत्वम्, क्रोधभावम्। दशवै० २३१। आसासा-आश्वासाः-विश्रामाः। स्था० २३६) | आसुरत्तभावणा-आसुरत्वभावना। उत्त० ७०७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [153] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आसुरत्तो- क्रुद्धः । आव० ३८९ | आसुरिनामा - कपिलशिष्यः । आव० १७१ । आसुरियं- असुरभावम्। प्रश्र्न० १२१ अविद्यमानसुर्याम् । आसोत्थमंथु - आचा०३४८ उत्त० २७६॥ असुराणामियमासुरीया उत्त० २७६ आसुरी - असुरा-भवनपतिदेवविशेषास्तेषामियं आसुरी । बृह० २१२ आ । आसुरुत्ते- आशुरुप्तः, आशु शीघ्रं रुप्तः- कोपोदयादिमूढः स्फुरितकोपलिङ्गो वा। भग० ३२२ आशु शीघ्रं रुप्तःक्रोधेन विमोहितो यः सः । आसुरोक्तः आसुरं वा असुर सत्कं कोपेन दारुणत्वादुक्तं भणितं यस्य सः । विपा. 93 | आसुरुत्तः शीघ्रं कोपविमूढबुद्धिः, स्फुरितकोपचिनो वा भग. १६७। क्रुद्धः । आव० ६५ १५२, ७१ आशु शीघ्रं रुष्ट -क्रोधेन विमोहितो यः स आशुरुष्ट, आसुरं वा असुरसत्कं कोपेन दारुणत्वात् उक्तं भणितं यस्य स आसुरोक्तः निर०८१ आसुरे का असुराणामयमासुरस्तम्-असुरसम्बन्धिनं, चीयत इति कायस्तं, निकायमित्यर्थः । उत्त० १८ असुरसम्बन्धिनि कार्य असुरनिकाये इत्यर्थः । उत्तः आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) २९६| आसूणि आशूनि:, श्लाघा सूत्र• १८०१ येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनक्रियया वा अशूनः सन, आसमन्ताच्छ्रनीभवति बलवानुपजायते तत् । सूत्र. - १८० | आसूणियं - आशूनितम्, ईषत्स्थूलीकृतम् । प्रश्न० ४९| आसूयम् आसूयम् औपयाचितकम्। पिण्ड० १२०१ आसेवणसिक्खा आसेवनशिक्षा, प्रत्युपेक्षणादिक्रियोपदेशः। उत्त० १४५| शिक्षाद्वितीयभेदः । नन्दी. २१० सामाचारी-शिक्षणम्। बृह० ६४ अ प्रत्युपेक्षणादिक्रियारूपोऽभ्यासः । आव ० ८३३| आसेवियं स्तोकं आस्वादितं, अनास्वादितं वा । आचा ३२५| आसो जात्या आशुगमनशीलः अश्वः । जीवा० २८ मनः । प्रज्ञा० ८८ य एकस्मिन् वित्र्यादीनर्थान् वक्ति यथा अश्नातीत्यश्वः, आशु धावति न च श्राम्यति । बृह ३४ अ । चतुष्पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ | आसोकंता - मध्यमग्रामपंचमी मूर्च्छना स्था० ३९३॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] आसोट्ठे- अश्र्वत्थः । आचा० ३४८ | आसोठे अश्र्वत्थः, बहुबीजवृक्षविशेषः प्रज्ञा० ३२१ आस्तिक्यम् - सम्यक्त्वस्य पञ्चमलक्षणम् । आव ० ५९१| आस्थानमण्डपः– उपस्थानगृहम् । भग० २००| नन्दी०६ १ | आस्फोटनम् - सकृदीषद् वा स्फोटनम् । दशवै० १५३ । आस्या- यत्रास्यते यथासुखेन स्वाध्यायपूर्वकम् । ओघ०६९। आस्रपः- मूलः । जम्बू ० ४९९ | आहंसु - आहुः, उक्तवन्तः। भगः ९८| आख्यातवान्। प्रश्न० २६| आहच्च- आहत्य, कदाचित् । भग० ३०५ २२१ उत्त० १८४, ४८ प्रज्ञा० ३३३ बृह० ११४ आ । कादाचित्कम् । आव ० ५३० | सहसा | निशी० १२० अ । कदाचित् सान्तरमित्यर्थः। भग० ४१| उपेत्य स्वतः एव, अत्यर्थं कदाचिद् वा आचा० ५५ ढौकित्वा आचा० २७२॥ उपेत्य | आचा० ३६२॥ सहसा । आचा० ३२२, ३५५ | कदाचित् अनन्यगत्या व्यव० ८ आ आहत्या आहननं प्रहारः । भग० ६७३। आहच्च गंधा- आइतग्रन्था-व्ययीकृतद्रव्या आचा० २७२१ आहड्ड आहत्य उपेत्य सूत्र- ३०० गृहीत्वा आचा. २८२, ३४५। आहट्टो- आडम्बरः (उपाधिः) । आव० ३४१ | आहडं- आहृतम्, स्वग्रामादेः साध्वर्थमानीतम् । प्रश्न १५४ साध्वयोग्यमशनादि । दशवं. २०३ आहण आहन्ति, समीकरोति आव० ३८५ आहत्तहिए - सूत्रकृतांगे त्रयोदशाध्ययनम् । सम० ४२॥ आहम्मिए जोगे - वशीकरणादीनि आव० ६६॥ आहयंति - कथयन्ति । निशी० २७७ अ । आहय- आहतं, लक्षणया लिखितम् । जम्बू० २०३ | आख्यानकप्रतिबद्धं यन्नाट्यं तेन युक्तं तद्गीतम् । स्था॰ ४२१। आहतं, आख्यानकप्रतिबद्धम्। सूर्य० २६७। जीवा. १६२२ आव० २९८८ आख्यानकप्रतिबद्धं, आस्फालितं वा औप० ७४१ आहया- आख्यानकप्रतिबद्धानि । राज० १६ । आहरणं- आ-अभिविधिना हियते प्रतीतौ नीयते [154] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] રા. अप्रतीतो-ऽर्थोऽनेनेति। स्था० २५४१ आहार-आहारः, भोजनम्, जीवनम्। प्रश्न. १०६। मनसा साध्यसाधनान्वयव्यतिरेक-प्रदर्शनं दृष्टान्तो वा। आव० | तथाविध पुद्गलोपादानरूपः। भग० ८६। त्रयोदशशतके पंचमोद्देशकः। भग० ५९६। अष्टविंशतितमआहरणतद्देसे-आहरणतद्देशः, आहरणार्थस्य देशस्तद्देशः माहारप्रतिपा-दकत्वादाहारः। प्रज्ञा०६। स चासावुपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वादाहरणशब्दस्य आहारए-आहारकम्, चतुर्दशपूर्वविदा कार्योत्पत्तौ पूर्वनि-पाते आहरणतद्देश इति यत्र दृष्टान्तार्थदेशेनैव योगबले-नाह्रियत इति। प्रज्ञा० २६८। दार्टान्तिका-र्थस्योपनयनम् क्रियते तत्। स्था० २५४१ तथाविधकार्योत्पत्तौ चतुर्दश-पूर्वविदा योगबलेनाह्रियत आहरणतद्दोसे-आहरणतघोषः, आहरणस्य सम्बन्धी इति। स्था० २९५१ चतुर्दशपूर्व-विदा साक्षा-त्प्रसङ्गसम्पन्नो वा दोषस्तदोषः सा चासौ धर्मे तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ धर्मिणः उपचारादाहरणं चेति आहरणस्य दोषो सत्यां विशिष्टलब्धिवशादाह्रियते-निर्वर्त्यते इति। यस्मिंस्तथा यत्सा-ध्यविकलत्वादिदोषदुष्टं जीवा० १४। प्रज्ञा० ४०९। तथाविधप्रयोजने तदोषाहरणं। स्था० २५४१ चतुर्दशपूर्वविदा यदाह्रियत्ते-गृह्यते तत्। आह्रियन्तेआहरणा-घोरयति घोरणं करोति। ओघ०५८ गृह्यन्ते केवलिनः समीपे सूक्ष्म-जीवादयः पदार्था ज्ञातविशेषः। स्था० २५३। उदाहरणम्। दशवै० ३५ अनेनेति वा। अनुयो० १९६। आहारयति-आहारं आहरे-आहरयेत्-व्यवस्थापयेत्। आचा० २९२। गृह्णातीति। नन्दी. ९० आहव्वणी-आथर्वणी, आथर्वणाभिधाना आहारएसणा-आहारैषणा। दशवै०१८ सद्योऽनर्थकारिणी विद्या। सूत्र० ३१९। आहारगं- आहारकम्, तृतीयं शरीरम्। प्रज्ञा० ४६९। आहा-आधा। भग० १०२। साधूनां मनस्याधानम् साधू- आहारगंगोवंगणाम- आहारकाङ्गोपाङ्गनाम, नाश्रित्य। प्रश्न. १२७। आधानम्, साधुनिमित्तं चेतसः | उपाङ्गनाम। प्रज्ञा०४७० प्रणिधानम्। पिण्ड० ३५ अधस्तात्। निशी० २९४ आ। आहारगत्तं-आहारकत्वं, आहारकशरीरकरणलब्धिः । आधीयतेऽस्यामिति। पिण्ड० ३६) स्था० ३३ आहाकम्म-आधाकर्म, आधाय-निमित्तत्वेनाश्रित्य आहारगबंधण-आहारकबन्धनम, बन्धननाम। प्रज्ञा० पूर्वोक्त-मष्टप्रकारमपि कर्म बध्यते, ४७० शब्दस्पर्शरसरूपगन्धादिकं। कर्मनिमित्तभूता आहारगमो-आहारगमः, प्रज्ञापनाया मनोज्ञेतरशब्दादय एवाधाकर्म। आचा० ९८ आधानं । अष्टाविंशतितमाहा-रपदोक्तसूत्रपद्धतिः। भग० १०९। आधाकरणं तद्पलक्षितं कर्म। यथाकर्म वा तत्तद आहारगसंघायणाम-आहारकसङ्घातनाम, गत्यनुरूपचेष्टितं वा। उत्त. १८२। साधुप्रणिधानेन यदुदयवशादाहार-कशरीररचनान्कारिसङ्घातरूपा यत्सचेतनमचेतनं क्रियते अचेतनं वा पच्यते चीयते वा जायते तदाहारकसङ्घातनाम। प्रज्ञा० ४७० गृहादिकं व्यूयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म। भग. १०२ आहारगसमुग्घात-आहारकसमरातः, आहारके प्रथम उद्गमदोषः। आधानं आधा तया आधया प्रारभ्यमाणे समुद्घातः। जीवा० १७। कर्मपाकादिक्रिया, आधाय-साधं चेतसि प्रणिधाय यत् आहारट्ठ-आहारार्थः, आहारप्रयोजनमाहारार्थित्वम्। भग. क्रियते भक्तादि तत्। पिण्ड० ३४। चतुर्थशबलदोषः।। २०| आहारलक्षणं प्रयोजनं, आहाराभिलाषो वा। प्रज्ञा प्रश्न. १४४। सम० ३९। ५०० आहाकम्मियं-आधाकर्म, दोषविशेषः। आचा० ३२९। आहारहि-आहारार्थी, आहारमर्थयते-प्रार्थयते इत्येवंआहाकम्मेहिं-आधाकर्मभिः, आधानम्-आधाकरणं शीलः, अर्थो वा-प्रयोजनमस्यास्तीत्यर्थी, आत्मनेतिगम्यते, तद्पलक्षितानि कर्माण्याधाकर्माणि, आहारेणभोजनेन अर्थी आहारार्थी, आहारस्य-भोजनस्य तैः- स्वकृतकर्मभिः। उत्त० २४७। वाऽर्थी आहारार्थी। भग. २० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [155] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आहारपच्चक्खाण-आहारप्रत्याख्यानम्, आहारेत्ताइतो-आहृतवान्। आव० ३०८। अनेषणीयभक्त-पाननिराकरणरूपम्। उत्त० ५८८1 आहारे भोयणा-आहाराभोगता। प्रज्ञा. १४३। आहारपदे- प्रज्ञापनाया अष्टाविंशतितमपदम्। प्रज्ञा० २५१ | आहारो-आहारः, कूरादि एक्कं चेव खुधं णासेति पाणे नन्दी० १०५ तक्कखीरुदगमज्जादि एगंगिया तिसं णासेंति, आहारआहारपयाई-आहारपदानि, आहारग्रहणविषयकानि किच्चं च करेंति खाइमे एगंगिया फलमंसादि पदानि। जम्बू. ४६११ आहारकिच्चं च करेंति, साइमेऽवि मधुफाणिय आहारपरिण्णा-आहारपरिज्ञा, सूत्रकृताङ्गे तंबोलादिया एगंगिया खुहं णासेंति। निशी० ५० आ। द्वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनम्। आव०६५८१ स्था० मुक्खत्तो जं किंचिवि भ॑जति सो सव्वो आहारो। निशी. ३८७| उत्त०६१६| ५१ अ। आधार आधेयस्येव सर्वकार्येषु आहारपर्याप्तिः- यथा शक्त्या करणभूतया भुक्तमाहारं लोकानाम्पकारित्वात्। भग० ७३९। खल-रसरूपतया करोति सा। बृह. १८४ आ। आहारोवचया-आहारोपचयाः, आहारेणोपचयो येषां ते। आहारपोसहे- आहारपौषधः, आहारनिमित्तं पौषधः, आचा० २७५ आहारनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावना। आव०८३५) आहार्यः- अभिनयचतुर्थभेदः। जम्बू० ४१४। काष्ठफलआहारसण्णा-आहारसंज्ञा, आहाराभिलाषः-क्षुवेदनी पुस्तमृत्तिकाचर्मादिघटितप्रजननैोषिदवाच्यप्रदेशासेव योदयप्रभव आत्मपरिणामः। आव० ५८० न-मित्यर्थः। आव० ८२५। आहार्य अन्धकाररहितत्वं। आहारसन्ना-आहारसंज्ञा, क्षुद्वेदनीयोदयाद्या कवला- सम०१४० द्याहारार्थं तथाविधपुद्गलोपादानक्रिया सा। प्रज्ञा० आहालंदिया-कल्पविशेषः। निशी० ३३८ आ। २२२। क्षुद्वेदनीयोदयात्कावलिकाद्याहारार्थं पुद् आहावंति-आगच्छन्ति। बृह. २१३ अ। गलोपादानक्रियैव संज्ञायतेऽनया तदवानित्याहारसंज्ञा। आहावणा-आभावना, उद्देशः। पिण्ड० ११६) भग. ३१४| आहा-राभिलाषः-क्षुदवेदनीयप्रभवः खल् आहाविज्ज-आधावेत्। आव०६३३। आत्मपरिणामविशेषः। जीवा. १५) आहासिया-आभासिकनामद्वितीयान्तरद्वीपः। आहारवं-आलोइज्जमाणं जो सभेदं सव्वं अवधारति सो। | प्रज्ञा०५० निशी. १२८ आ। आलोचितापराधानां अवधार-णावान्। | आहिंडओ-आहिण्डकः, दूरदेशविहारकर्ता। आव. ५३६| भग. ९२० आहिंडगा-विहरंता। निशी० ३१४ अ। आहाराइणियाए- रत्नैः-ज्ञानादिभिर्व्यवहरतीति आहिंडा-सततं परिभ्रमणशीलाः। बृह. १८४ आ। रात्निकः-बृहत्पर्यायो यो यो रात्निको यथारात्निकं आहिंडिओ-आहिण्डकः, आहेटकः। आव० ४३२१ तद्भावस्तत्ता तया यथारात्निकतया-यथाज्येष्ठ। स्था० अगीतार्थः, चक्रस्तूपादिदर्शनप्रवृत्तः। ओघ०६०। ३०१ आहिंडितो-आहिण्डिकः। उत्त. १०८ आहारुद्देस-आहारोद्देशः, प्रज्ञापनाष्टाविंशतितमपदस्यो- | आहिंधइ-परिदधाति। आव० ३६०| द्देशकः। भग. २० आहिअग्गि-आहिताग्निः, अग्निं गृहीत्वा स्वगृहे आहारेति-विशेषाहारापेक्षया स्थापनात्। आव०१६९। ब्राह्मणः। दशवै० २५२ सामान्याहारस्याविशिष्टशरीर-बन्धनसमय एव कृतावस्थादिळह्मणः। दशवै० २४५१ कृतत्वात्। भग०७६३। प्रतिपादितोऽनुष्ठितो वा। सूत्र० १७८१ आहारे-आहारः, चरमाचरमपदगतसूत्रम्। प्रज्ञा० २४६| | आहिए-आहितः, जनितः। सूत्र०६९। प्रथितः, प्रसिद्धिं आहारप्रतिपादकं प्रज्ञापनाया अष्टाविंशतितमं पदम। गतः। सूत्र०६९। प्रज्ञा०६। आधारः। भग०७३८1 आहिज्जइ-आधीयते, व्यवस्थाप्यते, आख्यायते वा। फलपत्रकिशलयमूलकन्दत्व-गादिनिर्वर्त्यः। आचा०६०। । सूत्र. ३३७। सम्बध्यते। सूत्र. ३०६। आख्यायते। सम० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [156] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ६PN ११३ अधिपतेः कर्म, रक्षा। जम्बू०६३। जीवा० २१७, १६२। आहितविशेषम्-आहितविशेषत्वं-वचनान्तरापेक्षया आहेवणं-आक्षेपम, पूरक्षोभादिकरणम। प्रश्न. ३८१ ढौकितविशेषता। एकत्रिंशत्तमवाणीगुणः। सम०६३। | आहोपुरुषिका-आत्मशक्त्याविष्करणम्। सूत्र० ३४५ आहिण्डिग-आहितुण्डिकः, गारुडिकः। दशवै० ३७ आहोहिओ-आधोऽवधिकः, परमावधेरधस्ताद आहितो-आख्यातः, कथितः। सूत्र० ११| योऽवधिस्तेन-योव्यवहरति सः आहियं-आहितम्, ढौकितम्। सूत्र०७१। आत्मनि परिमितक्षेत्रविषयावधिकः। भग०६७। व्यवस्थितं, आ-समन्तात् हितं वा। सूत्र०६८। गृहीतम्। | आहोहिय-नियतक्षेत्रविषयावधयः। सम० ९६| आव.३७० आहोही- यत्प्रकारोऽवधिरस्येति यथावधिः आहियग्गी-बंभणो। दशवै. १३ परमावधेर्वाऽधोव-य॑वधिर्यस्य सोऽधोऽवधिः। स्था० आहियडमरं-आहितडमरम्, शत्कृतविड्वरोऽधिकविड् वरो वा। औप० १२ आहिनका-पिशाचे चतुर्थभेदः। प्रज्ञा० ७० आहिया-आख्याता। स्था० ३९७१ आह्रियते-निर्वर्त्यते। जीवा. १४१ आहियोग-आभियोगदेवेषुत्पन्ना आदेशवर्तिनः। भग० -x-x-x-x१९८१ आहिव्वण-आहित्यम्, अहितत्वं-शत्रुभावम्। प्रश्न. ३८१ | इंखिणिका-कर्णमूले घण्टिकां चालयन्ति। आव० १३० आही-आधिः, मनःपीडा। प्रश्न० २५। इंखिणी-विज्जाभिमंतिया घंटिया कण्णमले आहुइ-आहुतिः, अग्नौ घृतादिद्रव्यप्रक्षेपरूपा। दशवै. चालिज्जति, तत्थ देवता कढिंति कहेंतस्स २४५ पसिणापसिणं संभवति स एव इंखिणी भण्णति। निशी. आहुणिए- आधुनिकः। सूर्य २९४। अष्टाशीतौ ग्रहेषु ८५अ। निन्दा। सूत्र०६१। पंचमग्रहनामा। स्था० ७८। जम्बू० ५३४। इंगना-इङ्गना, सज्ञा। नन्दी० १५१ आहणिज्ज-आहवनीयं-सम्प्रदानभूतम्। औप० ५। इंगाल-अङ्गारः, दग्धेन्धनो विगतधूमज्वालः। आचा. आहुणिय-आधूय। आव० १२१। ४९। चारित्रेन्धनमगारमिव यः करोति भोजनविषयआहुस्स-आहोतुः, दातुः। औप० ५। रागाग्निः सोऽङ्गारः। भग० २९१। आहूए- संहृतः। आचा० ४२१॥ अङ्गाराणामयमाङ्गारः। दशवै० १६४। आहूतो- उत्पन्नः। आव० ३४३। लग्नः, उत्पन्नः। उत्त० ज्वालारहितोऽग्निः । दशवै.१५४, २२८ महाग्रहविशेषः। १४८ भग० ५०५। निर्वलितेन्धनम्। भग० २१३। विगतधूमः। आय-आहुतम्-आह्वानमामन्त्रणं नित्यं मदगृहे प्रज्ञा० २९। निधूमाग्निः। जीवा० १०७। विगतधूमज्वालो पोषमात्रमन्नं ग्राह्य इत्येवंरूपम्, कर्मकरादयाकारणं जाज्वल्यमानः खदिरादिः। जीवा० २८१ अङ्गारः। आव. वा साध्वर्थं स्थाना-न्तरान्नादयानयनाय यत्र सः, स्पर्धा ४२२, ३१३। रागो। निशी० ४९ | ज्वालारहितो वह्निः , वा। भग. २९३। भग. २९४१ अग्नेस्तृतीयभेदः। पिण्ड० १५२ आहेडगो-मिगव्वं। निशी० १३६ आ। इंगालए-अङ्गारकः, अष्टाशीतितममहाग्रहविशेषः। आहेणं-जमन्नगिहातो आणिज्जति तं अहवा जं सूर्य. २९४। महाग्रहविशेषः। जम्बू. ५३४। स्था० ७८। बहगिहातो वरगिह णिज्जति तं। निशी. २२ अ। यद् इंगालकढिणि-ईषद्वकाग्रा लोहमययष्टिः।भग०६९७। विवाहो-त्तरकाले वधप्रवेशे वरगहे भोजनं क्रियते। इंगालकम्म- अङ्गारकर्म, अङ्गारकरणविक्रयक्रिया। आचा० ३३४ आव० ८२९। आहेति-आधाय, कृत्वा। उत्त० २४७। इंगालदाहओ-अङ्गारदाहकः। आव० १५१| आहेवच्चं-आधिपत्यम्, अधिपतिकर्म। भग० १५४॥ इंगालब्भूया-अङ्गारराशिना भूता। भग० १६६। इंगालवडेंसए-अङ्गारावतंसकं, ज्योतिषविमानविशेषः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [157] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] भग०५०५ गुरुगतौ सम्यक् प्रकर्षण जानातीति। उत्त०४४१ इंगालसोल्लियं-अङ्गारैरिव पक्वम्। भग० ५१९। औप. इंगिताकारसम्पन्नः-इंगिताकाराभ्यां ९१। निर०२६। गुरुगतभावपरिज्ञान-मेवोक्तं तेन सम्पन्नः-युक्तः। इंगाला-अणिंधणाणि ज्वाला। निशी० ५२ आ। उत्त०४४। इंगिअ- इङ्गितम्, अन्यथा प्रवृत्तिलक्षणम्, इंग्यते- प्रतिनियतदेश एव चेष्ट्यते। सम० ३५ निष्ठीवनादिलक्षणम्। दशवै. २५२ नयनादिचेष्टया। इंतं-आयान्तम्। उत्त० ३२५, १३९। जम्बू० २२३ इंती- एंति-आगच्छन्ति। ओघ०७८१ इंगिणि-इगिनी, अनशनविशेषः। आव०६७० इंतो-आयान्, आगच्छन्। दशवै० ३७। आव० ८०१। बृह. इंगिणिमरणे- इगिनीमरणम्, प्रतिनियतदेश एव १७९ । चेष्टयतेऽस्या-मनशनक्रियायाम, सप्तदशमरणे इंदं- एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकं विमानम्। सम० षोडशः। सम० ३३। इगिते प्रदेशे मरणं इगितमरणम्। | ३७ आचा. २६२। "इंगियदेसंमि सयं इंद- इन्द्रः, सप्तमदिनस्य सैद्धान्तिकं नाम। सूर्य०१४७। चउव्विहाहारचायनिप्फन्नं। उव्वत्तणाइजुत्तं नऽण्णेण ऐन्द्री-पूर्वदिक्सैद्धान्तिकनाम। स्था० १३३। उइंगिणीमरणं"। स्था. ९६| इंदकाइया-त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४२ यावत्कथिकानशनद्वितीयभेदः। स्था० ३६४। त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ इंगिणी- इङ्गिनीमरणम्, मरणस्य षोडशो भेदः। उत्त० | इंदकील-इन्द्रकीलः, गोपुरे कीलविशेषः। जीवा० ३५९, २३०। इङ्गिनी, इङ्ग्यते-प्रतिनियतप्रदेश एव चेष्टते २०४। गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानम्। जम्बू०४८। अस्यामनशन-क्रियायामिति। उत्त. २३५। सम० ३५१ गोपुरावयवविशेषः। औप० ३। इंगितं-सूक्ष्मबुद्धिगम्यचेष्टा। स्था०४। गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवे-शस्थानम्। भग० १७५ सूक्ष्मचेष्टाविशेषः। बृह. ४३ अ। पुरमध्यस्थम्। नन्दी.१५०| इंगिनीमरणं-उक्तन्यायतः प्रतिपद्य इंदकुंभ-कुम्भानामिन्द्रः-विजयदेवाभिषेककलशाः। शुद्धस्थण्डिलस्थाता एकाक्येव कृतचतुर्विधाहार जम्बू०५० प्रत्याख्यानस्तत्स्थंडिलस्या-न्तछायात उष्णमष्णाच्च | इंदकुंभसमाणो- इन्द्रकुम्भसमानः, छायां स्वयं संक्रामति। उत्त०६०२ महाकुम्भप्रमाणकुम्भस-दृशः। जीवा० ३६० नियतप्रदेशस्थायित्वेऽशनादित्यागः। आव. १६३। | इंदकुमारिया- इन्द्रकुमारिका। आव० ४३४। इंगियं- इङ्गितम्, ज्ञानविशेषः। आव०७२४१ | इंदकेऊ- इन्द्रकेतुः, लोकमहनीयो ध्वजविशेषः। उत्त. नयनादिचेष्टा-विशेषः। निर०८। ज्ञाता०४१। निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृ-त्तिसूचकमीषद् इंदकेतु- इन्द्रकेतः, रश्मिनियन्त्रिते वेन्द्रयष्टिः। प्रश्न. भूशिरःकम्पादि। उत्त० ४४। अंगभंगादि। उत्त० ६२६) १३४१ इंगियपत्थिय-चेष्टितप्रार्थितः। (मरण०)। इंदखीलो-इन्द्रकीलः। आव०४१७। इंगियमरणं- इंगितमरणम्, इंगिते प्रदेशे मरणम्। दशवै. | इंदगाइ-त्रीन्द्रियजीवविशेषः। उत्त० ६९५। इंदगाह- इन्द्रग्रहः, उन्मत्तताहेत्ः। भग० १९८५ इंगियागारकुसलो-इंगिताकारकुशलः। आव० ५६। इंदगोवए- इन्द्रगोपकः, प्रावृटप्रथमसमयभावी इंगियागारसंपन्ने-इंगिताकारसम्प्रज्ञः, इंगितं कीटविशेषः। प्रज्ञा० ३६११ निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकं, आकारः- इंदगोवया-इन्द्रगोपकः, त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा. स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादि भावाभिव्यञ्जको ३२त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४२ दिगवलोकनादिः, दवन्दवे इंगिताकारौ, तौ अर्थाद इंदगोवसमाइय-त्रीन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९५ ३०३ २७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [158] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] इंदगोवेइ-इन्द्रगोपकः, प्रावृट्कालभावी कीटविशेषः। | इंदभूती- इन्द्रभूतिः इति मातृपितृकृतनामधेयः, जम्बू० ३४१ आचा० ३७६| महावीरस्वा-मिनः प्रथमशिष्यः। भग० ११| इंदग्गहो- इन्द्रग्रहः। जीवा० २८। महावीरस्वामिनो ज्येष्ठः शिष्यः। भग०१३९। इंदग्गी-इन्द्राग्निः , ग्रहविशेषः। स्था० ७९। जम्बू० ५३५) श्रीमहावीरप्रथमगणधरः। सूत्र.४०७। रविप्रश्ननिर्णये इंदजसा-इन्द्रयशा, ब्रह्मराजराज्ञी। उत्त० ३७७) चम्पानगर्यां पुण्यभद्रचैत्ये महावीरस्वामिनो इंदजालिओ-इन्द्रजालिकः-भूतिलाभिधः। आव. २१९। गौतमगोत्रो ज्येष्ठः शिष्यः। भग० २०६। इंदज्झओ-इन्द्रध्वजः, इंदमह-इन्द्रमहः, इन्द्रोत्सवः। उत्त० २११। अश्वयुक्शेषध्वजापेक्षयाऽतिमहत्त्वादिन्द्रश्चासौ ध्वजश्च पौर्णमासी। स्था० २१४। लौकिकमहोत्सवः। आव० ३५८१ इन्द्रध्वज इति विग्रहः, इन्द्रत्वसूचको ध्वज इति वा। उत्सवविशेषः। आव०६९२ आचा० ३२८। यदश्वयुक् सम०६१ पर्णिमायां भवति कार्तिके वा। आव० ७३६। इन्द्रोत्सवः। इंदहाणे- इन्द्रस्थानम्, यत्रेन्द्रयष्टिरूद्रध्वीक्रियते। आव० ३५८। इन्द्रस्य-शक्रस्य महः-प्रतिअन्त०२३ नियतदिवसभावी उत्सवः। जीवा. २८१। इंदगाणो-इन्द्रनागः, येन बालतपसा सामायिकं लब्धम्। | इंदमुद्धाभिसित्ते-इन्द्रमूर्द्धाभिषिक्तः, सप्तमदिनस्य आव० ३५३| वसन्तपुरे दारको य एकपिण्डिको जातः। । सैद्धान्तिकनाम। जम्बू.४९० आव०३५ इंदसम्मो-इन्द्रशर्मा, गृहपतिविशेषः। आव० १९४| इंददत्त-इन्द्रदत्तः, अभिनन्दनजिनप्रथमभिक्षादाता। प्रतिचरकः। आव० १९० आव० १४७। सम० १५१। इन्द्रप्रनगरनृपतिः। विपा० इंदसिरी-इन्द्रश्रीः, ब्रह्मराजराज्ञी। उत्त० ३७७) २२१ व्यव० १५१ अ। व्यव. १७०आ। तितिक्षोदाहरणे इंदसेणा- रक्तवतीसंगमिका नदी। स्था० ४७९। इन्द्रपुरनगरनरेशः। आव०७०२। मथुराक्षाद्धः पादच्छे- इंदा- ऐन्द्री, पूर्वदिक्। आव० २१५। भग०४९३। नागकुमादकः। (मरण०)। वासुपूज्यपूर्वभवः। सम० १५१। इन्द्रपुरे रेन्द्रस्य पञ्चमाग्रमहिषी। भग. ५०४। राजा। आव० ३४३। मथुरायां पुरोहित-विशेषः। उत्त. पञ्चमविद्युत्कुमारी महत्तरिका। स्था० ३६१। १२५ श्रावस्त्यां कपिलशिक्षको ब्राह्मणः। उत्त. २८६, रक्तवतीसंगमिका नदी। स्था०४७७। २८७। इन्द्रप्रनृपतिः। उत्त.१४८१ इंदासणि- इन्द्राशनिः, इन्द्रवज्रम्। उत्त०४७५। इंदधणु-इन्द्रधनुः। जीवा० २८३। विविधवर्णमभ्रमण्डले | इंदियं- इन्द्रियं, प्रज्ञापनायाः पञ्चदशं पदम्। प्रज्ञा०६। जायमानं तेजोमण्डलम्। भग. १९५१ इन्दनादिन्द्रः-जीवः, सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैइंदनीले- इन्द्रनीलः, रत्नविशेषः। प्रज्ञा० २७। पृथिवी- श्वर्ययोगात्तस्य लिङ्गं तेन दृष्टं सृष्टं जुष्टं दत्तमिति भेदः। आचा० २९। मणिभेदः। उत्त०६८९। वा, श्रोत्रादि। स्था० ३३४१ इंदपयपव्वतो- गजाग्रपदपर्वतापरनामा पर्वतः, षइदिग- औदारिकादित्वार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्म-दवयोपेतम् क्षेत्रा-वग्रहस्थानम्। निशी. ३४१ अ। । स्था० ३५६। इंदपाउया- इन्द्रपादुका, इन्द्रकुमारी। आव० ४३७ इंदियउद्देसए- प्रज्ञापनायाः पंचदशपदस्य प्रथमोद्देशकः। इंदपुरं- इन्द्रपुरम्, नगरविशेषः। उत्त० ३८० भग० ४४०, ७७७, १३१| प्रज्ञा० ५४५) इन्द्रदत्तराज-धानी। उत्त. १४८। तितिक्षोदाहरणे | इंदियकरणं-इन्द्रियकरणम्, इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां नगरविशेषः। आव०७०। नगरविशेषः। विपा०५४, ९५४ करणं अवस्थान्तरावादनम्। उत्त० २९८१ इन्द्र-दत्तराजधानी। विपा०८ नगरविशेषः। आव. इंदियत्थ३४३| व्यव० १५१ अ, १७० आ। औदारिकादित्वार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्मदवइंदभूई-इन्द्रभूतिः, प्रथमगणधरः। आव० २४० योपेतमिन्द्रियं, अर्थः-विषयो जीवादिः। स्था० ३५६) श्रीवीरप्रथमगणधरः। सम० १५२ इंदियत्थविकोवणयाते- इन्द्रियार्थविकोपनं-कामविकारः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [159] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] स्था० ४४७ | इंदियत्था– इन्द्रियार्थाः इन्द्रियैरर्यन्ते-अधिगम्यन्त इि इन्द्रियार्था:- शब्दादयः स्था० २५३ इन्द्रियाणामर्था:तद्विषयाः-शब्दादयः । स्था० ३३५ | इंदियनिग्गहो– इन्द्रियनिग्रहः, इन्द्रियाणां श्रोत्रादीनां निग्रहः- इष्टेतरेषु शब्दादिषु रागद्वेषकरणं, पञ्चैतेऽ नगारगुणा आक० ६६०। इंदियपच्चक्खे इन्द्रियं श्रोत्रादि तन्निमित्तंसहकारिकारणं यस्योत्पित्सोस्तदलिंगिकं शब्दरूपरसगन्धस्पर्श विषयज्ञा नमिन्द्रियप्रत्यक्षम् । अनुयो० २११॥ इंदियपज्जत्ति- इन्द्रियपर्याप्तिः- यया धातुरूपतया परि - आगम- सागर - कोषः ( भाग :- १) णमितादाहारादिन्द्रियप्रायोग्यद्रव्याण्युपादायैकवित्र्या दीन्द्रियरूपतया परिणमय्य स्पर्शादिविषयपरिज्ञानसमर्थो भवति सा गृह. १८४ आ । इंदियपडिपुण्णो नोविगलिदियो। निशी २६६आ । इंदियबल - इन्द्रियबलम् चक्षुरादीन्द्रियाणां बलं स्वस्वविषयग्रहणपाटवम्। जीवा० २६८ इंदियमुंडा न जितेन्द्रियाः । निशी० ३७ अ इंदियलद्धी - इन्द्रियलब्धिः, पंचेन्द्रियप्राप्तिः । उत्तः १४५| इन्द्रियाणाम्-स्पर्शादीनां मतिज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूता नामेकेन्द्रियादिजातिनामकर्मोदयनियमितक्रमाणां पर्याप्त-कनामकर्मादिसामर्थ्यसिद्धानां द्रव्यभावरूपाणां लब्धिरात्मनीतीन्द्रियलब्धिः । भग० ३५ण इंदियलाघवं इन्द्रियलाघवं इन्द्रियाणि तस्य वशे वर्त्तते । व्यव० १०२आ । इंदियाइं - इन्द्रियाणि-नयननासिकादीनि । उत्त० ४२५ | इंदियाणि - इन्द्रियाणि - नयननाशावंशादीनि । सम० १६ । इंदीवर हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३३ इंदुत्तरवडिंसगं– एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकं विमानम् । सम० ३७ इंदुवसु- इन्दुवसुः, ब्रह्मराजराजी उत्त० ३७७ इंदे - इन्द्रः । स्था० २९२ | मल्लिनाथप्रथमशिष्यः । सम १५२ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] इंदो - इन्द्रः, अधिपतिः । प्रज्ञा० १०५ । इन्दनाद् इन्द्रःआत्मा । प्रज्ञा० २८५ | जीवा० १६ । इन्दनात् इन्द्रःसर्वोपलब्धिभोगपरमैश्वर्यसम्बन्धाज्जीवः । आव ० ३९८ | जीवः सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात्। स्था० ३३४ परमैश्वर्ययोगात्प्रभुर्महान्। स्था० १९८१ इंदोकंतं- एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकं विमानम् । सम० ३७ | इंधणपलिआमं- जहा कोद्दवपलालेणं अंबगादि फलाणि वेत्ता पाविज्जंति आदिग्गहणेणं सालिपलालेण वितत्थ जे ण पक्का फला ते इंधणपलियामं भण्णति । निशी० १५२ आ । इंधणपलियामं- इंधनपर्यायामं-कोद्रवपलालादिना वेष्टयित्वा पाच्यानि फलानि बृह. १४२ आ इंधणसाला जत्थ तणाकरिसभारा अच्छंति । निशी. २१ आ। तृणकरीषकचवरस्थानम्। बृह॰ १७५अ। इइकट्टु– इतिकृत्वा, निश्चित्य । जम्बू० ३८६ । इति-कृत्वायस्मात् कारणात्। अनुयो० १६ ॥ इइकम्मं - इतिकर्म्म, इति- सांसारिकं दुःखं कर्मअष्टप्रका-रकर्मकृतम्। आचा० १४५| इइहास इतिहासः पुराणम्। औप० ९३ | भग० ११२१ निर० २३| इक्कड कटिनं तृणविशेषः । बृह० ५२आ। ठंढण-सदृशं तृणविशेषम्। प्रश्न. १२८ तृणविशेषः । भग० ८०स इक्कडा - लाडदेसे वणस्सतिभेओ । निशी० १३४ आ । वनस्पतिविशेषाः । सूत्र. ३०७/ इक्कमिक्क एकैकम्-परस्परम्। उत्त० ३८२ इक्काई राष्ट्रकूटविशेषः । विपा. ३९| इक्कारसालंकारं एकादशालङ्काराः, स्वरप्राभृतकथितालंकाराः । जम्बू० ३९॥ इक्खाग - इक्ष्वाकुः कुलविशेषः । आक १७९ | इक्खागकुलो इक्ष्वाकुकुलः, कुलविशेषः। निशी. २९० अ | आव० १०९ | इक्खागभूमि- इक्ष्वाकुभूमिः, ऋषभजन्मभूमिः । आव १६० | इक्खागा इक्ष्वाकवः, नाभेयवंशजाः। भग- ४८१ औप ५८1 कुलार्यभेदविशेषः । प्रजा० ५६ । प्रथमप्रजापतिवं [160] आगम-सागर-कोष" [१] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ८०२॥ शजाः। स्था० ३५८१ ऋषभस्वामिवंशिकाः। आचा० ३२७। | भवमैच्छानुलोमिकम्। स्था० १७५१ इक्खु- इक्षुः। भग० ३०६। दशवै० १८३। इच्छापरिमाणं- इच्छायाः परिमाणम्। आव० ८२५ इक्खुगारा-इक्षुकाराः, धातकीखण्डपुष्करवरद्वीपार्द्धयोः । इच्छापुन्निमा- इच्छापूर्णिमा। सूर्य. ११५) भेदकारिणो दक्षिणोत्तरायताः पर्वतविशेषाः। प्रश्न. ९५) । | इच्छामणं- इच्छामनः, कायपरिचारेच्छाप्रधानं मनः। इक्खुवाडिया-इक्ष्वादीनां मूलवर्गः। (वंशवर्गवत्)। भग० प्रज्ञा० ५४९। इच्छामुच्छा- इच्छामूर्छा, इच्छा-परधनं प्रत्यभिलाषः इक्खुवाडि-पर्वगविशेषाः। प्रज्ञा० ३३ मूर्छा-तत्रैव गाढाभिष्वङ्गरूपेति, तृतीयाधर्मद्वारस्य इक्षु- पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३। सप्तविंशतितमं नाम। प्रश्न. ४३। इक्षुरसा-वापीनाम, पंडकवन आग्नेयप्रासादवापिका। इच्छालोभ- इच्छारूपो लोभः इच्छालोभः-चक्रवर्तीन्द्रजम्बू० ३७१। त्वादयभिलाषादिको निदानविशेषः। आचा. २९५) इक्षुवरः- घृतोदसमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं महालोभः। बृह. २४६ । स्था० ३७४। समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७ इच्छियं-इष्टम्-ईप्सितम्। भग० १२१। इच्छितं-इष्टंइगं- इकम्, देशीपदम्। आव० ४७४। अनुमतम्। उत्त० ५०३। इच्छाविषयीकृतम्। जीवा. इच्छं- इच्छामि। आव० २६५। २७९ इच्छया- बलाभियोगमन्तरेण। स्था० ५०० इच्छियपडिच्छियं- इष्टप्रतीप्सितम्, इच्छसि-मृगयसे। आचा० १६८१ युगपदिच्छाप्रतीप्साविषयं वा। भग० १२११ इच्छाया इच्छा- इच्छा, बलाभियोगः। स्था० ४९९। एकादशीरात्रि- अवग्रहो नाम इच्छितप्रतीच्छितेन इच्छा संजाताऽस्येति नाम। जम्बू० ४९१। सूर्य. १४७। धनादिविषयाभिलाषः। इच्छितं, प्रतीच्छा संजाताऽस्येति प्रतीच्छितं, इच्छितं स्था० २९१। चेतःप्रवृत्तिरभिप्रायः। आचा० १७५) च तत् प्रतीच्छितं च इच्छितप्रतीच्छितम्। व्यव० ९३ अभिलाषमात्रम्। प्रश्न. ९७। अप्राप्ताभिलाषरूपा। । प्रश्न. ९२। वन्दनके प्रथम स्थानम्। आव० १४८ इच्छियपडिच्छियववहारो-इच्छितप्रतीच्छितव्यवहारः, इच्छाकामा- इच्छाकामाः, एषणमिच्छा सैव ईप्सितप्रतीप्सितव्यवहारः। आव० १०० चित्ताभिलाषरू-पत्वात्कामा इति। दशवै०८५) इज्जंजलि-इज्याञ्जलिः, यागविषयो जलाञ्जलिः। मोहनीयभेदहास्यरत्यद्भवाः। आचा० १३५ अनुयो० २९। मातुनमस्कारविधौ तद्भक्तः क्रियमाणः इच्छाकार- इदं मदीयं कार्यमिच्छया कुत न बलाभि- | कर-कुड्मलमीलन-लक्षणोऽञ्जलिः। अनुयो० २९। योगेनेत्येवमिच्छया करणम्। बृह. २२२ अ। पूजायामञ्जलिः। अनुयो० २९। आज्ञाबलाभियोगरहितो व्यापारः। अनुयो०१०३ इज्जत- एज्जंत-आयान्तमागच्छन्तम्। उत्त० ३५८१ दशविधसा-माचार्याः प्रथमभेदः। भग० ९२० इज्ज-इज्या, पूजा। उत्त० ५३१| यजनम्। उत्त० ३५८। बलाभियोगमन्तरेण करणं इच्छाकारः-इच्छाक्रिया। यजन-यागः। अनुयो० २९। माता। अनुयो० २९। आव० २५८१ पुजागाय-गोत्र्यादिपाठपूर्वकं विप्राणां सन्ध्याऽर्चनम्। इच्छाणलोमा- यथा कश्चित्किञ्चित्कार्यमारभमाणः अनुयो० २९। कञ्चन पृच्छति, स प्राह-करोतु भवान् सिया- इज्यैषिकाः, इज्यां-पूजामिच्छन्त्येषयन्ति ममाप्येतदभिप्रेतमित्येवंरूपा भाषा। प्रज्ञा० २५६। वा ये त एव। भग०४८२ प्रतिपादयितर्या इच्छा तदनलोमात-दनकला। भग. इट्टग-सेवकिका, मानोत्पत्तिकारणम्। पिण्ड० १३३। ५००। असत्यामृषाभाषाभेदः। दशवै० २१० इट्टाल-इष्टिकाखण्डः। दशवै. १७५। नि०७४आ। इच्छाणुलोमियं- इच्छा इई- इष्टम्। आव० २४०| वल्लभः-पूजितः। भग० १६०| चेतःप्रवृत्तिरभिप्रायस्तस्यानुलोमम् अनुकूलं तत्र | इहगा- (क्षणविशेषः) इट्ठगा सुत्ताउला (सेवतिका)। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [161] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] निशी० १०० आ । इड्डर - गन्त्रीढञ्चनकम् । भग० ३१३ | गन्त्र्याः सम्बन्धि । ओघ० १६६, १६७ इइडरग इड्डरकं महत् पिटकम्। राज० १४१० इड्डरिकादिः - पर्युषितकलनीकृताः अम्लरसा भवन्ति, आरनालस्थिताम्रफलादिर्वा । स्था० २२० | - इड्ढि – ऋद्धिः-आमर्षौषध्यादिः । दशवै० १०३ | भवनपरि वारादिका। जम्बू॰ ६२। उत्त० ३५० \ आव० १७८ स्था० १३२| इढिपत्ता - ऋद्धिप्राप्ता आर्याः । प्रज्ञा० ५५ । ऋद्धिप्राप्ताआर्यप्रथमभेद, अर्हदादयः सम० १३५ इइढिमं - इस्सरो । निशी. १६६ आ इड्ढिमत - ऋद्धिमतः- विस्मयनीयवर्णादिसम्पत्तिमतः। उत्त० ४७३ | इड्ढिसिय- रूढिगम्याः । भग० ४८१ । इड्ढी - ऋद्धिः । प्रज्ञा० ४२४ | इस्सरियं । निशी० १३आ । आत्मशक्तिरूपा । प्रज्ञा० ४६७ | भवनपरिवारादिका । जीवा. २१७॥ विभवैश्वर्यः जीवा• २८० विमानपरिवा रादिका । सूर्य० २५८१ स्था० ११६ । औषधिविशेषः । उत्तः ४८०| कनकादिसमुदायः उत्त० २८४ आमर्षीषध्यादि । आचा० १७८ | विमानवस्त्रभूषणादि उपा० २६| दीनानाथदानादिका विभूतिः । उत्त० ४६५ । श्रावकोपकरणादिसम्पदामर्षौषध्यादिरूपा । उत्त० ६६८ । इड्ढीगारवं- ऋद्धिगौरवम्, ऋद्ध्या- नरेन्द्रादिपूज्याचार्यादित्वाभिलाषलक्षणया गौरव ऋद्धिप्राप्त्याभिमानाप्राप्ति आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) सम्प्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरवम्। आव० ५७९ | ऋद्ध्या-नरेन्द्रादिपूजालक्षणया आचार्यत्वादिलक्षणया वा अभिमानादिद्वारेण गौरवम्, ऋद्धिप्राप्त्यभिमानाप्राप्त इणमो - इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षासन्नम्। प्रश्न० २ 9 ९०९ | इत्तरा- इत्वरा, ये कल्पसमाप्त्यनन्तरं तमेव कल्पं गच्छं वा समुपयास्यन्ति ते इत्वराः । प्रज्ञा० ६८ । स्वल्पकालभाविनी । अनुयो० १३१ प्रस्तुतकल्पपरिसमाप्तौ ये भूयः स्थविरकल्पं प्रतिपद्यन्ते ते। बृह० २२७आ। प्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभभावो भावगौरवम् । स्था० १४३ । इत्तरिए - अल्पकालीनं । भग० ९२१ | निशी० २३९ | इणं- अयम्, अनन्तरोक्तत्वेन प्रत्यक्षः । भग० ३४ | इत्तरियं— इत्वरम्-स्वल्पकालभावीनि । आव० ८३८ \ उत्तरगुणप्रत्याख्यानम् आव० ८०४ अल्पकालिकं दैवसिकादि प्रतिक्रमणमेव आव. १६३३ इत्तरियं दिसं- इत्वरं दिशम् आचार्यलक्षणम्। व्यव० वि इणामेव - एवमेव । प्रज्ञा० ६००| इहिं- इदानीम् । आव० २७३ | इतः स्थितः । २६९ इतर सामान्यसाधुभ्यो विशिष्टतरः आचा० २४३॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] शय्या-तरः । व्यव० २७६ | अन्तप्रान्तः कुलः । आचा० २४३| इता - ज्ञाता । आचा० २८६ | इति- इतिः प्रवृत्तिः । स्था• ३४३ उपदर्शने सूर्य• २८६ | प्रज्ञा० २५५| परिसमाप्तौ एवमर्थ वा उत्त० ६७ एवं प्रकारार्थः । स्था० १०३॥ पूर्वप्रकान्तपरामर्शकः आचा. १४५॥ इतिसो वा अर्थे । निशी० १३७ आ । आमं-तणे परिसमत्तीए उवप्पदरिसणे वा दशकै• ६३] हेतौ । आचा० १००। उपप्रदर्शने । उत्त० ५७०। दशवै० ७६ । आद्यर्थः । उत्त० ५६१ प्रत्येकं पर्यायस्वरूपनिर्देशार्थः । उत्त॰ ८\ आद्यर्थे। आव॰ २८। प्रख्यातगुणानुवादनार्थः । भग० ६७ । एवंप्रकाराः । स्था० ३५४ | इतिकत्तव्वं— इतकर्त्तव्यं। आव० २१३ । इतिकर्तव्यताआदर्शनिक्षेपे संपूर्ण कर्तव्यतार्थः आचा० ५ इत्तरं स्वल्पः | निशी० १८९ अ परिमितकालम् । दशवै० २६। चतुर्थादिषण्मासान्तमिदं तीर्थमाश्रित्य । स्था० ३६४ | पादपोपगमनापेक्षया नियतदेशप्रचाराभ्युपगमादिगि तमरणम्। आचा० २८५ | इत्तरकं- इत्वरकम्, स्वल्पकालं, नियतकालावधिकं । उत्त० ६०० | इत्तरकालिकं प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपितव्रतस्य इत्वरकालिकम्। स्था० ३२३ | अल्पकालिकम् । भग ० २००अ इत्तरिय - इत्वरं, भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थे [162] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] ष्वनारोपितमहाव्रतस्य शैक्षकस्य विज्ञेयम् । प्रज्ञा० ६३ । अयनशीलम्-स्वल्पकालभावी । उत्त० ३३५॥ इत्वराःप्रस्तुतकल्पपरिसमाप्तौ ये भूयः स्थविरकल्पं प्रतिपद्यन्ते ते। बृह० २२७ आ । इत्तरियतवो– इत्वरतपः स्वल्पकालं अनशनरूपं तपः । आगम-सागर-कोषः (भाग:-१) उत्त० ६०० | इत्तरियपरिग्गहियागमणे- तत्रेत्वरकालपरिगृहीता कालशब्दलोपात् इत्वरपरिगृहीतागमनम्, भाटीप्रदानेन किय-न्तमपि कालं दिवसमासादिकं स्ववशीकृताया गमनं-मैथुनासेवनम्। आव० ८२५| इत्तिरिउग्गहो– रुक्खातिहेट्ठठिताण वीसमणट्ठा इत्तरिओ उग्गहो भवति । निशी० २३९ आ । इत्तिरियं- इत्वरं, स्वल्पकालिकं दैवसिकरात्रिकादि । स्था० ३८० | निशी० ३५४ आ । इत्थंथं- इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं । प्रज्ञा० १०९ | नारकादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि तत् । दशवै० २५८ | इत्थत्तं - अनेन प्रकारेणेत्थं तद्भाव इत्थत्वं, मनुष्यादित्वम् । भग० १११ | इत्थत्थं- इत्यर्थम्, एनमर्थम् अनेकशस्तिर्यङ्नरनाकिनारकगतिगमनलक्षणम् । भग० १११। इत्थिकहा- स्त्रीकथा-स्त्रीणां स्त्रीषु वा कथा, विकथायाश्च-तुर्थभेदः। स्था० २०९ | दशवै० ११४। इत्थिपोसए - स्त्रीयं पोषयतीति स्त्रीपोषकः, अनुष्ठानविशेषः । सूत्र० १११। इत्थिरयणे - स्त्रीरत्नम् । चकवर्त्तेः पञ्चमं पञ्चेन्द्रियरत्नम्। स्था० ३९८ इत्थिलिंगं- स्त्रीलिङ्गम्, स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः । प्रज्ञा० २०१ इत्थिवऊ– स्त्रीवाक्, स्त्रीलिङ्गप्रतिपादिका भाषा । प्रज्ञा० २४९| इत्थिवेए– स्त्रीवेदः, स्त्रियाः पुंमासं प्रत्यभिलाषः । प्रज्ञा० ४६८ इत्थवेदो - अंतो अणुसमय डाहो अणुवसंतो वि घट्टिज्जमाण दिप्पंतो फुंफुअग्गिसमाणो इत्थिवेदो। निशी० ३१ अ इत्थिवेय- स्त्रीवेदः, स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः । जीवा० १८ इत्थिसंसग्गी- अक्खाइगउल्लावादि । दशवै० १२७ । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] इत्थिसंसत्तो - स्त्रीसंसक्तः स्त्रीसम्बन्धः । प्रश्न० १३८ । इत्थिसागारिए - स्त्रीजनः | निशी० १० अ । इत्थी-स्त्री- पुरुषोत्तमवासुदेवनिदानकारणम् । आव ० १६३ | इत्थीउ - स्त्रियः - अष्टमः परीषहः । आव० ६५६ । इत्थीणपुंसिया - इत्थिवेदो वि से नपुंसकवेदमपि वेदेति । निशी० २५आ। इत्थीनामगोत्तं - स्त्रीनामगोत्रम् । आव० १२० इत्थीपण्हाइ- स्त्री उपलक्षणमेतत् पुरुषो वा प्रस्तौति प्रस्यंदते मिथुनकर्म्म समारभते इत्यर्थः । व्यव० १९५ आ। इत्थीपरिण्णा - स्त्रीपरीज्ञाध्ययनम्, सूत्रकृताङ्गे प्रथमश्रुतस्कन्धे चतुर्थमध्ययनम् । सम० ३१ । इत्थीपसुविवज्जिअं- स्त्रीपशुविवर्जितमित्येकग्रहणे तज्जा-तीयग्रहणात् स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितं स्त्र्याद्यलोकनादिरहितम् । दशवै० २३७ । इत्थीरूवं - अणाभरणा इत्थीरूवं भण्णति । निशी० ७७ | इत्थीविग्गह— स्त्रीविग्रहः, स्त्रीशरीरम् । दशवै० २३७ | इत्थीविपरियासो - स्त्रिया विपर्यासः स्त्रीविपर्यासःअब्रह्मासेवनम् । आव० ५७५ | इत्थीवेदे - स्त्रीवेदः, स्त्रियं यथावस्थितस्वभावतस्तत्संबन्धविपाकतश्च वेदयति-ज्ञापयतीति, वैशिकादिकं स्त्री-स्वभावार्विभावकं शास्त्रमिति। सूत्र० ११२| इदुर - सम्बादिढञ्चनकादि तदिदूरम् । अनुयो० १५१| इद्धं - चित्तं । निशी० ३६ अ इन्द्रकूपः– उंडतमः कूपविशेषः । आव० ८२७। इन्द्रजालम्- कुहकम्। दशवै० २५४ | इन्द्रनीलः- रत्नविशेषः । जीवा० २३ | आव० १८१, २५९ | प्रज्ञा० ९१ | इन्द्रियगोचरा - विषयाः । आव० ५८४ | इन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिका- आद्येन्द्रियैःश्रोतादिर्भिदुष्प्रणिहितस्य इष्टानिष्टविषयप्राप्तौ मनाक्सङ्गनिर्वेदद्वारेणाप-वर्गमार्गं प्रति दुर्व्यवस्थितस्य क्रिया । आव० ६११। इन्द्रियार्थावग्रहः- स्पर्शनादीन्द्रियाणां ये स्पर्शादयो अर्थाः तेषां अवग्रहः - सामान्यमात्रज्ञानं । नन्दी० १७४ | इन्धनं- गोमयो भण्यते। ओघ० १२९ । [163] “आगम-सागर- कोषः " [१] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] इब्भ- इभमर्हतीति इभ्यः। बृह. १९९ अ। यद्रव्य- आचा० ३७४। ईर्या आचारप्रकल्पस्य निचयान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते। इभो-हस्ती दवितीयश्रुतस्कन्धस्य तृतीयमध्ययनम। प्रश्न. १४६| तत्प्रमाणं द्रव्यमर्हतीति निरुक्तादिभ्यः। जम्बू. १२२१ ईर्या-गमनं, ईर्याकार्यं कर्म। आव. २६५। ईर्या-गमनम। हस्तिप्रमा-णद्रविणराशिपतिः। औप० २७। अर्थवान्। भग० १०६ स्था० ४६३। यद्रव्यनिचयान्तरितो महेभो न दृश्यते। । इरियाइ-ईर्यादि, संयमविषया विराधना। ओघ० ८० औप० ५८। इभमर्हन्तीतीभ्याः-यद्रव्यस्तूपान्तरित | इरियामि-ईरे-गच्छामि गोचरचर्यादिष्विति। उत्त०४४५। उच्छ्रितकदलि-कादण्डो हस्ती न दृश्यते ते। स्था० ३५८१ | इरियावह-ईर्या-गमनं, तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथः। आव० महाधनाः। भग० ४६३। धनवान्। प्रज्ञा० ३३०| इभो ५७६| हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमहतीतीभ्यः। इरियावहकिरिया-ईर्यापथक्रिया, या यत्सत्कपुञ्जीकृतहिरण्यरत्नादिद्रव्येणा-न्तरितो उपशान्तमोहादारभ्य सयोगिकेवलिनं यावदिति। सूत्र. हस्त्यपि न दृश्यते सोऽधिकतरद्रव्यो वा इभ्य इत्यर्थः। ३०४१ जीवा० २८०१ अनुयो० २३। यावतो द्रव्यस्योत्करे- इरियावहियं- ऐर्यापथिकी, ईर्या-गमनं तदविषयः पन्थाणान्तरितो हस्ती न दृश्यते तावद द्रव्यपतयः। प्रश्न. मार्गस्तत्र भवा, केवलकाययोगप्रत्ययः कर्मबन्धः ९६| इत्यर्थः। भग० १०६। ईरणमीर्या-गतिस्तस्याः पन्था इब्भजाति-मातिपक्खविसुद्धा इब्भजाइ। निशी० २९० यदाश्रिता सा भवति तस्मिन् भवमध्यात्मादित्वाढकि अ। विशिष्टा जातयः। स्था० ३५८१ ऐापथिकं, पथि-स्थस्तिष्ठच्चैर्यापथिकम्। उत्त. इमंपि- इदमपि, इतिपूर्वकोऽपिशब्दः। आचा०६५ ५९५ इय- इतः, आर्षत्वात् अस्य। प्रज्ञा० ११२। आगतः। इरियावहिया-ईर्यापथक्रिया, क्रियायास्त्रयोदशो भेदः। (मरण)। आव०६४८ ईर्यापथिकी-विंशतिक्रियामध्ये इयण्डिं-इत इदानीम्। स्था० १४३। विंशतितमा। आव०६१ ऐापथिकी-गमनप्रधानः इयपट्ठा-इतिप्रष्ठाः-प्रधानाः, वाग्मिनः। उपा०४६। पन्थाः ईर्यापथस्तत्र भवा। आव. ५७३। इयरं- इतरं, रजोहरणनिषदया औपग्रहिकं कार्पासिकं ईर्यापथिकीचंक्रमणक्रिया। बह. २७ अ। और्णिकं वा चीरं, सार्थो वा। ओघ० २३। इतरशब्देन इरियासमिइ-ईर्यासमितिः-निरवदयप्रवृत्तिरूपा। प्रश्न. रजोहरणनिष-द्योच्यते। ओघ० २३। १४३ इयरेयर-इतरेतरः, इतरेतरसंयोगः। उत्त० २३। इरियासमिए-ईरणं-गमनमीर्या तस्यां समितोइरिआवहं-ईरणमीर्या, पथि ईर्या ईर्यापथं-गमनागमनम्। दत्तावधानः पुरतो ओघ० ३७ युगमात्रभूभागन्यस्तदृष्टिगामीत्यर्थः। आचा० ४२८ इरियावहिए- ऐर्यापथिकः, केवलयोगप्रत्ययः कर्मबन्धः, | इला-हिमवते चतुर्थकूटः। स्था०७११ धरणेन्द्रस्य क्रियास्थाने त्रयोदशं क्रियास्थानम्। सम० २५ महिषीनाम। भग० ५०४१ इरितासमिती-जीवसंरक्खणजगमेत्तंतरदिहिस्स इलादेवया-इलादेवता, इलावर्द्धननगरदेवता। आव० ३५९। अप्पमादिणो संजमोवकरणप्पायणणिमित्तं जा इलादेवी-पश्चिमरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव०१२२॥ गमणकिरिया सा। निशी०१६ आ। पुष्पचूलायाः पञ्चममध्ययनम्। निर ०३७ इरिमंदिर- लक्ष्मीमन्दिरम्, लक्ष्म्यालयं, प्रभूतलक्ष्मीकम् | पाश्चात्यरुचक-वास्तव्या प्रथमादिक्कुमारीमहत्तरिका। । दशवै०५८ जम्बू० ३९१। इरिया-ईरणमीर्या-गतिपरिणामः। उत्त. ५१४। ईर्या- | इलादेवीकूडे- इलादेवीकूटं, क्षुल्लहिमवतकूटः। जम्बू. आचारप्रकल्पस्य द्वादशो भेदः। आव० ६६० | २९६। इलादेवीदिक्कुमारीकूटम्। जम्बू० ३८१। ईर्यागमनम्। भग० ३२३। ईरणमीर्यागमनमित्यर्थः। | इलापुत्तो- इलापुत्रः, इलावर्द्धननगरसार्थवाहपुत्रः। आव० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [164] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६। [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ३५९। तीर्थकराचार्यव्यतिरिक्तेभ्यः श्रुत्वा प्रतिबुद्धः। | इसिवाले- ऋषिपालः, सूत्र० १७२। उत्तरऋषिवादिकव्यन्तराणामिन्द्रः। प्रज्ञा० ९८१ इलावद्धणं- इलावर्द्धनं, नगरविशेषः। आव० ३५९। इसिवालो-तोसलिवासिना क्रीत इलिआगई- इलिकागतिः, गत्यंतरगतिविशेषः। भग० उज्जयिनीकृत्रिकापणाधिपः सुरः। बृह. २६७आ। ८४१ स्था०८९। आव० ३६३। पंचमवासुदेवपूर्वभवनाम। सम० १५३। इलिका-धान्यकीटः। भग० ८४| धान्यजन्तुविशेषः। इसिवुड्ढी-ऋषिवृद्धिः, ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणां आव० ३६३ मध्ये सप्तमी राजीनाम। उत्त० ३७९। इलू-धान्यविशेषः। निशी. १४९ अ। इसी-ऋषिः-विशिष्टतपश्चरणोपेतो महर्षिः। सूत्र. २९८। इष्टकापाकः-योष्टकाः पच्यन्ते तत्। जीवा० १२४। दक्षिणऋषिवादिकव्यन्तराणामिन्द्रः। प्रज्ञा. ९८१ इसत्थं- प्राकृतशैल्या इषशास्त्रं-नागबाणादिदिव्यास्त्रा- पश्यतीति अतिशयज्ञानी। औप० ७८1 सविहितः। ओघ. दिसूचकं शास्त्रम्। जम्बू. १३८ રરરા. इसि-ऋषयः-गणधरव्यतिरिक्ताः शेषा जिनशिष्याः। इसु-इषुः, शरः। दशवै०१८ मुनयः यतयो वा। सम. १५९। त्रिकालदर्शनिनः। राज. इसुसत्थं- इषुशास्त्रम्, बाणकला। आव० ३९२ इस्सरियं- ऐश्वर्य-प्रभुत्वं, द्रव्यादिसमृद्धिा । उत्त० ४७४। इसिगणिया-ऋषिगणितदेशवास्तव्या देवानन्दादासी। इस्सरे-भूतेन्द्रविशेषः। स्था० ८५ भग०४६० इस्सा-ईर्ष्या। आव० ४१०। परगुणासहनम्। उत्त०६५६) इसिच्चेव- वाणवंतरपणपन्निदा। स्था० ८५) इहत्थे- इहार्थ ईहास्थो वा। स्था० २४८१ इसिज्झयं-ऋषिध्वज-मुनिचिह्न रजोहरणादि। उत्त. इहरा-इतरथा, अन्यथा। पिण्ड० १४१। अन्यथा। आव. ४७८१ २६० इसितडागं- ऋषितटाकं, तोसलिनगरे सरः। बृह. २५७। इहलोगइया- मणुस्सा। निशी० ७१ आ। इसिदासे- ऋषिदासः, अनुत्तरोपपातिकदशानां इहलोकभते-इहलोकभयं-मनुष्यादिकस्य सजातीयादतृतीयवर्गस्य तृतीयमध्ययनम्। अनुत्त० २ न्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्यद्भयम्। स्था० ३८९। इसिदिण्णं-ऋषिदिन्नम्, ऐरवते पंचमजिननाम। सम० यत्सजातीयाद् भयम्। सम० १३। इहलोके भयं १५३ स्वभावाद् यत् प्राप्यते। आव० ४७२। स्वजातीयात् इसिपब्भारा-सिद्धशिलानाम। सम० २२॥ मनुष्यादेर्मनुष्या-दिकस्यैव भयम्। प्रश्न० १४३। इसिभद्द- आलभिकायां श्रमणोपासकविशेषः। भग० ५५०१ | इहलोगसंवेगणी-संवेगणीकथायाः प्रथमभेदः, इहलोकःइसिभासिआ-ऋषिभाषिताः। आव०६१। मनुष्यजन्म, तत्स्वरूपकथनेन संवेगनी। स्था० २१० इसिभासिय-ऋषिभाषित। बृह. ३५ अ। इहलोगासंसप्पओगे- इहलोकाशंसाप्रयोगः, इहलोकःइसिभासियाई- ऋषिभाषितानि, उत्तराध्ययनादीनि। मनुष्यलोकस्तस्मिन्नाशंसा-अभिलाषप्रयोगः। आव. आव० ३०९। ऋषिभाषितं- उत्तराध्ययनादि। सूत्र० ३८६। ८३९। इसिया-मुजागर्भभूता शलाका। सूत्र० २७९। इहलोगो-इहलोकः, मनष्यलोकः। आव० ८४० इसिवज्झा-ऋषिवध्या-ऋषिहत्या। उत्त० ४४०। | इहलोयभयं- इहलोकभयंइसिवाइंदा- वाणमन्तरविशेषः। स्था० ८५ मनुष्यादिसजातीयादन्यस्मान्मनु-ष्यादेरेव भयम्। इसिवाइय-ऋषिवादिकः, वाणमन्तरविशेषः। प्रज्ञा० ९५४ आव०६४५ व्यन्तरनिकायानामपरिवर्तिनो इहलोयसंवेयणी- इहलोकसंवेजनी, वाणव्यन्तरजातिविशेषाः। प्रश्न०६९। संवेजनीकथायास्तृतीयो भेदः। दशवै० ११२ इसिवालए- वाणव्यंतरऋषिपालेन्द्रः। स्था० ८५ इहेहे-विप्साभिधानं सम्भ्रमख्यापनार्थ, यदि वा इहेति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [165] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] लोके इहेत्यस्मिन् मृत्यौ। उत्त०४०९। ईसत्थसत्थरहचरियाकुसलो-x-x-x इण्वस्त्रशस्त्ररथचर्याक्शलः। उत्त० २१४। ईसर-ईश्वरः, भोगिकादिः अणिमाद्यष्टविधैश्वर्यय्क्तो ईइ-ईतिः, गड्डरिकादिरूपा। जीवा. १८८ जं० २९। वा। जम्बू० १२२। लवणे उत्तरपातालकलशः। स्था० ईति-दुरितविशेषः। भग० ८1 धान्याद्युपद्रवकारिशलभ ४८०, २२६। प्रभुरमात्यादिः। अन्त०१६। स्फातिमान्। मूषकादिः। जम्बू०६६। जीवा० ३६५। युवराजादिः भोगिको वा। प्रश्न. ९६। ईती- ईतिः-धान्याद्युपद्रवकारी प्रचुरमूषकादिप्राणिगणः। भोगिकादिः, अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्तो वा। सम०६२ जीवा०२८०। बृह. २५५आ। युवराजः, ईरियहा-ईर्याविशुद्ध्यर्थम्। स्था० ३६० अणिमायैश्वर्ययुक्तः। औप० ५८१ प्रज्ञा० ३३०, ३२७। ईरिया- गमनं। स्था० ३४३। ईरणमीर्या-गतिपरिणामः। महेश्वरः। प्रश्न० ३३। प्रधानः, प्रभः, स्वामी। आव. उत्त० ५२४। ५०२। भूतवादिकव्यन्तरेन्द्रः। प्रज्ञा० ९८। 'ईस ईश्वर्ये' ईरियावहिया- ऐापथिकीक्रिया, योगमात्रजः कर्मबन्धः। ऐश्वर्येण युक्तः ईश्वरः, सो य गामभोतियादि। निशी. आव०६१२। ईर्या-गमनं तत्प्रधानः पन्था-मार्ग ईर्या २७० अ। गृहस्वामी। आचा० ४०३, ३७०। द्रव्यपतिः। पथस्तत्र भवमैर्यापथिकं-केवलयोगप्रत्ययं कर्म। भग. उत्त० ३५३। युवराजो माण्डलिकोऽमात्यो वा, ३८५ आव०६४८, ६४९। अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वरः। स्था० ४६३। ईरियावहियाकिरिया-ईर्यापथिकक्रिया-यदुपशान्तमोहा युवराजः सामान्य-मण्डलिकोऽमात्यश्च। अन्यो० २३। देरेकविधकर्मबन्धनमिति। स्था० ३१६) युवराजः। भग० ३१८ युवराजादयः। भग० ४६३। औप० ईरियासमिइ-ईर्यासमितिः, ईर्यायां समितिः, ईर्याविषये १४| युवराजा। राज० १२१। एकीभावेन चेष्टनम्। आव०६१५ रथशकटयानवाहना ईसरस्स-पातालकलशः। सम० ८७) क्रान्तेष मार्गेष सूर्यरश्मिप्रतापितेषु प्रासुकविविक्तेषु । ईसरा-ईश्वराः, यवराजाः, अणिमादयैश्वर्ययक्तः। पथिषु युगमात्रदृष्टिना भूत्वा गमनागमनं कर्तव्यम्। जम्बू० १९० आव०६१५ ईसरिए- ऐश्वर्यः, मदस्य षष्ठं स्थानम्। आव०६४६। ईर्याप्रत्ययं-ईरणमीर्या-गमनं तेन जनितम्। सूत्र. १२ ईसरी-ईश्वरी, सोपारके श्राविकाविशेषः। आव० ३०४। ईर्याविशुद्धि-ईर्या-गमनं तस्या विशुद्धिर्युगमात्रनिहित- ईसा-ईशा, पिशाचकमारेन्द्रस्याभ्यन्तरिका पर्षत्। दृष्टित्वम्। स्था० ३६० जीवा० १७१। ईश्वरी-लोकपालाग्रमहिषीणां आद्या पर्षद् ईलिकागतिः- गतिविशेषः। प्रज्ञा० १५१। नन्दी० १५३। । स्था० १२७। ईर्ष्या-प्रतिपक्षाभ्यदयोपलम्भजनितो ईली-करवालविशेषः। प्रश्न. ४८ मत्सरविशेषः। आव०६१११ ईश्वरकारणिकः- क्रियावादिदवितीयविकल्पः। सम० ईसाण-ईशानः-ईशानावतंसकाभिधविमानोपलक्षितः ११० दवितीयकल्पः। अनुयो० ९२ ईश्वरकारणिनः-क्रियावादिदवितीयविकल्पः। ईसाणवडिसए-ईशानावतंसकः, स्था०२६८ ईशानकल्पमध्येऽवतंसकः। जीवा० ३९१। ईश्वरपुत्रः- इभ्यानां पुत्रः ईश्वरपुत्रः। नन्दी० २५८॥ ईसाणवडेंसए-ईशानकल्पेन्द्रविमानं। भग० २०३ ईषत्कुटिला-कुण्डलीभूता। जम्बू० ११३ ईसाणा-ईशानदेवलोकनिवासिन ईशानाः, दवितीयो ईषा- गात्रविशेषः। जम्बू० ५५। राज० ९३। देवलोकः। प्रज्ञा०६९। पूर्वोत्तरदिक्कोणनाम। स्था० ईसक्खो-ईशाख्यः, ईशनमैश्वर्यमात्मनः ख्याति अन्त १३३ भंतण्यर्थतया ख्यापयति-प्रथयति यः सः। जीवा०२१७५ इसाणी-पूर्वोत्तरदिक्कोणनाम। भग०४९३। ऐशानी ईसत्थ- इषुशास्त्रम्, धनुर्वेदः। आव. १२९। प्रश्न. ९७।। ईशान-कोण, पूर्वोत्तरमध्यवर्तिदिक्। आव० २१५ धणुवेदादि-धनुर्वेदादि। निशी० २०आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [166] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] पा ईसाणे-दवितीयकल्पेन्द्रः। स्था० ८५ अहोरात्रस्यैका- शद्योजनलक्षायामविष्कम्भप्रमाणा दशमुहूर्तनाम। सूर्य. १४६। एकादशमुहूर्तनाम। जम्बू० शुद्धस्फटिकसंकाशा सिद्धशिला। प्रज्ञा० २२८। ईषद४९११ देवलोकविशेषः। आव० ११५ अल्पो रत्नप्रभाद्यपेक्षया प्राग्भारः-उच्छ्रयादिलक्षणो ईसिं-ईषत्, मनाक्। जीवा० १८१।। यस्यां सा। स्था० २५१। सिद्धशिला। प्रज्ञा० १०७। ईषत्ईसिं ओढवलंबिणी-ईषदोष्टावलम्बिनी, ईषत्-मनाक् अल्पो योजनाष्टकबाहततः परम्परमास्वादतया झटित्येवाग्रतो गच्छति ल्यपञ्चचत्वारिंशल्लक्षविष्कम्भात् प्राग्भारः पुद् ओष्टेऽवलम्ब-तेलगतीत्येवंशीला। प्रज्ञा० ३६४। गलनिचयो यस्याः सा। स्था० १२५। ईसिं ओणयकाओ-ईषदवनतकायः। आव. २१६। ईसेणिआ-ईसिनिकाः। जम्बू. १९११ इसिं तंबच्छिकरणी-ईषत्ताम्राक्षिकरणी, ईषत्-मनाक् | ईहइ-ईहते-पर्यालोचयति। आव० २६। तामे अक्षिणी क्रियेते अनयेति। प्रज्ञा० ३६४। ईहते-पूर्वापराविरोधेन पर्यालोचयति। नन्दी. २५०। ईसिंपब्भारगओ-ईषत्प्राग्भारगतः-ईषदवनतकायः। ईहा-सदर्थविशेषालोचनं। भग० ३४४। सदर्थाभिमुखा आव. २१६॥ ज्ञानचेष्टा। भग० ६३३। वितर्कः। सम० ११५ अवग्रईसिं वोच्छेदकडुई- ईषद्व्युच्छेदकटुका, ईषत्-मनाक् हादुत्तरकालमवायात्पूर्वं सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखो ऽसद्धतार्थविशेषपरित्यागाभिमुखः-प्रायोऽत्र पानव्यच्छेदे सति तत ऊर्ध्वं कटुका मधुरत्वादयः शङ्खादिशब्दधर्मा दृश्यन्ते न एलादिद्रव्यसम्पर्कत उपलक्ष्यमाणतिक्तवीर्येति। प्रज्ञा. खरकर्कशनिष्ठतादयः शाहूंगा-दिशब्दधर्मा इत्येवंरूपो ३६४। जीवा० ३५१। मतिविशेषः। नन्दी. १६८। ईहन-मीहाईसि-ईषत्, मनाक्। प्रज्ञा० ९१। आव० ८५७। ईषत्प्रा सदर्थपर्यायलोचनम्। नन्दी० १८६। ईहनमीहाउभारानाम। प्रज्ञा० १०७ सिद्धशिलानाम। सतामर्थानामन्वयिनां व्यतिरेकाणां च पर्यालोचना। रत्नप्रभाद्यपे-क्षया ह्रस्वत्वाद् ईषत्। स्था० ४४०। सम० आव. १८ तदवगृहीतार्थविशेषालोचनम्। आव० ९। ईहनमीहा-सद्भतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा। प्रज्ञा० ३१० ईसिगि-सरस्सछल्ली-त्वक्। निशी. ६३ आ। नन्दी. १६८ किमिदमित्थमतान्यथेत्येवं ईसिपंचहस्सक्खरुच्चाणद्धा-अयोगिकालमानं। उत्त० सदर्थालोचनाभिमुखा मतिः चेष्टा। औप. ९९। ५७७। ईषदिति-स्वल्पः प्रयत्नापेक्षया पञ्चानां सदर्थपर्यालोचनात्मिका। दशवै. १२६। अवग्र हार्थगतासद्भूतसद्भूतविशेषालोचनम्। राज० १३०| ह्रस्वाक्षराणां अइ-उऋलू इत्येवंरूपाणामुच्चरणमुच्चारो ईहामिग-ईहामृगः-वृकः। भग० ४७८१ जम्बू०४३। जीवा० भणनं तस्याद्धाकालो यावता त उच्चार्यन्ते। उत्त०५९६। १९९। नाट्यविधिविशेषः। जीवा. २४६। जम्बू०४१५ ईसिपब्भारा-ईषत्प्राग्भारा, ईषद्धाराक्रान्तपुरुषवन्नता आटव्यः पशुः। आचा० ४२३ अन्ते-ष्विति। अनुयो० ९२ सिद्धशिलानाम, प्राग्भारस्य | ईहामिय- ईहामृगाः-वृकाः। राज० २८१ ह्रस्वत्वा-दीत्प्रागभारा। स्था० ४४० सम० २२ -x-x-xसिद्धशिला। आव०६०० ईसी ओढावलंबिणी-ईषदोष्ठावलम्बिनी, ईषद ओष्ठम- | उंछ-उञ्छं-भक्तं। ओघ. १५४१ अन्यान्यवेश्मतः स्वल्पं वलम्बते ततः परमतिप्रकृष्टास्वादग्णरसोपेतत्वात् । स्वल्पमामीलनात्। उत्त०६६७। जुगुप्सनीयं, गद्यम्। झटिति परतः प्रयाति। जीवा० ३५१) सूत्र० १०८। भैक्ष्यम्। सूत्र०७४। अल्पाल्पम्। प्रश्न. इसी तंबच्छिकरणी-ईषत्ताम्राक्षिकरणी, १११। छादनायुत्तरगुणदोषरहितः। आचा० ३६८। किंचिन्नेत्ररक्तता-करणी। जीवा० ३५११ अज्ञातपिण्डो-छसूचकत्वादिति साधोरुपमानम्। दशवै. ईसीपब्भारगए- ईषत्प्राग्भारगतः। आव०६४८। १८ एषणीयः। आचा० ३७६। उच्यते-अल्पाल्पतया ईसीपब्भारा-ईषत्प्राग्भारा, सिद्धभूमिः। आव० ४४२। गृह्यत इति, भक्तपानादिः। स्था० २१३। अष्टमभूमिः, अन्त्याभूमिः। आव० ६००। पञ्चचत्वारि- | उंछवित्ती-उञ्छवत्ती-कणयाचनवृत्तिः। आव० ७०५१ श मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [167] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] व्यव० ३५९ । उइंति-उद्यन्ति, उदयं यान्ति। उत्त० ४८६। उंछविही-कणयाचनवृत्तिः । आव०७०५१ उदओदए- उदितोदयः, सिद्धौ कायोत्सर्गफलमिति उंजणं-अवमं()तुअणं। दशवै० ६९। दृष्टान्ते राजा। आव० ८०० उंजण-उञ्जनम्। उत्सेचनम्। दशवै० २२८, १५४| उइज्जति-उदीर्यन्ते, उद्रेकाऽवस्थां नीयन्ते। आव०५६८। उंजायणा-वासिष्ठगोत्रस्य नामविशेषः। स्था० ३९० उइण्णा-अवतीर्णा। उत्त० ३०० उंजेज्जा-उत्सिञ्चेत्। दशवै. १५४। उइन्न-उदीर्णः-विपाकापन्नः। आचा० १५१। उंडअ-उण्डकः, पिण्डकः। ओघ० २९। उईरयं-उदीरकं-प्रवर्तकम्। प्रश्न० ८६ उंडग-उन्दकम्, स्थण्डिलम्। दशवै. १५६। उईरयइ-उदीरयति-अन्यान् वातान् जलमपि चोत्उंडत्तं-उदवेधः। स्था०५२५१ प्राबल्येन प्रेरयति। जीवा० ३०७। उंडया- ग्रन्थयः। निशी. २४५आ। उउ-उत। निशी. ३४८ अ। ऋतः। भग. १४३। उंडिं- मुद्राम्। व्यव० १६७ आ ऋतुरक्तरूपः, शास्त्रप्रसिद्धो वा। रक्तप्रवृत्तिलक्षणः। उडिका- मुद्रा। बृह. ३३ अ। स्था० ३१३ उंडुअं-उन्दुकम्-स्थानम्। दशवै. १७०| बृह० २०२। उउबद्ध- ऋतुबद्ध उच्यते शीतकाल उष्णकालश्च। ओघ. उंडेरय-वटकाः। आव०६८० ११८ ऋतुबद्धः। आव. १८९। शीतोष्णकालयोः। ओघ. उंदर- उन्दुरः। प्रश्न २०५१ शीतोष्णकालौ मिलितौ चैव भण्यते। ओघ. १३१। उंदु- उन्दु-मुखम्। अनुयो० २९। उउबद्धपीढफलगं- यः पक्षस्याभ्यन्तरे पीठफलकादीनां उंदुर- उन्दुरः-मूषकः। ओघ० १२६। आव० ६४१। उत्त. बन्धनानि मुक्त्वा प्रत्युपेक्षणां न करोति यो वा १०९| निशी० २२ । नित्यावस्तृ-तसंस्तारकः सोऽबद्धपीठफलकः तम्। व्यव० उंदुरुक्कं-मुखेन वृषभादिशब्दकरणम्। अनुयो० २९। १६४ अ। जो य पक्खस्स पीढफलिगादियाण बंधे मोत्तुं उंदोइयाए- अडोलिया, यवनृपतिदुहिता। बृह. १९१। पडिलेहणं ण करेति सो संजओ उउबद्धपीढफलगो अथवा उंबर- उदुम्बरः, बहुबीजकवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२। भग० णिच्चथणिय-संथारगो णिच्चत्थरियसंथारगो य ८०३। चतुर्थभवनवासिदेवस्य वृक्षः। स्था० ४८७। उउबद्धपीढफलगो भण्ण-ति। निशी० ९१ अ। उम्बरः। व्यव० ३६२ अ। गिहेलुको। निशी० ३८ आ। उउबद्धोग्गहो- ऋतुबद्धावग्रहः। निशी. २३९ अ। उंबरदत्त-उदुम्बरदत्तः, दुःखविपाके सप्तममध्ययनम्। उउपरियइ-ऋतुपरिवतः-ऋत्वन्तरम्। आचा० ३२७ विपा० ७८ पाटलखण्डनगरे सागरदत्तसार्थवाहसुतः। | उउय-ऋतुजः-कालोचितः। प्रश्न. १६२ विपा०७४। जक्षविशेषः। विपा०७४। उउसंधी- ऋतुसन्धिः -ऋतोः पर्यवसानम्। आचा० ३२७। उंबरमंथु-चूर्णविशेषः। आचा० ३४८१ उऊ-ऋतुः, मासद्वयमानः। भग० २११। ऋतुः। आचा० उंबरवच्चं-उंबरस्स फला जत्थ गिरिउडे उच्चविज्जति तं રરછ| उंबरवच्चं भण्णति। निशी. १९२ आ। उऊसंवच्छरे- ऋतवो-लोकप्रसिद्धा वसन्तादयः तद्व्यवउंबरिय-वृक्षविशेषः। भग० ८०३। हारहेतुः संवत्सरः ऋतुसंवत्सरः, तृतीयप्रमाणसंवत्सरः। उंबरो- उदुम्बरदत्तः, सार्थवाहसुतः, दुःखविपाकानां जम्बू० ४८७ सप्तमम-ध्ययनम्। विपा० ३५) उएट्टे-शिल्पे चतुर्थभेदः। अनुयो० १४९। उ-उपयोगकरणे। आव० ४४९। उकट्टणं- गाढतरम्। निशी० ११५ अ। उअत्तं- उत्तीर्णम्। निशी० ३४५आ। उक्कंचण-उर्ध्वं कंचनमुत्कंचनं-हीणगुणस्य उअरदंते-उदरदान्तः-येन वा तेन वा वृत्तिशीलः। दशवै. गुणोत्कर्षप्रति-पादनम्। उत्कोचा। राज०११५| २३३॥ उक्कंचणदीव-ऊर्ध्वदण्डव्रतः। भग०५४८१ उआहणित्ता-उपाहत्य, समीपमानीय। दशवै० ५९| | उक्कंचणया- उत्कञ्चनता-मुग्धवञ्चनप्रवृत्तस्य मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [168] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] समीपवतिवि-दग्धचित्तरक्षार्थ उक्कल-उत्कलः-ऊर्ध्वं धर्मकलाया यत्तत्। प्रश्न. २७ क्षणमव्यापारतयाऽवस्थानम्। औप० ८१| उत्कलः-प्रदेशविशेषः, नैमित्तिकविशेषः। आचा० ३५९। मुग्धवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपवर्तिविदग्धचित्तरक्षणार्थं नैमित्तिकः। आचा० ३५९। त्रीन्द्रियजीवभेदः। उत्त. क्षणम-व्यापारतया अवस्थानम्। राज० २९| ६९११ उक्कंतो-उत्क्रान्तः, आयुःक्षयेण भृतः। उत्त० ४६० उक्कलति-उत्कलति-उच्छलति। उत्त. १२४ उत्कृतः-त्वगपनयनेन छिन्नः। उत्त०४६० उक्कला-उत्कटा, उत्कला वा। स्था० ३४३। उक्कंबिओ-वंशादिकम्बाभिरवबद्धः। आचा० ३६१। उक्कलिया-उत्कलिका-लघुतरः समुदायः। औप० ५७। उक्क-उल्का। व्यव० २४१ अ। गगनाग्निः। दशवै० १५४१ | भग०४६३। त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२। उत्साहः। उक्कइयकरणं-सिव्वणं, त्ण्णणं। निशी. १२४अ। सूर्य २९६। लघुतरः समुदायः। भग० ११५) उक्कच्छिय-आर्यिकाणां त्रयोदशभेदोपधौ एकादशी। उक्कलियाअंडं- वक्खोइलियाअंडगं। दशवै. १२११ ओघ० २०९। उक्कलियावाउ-उत्कलिकावातः, बादरवायकायभेदः। उक्कच्छिया-कच्छाए समीवं उवकच्छं, तं छादयंतीति। आचा०७४। निशी० १८० अ। उक्कलियावाए-उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिश्रितो उक्कज्जिय-डंडायतं। निशी० ५९ अ। यो वातः उत्कलिकावातः। प्रज्ञा० ३० जीवा. २९। उक्कडं-उत्कटं-उपेतम्। जम्बू० २७५। दुष्कृतम्। आव० उक्कलियावाया-उत्कलिकावातः, उत्कलिकाभिर्यो वाति ७८२। प्रचुरः। आव० ७७४ सः। भग. १९६। ये स्थित्वा स्थित्वा पनर्वान्ति। उत्त. उक्कडुअ-उत्कटकानि, यथास्थानमनिविष्टानि। जम्बू. ६९४१ १७० उक्कस-उत्कर्षः-औन्नत्यम्। दशवै०१८९। उक्कडुआसणिए-उत्कुटुकासनं-पीठादौ पुतालगनेनोप- । उक्कसणं-उदगंतेण प्रेरणं| निशी०६३ आ। वेशनरूपमभिग्रहतो यस्यास्ति स। स्था० २९८१ उक्कसाई-उत्कषायी-प्रबलकषायी। उत्त०४२० उकड्ढग-अपकर्षकः, यो गेहादग्रहणं निष्काशयति, उक्कसिस्सामि- लघु सदपरशकललगनत चौरान् वा आकार्य परगृहाणि मोषयति, चौरपृष्ठवहो उत्कर्षयिष्यामि। आचा० २४४। वा। प्रश्न.४७ उक्कसे-उत्कर्षेत्-उत्क्रामयेत्। आचा० २९३। उक्कडुढिअं-उत्कर्षितम्-उत्पाटितम्। पिण्ड० ११६) | उक्कस्स- उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षाः-उत्कर्षवन्तः, उत्कृष्टसउक्कत्थणं-उत्कत्थनं-त्वचोऽपनयनम्। प्रश्न. २४। ङ्ख्याः, परमानन्ताः। स्था० ३५) उक्कणअणाभोगकिरिया-उत्क्रमणानाभोगक्रिया, | उक्का-उल्का-चुडुली। जीवा० २९। ये मूलाग्नितो वित्रुट्य लङ्घनप्ल-वनधावनासमीक्ष्यगमनागमनादिक्रिया। वित्रट्याग्निकणाः प्रसर्पन्ति ते। जीवा. १२४। महदेखा आव०६१४१ प्रकाशकारिणी, रेखारहितो विस्फ़लिङ्गः प्रभाकरोवा। उक्करं-उत्कर-क्षेत्रागवादि प्रति आव० ७५२। दीपिका। नन्दी० ८४| चुड्डली। आव० ५६६। अविद्यमानराजदेयद्रव्यम्। विपा० ६३। निपतन रेखायुक्तो ज्योतिष्पिण्डः। ओघ० २०५१ उक्करियाभेदे-उत्कटिकाभेदः-द्रव्यस्य पञ्चमभेदः। स्वदेहवर्णां रेखां कुर्वन्ती या पतति सा रेखाविरहिता वा प्रज्ञा. २६७। उद्द्योतं कुर्वन्ती पतति सा। आव० ७६५) उक्करिसियखग्गो-आकृष्टखड्गः। आव० ५५४। गगनाग्निज्वाला। जम्ब० ५२ चड्डली। प्रज्ञा० २९। उक्कलंबिज्जि-उल्लम्बयितम्। आव० २२० पगासविरहितो य, महंतरेहा पहा। निशी० ७५आ। उक्कलंबेइ-अवलम्बयति। आव० ४२६। उद्बध्नाति। सदेहवण्णं रेहं करेंती जा पडइ सा उक्का, निशी. ५२ आ। रेहविरहितावाउज्जोवं करेंती पडती सा वि उक्का। उक्कलंबेति-उब्बंधेति। निशी. ११८ अ। निशी ७० अ। अग्निपिण्डाः। स्था० ४२० आकाशजा। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [169] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] स्था०४७६| उक्किण्णं- उत्कीर्ण-भुवमुत्कीर्य पालीरूपम्। सम०१३७। उक्कापडणं-उल्कापातनम्, उल्कापातः। आव०७३५। उक्किण्णंतरा-उत्कीर्णान्तराः, उत्कीर्णमन्तरं यासां उक्कापाए- उल्कापातः-व्योम्नि खातपरिखानां ताः। जीवा. १५९। संमूर्छितज्वलननिपतन-रूपः। जीवा० २८३। उक्किण्ण-उत्कीर्णः-गुण्डितः। प्रश्न. ५९। उत्कीर्णमिउक्कापाय-उल्कापातः, सरेखः सोद्दयोतो वा वोत्कीर्णं, अतीवव्यक्तम्। जम्बू०७६। आकीर्णः। प्रश्न तारकस्येव पातः। भग. १९६। २५ प्रज्ञा० १६१। ओघ. १४१ उक्कामयंति-उत्क्रामयन्ति-अपनयति। दशवै. ८६) उक्कित्तणं-उत्कीर्तनम्, सामान्येन संशब्दनम्। आव. उक्कामुहदीवे- अन्तरद्वीपनाम। स्था० २२६। ६०४॥ उक्कामुहा- उल्कामुखनामैकविंशतितमोऽन्तरदवीपः। उक्कित्तणा-उत्कीर्तना, प्राबल्येन-परया भक्त्या प्रज्ञा० ५०| अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४१ संशब्दना। आव०४९ उक्कारियभेय-उत्कारिकाभेदः, एरण्डबीजानामिव यो । उक्कित्तिया-उत्कीर्तिता-कथिता। सूर्य. २९६| भेदः। भग० २२४। उक्किण्णं-अतीवव्यक्तम्। प्रज्ञा० ८५ उक्कालिए-उत्कालिकं-कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्ध्वं उक्किण्णंतर-उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखाणां ता कालिकादित्युत्कालिकं-दशकालिकादि। स्था० ५२ उत्कीर्णानन्तराः। प्रज्ञा० ८५ कालवेलावर्ज पठ्यते तत्। नन्दी० २०४। उक्किण्ण-उत्कीर्ण-शिलादिष नामकादि। दशवै०८६। उक्कावाते- उल्का-आकाशजा तस्याः पातः उल्कापातः। उक्खिरणगाई-फलखादयककपर्दकादिविकिरणानि। ब्रह. स्था० ४७६। व्योमसम्मूर्छितज्वलनपतनरूपः प्रसिद्ध १५५। एव। अनुयो० १२१॥ उक्किरिज्जमाण-क्षुरिकादिभिः कोष्ठादिपुटानां उक्कासे-उत्कर्षणं, उत्काशनं वा। भग. ५७२। कोष्ठादि-द्रव्याणां वा उत्कीर्यमाणः। जीवा. १९२| उक्किट्टणा-सूत्रार्थकथनम्। बृह. २५अ। उत्की उत्कीर्यमाणं-क्षुरिकादिभिः कोष्ठादिपटानां तनासंशब्दना। आव० ५६। कोष्ठादिद्रव्याणां वा उल्लिख्य-मानः। जम्बू० ३६ उक्किट्ठ-उत्कृष्टं-उत्कृष्टिनादः, आनन्दमहाध्वनिः। उक्किलंतो-उत्कलन्। आव २०७१ प्रश्न. ४९। प्रधानां कर्षणनिषेधावा। भग. १४४ उक्कीरमाण-उत्किरन-वेधनकेन मध्यादविकिरन्। उत्कृष्टिः-आनन्दध्वनिः। जम्बू. २००। उत्कृष्टिः- अनुयो० २२३। आनन्दमहा-ध्वनिः। भग० ११५। उत्कृष्टः-उत्कर्षवती। | उक्कुंचणं-उत्कुञ्चनं, ऊर्ध्वं शूलाद्यारोपणार्थं कुञ्चनम्। भग० १६७। उत्कृष्टम्-कालिङ्गालाबुत्रपुषफलादीनां । सूत्र० ३२९। शस्त्रकृतानि लक्ष्ण-खण्डानि उक्कुज्जिय-ऊर्चकायमन्नम्य। आचा० ३४४। चिञ्चिणिकादिपत्रसमुदायो वा उदूखलकण्डितः। दशवैः । | उक्कुट्ठहत्थो- उक्कुंदु-सचित्तवणस्सतिपत्तंकुरुफलाणि १७०। दोद्धियकालिंगादीणि उक्खले छुब्भंति। दशवैः वा उक्खलेछुब्भति, तेहिं हत्थो लित्तो एस। निशी० ३८१ १७९| उक्कुट्ठि-उत्कृष्टिः-हर्षविशेषप्रेरितः। आव० २३१| उक्किट्ठकलयलो-उत्कृष्टकलकलः। आव० १७३। उक्कुहिकलयलो-उत्कृष्टिकलकलः। आव०१७५ उक्किहरस- उत्कृष्टरसः-प्रचुररसोपेतः। पिण्ड० १४९। उक्कुडिसीहणायं- उत्कृष्टिसिंहनादः, हर्षविशेषप्रेरितो उक्किट्ठि-उत्कृष्टिः-आनन्दमहाध्वनिः। औप० ५९। ध्वनि-विशेषः। आव० २३१| राज०१२। उक्ट्ठी -पक्कारकरणं। निशी. ६१ आ। उक्किट्ठिसीहनादो-उत्कृष्टिसिंहनादः। आव० ३४५ उक्कुट्ठो-कचित्तवणस्सतिपत्तंकुफलाणि वा उक्खले उक्किट्ठी-उत्कृष्टिः। आव०४१३। उत्कर्षवशः। सूर्य. छुब्भंति। निशी० ३८ । २८१ | उक्कुड-उत्कुटुकासनः। आव०६४८१ स्था० २९९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [170]] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अनुयो० १५११ उक्कुडुअ-उत्कुटुकम्, यथास्थानमनिविष्टम्। भग० | उत्कर्षिका उत्कृष्टा। सूर्य. १४॥ ३०८। ओघ. १०७ मुक्तासनः। उत्त०५५ आधारे उक्कोसए कुंभे-उत्कृष्टकः कुम्भः-आढकशतनिष्पन्नः। पुतालगन-रूपम्। भग० १२५। आचा०४२४। उक्कुडुगासण-उत्कुटुकासनम, कायक्लेशभेदः। दशवै. उक्कोसकसिणं- सतसहस्समूल्लं। निशी. १३९ आ। उक्कोसगमयपत्तो-उत्कर्षेण मदं प्राप्तः उक्कुडुती-उत्कुटुका-आसनालग्नपुतः उत्कर्षमदप्राप्तः। जीवा० ३५१| पादाभ्यामवस्थित उत्कुटुकस्तस्य या सा। स्था० ३०२। | उक्कोसतिसामासा-जेट्ठो आसाढो य। निशी. १२३ उक्कुडुयभाणवत्थे- उत्कुटुकः सन् भाजनवस्त्राणि- उक्कोसतिसामासे-उत्कृष्टतृण्मासः-उत्कृष्टा तृड् गोच्छ-कादीनि प्रत्युपेक्षयेत् यतो वस्त्रप्रत्युपेक्षणा मासयोः-ज्येष्ठाषाढयोर्यस्मिन् काले सः। ओघ० २१० उत्कटकेनैव कर्तव्या। ओघ. ११७ उक्कोससंथरणं-उत्कृष्टं संस्तरणंउक्कुडुयासणिए-कायक्लेशभेदः। भग. ९२११ भिक्षार्थमवतीर्णास्ततः पर्याप्तं हिंडित्वा यावत् कायक्लेश-द्वितीयभेदः। स्था० ३९७) ततीयपौरुष्या आदौ स्वाध्यायप्रस्था-पनवेला तावत् उक्कुद्दइ-उत्कूर्दते-ऊर्ध्व गच्छति। उत्त० १५१। सन्निवर्तते एतद, अथवा तृतीयपौरुष्या आदौ उक्कुरुडिका-तृणभस्मगोमयाङ्गारादिमीलकः। उत्त. स्वाध्यायप्रस्थापनवेलावान् सन्निवर्तंते एतद्। व्यव. ३५९। १६३आ। उक्कुरुडिया-उत्कुरुटकः। आव० १९४१ उक्कोसा- उत्कर्षः-प्रकर्षः तद्योगादुत्कर्षा उत्कर्षतीति वा उक्कइय-उत्कजित-कताव्यक्तमहाध्वनिः। प्रश्न. २० उक्कूजियं-उत्कूजितं-अव्यक्तमहाध्वनिकरणम्। प्रश्न | उक्खं-उक्ष-सम्बन्धो-विषयविषयीभावलक्षणः। नन्दी. १६० ७१। सम्बन्धनं-अन्यजनकभावलक्षणम्। स्था० ५०| उक्कूलं-उत्कूलयति-सन्मार्गादपध्वंसयति उक्खंदं-उत्क्रन्दम्। आव० १७५ अवस्कन्दः। आव० कूलाद्वान्याय-सरित्प्रवाहतटादूर्ध्व यत्तत् उत्कूलम्।। ३०० द्वितीयाधर्मद्वारस्य पञ्चदशं नाम। प्रश्न० २६। उक्खंधो-अवस्कन्दः, छलेन परबलमर्दनम्। प्रश्न. ३८ उक्केरो-उत्केरः-समूहः। ओघ० ११७, ११६, २१३। उक्खंपिर-उत्कण्ठित। (संस्ता०)। उक्कोचा-उत्कोचा-उत्कोटा, लञ्चा। औप० २। उक्खड्डमड्डा-देशीपदं, पुनःपूनःशब्दार्थे। व्यव० ६५आ। उक्कोड-लंचा। निशी. ४५अ। उक्खणिहिति-उत्खनीः। आव० २२६। उक्कोडा-उत्कोटा-उत्कोचा-लञ्चा। विपा० ३९। उत्कोचा, उक्खलं-स्थानविशेषः। निशी० ८३आ। लञ्चा । औप. उक्खलि-उखा-स्थाली। पिण्ड० ८४] उक्कोडालंच-उत्कोटालंचयोः-द्रव्यस्य उक्खिओ-सेवितः। मरण बहत्वेतरादिभिर्लोके प्रतीतभेदयोः। प्रश्न. ५६) उक्खित्त-उत्क्षिप्तं, गेयविशेषः। जम्बू०४१२१ उत्पाउक्कोडिय-उत्कोटा-लञ्चा तया चरन्ति उत्कोटिकाः। टितम्। विपा०४७। भाजनगतम्। ओघ०८८1 राज० उक्खित्तचरए-उत्क्षिप्तं-स्वप्रयोजनाय उक्कोस-उत्कृष्टतः-अतिशयेन। ओघ० २२७। पाकभाजनाद्धृतं तदर्थमभिग्रहविशेषाच्चरति-तद् उत्कर्षतीति उत्कर्षः, उत्कृष्टः। सूर्य १३॥ गवेषणाय गच्छतीति उत्क्षिप्तचरकः। स्था० २९८१ जात्यादिभिर्मदस्थानैर्लघुप्र-कृतिं पुरुषमुत्कर्षयतीति । उक्खित्तचरगा-पिण्डैषणाभेदविशेषः। निशी० १२। उत्कर्षकः-मानः। सूत्र०६९। उत्क्रोशः-क्ररः। प्रश्न०८। । उक्खित्तचरगो-उत्क्षिप्तचरकः-उत्क्षिप्तंउत्कृष्टम्-कमनीयम्। दशवै. २११ पाकपिठराद्ध-तमेव चरति-गवेषयति यः सः। प्रश्न उक्कोसए- उत्कर्ष एव उत्कर्षका उत्कृष्टः। सूर्यः ११ । १०६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [171] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उक्खित्तणा- ज्ञातायां प्रथममध्ययनम्। आव० ६५३। | उग्गं- उग्रम-अप्रधष्यम्। सर्य.४१ भग० १२। ज्ञाता०९। षष्ठाङ्गे प्रथमं ज्ञातम्। उत्त०६१४| उग्ग-उग्रः-क्षत्रियपुरुषेण शूद्रस्त्रियां जातः। आचा०८1 उक्खित्तणाए- षष्ठाङ्गे प्रथमज्ञातः। सम० ३६। ज्ञातायां आदिदेवावस्थापिताऽऽरक्षकवंशजातः। भग० ११५| प्रथममध्ययनम्। आव०६५३| आरक्षकः। आव० १२८ आदिदेवेन य आरक्षकत्वेन उक्खित्तणिक्खित्तचरगा-पिण्डैषणाभेदविशेषः। निशी. नियुक्तस्तवंशजश्च। औप. २६। १२ । शुभाध्यवसायप्रबलः। आव० ८०२। आरक्षिकाः। आचा. उक्खित्तपुव्वा-उत्क्षिप्तपूर्वाः-तेषामादौ दर्शिता ३२७ आदिराजेना-ssरक्षकत्वेन ये यथाऽस्यां वसत यूयमिति। आचा० ३६९। व्यवस्थापितास्तवंश्यः। स्था० ३५८। भगवतो उक्खित्तय-उत्क्षिप्तं-प्रथमतः समारभ्यमाणम्। जीवा. नाभेयस्य राज्यकाले ये आरक्षका आसन्। स्था० ११४| २४७ आरक्षकादयः। उत्त०४१८ आदिदेवेनारक्षकत्वे उक्खित्तविवेगो-उत्क्षिप्तविवेकः। आव०८५४] नियुक्तास्तवंश्याः। भग० ४८१। उक्खित्ता-उत्क्षिताः-सिक्ताः। जम्बू. २२१| उग्गकुलं- उग्रकुलम्। आव० १७९। उक्खित्तायं-उक्षिप्तकं-प्रथमतः समारभ्यमाणम्। उग्गच्छ-उद्गत्य-क्रमेण तत्रोद्गमनं कृत्वा। भग० २०७। जीवा. १९४१ उग्गतवा- उग्रतपाः-अप्रधृष्यानशनादिवान्। सूर्य०४। उक्खित्तो-उत्क्षिप्तः-कृतः स्थापितः। आव० ४३३। अष्टमादि। स्था० २३३। उग्रं-उत्कटं दारुणं वा कर्मशत्रून् उक्खिविया-उत्क्षिप्ता। आव० ३७० प्रति तपः-अनशनादिः। उत्त० ३६५) उक्खु- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। उग्गतवित्ती-उगते आदिच्चे वित्ती जस्स सो, उक्खुलनियत्था-उखुलनिवसिता, विपर्यस्तवस्त्रा। ब्रहः । आदिच्च मुत्तीए जस्स वित्ती सो उग्गतवित्ती। निशी. २५५ ३०८ उक्खेव-उत्क्षेपः-हस्तोत्पाटनम्। व्यव. २३२आ। उग्गतेय-उग्रतेजाः-तीव्रप्रभावः, तीव्रविषः। प्रश्नः १०७ उक्खेवओ-उत्क्षेपः-प्रारम्भवाक्यम्। निर० २३। उग्गपुत्तो- उग्रपुत्रः, क्षत्रियविशेषजातीयः। सूत्र० २३६। उक्खेवग-उत्क्षेपकः-वंशदलादिमयो उग्गम-उद्गमः-षोडशविध आधाकर्मादिदोषः। प्रश्न मुष्टिग्राह्यदण्डमध्य-भागः। भग० ४६८। १५५ आधाकर्मादिदोषविशेषः। आव० ५७६। उद् शिष्याणामत्क्षेपकः। व्यव० २३२ गमनमद्गमः-पिण्डादेः प्रभवः। स्था० १५९। उक्खेवण-उत्क्षेपकः-वंशदलादिमयो मष्टिग्राह्यो उग्गमइ-आगच्छति। आव० ४२२ दण्डमध्य-भागः। ज्ञाता०४८१ उग्गमकोडी- उद्गमकोटिः-उद्गमदोषरूपा। पिण्ड०१९७१ उक्खेवो-उत्क्षेपः-प्रस्तावना। विपा. ५५ क्षेपणम्। ओघ० | उग्गमितं-उद्गमितम्। आव० ८५९। ११० उग्गमोवघाते-उद्गमोपघातः-उदगमदोषैराधाकर्माभिःउक्खो - परिधानवस्त्रैकदेशः। बृह. १७७ अ। परिधाणं, षोडशप्रकारैर्भक्तपानोपकरणालयानामशुद्धता। स्था० वत्थस्स अभिंतरचूलाए उवरि कण्णो णाभिहिज्ज ३२० उक्खो भण्णति। निशी. १५४ अ। उग्गय-उद्गतः-निष्काशितः। औप०६८ ऊर्ध्वं गताः उद् उखल- उदूखला। प्रश्न० 1 गताः-व्यवस्थिताः। ज्ञाता०१४ च्यूता। ज्ञाता०२३। उद् उखलियं-पुडियाकारं। निशी० १ आ। गता-संस्थिता। जम्बू०७१। निविष्टा। भग० ४७८। उपउखली-उदूखली। आव० ८५५१ रिवर्तिनी। जम्बू० २९२।। उखा-स्थाली। भग० ३२६। उग्गयमुत्ती- सूर्योद्गमात् परं प्रतिश्रयावग्रहाद् बहिःउखुत्तो-णिसण्णो। निशी० ७७ अ। प्रचा-रवच्छरीरत्वात्। बृह. १७९ अ। मूर्तिः -शरीरं, तं उगहणंतगो-योनिद्वाररक्षार्थकं वस्त्रम्। ओघ० २०९।। जस्स प्रतिश्रयावग्रहात् उदिते आइच्चे वृत्तिनिमित्तं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [172] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] प्रचारं करोति सो। निशी. ३०८ आ। ३८७। आचाराङ्गस्य-षोडशमध्ययनम्। उत्त० ६१७) उग्गयवित्ती-उग्गय इति वा उदओत्ति, वर्तनं वृत्तिः, आचा०४०२ सम०४४। आचारप्रकल्पे उग्गयए सूरिए जस्स वित्ती सो। निशी० ३०९ आ। द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य सप्तममध्ययनम्। प्रश्न० १४५) उग्गवई-उग्रवती, रात्रितिथिनाम। जम्बू. ४९१। आचारप्रकल्पस्य षोडशो भेदः। आव०६६० उग्गवती-उग्रवती, रात्रितिथिनाम। सूर्य. १४८। उग्गहिआ-अवगृहीता-पञ्चमी पिण्डैषणा। आव०५७२। उग्गविसं-दुर्जरविषम्। भग०६७२। उग्गहिए-अवगृहीतं-परिवेषणार्थमुत्पाटितं। स्था० ४६५। उग्गविसा-उग्रं विषं येषां ते उग्रविषाः। प्रज्ञा० ४६। उग्गहियं-अवगृहीतम्। आव० २८८। बद्धः। भग०४५९। उरःपरिसर्पविशेषः। जीवा० ३९| अवगृह्णाति-आदत्ते हस्तेन दायस्तद्। स्था० १४८। उग्गसेण-उग्रसेनः, द्वारिकायां राजा। आव० ९४। अवगृहीता-भोजनकाले शरावादिषूपहृतमेव भोजनजातं नृपविशेषः। बृह. ३० । मथुरानृपतिः, कंसपिता। यत्ततो गृहणातः। स्था० ३८६। यद् अवगृह्णाति यच्च उत्त०४९० राजमख्यः। अन्त०२। संहरति यच्च आस्यके प्रक्षिपति। व्यव० ३५४। अ। उग्गह- योनिद्वारं तद्वस्त्रमपि। बृह. २५१ आ। परिवेषणार्थमुत्पाटितम्। औप० ३७। उग्गह-अवग्रहः। ओघ० १५२। धर्मलाभदानम्। दशवै. अवग्रहोऽस्यास्तीति अवग्रहिकं-वसतिपीठफलकादिकं। १६७। आश्रयः। विपा० ३३। जोणिदुवारस्स सामइकी औपग्रहिकं-दण्डका-दिकम्पधिजातम्। औप० ३७ संज्ञा उग्गह इति। निशी. १७९आ। उपग्रहम्- उग्गहियए-अवगृहीतकः-बद्धः। राज०४४। अवष्टम्भम्। ओघ० १५४| पतग्रहम्। ओघ. १७५) उग्गहिया-जं परिवेसगेण परिवेसणाए परस्स प्रथमपरिच्छेदनं कडुच्छुतादिणा उग्गहियं आणियंति वुत्तं भवति, तेण अशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यरूपादेरवग्रहणम्। स्था० ५११ य तं पडिसिद्धं तं तह-क्खित्तं चेव साधुस्स देति एसा अवगृह्यते-स्वामिना स्वीक्रियते यः सोऽवग्रहः। भग. उवग्गहिया। निशी० १२ अ। ७००। सामान्यार्थस्यअशेषविशेषनिरपेक्षस्यानिर्देश्यस्य उग्गा-आरक्षिकाः। बृह. १५१ आ। कुलार्यप्रथमभेदः। रूपादेः अव इति प्रथमतो ग्रहणं-परिच्छेदनमवग्रहः। प्रज्ञा० ५६। खाद्यविशेषः। जम्बू. १९८१ आदिदेवावभग. ३४४ अवग्रहः-अव्यक्तरूपः परिच्छेदः। प्रज्ञा. स्थापिताः। राज०१२११ प्रभणा आरक्षकत्वेन ३११। अवधारणम्। सन्दरा एत इत्यवधारणम्। उत्त० | नियुक्तास्ते उग्राः। जम्ब० १४५१ १४५। अवग्रहः-परिग्रहः। सूत्र. १७९। अविवक्षिताशेषस्य | उग्गाढो- प्रगुणः। बृह० २९७ । सामान्यरूप-स्यानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणमवग्रहः। उग्गारो-उगिरणं उग्गालो। निशी. ३१५अ। राज० १३०| पडिग्गहो। निशी. ११६अ। अवग्रहः- उग्गालिदासो-दासविशेषः। निशी. ४० अ। आभवन-व्यवहारः। व्यव० ९३ अ। अवग्रहणमवग्रहः- उग्गाले-उदगालयेत्-श्लेश्मनिष्ठीवनं कर्यात्। अनिर्देश्य-सामान्यमात्ररूपार्थग्रहणम्। नन्दी० १६८१ ओघ०१८६१ आवासः। निर०२२ अवग्रहणं-सम्बध्यमानस्य उग्गालो-उगिरणं उग्गालो। निशी. ३१५ अ। शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्त-रूपः परिच्छेदः। नन्दी | उग्गाहिऊणं-उदग्राहितेन-पात्रबन्धबद्धेन पात्रकेण। ओघ० ૬૬૮ उग्गहजायणे-अवग्रहयाञ्चा-वसतिस्वाम्यनुज्ञा। आव० | उग्गाहितं- उद्ग्राहितम्-गृहीतम्। आव० ६१८। उत्क्षिप्तं, ६५८ उपकरणम्। ओघ०७२ उग्गहणंतयं- योनिद्वाररक्षार्थकं वस्त्रम्। बृह० २५१ आ। | उग्गाहिम-अवगाहिम, पक्वान्नं खण्डखाद्यादि। प्रश्न उग्गहणमेधावी-अवग्रहमेधावी, सूत्रार्थग्रहणपटुप्रज्ञावान् | १६३) । बृह० १२५आ। अवगृह्यत इत्यवग्रहो उग्गाहिय-उग्राहितं-गृहीतं पात्रकम्। ओघ० १४९। वसतिस्तत्प्रतिमाः अभिग्रहाः अवग्रहप्रतिमाः। स्था० उग्गाहे-उद्ग्राहयति-सङ्घट्टितेनास्ते। ओघ. १८४ १२१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [173] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] उग्गाहे उद्याय संयन्त्रयित्वा ओघ०७४ उग्गाहेऊण - उद्ग्राह्य । उत्त० १००| उग्गिरिऊणं उद्गीर्य आव० २०८८ उग्गुंडिया- उद्बलितम् । भग० ३०८८ उग्गोवणा- उद्गोपनम् विवक्षितस्य पदार्थस्य जनप्रका शचिकीर्षा । पिण्ड० २९| उग्गोवेति- उप्पाएति । निशी० २३४ अ उग्घडयं - अनुवर्त्तनम्, अनुकरणम्। आव० ५१५ उग्घाइए- उद्घाइए-उद्घातितं विनाशितं विनाशयिष्यमाणत्वेनोपचारात्। स्था० ५०२१ उग्घाइम उद्घातिमम् उद्घातो भागपातस्तेन निर्वृत्तम् लघु। स्था० १६३| उग्घाड उद्घाट- अदत्तार्गलमीषत्स्थगितं वा । आव० ५७५| 7 - आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) उग्धाङकवाडउग्घाडणा- उद्घाटकपाटोद्घाटना, उद् घाटम्-अदत्तार्गलमीषत्स्थगितं वा कपाटं तस्योद् -सुतरां प्रेरणम् तदेव । श्र्वानवत्सदारकसंघट्टना | घाटनं आव० ५७५| उघाडणकवाड उद्घाटकपाट-अनर्गलितकपाटं ओघ० १६६ | उग्धाडाए पोरिसिए उद्घाटपौरुष्याम् । आव० ८३८० उग्घाडितो - उद्घाटितः । आव० ३१७, ३१८ \ उग्घाडिया- उद्घाटिताः । आव० २९२ ॥ उग्घात- उद्घातः-भागपातः । स्था० १६३, ३२५| लघुकरणलक्षणः । स्था० ३११ | उग्घातिते— उद्घातः-भागपातो यत्रास्ति तदुद्घातिकं, लध्वित्यर्थः । स्था० ३२५ उग्धाय- आचाराङ्गस्य षड्विंशतितममध्ययनम् । उत्तः ६१७| आचारप्रकल्पस्य षडविंशतितमो भेदः आव० ६६० | उग्घायाइं- लघूनि । बृह० १४५ अ । उग्घोसणाट्ठाणीया - उद्घोषणास्थानीयाः । आव० ३८५ उग्रतेजाः- आधाकर्मण एव अभोज्यतायां पदातिः । पिण्ड० ७१। उग्रसेन :- भोगराजा, राजीमत्याः पिता । दशवे० ९७| उचित :- जितः अभ्यस्तो वा आव• ५९४ उचलयालगं - अधः शिरस उपरि पादस्य कूपजले बोल " मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] णाकर्षणम्। विपा० ७२ उच्चं उच्चः पूज्यः । भग- १६४९ उच्चतए- उच्चन्तकः- दन्तरागः । प्रज्ञा० ३६० | उच्च तगोदन्तरागः । जम्बू. ३३ उच्च॑ते उच्यंतगो-दन्तरागः। राज० ३२२ उच्चंपिय- संघातितं । (तन्दु०) उच्चछंदो- उच्चछन्दः- उच्चो महानात्मोकर्षणप्रवणश्छन्दः - अभिप्रायो यस्य सः । प्रश्न० ३१ | उच्चता- उच्चतया-निदेजत्वेन । अप्रातिहारिकतया । बृह २१९ अ उच्चतायभयगो- तुमे ममं एच्चिरं कालं कम्मं कायत्वं जं जं अहं भणामि, एत्तियं तेण धणं दाहामित्ति । निशी. ४४| उच्चत्तं- उच्चत्वं जम्बू. २० अ०मु० १७१| उच्चत्वं उत्सेधः । जम्बू० ३२१ । उच्छ्रयः । स्था० ३९| ऊद् धर्ध्वस्थितस्यैकमपरं तिर्यक्स्थितस्यान्यत् गुणोन्नतिरूपम् । स्था• ३६| उच्चत्तछाया— उच्चत्वया, छायायाः षष्ठो भेदः । सूर्यο ९५| उच्चत्तभयते - उच्चताभृतकः - मूल्यकालनियमं कृत्वा यो नियतं यथावसरं कर्म्म कार्यते स । स्था० २०३ | उच्चत्तविसाणो- उच्चविषाणः उच्चश्रृङ्गः । उत्तः ३०३| उत्तमविषाणः । आव० ७१९ । उच्चयबंधे- उच्चयः-ऊद्र्ध्वं चयनं - राशीकरणं तद्रूपो बन्धः उच्चयबन्धः । भग० ३९५| उच्चलिओ उच्चलितः आव० २८५ आव० ३१७ उच्चा- ऊद्र्ध्वं चिता। उपरिस्थितत्वेनं वा । उत्त० ११०| उच्चाओ - उच्चातोश्रान्तः ओघ० १७७१ निशी० १८८ अ। उच्चागोए उच्चैग यदुदयवशादुत्तमजातिकुलबलतपोरूपैश्वर्य श्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानाञ्जलिपग्रहादिसम्भवस्तत्। प्रज्ञा० ४७५ मानसत्कारार्हः । आचा० ११६। उच्चागोत्ते- उच्चैर्गौत्रः उच्चैः - लक्ष्म्यादिक्षयेऽपि पूज्यतया गोत्रं - कुलमस्येति । उत्तः १८८० उच्चारे - उच्चारः- विष्टा । भग० ८७| संज्ञा । बृह० ३०६अ। [174] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] सण्णा। निशी. १४३ आ। प्रीषः। आव० ५६४, ६१६, | उच्चूलं-अवचूलं-टगकन्यस्ताधोमखकर्चकः। औप०६३। ७८१] उत्त०५१७ जं०१४८1 स्था० ३४३। | उच्चेंती- उच्चिन्वती-अवचयं कुर्वती। दशवै० ४१। शरीरादुत्प्राबल्येन च्यवते-अपयाति चरतीति वा | उच्चैःश्रवा-सुरवरेन्द्रवाहनं हयः। जम्बू. २३५ उच्चारः-विष्ठा। आचा०४०९। पीपयरिष्ठापनम्। उच्चोदए-उच्चोदयः, ब्रह्मदत्तस्य प्रधानः प्रथमः प्रथमः उत्त० ३५७। गृहस्थैः सह पुरीषव्युत्सर्ग कुर्वन्ति, प्रासादः। उत्त० ३८५ श्लेषम्णः परिष्ठा-पनमङ्गणे कुर्वन्ति वा। ओघ० १६। | उच्चोलएहिं- उच्चुलुकैः, छंटाभिः, चुलुकैः। आव० ६७८५ उच्चारभूमी- उच्चारभूमिः-पुरीषभूमिः। आव० ७८४ | उच्छंग-उत्सङ्गः-पृष्ठदेशः। जम्बू०२६५पृष्ठदेशः। उच्चारप्रश्रवणविधिसप्तैककः, सप्तसप्तक्यां तृतीयस्य ककः, सप्तसप्तक्यां तृतीयस्य | औप०७१। भग० ४८० भेदः। स्था० ३८७ उच्छण्णं-उच्छिन्नम्, क्षीणम्। आव०६७०,६७१। उच्चालइय-ऊर्ध्वमुत्क्षिप्य भूमौ। आचा० ३११| उच्छदयति-बोलं करोति। ओघ. १५३। उच्चालयितारम्-अपनेतारम्। आचा० १६९। उच्छन्नं-अपशब्दं-विरूपं छन्नं-स्वदोषाणां परगणानां उच्चालियंमि-उच्चालिते-उत्पाटिते। ओघ. २२० वाऽs-वरणमपच्छन्नं। उत्थत्वं, न्यूनत्वं वा, उच्चावइत्ता-उच्चैः कृत्वा। उत्पाट्य। प्रज्ञा० ३५७। द्वितीयाधर्मद्वारस्य चतुर्दशं नाम। प्रश्न० २६। उच्चावए- उच्चावचः-उत्तमाधमः। जीवा० ३७४। उच्छन्ननाणी-उच्छन्नज्ञानीउचावतं- उच्चावचम्-असमञ्जसं। स्था० २४७ यावत्शक्तिप्रच्छादितज्ञानी। प्रज्ञा० ४६१। उच्चावयं- उच्चावचं-उच्चं नाममैवं कुर्वन्तु, अवचं नाम | उच्छयं- उच्छ्रयं-व्याप्त। आव० १८४१ कुर्वन्तु। आचा० ३६३। शोभनाशोभनम्। जीवा० १६६।। उच्छलत-उच्छलन्तः-उद्वलन्तः। प्रश्न०६२ उच्चावचम्। दशवै० १६६। अनुकूलप्रतिकूलम्, उच्छ(त्थ)ल-उत्-उन्नतानि स्थलानि-धूल्यच्छ्रयरूअसमञ्जसं वा। भग० १०१। पाण्युच्छ(त्थ)लानि। भग. ३०७ उच्चावया-अनुकूलप्रतिकूला, असमजसा। अन्त०१८। । | उच्छलिओ- उच्छलितः-निर्गतः। आव०४०२ उच्चावचा-गुरुलघवो नानारूपा वा। सूत्र० २०७। ऊर्द्ध उच्छवो-उत्सवः-शक्रोत्सवादिः। प्रश्न० १५५। इन्द्रोचिता उच्चा, शीतातपनिवारकत्वादिगुणैः शय्यान्तरो- त्सवादिः। प्रश्न.१४० परिस्थितत्वेन वा उच्चाः, तविपरीतास्त्ववचाः, उच्छहया- उत्सहन-अर्थोदयमवान्। दशवै. २५३। अनयोर्दवन्दवे उच्चावचाः, नानाप्रकारा व। उत्त. ११० उच्छा-तुच्छा, रिक्ता। (गणि०)। शोभनाशोभन-भेदेन नानाप्रकाराः। दशवै०१८४१ उच्छाइओ-उत्सादितः। आव. ३९८१ असमञ्जसा। भग०६८३। ज्ञाता०२००। उच्छाएइ-आच्छादयति। आव०६२४। उच्चावयाई- उच्चावचानि-विकृष्टाविकृष्टतया उच्छायणयाए- उच्छादनतायै, सचेतनाचेतनतद नानाविधानि उच्चव्रतानि वा शेषव्रतापेक्षया गतवस्तू-च्छादनाय। भग०६८४॥ महाव्रतानि। उत्त० ३६३ उच्छाह-उत्साहः-वीर्यं। सम० ११८ उच्चिअ-उच्चितं, उच्चिताकरणं, पादस्योत्पाटनम्। उच्छिंपक-अवच्छिम्पकः-चौरविशेषः। प्रश्न.४७ जम्बू. २६५ उच्छिंपणं-उत्क्षेपणं-जलमध्यान्मत्स्यादीनामाकर्षणम्। उच्चिक्खित्तं-उच्चोत्क्षिप्तम्। पिण्ड० ११० प्रश्न. २२॥ उच्चिट्ठ-कांसारादिभक्षणेनोच्छिष्टे। बह. २१५। उच्छिण्णं| निशी० १०४ अ। उच्चिट्ठए-उच्छिष्टम्-भ्रष्टम्। दशवै० १०४। उच्छिन्नगोत्तागारं-उच्छिन्नगोत्रागारम, उच्छिन्नं उच्चिणिउं- उच्चेतुं गृहीतुम्। आव० ८१९) गोत्रागारंतत्स्वामिगोत्रगृहं यस्य तत्। भग० २०० उच्चियपउमं-उच्चितपद्म। आव० १७०| उच्छिन्नसामिय-उच्छिन्नस्वामिकम, उच्चुण्णेउं- अवचूर्ण्य, गुण्डयित्वा। ओघ० १४३। निःसत्ताकीभूतस्वा-मिकम्। भग. २०० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [175] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उच्छिन्नसेउय-उच्छिन्नसेतुकम् त्यक्तमर्यादम्। भग० ८९ अ। उच्छोलनं-अयतनया शीतोदकादिना हस्त२०० पादादिप्रक्षालनम्। सूत्र० १८१| उच्छिन्ना-निर्नष्टसत्ताकाः। स्था० २९४। उच्छोलणा-उच्छोलना-पुरीषमुत्सृज्य प्रभतेन पयसा उच्छु- इक्षुः। दशवै० २२६। आव० ८५४। क्षालनम्। ओघ० ५५ ओघ० १२०| एक्कसि उच्छोलणा। उच्छुक्किओ-जुगुप्सितः। बृह० २५५ आ। निशी. १८८ । उच्छुखण्ड-इक्षुखण्डः। दशवै० ११६) उच्छोलणापहोअ-उत्सोलनया-उदकायतनया प्रकर्षण उच्छुगंडिय- इक्षुगण्डियं-सपर्वेक्षुशकलम्। आचा० ३५४। धावति-पादादिशुद्धिं करोति यः स उत्सोलनाप्रधावी। उच्छुघर-इक्षुगृहम्। व्यव० ३१९ | आव० ३०१| निशी० दशवै० १६० १०९ । उच्छोलिति-प्रक्षालयन्ति। गणि| उच्छुजंतं- इक्षुयन्त्रम्। आव० ८२९। उच्छोलेइ-अग्रतो मुखां चपेटां ददाति। भग० १७५ उच्छुद्धं- विक्षिप्तम्। ओघ० १५०| परित्यक्तं। बृह. १३३ | | उच्छोलेज्ज-ईषद् उच्छोलनं विदध्यात्। आचा० ३६३। आ। रोगाघ्रातं। बृह. २३आ। सकृदुदकेन प्रक्षालनं कुर्यात्। आचा० ३४२। उच्छ्भ- आधिक्येन क्षिप, प्रवेशयेत्यर्थः। प्रश्न. २० उच्छोलेति- सकृदुदकेन प्रक्षालनम्। निशी० ११६ आ। उच्छुभह-किञ्चित्क्षिपतेत्यर्थः। भग० ६८५) उजु-ऋजुः-मायारहितः संयमवान वा। दशवे. २६२१ उच्छुमेरगं- अपनीतत्वगिक्षुगण्डिका। आचा० ३४८१ उजुगं- दृष्टिवादे सूत्रभेदः। सम० १२८। उच्छुहइ-अवष्टभ्नाति, विध्यतीत्यर्थः। ज्ञाता०६८ | उजुवालिआ-ऋज्वालिका, वीरस्य उच्छूढं- उज्झितं संक्कारपरित्यागात्। सूर्य । केवलोत्पत्तिस्थानम्। आव० १३९। उज्झितम्। भग० १२१ राज० ५७ विपा० ३४ औप० ८४१ उज्ज-आर्षत्वादुद्द्योतयतीति उद्द्योतः। उत्त० ३८५ जम्बू०१६ उज्जमंतो- मूलुत्तरगुणेसु विसुद्धो विवित्तो। निशी. २५ उच्छूढ- निःसृतः। सूर्य. ९२। अवक्षिप्तः-अर्गलास्थाना- । निष्कासितः। जीवा. २७२। स्वस्थानादवक्षिप्तो- उज्जम-उद्यमः-यथाशक्ति अनुष्ठानम्। आचा० १५०| निष्का-सितः। जम्बू.११११ प्रश्न० ८१ अनालस्यम्। औप०४८१ उच्छृढसरीरे- उच्छृढशरीरः-उज्झितमिवोज्झितं उज्जममाणो- उद्यच्छन्-उद्यमं कुर्वन्। आव० ५३४। तत्संस्कारत्यागात् शरीरं येन सः। भग० १२ उज्जयनी-नगरीविशेषः। नन्दी० १४५ उच्छूढाई-लुंटितानि। बृह. ५७ अ। उज्जयन्त-पर्वतविशेषः। जम्बू. १६८। क्रीडापर्वतविउच्छूनावस्था- विनष्टावस्था। जीवा० १०७१ शेषः। भग० ३०६। रैवतकम्। उत्त० ४९२। अट्टनमलउच्छ्रं - अकालम्। ओघ० १४८१ वास्तव्यनगरम्। व्यव० ३५७ अ। उच्छूरिया- सुप्रावृत्ता। बृह० ३५६ आ। उज्जयिनी-चण्डप्रयोतराजधानी। प्रश्न. ९० उच्छेवा- उच्छेवा नाम यत्र पतितुमारब्धं नगरीविशेषः। आचा० २४८ बृह. २१८ आ। तत्रान्यस्येष्टकादेः संस्थापनम्। व्यव० ७ अ। उज्जयिनीराजपुत्र- उज्जयिन्याः राजपुत्रः। आचा० २४८१ उच्छोडेइ- उच्छोटयति। आव० ३९९। उज्जरा-प्रवाहाः। आव०६२० उच्छोभवंदणयं-इच्छामि खमासमणो वंदिउं उज्जल-उज्ज्वलः-विपक्षलेशेनाप्यकलकितः। भग० जावणिज्जाए निसीहियाए तिविहेणं एवं ४८४, २३१। निर्मलः। जीवा० २२७। ज्ञाता० २२१। उच्छोभवंदणयं| निशी. ९३ अ। बहिः-श्वेतवर्णः। जम्बू. ५२८१ उज्ज्वलम्उच्छोभो-आलः, कलकः। आव०४०१ सुखलेशवर्जितम्। प्रश्न० १५६। शुद्धम्। जीवा० १८८ उच्छोलणं- एक्कसि धोवणं उच्छोलणं। निशी. ११८ आ। | उज्जला- उज्ज्वला। आव० १९२ तेल्लादिणा फासुगअफासुएण देसे उच्छोलणं| निशी | विपक्षलेशेनाप्यकलङ्किता। प्रश्न० १७। उत्-प्राबल्येन मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [176] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] मलिनशरीराः अलब्धसुखास्वा दाश्च । बृह० ४० अ उज्जा- ऊर्जा-बलम्। व्यव० १४४आ । उज्जाण - जत्थ लोगो उज्जाणियाए वच्चति । जं वा ईसि णगरस्य उवकंठ ठियं तं । निशी० २६५ अ । पुष्पादिमवृक्षसंकुलादौ उत्सवादौ बहुजनभोग्यम्। प्रश्र्न॰ १२७| ऊद्धर्वं यानमस्मिन्निति उद्यानम् - उदकम् । आव॰ ७९७। पुष्पादिसद्वृक्षसंकुलमुत्सवा बहुजनोपभोग्यम्। जीवा० २५८ \ आव० १९७ । ऊर्ध्वं यानमुद्यानं-मार्गस्योन्नतो भागः, उट्टङ्क इत्यर्थः। सूत्र॰ ८८। पुष्पादिमद्वृक्षसंकुलबहुजनभोग्यवनविशेषः । प्रश्न० ७३ । पुष्पादिमवृक्षसंकुलमुत्स-वादौ बहुजनभोग्यम्। प्रश्र्न॰ १२७ । औप० ३। क्रीडार्थाग-तजनानां प्रयोजनाभावेनोर्ध्वावलम्बितयानवाहनाद्याश्रयभूतं तरुखण्डम्। जम्बू० ३८८। पुष्पफलोपेतादिमहावृक्षसमुदायरूपम्। औप० ४१| जनक्रीडास्थानम् । दशवै० २१८ | पुष्पादिमद्वृक्षसंकुलं, उत्सवादौ बहुजनोपभोग्यम्। राज० ११२ | ऊर्ध्वं विलम्बितानि प्रयोजनाभावात् यायानि यत्र तदुद्यानं–नगरात्प्रत्यासन्नवर्ती यानवाहनक्रीडागृहाद्या श्रयस्तरुखण्डः । राज० २३ चम्पकवनाद्युपशोभितमिति। स्था० ३१२। औद्यानिक्यां निर्गतो जनो यत्र भुंक्ते । व्यव० ३६२अ । वस्त्राभरणादिसमलङ्कृतविग्रहाः सन्निहिताशनायाहारमदनोत्सवादिषु क्रीडार्थं लोका उद्यान्ति यत्र तच्चम्पकादितरुखण्डमण्डितः । अनुयो० २४ | पत्रपुष्पफल-च्छायोपगतवृक्षोपशोभितं, विविध– वेषोन्नतमानश्च बहुजनो यत्र भोजनार्थं यातीति। सम ११७। पुष्पफलादिसमृद्धा-नेकवृक्षसंकुलानि उत्सवादौ बहुजनपरिभोग्यानि । अनुयो० १५९ | पुष्पादिमवृक्षयुक्तम्। भग० ४८३ | आरामः कीडावनं आगम-सागर-कोषः ( भाग :- १) वा । उत्त० ४५१ | उज्जाणगिहाणि - उद्यानगृहाणि । स्था०८६| उज्जाणानि - उद्यानानि पत्रपुष्पफलच्छायोपगादिवृक्षोप-शोभितानि बहुजनस्य विविधवेषस्योन्नतमानस्य भोजनार्थं यानं गमनं येषु । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] नगर-प्रदेशगृहाणि वा। भग० ६१७ | उज्जाणिया- उद्यानिका । आव० ६७९ । उज्जाणियागओ - उद्यानिकागतः । आव० ४०२ | उज्जाणियागमणं - उद्यानिकागमनं । आव० ४५३ | उज्जाणेत्ति- प्रतिलोमगामिनीत्यर्थः। निशी० ४४आ। उज्जालंतं- उज्ज्वालनम् - व्यजनादिभिर्वृद्ध्यापादनम्। दशवै० १५४ | उज्जालओ - प्रज्वालकः । निशी० ५० अ उज्जालेह— उज्जवालयत, दीपयत । जम्बू० १६२ उज्जितगिरि - उज्जयन्तगिरिः, पर्वतविशेषः । आचा० ४१८ | नन्दी ० ६० उज्जओ- बलवान् । बृह० १९५अ । उज्जतं - ऊर्जितम् । आव० ३०४ | उज्जीवाविया - उज्जीविता । आव० ५५९ | उज्जु- समं संजमो वा । दशवै० ५२| ऋजो:ज्ञानदर्शनचारित्राख्यस्य मोक्षमार्गस्यानुष्ठानादकुटिलः, यथावस्थितपदार्थस्वरूपपरिच्छेदावा, उज्जुकडे- ऋजुकृतः-ऋजुः - संयमस्तत्प्रधानं ऋजु वा मायात्यागतः कृतम्-अनुष्ठानं यस्य सः । उत्त० ४१४ उज्जुग - ऋजुम् । आव० ३८४ | दक्षिणहस्तः। ओघ० १७५| उज्जुजड्ड - ऋजवश्च प्राञ्जलतया जडाश्च तत एव दुष्प्रति-पाद्यतया ऋजुजडाः । उत्त० ५०२ । स्था० ८६| उज्जाणियलेणाइ- उद्यानगतजनानामुपकारिकगृहाणि उज्जुतभिन्नं- यत् चिर्भटादिकं विदार्य ऊर्ध्वफालिरूपाः [177] सर्वोपाधिशुद्धोऽवक्रः। आचा० १५४। ऋजुः - अकुटिलः । आचा० ४२॥ अवक्रः, अविपरीतस्वभावः । स्था० १८३ | अवक्रः। उत्त॰ ५९०। गृहाभिमुखः। ओघ० १५६। वर्त्तमानमतीतानागतवक्रपरि-त्यगाद् वस्त्वखिल, वक्रविपर्ययादभिमुखं वा । आ०२८४ अतीतानागतपरकीयपरिहरणमाञ्जलं वस्तु । अनुयो० १८ | उज्जुअ- ऋजुकम् - मायारहितः। पिण्ड॰ १४७| अभिमुखः। दस० १८४। उज्जुआयता- ऋजुश्चासावायता चेति ऋज्वायता यया जीवादय ऊद्र्ध्वलोकादेरधोलोकादौ ऋजुतया यान्ति । भग० ८६६ | ऋज्वी- सरला सा चासावायता च दीर्घा ऋज्वा यता । स्था० ४०७ | “आगम-सागर- कोषः " [१] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] पेश्यः कृतं तद् ऋजुकभिन्नम्। बृह. १७५अ। अभ्युपग-च्छतीति ऋजुसूत्रः। अनुयो० १८१ उज्जुते- ऋजुकः-अवक्रः, उद्यतो वा-अनलसः। प्रश्न | उज्जुसेढीपत्ते- ऋजुश्रेणिप्राप्तः-ऋजुः-अवक्रा श्रेणिः१५७ आकाशप्रदेशपंक्तिस्तां प्राप्तः। अनुश्रेणिगतः। उत्त. उज्जुत्तो-उद्युक्तः। ओघ. १६० ५९७१ उज्जुदंसी- ऋजुदर्शी-ऋजुर्मोक्ष प्रति ऋजुत्वात्संयमस्तं उज्जहिता-प्रेर्य। उत्त० ५५१| पश्यत्युपादेयतयेति ऋजुदर्शी-संयमप्रतिबद्धः। दशवै. | उज्जू- ऋजुः-यतिः, यतिरेव परमार्थतः ऋजुः। आचा० ११८ १५६| उज्जुपन्न- ऋजुप्रज्ञः। स्था० २०२॥ उज्जूहिगा- गावीओ उज्जूहिताओ अडवित्तीओ उज्जुउज्जुभूयं- ऋजुभूतं-प्रगुणीभूतम्। उत्त. १८५१ हिज्जति अहवा गोसंखडि उज्जूहिगा। निशी० ७१। उज्जुमइ-ऋजुमतिः-मार्गप्रवृत्तबुद्धिः। दशवै० १६० | उज्जत- रैवतकः। बृह. १०६अ। उज्जयन्तः–पर्वतउज्जुमई-ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी मतिरस्य स। नन्दी० | विशेषः। आव० ८२७। परदारगमने पर्वतविशेषः। आव. १०९, १०८। ऋज्वी-सामान्यतो मनोमात्रग्राहिणी ८२३ मतिः-मनःपर्यायज्ञानं येषां ते। औप० २८१ उज्जेणय-उज्जयिनीकः। आव० ६२६। उज्जुया-ऋजुका-न वक्रा। जीवा. २७१। उज्जेणा-उपयोजना-संघट्टना। बृह. १४६ अ। उज्जुवालिया-ऋजुका न वक्रा। जीवा. २७१। उज्जेणि-उज्जयिनी, गुरुनिग्रहविषये प्री। आव०८१३। उज्जुवालिया-ऋजुवालिका, वीरस्य सर्वकामविरक्ताविषये नगरी। आव०७१४१ केवलोत्पत्तिस्थानम्। आव० २२७। अज्ञातोदाहरणे प्रद्योतराजधानी। आव० ६९९। उज्जुसंधिसंखेडयं-उज्जुसंधिसंखेडयाओ वा सगडमग्गं मालवदेशे नगरी। दशवै. ५७ शिल्पसिद्धदृष्टान्ते प्री। पवेदेति। निशी० ८६अ। आव० ४१० कायदण्डो-दाहरणे नगरीविशेषः। आव. उज्जुसुअ- ऋजुसूत्रः-ऋजु-वर्तमानमतीतानागतवक्र ३०२ परित्यागाद् वस्त्वखिलं तत्सूत्रयति-गमयतीति। उज्जेणिगाओ-औज्जयिन्यः। आव०६४। ऋजुश्रुतः-ऋजु-वक्रविपर्यययादभिमुखं श्रुतं उज्जेणिया-उद्यानिका। आव. २१०| ज्ञानस्येति। आव० २८४। ऋजुअवक्रं श्रुतमस्य उज्जेणी-उज्जयिनी, लवालवोदाहरणे नगरी। आव. सोऽयमृजु-श्रुतः, ऋजु-अवकं वस्तु सूत्रयतीति ७२१। गुणविषये पुरी। आव० ८१९। विनयदृष्टान्ते पुरी। ऋजुसूत्रः। स्था० ३९२ आव०७०८1 शिल्पकर्मविषये नगरी। आव०४०९। उज्जुसुते- ऋजु-वक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुतं-ज्ञानं स्थिरीकरणो-दाहरणे नगरी। दशवै० १०३ यस्यासौ ऋजुश्रुतः,ऋजु वा योगसंग्रहेऽनिश्रिपोपधानदृष्टान्ते नगरी। आव०६६८1 वर्तमानमतीतानागतवक्रपरित्यागाद्वस्तु सूत्रयति- जितशत्रुराजधानी। उत्त० २१३, १९२ गमयति इति ऋजूसूत्रः। स्था० ३९०। ऋजुव औत्पात्तिकीदृष्टान्ते नगरी। आव०४१५ क्रविपर्यादभिमुखं श्रुतं-ज्ञानं यस्य सः। स्था० ३९२। भद्रगुप्ताचार्यस्थानम्। आव० २९२ नगरीविशेषः। बृह. ऋजु-अवक्रमभिमुखं श्रुतं श्रुतज्ञानं यस्येति। स्था० १९१ अ १९०आ। योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते नगरी। १५२। ऋजुः-अवक्रं श्रुतमस्येति। अनुयो० २६५। स्वकीयं आव०६७। प्रथमे आलोचनायोगे नगरी। आव०६६४। संप्राप्तं च वस्तु नान्यदित्यभ्युपगमपरः, ऋजु वा- योगसंग्रहे आपत्सु दृढधर्मत्वदृष्टान्ते नगरीविशेषः। अतीता-नागतवपरित्यागादवर्तमानं वस्त सत्रयति- आव०६६७। हस्तिमित्रगाथापतिस्थानम्। उत्त० ८५ गमयतीति ऋज-सूत्रः। स्था० १५२ देवदत्तागणिकाव-सननगरी। उत्त. २१८। उज्जुसुयं- ऋजुसूत्रं-नयगतौ भेदः। प्रज्ञाः ० ३२७। ऋजु- उज्जयिनीनगरीविशेषः। उत्त.९९, २९४, १२७, ८७) अतीतानागतपरिहारेण प्राञ्जलं वस्तु सूत्रयति- प्रद्योतनराजधानी। उत्त० ९६। चेटीदेवतोक्तं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [178] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आ। भग्नसाधुस्थानम्। बृह. १७१ आ। बृह. ३९ अ। नगरी- | गिरिष्वम्भसां प्रस्रवाः। प्रज्ञा० ७२| निर्झरः। ज्ञाता० विशेषः। निशी. २४३ अ। निशी० ५७ आ। बृह. १९१ अ। રદા बृह) २६७ अ। कालकाचार्यविहारभूमिः। निशी० ३३९ | उज्झररवो-निर्झरशब्दः। ज्ञाता० १६१। आ। बृह० ४७ अ। बृह. १४९ अ। उज्झा-अयोध्या, सगरराजधानी। आव० १६१। अजितउज्जेणीनयरी-अवन्तीजनपदे नगरी। उत्त०४९। नाथजन्मभूमिः। आव० १६०| उ इत्येतदक्षरं उज्जेणीसावगसुतो- उज्जयनीश्रावकपुत्रः-उज्जयिन्यां उपयोगकरणे वर्तते, ज्झ इति चेदं ध्यानस्य भवति श्रावकसुतः। उत्त० २९४१ निर्देशे, ततश्च प्राकृ-तशैल्या उज्झा, उपयोगपुरस्सरं उज्जोअ-उद्द्योतः -प्रभासमूहः। जीवा० २६७। अनुष्ण- ध्यानकर्तार इत्यर्थः। आव० ४४९। प्रकाशः। जम्बू. ४३३। दीप्यमानता। जीवा० ३९९। अनन्तनाथजन्मभूमिः। आव० १६० उद्योतं-चान्द्रप्रकाशम्। जम्बू० २२९। उज्झाइओ-विरूपः। बृह. २४१ अ। उज्जोइंति-उद्द्योतयन्ति। भग० ३२७। उज्झाइगं-जुगुप्सा। बृह० २२९ आ। उज्जोएइ- उद्द्योतयति -भृशं प्रकाशयति। भग० ७८।। उज्झाइतं- विरूपं। बृह. २२९ आ। उज्जोएमाण- उद्योतयन्। औप० ५० उज्झातो- उपाध्यायः। उत्त० १४९। उज्जोओ-उद्योतः-रत्नादिप्रकाशः। उत्त. १६१ उज्झाहि-उज्झीः । आव. २१७। उज्जोयगरे- उद्योतकरः केवलालोकेन तत्पूर्वकप्रवचन- | उज्झिआ-उज्झिता-सद्विवेकशून्या। सूत्र. ९२ दीपेन वा सर्वलोकप्रकाशकरणशीलः। आव०४९४। उज्झिणिका- पारिष्ठापनिका। बृह. १२३ अ। बृह. २४२ उज्जोयणामेयदुदयाज्जन्तुशराण्यनुष्णप्रकाशकरूपमुद्योतं कृर्वन्ति | उज्झितं- छर्दितं, त्यागम्। पिण्ड० १६९। यथा यतिदेवोत्तरवैक्रियचन्द्रनक्षत्रतारविमानरत्नौ- उज्झितक-विजयसार्थवाहपुत्रः। स्था० ५०७। षधयस्तदुद्योतनाम। प्रज्ञा० ४७४। दुःखविपाकानां द्वितीयमध्ययनम्। स्था० ५०७) उज्जोवणं- गाविणं पसरणं। निशी० १०७ अ। उज्झित्तए- उज्झितूं-सर्वस्या देशविरतेस्त्यागेन। उज्जोवेति-उद्योतयन्ति। सूर्य०६३। उद्द्योतयतः -भृशं | ज्ञाता० १३४१ प्रकाशयतः। जम्बू०४६१| उज्झिय-उज्झितः-उज्झितधर्मा, सप्तमी पिण्डैषणा। उज्जोवेमाणा- उद्योतयमानः स्थूलवस्तूपदर्शनतः। आव० ५७२। उज्झितधर्मा। आव० ५६८। स्था०४२११ उज्झियए-उज्झितकः-सुभद्राविजयमित्रसार्थवाहयोः उज्झंतगं- उज्झितकं, त्यज्यम्। आव०६६८। सुतः। विपा० ४६। सार्थवाहपुत्रः, अन्तकृद्दशासु उज्झंता-क्षपयन्तः। अन्यो० १३१| दुःखविपाकानां द्वितीयमध्ययनम्। विपा० ३५। उज्झंसिओ-तिरस्कृतः। आव. २०४। उज्झियतो- उज्झितः-त्यक्तः। आव० ८२३। उज्झक्खणिया-पवनप्रेरिता उदककणिकाः। बृह. २९ आ। उज्झियधम्मा- चतुर्थी वस्त्रैषणा। आचा. २७७। उज्झखणी-दगवातो सीतभरो सा य उज्झखणी यत्परित्यागार्ह भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो भण्णति। निशी० २३२आ। नावकाङ्क्षन्ति तदर्धत्यक्तं वा गृह्णत इति, सप्तमी उज्झनं- परिशाटः। आव० ५७६| पिण्डैषणा। स्था० ३८७ आव० ५६८, ५७२। उज्झमज्जी-उद्घाटनम्। आव० ६६५५ उज्झियधम्मिय-उज्झितधर्मिकं-उज्झितं-परित्यागः उज्झयारेमि-उपकरोमि। बृह० ४६ आ। स एव धर्मः-पर्यायो यस्यास्ति तत्। अन्त०३ उज्झर-अवझरः-पर्वततटाद्दकस्याधःपतनम्। भग. उज्जितधर्मिका-सप्तमी पिण्डैषणा। आचा० ३५७। जं २३७। प्रवाहः। (तन्दु०)। उज्झरः-प्रवाहः। नन्दी०४७) असणादिगं गिही उज्जिउकामो साह य उवद्वितो तं गिरतिटादुदकस्याधःपतनानि। जम्बू०६६। तस्स देति ण य तं कोइ अण्णो दुपदादि अभिलसति मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [179] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] एसा उज्जियधम्मिया। निशी० १२ । निशी. १६३ सूर्य. २९६। देहचेष्टाविशेषः। प्रज्ञा० ४६३। ऊर्ध्वं भवनम्। आ। जम्बू. १३०| उत्पत्तिः । ज्ञाता० १८९। उज्झियधम्मे-उज्झितमेव धर्मः-स्वभावो यस्य तद उहाणपरियाणियं-परियानं-विविधव्यतिकरपरिगमनं उज्झितधर्म-परित्यागार्हम्। बृह. ९७ आ। तदेव पारियानिकं-चरित उत्थानात्-जन्मन आरभ्य उट्ट-उष्ट्रः। प्रज्ञा० २५२। उष्ट्र:-द्विखुरचतुष्पदविशेषः। पारियानिकं उत्थानपारियानिकम्। भग० ६६० प्रज्ञा० ४५। जीवा० ३८1 म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ उहाणपरियावणियं-उत्थानपर्यापन्निकम्। आव०६५। उट्टण- आवर्तनम् भक्तिभावनम्। व्यव० २०३ आ। उहाणसूए-उत्थानश्रुतं-उद्वसनं तद्धेतुः उवामा-उष्ट्री। आव०४१८ श्रुतमुत्थानश्रुतम्। नन्दी० २०७। उट्टिए- उष्ट्राणामिदम्। औष्ट्रिकम्। अनुयो० ३५। उहाय-उत्थाय-अभ्युपगम्य। आचा० ३८। सर्वं सावयं उष्ट्रिकाबृहन्म-न्यभाण्डम्। उपा०४। कर्म न मया कर्तव्यमित्येवं प्रतिज्ञामन्दरमारुद्य। उट्टिते-उष्ट्रलोममयम्। स्था० ३३८। आदायगृहीत्वा। आचा० १४० उट्टितो-उव्वसिओ। निशी. १७८ आ। उट्ठावणा-उच्चेव ठावणा उत्-प्राबल्येन वा ह्रावणा उट्टियं- उट्टरोमेसु उट्टियं। निशी० १२६ अ। उट्ठावणा। निशी०४७ अ। उट्टिया-उष्ट्रिका-महामृण्मयो भाजनविशेषः। औप. उहावणागहणं-उपस्थापनायां १०६। मृण्मयो महाभाजनविशेषः। उपा० २१॥ हस्तितदन्तोन्नताकारहस्तादि-भिर्यद् सुरातैलादिभा-जनविशेषः। उपा०४०। रजोहरणादिग्रहणं। बृह. २८६ अ। निशी० ५९ अ, ६१ । उहिअ- उद्युक्तः। ओघ० २२० उत्थितः-उद्वसितः। उट्टियासमणा-उष्ट्रिका महामण्मयो भाजनविशेषस्तत्र ओघ०४९। उद्यतः। ओघ० २२० प्रविष्टा ये श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति उष्ट्रिकाश्रमणाः। उहिए-उत्थितः-ज्ञानदर्शनचारित्रोद्योगवान्। आचा० औप० १०६। १७६। उत्-प्राबल्येन स्थितः। आचा० २५८। उर्ल्ड-ओष्ठं-कर्णम्। ओघ. २१११ उट्ठिय-उत्थितः-संयमोदयोगवान्। आचा. २२४। रुअं। उर्ल्डभिया-अवष्टभ्य-आक्रम्य। आचा० ३१२ निशी. २२८ आ। ईश्वरीभतम्। पिण्ड० १२३। उहण-उत्थितः। बृह० ७९ अ। उट्ठी-अष्टा। आव०६२४। उहवेसि-उद्धरसि। ज्ञाता०६९। | उट्ठभह- अवष्ठीव्यत-निष्ठीव्यत। भग० ६८५ उहा- उत्था-कायस्योर्ध्वभवनम्। औप० ८३। ऊर्ध्वं | उडेइ-उत्थाय-विबुद्धय। भग० १२२॥ वर्तनम्। सूर्य.६। भग०१४। उष्ट्री। दशवै. १९३। उडेमि-आयामि-आगच्छामि। आव० ६८५१ उट्ठा(ट्टा)-उष्ट्राः -जलचरविशेषाः। सूत्र. १६० उडंकरिसी-ऋषिविशेषः। बृह. २८६ आ। उहाए- उत्थाय-उद्यतविहारं प्रतिपद्य सर्वालङ्कारं उडए-उटजः-तापसाश्रमगृहम्। निर०२६। परित्यज्य पञ्चमुष्टिकं लोचं विधायैकेन उडओ-ओटजः-तापसाश्रमः। उत्त० १३४ देवदुष्येणेन्द्रक्षिप्तेन युक्तः कृत–सामायिकप्रतिज्ञ उडव-उटजः-तापसाश्रमः। जीवा० १०५ कोटिंवो। निशी. आविर्भूतमनःपर्यायज्ञानोऽष्टप्रकारकर्म-क्षयार्थं ७७ आ। पर्णकुटी। आव० १८९। तीर्थप्रवर्तनार्थं चोत्थाय। आचा० ३०११ उत्थानं उत्था- | उडवसंठिया-उटजसंस्थिताः-तापसाश्रमसंस्थिताः। ऊध्वं वर्तनं। राज० ५८१ आव-लिकाबाह्यस्य दशमं संस्थानम्। जीवा. १०४| उहाण- उत्थानम्-उद्वसनम्। नन्दी. २०७। प्रथममद | उड्डंकरिसि-ऋषिविशेषः। निशी०६८ आ। गमनम्। उत्त० ३५१। जन्म। भग० ६६१| चेष्टाविशेषः। | उड्डडुग- उदंडकः-जनहास्यः। निशी. ५० अ। स्था० २३। उत्थानम्। पिण्ड०७१। ऊर्वीभवनम्। भग० | उडु- ऋतुः। निशी० २३९ । उडुपः-तरणकाष्टं३११। सूर्य० २८६। श्रवणाय गुरुं प्रत्यभिमुखगमनम्। | तुम्बकादि। पिण्ड० १०२॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [180] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] उडुकल्नाणि ऋतुकल्याणिकाः, ऋतुषु षट्स्वपि कल्याणिकाः ऋतुविपरीतस्पर्शत्वेन सुखस्पर्शाः अथवाऽमृतकन्यात्वेन सदा कल्याणकारिण्यः । जम्बू ० आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) २६३| उड्डपं नौः । आचा० ४१| उडुबदियं ऋतुबद्धम् शीतोष्णकालयोर्मासकल्पम् । आचा० ३६५| उड्डवई— उडुपतिः-उडूनां - नक्षत्राणां पतिः प्रभुः सः । उत्त० ३५१| उड्डविमानं सौधर्मे प्रथमः प्रस्तटः स्था० २५१| उडू- कालविशेषः । भगः ८८८ ऋतवः द्विमासमानाः । स्था० ८६ | नक्षत्रः । उत्तः ३५१ | 3 उडूसंवच्छरे ऋतुसंवत्सरः कर्मसंवत्सरः, सवनसंवत्सरश्च सूर्य. १६८१ यस्मिन् संवत्सरे प्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि परिपूर्णान्यहोरात्राणां भवति एष ऋतुसंवत्सरः, ऋतवो लोकप्रसिद्धाः वसन्तादयः तत्प्रधानसंवत्सर ऋतुसंवत्सरः। सूर्य० १६९ | उड्डं कुडयं बृह• ६१ आ उड्डचकादि - उद्धट्टकादि। ओघ० ८९। उड्डंचगा- उदकाः- याचकाः । बृह० ८६ आ उड्डचय- उड्डका उद्घटकास्तान् कुर्वन्ति, आलापकान् कर्णाघाटकेन पठित्वा तथैवोच्चरन्ति इत्यर्थः । बृह० ६० आ। उड्डंचये— कुट्टियाओ। निशी० १७१ अ । उड्डंडग- ऊर्डीकृतदण्डः । औ०९० उड्डति-व्यवस्थापयन्ति। आक० ५१९ | उडुडंबालग– कोट्टपालकः । आव० २०४ | आरक्षकः । आव २०४ | उड्डग-पलालं । निशी० ६१ अ उड्डच्छे - उद्घोषिते । निशी० १३२ अ । उड्डणक्कं प्रपंचः। निशी० २६ आ उड्ड (ड्डे ) ति | निशी० २३२आ। उड्डमरं - उत्थाणं । निशी० १९४ आ । उड्डमादी - खितिखाणतो उड्डमादी । निशी० ४४आ। उड्डहणं- व्यङ्गनयोर्दे॒वयोरनवस्थाप्यः बृह० ३०८ अ उड्डाह- उपघातः ओघ० ८९| प्रवचनहीला ओघ• ४८ खिसा । पिण्ड० १०९ । अपवादः । आव० ८००| उपघातः । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text ) ओघ० १४९ | आव० १९५| उड्डाहितो- निर्भर्त्सितः उत्त० १३९॥ उड्डिओ - अवतारितः । आव० ३९६ | उड्डियाओ अवतारिता । दश- ५७। उड्डुयं उद्गारितम् आक० ७७९। उड्डुयरो यः समुद्दिशन् संज्ञां वा व्युत्सृजन् चपलतया हस्तादीन्यपि लेपयति। बृह० २७२अ । उड्डुयालेउं - मथितुम् - मन्थनं कर्तुम् । दशवै० ६० उड्डेति- छड्डेति । निशी० २९० अ उड्डेह-धरथ निशी. २३७ अ उड्ढ - वमनं । निशी० ३१५ आ| निशी० ५८ अ । बृह० ७५ अगदी समुद्दे वा वेलापाणियस्स प्रतिकूलं उड्ढं। निशी० ६३ आ उड्ढउंच्चत्त- ऊर्ध्वस्थितस्यैकमपरं तिर्यक् स्थितस्यान्यत्, गुणोन्नतिरूपं, तत्रेतरापोहेनोर्ध्वस्थितस्य यदुच्चत्वं तदूव च्चत्वम् । स्था० ३६ | उढकप्पेसु- ऊर्ध्वं कल्पेषु - ऊर्ध्वं कल्पोपरिवर्त्तिषु ग्रैवेयकादिविमानकेषु कल्पेषु सौधर्मादिषु, ऊर्ध्व वा उपरिकल्प्यन्ते विशिष्टपुण्यभाजामवस्थितिविषयतयेति सौधर्मादयो ग्रैवेय-कादयश्च सर्वेऽपि कल्पा एव तेषु । उत्त० १८६ | उजाणू शूद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपग्रहिकनिषद्याभावाच्च उत्कटुकासनः सन्नपदिश्यते ऊर्ध्व जानुनी यस्य स ऊर्ध्व-जानुः । ज्ञाता० २ उड्ढ- ऊर्ध्व-कर्णकः ओघ० १६८१ सर्वोपरिस्थितम् । उत्त• २६८ अनाच्छादितममालगृहम् । स्था० १५७॥ ऊर्ध्व नन्दी० १५४ उदकवाडे - ऊर्ध्वमपि लोकान्तं स्पृष्टे ते अधोऽपि च लोकान्तं स्पृटे ते ऊद्र्ध्वकपाटे। प्रज्ञा० ७५। उड्ढकाएहिं— ऊर्ध्वकायैः- द्रोणैः काकैर्वैर्कियैः । सूत्र० १३७ । उड्ढघट्टणा- उद्र्ध्वघट्टना- मुसली द्वितीयभेदः । ऊद्र्ध्वं कुट्टिकादिपटलानि घट्टयति। ओघ० १०९। उड्ढचरा- ऊद्र्ध्वचरा - गृध्रादयः । आचा० २९९ | उड्ढठाण ऊवस्थानम् कायोत्सर्गादि। उत्त० ३९९| कायोत्सर्गः, ऊर्ध्वतया स्थानम् अवस्थानं पुरुषस्य [181] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ऊर्ध्वं-स्थानम्। स्था० ३। उण्णमणी-उन्नामिनी-विदयाविशेषः। दशवै.४१। उड्ढत्ता-मुख्यता। भग० २५४। ऊर्ध्वता उण्णय-उन्नतः-प्रधाचनजातिकः। आव. २४०। लघुपारिणामता। प्रज्ञा० ५०४। भग० २३। उण्णयविसालकुलवंसा- उन्नताः प्रधानजातित्वात् उड्ढमंतो- उद्वमन्-अधस्तनमध्यमत्रिभागगतवातसङ् विशाला:-पितामहपितृव्याद्यनेकसमाकुलाः कुलान्येव क्षोभ-वशाज्जलमूद्ध्वमुत्क्षिपन्। जीवा० ३०८। वंशाः-अन्वया येषां ते उन्नतविशालक्लवंशाः। आव. उड्ढरेणु-ऊर्ध्वरेणुः-ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्चलनधर्मोपलभ्यो २४० रेणुः। भग० २७७ उण्णया- उन्नतानि-गुणवन्ति, उच्चानि। औप. ३ उड्ढरेणू- ऊर्ध्वरेणुः-स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाधस्तिर्यक् चल- उण्णयासणं-उन्नतासनं-उच्चासनम्। जीवा० २०० नधर्मारेणुः। अनुयो० १६३।। उण्णागं- उर्णाकं, ग्रामविशेषः। आव. २१११ उड़ढलोए-तिर्यग्लोकस्योपरिष्टादव॑लोकः। प्रज्ञा० उण्णिए- अविलोममयम्। स्था० ३३८1 ऊर्णाया इदम् १४४ और्णिकम्। अनुयो० ३५ उड्ढलोयतिरियलोए-ऊर्ध्वलोकस्य यदधस्तनमाकाशप्र- | उणियं-ऊरणो रोमेसु उण्णिय। निशी. १२६ अ। देशप्रतरं यच्च तिर्यग्लोकस्य सर्वोपरितनमाकाशप्रदेश- | उहं-उष्णं, उष्णरूपः। सूर्य. १७२। उषति-दहति प्रतरमेष ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोकः। प्रज्ञा० १४४॥ जन्तुमिति उष्णम्। उत्त० ३८। चतुर्थः परीषहः। आव० उड्ढलोयपयरं- ऊद्र्ध्वलोकप्रतरं-तिर्यग्लोकस्य चोपरि ६५३। उष्णः -धर्मः। स्था० ३४५१ यदेकप्रादेशिकमाकाशप्रतरं तत्। प्रज्ञा० १४४। उण्हकालो- उष्णकालः-ग्रीष्मः। ओघ० २१२। उड्ढवाए-ऊध्वमुद्गच्छन् यो वाति वातः स ऊद् उण्हयं- उष्णम्। आव० ८५८ +वातः। जीवा० २९। ऊध्वम्दगच्छन् यो वाति वातः । | उण्हवणं- उष्णापनम्-उष्णीकरणम्। पिण्ड० ८२। स ऊर्ध्व-वातः। प्रज्ञा०३० उहा-उष्णा। आव. २८९| उड्ढवियर्ड-मालरहितं छादयरहितं परं पार्श्वतः उण्होदए-उष्णोदकं-स्वभावत एव कुड्ययुक्तं तदूद्ध्वविवृतं भवति। बृह. १९१ अ। क्वचिन्निर्झरादावष्णप-रिणामम्। जीवा० १२५। उड्ढवेइया-ऊद्र्ध्ववेदिका, यत्र जान्वोरुपरि हस्तौ कृत्वा | उण्होदय-उष्णोदकं। आव० ८५५। प्रतिलिख्यते सा। ओघ० ११० उण्होला- घृतेलिका। आव० २१७ उड्ढस्सासो-ऊध्वश्वासः। आव०६२९। | उत्- प्राबल्येन, अपुनर्भवरूपतया वा। प्रज्ञा० ११२॥ उड्ढा-ऊध्व-वमनम्। बृह० ७५ अ। प्राबल्ये। प्रज्ञा० ५५९। उड्ढाई-ऊद्रध्वादि-छर्दनादिदोषः। ओघ०१३६ उत्कम्पनदीपा-ऊर्ध्वदण्डवन्तः। ज्ञाता०४४। उढिया-ऊर्वीकृता। आव० २२३॥ | उत्करिकाभेदः- समुत्कीर्यमाणप्रस्थकस्येवेति। स्था० उड्ढोववन्नगा-ऊर्ध्वलोकस्तत्रोपपन्नकाः-उत्पन्ना ऊद् ४७५ ोपपन्नकाः। स्था० ५७। सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः उत्कर्षण। स्था० २१२। आचा. २७७। कल्पेभ्य ऊध्वमुपपन्नाः ऊध्वोपपन्नाः। जीवा० उत्कुट्टित-चिंचनकादिः। व्यव. २८ अ। ३४६। उत्कुरुटिकादि-आसनविशेषः। ओघ० ४१। तुषराश्यादि। उणादि-उण्प्रभृतिप्रत्ययान्तं पदम्। प्रश्न. ११७ ओघ०४१। उणुयत्ता-स्थिता। आव० २७२। उत्क्षिप्तचरका-उत्क्षिप्तं-पाकपिठरात् पूर्वमेव उण्डी-पिण्डी। ज्ञाता०९१। दायकेनोद्धत्तं तदये चरन्ति-गवेषयन्ति ते। बृह. २५७ उण्णए-उच्छिन्नं नतं-पूर्वप्रवृत्तं आ। नमनमभिमानादुन्नतम्, उच्छिन्नो वा नयो उत्तइया-उत्तेजिया-अधिकं दीपिता। दश. ११५ नीतिरभिमानादेवोन्नयो नयाभाव इत्यर्थः। भग० ५७२ | उत्तणं- उत्तृणम्-उद्गततृणम्। प्रश्न. १४॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [182] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उत्तणा- दीर्घत्रि(तृ)णा। निशी० ३३६ अ। जम्बू०४९१। उत्तणाणि-उत्तृणानि-ऊध्वीभूतानि तृणानि उत्तमार्धम्- परार्घ, महाघु वा। दशवै. २२११ दीर्घाणीति यावत् तानि यत्र मार्गे भवन्ति। बृह. ७९ । उत्तमुत्तम-उत्तमोत्तम्-अतिशयप्रधानम्। उत्त. आ। ३१९| उत्तत्तकणगवन्ना- उत्तप्तकनकवर्णाः-ईषद्रक्तवर्णा। | उत्तमेणं-ऊर्ध्वं तमसः-अज्ञानाद्यत्तत् तथा तेन प्रज्ञा०९५ ज्ञानयुक्तेन। उत्तमपुरुषासेवितत्वादवोत्तमेन। भग. उत्तम- उत्तमो गिरिषु सर्वतोऽप्यधिकसमुन्नतत्वात्, १२५ मेरोश्च-तुर्दशं नाम। जम्बू० ३७५ गिरिणामुत्तम इति | उत्तयंतं- उत्तुद्यमानः-ऊर्ध्वं व्यथ्यमानम्। विपा० ७४। उत्तमः मन्दरस्य चतुर्दशं नाम। सूर्य ७८ उत्तरं- वासकप्पकंवली। निशी० ३४३ आ। मिथ्यात्वमोहनीयज्ञा उत्तरंग-उत्तराङ्ग। जीवा० ३५९। उत्तरङ्गनावरणचारित्रमोहादित्रिविधतमसः उन्मुक्ता इति दवारस्योपरि तिर्यग्व्यवस्थितं काष्ठा। जीवा. २०४। उत्तमाः। आव. ५०८1 उपरिवर्ति। देवलोकाद्यपेक्षया जम्बू०४८१ प्रधानम्। उत्त० ३१९। ऊध्वं तमसः उत्तर-उत्तरत-उत्तरदिग्वर्ती सर्वेभ्यो भरतादिवर्षेभ्य अज्ञानाद्यत्तत्तथा, अज्ञानरहित इत्यर्थः। ज्ञाता०७६| इति, मेरुनाम। जम्बू० ३७६। ऐरावते उत्तमकट्ठ- उत्तमकाष्ठा-प्रकृष्टावस्था। जम्बू. ९८१ द्वाविंशतितमतीर्थंकरः। सम० १५४। अग्रवर्ती। उत्त-मकाष्ठा-परमकाष्ठा, उत्तमावस्था परमकष्टो विद्यादिशक्त्यभावे-ऽनुल्लङ्घनीयः। जम्बू. ४६२। वा। भग० ३०५ भवधारणीयशरीरापेक्षया कार्योत्पत्तिकाला-पेक्षया उत्तमकट्ठपत्त-उत्तमकाष्ठाप्राप्तः-परमप्रकर्षप्राप्तः। चोत्तरकालभावि। जम्बू०४०२। कार्यम्। सूत्र० २८५१ सूर्य ११| उत्तरअंतरदीवा-उत्तरस्यां दिशि येऽन्तरदवीपाः। भग. उत्तमकट्ठपत्ता- परमकाष्ठाप्राप्ता, उत्तमावस्थायां गत, | ४९२ परमकष्टप्राप्ता वा। भग० ३०५) उत्तरउत्तरा-उत्तरोत्तरविमानवासिनः, उत्तरो वा उत्तमट्ठ-अनशनाय। (आतु०)। उत्तमार्थः-अनशनम्।। उपरितन-स्थानवर्ती, उत्तरः- प्रधानो ये ते ओघ०१४। उत्तमः-प्रधानोऽर्थः-प्रयोजनं स उत्तमार्थ:- | उत्तरोत्तराः। उत्त०१८७ मोक्षः। उत्त० ३५३। पर्यन्तसमयाराधनारूपः। उत्त० उत्तरकंचुइज्ज-उत्तरकञ्चुकः-तनुत्राणविशेषः। विपा० ४७९। मोक्षः। उत्त० ५२३।। उत्तमढकालंमि-उत्तमार्थकालेः-अनशनकाले। ओघ. | उत्तरकंचुइय-उत्तरकञ्चुकः-तनुत्राणविशेषः। विपा. રર૭૫. उत्तमट्ठगवेसए- उत्तमार्थगवेषकः-उत्तमः-प्रधानोऽर्थः- । | उत्तरकरणं- मूलतः स्वहेतुभ्य उत्पन्नस्य पुनरुत्तरकालं प्रयोजनं उत्तमार्थः, स च मोक्ष एव तं गवेषयति- विशेषाधानात्मकं करणम्। उत्त. १९४१ औदारिकअन्वेषय-तीति। उत्त० ३५३। वैक्रियाहारेषु उत्तमढपत्ता-उत्तमार्थप्राप्ताः, उत्तमान् तैजसकार्मणयोस्तदसम्भवादङ्गोपाङ्गनातत्कालापेक्षयो-त्कृष्टानान्-आयुष्यकादीन् प्राप्ता मैवोत्तरकरणमिति। उत्त. १९७१ उत्तमार्थप्राप्ताः, उत्तमकाष्ठां प्राप्ता वा-प्रकृष्टावस्थां | उत्तरकिरियं- उत्तरक्रियम्-उत्तरा-उत्तरशरीराश्रया गताः। भग० २७७ क्रिया गतिलक्षणा यत्र गमने तद्त्तरकियम्। भग. उत्तमा- उत्तमाः-प्रधानाः, ऊर्ध्व वा तमस इति ၃၃၃ उत्तमसः। आव० ५०७। पूर्णभद्रस्य तृतीयाग्रमहिषी। | उत्तरकुरा- उत्तरपूर्वरतिकरपर्वतस्य भग० ५०४। स्था० २०४। प्रथमरात्रिनाम। सूर्य. १४७ पश्चिमायामीशानदे-वेन्द्रस्य रामाराज्याः राजधानी। ४६। ४७ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [183] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] जीवा० ३६५। स्था० २३११ नेमनाथशिबिकानाम। सम० | उत्तरज्झ- उत्तराध्यः-उत्तराध्ययनम्। तृतीया १५१। उत्तरकुरुः। आव० ११६। मेरोर्जम्बूद्वीपगतः नियुक्तिः । आव०६१ उत्तरतः उत्तरकुनामा विदेहः। जम्बू. ३१० उत्तरज्झयणा-उत्तराध्ययनानि। आव०७५११ उत्तरकुरु-कुरुविशेषः। जीवा० २६६। वापीनाम। जम्बू. उत्तरज्झयणाई-उत्तराध्ययनानि-सर्वाण्यपि ३७० नेमनाथस्य शिबिका। उत्त०४९। साकेतनगरे चाध्ययनानि प्रधानान्येव तथाऽप्यमन्येव उद्यानम्। विपा० ९५ आव० ११५। क्षेत्रविशेषः। स्था० रुढ्योत्तराध्ययनशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धानि। नन्दी. ६८ अकर्मभूमिविशेषः। प्रज्ञा० ५०| २०६। उत्तरकुरुकूडे- उत्तरकुरुदेवकूटं। जम्बू० ३३७। उत्तरज्झाए- उत्तराध्यायाः-उत्तराः-प्रधाना अधीयन्त उत्तरकुरुदहे- उत्तरकुरो महाद्रहः। स्था० ३२६। उत्त- इत्यध्यायाः-अध्ययनानि तत उत्तराश्च ते रकुरुह्रदः द्रहविशेषः। जम्बू० ३३०/ अध्यायाश्च। उत्त०७१२॥ उत्तरकुरुवत्तव्वया-उत्तरकुरुवक्तव्यता। भग० २७६) उत्तरड्ढभरहकूड-उत्तरार्द्धभरतनाम्नो देवस्य उत्तरकूरुकुड-उत्तरकुरुकूट-गन्धमादनपर्वते निवासभतं कूटं उत्तरार्धभरतकूटम्। जम्बू०७७ चतुर्थकूटः। जम्बू. ३१३ उत्तरणं- निरंतरं। निशी० ७७ अ। एक्काए चेव अप्पो य उत्तरकूलग- गङ्गाया उत्तरकूल एव वास्तव्यम्। भग० गच्छा मे उत्तरणं। निशी० ७७ आ। तूंबोड्पादि५१९ औप.९० भिनौवर्जितैर्य उत्तीर्यते तद् उत्तरणम्। बृह. १६१ अ। उत्तरकूला- उत्तरकूलगा–गङ् जत्थ तरंतो जलं संघद्देति तं सव्वं उत्तरणं भन्नति। गोत्तरकूलवास्तव्यास्तापसाः। निर० २५) निशी० ७८ आ। उत्तरखत्तियकुंडपुर-नगरविशेषः। आचा० ४२११ उत्तरदारिता- उत्तरद्वारिका। स्था० ४२४। उत्तरगंधारा-उत्तरगान्धारा-गान्धारस्वरस्य पञ्चमी उत्तर - उत्तरार्द्ध-उत्तरभागे। जम्बू० ४८२। मूर्छना। जीवा. १९३। गान्धारग्रामस्य पञ्चमी मूर्छना। उत्तरपओगकरणं-उत्तरप्रयोगकरणं, जीवप्रयोगकरणस्था० ३९३। द्विती-यभेदः। आव०४५८१ उत्तरगज्जभो-उत्तरगर्जभः-वातविशेषः। आव० ३८७ | उत्तरपट्टो-उत्तरपट्टकः। ओघ. २१७ उत्तरपट्टः। ओघ. उत्तरगुणनिर्मितः- पुरुषप्रायोग्याकारवन्ति द्रव्याणि। आव० २७७ उत्तरपदव्याहतं- गत्यागतिलक्षणे दवितीयो भेदः। आव. उत्तरगुणनिर्वतितः- यस्तु २८१। काष्ठाचित्रकर्मादिष्वालिखितः सः। ब्रह. १४३ अ। उत्तरपरिकर्मक्रियते- उदध्रियते। आव०७६५५ उत्तरगुणपच्चक्खाण-उत्तरगणप्रत्याख्यानम्। आव० उत्तरपासो-उत्तरपार्श्वः। जीवा० २०४, ३५९। ४७९| उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ-उत्तरपूर्वेण, उत्तरपूर्वस्यां उत्तरगुणलद्धिं- उत्तरगुणाः- पिण्डविशुद्ध्यादयस्तेषु दिशि। जीवा० १४४१ चेह प्रकमात्तपो गृह्यते ततश्च उत्तरगुणलब्धिं- उत्तरपुरच्छिमे-औत्तरपौरस्त्यः, उत्तरपूर्वारूपो तपोलब्धिम्। भग० ७९५ दिग्विभागः-ईशानकोणः। सूर्य २। उत्तरगणा-दशविधप्रत्याख्यानरूपाः। भग०८९४॥ निशील | उत्तरपरत्थिमेल्लं-उत्तरपर्वे, ईशाने कोणे इत्यर्थः। सर्यः १६६ अ। मूलगुणापेक्षया स्वाध्यायादीन्। उत्त० ५३६) उत्तरगुणे- उत्तरगुणविषयं-कीतकृतादि। आव० ३२५॥ | उत्तरपव्वा-ईशानकोणः। आव०६३० उत्तरचूलियं- उत्तरचूडम्, यद् वन्दनं कृत्वा उत्तरफग्गुणी-उत्तरफाल्गुनी, हस्तोत्तरा। आव० २५५। पश्चान्महता शब्देन मस्तकेन वन्द इति भणति, उत्तरबलिस्सहगणे-गणविशेषः। स्था०४५११ कृतिकर्मणि एकोनत्रिंशत्तमो गुणः। आव० ५४४। | उत्तरभद्रपदाः- प्रोष्ठपदाः। सूर्य ११४॥ २११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [184] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] उत्तरमंदा-उत्तरमन्दाभिधा गान्धारस्वरान्तर्गता तिर्यग्विस्तारितवस्त्रविशेषः। जम्बू. १८७। उत्तरीयस्य सप्तमी मूर्छा। जम्बू. ३८ मध्यमग्रामस्य प्रथमा देहे न्यासविशेषः। भग० १३८१ मूर्छना। स्था० ३९३। गान्धारस्वरस्य सप्तमी मूर्छना। उत्तासणगं-उत्त्रासनकं भयङ्करम्। ज्ञाता० १३३ जीवा० ३९३। उत्तरासमा- मध्यमग्रामस्य चतुर्थी मूर्छना। स्था० ३९३। उत्तरमहर-वणिग्विशेषः। निशी. २१० अ। उत्तरासाढा- उत्तराषाढानां-उत्तराषाढापर्यन्तानां उत्तरवाए- उत्तरवादः-उत्कृष्टवादः। आचा० २४३। नक्षत्राणाम्। सूर्य ११४१ उत्तरवेउव्विते-उत्तरवैक्रियम्। प्रज्ञा० २९८४ उत्तरासाढाणक्खत्ते-उत्तराषाढानक्षत्रम्। सूर्य १३० उत्तरवेउव्वियं-उत्तरवैर्विकम्, उत्तरमुत्तरकालभवि- | उत्तरित्तए-उत्तरीतुं-लङ्घयितुम्। स्था० ३०९।। नस्वभविनस्वभाविकमित्यर्थः, वैकुर्विकं विकुर्वणं तेन | उत्तरिज्ज- उत्तरीयम्-उत्तरासङ्गः। जम्बू. १८९। भग० निर्वृत्तं वैकुर्विकम्। विशिष्टवस्तू ३१९। वसनविशेषः। भग०४६८1 उपरिकायाच्छादनम्। विशिष्टाभरणसुश्लिष्टतत्परिधान-समीचीनकुङ् ज्ञाता०२७ कुमाद्युपलेपनजनितमतिमनोहारिरामणीयकम्। व्यव० | उत्तरिज्जयं-उत्तरीयकं-उपरितनवसनम्। उपा० ५०| १९५आ। उत्तरवैक्रियम्-पूर्ववैक्रियाऽपेक्षयोत्तर- उत्तरीकरणं- उत्तरकरणं पुनः कालभावि वैक्रियम्। भग०७२ संस्कारद्वारेणोपरिकरणमुच्यते, उत्तरं च तत् करणं च उत्तरवेउव्विया- उत्तरवैक्रिया, तद्ग्रहणोत्तरकालं इत्युत्तरकरणं, अनुत्तरमुत्तरं क्रियत कार्यमाश्रित्य या क्रियते सा। अनुयो० १६३। इत्युत्तरीकरणम्। आव०७७९। उत्तरसत्तासुओ-उत्तरसत्त्वासुकः, उत्तरीयं- प्रावरणं प्रच्छदपटीत्यर्थः। उत्तरीयं पुनर्यत् उत्तरपौरस्त्यवातभेदः। आव० ३८६) तदुपरि प्रस्तीर्यते। बृह. ९८ अ। उत्तरसाढा-उत्तराषाढा, अकम्पितजन्मनक्षत्रम्। आव. | उत्तरोहरोमा-दाढियाओ। निशी० १९० अ। २५५ उत्तरो-उत्तरग्रहणात् संजतसम्मदिद्विग्गहणं। निशी. उत्तरसाला-अत्थानिगादिमंडवो हयगयाण वा साला ६३। उत्तर-साला। निशी० ३९६ अ। उत्ताणग- उत्तानः। आव० ६४८। उत्तानकाः-ऊर्ध्वमुखउत्तरा-उत्तरमथुरा। आव०६८८1 उत्तरवाचाला। आव. | शायिनः। जम्ब० २३९। १९५। उत्तराभाद्रपदा-उत्तराफाल्गुनी “उत्तराषाढा"| | उत्ताणतो- उत्तानकः। उत्त० २४४। जम्बू.५०२। उत्तरमथुरा। आव० ३५६। बोटिकशिव- उत्ताणयं-उत्तानकं-उत्तानीकृतम्। प्रज्ञा० १०७ भूते-भगिनी। आव० ३२४१ मध्यमग्रामस्य तृतीया | उत्तानकम्-ऊर्ध्वमुखम्। उत्त० ६८५। भग० १२५। मूर्छना। स्था० ३९३ उत्ताणा-उत्ताना। स्था० २९९। उत्तरापथे-देशविशेषः। निशी ४४ अ। उत्तानं-स्पष्टम्। प्रज्ञा० ५९९। प्रतलम्। स्था० २७८। उत्तरावक्कमणं-उत्तरस्यां दिश्यपक्रमणं-अवतरणं स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वम्। स्था० २७८१ यस्मात्तद् उत्तरापक्रमणम्-उत्तराभिमुखं पूर्वं तु उत्तारंती-अवतारयन्ती। आव०६७६| पूर्वाभिमुखमासीदिति। भग० ४७७। उत्तरस्यां उत्तारो- उत्तारः-अधस्तादवतरणम्। जीवा० २६९। दिश्यपक्रमणं-अवतरणं यस्त्तत्त-रापक्रमणं जलमध्याबहिर्विनिर्गमनम्। जीवा० १९७) उत्तराभिमखम्। ज्ञाता०५६। उत्तालं-उत्त-प्राबल्यार्थे। इत्यतितालमस्थानतालं वा। उत्तरावह- उत्तरापथः, उत्तरदिग्विभागः। आव. ९९। स्था० ३९६। अनुयो० १३२। उत्-प्राबल्येन अतितालं निशी. ९३आ। उत्तरदिक्सम्बन्धी देशः। आव०८३०, अस्थानतालं वा। जम्बू०४०। जीवा० १९४। २९४१ बृह. २२७ अ। निशी० १६अ। उत्तालिज्जंताणं-आलपनम्। राज०४६। उत्तरासंग-उत्तरासङ्गः, वक्षसि उत्तासणओ-उद्वेगजनकः। स्था० ४६१| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [185] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उत्तासणयं- उत्त्रासनिका-स्मरणेनाप्युवेगजनिका। | उत्थिय-उत्थियः-यूथिकः। भग० ३२४१ भग. १७५ उत्थुमण-अवस्तोभनम्, अनिष्टोपशान्तये निष्ठीवनेन उत्तासिया-उत्तासिता-आस्फालिता। भग. १५४ थुथुकरणम्। बृह. २१५। उत्तिंग-उत्तिङ्गः-पिपीलिकासन्तानकः। आचा० २८५१ | उत्पला- हस्तिनागपुरे भीमस्य भार्या। स्था० ५०७) तृणाग्रः। आचा० ३२२१ रन्ध्रम्। आचा० ३९७। उदगं उत्पलिनीकन्द-पद्मिनीकन्दः। प्रज्ञा० ३७। हत्थादिणा पिहेति। निशी. ६३ आ। किटिकानगरम्। उत्पातनिपातप्रसक्तसंकुचितप्रसारितरेक्करचितधान्तस दशवै०१७५। सर्पच्छत्रादिः। दशवै. २२९। म्धान्तः- एकत्रिंशत्तमो नाट्यविधिः। जीवा० २४७। गर्दभाकृतिजीव-विशेषः, कीटिकानगरं वा। आव० ५७३। | उत्पादपूर्व- प्रथमपूर्वनाम। उत्त० ३४२।। कीलियावासो। निशी० २५५ आ। कीडयणगरगो उत्पादसभा-उत्पादभवनविमानभाविनी सभा। प्रश्न उत्तिंगो, फरुगद्दभो वा। निशी० ८३ अ। १३५ कीटिकानगरम्। बृह. १६६ आ। छिद्र। निशी०६३आ। | उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलं-स्वविषये श्रोतृणां कीडियानगरयं। दशवे. ८० जनितमविच्छिन्न कौतुकं येन तत्तथा। षडविंशतितमो उत्तिंगसुहुम- उतिङ्गसूक्ष्म-कीटिकानगरम्। दशवै. वचनातिशयः। सम०६३। २३० उत्प्रास्यमान-उन्नतमाना-गर्वाध्मातो महता उत्तिण्णो-उत्तीर्णः-अवतीर्णः। ओघ. २० चारित्रमोहेन मुह्यति संसारमोहेन वोह्यत इति। आचा० उत्तिन्न-अवतीर्णः। दशवै. १९५५ २१६। उत्तिमं-उतमम् श्रेष्ठम्। आव० ४८७। उत्प्लुत-भीतः। ज्ञाता० १६१। उत्तिमट्ठो- उत्तमार्थः-अनशनम्। बृह. १०० अ। उत्प्लृत्य-वृद्ध्यागत्वा। सूर्य०४७। उत्तमार्थः-कालधर्मः। आव०६२६। भक्तप्रत्याख्यानम्। उत्सकलय-अनुजानीहि। ओघ०६८1 आव० ५६३ उत्सर्पण- क्रियाविशेषः। आचा० ३६४१ उत्ती-उक्तिः , शब्दकरणम्। आव०४६४। उत्साहः-सूत्रार्थपरावर्तनायामभियोगः। बृह. ११३ आ। उत्तुअणा- उत्तेजना। बृह० ७२ आ। उत्सित्कं- काजिकस्य सौवीरिणीतो यद निष्काशनं उत्तुइउ- (देशी०) गर्वे। व्यव० २१० आ। तत्। बृह० २७५। उत्तुइया- उत्तेजिता। बृह. २७ आ। उत्सूर-वेलातिक्रमः। पिण्ड०७१। उत्तुडियाइ-राज्यादि। आव० ५५५। उत्सृ(च्छ)तम्-प्रासादादि। आव० ८२६) उत्तुपियं-उत्तुपितं-स्नेहितम्। प्रश्न. ५९। उत्सृष्टम्- उत्सर्जनम्-त्यागः। आचा० ३६२। उत्तेड-बिन्दुः। पिण्ड० १० उत्सेधबहुलं-उत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो उत्तेत्ता-अपवर्त्य। आव० ६२४। गृह्यते, ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन उत्थरंत-आस्तृण्वन्-आच्छादयन्। प्रश्न०४७। यथोक्तप्रमाणपलक्षणेन वर्तत इति सादि, उत्थरमाणो-अभिभवन्। आव० १६७ उत्सेधबहलमिति भावः। जीवा० ४२ उत्थल- उन्नतानि-स्थलानि धूल्युच्छ्रयरूपाणि। जम्बू. | उदंक- उदको येनोदकमुदच्यते। जम्बू. १०१। जीवा० १६८1 રા उत्थल्लं-ओघ. १९२ उदंचनम्-अरघट्टघटीनिवहादिभिरुत्सेचनम्। उत्त. उत्था- उत्थानं-मूलोत्पत्तिम्। उत्त०४७५॥ ५९९। पिण्ड० १५३ उत्थाण-अतिसारः। व्यव० २७४ अ। उदंत-सरीरवट्टमाणी, वत्ता। निशी. १३३ अ। उदन्तःउत्थिए- यूथं-सङ्घान्तरं, तीर्थान्तरमित्यर्थः। उपा०१३ | वृत्तान्तः। आव०६१२ उत्थितवादः- उत्थितस्तद्वादः। आचा० २०३। उदंतवाहगो-उदन्तवाहकः, वृत्तान्तवाहकः। आव०५३६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [186] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उदंतवाहतो- उदन्तवाहकः-दूतः। उत्त० १०८। उदइए-उदयः-कर्मणां विपाकः स एवौदयिकःक्रियामात्र, उदयेन निष्पन्नः औदयिकः। भग० ६४९, ७२२१ औद-यिकः-ज्ञानावरणादीनामष्टानां प्रकृतीनामात्मीयात्मीयस्व-रूपेण विपाकतोऽनुभवनमुदयः स एव, यथोक्तेन वोदयेन निष्पन्नः। अनुयो० ११४१ उदई- उदयः-अनुक्रमोदितस्यैवेति। भग० ५१२। अनुक्रमगतानामुदयः। भग० ९७३। उदउल्ल-उदकाः, यद् बिन्दसहितं भाजनादि गलद् बिन्द्-रिति। ओघ० १७०| स्पष्टोपलभ्यमानजलसंसर्ग, अप्काय-म्रक्षितचतुर्थभेदः। पिण्ड० १४९। उदकेनार्द्रः। अनुयो० १६०| गलबिन्दुः। आचा० ३४६, ३७९। उदउल्लादि-उदकार्दादि। आव० ५२ उदए-पर्वगवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। उदयः। ओघ. ११३॥ उदकः-अन्ययूथिकः। भग० ३२३। पेढालपुत्रो निर्ग्रन्थः। सूत्र.४०९| षष्ठ आजीविकोपासकः। भग. ३६९। जलरुहवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३१, ३३। जम्बूदवीपभरते आगामिसप्तमतीर्थंकरः। सम० १५३। तृतीय-तीर्थकृत्पूर्वभवनाम। सम० १५४। उदयः-जीवगतो लेश्या-दिपरिणामः, फलप्रदानाभिमख्यलक्षणं कर्म। उत्त० ३५। उदयः-विपाकवेदनानुभवरूपः। पिण्ड० ४१।। उदकः। प्रश्न. २२ निर्ग्रन्थविशेषः। सूत्र. ४०७) उदएचरा-उदकचराः-उदके चरन्तीति उदकचराः-पूतरक -च्छेदनकलोइडणकरसा मत्स्यकच्छपादयः। आचा. ર૩૮૫ उदकं-जलरुहविशेषः। जीवा. २६। जलरुहभेदः। आचा० दिपर्यायः। दशवै० २०८। पूत्युदकोपमानतः खल्वन्नपानमुप-भोक्तव्यम्। साधोरुपमानम्। दशवै. १९। शिरापानीयम्। दशवै० १५३। उदगगब्भे- उदकगर्भः-कालान्तरेण जलप्रवर्षणहेतुः। भग. १३३॥ उदगजोणिया-उदकस्य योनयः-परिणामकारणभूता उदक-योनयः त एवोदकयोनिका-उदकजननस्वभावा। स्था०१४ उदगणाए- षष्ठाङ्गे द्वादशं ज्ञातम्। उत्त०६१४। उदकंनगरपरिखाजलं तदेव ज्ञातं-उदाहरणं उदकज्ञातम्। ज्ञाता० १० सम० ३६। ज्ञाताया द्वादशमध्ययनम्। आव०६५३ उदगतीरं-उदगागारातो जत्थ णिज्जति उदगं तं उदगतीरं, दूरंपि णज्जति उदगं तम्हा ण होइ तं उदगतीरं, तो जत्तियं णदीपूरेण अक्कमति तं उदगतीरं, अहवा जहिं ठिएहिं जलं दीसति अहवा णदीए तडीए उदगतीरं, अहवा जहिं ठितो जलट्ठिएण सिंचति सिंधुगंगादिणा तं जलतीरं, अहवा जाव-तियं विविओ फुसंति अहवा जावतितं जलेण फडं तं उदग-तीरं। निशी. १६ आ। उदगत्तामा- गौतमगोत्रोत्तरभेदः। स्था० ३९० उदगदोणी-उदगदोणी वा-अरहट्ठस्स भवति जीए अवरिं घडीओ पाणियं पाडेंति। अहवा घरंगणए कट्ठमयी अप्पोदएसु देसेसु कीरइ तत्थ मणुस्सा ण्हावेंति। दशवै. ११०| जलभाजनं यत्र तप्तं लोहं शीतलीकरणाय क्षिप्यते। भग०६९७। उदकद्रोणिः-अरहट्टजलधारिका। दशवै० २१८ आ। उदगपउरो- उदकप्रचुरः-देशविशेषः सिन्धुविषयवत्। बृह. १३८ आ। उदगपडणं-उदकपतनम्। आव० २७३। उदगबिंदु-उदकबिन्दुः। अनुयो० १६१| उदगभाविया-जा, उदके छूढपव्वा सा। निशी० ४६। उदगभासो-उदकभासः-शिवकभुजगेन्द्रस्यावासपर्वतः। जीवा० ३१११ उदगमच्छ-उदकमत्स्यः -इन्द्रधनःखण्डम्। भग० १९६। इन्द्रधनुषः खण्डम्। जीवा० २८३। इन्द्रधन्ःखण्डानि। |وا उदकगृहम्-उदकभवनम्। आचा० ३४१, २३८। उदकप्रतिष्ठापनमात्रक उपकरणधावनोदकप्रक्षेपस्थानम्। आचा० ३४१। उदकरजः- उदकरेणुसमूहः। औप० ४७। जीवा० १९१। उदकार्द्र-बिन्दुसहितं। बृह० २८२ आ। उदग-उदकं। सूत्र० ३०७। अणंतवणप्फई। दशवै. १२० निशी० ७९ अ। उदकम्-अनन्तवनस्पति-विशेषः। दशवै. २२९। नगरपरिखाजलम्। ज्ञाता०१० जलाश्रयमात्रम्। भग० ९२। जनपदसत्यत्वे पथः, उदका १२११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [187] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उदगमाला-उदकमाला-समपानीयोपरिभता माला। | उदयवर्तित्वं- समुदयः, समुदायो वा। प्रश्न० ६३। जीवा० ३२४। उदकशिखा, वेलेत्यर्थः। स्था० ४८० उदयास्तान्तरं-तापक्षेत्रम। जम्ब०४४२ प्रकाशक्षेत्र उदगवलणी- निशी. २४ अ। तापक्षेत्रम्। जम्बू० ४५५५ उदगवारगसमाणं-उदकवारकसमानं उदरपोप्पयं-उदरामर्शनम्। आव०६६। लघुपानीयघटसमानम्। जीवा. १२२ उदरवलिमसं-उदरवलिमांसं, उदरोपरि या वलयाकारा उदगावत्तं- उदकावर्तोदकबिन्दोर्मध्ये अवगाह्य मांसरेखा तस्या मांसं। आव०६७८ तिष्ठेदित्यर्थः। अनुयो० १६१] उदरिं- वातपित्तादिसमुत्थमष्टधोदरं तदस्यास्तीत्युदरी। उदग्ग-उदग्रः-उन्नतपर्यवसानेन उत्तरोत्तरं द्धिमान्। आचा. २३५। उदरी-जलोदरी। प्रश्न. १६१। भग० १२५। उच्चं, समुच्छ्रितशिर इत्यर्थः, प्रधानः, उदवाहा-उदकवाहाः-अपकृष्टान्यल्पान्यदकवहनानि। बहिः। जीवा० ३४३। उदग्र-उच्चः। ज्ञाता०६६। उदग्रः- भग. १९९। तीव्रः। ज्ञाता०७६| उदसि-उदस्वित्। निशी०६अ। उदड्ढे- रत्नप्रभायां अपक्रान्तमहानरकः। स्था० ३६५ उदहिकुमारा-उदधिकुमाराः-वरुणस्याज्ञोपपातवचननिर्देउदतण-उदयणं-उदयगामि, प्रवर्द्धमानं। स्था० ३४२। शवतिनो देवाः। भग० १९९। भुवनपतिदेवविशेषः। उदत्त-तुदत्रम् भूमिस्फोटनशस्त्रविशेषः। आव०८२९। प्रज्ञा०६९। उदात्तः-उन्नतभाववान्। भग० १२५) उदहिकुमारीओ- उदधिकुमार्यः-वरुणस्याज्ञोपपातवचनउदधि-जलनिचयः। स्था० १७७। निर्देशवर्तिन्यो देव्यः। भग. १९९। उदपानं-कूपः। बृह. १८३ अ। उदहिनामाणं- उदधिनाम्नाम्-आर्यसमुद्राणाम्। आचा० उदप्पील- उदकोत्पीलः-तडागादिषु जलसमूहः। भग. ર૬રા. १९९| उदहीसरिसनामाणं- उदधिः-समुद्रस्तेन सदृक्-सदृशं उदब्भेया-उदकोद्भेदः -गिरितटादिभ्यो जलोद्भवः। भग. नाम-अभिधानमेषामुदधिसदृग्नामानि-सागरोपमाणि। १९९| उत्त०६४७ उदय-उदीरणावलिकागततत्पदगलोद्भतसामर्थ्यता। उदाइ-उदायी-कूणिकराज्ञो हस्ती। भग० ३१७) आव० ७७। आयामः। भग० १८७। पनक। भग० १८७। नृपविशेषः। आव०६८७। भग० ६७३, ६७५) पेढालपुत्रः। पावा॑जिनशिष्यः। स्था०४५७। भाविया। | उदाइमारक- साधुवेषधारकः। निशी० २९३ आ। निशी. २६४ आ। उदाइमारय- श्रमणवेषधारको विनयरत्नमनिः। निशी उदयट्ठी- उदयार्थी, लाभार्थी। सूत्र० ३९४। २३आ। उदयण-उदयनः-वीणावत्सराजः। उत्त० १४२ उदाइयाए-असिवं उदाइयाए अभिद्दत। निशी. ९७ अ। उदयणकुमारं- उदयनकुमारं, मृगावतीपुत्रः। आव० ६७। उदात्तं- उदात्तत्वं-उच्चैवृत्तिता। दवितीयो उदयणमाया-उदयनमाता, भावप्रतिक्रमणदृष्टान्ते वचनातिशयः। सम०६३। मृगावती आर्या। आव० ४८५ उदायण-वीतभयराजा। भग०६१८ निशी० १४५अ। उदयनिप्पन्ने-औदयिकभावस्य दवितीयभेदः। भग. शतानीकराजपुत्रः। विपा०६८भग० ५५६। Gરા . अन्तिमराजर्षिः। स्था० ४३०| उदायनः-विगतिद्वारे उदयपहो-उदकपथः, लोकानां जलानयनमार्गः। आव. वीतभयनगराधिपतिः। आव० ५३७ आव० २९८५ ६४०१ सौवीरराजवृषभो राजा। उत्त० ४४८। प्रद्योतराज्ये उदयभासे- वेलन्धरनागराजस्यावासः। स्था० २२६। गान्धर्वविद्याप्रधानः। आव०६७३। उदयवद्दलं-उदकवईलं भाविरेणसन्तापोपशान्तये। आव. विदर्भकनगराधिपतिः। प्रश्न० ८९। अन्तिमराजर्षिः। २३० बृह. १६६अ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [188] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] उदायितकुमारो- उदायिकुमारः-पद्मावतीपुत्रः। आव० ६८३1 | उदीणपाइणं-उदवेग उदीचीनं प्रागेव प्राचीनं उदीचीनं च उदायिनपः- यः कृत्रिमसाधुभिर्मारितः। सूत्र० २५०| आव० | तद्-दीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च तत्प्राच्याः ५२९। सूत्र० ३६५। आचा० ९| प्रत्यासन्नत्वाद उदीचीनप्राचीनम-दिगन्तरं उदायिनृपमारक- श्रमणवेषधारको मुनिः। बृह. २०४ अ। क्षेत्रदिगपेक्षया पूर्वोत्तरदिगित्यर्थः। भग. २०७४ स्था० १८५१ उदीचीनं च तद्दीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च प्राच्याः, उदायिमारगो-उदायिमारकः-श्रमणवेषधारको मुनिः। प्रत्यासन्नत्वादिति। जम्बू० ४८० निशी० ३९ अ, ४१ अ। उदीणवाए- यः उदीच्या दिशः, समागच्छति वातः स उदायी-कूणिकराजस्य हस्तिराजः। भग०७२० उदीचीनवातः। जीवा० २९। यः उदीच्या दिशः समाकोणिकपुत्रः। स्था० ४५६।। गच्छति वातः स उदीचीनवातः। प्रज्ञा० ३०| उदार-उदारं-उद्भटम्। जम्बू० २०३। उदारत्वं-अभि- | उदीर-उदिरिंस ३ उदयप्राप्ते दलिके अन्दितांस्तान् धेयार्थस्यातुच्छत्वं गुम्फगुणविशेषो वा। आकृष्य करणेन वेदितवन्तः ३। स्था० २८९। दवाविंशतितमो वच-नातिशयः। सम०६३। शोभनं। उदीरितवन्तः-अध्यवसायवशेनानुदीर्णोदयप्रवेशनतः। स्था० २३३। प्रधानम्। प्रज्ञा० २३९। स्था० २९५। स्था० १७९ तीर्थंकरगणधरशरीरापेक्षया शेषशरीरेभ्यः प्रधानं, उदीरइ-उदीरयति-प्राबल्येन प्रेरयति, पदार्थान्तरं सातिरेकयोजनसहस्रमानत्वा-च्छेषशरीरेभ्यो महाप्रमाणं प्रतिपादयति वा। भग० १८३ वा। अनुयो० १९६। औदार्यवान्। भग० १२५॥ उदीरण-अनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये उदाला-उदाराः-महान्तः। उत्त०४१९) प्रक्षेपणमिति। स्था० १०१, १९५। उदीरणम्-अनुदितस्य उदाहड-भणिया। निशी०४९ आ। करणविशेषा-दुदयप्रवेशनम्। भग० ५३। उदाहरण-चरितकल्पितभेदम्। आव०५९७ कथनम्। उदीरणाकरणवशतः कर्मपुद् उत्त० ३२२। उदाहरणम् गलानामनुदयप्राप्तानामुदयावलिकायां प्रवेशनम्। साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शन-मुदाहरणं, प्रज्ञा० २९२करणेनाकृष्य दलिकस्योदये दानम्। स्था० दृष्टान्तः। दशवै. ३३ ४१७ उदाहरे- उदाहरेत्-उदाहृतवान्। उत्त० २४१। उदीरणा-अप्राप्तसमये उदयप्रापणं सैव उदीरणा। जम्बू० उदाह-उताहो निपातो विकल्पार्थः। भग०१७ भग० २३७ | १६८ अप्राप्तकालफलानां कर्मणामदये प्रवेशनम्। स्था. उक्तवान्। आचा० १२८ आहोश्वित्। उपा० ३८1 २२११ उदिए-उदितः उदयं प्राप्तः, स्थित इत्यर्थः। जम्बू. ५२८१ | उदीरणाभवियं-उदीरणाभविकम्-तत्र भविष्यतीति भवा उदिओदए-उदितोदयः, कायोत्सर्गदृष्टान्ते राजा। आव. | सैव भविका, उदीरणा भविका यस्येति, उदीरणायां वा ७९९। पारिणामिकीबुद्धौ पुरिमतालपुरे राजा। आव० भव्यं-योग्यमदीरणाभव्यमिति। भग० ५८ ४३०। उदितोदितः-पुरिमतालनगराधिपतिः। विपा० ५८५ उदीरिए-उदीरणम्-स्थिरस्य सतः प्रेरणम्। भग. १८1 श्रीकान्तापतिः। नन्दी. १६६। उदीरणा-उदीरणा नाम अनदयप्राप्तं चिरेणाऽऽगामिना उदिक्खंते- प्रतीक्ष्यमाणः। बृह. ११६ आ। कालेन यद्वेदयितव्यं कर्मदलिकं तस्य उदिण्णं-उदीर्णम्-पीडितम्। आव० ८६३। विशिष्टाध्यवसायलक्षणेन करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणं। विपाकोदयमाग-तम्। प्रज्ञा० ४०३। भग०१५ उदिण्णं-उदीर्णम्-स्वत उदीरणाकरणेन वोदितम्। भग० उदीरिय-उत्-प्राबल्येनेरित-प्रेरितं उदीरितं। जीवा.१९२ ९० उदीरिया-उदीरिताः-स्वभावतोदितान् पद उदिण्णमोह-उदीर्णमोहः-उत्कटवेदमोहनीयः। भग. गलानदयप्राप्ते कर्मदलिके करणविशेषेण प्रक्षिप्य यान् २२३ वेदयते। भग २४। उदीरिता-उदयमुपनीता, वेदिता। भग० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [189] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] १८५ बृह० १०० अ। दुविधा दरावण्णदरा य पोट्टदरा य, ते ऊद्धं उदीरेंतं- उदीयरन्तं-वस्त्वन्तरं प्रेरयन्तम्। स्था०३८५। पूरति जत्थ तं उद्दद्दरं-सुभिक्खं। निशी. २२६ अ। उदीरेइ- उदीरयति-भणति, प्रवर्तयति। स्था० १९७५ उद्दवणं-उत्थानं-नाशः। बृह० ७९ अ। उदुम्बर-द्वितीयं महाकुष्ठम्। प्रश्न० १५१| उद्दवण-उपद्रावणम्-अतिपातविवर्जिता पीडा। पिण्ड. महाकुष्ठविशेषः। आचा० २३५ ३७ कर्मविपाकस्याष्टममध्ययनम्। स्था० ५०८। उद्दवणकर-मारणान्तिकवेदनाकारि खाद्यवृक्षविशेषः। आव० ८२८१ धनहरणादयुपद्रवकारि वा। औप०४२ उदुम्बरदत्त-सागरदत्तसार्थवाहसुतः। स्था० ५०८। उद्दवणया-कूटपाशधारणता। भग. ९३। विज्जाए सप्पो उदुरुसेज्जा-रुष्येत्। निशी० ४९ आ। अन्यत्र नीयते। निशी० ३३५अ। उदुसुहं- ऋतुसुखं, ऋतुशुभं वा-कालोचितम्। प्रश्न० १४१। | उद्दवणा-उपद्रवणमपद्रवणं वा। प्राणवधस्य नवमः उदू, उडू-विमासप्रमाणकालविशेष ऋतुः। स्था० ३६९। पर्यायः। प्रश्न. ५ उदुखल-काष्ठनिमित्तं खण्डनोपयोगि शस्त्रम। उद्दवातितगणे- गणविशेषः। स्था० ४५१। भग०२१३। आचा० ३४४ उद्दविया-अवद्राविताः-उत्त्रासिताः। आव. १७४। उदूरुढो- पडिनियत्तो। निशी. १८४ अ। मारिताः। भग०७६६| उदो-उदः-म्लेच्छविशेषः। चिलातदेशनिवासी। प्रश्न.१४। | उद्दति-अपद्रावयन्ति-जीविताद व्यपरोपयन्ति। प्रज्ञा. उद्गमनप्रविभक्ति-चन्द्रसूर्ययोरुगमनं-उदयनं ५९३ तत्प्रवि-भक्तीरचना तदभिनयगर्भ यथा उदये उद्दवे-उपद्राव्य। उत्त० २०७१ सूर्यचन्द्रयोर्मण्डलमरुणं प्राच्यां चारुणः प्रकाशस्तथा उद्दवेह-विनाशयत। उपा०४९। यत्राभिनीयते तद्गमनप्रवि-भक्ति। षष्ठो उद्दवेहिइ-अपद्रावयिष्यति-उपद्रवान् करिष्यति। भग. नाट्यविधिः। जम्बू०४१६) ६११ उद्गीण- वान्तम्। उत्त० ३३९। उद्दाइंता- शोभमाना। ज्ञाता०२७। उग्राहितं-मेलितम्। नन्दी. १५९। उद्दाइ-उद्ददाति-रचयति। भग. ९३। उदयाति-जलस्योउदघाटितः- प्रकाशितः, प्रकटितः। स्था०४१२। परि वर्तते। भग०१८४१ अपद्रवति-म्रियते। भग० १११| उद्घाटितज्ञः- प्रथमो विनेयः। प्रज्ञा० ४२५ उद्दाइआ-उपद्राविका, उपद्रवकारिणी। ओघ. १७। उपउघेट्टका-उड्डुच्चका। बृ-०६० आ। द्रोत्री। ओघ० १५१ उदंडगा-ऊद्र्ध्वकृतदण्डाः ये सञ्चरन्ति। भग. ५११| | उद्दाइत्ता-अपहृत्य-मृत्वा। भग० १११। अपद्राय-मृत्वा। उद्दडपुर-नगरनाम। भग०६७११ स्था० ४७१। अवद्राय-मृत्वा। जीवा० २६२। जम्बू० ४२५ उदंडा-ऊर्ध्वकृतदण्डा ये संचरन्ति। निर०२५१ उद्दाणं- उदाणं, वैधव्यम्। आव० ४३७। उदंडुको-जनोपहास्यः । बृह. २४२ अ। उद्दाणगं-मृतकम्। आव० ७०० उइंस-त्रीन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९५) उद्दाणभत्तारा-अपद्राणभतृका, भत्तारेण परिठविता। उइंसगा-त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२ निशी० १०९ आ। उइंसे-उदंशः। आव. २१७। उद्दाणि- उद्राः-सिन्धुविषये उदए मारणंतिए-उदये मारणान्तिके वेदनोदये मारणा- मत्स्यास्तत्सूक्ष्मचर्मनिष्पन्नानि उद्राणि। आचा० ३९४१ न्तिकेऽपि न क्षोभः कार्यः। योगसंग्रहे एकोनत्रिंशत्तमो | उद्दाम-उद्दामः-चरणनिपातजीवोपमईनिरपेक्षत्वाद् योगः। आव०६६४१ द्रुतचारी। अनुयो० २६॥ उद्दद्दरं-सुभिक्खं। निशी० ८९। सुभिक्ष। निशी० ३१५ | उद्दामिया- उद्दामिता-अपनीतबन्धना, प्रलम्बिता। विपा० अ। ऊद्र्ध्वदरं ते दरा ऊद्र्ध्वं यत्र पूर्यन्ते तद्ध्वदरम्। | ४६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [190]] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उद्दायंति-अपद्रान्ति-प्राणैर्विमुच्यन्ते। आचा० २१७। उद्दित्ता-प्रज्वालितः। बृह. ६१ आ। उद्दायणं-वीतभयणगरे राया। निशी० ३४६ आ। उद्दिसति-उवसंपज्जते इत्यर्थः। निशी० २९१ आ। उद्दाल-उवदालः, विदलनं, पादादिन्यासे अधोगमनम्। उद्दिसियवत्थं- गुरुसमक्षं उद्दिष्टं-प्रतिज्ञातं वस्त्रं विदलनम्। जीवा. २३२। राज०९३। उद्दिष्टवस्त्रम्। बृह. ९७आ। उद्दालक-एकोरुकद्वीपे वृक्षविशेषः। जीवा० १४५ उद्दिस्स-उदिश्य, उद्दिशति। आचा० ३२५१ उद्दाला-उद्दालाः, द्रमविशेषः। जम्बू. ९८१ उद्दिस्सपविभत्तगती-उद्दिश्यप्रविभक्तगतिः-प्रविभक्तं उद्दालिओ- उद्दालितः-बलाद्गृहीतः। आव०७१७) प्रतिनियतमाचार्यादिकमुद्दिश्य यत्तत्पार्वे गच्छति अपहृतः। उत्त०३०१ सा। विहायोगतेस्त्रयोदशो भेदः। प्रज्ञा० ३२७। उद्दावणया-उत्त्रासनम्। भग० १८४| उडूढ- मुषितम्, (देशी०)। बृह० १०५। निशी० २२७ अ। उद्दावो-उद्दावः-स्थानान्तरेष्वदयाप्यसकामितः। जीवा. | उडूढसेस-जं लूटागेहिं अप्पणट्ठा बाहिं णिणीतं तं भोत्तुं ३५५ सेसं छड्डियं| निशी. २०आ। उद्दाह-प्रकृष्टो दाहः। स्था० ५०८। उद्देस-उद्देशः-अध्ययनैकदेशभूतम्। दशवै०७१ उद्दिक्खाहि-प्रतीक्षस्व। निशी. ३२२ अ। वाचनासूत्र-प्रदानम्। व्यव. २६ अ। उद्दिश्यते इति उद्दिह-यावदर्थिकाः पाखण्डिनः श्रमणान्-साधून उद्दिश्य उपदेशः, सदस-त्कर्तव्यादेशः। नारकादिव्यपदेशः दुर्भिक्षापगमादौ यद्भिक्षावितरणं तदौद्देशिकमुद्दिष्टम्। उच्चावचगोत्रादिव्यपदेशो वा। आचा० १२४ प्रश्न. १५३। उद्दिष्टम्-स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं । गुरुवचनविशेषः। अनुयो० ४। यावदर्थि-कादिप्रणिधानम् भिक्षाचराणां दानाय यत् पृथक्कल्पितं तत्। पिण्ड० ७७ । पिण्ड० ३५] उद्देशनमुद्देशः-सामान्या-भिधानरूपः। उद्दिद्वसरूवेण ओभासंति। निशी. १६३ अ। भासति। अनुयो. २५७। उद्देशकः-द्वीपसमुद्रोद्देशकावय-वविशेषः। निशी. १६३ आ। वस्त्रैषणायाः प्रथमो भेदः। भग०७६९। अध्ययनार्थदेशाभिधायी अध्यय-नविभागः। आचा०२७७। उद्दिष्टा-अमावास्या। भग० १३५ भग० ५। सामान्याभिधानमध्ययनम्। आव० १०४। गुरोः उद्दिद्वआदेसं-समणा निग्गंथ सक्क तावसा गेरुय सामान्याभिधायि वचनम्। उत्त०७३। उद्देसो आजीव एतेस उद्दिद्वआदेसं भण्णति। निशी० २३० आ। अभिनवस्स। निशी० २२३ आ। अविसेसिओ उद्देसो। उद्दिभत्तं- उद्दिष्टभक्तं-दानाय परिकल्पितं निशी० १०८ अ। क्षेत्रकालविभागः। बृह. २६९। यद्भक्तपानादिकं तत्। सूत्र० ३९९। उद्देसग-उद्देशकः-त्रीन्द्रियजत्विशेषः। जीवा० ३२ उद्दिभत्तपरिणाए- उद्दिष्ट-तमेव श्रावकमुद्दिश्य कृतं । उद्देसणंतेवासी-उद्देशनान्तेवासी। स्था० २४० भक्तं-ओदनादि उद्दिष्टभक्तं तत्परिज्ञातं उद्देसणकाला- उद्देशनकालाः-उद्देशावसराः श्रुतोपचारयेनासावुद्दिष्टभक्तप-रिज्ञातः, श्रमणोपासकस्य दशमी रूपाः। सम०४६| प्रतिमा। सम. १९। उद्देसणायरिय-उद्देशनाचार्यः, आचार्यविशेषः। दशवै. ३१| उद्दिद्ववज्जए-उद्दिष्टवर्जकः, श्रावकस्य दशमी प्रतिज्ञा। उद्देसणायरिए-उद्देशनम्-अङ्गादेः पठनेऽधिकारित्वकरणं आव०६४६। तत्र तेन वाऽऽचार्यः-गुरुः उद्देशनाचार्यः। स्था० २४०। उद्दिद्वसमादेसं-णिग्गंथा-साहू। निशी० २३० आ। | उद्देसिअ-उद्दिश्य कृतम् औदेशिकम्-उद्दिष्ट-कृतकर्माउद्दिहा- उद्दिष्टा-यस्याः स्थापनायाः उत्कृष्टा आरोपना दिभेदम्। दशवै. १७४। ज्ञामिष्टा सा इप्सिता। व्यव० ७५आ। अमावास्या। उद्देसिअचरिमतिग-उद्देशचरमत्रितयम्, औद्देशिकस्य जीवा० ३०५। स्था० २३७। राज० १२३। उपदिष्टा। औप. पाख-ण्डश्रमणनिर्ग्रन्थविषयम्। दशवै० १६२ १०० विपा०९३। कथिताः। उत्त०२२९। उद्देसियं-उद्दिस्सं कज्जइ तं उद्देसियं, साधुनिमित्तं उद्दिवाओ-उद्दिष्टाः-सामान्यतोऽभिहिताः। स्था० ३०८५ आरंभो। दशवै. ५०| इह यावन्तः केचन भिक्षाचराः उद्दिहो- उद्दिष्टः-प्रतिपादितः। सूत्र. १७६) समागच्छन्ति तावतः सर्वान उद्दिश्य यत् क्रियते तत्। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [191] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] बह ८३। औद्देशिकं-विभागौद्देशिकप्रथमो भेदः। इह उघड-उद्धृता, स्थालादौ स्वयोगेन भोजनजातमद्धतम्। यत् उद्दिष्टं कृतं कर्म वा यावन्तः केऽपि भिक्षाचराः तृतीया पिण्डैषणा। आव० ५७२ जत्थ उवक्खडियं समागमिष्यन्ति पाख-ण्डिनो गृहस्था वा तेभ्यः भायणे ताओ उद्धरियं छप्पगादिसु एस उद्धडा। निशी. सर्वेभ्योऽपि दातव्यमिति सङ्कल्पितं भवति तदा तत्। पिण्ड० ७९। शबलस्य षष्ठो भेदः। सम० ३९। औद्देशिकं- उद्धतरेणुयं-उद्धतरेणुकं-ऊर्ध्वगतरजस्कम्। जं०१४५ यावदर्थिकादिप्रणिधानेन निर्वृत्तं, दवितीय उद् उद्धत्त-औद्धत्यम्-अहङ्कारः। उत्त०५२६) गमदोषः। पिण्ड० ३४। औद्देशिकं-अर्थिनः पाखण्डिनः उद्धत्तमणहारिणो-औद्धत्यं-अहङ्कारस्तत्प्रधानं मन श्रमणान्निर्ग्रन्थान् वोद्दिश्य दुर्भिक्षात्ययादौ यद्भक्तं औद्धत्यमनस्तद्धरणशीलाः औद्धत्यमनोहारिणःवितीर्यते तत्। स्था० ४६६। साध्वकल्प्यमशनादि। अत्यन्त शान्तचित्तवृत्तयः, यतय इत्यर्थः। उत्त. दशवै० २०३। उद्दिष्टंप्राक् सड़कल्पितम्। आचा० ३९५१ ५२६। उद्देसुद्देसं-उद्देशः-अध्ययनविषयः-तस्य उद्देशः उद्देशो- उद्धपुरीया-ऊर्ध्वपुरीततः-ऊर्ध्वंगतान्त्राः। प्रश्न. ५६। द्देशः आव० १०६। उद्धपूरित- ऊर्ध्वपूरितः-श्वासपूरितोद्र्ध्वकायः ऊो वा उद्देहगणे- गणविशेषः। स्था०४५१। स्थितो धूल्या पूरितः। प्रश्न० ५६। उद्देहलिका-भूमिस्फोटकविशेषः। आचा० ५७) उद्धमंताणं- यथायोगमुद्धमायमानादिषु। राज०४६। उद्देहिका-काष्ठनिश्रितो जीवविशेषः। आचा० ५५ | उद्घमुइंगागार-ऊर्ध्वमृदङ्गाकारः-मल्लकसम्पुटाकारः। उद्देहिगा-उद्देहिकाकृतवल्मीकमृत्तिका। पिण्ड० २०| भग० २४९। उद्देहिया-उद्देहिकाः, जन्तुविशेषः। ओघ० १२६। त्रीन्द्रि- | उखम्ममाणं-उत्पाट्यमानम्। प्रश्न ५० उत्पाद्यमानम् यजीवविशेषः। उत्त०६९५ त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा. | । प्रश्न० ६२ ३२। प्रज्ञा० ४२ उद्धरंति-उत्पाटयन्ति। ओघ. २२७। उद्दोहक-उद्दोहकः-घातकः। उद्दहको वा-अटव्यादि- उद्धरणं- उद्धियते-उत्तरपरिकर्म क्रियते। आव० ७६४। दाहकः। प्रश्न० ४६| उद्धरुट्ठो-तीव्ररोषः रोषकाले। आव० ६३२१ उद्धसणं-निर्भर्त्सनम्। बृह. ९० अ। उद्धरेण-स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्चलनधर्मो जालउद्धंसणा-उद्धंसना, उद्धलना-आक्रोशः। ओघ०४५ | प्रविष्टसूर्यप्रभाभिव्यङ्ग्यो रेणुरूर्ध्वरेणुः। जम्बू० ९४। प्रवचनविषया हीला। बृह० १८० आ। दुष्कुलीनेत्यादिः उद्धलोगवत्थव्वा-ऊर्ध्वलोकवासित्वं-समभूतलात् कुलायभिमानपातनार्थः। ज्ञाता० २००। पञ्चशतउद्धसणाओ- अवहेलनाः। आव०६५। योजनोच्चनन्दनवनगतपञ्चशतिकाष्टकूटनिवासित्वम् उद्धंसणाहि-दुष्कुलीनेत्यादिभिः | जम्बू० ३८८५ कुलाद्यभिमानपातनाथै-र्वचनैः। भग०६८३। उद्धसियरोमकूवो- उर्दूषितरोमकूपः। आव० ५१३। उद्धंसणो- वधः। ओघ. २१५ उद्धाइओ-उद्घावितः। आव २०६, १९२। अवधावितः। उद्धंसिया- खरंटियाणि। निशी. २१२ आ। उद्धर्षि-ता- आव०५१३ खरंटिता। बृह. २१७ अ। ओभासिया। निशी. १९५अ। | उद्धाइया-उद्धाविताः। उत्त० १००| वेगेन प्रसृताः। उत्त० उद्ध-ऊर्ध्वं। जम्बू० ४६२। नन्दी० १५४१ ३६४१ उद्धघणभवण-ऊर्ध्वघनभवनानि-उच्चाविरलगेहानि। उद्घाईया- उद्धाविताः सन्नह्यगताः। उत्त० १७९) जम्बू. १४४ उदायमाणो-उत्तिष्ठन्। प्रश्न०६२। उद्धावमाण:उखट्टा-उवउट्टा-ध्राताः। निशी० १५२ अ। प्रवर्द्धमानः। ज्ञाता०७० उखट्ट- उद्धृत्य। आचा० ३७७ उद्धारपलिओवमे-तत्र वक्ष्यमाणस्वरुपवालाग्राणां उदहाणं-कायोत्सर्गम्। निशी० ११३ आ। तत्खण्डानां वा तद्द्वारेण दद्वीपसमुद्राणां वा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [192] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] प्रतिसमयमुद्धरणं-अपोद्धरण-मपहरणमुद्धारः तद्विषयं | स्थित्यादेवृद्धिकरणस्व-रूपम्। भग० २५ तत्प्रधानं वा पल्योपममुद्धारपल्यो-पमम्। अनुयो० १८० | उद्वतनकरणं-करणविशेषः। भग० २४, ९० उद्धावणं-कार्यस्य निष्पादनम्। व्यव. १७२ अ। उदवर्त्य-निष्क्रम्य। आव. १७७। उद्धिअ-उद्धृतः-देशान्निर्वासितः। जम्बू. २७७। उद्वसं- शून्यम्। उत्त० १०९। उद्धिय-उद्धृता-निष्काशनम्। स्था० ४६३। उद्वसितगृह- शून्यागारम्। उत्त० ६६५) उद्धी-उद्धिः। जम्बू०४५४। 'मेलित्त् पण्हियाओ चलणे | उद्वालयन्-आलोडयन्। दशवै० १८१ वित्थारिऊण बाहिरओ। ठाउस्सग्गं एसो बाहिरउद्धी उन्न-और्णिकः। स्था० ३३८५ मुणे-यव्वो। अंगुटे मेलविउ वित्थारिय पण्हियाओ बाहिं | उन्नए-उन्नतः। सम०७१। तु। ठाउ-स्सग्गं एसो भणिओ अभितरुद्धिति। आव. उन्नतमणे-उन्नतमणाः-प्रकृत्या औदार्यादिय्क्तमनाः। ७९८१ स्था. १८३ उद्धीमुहकलंबुआपुप्फसंठिता- ऊर्ध्वमुखकलम्बुकपुष्पसं- | उन्नतरूवे-संस्थानावयवादिसौन्दर्याद् उन्नतरूपः। स्था० स्थिता- ऊर्ध्वमुखस्य कलम्बुकापुष्पस्येव-नालिका पुष्प- १८३ स्येव संस्थितं-संस्थानां यस्याः सा। सूर्य०६७। उन्नतावत्ते-उन्नतः-उच्छ्रितः स चासावावतश्चेति उद्धअ- इतस्ततो विप्रसृतः। जम्बू० ५१। जीवा० १६०, उन्नतावतः। स्था० २८८ २०६। उन्नय- उन्नतं-अङ्गुलिपर्वाणि। ओघ० १७१। गुणवन्ति, उद्धृताए-उद्धृतया-दातिशयेन। भग. ५२७। उच्चानि च। ज्ञाता०३| उम्ममाणं-उत्पाद्यमानम्। औप० ४७) उन्नयनं- शृङ्गारविशेषः। जम्बू. ११६| उद्धृय- उद्धृतः-उद्भूतः। औप० ५। इतस्ततो विप्रसृतः। सूर्य | उन्नयमाणे-उन्नतमानः, उन्नतो २९३। उद्भूतः। भग० ५४०। उद्भूता-वायुना। ज्ञाता०८० | मानोऽस्येत्युन्नतमानः, उन्नतं वाऽऽत्मानं मन्यत उद्धृयाए- उद्भूतया-वस्त्रादीनामुद्भूतत्वेन, उद्धतया वा। इति। आचा० २१५ सदर्पया। भग. १६७ उन्नाडीओ-निशी. ११२ अ। उद्धव्वमाणं-उत्पाद्यमानम्। औप०४७। उन्नात- महाविदेहे नगरविशेषः। निर०४२। उद्धसियं-रोमाञ्चितम्। उषितम्। निशी० ३१५ आ। उन्नामओ-ऊर्णामयः। आव०४१८१ उध्य-उद्धृतः। आव० ५२०। उन्नामिज्जंते-उन्नाम्यते ऊर्ध्वमुत्क्षिप्यते। जीवा. उलिता-सरक्खा। निशी० ३२४ आ। ३०७ उद्भिज्जत्वं-सम्मूर्छजत्वम्। स्था० ११४। उन्नामिज्जइ(ए)-उन्नामितः-उत्क्षिप्तः, प्रसिद्धि गत उद्भामक- उद्यतविहारी। व्यव० १६८ अ। इति यावत्। अनुयो० १४३॥ उदधामकभिक्षाचर्या बहिर्गामेष भिक्षार्थं पर्यटनम्। बृह. | उन्निद्रीकृतं-बोधितम्। जीवा. २७१। २०६ आ। उन्निय-और्णिकम्। स्था० ३३०| उद्यतकं-उच्छिन्नम्। प्रश्न. १५४। पामिच्चं, उन्मग्नजला-नदीविशेषः। स्था०७१। भिक्षादोषः। आचा० ३२९। उपकारिका- राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीनां उद्यतविहारेण-मासकल्पादिना। उत्त० ५८७ पीठिका। जीवा० २२० उद्यानि-प्रतिश्रोतोगामिनी सा। व्यव० २५आ। उपकार्योपकारिका- राज्ञामुपकार्योपकारिका। जम्बू. उयुक्तः - परायणः। आव० ५८७) ३२९| जीवा० २२२ उद्राः- सिन्धुविषये मत्स्यास्तत्सूक्ष्मचर्मनिष्पन्नानि। उपगतश्लाघं-उपग्रतश्लाघत्वंआचा० ३९४१ उक्तगुणयोगात्प्राप्तश्लाघता। चतुर्विंशतितमो उद्वर्तनं-निष्क्रमणम्। आचा०६९। वचनातिशयः। सम०६३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [193] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) उपगूहनं परिष्वजनम्। निशी० २५६ आ उपघसरं निर्द्धमनम् । ओघ० १६२ | उपचयद्रव्यमन्दः- यः परिस्थूस्तरशरीरतया गमनादिव्यापारं कर्तुं न शक्नोति । बृह० ११३ अ । उपचयभावमन्द:- यो बुद्धेरुपचयेन यतस्ततः कार्य कर्तु नोत्सहते । बृह० ११३ अ । उपचारोपेतं - उपचारोपेतत्वं अग्राम्यता । तृतीयो वचना तिशयः । सम० ६३ | उपचियमंसो- बल्लियसरीरो निशी० २६६ आ उपदर्शना- जम्बूद्वीपनीलवर्षधरपर्वते नवमकूटः स्था आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) ७२ उपदिष्टा महाकल्याणकसम्बन्धितया पुण्यतिथित्वेन प्रख्याता तथा पौर्णमासीषु च तिसृष्वपि चतुर्मासकतिथिष्वित्यर्थः । सूत्र. ४०८१ उपधानकं - द्रव्योपधानम् । आव० ६६८ | बिब्बोयणा । विव्वोयणा, तपनीयमय्यो गण्डोपधानकाः । जीवा० २३१ | उपनीतरागं- उपनीतरागत्वं-मालकोशादिग्रामरागयुक्ता । सप्तमो वचनातिशयः । सम० ६ उपबृंहयन्- अनुमोदयन् । जाता० १८० उपमानं दृष्टान्तः। ओघ १७ श्रुतातिदेशवाक्यस्य समानार्थोपलम्भने संज्ञासंज्ञिसम्बन्धजानमुपमानम्। स्था० २६२॥ उपयुक्तद्रव्यसम्यक्- यदुपयुक्तं अभ्यवहतं द्रव्यं मनःसमाधानाय प्रभवति तत् । आचा० १७६ । उपरतकायिकी - अप्रमत्तसंयतस्योपरतस्य सावद्ययोगेभ्यो निवृत्तस्य क्रिया । कायिकीक्रियायास्तृतीयो भेदः आव० ६११ । उपरितनक्षुल्लकप्रतराः तत्र तिर्यग्लोकमध्यवर्तिनः सर्वलघुरज्जुप्रमाणात् क्षुल्लकप्रतरादारभ्य यावदधो नव योजनशतानि तावदस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां ये प्रतराः ते उपरितनक्षुल्लकप्रतराः । नन्दी० ११० | उपरिमाण - उपरितना। आव० ६४७ । उपलिंपति- घटकमुखस्य तत्पिधानकस्य च गोमयादिना रन्ध्रे भञ्जन्ति । ज्ञाता० ११९| उपवस्तुं - उपवासन् कर्तुम् । पिण्ड० १६७ उपवेंतो- उपागच्छन्, आगच्छन्। आव० ४३४ | उपशमनिष्पन्नः- उपशान्तक्रोध इत्यादि मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] उदयाभावफलरूप आत्मपरिणाम इति भावना । स्था ३७८1 उपशान्ता प्रदेशतोऽप्यवेदयमानाः कषायाः स्था० १५१ उपश्रा- द्वेषः । व्यव० ७ अ । उपसंप- उपसम्पत्-उपसम्पत्तिः-प्राप्तिः । भग० ९०४ | उपसंपदालोचना - आलोचनाया द्वितीयो भेदः । व्यव० ४८ आ उपसङ्घात- अनिष्टरूपस्तूपसङ्घातः । नन्दी० १७१ | उपस्थं उपस्थितम् । व्यव० २२२आ। उपस्थापयितुं उत्स्थापनाकरणतः व्यव० २१५ अ उपस्पृशति - वस्त्राणि प्रक्षालयति । आव० ४३४१ उपहितं- भोजनस्थाने ढाँकितं भक्तमिति भावः । स्था० १४८ | उपादानकारणं - मृदादि । स्था० ४९ । उपाधिः- उपाधानमुपाधिः सन्निधिः । भग० ४१ उपाया– व्याख्याङ्गानि । आचा०८२ उपायोपेयभावलक्षण- वचनरूपांपन्नं प्रकरणमुपायः तत्परिज्ञानं चोपेयम्। प्रज्ञा० रा उपार्श्वभाग- पोषचतुर्थभागः । आचा० ३२६ ॥ उपालंभ उपालम्भः विनेयस्याविहितविधायिनः । ज्ञाताः ७७ । उपालक– निर्व्यूहः, गवाक्षः । व्यव० १३३ अ उपैति - करोति । आचा० २१७ | उपोद्घातनिर्युक्तिः– निर्युक्तिभेदः। स्था० ६। उप्पइयं- उत्पत्तिकं-उद्भूतम्। उत्त० ११९। उप्पज्जंते- उत्पद्यन्ते, एतत्प्रभावात् स्फातिमद्भवन्ति । जम्बू० २५८ | उप्पज्जमाणकालं उत्पद्यमानकालं आदयसमयादारभ्यो- त्पत्त्यन्तसमयं यावदुत्पद्यमानत्वस्येष्टत्वाद् वर्तमान भवि. ष्यत्कालविषयं द्रव्यम्। भग०१८ उप्पडा - त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ ॥ उप्पण- उत्पन्नं विधिना प्राप्तम् । दशवै० १८१ । उप्पण्णमिस्सिया उत्पन्नमिश्रिता उत्पन्ना मिश्रिता अनुत्पन्नैः सह सङ्ख्या पूरणार्थं यत्र सा सत्याभूषाभाषायाः प्रथमो भेदः प्रज्ञा० २५६ उप्पत्ति- उत्पत्तिः- निदानम्। व्यव० ९१ अ [194] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] ११६ उप्पत्तिअं-पर्वतिथिमन्तरेणाकस्मिकं भोज्यम्। ब्रह. गन्धद्रव्यविशेषः। ज्ञाता०१२९। उत्पलं-नीलोत्पलादि। १९२ । दशवै. १८५। उत्पलं-कुष्ठम्। जम्बू. ११७। उप्पत्तिआ-उत्पत्तिरेव न उप्पलंग-उत्पलाङ्ग-चतुरशीतिहूंहुकशतसहस्राणि। शास्त्राभ्यासकर्मपरिशीलनादिकं प्रयोजनं-कारण यस्याः जीवा० ३४५। कालविशेषः। स्था० ८६। उत्पलाङ्गः, सा औत्पत्तिकी। नन्दी. १४४। कालविशेषः। सूर्य ९१। भग० ८८८1 उत्पलाङ्गं उप्पत्तिकसाय-द्रव्यादेर्बाह्यात् कषायप्रभवः तदेव चतुरशीत्या लक्षहूं-हुकैः। अनुयो० १००/ कषाय-निमित्तत्वात् उत्पत्तिकषायः। आव० ३९। उप्पलगुम्मा-उत्पलगुल्मा, पुष्करिणीनाम। जम्बू० ३३५, शरीरोपधिक्षे-त्रवास्तुस्थाण्वादयो यदाश्रित्य ३६० तेषामुत्पत्तिः। आचा०९१। उप्पलनालं-उत्पलनालं-उत्पलं-नीलोत्पलादि नालंतउप्पत्तिया-औत्पत्तिकी-उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः स्यैवाधारः। आचा०३४८। सा, बुद्धिविशेषः। आव०४१४उत्पत्तिकी उप्पलपउमोपसोभिता-उत्पलपद्मोपशोभिता। आव०८१९| अदृष्टाश्रुतानन्-भूतविषयाकस्माद्भवनशीला। राज. उप्पलबेटिया-उत्पलवृन्तानि नियमविशेषात् ग्राह्यतया भैक्षत्वेन येषां सन्ति ते उत्पलवृन्तिकाः। औप० १०६) उप्पत्ती-उत्पत्तिकरः स्वकल्पनाशिल्पनिर्मितः उप्पलयं-उत्पलकं-गर्दभकम्। जीवा० १८२ शतरूपकादिः। आव० ४९९। आरम्भमात्रम्। स्था० २८५) उप्पलहत्थगा-उत्पलाख्यजलजकस्मसमूहविशेषाः। सामान्यतो या च विशेषतः। स्था०४४९। जम्बू० ४४। उत्पलाख्यजलजकुसुमसङ्घातविशेषाः। उप्पन्न-उत्पन्नविषया-सत्यामषाभाषाभेदः। राज०८1 दशवै.२०९। उप्पलहत्थय- उत्पलहस्तकः-उत्पलाख्यजलजकुसुमसउप्पन्नमीसते-उत्पन्नविषयं मिश्र-सत्यामृषा उत्पन्न- मूहविशेषः। जीवा. १९९। मिश्रं तदेवोत्पन्नमिश्रकम्। स्था० ४८९। उप्पला-पिशाचेन्द्रकालस्य तृतीयाग्रमहिषी। स्था० २०४। उप्पयते-भूतलादुत्पततः। ज्ञाता०४६) पुष्करिणीविशेषः। जम्बू० ३६० उप्पयनिवयं-उत्पातः-आकाशे उल्ललनं निपातः-तस्मा- | उप्पलाइं- गईभकानि ईषन्नीलानि वा। जम्बू. २६) दवपतनं उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् तदुत्पातनिपातम् उप्पलावए-उत्प्लावयति। दशवै. २०५। । दिव्यनाट्यविधिः। जम्बू०४१२। उप्पलुज्जला- उत्पलोज्ज्वला, पुष्करिणीनाम। जम्बू उप्पराउ-उपरितः-उपरिष्टात्। दशवै० ३८॥ ३३५, ३६० उप्परामुहो- उपरिमुखः। आव० १८१। उप्पलुद्देसए-उत्पलोद्देशकः-एकादशशते प्रथमः। भग. उप्पराहुत्तो-उपरिभूतः। आव० ५०२। ९६६। उप्पलं-उत्पलं-नीलोत्पलादि। आचा० ३४८। चतुरशी- उप्पह-उत्पथः-उन्मार्गः। उत्त०५४८ परसमयः। स्था. तिरुत्पलाङ्गशतसहस्राणि। जीवा० ३४५) गर्दभकम्। २४१। राज०८1 जीवा. १७७। उत्पलकृष्ठं, नीलोत्पलं वा। उप्पा-उत्पादः। स्था० १९। जीवा० २७७। उत्पलं। प्रज्ञा० ३७ जलरुहविशेषः। प्रज्ञा. उप्पाइओ-उत्पातः। आव. २९८१ २३। कालविशेषः। भग० २७५। उत्पलं-चतरशीत्या ल:- उप्पाइत्ता-उत्पादयितुं-सम्पादनाय, अथवाऽनुत्पन्नानां रुत्पलाङ्गैः। अनुयो० १०० उत्पलार्थः एकादशशते भोगानामुत्पादयिता-उत्पादकः। स्था० २६४। सम्पादप्रथम उद्देशकः। भग० ५१११ कालविशेषः। भग० ८८८1 नशीलः। स्था० ३८६। भग० २१०| कालविशेषः। सूर्य ९१ उप्पाइया-उत्पाताः-अनिष्टसूचका रुधिरवृष्ट्यादयस्तनीलोत्पलमुत्पलकुष्ठं वा। सम०६१ औप. १६) हेतुका येऽनर्थास्ते औत्पातिकाः। सम०६२ आरणकल्पे विमानविशेषः। सम० ३८1 उत्पलकुष्ठं- | उप्पाए-उत्पातं-सहजरुधिरवृष्ट्यादिलक्षणोत्पातफल मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [195] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] निरूपकं निमित्तशास्त्रम्। सम०४९। उत्पादः। आव० जीवा० २७९। ઉદરા उप्पासितो-उत्पासितः-असूयितः। आव० १०१। उप्पाएति-उत्-प्राबल्येन पावयति। निशी. २५२ आ। उप्पासिया-हसिताः। निशी० ६९ अ। उप्पाएमाणे- व्युत्पादयन्। उत्त० १५७) उप्पिं-उपरि। भग० ८२ स्था०४३२ उप्पाते-उत्पादः-सहजरुधिरवृष्ट्यादि। स्था० ४२७) उप्पिंजल-उप्पिञ्जलं-आक्लकम्। राज० ५२। उप्पाय- उत्पातपूर्व-प्रथमपूर्वनाम। स्था० ४८४। उत्पातः- उप्पिच्छ- श्वाससंयुक्तम्। जम्बू०४०। श्वासयुक्तं, प्रकृतिविकारो रक्तवृष्ट्यादिः। प्रश्न० १०९। उल्कापात- त्वरितम्। स्था० ३९६। अनुयो० १३२। आकुलं रोषभृतं दिग्दाहादिकम्। अनुयो० २१६। उत्पादः-यतो नानुत्पन्नं | वोच्यते। श्वासयुक्तं वा। जीवा० १९४। भीतौ। ज्ञाता० वस्तु लक्ष्यते अतोऽयमपि वस्तुलक्षणम्। आव० २८२। १६१| उत्पातं-सहजरुधिरवृष्ट्यादिकम्। आव० ६६० उत्पातं- | उप्पिट्टणयं-उत्पिट्टनकं-कट्टनोत्पिडना। उत्त० ८५ कपि हसितादि। सूत्र० ३१८। प्रथमपूर्वम्। नन्दी० ५२।। उप्पिट्टणा-उत्-प्राबल्येन पिट्टना उत्पिडना। उत्त०८। स्था० १९९। उप्पिबंत-उत्पिबन्तः-आसादयन्तः। प्रश्न०६३। उप्पायग-उत्पादकः-ये भूमि भित्त्वा समुत्तिष्ठन्ति ते। उप्पियंतं- मुहुर्मुहुः श्वसन्तम्। व्यव० ५३ आ। व्यव० २८८ आ। उप्पियणं-मुहः श्वसनम्। व्यव० ५३ अ। उप्पायण-उत्पादना-सम्पादनं, गृहस्थात्पिण्डादिरुपार्ज- उप्पिलणा-उत्पीडनं-प्राणादीनां प्लावनम्। व्यव० १०॥ नमित्यर्थः। स्था० १५९। उप्पील-उत्पीलः-समूहः। प्रश्न. ५० उप्पायणा-उत्पादना-धात्र्यादिका षोडशविधा। प्रश्न उप्पीलइ-उत्पीडयति-प्राबल्येन बाधते। जीवा० ३२६) १५५ धात्र्यादिलक्षणदोषविशेषः। आव. ५७६| उप्पीलिय-उत्पीडिता प्रत्यञ्चारोपणेन, बाहौ बद्धा। भग. उप्पायणोवघाते-उत्पादनया-उत्पादनादोषेः, उपघातः- १९३। गाढीकृता। राज०११८ भग० ३१७। ज्ञाता० २२१| अशुद्धता उत्पादनोपघातः। स्था० ३२० जीवा० २५९। उत्पीडितः-गाढं बद्धः। प्रश्न०४७) उप्पायपव्वए-उत्पातपर्वतः। सम० ३३। तिर्यग् उत्पीडिता-गुणसारणेन कृतावपीडा, बाहौ बद्धा वा। भग० लोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति सः। भग०१४४। ३१८ कृतप्रत्यञ्चारोपणा। विपा०४७। उप्पायपव्वयगा-उत्पातपर्वताः-यत्रागत्य बहवः आरोपितप्रत्यञ्चा। औप०७१। आक्रान्ता गणेन। ज्ञाता० सूर्याभवि-मानवासिनो वैमानिका देवा देव्यश्च ८५ विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति। राज. | उप्पुया-उत्प्लुताः-उत्सुकाः। प्रश्न० ५२। ७९| उप्पूर- उत्पूरं-प्राचुर्यम्। प्रश्न० ४३। जलप्लवः। प्रश्न उप्पायपव्वया-यत्रागत्य बहवो व्यन्तरदेवा देव्यश्च विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति। जम्ब० । उपेक्खेज्ज-उपेक्ष्यते। आव० ६४० ४४। जीवा० १९९। उप्पंदति-उत्स्पन्दते-प्रविशति। उत्त. ३५५ उप्पायपव्वं-उत्पादपूर्वम्, तत्थ सव्वदव्वाणं पज्जवाण उप्फणिंसु-साध्वर्थं वाताय दत्तवन्तः। आचा० ३४३। य उप्पायमंगीकाउं पण्णवणा कया। नन्दी० २४१। उप्फसणा-अप्कायस्पर्शनं यत्सहचरितं लवणोत्तारणम्। यत्रोत्पाद-माश्रित्य द्रव्यपर्यायाणां प्ररूपणा कृता तद। बृह. ६१ आ। सम. २६ उप्फालग-उत्प्रासकम्। उत्त०६५६) उप्पाया-त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४२ उप्फिडइ-मण्डूकवत्प्लवते। उत्त० ५५१] उप्पाल-प्रहरणकोशविशेषः। जीवा० २३२ प्रहरणकोशः | उप्फुल्लं-विगसिएहिं इत्थीसारीरं रयणादि वा न प्रहरणस्थानम्। राज०९३। मत्तवारणम्। जीवा. २७९। निज्झाइयव्वं। दशवैः ७७। उत्फल्लं-विकसितलोचनम् उप्पालसंठिओ-उत्पालसंस्थितः-मत्तवारणसंस्थितः। । । दशवै० १६८१ निष्पुष्पः। निशी० २०१ अ। ७६) मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [196] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] उप्फेणओफेणीयं- सकोपोष्मवचनं यथा भवति । विपा० आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) ८३| उप्फेस- मुकुटम्। औप० २५| शिरोवेष्टनम्। आचा० ३८०१ प्रज्ञा० ८७ | उप्फेसि शिरोवेष्टनं, शेखरक इत्यर्थः स्था० ३०४| उप्फोसं उत्स्पर्शनं छंटनम् बृह• २८५ अ उप्फोसणं- क्रियाविशेषः । निशी० १६६ अ उप्फोसणा - जलच्छटा । निशी० ६३ अ उप्फोसेज्ज- रुपयेत्। निशी० १८६ आ उफुल्लो- निष्पुष्पः ओघ• ९७ उबद्धो- अवबद्धः । आव० २९९ । उम्बद्धओ उद्बद्धः आक ४५रा उब्बुडा - उद्याता। आव० ६७७ । उब्बुड्ड— अन्तःप्रवेशितम् । अनुत्त०७ उब्बुड्डनिबुड्डयं उन्मग्ननिमग्नत्वम्। प्रश्न० ६३ | उब्भं तव । उत्त० १४७ | उभंडो- असंवृतपरिधानादि। बृह० २२५अ उब्भज्जिय उद्भिद्य उत्त० १९२१ उन्भट्ठ- अभ्यर्थितम। पिण्ड० ९० [Type text] उभामिगा- उद्भामिका- कुलटा व्यव० १५० आ । उद्धामिका-मनोगुप्तिदृष्टान्ते श्रेष्ठिसुतश्रावकजिनदासभार्या आव० ५७८१ असती दशकै १७| उब्भामिज्जैति- अपभ्राज्यन्ते । बृह. १३७ आ उब्भामिया - कुशीला । बृह० २६४ आ। उद्धामिकास्वैरिणी । आव० ४२११ उभामे- भिक्खायरियं गच्छति । निशी० ११३ आ भिक्षाभ्रमणम् । स्था० २६६ । उब्भावण- उद्भावनं-महर्द्धिकतासम्पादनं कृतवान्। बृह० ९३ अ परिभवः । ओघ० १४८ व्यव० १५३ आ । उब्भमे - उद्भ्रमेत्-यायात्। आचा० २९१। उब्भव– उद्भवः-सम्भवः । ज्ञाता० ५०। सम्भूतिः । भग० ४७० | उब्भवणं निव्वावणं निशी. ५२ आ उब्भवेति- उच्छ्रयति आव• ३४२१ उन्मातो निसण्णो निशी० ३५ आ उब्भाम- भिक्षाचरग्रामः । व्यव० २५० अ उब्भामइला - उद्भ्रामिला स्वैरिणी । व्यव० ३१ आ । उब्भामओ- उद्भ्रामकः, जारः । पिण्ड० १२३ | पारदारिकः । ओघ० ९२३ बृह० ४८ अ उभामगं भिक्खायरिया निशी. ७७ आ निशी. ३६ आ पारदारिकाः । ओघ० ७५१ बृह० २६ अ पारदारिगो । निशी० १०७ अ संघाडगो । निशी० ९४ आ । उभामनितोय- उद्भामकनियोगः ग्रामः । व्यव० १५३३ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित उब्भावणा- उद्भावना उत्प्रेक्षणा। भग० ४८९ | उत्क्षेपणानि । ज्ञाता० १७७ | उद्भावना। दस ० ४४ | प्रकाशनम्। नन्दी० ५३ | अपभ्राजना । उत्त० १६९ | उब्भि- उद्भिदो भूमिभेदाज्जाता उद्भिज्जाः खञ्जनकादयः । स्था० ३८६ | उब्भिज- निशी० ३३५आ। उब्भिज्ज - उद्भेद्याः वस्तुतप्रभृतिशाकभर्जिका पिण्ड १६८ | उद्भिद्य भुवं जाता उद्भिज्जा खञ्जनकादिः प्रश्नः ९० | उब्भड— उद्भटं-विकरालम् । जम्बू० १७० अनुत्त० ७ भग० उब्भिज्जमाण - उद्भिद्यमानं उद्घाट्यमानम् । जीवा० ३०८ | स्पष्टम् । भग० ३०८ | उब्भमा उत्-प्राबल्येन भ्रमयन्ति उक्षमाः- भिक्षाचराः । - १९१ | उब्भिन्न- उद्भेदनं उद्भिन्नं साधुभ्यो घृतादिदाननिमित्तं कुतु-पादेर्मुखस्य गोमयादिस्थगितस्योद्घाटनं तद्योगाद्देयमपि घृतादि उद्भिन्नम् । द्वादश उद् गमदोषः । पिण्ड० ३४१ उब्जिय- उद्भेदनमुद्धित् उद्विज्जन्म येषां ते उद्भिज्जाःपत्तङ्गखञ्जरीटपारिप्लवादयः । दशकै १४१ उद्भिज्जंल-वणाकराद्युत्पन्नम्। आचा० ३५५। उब्भुतिया आभ्युदयिकी, देवतापरिगृहीता गोशीर्षचन्दनमी भेरी | आव० ९७ । उब्भेंति- उच्छ्रयन्ति। आव० ३४२ । ऊर्ध्वयन्ति। उत्त॰ १४७ | उमेइम उद्भेदयं सामुद्रादि। अप्रासुकम्। दश० १९८ उभओ उभयतः उभी शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य ज्ञाता० १५| उभयं उभयं संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि दशकै १५८१ संघायसाडण, संगातशातनकरणं यस्य [197] - “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] f. शकटोदा-हरणम्। आव०४६२१ वा मार्गमुन्मार्ग, सर्वथा अरन्ध्रमित्यर्थः। आचा० २३४। उभयंभागा-उभयभागा-चन्द्रेणोभयतः-उभयभागाभ्यां अकार्याचरणम्। आचा०२०३। उन्मार्गः। आव०७७८५ पूर्वतः पश्चाच्चेत्यर्थो भज्यन्ते-भज्यन्ते यानि तानि मार्गावं, उभयभागानि, चन्द्रस्य पूर्वतः पृष्ठतश्च क्षायोपशमिकभावत्यागेनौदयिकभावसङ्क्रमः आव. भोगमुपगच्छन्तीत्यर्थः। स्था० ३६८१ उभयभागानि- ५७१। उभयं-दिवस-रात्री तस्य दिवसस्य रात्रेश्चैत्यर्थः, उम्मग्गगो-अडविपहेण गच्छति अहवा अपंथेण चेव। चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य भागो येषां तानि। सूर्य. १०४१ | निशी० ३१९| उभयओ-उभयतः, उभयोः-पार्श्वयोः। सूर्य. २९३। उम्मग्गजला-उन्मग्नं जलं यस्यां सा उन्मग्नजला। उभयकप्पिय-उभयकल्पिकः-यो दवावपि सूत्रार्थो युगपद् जम्बू० २३०१ ग्रहीतुं समर्थः। बृह. ६३। उम्मग्गदेसणाए-उन्मार्गदेशनया-सम्यग्दर्शनादिरूपभाउभयकाला-दिया रातो य| निशी० २१ आ। वमार्गातिक्रान्तधर्मप्रथनेन। स्था० २७५१ उभयकिडकम्म-उभयकृतिकर्म-वन्दनम्। ओघ० २२ । | उम्मग्गनिम्मग्गो-उन्मग्ननिमग्नं-ऊद् उभयजं- गुणनिष्पन्नं, समयप्रसिद्धश्च। पिण्ड० ४। भंधोजलगमनम्। प्रश्न०६३। उभयतरो-तं च तवं करेंतो आयरियाइवेयावच्चपि करेति उम्मज्जगा- उन्मज्जनमात्रेण ये स्नान्ति। सलद्धित्तणओ एस उभयतरो। निशी० १२३ । तापसविशेषाः। निर०२५ भग. ५१९। उभयनिसेहो-उभयनिषेधः, सङ्घातपरिशातशून्यं, यस्य उम्मज्जगो-उन्मज्जकः-उन्मज्जनमात्रेण यः स्नाति। स्थूणोदाहरणम्। आव० ४६२। औप०९० उभयपंता-उभयप्रान्ता-अभद्रिका, अशोभनेत्यर्थः। ओघ. | उम्मज्जणिमज्जिय-उन्मग्ननिमग्निका-उत्पतनिपता। १५ स्था० १६११ उभयपइद्विते-उभयप्रतिष्ठितः-आत्मपरविषयः। स्था० उम्मज्जति-स्पृशति। निशी. ११५अ। १९३| उम्मज्जा-उन्मज्जनमुन्मज्जाउभयपदव्याहतं- गत्यागतिलक्षणे भेदः। आव. २८१। नरकतिर्यग्गतिनिर्गमना-त्मिका। उत्त. २८० उभयभविए-उभयभविकं-इहपरलक्षणयोर्भवयोः उम्मत्तजला- रम्यक्विजये महानदी। जम्ब० ३५२ यदनुगामि-तया वर्तते तदुभयभविकम्। भग० ३३। नदीविशेषः। स्था०८० उभयाज्ञया उम्मत्ता- मन्मथोन्मादयुक्ताः, विटाः। बृह. १३८ आ। पञ्चविधाचारपरिज्ञानकरणोद्यतगर्वादेशादे उम्मत्तिगा- उन्मत्ताः। आव० ४०० रन्यथाकरणलक्षणया गुरुप्रत्यनीकद्रव्यलिङ्गधार्यनेक- | उम्मत्तो-उत्-प्राबल्येन मत्ते उन्मत्ते, दरमत्तो वा श्रमणवत् सूत्रार्थोभयैर्विराध्येत्यर्थः। सम० १३३) उन्मत्तो। निशी० २७६ आ। उमंथण-अवमंथमधोमुखम्। व्यव० ३२३ आ। उम्मरीय-उम्बरीयः-प्रत्यदम्बरं रूपको दातव्य इत्येवं उमज्जायणसगोत्ते-पुष्यनक्षत्रस्य गोत्रम्। सूर्य. १५०| लक्षणः। बृह. ५१ । उमा- प्रयोतराजधान्यामुज्जयिन्यां गणिका। आव० उम्माओ- उन्मादः-क्षिप्तचित्तादिकः। आव०७५९। ६८६। द्विपृष्ठवासुदेवमाता। आव. १६२ सम. १५२ उम्माणं-उन्मानं-तुलारोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता। प्रश्न उमाए-अवमितः परिच्छिन्नो वा। सूर्य ९५ ७४। जम्बू. २५२। स्था० ४६१। खण्डगुडादि धरिमम्। उमाणं- प्रवेशः स्वपक्षपरपक्षयोर्येषु तानि तथा। आचा० स्था० ४४९। तुलाकर्षादि तद्विषयम्। स्था० ४४९। ३२६। नाराचादिः। आचा० ४१३। तुलाकर्षादि। स्था० १९८१ उमाव्यतिकर-आचा० १४६) तुलारूपम्। भग०५४४। कर्षपलादि उम्मग्गं-विवरं उन्मज्यतेऽनेनेति वोन्मज्यम्, ऊद्र्ध्वं । खण्डगुडादिद्रव्यमान-हेतुः। जम्बू० २२७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [198] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अर्द्धभारमानता। भग० ११९। अर्द्धभारप्रमाणता। ज्ञाता० | उयट्टी-कट्टी, जङ्घा। उत्त. ११८ ११॥ उयत्ति-तेयस्सिणो। निशी. ३०१ आ। उम्माणजुत्तो-जइ तुलाए आरोविओ अद्धभारं तुलति तो उयत्तिया- अपवृत्य। आचा० ३४६) उम्माणजुत्तो। निशी० ६१ अ। पुरिसो तुलारोवितो उयरं-जलोयरं। निशी० ५८ आ। अद्धभारं तुलेमाणो उम्माणजुत्तो। निशी०८५आ। उयल्ला -मृता। आव० २७२। उम्माणा-उन्मानानि-तुलायाः कर्षादीनि। स्था० ८६। उयविय-विशिष्टं परिकर्मितम्। राज०९३ उम्माद-चतुर्दशशते द्वितीय उद्देशः। उन्मादार्थाभिधाय- | उयवेति- एतद्ग्रहे तत्र समुद्देशाप्यते इत्यर्थः। व्यव० ४५२ कत्वादुन्मादो द्वितीयः। भग० ६३०| । उम्माय-उन्मादः-नष्टचित्ततया आलजालभाषणम्। उयारं-उपकारः। (महाप्र०)। असंप्राप्तकामभेदः। दश. १९४। चित्तविभ्रमः। स्था० । उयाहरे- उदाहरेत्-उद्घट्टयेत्। उत्त० ३४५। १५०| महामिथ्यात्वलक्षणः तीर्थंकरादीनामवर्णं वदतो क्षणः ताथकरादीनामवण वदतो | उयाह-उदाह-उदाहृतवान्। उत्त० २७० भवत्येव तीर्थंकराद्यवर्णवदनपितप्रवचनदेवतातो वा | उरं-उरः-वक्षः। आचा० ३८१ यत्। स्था० ३६०। सग्रहत्वम्। स्था० ३६०। ग्रहो बुद्धिवि- उरंमुहो- अर्वाङ्मुखः। आव० ४२७ प्लवः। स्था०४७ उरकंठसिरविसुद्धं- उरःकण्ठशिरोविशुद्धम्-ययुरसि स्वरो उम्मिमालिणीओ-नदीविशेषः। स्था०८० विशालस्तर्युरोविशुद्धं, कण्ठे यदि स्वरो उम्मिल्लिज्जंते- उन्मील्यमाने। आव०६३। वर्तितोऽतिस्फुटि-तश्च तदा कण्ठविशुद्धं, शिरसि प्राप्तो उम्मी-ऊर्मयः-महाकल्लोलाः। भग०७११। ऊर्मिः- यदि नानुनासिकस्ततः शिरोविशुद्धम्, अथवा संबाधः। औप० ५७। विचिः, तरङ्गः। आव० ६०१। उरःकण्ठशिरस्सु श्लेष्मणाऽव्याकुलेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु ऊर्मिः -संबाधः। भग० ४६३। कल्लोलः। स्था० ५०२ यद् गीयते तत्। अनुयो० १३२। सम्बाधः, तरङ्गः, कल्लोलाकारो वा जनसमुदायः। उरक्खंधगेवेज्जय-उरस्खन्धग्रैवेयकं-भूषणविधिविशेषः। भग० ११५ जीवा० २६८ उम्मीलिआ-उन्मिषितलोचनाः। जम्बू० ५४, २९८। उरगपरिसप्पा-उरो-वक्षस्तेन परिसर्पन्तीति बहिष्कृता। जम्बू. २९७, १४१ उरःपरिसर्पाः। उत्त०६९९। उम्मीलिय-उन्मीलितं-बहिष्कृतम्। सूर्य. २६४। प्रज्ञा० उरगविही- शुक्रस्य महाग्रहस्य षष्ठी विथीः। स्था० ४६८। ९९। जीवा० २०९। उरत्थ- उरस्थः, वक्षोभूषणविशेषः। जम्बू० २१३। आचा. उम्मीसं-उन्मिश्र-शबलीभूतम्। आचा० ३२१। आगाम- ४२३। हृदयाभरणविशेषः। जम्बू. १०५ कसत्त्वसंवलितं सक्तुकादि। आचा० ३२२। एकीकृत्य। उरपरिसप्पा-उरसा-वक्षसा परिसर्पन्तीति ओघ० १६९। पुष्पादिसम्मिश्रम्, सप्तम एषणादोषः। उरःपरिसर्पाः-सप्पोदयः। स्था० ११४१ सम० १३५ उरसा पिण्ड० १४७ परिसर्पन्तीति उरःपरिसर्पाः। प्रज्ञा०४५ उम्मुक्को- उन्मुक्तः-प्राबल्येन मुक्तः, पृथग्भूतः। आव० उरब्भ-उरभ्रः-ऊरणः। जम्बू० ३१| जीवा. १८९। ५०८१ उरब्भरुहिरं-उरभ्ररुधिरम्। प्रज्ञा० ३६१। उम्मुग्गा- उन्मग्ना-नदीविशेषः। आव० १५०| उरब्भिज्जं-उत्तराध्ययनस्य सप्तममध्ययनम्। उत्त. उम्मय-औल्मुकः। प्रश्न० ७३ २७१। सम०६४ उम्मूलणा सरीराओ-उन्मूलना शरीरात्, निष्काशनं उरलं-विरलप्रदेशम्। प्रज्ञा० २६९। अल्पप्रदेशोपचितत्वाद जीवस्य देहादिति। प्राणवधस्य द्वितीयः पर्यायः। बृहत्त्वाच्च। स्था० २९५१ प्रश्न.५ उरविसुद्ध- ययुरसि स्वरो विशालस्तर्हि उरोविशुद्धम्। उम्ह- उष्मा-परितापः। बृह. १९४ अ। | अनुयो० १३२। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [199] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] [Type text] उरसे- उपगतो-जातो रसः पुत्रस्नेहलक्षणो यस्मिन् पितृस्नेहलक्षणो वा यस्यासावुपरसः, उरसि वा हृदये स्नेहावर्तते यः स ओरसः । पुत्रस्य पञ्चमो भेदः। उरसा वर्त्तत इति ओरसो- बलवान्। स्था० ५१६॥ उरः शुद्धं यद्युरसि स्वरो विशालस्तर्हि उरोविशुद्धम् । जम्बू. ४०% उल्लंघणं- उर्ध्वउलघनम्। भग० ९२५ उल्लङ्घनंकर्दमादीनामतिक्रमणम् । औप० ४२ । सहजात् पाटविक्षेपान्मनाग-धिकतरः पादविक्षेपः उल्लङ्घनम् । प्रज्ञा० ६०६ | उल्लङ्घनः बालादीनामुचितप्रतिपत्त्यकरणतोऽधः कर्त्ता । वत्सडिम्भादीनां चण्ड चारभटवृत्त्याश्रयणतः । उत्तः ४३४५ तथाविधनिमित्तत ऊर्ध्वभूमिकाद्युत्क्रमणे उरस्ता वक्षस्ताडम् । नन्दी० १५७ | गर्ताद्यतिक्रमणे वा उत्त० ५१९ | उरस्सं - उरसि भवं उरस्यम् । जीवा० १२२ । उरसि भवं उरस्यं- आन्तरोत्साहः । जम्बू० ३८७ उरस्सबल- अन्तरोत्साहवीर्यम्। उपा० ४७। उरस्सबलसमण्णागए औरस्यबलसमन्वागतः आन्तरो उल्लंडगा - मृद्गोलकाः । निशी० ३५६ आ । उल्लंछेड़ - विगतलाञ्छनं करोति । ज्ञाता० ८८ उल्लंठ- उच्छृंखलः आव० ३४४५ त्साहवीर्ययुक्तः । अनुयो० १७७ उल्लंडणा उल्लंघणा दशव• ७७ उरस्सबलसमन्नागए औरस्यबलसमन्वागतः आन्तरोत्साहवीर्ययुक्तः । जीवा० १२२१ उराल- विस्तरालं, विशालम् । स्था० २९५ | उदारं-स्थूलम् । सूत्र. ५१। स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच्च, मांसास्थि-पूयबद्धं यच्छरीरं तत्समयपरिभाषया उरालम् | सम• १४२१ घडियं आभरणादि। निशी. ८२ आ प्रधानः। सूर्य० ५। स्था० ५०३ | आव०२८७ वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। शोभतो मनोज्ञो वा । सूत्र० १८४१ अत्यन्तोद्वः, समयसामग्रीकः, मधुमद्यमांसाद्युपेतः । सूत्र० ३२५ आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) उराला - उदाराः - बादराः । स्था० १६१ | उरितिय- उरसि त्रिकम् । औप० ५५ । उरुंभेड़ - अवतारयति । आव० ४०८ । उरोहओ अंतेपुरं । निशी० ४९ अ उर्व्वशी- अरणिः । नन्दी० १९| उलग्गंति- अवलगन्ति । आव० ३९६ । उलजायगं - वीरल्लो। निशी० १५५अ । उलूक- ऊर्ध्वकर्णः । अनुयो० १५० मतविशेषः आव० ३७६। उलूगि- उलूकी, तत्प्रधाना विद्या आव० ३१९ । उलूयपणीयं- उलूकप्रणीतं वैशेषिकप्रणीतम् । आव०३२१ | उलोडए अपवर्तन्ते प्रश्न. ८६ उल्मुकं अलातम् ओघ० १७ प्रजा० २९१ दशकै० १981 उल्कादि। आव० ५८८ उल्लं - आई प्रचुरव्यञ्जनम्। दशवै० १८१। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित उल्लंडा - मृद्गोलकाः। बृह० २७१ आ उल्लंबण- उल्लम्बनं-वृक्षशाखादावुद्बन्धनम्। सम० १२६ । उल्लंबियगा अवलम्बितकाः रज्ज्वा बद्धा गर्त्तादाववतारिताः । औप० ८७ | उल्ल - आर्द्रः । ओघ० १८८ उत्त० ५३० भग० २३२ आर्द्रा स्तिमितसकलचीवरेतियावत्। उत्त० ४९३॥ उल्लग - आर्द्रः । आव० ६२१ | उल्लगजाति- वीरल्लगसउणो निशी० २०४आ। उल्लच्छणा - अपवर्त्तना, अपप्रेरणा प्रश्न० ५६ | उल्लण- येनौदनमार्द्रीकृत्योपयुज्यते उल्लणम्। पिण्डः १६८ \ ओघ० १४६ । उल्लणिया- स्नानजलार्द्रशरीरस्य जललूषणवस्त्रम् । उपा० ४| उल्लदेत्ता- अवलादय उत्तार्थ आव० २९१ | उल्लपडसाडओ आर्दपटशाटकः आव. २१११ उल्लपडसाङगो आर्द्रशाटिकापट आक०६८७ उल्लपडसाडया - स्नानेनार्द्रे पटशाटिके- उत्तरीयपरिधानवस्त्रे । ज्ञाता० ८४| उल्लल्लिया— चलिता । बृह० १४९ आ । उल्लवइ- उत्-प्राबल्येनासम्बद्धभाषितादिरूपेण लपतिवक्त उल्लपति। उत्त० ३४५ उल्लवितं - उल्लप्तम् । आव० ३४३ | उल्लविय उल्लपितम् मन्मनभाषितादि। उत्तः ४२८८ उल्लवेत उल्लापयन्। आव० ६९२ ॥ [200] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उल्लवेति-आलापयन्ति। (गणि)। जीवा० १६०| राज० ३६। सम० १३८ कुड्यमालानां उल्लवेइ-उल्लपति। आव० २१६) सेटिकादिभिः संमृष्टीकरणम्। औप० ५। कुड्यानां उल्लवेयव्वो-विद्यापयितव्यः। आव० ३८४| मालस्य च सेटिकादिभिः संमृष्टिकरणम्। जीवा० २२७। उल्लहिज्जंति-उल्लिख्यमाना। आव. २००९ प्रज्ञा०८६| उल्ला-तिता। निशी. ४६अ। आर्द्रः। आव०६२२१ उल्लोए-उल्लोकः, उल्लोचः। भग० ६४५। उपरिभागः। उल्लाट्टा-प्रत्यावर्तः। व्यव० १६७ आ। जम्बू. ४९, ४००। जीवा० २०५। उल्लोचः-चन्द्रोदयः। उल्लालेमाणे-उल्लालयन्-ताडयन्। जम्बू. ३९७। सूर्य.२९३। उल्लोकः-उपरितनभागः। जीवा०२०९, ३६० उल्लाव-उल्लापः-वचनम्। उत्त० ३३४। काक्कावर्णनम्। | उल्लोय-उल्लोकः-उपरिभागः। भग. ५४०| उद्देशः। भग. स्था० ४०७। काक्कावर्णनम्। ज्ञाता० ५७। भग० ४७८। ६५९। लेशोद्देशः। बृह. २५० आ। प्रतिवचनम्। ओघ० ५२। उल्लापम्। आव० २२३। उल्लोयगं-उल्लोचम्। आव० १२४ काक्कावर्णनम्। औप०५७ उल्लोलिया- मलगुटिका। गुटिका। आव० ६८०| उल्लावितो-उल्लापयन्। उत्त० ८५ उल्लोलेइ-उल्लोडयत्। आचा०४२३। उल्लिंचइ-उल्लिञ्चति-आकर्षति। पिण्ड. ११८ उल्हविज्जंतो-विदयापितः। आव० ३८४१ उल्लिंचण-उदकनिष्काशनम्। निशी. २०७आ। उवंगा-उपाङ्गानि-शिक्षादिषडङ्गार्थप्रपञ्चनपराः उल्लिउ-उल्लिखितः। उत्त०४६०| प्रबन्धाः। भग. ११४| शिक्षादिषडङ्गव्याख्यानरूपाणि। उल्लिय-आर्द्रः। आव०६२११ अनुयो० ३६। उल्लिहावेइ-चुम्बयति-आस्वादयति। आव० ६८० उवंगाई-उपाङ्गानि-अङ्गावयवभूतान्यगुल्यादीनि। उल्ली-पनकः। स्था०४६०| पणगो। निशी० २५५ आ। प्रज्ञा० ४६९। पणओ। दशवै० ८० उव-उप-सामीप्यार्थः। प्रज्ञा० ४। दशवै० १४५। भग० ३७ उल्लीण-अपह्रासः। (मरण)। उपमेतिवत्सादृश्येऽपि दृश्यते। उत्त. २३५। सकृदर्थे, उल्लीना-उपलीना-प्रच्छन्ना। आचा० ३७१। अन्तर्वचनः। आव०८२८। अभ्यधिकं पुनः पुनः। उत्त. उल्लुगं- अवरुग्णम्-भग्नम्। प्रश्न. २२॥ ६४४॥ उल्लुगतीरं-उल्लुकतीरं-उल्लुकानद्यास्तीरे उवइअ-उपचित्तौ, उन्नतौ, औपयिकौ, उचितौ, नगरविशेषः। उत्त. १६५। अवपतितौ, क्रमेण हीयमानोपचयौ। जम्बू० ११२ उल्लुगा-उल्लुका-नदीविशेषः। उत्त० १६५। आव० ३१७ | उवइगं- उद्देहिका। निशी० ५७ आ। उल्लुगातीरं-उल्लुकातीरम्। उवइज्जा-अवपतेत, आगच्छेत्। आचा० ३६५ पश्चमनिह्नवोत्पत्तिस्थानम्। आव० ३१२, ३१७ उवइस्सइ-उपदिश्यते-श्रोतृभावापेक्षया सामीप्येन उल्लुग्गंगी-म्लानाङ्गी। आव. ३९४| कथ्यत। दशवै० ११० उल्लुण्हि-शिम्बीः। निशी. १४४ आ। उवउग्गहकरो-किरियापरो। निशी० २६६ अ। उल्लुयतीरे-उल्लुकतीरं-उल्लुकानयास्तीरे उवउत्त-उपयुक्तः-अनन्यचित्तः। दशवै० १०६। नगरविशेषः। भग०७०५ अवहितः। भग० ८९। णमोक्कारपरायणो। निशी० ४७ उल्लेति-आर्द्रयति। आव० १०१। अ। उपयुक्तः-अभिष्वङ्गवान्। भग० ९०४। अभ्यवहृतम् उल्लोअ-उल्लोकः-अपरिभागः। जम्बू. ३२१। | आचा० १७६| उल्लोइआ-उल्लोइयमिव उल्लोइअं च सेटिकादिना उवएस-उपदेशः-आदेशः। व्यव० १०आ। गुरुणाऽन्कुड्यादिषु धवलनम्। जम्बू०७६। ज्ञातः। ओघ० १५१। उल्लोइयं- सेटिकादिना कुड्यानां धवलनम्। भग०५८२ | हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपदेशनादुपदेशः। अनुयो० ३८॥ कुड्यानां मालस्य च सेटिकादिभिः संमष्टीकरणम्। अन्यतरक्रियायां प्रवर्तनेच्छोत्पादनं उपदेशः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [201] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] वचनविभक्तेद्वितीयो भेदः । अनुयो० १३४॥ यथा आत्मा न वध्यत इत्यादिविषयः । दशवै० १२० उपदेश:गुर्वादिना वस्तुतत्त्वकथनम्। प्रज्ञा॰ ५८। श्रुतस्य पर्यायः । विशे० ४२३ | कथनम् । आव० ६०४, २६५ उवएसदव्वमूलं उपदेशद्रव्यमूल- यच्चिकित्सको रोगप्र तिघातसमर्थ मूलमुपदिशत्यातुरायेति । आचा० ८८ उवएसई- उपदेशो-गुर्वादिना वस्तुतत्त्वकथनं तेन रुचिः - जिनप्रणीततत्त्वाभिलाषरूपा यस्य स उपदेशरुचिः । प्रज्ञा० ५८ । आगम- सागर - कोषः ( भाग :- १) उवएसिया- उप. सामीप्येन देशिता उपदेशिता आव• ६२२ उवओग उपयोगः-स्वस्वविषये लब्ध्यनुसारेणात्मनः परिच्छेदव्यापारः । जीवा० १६ उपयोजनमुपयोगःविवक्षितकर्म्मणि मनसोऽभिनिवेशः । नन्दी० १६४ साकाराना-कारभेदं चैतन्यम् । स्था० ३३४ | जीवस्य बोधरूपो व्या-पारः। अनुयो० १६ । अवहितत्वम् । उत्तः ५६१| भावेन्द्रियस्य द्वितीयो भेदः । भग. ८७] मतिः । ओघ० १९६| उपयोगः- लब्धिनिमित्त आत्मनो मनस्साचिव्याद् अर्थग्रहणं प्रति व्यापारः । आचा० १०४ | चेतनाविशेषः । भग०१४९। चैतन्यं साकारानाकारभेदम्। भग० १४८१ उपयोजनमुपयोगः- विवक्षिते कर्मणि मनसोऽमिनिवेशः । आव० ४२६। विपाकानुभवनम् । दशव• ८६ श्रोतुस्तदभिमुखता। आव० ३४१। सावधानता। औप० ४८। स्वाध्यायाद्युपयुक्तता १४५ | स्वस्वविषये लब्ध्यनुसारेणात्मनो व्यापारः प्रणिधानम् । प्रज्ञा० २९४ प्रज्ञापनाया एकोनत्रिंशत्तमं पदम् । प्रज्ञा० ६ उपयोजनं उपयोगः भावे घञ्, यद्वा उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः, पुंनाम्नि घ' इति करणे घप्रत्ययो बोधरूपो जीवस्य तत्त्वभूतो व्यापारः प्रज्ञा० ५२६1 दशवै० १०८ ॥ उवकप्पिया- उपकल्पिता । उत्त० २८७ उवकरण- उपकरणं-अङ्गादानाख्यः । बृह० ९८ अ । उपकरणं-ग्लानाद्यवस्थायामन्येनोपकारकरणम्। प्रश्न. १२९| उपधिः । परिग्रहस्य पञ्चदश नाम । प्रश्न० ९२ ॥ अङ्गम् । भग० २२४ | उवकरणपणिधाणे उपकरणस्य लौकिकलोकोत्तररूपस्य वस्त्रपात्रादेः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित संयमासंयमोपकाराय प्रणिधानं प्रयोगः उपकरणप्रणिधानम्। स्था. १९६ उवकरणसंवरे उपकरणसंवर: अप्रतिनियताकल्पनीयवस्त्रा द्यग्रहणरूपोऽथवा विप्रकीर्णस्य वस्वादयुपकरणस्य संवरणम् स्था० ४७३। उवकरिंसु अवकीर्णवन्तः । आचा० ३१११ उवकरिज्ज उपकुर्यात् ढोकयेत्। आचा० ३५१ । उवकरेउ - उपकरोतु । उपा० १५। उवकरणे उपकरणे बृह० २८९ अ उवकुलं- कुलस्य समीपं उपकुलम्। जम्बू० ५०६। उवकुला– उपकुलानि। सूर्य० १११। उनकोसा कोशाया लघ्वी भगिनी उपकोशा आव• ६९५१ [Type text] - [202] - आव० ४२५| उवक्कम- उपक्रमणं-आयुः पुद्गलानां संवर्त्तनं समुपस्थितं तत्। आचा० २९१ उपक्रमणमुपक्रमः, उपक्रम्यतेऽनेना-स्मादस्मिन्निति वोपक्रमःव्याचिख्यासितशास्त्रस्य समी- पानयनम्। आचा० ३। उपक्रमणं उपक्रमः दीर्घकालभा विन्याः स्थितेः स्वल्पकालताऽऽपादनम् । उत्त० ३२१ । उपेति - सामीप्येन क्रमणं उपक्रमः- दूरस्थस्य समीपापादनम्। अध० १। उपायेन परिजानम् । स्था० १५५ उपायपूर्वक आरम्भः । स्था. १५४ प्रकृत्यादित्वेन पुद्गलानां परिण-मनसमर्थ जीववीर्यम् । स्था० २२१ | अभिप्रेतार्थसामीप्यानयनलक्षणः । आव० २५७| कालगमनम् । बृह० २३० अ। नाशः। (आतु०)। कर्मवेदनोपायः । भग० ६५॥ स्वयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनम् । प्रज्ञा० ११७ उपक्रमः दूरस्थस्य वस्तुनस्तैस्तैः प्रतिपादनप्रकारैः समीपमानीय निक्षेपयोग्यताकरणं, उपक्रम्यते-निक्षेपयोग्यं क्रियतेऽनेन गुरुवाग्योगेनेति, उपक्रम्यतेऽस्मिन् शिष्य श्रवणभावे सतीति, उपक्रम्यतेऽस्माद्विनीतविनेयवि-नयादिति वा । अनुयो० ४५ उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः व्याचिख्यासितशास्त्रस्य समीपानयनेन निक्षेपावसरप्रापणं, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवाग्योगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः, उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्य श्रवणभावे आगम-सागर-कोषः " [१] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधनः, कादिः। भग० ९२५ उपक्रम्यतेऽस्मादिति वा विनेयविनया-दित्यपक्रम | उवक्खड-उपस्कृतं-उपस्कर्तुमारब्धम्। पिण्ड०६५। इत्यपादानसाधन इति। जम्बू० ५। उपक्रम्यते उपस्करणमुपस्कृतं-पाकः। स्था० २२० लवणवेसवाक्रियतेऽनेनेत्युपक्रमः- कर्मणो बद्धत्वोदीरितत्वादिना । रादिसंस्कृतम्। उत्त० ३६० परिण-मनहेतुर्जीवस्य शक्तिविशेषो योऽन्यत्र उवक्खडणसाला-महाणसो। निशी० २७२ आ। करणमिति रूढः, बन्धनादीनामारम्भः। स्था० २२११ उवक्खडाम-जहा चणयादीण उवक्खडियाण जेण वस्तुपरिकर्मरूपः। स्था० २२१। अप्राप्तकालस्य सिझंति ते कंकडुडुया तं उवक्खडियामं भण्णति। निर्जरणम्। भग०७१५ आनपूर्व्यादिः। सम० ११५ निशी० १२५ निरुक्तिस्तु उपक्रमणं उपक्रमः इति भावसाधनः, उवक्खडेंति- उपस्कुर्वन्ति। आव० २९११ शास्त्रस्य न्यासदेशसमीपीकरणलक्षणः, उपक्रम्यते | उवक्खडे- उपस्कृतानि। नियुक्तानि। जम्बू. १०५। वाऽनेन गुरुवाग्योगेनेत्यपक्रम इति करणसाधनः, उवक्खडेउ- उपस्करोतु-राध्यतु। उपा० १५) उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्यश्रवणभावे उवक्खडेज्जा-तदशनादि पचेत्। आचा० ३५१| सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधनः, उवक्खरो-सादिकः। निशी. ३५६ अ। उपकरणम्। उपक्रम्यतेऽस्मादिति वा विनीतविने-यादित्यपक्रम (मरण०)। उपस्क्रियतेऽनेनेति उपस्करः- हिङ्ग्वादिः। इत्यादान इति। स्था० ४। कर्मोदीरणकारणम्। स्था० स्था० २२० ८९| उवग- गर्ता। बृह. ३१ । उवक्कमकाल-उपक्रमकालः- अभिप्रेतार्थसामीप्यानयन- उवगओ-उपगतः। आव० ४००। सामीप्येन कर्मविगमललक्षणः सामाचार्यायुष्कभेदभिन्नः। दशवै. ९। क्षणेन प्राप्तः। आव० ३८६) उवक्कमिओ-औपक्रमिकः उवगच्छया-कक्खा। निशी० २५५ अ। दण्डकशशास्त्रादिनाऽसातवेद-नीयोदयापादकः। सूत्र. उवगत-उपगतः। आव० ३०८1 उपगतः-आश्रितः। उत्त. ७८1 उवक्कमिया-उपक्रमणमपक्रमः-स्वयमेव समीपे उवगम-उपगच्छति-सादृश्येन प्राप्नोति। उत्त. २३५ भवनमदी-रणाकरणेन वा समीपानयनं तेन निर्वता उवगमण-उपगमनं-अवस्थानम्। सम० ३५। अस्पन्दऔपक्रामिकी। प्रज्ञा० ५५७। औपक्रमिकी। सम० १४६। तयाऽवस्थानम्। भग०१२० प्रज्ञा० ५५४। उपक्रमेण-कर्मोदीरणकारणेन निर्वत्ता तत्र | उवगयं-उपगतं-सामीप्येनात्मनि शब्दादिज्ञानं परिणतम् वा भवा औप-क्रमिकी-ज्वरातीसारादिजन्या। स्था०८९। । नन्दी० १८० मृतम्। पिण्ड० १३४। उपगतं-ज्ञातम्। कर्मवेदनो-पायस्तत्र भवा औपक्रमिकी आव० ८१२ स्वयमदीर्णस्योदीरणाकरणेन चोदयम्पनीतस्य उवगरण-चोलपट्टको रजोहरणं नैषद्याद्वयोपेतं कर्मणोऽनुभवः। भग०६५। स्वयमुदीर्ण मुखवस्त्रिका उपलक्षणत्वादौर्णिकसौत्रिकौ च कल्पौ। स्योदीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य वेद्यस्यानुभवात् बृह. २९५अ। दंडकं रजोहरणं च। बृह० ७१ आ। औपक्र-मिकी। भग०४९७। उपकरणं-औप-ग्रहिकम्। प्रश्न.१५६। उपकरणंउवक्कम्म- उपक्रम्य-आगत्य। सूत्र० ३५६। उपधिरेव। आव० ५६८1 आवरणप्रहरणादिकम्। भग. उवक्कयं- उपस्कृतं-नियुक्तम्। जीवा० २६८१ ९४। लौही-कडुच्छुकादि। भग० २३८। कङ्कटादिकम्। उवक्केस-उपक्लेशाः भग. ३२२। व्यजनकटक-कवलकार्गलादि। आचा०६० कृषिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठाना-नुगताः उपकरोतीति उपकरणम्। ओघ. २०७। वस्त्रादि। भग० पण्डितजनगर्हिताः शीतोष्णश्रमादयो घृतलव ७५०| धर्मशरीरोपष्टम्भहेतः। उत्त. ३५८ अनेकविधं णचिन्तादयश्च। दशवै. २७३। उपक्लेशः-स्वगतशो- | कटपिटकशूर्पादिकम्। अनुयो० १५९। १७८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [203] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ५१७ रजोहरणदण्डकादि। ओघ० १२५। द्रव्येन्द्रियस्य | व्यव० २३५ अ। ग्रहणम्। ओघ० १४७। द्वितीयो भेदः। भग० ८७। प्रज्ञा० २३। खड्गस्थानीयाया वस्त्रादिभिरुपष्टम्भः। स्था० ३३२ अवष्टम्भम्। ओघ. बाह्यनिर्वत्तेर्या खड्गधारास्थानीया स्वच्छतरपुद् १५४। उपगृह्णातीति उपग्रहः-भक्तादिः। ओघ० १८३। गलसमूहा-त्मिकाऽभ्यन्तरानिवृत्तिस्तस्याः उवग्गहितो-उवउज्जति उवग्गहितो। निशी० १११ आ। शक्तिविशेषः। जीवा० १६। हस्त्यश्वरथासनमञ्चकादि। | उवग्गहिय- औपग्रहिकम्। ओघ. २१७ उपधिः। उत्त. आचा० १०० औपग्रहिकम्। उत्त० ३५८१ उवगरणपडिया-उपकरणप्रतिज्ञा-उपकरणार्थिनः समाग- | उवग्गहोवही-औत्पत्तिकं कारणमपेक्ष्य संजमोपकरण च्छेयुः। आचा० ३८४१ इति गृह्यते। निशी. १७९ । उपग्रहोपधिःउवगरणसंजमे-उपकरणसंयमः उपधेर्दवितीयो भेदः। उपग्रहोपधिः यः कारणे आपन्ने महामूल्यवस्त्रादिपरिहारः, संयमार्थं गृह्यते सः। ओघ० २०८१ पुस्तकवस्त्रतृणचर्मपञ्चकपरिहारो वा। स्था० २३३) | उवग्गाहियं-औपग्रहिकं, सामुदानिकम्। उत्त० १०८। उवगरयं (वरए)-अपवरकम्। आव०६६६| उवग्गे-उपाग्रे प्राप्ते। (महाप्र०) उवगसित्ताणं-उपसंश्लिष्य, समीपमागत्य। सूत्र. १०७ उवग्घाय-उपोद्घातः-उपोद्घननं-व्याख्येयस्य सूत्रस्य उवगहिओ-उपगृहीतः-उपकृतः। आव० ७६८1 उपग्र- व्याख्यानविधिसमीपीकरणम्। अनुयो० २५८।। हितः। आव० ७९३। उवग्घायनिज्जुत्तिअणुगमे-उपोदघननं-व्याख्येयस्य उवगा-उपगाः-प्राप्ताः। प्रज्ञा०७० उपगच्छन्ति-तदेक- सूत्रस्य व्याख्याविधिसमीपीकरणमुपोद्घातस्तस्य चित्ततया तत्परायणो वर्तन्ते। जीवा० २६०। तद्विषया वा नियुक्तिस्तद्रूपस्तस्या वा अनुगमः उवगारग्ग-उपकाराग्रं-यत्पूर्वोक्तस्य विस्तरतोऽनुक्तस्य । उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः। अनुयो० २५८1 उपोद् च प्रतिपादनाद्पकारे वर्तते तद। आचा० ३१८ घातनिर्युक्त्यनुगमः, निर्युक्त्यनुगमभेदः। आचा० ३। उवगारियलेणाइ-औपकारिकलयनानि-प्रासादादिपीठक- | उवघाइयणिस्सिया- उपघातनिःसृता ल्पानि। भग०६१७ चौरस्त्वमित्याद्यभ्या-ख्यानम्। प्रज्ञा० २५६। उवगारिया- राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीन् । उवघाइयाआरोवणा-सार्द्धदिनद्वयस्य पक्षस्य उपकरोति-उपष्टभ्नातीति उपकारिका-राजधानी- चोपघातनेन लघनां मासादीनां प्राचीनप्रायश्चित्ते स्वामि-सत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका। जीवा. आरोपणा उपघातिका-रोपणा। सम० ४७ २२२पीठिका। राज०८१ उवघात-उपघातो-पीडा व्यापादनं वा। निशी. १३७ आ। उवगिण्हह- उपगृह्णीत-उपष्टम्भं कुरुत। भग० २१९। अशुद्धता। स्था० ३२०। सत्त्वघातादिः। सूत्रस्य द्वात्रिंउवगूहिअ-उपगृहितं-परिष्वक्तम्। सम्प्राप्तकामस्य शद्दोषे द्वितीयः। अनुयो० २६१। बाधा। ओघ० १३७ षष्ठो भेदः। दशवै. १९४| उवघातनिस्सिते-उपघाते-प्राणिवधे निश्रितं-आश्रितं उपउवगो-अन्यगच्छीयः साधुः। बृह. २१० अ। खुड्डा घातनिश्रितं, दशमं मृषा। स्था० ४८९। कुमारो वा। निशी० ८८ अ। उवघाय-उपघातः-प्रतिसेवणादि। ओघ. २२५। सर्वतो उवग्गं-उपाग्रं-समीपभूतम्। आव०४०७) घातनम्। प्रश्न. १३७। संयमात्मप्रवचनबाधात्मकः। उवग्गछाया- छायाभेदः। सूर्य ९५१ उत्त. ५१८ पिण्डादेरकल्पनीयताकरणं, चरणस्य वा उवग्गह-उपग्रहः-शिष्याणामेव ज्ञानादिष् शबली-करणं, आधाकर्मत्वादिर्भिदुष्टता। स्था० १५९। सीदकाम्पष्टंभ-करणम्। व्यव० १७२ अ। उपष्टम्भः। | उवघायजणयं-उपघातजनक-सत्त्वोपघातजनकम्। सूत्रपिण्ड० २७। उप-गृह्णातीति उपग्रहः। ओघ २०७४ दोषविशेषः। आव० ३७५ शिष्याणां भक्तश्रुतादिदा-नेनोपष्टम्भनम्। प्रश्न० १२६॥ | उवघायणामे- यदुदयात् स्वशरीरावयवैरेव शरीरान्तः अनाचार्याणामन्यगणसत्कानां दिग्बन्धं कृत्वा धरणम्। | परिवर्द्धमानैः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [204] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) आगम - सागर - कोषः ( भाग :- १) प्रतिजिह्वागलवृन्दलम्बकचोरदन्ताद्भिरुपहन्यते, यद्वा स्वयंकृतोद्बन्धनभैरवप्रपातादिभिरुपघातनाम | प्रज्ञा० ४७३ | उवधायनिस्सिय उपघातनिसृता मृषाभाषा भेदः। दशकै २०९ | उवघेत्तुं - उपग्रहीतुं संस्थापयितुं निर्वापयितुं वा। बृह २१० अ उवचए- उपचीयते-उपचयं नीयतेऽनेनेति उपचय:पुद्गल सङ्ग्रहणसम्पत् पर्याप्तिरिति । प्रज्ञा० ३०९ | प्राभूत्येन चयः । प्रज्ञा० ४३२ | स्वस्याबाधाकालस्योपरि ज्ञानावरणीयादि-कर्मपुद्गलानां वेदनार्थं निषेकः । प्रज्ञा० २९२ उवचओ- उपचयः प्रभूततरा बुद्धिः पिण्ड ४१| परियहस्य चतुर्थ नाम प्रश्न. ९२२ उवचयति- उपचीयते विशेषत उपचयमायाति । प्रज्ञा० २२८ उवचरंति - उपचरन्ति-उपसर्गयन्ति । उप- सामीप्येन मांसादिकमश्नन्ति अथवा श्मशानादाँ पक्षिणां गृध्रादय उपचरन्ति इति । आचा० ३०८८ उवचरए- उपचरकः-चरः । आचा० ३७७ । उपचारकः । आचा० ३६५ | उवचरगो- राजछिद्रान्वेषी । निशी० ३३५अ । उवचरित्तु गृहीत्वा । निशी० २१अ उवचार- उवचरति-पडिजागरति, उवचरति पुच्छति, लोगो-पचारमात्रेणागच्छति, साधूणं मज्जाया चेव जं गिलाणस्स वट्टियव्वं एस, ज्ञानादिकं तस्समीपादीहतीत्यर्थः पच्छित्तं मा मे भविस्सतित्ति निर्जरार्थ एस उपचारः निशी ३१९ अ ग्रहणं अधिगमेत्यर्थः। निशी० २० आ उवचारमेत्तं - कल्पनामात्रं । निशी० २१ अ उवचिअं- उपचितं-साधितम् । आव० १७६ । परिकर्मितम्। औप- १७ उवचिए- उपशोभितं-भृतं। जम्बू० २९२ । उपचितं- समृद्धः । ज्ञाता० ९८ उवचिओ- उपचितः निवेशितः । प्रज्ञा० ८६| जीवा० २२७, १६० | उवचिज्जंति - निषेकरचनतः निकाचनतो वा उपचीयन्ते । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] भग० २५३1 उवधिइज्जा- उपतिष्ठेत् विनयेन सेवेत दशकै० २४५१ उवचिण उपचितवन्तः परिपोषणतः स्था० १७९ | उपचयनं चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया निषेकः स्था० १९५१ परिपोषणम्। स्था० ४१७ | उवचिणाइ- प्रदेशबन्धापेक्षया निकाचनापेक्षया वेति । भग० १०२ उवचिणिसु उपचितवन्तः स्था० २८९ । उवचिय- उपचिंत-तेजितम् । प्रज्ञा० ९१ । उपचितं-परिकमितम् । राज० ३७ | जीवा० २१० युक्तम् जीवा० २०४१ | मांसलम् जीवा. २७१। समानजातीयप्रकृत्यन्तरदलि. कसङ्क्रमेणोपचयं नीतः प्रज्ञा० ४५९ भृतः । जम्बू० ४२१ परिकर्मितम् । भग० ५४०। विशिष्टं परिकर्मितम् । राज० ९३॥ उपचयः पौनःपुन्येन प्रदेशानुभागादेर्वर्धनम्। भग० ५३ औपचयिकः-उपचयनिर्वृत्तः औपयिको वा उचितः। प्रश्न॰ ८१। निवेशितः। औप० ५ | बहुशः- प्रदेशसामीप्येन शरीरे चिता एवेति । भग० २४| युक्तः जम्बू० ४८ उवचीयइ- उपचीयते उपचयमायाति । जीवा० ३२२, ३०६ | उपचयमुपगच्छति । जीवा. ४०० उवच्छगो कक्खो निशी० २११ अ उवजाइय- उपयाचिते देवताराधने भवः औपयाचितकः । स्था० ५१६| उपजीवइ- उपजीवति-अनुभवति। भग० ११२। उपजीवति - उपजीवति जीवनार्थमाश्रयते । व्यव० १६३ । उवजीविओ उपजीवितः । स्था० ३७१ उवजेमणा रसवती निशी० ३४९ आ उवजोइया- ज्योतिषः समीपे ये त उपज्योतिषस्त एवोपज्योतिष्का:- अग्निसमीपवर्तिनो महानसिका ऋत्विजो वा उत्त० ३६४५ उवज्झाए - उपाध्यायः । प्रज्ञा० ३२७ | अध्यापकः । आव ० ३५३| उवज्झाओ - उपयोगपूर्वकं पापपरिवर्जनतो ध्यानारोहणेन कर्माण्यपनयतीति उपाध्यायः आव- ४४९ उवज्झाय- उपाध्यायः- उप समीपमागत्य अधीयतेपठ्यते यस्य सः, उप अधि-आधिक्येन गम्यते सः, उप अधि-आधिक्येन स्मर्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं यस्मात् [205] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] सः, उपाधिः-सन्निधिस्तेन तत्र वा आयः-लाभः श्रुतस्य | उवट्ठावणायरिते-उत्थापनयाचार्यः। स्था० २३९। यस्य, उपाधीनां-विशेषणानां आयो-लाभः यस्मात् सः, उवट्ठाविए गहणं-उपस्थापितस्य-छेदोपस्थापनीयचारित्रं उपाधि-रेवसन्निधिरेव आयं-इष्टफलं दैवजनितत्वेन प्रापितस्य यद् उपधेर्धारणं परिभोगो वा तद् आयानां-इष्टफ-लानां समूहस्तदेकहेतुत्वाद् यस्य, उपस्थापित-ग्रहणम्। बृह. २८६ अ। आधीनां-मनःपीडानां आयो-लाभ आध्यायः, अधियां- उवट्ठावित्तए-उत्थापयितुं-महाव्रतेषु व्यवस्थापयितुम्। कुबुद्धीनां आयोऽध्यायः, दुर्ध्यानं वाऽध्यायः, उपहत स्था०५७ आध्यायो वा अध्यायो येन सः। भग० ३। सूत्रदाता। | उवद्विअ-उपस्थितं-उद्यतम्। ओघ० १७६। स्था० २९९। सूत्रार्थतदुभयविदः । उवहिए-उपस्थितं-प्रत्युदयतम्। आव. ५४१। दीक्षितः। ज्ञानदर्शनचारित्रेषूदयुक्ता-उपयुक्तास्तथा शिष्याणां बृह. २६४ अ। अत्यन्तावस्थायि। भग० १०० सूत्रवाच-नाप्रदानादिनिष्पादका एतादृशा भवन्ति। व्यव० | उवहिता-दूरीकृता। निशी. ९४ आ। १७१ आ। उवहिताओ- गोलोपलखनिः। निशी० ४०आ। उवट्टणं-सकृत् उवट्टणं। निशी. १९० आ। उवट्ठिय-उपस्थापितः। आव० ५५९। उपस्थितः-उद्यतः। उवट्टित्ता-उदवृत्य-तत्परित्यागेनान्यत्र गत्वा। उत्त. उत्त० ६३७। प्रत्यासन्नीभूतम्। उत्त० ६६८। २९६। उवणयं-उपनयनं-कलाग्रहणार्थं नयनं धर्मश्रवणनिमित्तं उवट्टिय-उपस्थापितः। आव. २८८ वा साधुसकाशं नयनम्। आव० १२९। उवट्ठवेति-उपस्थापयति, उपढौकयति, प्राभतीकरोति। । उवणयणं-कलाग्रहणम्। भग०५४५ उपनयनं-बालानां जम्बू० २४४। कलाग्रहणम्। प्रश्न. ३९ उवट्ठाइ-उत्तिष्ठते। आव० ३१८ उवणिक्खिविडं-उपनिक्षिप्य। आव. ५५५ उवहाएज्जा-उपतिष्ठेत् उपस्थानम् उवणिवाय-उपनिपातः-जनमीलकः। स्था०४२ परलोकक्रियास्वभ्युपगम कर्यादित्यर्थः। भग०६४। उवणिविट्ठ-उपविष्टं-सामीप्येन स्थितम्। जीवा. १९९। उवट्ठाणं- गोसादिठाणं। निशी० ७० अ। उपस्थानेन उवणिहि-उप-सामीप्येन निधिः उपनिधिः-एकस्मिन् धर्मचरणाभासोदयमेन वर्तते इति उपस्थानः। आचा. विवक्षितेऽर्थे पूर्व व्यवस्थापिते तत्समीप एवापरापरस्य २२७ वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण यन्निक्षेपणं सः। अनुयो. उवट्ठाणगिह-उपस्थानगृहं-आस्थानमण्डपः। स्था० २९४१ श भग.२००० उवणीअ- उपनीतः-नियोजितः। स्था० २५९। उपसंहाउवट्ठाणसाला-उपस्थानशाला-आस्थानसभा। औप० २३। रोपनययुक्तमुपनीतम्। अनुयो० १३३। अस्थानशाला। आव० ३००| उपवेशनमण्डपः। निर० उपनयोपसंहृतमुप-नीतम्। अनुयो० २६२। आस्थानमण्डपः। निर० १० जम्बू. १८७। उपसंहारयुक्तम्। स्था० ३९७। प्रापितम्। स्था० ४९४। उवट्ठाणा- मासद्वयं चतुर्मासद्वयं चावर्जयित्वा निगतिमं, योजितम्। स्था० २५९। पुनस्तत्रैव वस-तामुपस्थानेति। स्था० ३२१। उवणीए-उपनीतं-योजितम्। जम्ब० १०५ उवट्ठावणा-उपस्थापना-महाव्रतारोपणरूपा। उत्त०५६८। उवणीते- उपनीतं-प्रापितं, दशमो विशेषः। स्था० ४९२१ उप-सामीप्येन सर्वदावस्थानलक्षणेन उवणीय-उपनीतं-योजितम्। जीवा. २६८। उपनयोपसंतिष्ठन्त्यस्यामिति उपस्थापना-शय्या। व्यव० १०४ हृतम्। आव० ३७६। विनीतं, ढौकितं, दायकेन वर्णितगणं । वा। औप. ३९। प्रापितः। आचा० ७८1 उवट्ठावणाए गहणं-तत्रोपस्थापनायां विधीयमानायां उवणीयअवनीयवचनं-उपनीतापनीतवचनं-कश्चिद हस्तिद-न्तोन्नताकारहस्तादिभिर्यद रजोहरणादि गुणः प्रशस्यः कश्चिन्निद्यः। आचा० ३८७ गृह्यते तद् उपस्था-पनाग्रहणम्। बृह० २५६ | | उवणीयवयणं- उपनीतवचनं-प्रशंसावचनम्। आचा० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [206]] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ३८७। प्रज्ञा० २६७। गुणोपनयनरूपम्। प्रश्न. १९८१ उवणीयावणीयवयणं-उपनीतापनीतवचनं-यत्प्रशस्य निन्दति। प्रज्ञा० २६७। यत्रैकं गुणमुपनीय गुणान्तरमपनीयते तत्। प्रश्न. ११८ उवणेइ-उपनयति, प्राभृतीकरोति। जम्बू० २०४। उवण्णं-प्रोझितं। निशी. २७४ आ। उवण्णत्थ-उपन्यस्तं-उपकल्पितम्। दशवै०१७१। उवण्हाणयं-माषचूर्णादिसिणाणं। निशी. ११६ आ। उवतत्तो- उपतप्तः-आपन्नसंतापः। प्रश्न. १९| उवतेसणे- उपदिश्यत इति उपदेशनं-उपदेशक्रियाया व्याप्यमपलक्षणत्वादस्य क्रियाया यद व्याप्यं तत् कर्मेत्यर्थः। दवितीया वचनविभक्तिः। स्था०४२८। उवतेसरुई-उपदेशः-गुर्वादिना कथनं तेन रुचिर्यस्येत्य पदेशरुचिः। स्था० ५०३। उत्त० ५६३। उवत्तावलिए- चतत्रावलितः। सूत्र० ३८७) उवत्तिया-अपवर्तिता। ज्ञाता०४८। उवत्थड-उपस्तीर्णः-उपच्छादितः। भग० ३७, १५३ उवत्थम-अस्तं। निशी०६०। उवत्थाण-उपस्थानं-प्रत्यासक्तिगमनम्। निर० ३३। उवत्थाणियं-उपस्थानं-प्रत्यासक्तिगमनं तत्र प्रेक्षणककरणाय यदा विधत्ते। निर० ३३। उवत्थाणीअं- उपस्थानिकं-प्राभृतम्। जम्बू० २०३, २५२। उवत्थिए-अभ्युपगतः। ज्ञाता० २२० उवत्थिया-उपस्थिता-उपनता। सम०१८ उवदंसं-उपदर्शनम्। आव०७२६। उवदंसणकूड-उपदर्शनकूटं, उपदर्शननामकं कूटम्। जम्बू० ३७७ उवदंसिज्जंति-उपदर्श्यन्ते-निगमनेन शिष्यबद्धौ निःशकं व्यवस्थाप्यन्ते। नन्दी. २१२। उपदर्श्यन्ते उपनयनिगम-नाभ्यां सकलनयाभिप्रायतो वा। सम० १०९। उवदंसिया-उप-सामीप्येन यथा श्रोतृणां झटिति यथावस्थितवस्तुतत्त्वावबोधो भवति तथा स्फुटवचनैरित्यर्थः, दर्शिताः-श्रवणगोचरं नीता उपदिष्टाः। प्रज्ञा०४१ उवदंसेइ-सकलनययक्तिभिः उपदर्शयति। भग०७१११ स्था० ५०३। उपदर्शयति-प्रकाशयति। भग० १४९| उवदिवाभावमूलं- उपदेष्ट्रभावमूलं-उपदेष्टा-यैः कर्मभिः प्राणिनो मूलत्वेनोत्पदयन्ते। आचा० ८८ उवद्दवा-उपद्रवाः-राजचौर्यादिकृताः। भग० ४६९। उवद्दवेइ-उपद्रवयति-उपद्रवं करोति। स्था० ३०५) उवद्दवेह-उपद्रवयथ-मारयथ। भग० ३१८१ उवधाणं-उपदधातीत्युपधानं-तपः। दशवै०१०४। उवधायपंडगो-पंडगस्स बीयो भेओ। निशी० ३१ अ। उवधारणया-धार्यतेऽनेनेति धारणं, उपसामीप्येन धारणं उपधारणं-व्यञ्जनावग्रहेऽपि द्वितीयादिसमयेषु प्रतिसमयपूर्वा-पूर्वशब्दादिपुद्गलादानपुरस्सरं प्राक्तनप्राक्तनसमयगृहीत-शब्दादिपुद् गलधारणपरिणामः तद्भाव उपधारणता। नन्दी. १७४। उपधारणता-अविच्युतिस्मृतिवासनाविषयीकरणम्। स्था०४४१॥ उवधारियं- उपधारितं-अवधारितम। भग० १०१। उवनंद-उपनन्दः । आव० २०११ उवनगरगाम-उपनगरग्रामः। आव० ३०१। उवनिक्खित्ते-उपनिक्षिप्तः-व्यवस्थापितः। आचा० ३४४१ उवनिग्गय-उपविनिर्गतः-निरन्तरविनिर्गतः। राज०६। उवनिहिते-उपनिधीयत इति उपनिधिः-प्रत्यासन्न यदयथा-कथञ्चिदानीतं तेन चरति तदग्रहणायेत्यर्थः इत्यौपनिधिकः, उपनिहितमेव वा यस्य ग्रहणविषयतयाऽस्ति स प्रज्ञादेरा-कृतिगणत्वेन मत्वर्थीयाण्प्रत्यये औपनिहित इति। स्था० २९८१ उवनिहिय-उपनिधिना-प्रत्यासत्त्या चरतिप्रत्यासन्नमेव गृह्णाति यः स औपनिधिकः। प्रश्न. १०६| उवनिही-उपनिधिः-प्रत्यासत्तिः । प्रश्न. १०६) उवन्नास-उपन्यसनं उपन्यासः। दशवै. ३५१ उवन्नासोवणए- वादिना अभिमतार्थसाधनाय कृते वस्तूपन्यासे तद्विघटनाय यः प्रतिवादिना विरुद्धार्थोपनयः क्रियते पर्यन्योगोपन्यासे वा य उत्तरोपनयः स उपन्यासोपनयः। स्था० २५४। उवप्पयाण-उपप्रदानं-अभिमतार्थदानम्। विपा०६५ उपप्रदानम्। दशः १०९। | उवब्बूहियं-उपबृंहितं-समर्थितं, अनुमतं वा। आव० ५३९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [207] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उवभोग-उपभज्यत इति उपभोगः उवयालि-अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य तृतीयमध्य-यनम्। अनुत्त० १७२१ ८२८। सकृद्धोगः। भग० २९७। आव० ८३० | उवयाली-अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य तृतीयमध्ययनम्। पुनःपुनर्भुज्यत इति उपभोगः-वस्त्रालङ्कारादि। प्रज्ञा० अन्त० १४१ ४७५ ण्हाणवत्थाभरणगंधमल्लाण उवयिगा-उद्देहिया। निशी. ५३आ। लेवणधूवणवासतंबोलादि। निशी. आ। धारणम्प- उवयिया-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ भोगः। आव० ३२५। उपभोगः-पौनः पन्येन चोपभोजन- । उवयोगपदं- प्रज्ञापनायामेकोनत्रिंशत्तमं पदम्। भग. मुपभोगः। भग० ३५० ७१३ उवभोगंतराए- उपभोगान्तरायः-यदुदयवशात् सत्यपि उवरए- उपरतः-सङ्कुचितगात्रः। आचा० २०४। उपरतःविशि-ष्टवस्त्रालङ्कारादिसम्भवेऽसति च कालगतः। व्यव० ३४ आ। प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा उवरति-उपरतिः-विरतिः। स्था० ३। केवलकार्पण्यान्नोत्सहते भोक्तुं तत्। प्रज्ञा०४७५। उवरतो- उपरतः-रावः। उत्त० २१८ उवम-उपमीयतेऽनेन दार्टान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम्। उवरय-उद्वलको-वियोजकः। सम०४७। उपरताः। दशवै० ३४१ आचा० ३५० उवमा-उपमा-सादृश्यम्। उत्त० २७९। दृष्टान्ताः। बृह. उवराग-उपरागः-ग्रहणम्। भग० १४७। उपरञ्जनं १६८ आ। सादृश्योपदर्शनरूपा। उत्त० २७२। उपमादोषः- | ग्रहणमि-त्यर्थः। प्रश्न. ३९। हीनाधिकोपमानाभिधानं, अष्टाविंशतितमः सूत्रदोषः। उवराते- उपरागः-राहुविमानतेजसोपरञ्जनम्। स्था० आव. ३७४। उपमा। प्रज्ञा० ३६४। खादयविशेषः। जीवा. २७८। उपेत्युपयोगपूर्वकं मेति ज्ञानं, उपमा उवरि-उपरि-कुड्यस्थाने। ओघ १७५ नीवादौ। ओघ. सम्प्रधारणा। उत्त० २२४। १६२। अग्रे। स्था० २२५ उवमाणं-उपमानं-दृष्टान्तः। ओघ०१७ उवरिएणं-जत्थ गामे संखडी तत्थेव गत्कामा जे वा उवमादोसो-उपमादोषः-यत्र हीनोपमा क्रियते। सूत्रस्य तस्स गामस्स उवरिएणंति मज्झेण गंतुकामा। निशी. द्वात्रिंशद्दोषेऽष्टाविंशतितमो दोषः। अनुयो० २६२ ३१६अ। उपरितनः। आव० २६२। उवयंति-अवपतन्ति-अवतरन्ति। आचा० २६६। उवरिचरे- उपरिचरः सत्यवादी वसू राजा। जीवा० १२११ उवयरयं-अपवरकम्। आव० ७२२ उवरिभासा-उपरिभाषा-उत्तरकालं तदेव किलाधिकं यद उवयातिते-उपयाचिते-देवताराधने भवः औपयाचितकः। भाषते सा। आव०७९२ स्था०५१६| उवरिमागारो-उपरिमाकारः-उपरितन आकारःउवयार- उपचारः। आव०५६, २१३| पूजा। राज० ३६| उत्तरङ्गा-दिरूपः। जीवा० २१६) प्रज्ञा० ८६। जीवा० २२७, २५५) जम्बू०७७। औप० ५१ उवरियलेणं-उपरितलम्। भग. १९५१ आराधनाप्रकारः। दशवै. २५० लोकव्यवहारः। औप. उवरिल्लए-उपरितनं, उपरिभवम्। दशवै. २११। १३। देवतापूजा। प्रश्न. ५१। पूजा। उपकारः। प्रश्न उवरिल्ले-उपरितनम्। अनुयो० १७७ ११७ दशवै०७९| पूजा। भग० ५४० व्यवहारः। स्था० उवरिल्ले माणसे- उपरितनमध्यमाधस्तनानां मानसानां ४०९। व्यवहारः, पूजा वा। भग० ९२५ सद्भावात् तदन्यव्यवच्छेदायोपरितने, माणसेउवयारियलेणं- गृहस्य पीठबन्धकल्पम्। भग०१४६। गंगादिप्ररूपणतः प्रागक्तस्वरूपे सरसि उवयारिया-उपकरोति-उपष्टभ्नाति प्रासादावतंसकानि- सरःप्रमाणायष्कयुक्ते इत्यर्थः। भग०६७४। त्युपकारिका-राजधानीप्रभुसत्कप्रासादावतंसकादीनां उवरिल्ले माणसुत्तर-उपरितनमानसोत्तरे। भग०६७४। पीठिका। जम्बू. ३२१॥ उवरुद्द-उपरौद्रः-नरके षष्ठः परमाधार्मिकः। आव०६५०| ४७६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [208] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ३५२॥ यस्तु तेषामङ्गोपाङ्गानि भनक्ति गामीति। सूत्र. २० उपयाच्यते-मृग्यते स्म यत्तत् सोऽत्यन्तरौद्रत्वाद्परौद्रः, नरके षष्ठः परमाधार्मिकः। उपयाचितं-ईप्सितं वस्त्। ज्ञाता० ८४। सम० २८1 उपरुद्रः-षष्ठः पर-माधार्मिकः। सूत्र० १२८१ उववाइया-उपपाताज्जाताः उपपातजाः अथवा उपपाते उवरुवरि-उपर्युपरि-निरन्तरम्। प्रश्न. ५११ भवाः औपपातिकाः-देवाः नारकाश्च। दशवै०१४१| उवरेगं- उपरेकं-एकान्तं, निर्व्यापारता वा। उत्त० १९३। उववाए-उपपातःउवरोह-उपरोधः-निषेधः। दस० १०८। सङ्घट्टनादि- उपपाताभिमुख्येनापान्तरालगतिवृत्त्ये-त्यर्थः। भग. लक्षणः। आव०५९३। ९६३। देवजन्म। स्था० ४१९। नारकायुप-पातार्थः, उवल-उपलः-गण्डशैलादिः। उत्त०६८९। टङ्कादयुपकर- द्वादशशते षष्ठोद्देशकः। भग० ५९६ उपपातःणपरिकर्मणा योग्यः पाषाणः। जीवा. २३। प्रज्ञा० २७ प्रादुर्भावः। प्रज्ञा० ३२८१ पृथिवीभेदः। आचा. २९। दग्धपाषाणः। भग० २९३। उववाएणं-उपपतनम्पपातः, बादरपृथ्वीकायिकानां छिन्नपासाणा। निशी० ८० अ। छिन्नपाषाणाः। बृह. पर्याप्तानां यदनन्तरमुक्तं स्थानं १६२ आ। तत्प्राप्त्याभिमुख्यमिति भावः तेनोपपा-तेन, उवलद्धिमंति-उपलब्धिमन्ति-द्रष्ट्रणि। दशवै. १२९| उपपातमङ्गीकृत्य। प्रज्ञा०७३। उवलद्धी-उपलब्धिः, उपलब्धये-उपलब्धिनिमित्तम्। उववात-उपपातं-नारकदेवानां जन्म। स्था०४६६। आव० २८० उपपातः-गमनमात्रम्। स्था० ३७६) उवलभसि-उपलम्भयसि, दर्शयसि। भग०६८३। उववातसभा-उपपातसभा-यस्यामुत्पद्यते सा। स्था० उवलभेज्जा -उपलभेत-प्राप्नुयात्। जीवा० १२३। उवलिंपिज्ज-उपलिम्पनम्। आचा० १३५ उववातो-उवसंपज्जणं| निशी० २४१ अ। उवलित्ता- जातिगिताभेओ। निशी० ४२ आ। उववायं-उपपातं-जन्म। आचा० १६३। भवनपतिस्वउवलेद्दा-संतुष्ठा। उत्त० १९२ स्थानप्राप्त्याभिमुख्यम्। भग० १४३। उत्पातेन निर्वत्तं उवलेवण-उपलेपनं छगणादिना। अन्यो० २६। औत्पातिकम्। आव० ७३११ उप-समीपे पतनं-स्थानं छगलमट्टियाए लिंवणं। निशी० २३१ । उपपातः दृग्वचनविषयदेशावस्थानं। उत्त०४४। उवलेवणकओवयारो-कृतोपलेपनोपचारः। आव० ४१६) उपपातः-सेवा। भग० १६८१ उवल्लियंती-उपलीयन्ते-आश्रयन्ति। व्यव. २७८आ। | उववायगई-उपपाताय-उत्पादाय गमनं सा उपपातगतिः। उवल्लिसामि-उपालयिष्ये-वत्स्यामि। आचा० ४०६। भग० ३८११ उववज्जति-उत्पदयते। जीवा० ११० उववायगती-उपपात एव गतिः उपपातगतिः। उववज्जिऊण-उपयुज्य-उपयोगं दत्त्वा। ओघ० ११६) गतिप्रपातस्य चतुर्थो भेदः। प्रज्ञा० ३२६। उववज्झा-उपवायाः-राजादिवल्लभाः। औपवायाः- उववायसभा-सिद्धायतनस्योत्तरपूर्वस्यां सभा राजा-दिवल्लभानां कर्मकरा इति। दशवै. २४८१ उपपातसभा। जीवा० २३६॥ उववण्णो-उपपन्नः। जीवा. ९७।। उववास-उपवासः, अभक्तार्थकरणम्। स्था० १२६) उववत्तारो- वचनव्यत्ययादुपपत्ता भवति इति। स्था० उववूह- उपबृंहणं-समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन ४२० तद्वद्धि-करणम्। दशवै०१०२ उपब्रहणम्पबृहाउववन्नो- उपपन्नः-आश्रितः। सूर्य २८१। दर्शनादिगुणान्वि-तानां सुलब्धजन्मानो यूयं युक्तं च उववाइए-उपपातः-प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंक्रान्तिः , भवादृशामिदमित्यादि-वचोभिस्तत्तदगणपरिवर्द्धनं सा। उपपाते भवः औपपातिकः। आचा० १६। उपपादुकः- उत्त. १६७। समानधार्मि-काणां सद्गुणप्रशंसनेन भवान्तरस-क्रान्तिभाक्। आचा० २० तद्वद्धिकरणम्। प्रज्ञा० १६| उववाइय-उपपातेन निर्वृत्तः औपपातिकः-भवाद्भवान्तर- | उववूहइ-उपळहते-समर्थयति। दशवै०४४। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [209] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उववेओ-उपपेतं इति लक्षणव्यजनगणोपपेतः। स्था० उवसंपज्जइ-उवसम्पदयते। आव० ८२५१ ४६१ उवसंपज्जणा-उपसम्पदः। दशवै. १०५। उववेय-उपपेतः-युक्तः । जीवा२७४। भग. ११९। उप उवसंपज्जमाणगति-उपसंपद्यमानगतिःअप इतइति शब्दत्रयस्य स्थाने यदन्यमुपसम्प-द्यआश्रित्य तदवष्टम्भेन गमनम्। शकन्ध्वादिदर्शनादुपपेतः-युक्तः। ज्ञाता०११। विहायोगतेस्तृतीयो भेदः। प्रज्ञा० ३२७ उवसंकमित्ता-उपसङ्कम्य। सूर्य. ११) उवसंपज्जसेणियपरिकम्मे-पञ्चमं परिकर्म। सम. उवसंकमित्तुं-उपसङ्क्रम्य, आसन्नीभूय। आचा० ३३१| ૨૮. उपसङ्क्रम्य-उपेत्य। आचा० २७१। उवसंपज्जित्ता-उपसम्पदय-सामीप्येनाङ्गीकृत्य। उवसंखा-उपसंख्या-सम्यग्यथावस्थितार्थपरिज्ञानम्। दशवै. १५० सूत्र. २१४ उवसंपन्न-उपसम्पन्नं-नियमायोत्थितम्। सूत्र० ४१० उवसंत-उपशान्तं-अनाकुलम्। ओघ० १७६। किञ्चि- उवसंपया-उपसंपत्-सामीप्येनाङ्गीकरणं न्मिथ्यात्वरूपतामपनीय सम्यक्त्वरूपतया परिणतं यदेतदुत्प्रव्रजनम्। दशवै. २७३। सामाचार्या दशमो किञ्चि-न्मिथ्यात्वरूपमेव। बृह. २१ आ। भेदः। उपसम्पत्-इतो भव-दीयोऽहमित्यभ्युपगमः। रागद्वेषपावकोपशमाद् उपशान्तः। आचा०१५० स्था० ४९९। उपसम्पत्। आव० २५९। सामाचार्या दशमो रूपालो-कानाद्यौत्सुक्यत्यागतः। अनुयो० १४०। भेदः। उपसम्पत्-ज्ञानादिनिमित्त-माचार्यान्तराश्रयणम् अन्तर्वृत्त्या उप-शान्तः। भग०४९० | भग०९२०। उपसंपत्तिरूपसंपत्-ज्ञानाद्यर्थ विष्कम्भितोदयमपनीतमिथ्यास्वभावं च। भवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः। स्था० १४०। त्वदीविष्कम्भितोदय-मित्यर्थः। स्था० ४८1 उपशान्तं-न योऽहमित्येवं श्रुताद्यर्थमन्यदीयसत्ता-भ्युपगमः। सर्वथाऽभावमापन्नं, निकाचितादयवस्थोद्रेकरहितं वा। अनुयो० १०३। उवसंपदनं उपसम्पत्-अन्यरूपप्रज्ञा०४०३। औप० ३५। जम्बू. १४६। जम्बू० ३८९। प्रतिपत्तिः । उत्त०४७० जम्बूद्वीपैरवते तीर्थंकर-नाम। सम० १५३। उवसंहार- उपसंहारः-उपनयः। दशवै०६२ बृह. १३६| पवज्जापरिणतं। निशी. २८ । उपशान्तः-उपरतः। उवसग्ग-उपसृज्यते-धातसमीपे नियज्यते इति दशवै. २०६। सूत्र०४१७। अपगत-सन्देहः संवृत्त इति। उपसर्गः। प्रश्न. ११७। बाधाविशेषाः। स्था० २८० सूत्र० ४०९। अनुदयावस्थः । प्रज्ञा० २९१। राजादिजनितः। ओघ. १९०। उप-सामीप्येन सर्जनम्, उवसंतकसातो-उपशान्तकषायः। उत्त० २५७। उपसृज्यतेऽनेनेति वा करणसाधनः, उवसंतजीवी-अन्तर्वृत्त्यपेक्षया उपशान्तजीवी। प्रश्न. उपसृज्यतेऽसाविति वा कर्मसाधनः। आव०४०४। १०६| प्रव्रज्याग्रहणे निवारणम्। पिण्ड० १३९। उवसंतमोह-उपशान्तमोहः-अनत्कटवेदमोहनीयः। भग. देवादिकृतोपद्रवाः। स्था० ५२३। राजस्वजनादिकृतो देव२२३। श्रेणिपरिसमाप्तावन्तर्मुहूर्त मनुष्यतिर्यञ्चकृतो वा। पिण्ड० १७०| उप-सामीप्येन यावदुपशांतवीतरागः। भूतग्रामस्यैकादशं गुणस्थानम्। सृज्यते तिर्यग्मनुष्यामरैः कर्मवशगेनात्मना क्रियत आव०६५० इति उपसर्गः। उत्त. १०९। उपसर्गः-उपसर्जनं, उवसंतमोहणिज्जो-उपशान्तमोहनीयः-उपशान्तं धर्मभ्रंशनम्। दिव्यादयः। भग०१०१। अनुदयं प्राप्तं मोहनीयं दर्शनमोहनीयं यस्यासौ। उत्त० । उवसग्गपरिण्णा-उपसर्गपरिज्ञा, ३०६। सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे तृतीयमध्ययनम्। आव० उवसंपजहण-उवसंपदनं उवसम्पद-अन्यरूपप्रतिपत्तिः , ६५१| उत्त०६१४॥ सा च हानं च स्वरूपपरित्याग उपसम्पद्धानम्। उत्त० | उवसग्गपरिन्ना-सूत्रकृताङ्गे तृतीयमध्ययनम्। सम० ४७०। | ३१| मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [210] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] उवसग्गसहो- उपसर्गसहः । आव० ६४८ । उवसत्तो- उपसक्तः गाढमासक्तः । उत्त० ६३२ | उवसमंति- उपशाम्यन्तिसंवर्तकवायुविकुर्वण्णान्निवर्त्तन्ते, संवर्त्तकवातविकुर्वणमुपसंहरन्तीति भावः । राज० २३ | उवसम-उपशममिति औपशमिकम् । विपाकोदयविष्कम्भणलक्षणः । दशवै० ४३ । उपशमः - विपाकोदयविष्कम्भलक्षणः। नन्दी० ७७| क्रोधाद्युदयाभावे भवति । आचा० १५०। शान्तिरूपः । दशवै० २३४| पञ्चदशदिवसनाम। जम्बू० ४९०। सूर्य० १४७। क्षायोपशमिकः । सूत्र० ६। विंशतितमो मुहूर्तनाम । जम्बू ४९१| मध्यस्थपरिणामः । आव० ८५१ । उदीर्णस्य क्षयः अनुदीर्णस्य च विपाकतः प्रदेशतश्चाननुभवनम् । सर्वचैव विष्कम्भितोदयत्वमित्यर्थः भग० ५९॥ खमा दशवै० १२४ | उदयनिरोधोदयप्राप्ताफलीकरणम् । दशवै० २३४ | उवसमणा उपशमना उदयोदीरणानिधत्तनिकाचनाकरणानामयोग्यत्वेन कर्म्मणोऽवस्थापनम्। स्था. २२११ उवसमविवेयसंवरं उपशमविवेकसंवरम्, चिलातस्योपदेशः आव• ३७११ उवसमिए- उपशमः उदीर्णस्य कर्म्मणः क्षयोऽनुदीर्णस्य विष्कम्भतोदयत्वं स एवोपशमिकः - क्रियामात्रं, उपशमेन वा निर्वृत्तः औपशमिकः सम्यग्दर्शनादि । भग॰ ६४९। औप-शमिकः-उपशमनमुपशमःकर्मणोऽनुदया क्षीणावस्था भस्मपटलावच्छन्नाग्निवत् स एव तेन वा निर्वृतः। अनुयो० ११४ | 3 उवसामिअं- उपशमितं-भस्मछन्नाग्निकल्पतां प्रापितम् । आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) आव० ७९। उवसामेमाण- क्षुद्रव्यन्तराधिष्ठितं समयप्रसिद्धविधिनोपशम-यन्त इति । स्था० ३५३ | उवसाहिज्जउत्ति- पच्यताम्। निशी० ३४९ आ । उवसित- उपाश्रितः अङ्गीकृतः । वैयावृत्त्यकरत्वादिना प्रत्या-सन्नतरः। द्वेषः। शिष्यप्रतीच्छककुलाद्यपेक्षा । भग० ३८५| उवस्सए - उपाश्रयः । प्रश्न० १२७ | उवस्सओ- उपाश्रयः वसतिः ओघ १२७| उवस्सग - उपाश्रयः वसतिः । ओघ० १७३ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] उवस्सगा— उपाश्रयाः । बृह० १८३ अ । उवस्सते उपाश्रयः निलयः प्रश्न. १ उवस्सय- उपाश्रयः वसतिः । ओघ० ६५, १७३। दशवै० २१० जम्बू. १२१ उपाश्रयः गृहपतिगृहादिकम् । स्था० ३१५ वसतेर्वृत्तिपरिक्षिप्तः परेषामनालोकवत इत्यर्थः । ज्ञाता० २०५ | उपाश्रयाः - उपाश्रीयन्ते - भज्यन्ते शीतादि त्राणार्थ ये ते उपाश्रयाः वसतयः । स्था० १५७॥ पडिस्सयो। सव्वगं वा आसणं । दशवै० १११ | उवस्सयसंकिले से द्वितीयः संक्लेशः । उपाश्रयोवसतिस्तद्विषयः सङ्क्लेशः - असमाधिः उपाश्रयसङ्क्लेशः। स्था० ४८९ | उवस्थित उपाश्रितः द्वेषः शिष्यकुलाद्यपेक्षा स्था० ४४१| द्वेषः, शिष्यप्रतीच्छककुलाद्यपेक्षा स्था० ३१९ | उवहडे - उपहृतं - भोजनस्थाने ढौकितं भक्तमिति भावः । स्था० १४८ | उवहतो - अविसुद्धो । निशी० ११६ अ उवहय- उपहतिः । उत्त० १४५ | सदोसं । निशी० ८१ आ । उवहयपरिणामो- उपहतपरिणामः । आव० ५१३ | उवहरड़ उपहरति विनाशयति। ज्ञाता० १९२ उवहाणं- उपधानं तपः । सूत्र- ६५ ६९, ७५ तपश्चरणम्। सूत्र. २५१ | अनशनादिकं तपः सूत्र० ५८१ आगमोपचा ररूपमाचाम्लादि। उत्त० १२८ गुणोपष्टम्भकारि । प्रश्न० १५७। उच्छीर्षकम् । बृह० २२० अ । उपधानंकरणम् । व्यव. ५० आ। स्थगनम् । व्यव० ५आ। प्रायश्चित्तम् । व्यक० १९५अ विहितशास्त्रोपचारः । उत्त॰ ६५६। तपः। स्था० ४४५। उपधानं तपः । सम० ५७ । स्था० ६५, १९५॥ उपधीयते उपष्टभ्यते श्रुतमनेनेति उपधानं श्रुतविषयस्तपउपचारः । स्था० १८१। विधानम् । सम० १२७ । उपदधातीत्युपधानं उपकरोतीत्यर्थः ओघ० ११३। अङ्गानङ्गाध्ययनादौ यथायोगमाचाम्लादितपोविशेषः । उत्त० ३४७ । उवहाणगं- पूयादिपुन्नं सिरोवहाणं निशी. ६१ अ उपधानम्। स्था० २३४) उपधानकं अप्रतिलेखितदृष्यपञ्चके द्वितीयो भेदः आव० ६५२१ उवहाणपडिमा उपधानं तपस्तत्प्रतिमोपधानप्रतिमा, द्वादश भिक्षुप्रतिमा एकादशोपासकप्रतिमाश्चेत्येवंरूपा स्था० ६५५ सम० [211] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ९६| संयमः संयमशरीरं वा येन स उपधिःउवहाणवीरिए-उपधानं-तपस्तत्र वीर्यं यस्य स उपधान- वस्त्रादिस्तदविषयः सक्लेशः-असमाधिः। स्था०४८९| वीर्यः-तपस्यनिगूहितबलवीर्यः। सूत्र०६५ उवहिसंभोग-उपधेः संभोगः उपधिसंभोगः। व्यव० ११९| उवहाणसुयं-उपधानश्रुतं-आचाराङ्गस्याष्टममध्ययनम् | उवही- उवधिः-परवंचनाभिप्रायः। बृह. ४६ आ| निशी. । उत्त०६१६। सम० ४४। उपधानश्रुतं, आचारप्रकल्पे २८९ आ। प्रथमश्रुत-स्कन्धस्याष्टममध्ययनम्। आव० ६६०| उवाइक्कम्म- उपातिक्रम्य-सम्यक् परिहत्य। आचा० प्रश्न.१४५ ३५६| उवहारं-उपहारः। आव० १९०| बलिः। आव०६९८1 उवाइणावित्तए-उपानाययितुं, संप्रापयितुम्। ब्रह. ११४ उवहारा-बलिमादिया। निशी. २६९ अ। आ। उपादापयितुं ग्राहयिमित्यर्थः। ज्ञाता०१७७ उवहारियं-अवधारितं- निर्णीतम्। आव०६३५। उवाइणावित्ता-उपादापय्य-प्रापय्य। भग० २९२ उवहि-उपदधातीति उपधिः-उप-सामीप्येन संयम उवाइणित्ता-उपनीय-अतिवाय। आचा० ३६५ धारयति पोषयति चेत्यर्थः। स च पात्रादिरूपः। ओघ. उवाइति-उपयाचते। आव० ४०४। १२। उपकरणम्। उत्त० ५८८ वर्षाकल्पादिः। उत्त. उवाईय-उपादितं-उपभूक्तम्। आचा० १०८। ३५८1 उपकरणमाभरणादिद्रव्यतो, भावतस्तु छद्मादि उवाईयसेसेण-उपादितं-उपभुक्तम्, तस्य येनात्मा नरक उपधीयते। उत्त०४६३। उपधिः शेषमुपभुक्तशेषम्। आचा० १०८१ संस्तारकादिः। ओघ०८० रजोहरणादिः। स्था० ३१७ उवाए-उपायः-अप्रतिहतलाभकारणम्। ज्ञाता० ३४| उपधीयते-सगृह्यत इति उपधिः। आचा० १८० उवाओ-अवपातः। गतः। आचा० ३३८1 उपायः। आव० आगमोक्तं वस्त्रादिः। दशवै. १९९। पात्रनियोगादिः। ४१४॥ व्यव. २३७ अ। उपधिः-वस्त्रादिः। प्रश्न० १२४ उवागच्छति-पविसति। निशी० २३० अ। उपधीयते-ढौक्यते दुर्गतिं प्रत्यात्मा येनासा-वपधिः- उवागच्छिज्जा-उपागच्छेयुः-अतिथयो भवेयुः। आचा० माया, अष्ट-प्रकारं वा कर्म। सूत्र०६८। उपकरणम्। ४०३ आव० ५६८ प्रज्ञा. २९११ प्रश्न. ३९। उपदधातीति उवागमण-उपागमनं-स्थानम्। आचा० ३७५) उपधिः। ओघ. २०७। माया। प्रश्न० २८ औधिकः। उवात- अवपातः। सेवा। स्था० १२९, ५१६। ज्ञाता०४। प्रश्न. १५६। माया। सूत्र. १०३। उपदधातीति उपधिः- | उवातिणा-नयति। निशी. २२ आ। उप-सामीप्येन संयमं धारयति पोषयति चेति उवातिया-उपयाचितम्। निशी. ३५१ आ। पात्रादिरूपः। ओघ. १२२ आव०६६१। उपधीयते उवाते-उपायः-उपेयं प्रति पुरुषव्यापारादिका येनासावुपधिः-वञ्चनीय-समीपगमनहेतुर्भावः। भग० साधनसामग्री स यत्र द्रव्यादावपेये अस्तीत्यभिधीयते ५७२। उपधिः-उपकरणम्। पिण्ड० १२। कषायः। दशवै. यथैतेषु द्रव्यादिवि-शेषेषु साधनीयेष्वस्त्युपायः, ७६। उवकरणं| निशी० ६४ आ। उपादेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमुपायः। उवहिअसुद्धं- उपधिना-मायया अशुद्धं-सावयं उपध्यशुद्ध, आहरणस्य द्वितीयो भेदः। स्था० २५३। अधर्मद्वारस्यैकोनत्रिंशत्तमं नाम। प्रश्न. २६। उवातो-आणानिद्देसो। दशवै० १३९। उवहिए-उपधिकः-मायित्वेन प्रच्छन्नचारी। ज्ञाता०८१। उवादिणावेत्ता-उपादाय-गृहीत्वा, आक्रम्य। सूत्र० २३४। उपहितः-प्रक्षिप्तः-प्राप्तः। भग. १००। उवादीयमाणा-उपादीयन्ते-कर्मणा बध्यन्ते। आचा० ७८1 उवहिओ-अधिकज्ञानाद्यर्थकः सन् गुरुषु बहुमानपरः। उवाय-खड्डा। दशवै०७४। एकान्तमृद्भणनादिलक्षणः। व्यव. २३६ अ। दशवै. २४७। उपसामीप्येन(आयः) विवक्षितवस्तुनोऽविउवहिय-औपधिकः-मायाचारी। प्रश्न. ३० कललाभहेतुत्वाद्वस्तुनो लाभ एवोपायःउवहिसंकिलेसे- प्रथमसङ्क्लेशः। उपधीयते-उपष्टभ्यते | अभिलषितवस्त्व-वाप्तये व्यापारविशेषः। दशवै०४०। पजा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [212] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] उपार्जनहेतुः । उत्त० ६३१। उदायकारी उपायकारी सूत्रोपदेशप्रवर्त्तकः सूत्र- २३४५ उवायकिरिया - उपायक्रिया यद्द्रव्यं येनोपायेन क्रियते सा। सूत्र० ३०४ | उवायणं अवपातयतो-अंशतोऽकुर्वतः व्यव० २९ अ उवायवं— अवपातवान्-वन्दनशीलः, निकटवर्ती वा । दशवै० २५३ | उवारियालेणे आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) चमरचञ्चाबलीचञ्चाभिधानराजधान्योर्मध्यभागे तद् भवनयोर्मध्योन्नताऽवतरत् पार्श्वपीठरूपे अवतारिकलयने सम० ३१| उवालंभ - उपालम्भनं उपालम्भोभङ्ग्यन्तरेणानुशासनमेव स यत्राभिधीयते सः । आहरणतद्देशे द्वितीयो भेदः । स्था० २५३ । उपालम्भःइयमेवानौचित्यप्रवृत्ति प्रतिपादनगर्भा स्था० १५५ सपिपासशिक्षारूप उपालम्भः । बृह० १५० आ । सानुनयोपदेशप्रदानम्। व्यवः ११७ अ उपालम्भनं उपालम्भ:- भंग्यैव विचित्रं भणनम्। दशवै० ४६ ॥ उवाल्लियइ उपलीयते । आचा० ३६५ उवासंतर अवकाशान्तरं- आकाशविशेषः, अवकाशरूपान्तरालं वा । भग० ७७| स्था० ८६ । उवासंतरे दद्वयोरन्तरमवकाशान्तरम्। भग- २७रा स्था ४३२| उवासग- उपासकः - श्रावकः । आव० ६४६ | निशी० २५अ | सम० ११९| साधू चेड़ए वा पोसहं उवासतो उवा-सगो भवति । निशी. १२१ आ उपासते सेवन्ते यतीनित्युपासकाः श्रावकाः। उत्तः ६१३ उवासगदसा उपासकानां श्रमणोपासकानां सम्बन्धिनोऽनुष्ठानस्य प्रतिपादिका दशा दशाध्ययनरूपा उपासक दशाः । उपा० १| दशवै० ४७ | उवासणा - उपासना - नापितकर्म । आव० १२९ | उवासमाणा– रात्रिजागरणात्तदुपासनां विदधानाः । स्था० ३५३| उवासय- उपासकः । दशवै० ४७ । उवाहणं- उपानत् । आव० ३०५ ३४१| उवाही - उपाधीयते व्यपदिश्यते येनेत्युपाधिः विशेषणं स उपाधिः । आचा० १५६ | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] उविच्च- उपेत्य स्वप्रवृत्त्या उत्त० ३९१ उविद्धो - अवबद्धः । आव० ३५१ | उविय परिकर्मितम् जाता० २३| उवीलगो- आलोययं गृहंतं जो महुरादिवयणपओगेहिं तहा भाइ जहा सम्म आलोएति सो उवीलगो। निशी० १२८ आ । उवीलणं - निश्चयम् । निशी० १४२अ । अवपीडना, बन्धनविशेषः । ज्ञाता० २३२ | उवीलेमाणे- अवीपलयन्- बाधयन् । विपा० ३९ | उवेक्खेज्जा- उपेक्षेत अवधीरयेत्। उत्त० ११२ उवेक्खेख्यो- उपेक्षितव्यः आव० ६४१ उवेच्च- उपेत्य, आकुट्टिकया। बृह. १३९ आ उवेहमाण- उपेक्षमाणः- अकुर्वन्। आचा० १५६ परीषहोपसर्गान् सहमान इष्टानिष्टविषयेषु वोपेक्षमाणो माध्यस्थ्य-मवलम्बमानः । आचा० ४३० उत्प्रेक्षमाणःअवगच्छन्। आचा० २१२१ पर्यालोचयन्। आचा-२२४१ उवेहा - उपेक्षा- उप-सामीप्येनेक्षा, अवधीरणायां वर्त्तते । ओघ १९४ उवेहे उपेक्षेत- औदासीन्येन पश्येत् । उत्त० ९१। उवहंतो अवपतन् । आव० २०३१ उव्वइ - उद्वर्त्तयति-मक्षिततैलापनयनं करोति । जम्बू० ३९४ | उव्वट्टण - उद्वर्त्तनं तत्प्रथमतया वामपार्श्वेन सुप्तस्य दक्षिणपार्श्वेन वर्तनम् । आव० ५७४ । उद्वर्त्तनानारकति-र्यगेकेन्द्रियेभ्यो निर्गमः । आव० ५३३ | उद्वर्त्तनं- लोठनम् । पिण्ड १६४९ पकापनयनलक्षणम् | दशकै ११७| उव्वङ्कणड्डू उद्वर्त्तनार्थ उद्वर्त्तननिमित्तम्। दशवै २०६। उवयं उद्वर्त्तकं चूर्णपिण्डम् । जम्बू. ३९४॥ उव्वट्टा - उद्वृताः । प्रज्ञा० ३९७ | उव्वट्टिताणि- उद्वर्त्तिता च्याविता । पिण्ड० १२३ | उव्वति एक्कसि उबट्टेति । निशी० १९६ आ उव्वट्टो - उद्वृत्तः । आव० १७३ | उव्वणवेसो उल्बणवैषः ओघ० १४६| उव्वण्णो- उत्कंठितः व्यव० २०३ आ। उव्वत्ततो- उद्वर्तयन्। आव० ३१३ ओघ० ८४ [213] “आगम- सागर-कोषः” [१] Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] उव्वत्तणं उद्वर्तनम् - मार्गपरावर्त्तनं । बृह० १२९ आ उत्ताणयस्स पासल्लियकरणं निशी. २११ अ उद्वर्ततेयतो व्रजस्ततो याति । ओघ० ४७ उव्वत्तणा परावत्तणागुंचणपसारणा कायव्वा निशी आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) ६० अ उव्वत्तमाणे - अपवर्तयन्। आचा० ३४३। उव्वत्ता– जं पाडिहारियणिद्देज्जं तं । नि० २२५आ। उव्वत्तिया - तेणेव अगणिनिक्खित्तं ओयत्तेऊण एगपासेन देति । दशवै० ८०| उव्वत्तेहि उद्वर्त्तय आव० ३५८ उव्वरं अतिप्रशस्यम्। व्यव० ४२१ आ उव्वरग- अपवरकम् । आव० ६२२| निशी० १७४ | उब्वरति उद्धरति । आक ८५श उव्वरयं अपवरकम् । आव० ५६१। उव्वरिअ उवरितं यदधिकं जातम् ओघ० १८८ अतिरिक्तम्। ओघ॰ १८६ | उव्वरियं- उद्धरितम्। पिण्ड० ७९ | अशनादेः शेषभागः । आव० ८५९| उव्वरो उद्वरः धर्मोपतापः गृह• २९३ अ उव्वलणं- उवलनं, अभ्यङ्गनम् । बृह० २१९ अ । उव्वलणेहि उदवेलनानि देहोपलेपनविशेषाः ज्ञाता० १८३ | उव्वसिए– उद्वसितः-उत्थितः। ओघ० ४९। उव्वसिय उवस्य (उदुष्य)। आव ०७१। उव्वाओ - श्रान्तः । निशी० १६० अ । उव्वाण उद्वानं किञ्चित्सस्निग्धं ओघ० १७१। उव्वाता- परिश्रान्तः। बृह० ८० आ । व्यव० १५७अ उव्वाया- उद्वाताः-अतीवपरिश्रान्ताः । बृह० २४३ आ । परिश्रान्ताः । व्यव० २०२आ । उव्वालना- उद्वालना, निष्काशना । बृह० २५० अ उव्वासिअ उद्वासितः शोषितः । ओघ० १७४१ उव्वासेड़- उपहसति । आव० ६६९। - उव्विग्ग - उद्विग्नं-खिन्नम् । भग० १६६ । संजातभयः । विपा० ४३॥ उद्विग्नाः अथ पुनर्मानेन सार्द्धं युद्ध्यामहे इत्यपुनः-करणाशयवन्तः । जम्बू० २३९ । उद्वेगवान् । प्रश्न० ५२| उव्विद्ध उद्विद्धं उद्ध्वम् । औप० ३। उद्द्विद्धं उण्डम् । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] ज्ञाता॰ २| ऊर्ध्वगतः। जम्बू० १४४ | उच्चा। आव० १८४ | उन्मिताः, उच्चैस्त्वेन वा। अनुयो० १५८१ उद्विद्ध:अत्यर्थमुच्चः । औप० ९| उच्चः । राज० ५१ उव्विहंताई- उत्पतन्ति ज्ञाता० २३२ उव्विहइ— ऊर्ध्वं विजहाति, ऊर्ध्वं क्षिपति । भग० २३०| उद्विजहाति ऊद्ध्वं क्षिपति । ज्ञाता० १६८० उव्विहति - उप्पाडेति । निशी० २५६ आ । उविहामि- नयामि । ज्ञाता० १३९ । उव्विहिय— उद्वृह्य-उत्प्रेर्य्य। भग० ६२८। उच्चीलए अपनीडक:- लज्जापनोदको यथा परः सुखमालोचयतीति। स्था० ४८६ । उच्वीहामि उच्चेष्यामि निशी. २०१ अ उव्वेयग- उद्वेगक-इष्टवियोगादिजन्यः उद्वेगः, उद्वेजको वा लोकोद्वेगकारी चौरादिर्वा । भग० १९८ | उव्वेयण- उद्वेजनं-चलनम्। भग० ४७१। उव्वेयणओ - उद्वेजनकः-चित्तविप्लवकारी, उद्वेगकरः । प्रश्न० ५| उव्वेयणयं उद्वेगकृत्। महाप्र० उब्वेला उबेला आक ५१४५ उच्वेलियं उद्वेलितं, उत्सारितम्। बृह० २५५ आ उब्वेलेंति उवेलयन्ति । आव० १८९ । - उब्वेले उद्वेलयितुं, उद्वेष्टयितुम् बृह• २५७ अ उव्वेह- उद्वेधः । अनुयो० १७१) जीवा. ३२२ उण्डत्वम् । ३२५, ३४३, २२७ राज० ९१ | जम्बू ० २८४ | सम० ९७ स्था॰ ५२५| बाहल्यम्। जम्बू० ३२७ । भुवि प्रवेशः । स्था० ६९| भूगतत्वम् । जम्बू० २८२ भूमा वगाहः । स्था० ४७९ । भूमिप्रवेशः । जम्बू. ७२१ उव्वेहलिया वनस्पतिविशेषः । भग०८०४ उष्ण:- स्पर्शस्याष्टमो भेदः प्रजा० ४७३ उष्णरूपा - योनिभेदः । आचा० २४| उसक्कण रंधियपुव्वस्स उसक्कणं करेज्ज। निशी० १४२ आ उसक्कावेउ- उत्ष्वष्क्य, अधः प्राप्य । आव० ६२१ | उसक्को उत्कण्डुलः। निशी० ३६अ। उसगार - मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ | उसड़ा- उत्सृता उच्चाः । जम्बू. ४४ उसण- उष्णः प्रतिकूलः । स्था० ४४४५ [214] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] उसण्णं- लोअगपरिभोगं उसण्णं भण्णइ। निशी. १५९। जम्बू०८८1 उसण्हसण्हिआओ-अतिशयेन प्राबल्येन च उसहकूडे- ऋषभकूटः। जम्बू० २५०। लक्ष्णलक्ष्णिका उलक्ष्णलक्ष्णिका। अनुयो० १६३| | उसहछाया-वृषभच्छाया-छायायाः सप्तमो भेदः। प्रज्ञा० उसभ- ऋषभः, पञ्चदश कुलकरनाम। जम्बू० १३२ ३२७ भरतचक्रिपिता। आव. १६२| सम० १५२। वृषभः- उसहपुरं- ऋषभरं-नगरविशेषः। उत्त० १०५। भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६९। ब्रह्मदत्तपत्न्याः उसा- बेहो। निशी० ८३। शिलायाः पिता। उत्त० ३७९। समग्रसंयमभारोद्वहनाद उसिण-तावितं तं चेव ववगयजीवं, एक्कसि धोवणं। वृषभः। आदिजिनः। आव०५०२। सम्प्रदायगम्यं निशी०११८ आ। निदाधादितापात्मकम्। उत्त० ८२ द्रविडवंग- जम्बू. १०७। पट्टः। सम० १४९। उष्णः-धर्मः। स्था० २८७ आहारपाकादिकारणं परिवेष्टनपट्टः। स्था० ३५९। प्रज्ञा० ४७२। वह्नयाद्यनुगतः। अनुयो० ११०| उष्णो माईवपाककृत्। उसभकण्ठो-वृषभकण्ठः-वृषभकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः। स्था० २६। उष्णः-अप्रास्कम्। दस० २०६। जीवा० २३४१ उसिणपरितावे-उष्णपरितापः-उष्णं-उष्णस्पर्शवद भशिउसभकूड-ऋषभकूटः, जम्बूद्वीपे उत्तरार्द्धभरते पर्वतः। लादि तेन परितापः। उत्त० ८९। जम्बू०८७ आव० १५१| उसिणब्भूए- अस्वाभाविकमौष्ण्यं प्राप्तः। भग० १७५ उसभज्झया-वृषभध्वजाः-वृषभचिह्नोपेता ध्वजाः। उसिणोदए- उष्णोदकं-स्वभावत एव जीवा० २१५ क्वचिन्निर्झरादावुष्ण-परिणामम्। बादराप्कायभेदः। उसभनाराय- ऋषभनाराचं-यत्पुनः कीलिकारहितं संहननं प्रज्ञा. २८१ तत्। प्रज्ञा० ४७२। उसिणोदगं-उष्णोदकं-क्वथितोदकम्। दशवै. २२८। उदउसभदत्त-नामविशेषः। भग० ६२०, ५३३, १४९, ५५६, वृत्तत्रिदण्डम्। पिण्ड० १७ ५५७ आचा०४२९। नवमशते त्रयत्रिंशत्तमोद्देशकेs- उसिणोदगवियडेण-उष्णोदकविकटेन-उष्णोदकेनाप्रास्भिहितः। भग० ४७५। ऋषभदत्तः-इषकारनगरे केनात्रिदण्डोवृत्तेन पश्चादवा सचितीभूतेन। गाथापतिः। विपा. ९५। जम्बूस्वामिनः पिता। निशी. आचा०३४२ २९ आ। उसिय-उत्सृतानि-लम्बमानानि। राज०६४। उसभपुरं- ऋषभपुरं, धनावहराजधानी। विपा. ९४१ उसीर-उशीरं-वीरणीमलम्। ज्ञाता० २३२ जीवा. १९१| राजगृहस्यापरनाम। आव० ३१५१ नगरविशेषः। उत्त० | राज० ३४। मूलविशेषः। जीवा० १३६। ओशीरं-वीरणी१०४। राजगृहम्। स्था०४१४१ जीवप्रदेशप्ररूपकनिह्नवो | मूलम्। प्रश्न. १६२ त्पत्तिस्थानम्। आव० ३१२ उसीसहवणं-सीसस्स समीवं उवसीसं, सीसस्स वा उसभसिरि- श्रीऋषभः। सम. १०६। उक्खंभणं उसीसं द्ववणं-णिक्खेवो। निशी. २४७ अ। उसभसेण- मुनिसुव्रतजिनस्य भिक्षादाता। सम० १५१| | उसु- इषुः-बाणः। भग० ९३, २३०| शरपत्रफलादिसमुऋषभस्वामिनः प्रथमगणधरः। सम० १५२। बृह० २५४ दायः। भग० २३० अ। ऋषभसेनः-भरतपुत्रः। आव० १४९। उसुअ- इषुकः-इषुकाकारमाभरणं, तिलकं वा। पिण्ड. उसभा- ऋषभा-शाश्वतप्रथमप्रतिमानाम। जीवा० २२८१ १२४। उसवियं-उवसामियं। निशी. २९४ अ। उसुआर- इषुकारः-राजपुत्रविशेषः। उत्त० ३९४१ उसह-ऋषभः, संयमभारोदवहनादऋषभ इव ऋषभः, उसुआरपुरं- इषुकारपुर-नगरविशेषः। उत्त० ३७५१ वृषभो वा इति संस्कारः, तत्र वृषभ इव वृषभ इति वा, | उसुकारिज्ज- इषुकारीयं-उत्तराध्ययने वृषेण भातीति वा वृषभः। जम्बू. १३५१ चतुर्दशमध्ययनम्। उत्त० ३९३। उसहकूडप्पभाई- ऋषभकूटप्रभाणि, ऋषभकूटाकाराणि। | उसुकाल- उक्खलं, उदूखलं। निशी० ८३ आ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [215] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text) उसुगारपव्वय पर्वतविशेषः । स्था०८० | उसुत्तियल्लयं जेण वा कट्ठाइ संचालेति तं सविसं उसुत्तियल्लयं निशी० १९६ आ । उसुद्धसरीरो- मलपंकियसरीरो उसुद्धसरीरो भन्नति । निशी० ६५ अ उमट्टिता कुट्टिया पुणो मट्टियाए सह कुट्टिज्जंति एस। निशी० ६४ अ उसुयार - इषुकारः- नगरविशेषः, ऋषभदत्तगाथापतिस्थानम् । विपा० ९५| इषुकारपुरनृपतिः । उत्तः ३९पा उसुयारपुरं - इषुकारपुरं कुरुजनपदे नगर, इषुकारराजधानी उत्त० ३९५ आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) समुदायाः द्वयादिसमुदायास्तेषां समितयो मीलनानि तासां समागमः परिणामवशादेकीभवनं समुदयसमितिसमागमस्तेन या परिणाममात्रेति गम्यते, सा एकाऽत्यन्तं श्लक्ष्णा श्लक्ष्णलक्ष्णा सैव श्लक्ष्णलक्ष्णिका उत्-प्राबल्येन श्लक्ष्णलक्ष्णिका उत् श्लक्ष्णश्र्लक्ष्णिका। भग- २७५1 उयारिज्जं - उत्तराध्ययने चतुर्दशमध्ययनम् । सम०६४ | उस्सन्नं प्रायशः आव० ५६८। अविरुद्धं । नि० ७०| उसू - इषुः शरः । सिद्धिगमने दृष्टान्तः । आव० ४४२ | तिलगो। निशी० ९५अ उस्सन्नकयाहारो प्रायशोऽकृताहारः आव० ५६ उस्सप्पिअ - उत्सर्पितावर्त्यत्सर्पणेन । जम्बू. १०२ 1 उस्सप्पिणी- सागरोपमाणां दशकोटीकोट्य एव दुष्षम दुष्षमाद्यरकक्रमेणैकोत्सर्पिणी। जीवा० ३४५| उत्सर्पतिवर्धते आरकापेक्षया वर्धयति (वा) क्रमेणायुरादीन् भावा- नित्युत्सर्पिणी जम्बू• ८९| उत्सर्पिणीदशसागरोपमको-टाकोटिमाना अनुयो० १००% स्था० ८६। उत्सर्प्पतिव-र्द्धतेऽरकापेक्षया उत्सर्पयति वा भावानायुष्कादीन् वर्द्धयतीति स्था० २७॥ उस्सय- यस्मिंश्च सत्यूर्ध्वं श्रयति जात्यादिना दर्पामातः पुरुष उत्तानीभवति सः उच्छ्रायः मानः । सू० १८० | उस्सरति उत्सर्पति। आव० ३०३| उसूयालं- उदूखलम्। आचा० ३९७। उसे- ऊषः-पांशुक्षारः। दशवै० १७० उस्सओ उच्छ्रयः भावोन्नतत्वम् अहिंसायाः पञ्चचत्वारिंशत्तमं नाम प्रश्न० ९९| उस्सक्कड़- उत्ष्वष्कते. तदाकारभावमात्रधारणतस्तत्प्रतिबिम्ब मात्रधारणतो वोत्सर्पतीत्यर्थः, कृष्णलेश्यातो हि नीललेश्या विशुद्धा ततस्तदाकारभावं तत्प्रतिबिम्ब मात्रं वा दधाना सती मनाक् विशुद्धा भवतीत्युत्सर्प्पतीति। प्रज्ञा॰ ३७२। उस्सक्कण- उत्ष्वष्कणं परतः करणम् । पिण्ड० ९१ | उस्सग्गनिवाइयाण उत्सर्गपातिनामुत्सर्गेण संयममनुपालयतां यासाम्। व्यक ४२९ अ उस्सग्गो उत्सर्गः उपयोगः। ओघ १५५। परिष्ठापनम् । ओघ० १३८ | कायोत्सर्गः आव० ७८२। उवओगं, काउसग्गो निशी. १६४ अ पडण्णकहा। निशी. २४० अ कारणनिरपेक्षं सामान्यस्वरुपम् बृह० ९७आ। उस्सण्णं- लोअगपरिभोगं उस्सण्णं भण्णइ | निशी० १५९ अ उस्सण्णं एकान्तेनैव अलक्षणयुक्ता बोंदि सरीरमित्यर्थः। निशी. ८५आ। उत्सन्नं बाहुल्यतः । औप॰ ८६। उत्सन्नं-अनुपरतम्। आव० ५९०। उस्सण्णदोस- उत्सन्नदोषः अनुपरतं बाहल्येन प्रवर्तते इति । आव० ५९० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] उस्सण्णपए- उत्सन्नपदे- प्रभूतपदे । व्यव० ९३ अ । उस्सण्णा - अवसन्नाः पङ्क इव निमग्नाः । प्रश्न० ६९ | उस्सण्णो- बहुतरगुणावराही | निशी० ९० आ । उस्सण्हसहिआ उत्तरप्रामाणापेक्षया उत्-प्राबल्येन श्लक्ष्णश्र्लक्ष्णिका उच्छलक्ष्णलक्ष्णिका । जम्बू० ९४ | उस्सण्हसहिया व्यावहारिकपरमाणुपुद्गलानां | उस्सवित्ता- उढहुत्ताणि काऊण। दशवैः ८० | उस्सविया संस्थाप्योच्चावच्चैर्विश्रम्भजनकैरालापैर्विश्रम्भे पातयित्वा। सूत्र० १०६ उस्सा - अवश्यायः - त्रेहः । अप्कायभेदः । प्रज्ञा० २८| रजन्यां यस्त्रेहः पतति आचा० ४० | उस्साबिन्दूथिबुगो– अवश्यायबिन्दुः। आव० ८४५। उस्सारिता - उत्सारिता समीपमागता । आव० ८४१ । उस्सासनाम- उच्छ्वासनाम-यदुदयवशादात्मन उच्छवासनिःश्वासलब्धिरूपजायते तत् । उच्छ्वासनिःश्वासयोग्यपुद्गलग्रहणमोक्षविषया [216] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] लब्धिरूपजायते तत्। प्रज्ञा० ४७३। ६३। उच्छुल्का-मुक्तशुल्का। भग० ५४४। ज्ञाता० ४०| उस्सासविसा-उच्छवासे विषं येषां ते उच्छवासविषाः। | उस्सुगो-उत्सुकः। आव० ३०११ प्रज्ञा०४६| उस्सुत्तं-सुत्तादवेतं। निशी. २३आ। ऊर्ध्वं सूत्राउस्सासा- उच्छवासः-मुखादिना वायुग्रहणम्। भग० ४७० | दुत्सूत्रः, सूत्रानुक्तः। आव० १७१| आव० ७७८५ उस्सासो-उच्छवासः। आव०८४५) उस्सुय-उत्सुकः। ज्ञाता० १६१। उस्साहे- उत्साहः-श्रवणविषये मनस उत्कलिकाविशेषः। उस्सूरं-अकालं। निशी. १३६ आ। ओघ० ९८५ सूर्य. २९६। उस्सूरलंभो-उत्सूरलाभः। आव० ८४३। उस्सिंघइ-उज्जिघ्रति, जिघ्रति। आव०६७४। उस्सूरीभूतं-उत्सूर्वीभूतम्। आव० ८५२| उस्सिंघणा-उद्घाणम्। आव०४२४। उस्सूलय-खातिका परबलपातार्थम्परिच्छादितगर्ता उस्सिंचण-उध्वं सेचनं उत्सेचनं-कूपादेः वा। उत्त० ३१११ कोशादिनोत्क्षेप-णम्। आचा०४२। दृतौ वातस्य उस्सेइमं-पिष्टोत्स्वेदनार्थम्दकम्। आचा० ३४६। मरहप्राबल्येन पूरणम्। आचा०७४, ३७९| दुविसए उस्सइया दीवगा सीओदगे बज्झंति, अहवा उस्सिचणाए-उत्सेचनेन पिट्ठस्स उस्सेज्जमाणस्स हेट्ठा जंपाणियं तं। निशी. अरघट्टघट्टीनिवहादिभिरुदञ्चनेन। उत्त०५९९| ६० । उस्सिंचमाणे- उत्सिञ्चन्-आक्षिपन्। आचा० ३४३। उस्सेतिमा-जहा पिढे पुढविकायभायणं आउक्कायस्स उस्सिंचिया- उत्सिच्य-अतिभृतादुज्झभयेन ततो वा भरेत्ता मीसए अद्दहिज्जति म्हं से वत्थेण दानार्थं तीमनादीनि दद्यात्। दशवै० १७५१ उहाडिज्जति, ताहे पिट्ठपयणयं रोट्टस्स भरेत्ता ताहे तीसे उस्सिउस्सिओ-उच्छ्रितोच्छ्रितः आव०७७९। थालीए जलभरियाए उवरिं ठविज्जति ताहे अहोछिड्डेण उस्सिओदए-उच्छ्रितोदकः-ऊद्रध्ववृद्धिगतजलः। भग० तं पि ओसिज्जति हेट्ठाहुत्तं वा ठविज्जति तत्थ जं आम २८१ तं उस्सेतिमाम भण्णति। निशी. १२५ अ। उस्सिट्ठा-उत्सृष्टा-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता। प्रज्ञा० उस्सेतिमे-उत्स्वेदेन निवृत्तं उत्स्वेदिम-येन व्रीह्यादि पिष्टं सुराद्यर्थं उत्स्वेद्यते तत्। स्था० १४७ उस्सित्तं-उत्सितं-अत्यर्थं जलाभिषेचनम। प्रश्न. | उस्सेहंगल-उच्छ्रयाङ्गलं-अङ्गलस्य दवितीयो भेदः। १२७ प्रज्ञा० २९९। अनन्तानां सूक्ष्मपरमाणुपुद् उस्सिन्न-अस्विन्नम् गलानामित्यादिक्रमेणो-च्छ्रयो वृद्धिनयनं तस्माज्जातं वन्यदकयोगेनानापादितविकारान्तरम्। दशवै. १८५। तत्। उत्सेधो-नारकादिशरी-राणामुच्चैस्त्वं उत्स्विन्नम्-मुण्डेरकादि। बृह० २६७। तत्स्वरूपनिर्णयार्थमगुलमुत्सेधाङ्गुलम्। अनुयो. उस्सियं-उच्छृतं-प्रख्यातम्। सूत्र० ४०८। उच्छ्रितं- १५३, १६० उत्कटम्। सूर्य. २६२। उत्सृतां, उच्छ्रित्येवोच्छ्रित्य- उस्सेह-उत्सेधः-उच्चत्वम्। सम० ११४। उत्सेधः-शिखरम् उत्तरोत्तरसंयमस्थानावाप्त्या तामुच्छ्रितामिव कृत्वा । जीवा. २०४, ३६० सर्वाग्रम्। जीवा. २२५। उच्छ्रयःवा। उत्त० ३४१। उत्सृतः-अपगतः। ज्ञाता० १०९। शिखरम्। राज०६२ उस्सियनिसन्नओ-उत्सृतनिषण्णः। आव० ७७२। | उस्सेहपरिवुड्ढी-उत्सेधपरिवृद्धिः-सर्वाग्रपरिवृद्धिः। जीवा. उस्सियपडाग-उच्छ्रितपताकम्। आव०७०३। રરરર उस्सियफलिह- उच्छ्रितं स्फटिकमिव स्फटिकं-अन्तः- उस्सोढं-उत्सोह्य-असोढ़वा। व्यव० १६४ अ। करणं यस्य सः। ज्ञाता० १०९। उहरिय-पेढियमादिस् आरुभिउं ओआरेति, अथवा कायं उस्सीवेत्ता-उत्सीव्य। आव०४२११ उच्चं करेज्जा उक्कज्जियडंडायतं तद्वद् गृह्णाति, उत्सुक्क-उच्छुल्का-अविद्यमानशुल्कग्रहणम्। विपा० | कायं उड्ढं कृत्वा गृह्णाति उण्णमिय इत्यर्थः। निशी ९९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [217] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ५९ ॥ ऊसभूमी-सिंधुविषये भूमिः। निशी. १६१ अ। उहसेइ-अपहसति। आव. २१९। ऊसरदेस-ऊषरदेशः। आव० ८३९। -x-x-x-x ऊसविए-उत्सM-ऊसिक्किऊणेत्यर्थः, ऊध्वीकृत्य वा। भग. ९३। ऊखा-कुम्भी। प्रश्न.१७ ऊसविय-उच्छ्रितानि। भग० ५४१। उच्छतं-ऊध्वी -कृतम् ऊणं-ऊनम्-वर्णादिभि_नम्। सूत्रदोषविशेषः। आव० | ज्ञाता० १३९। ३७४। यद् व्यञ्जनाभिलापावश्यकैरसम्पूर्णं वन्दते, ऊसवे-उच्छृतं करोति। भग० १७५ कृतकर्मणि अष्टा-विंशतितमो दोषः। आव० ५४४१ ऊसवो-जत्थ सामण्णभत्तविसेसो कज्जइ सो ऊसवो। ऊणगसयभागो-ऊनशतभागः-शतभागोऽपि न पूर्यत निशी. १६२ । जत्थ तं च उवसाहिज्जति जणो य इत्यर्थः। आव० ५२२ अलंकिय विभूसितो उज्जाणादिस् मित्तादिजणपरिवडो ऊणोअरिआ-ऊनोदरस्य भाव ऊनोदरता। दशा०२७। खज्जपेज्जादिणा उवललति। निशी. १४ आ। उत्सवःऊणोयरिया-अवमस्य-ऊनस्योदरस्य शक्रोत्सवादिः। आव० १२९। करणमवमोदरिका। भग० ९२११ ऊससंति-उच्छ्वसन्ति-बाह्यक्रियां कुर्वन्ति। प्रज्ञा०२१९। ऊनं-अक्षरपदादिभिरेव हीनमनम्। हेतदृष्टान्ताभ्यामेव ऊससिअं- उच्छवसितं-उत्-ऊर्ध्वं प्रबलं वा श्वसितम्। हीन-मनम्। अनुयो० २६१। आव०७७९| ऊरणय-ऊरणिक। आव०६२३। ऊससिय-उच्छवसिता-उद्भिन्नाः। उत्त०४८१। ऊरणिया-ऊर्णिका। आव० ६२३। ऊससियरोमकूवो-उच्छवसितरोमकूपः-उच्छवसिता ऊरणि-अविला। पिण्ड०७१। इवोच्छ्व-सिताः-उद्भिन्ना रोमकूपा-रोमरन्ध्राणि ऊरुगं-ऊरुः। ओघ० १२५ यस्यासौ। उत्त०४८१। ऊरुघंटा-जङ्घाघण्टा। ज्ञाता० २३९। ऊसासनीसासे-उच्छवासेन युक्तो निःश्वास ऊरुयाल-ऊरुदारः- ऊर्योः-जङ्घयोर्दारो-दारणं ज्वालो वा उच्छवसनिः-श्वासः-प्राणः। जम्बू० ९० ज्वालनं यः सः। प्रश्न०१७ ऊसासपए-उच्छवासपदं, प्रज्ञापनायाः सप्तमं पदम्। ऊरुयावल-ऊरुकयोरावलनं ऊरुकावलः। प्रश्न. ५७ भग०१९ ऊर्ध्वलोकः- शुभलोकः। जम्बू० २४९। ऊसासा-यावद्भिः समयैः पादो वृत्तस्य नीयते ऊर्ध्ववेदिका-यत्र जाननोरुपरि हस्तौ कत्वा प्रत्यपेक्षते। तावत्समया उच्छवासाः। स्था० ३९३। उच्छवासाः। प्रज्ञा० वेदिकायाः प्रथमभेदः। स्था० ३६२। २४६। सङ्ख्येया आवलिका उच्छवासः। जीवा० ३४४| ऊस-उषो-यद्वशादूषरं क्षेत्रम्। प्रज्ञा० २७। ऊषरादिक्षेत्रो प्रज्ञा-पनायाः सप्तमं पदम्। प्रज्ञा०६। सङ्ख्येया द्भवो लवणिमसम्मिश्रो रजोविशेषः। पिण्ड० ८। क्षारम आवलिका उच्छ्वासः-अन्तर्मुखः पवनः। जम्बू० ९०। त्तिका। उत्त०६८९। ओषः-क्षारमृतिका। आचा० ३४२ ऊसासेहि-उच्छवासय-मारय। आव० ८१९) अवश्यायः। ओघ. १३० ऊसिअ-उच्छ्रितानि-लम्बमानानि। जम्बू. ५०| ऊसड-उत्सृतः, उच्चः। जीवा. २००५ प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता उत्सृता। जम्बू० ५३। ऊसढं-उच्छ्रितं वर्णादिगुणोपेतं। आचा० ३३९। उत्सृतं जीवा० १७५उच्छ्रितं-उत्कटम्। जम्बू०५२२ ऋद्धिमत्कुलम्। दशवै० १८६। वर्णगन्धरसस्पर्शोपपेतम्। ऊसिए-उच्छ्रितं-लम्बमानम्। जीवा० ३६१। आव०७२६। उच्छ्रितं वर्णगन्धादयुपेतम्। आचा० ३९० ऊसिओदयं-उच्छृत-ऊर्ध्वं उदय-आयामो यत्र गमने उत्कृष्टम्। व्यव० १८९अ। उच्च। दशवै. ८७ तच्छ्रितोदयं, ऊर्ध्वपताकमित्यर्थः। भग० १८७। ऊसत्त-उत्सक्तः-उपरिलग्नः। जम्बू०७६। ऊर्ध्वं सक्त | ऊसिता-उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता। जीवा० उत्सक्तः-उल्लोचतले उपरिसंबद्धः। प्रज्ञा० ८६। जीवा. | ३७९। सूर्य. २६३ १६०, २२७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [218] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम- सागर - कोषः (भाग:- १) [Type text) ऊसितोदग- उच्छ्रितोदकः- उच्छ्रितमुदकं यस्मिन् सः । जीवा० ३२१ | ऊसित्तो उपसिक्तः, अपत्योत्पादनसामर्थ्यविकलः, निर्बीजः बृह० ९७ आ णो जस्स अवच्चं उप्पज्जति निब्बीओ सो | निशी० ३१ अ ऊसिय उच्छ्रितं ऊध्वीकृतम्। भग० ५४१। उच्छ्रितःऊधवकृतः उत्सृतो वा अपगतः। राज० १२३] उच्छ्रितं —ऊर्ध्वं नीतम्। ज्ञाता० १६ । उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता । सम० १३९ । उच्छ्रुतः-ऊर्ध्वकृतः । जीवा० २४६। उत्सृतः। आव॰ ७७२। उत्सृतं लम्बमानम् । जीवा० २०५| उच्छ्रितम्-उन्नतम्। ऊर्ध्वकृतं, अपगतः, अपनीतः । भग. १३५1 नन्दी० ४६१ उच्छ्रतं. उद्ध्वम्। भग० १८७ | ऊसियपडागं- उच्छ्रितपताकम् आव० ३०० ऊसियफलिह उच्छ्रितस्फटिकाः उच्छ्रितमुन्नतं स्फटिकमिव स्फटिकं चित्तं येषां ते मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परि-तुष्टमानसा इत्यर्थः । उच्छ्रितःअर्गलास्थानादपनीयोद्ध्वीकृतो न तिरश्चीनः कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः परिघः अर्गला येषां ते उच्छ्रितपरिघः । भग. १३५ उच्छ्रितं स्फाटिकमित स्फाटिकं - अन्तःकरणं यस्य सः । राज० १२३ | ऊसिरं- जीवाश्रयस्थानमित्यर्थः । निशी० ६० आ । ऊसीसयं- उच्छीर्षकम् । आव० १२४ ॥ ऊसूरं वेलातिक्रमः। ओघ. १४२१ ऊसूरओ- ऊत्सूर आ. १०३३ उह- सम्भवत्पदार्थविशेषास्तित्वाध्यवसाय ऊहस्तर्क:एवमेवं चैतत्स्यात् । आचा० २३० | ऊहा- बुद्धिः । दशकै १२५ स्वतर्कबुद्धिः । आव• ३२४ स्ववितर्कात्मिका । उत्त० १८१ । ऊहिय - ऊहितः ज्ञातः । आव० ७२१। - X - X - X - (ऋ) ऋक्षा:- अच्छाः। जीवा० ३८ | ऋजुप्रज्ञत्वं मध्यमजिनयतीनां विशेषणम् । आव ७९॥ ऋजुश्रेणिप्रतिपन्न:- यो भवोपग्राहिकर्मजालं क्षपयित्वाऽस्पृशद्गत्या सिद्ध्यतीति । आव० ४४१ । ऋज्वी यस्यामेकां दिशमभिगृयोपाश्रयाद् निर्गतः प्राञ्जलेनैव पथा समश्रेणिव्यवस्थितगृहपङ्क्तौ भिक्षां मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] परिभ्रमन् तावद् याति यावत्पङ्क्तौ चरमगृहं, तो भिक्षामगृहणन्नेवापर्याप्तेऽपि प्राञ्जलयैव गत्या प्रतिनिवर्तते सा ऋज्वी । बृह० २५७॥ ऋणं पापम् प्रश्ना ऋणघ्ना- ऋणं कर्म तद्‌धना। आव० ५१५ ऋतं दुःखं, पीडितम् । स्था० १८८) दुःखम् । आव पटम पीडितः । भग० ५६०। दुःखपर्यायवाची उत्त० ६०९। ऋतुबद्धावग्रहः- अवग्रहस्य द्वितीयो भेदः । सम० २३ | ऋतुमासः कर्म्ममासः, स त्रिंशद्दिवसप्रमाणः बृह १८६ | ऋतुसंवत्सरः- सावनसंवत्सरः । स्था०३४५ ऋद्धा भवनादिभिर्वृद्धिमुपगता । ज्ञाता० १। ऋषभः- प्रथमतीर्थंकरः । ज्ञाता० १२९| ऋषभमण्डलप्रविभक्तिः- एकादशो नाट्यविधिः । जीवा० २४६ ऋषभदत्तः- कोडालसगोत्रब्राह्मणविशेषः । आव० १७८१ ऋषभस्वामी प्रथमतीर्थकर व्यक २ आ ऋषितः - नोपशमं नीतः । व्यव० २२४ आ । ऋषिवादिका:- गन्धर्वभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०| - X - X - X - (ए) पंती आगच्छन्ती। बृह. १६७ आ तो- आगच्छन् । आव० ४२० पंतओ आगच्छन्। आव. १९६६ ए वाक्यालंकारे। अनुयो० १७६) अलङ्कारे। भग ७०५१ वाक्यालङ्कारे। भग॰ ८२| आमन्त्रणार्थः, अलङ्कारार्थोऽवा भगः ३७॥ एइंसु - ज्ञातवन्तोऽनुभूतवन्तः । भग०७२६ एइणा- अनेन बृह० ११०अ एई- इयती आव० ५१३३ एककाः- अध्ययनविशेषः । स्था० ३८७ एकखुर- अश्वगोहस्तिसिंहादयः । सम० १३५ एकतश्चक्रवालं- एकस्यां दिशि नटानां मण्डलाकारेण नर्त्तनम्। जम्बू॰ ४१५। एकतोवक्रद्विधातोवक्रएकतश्चक्रवालद्विधातश्चक्रवा चक्रा-र्दचक्रवालाभिनयात्मकः- चतुर्थी नाट्यविधिः । जीवा० २४६| जम्बू. ४१५ एकलोवक्र- एकतोवक्रं नाम नटानां एकस्यां दिशि धनुराकार-श्रेण्या नर्त्तनम् । जम्बू० ४१५ । आगम-सागर-कोषः " [१] [219] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] एकतोवेदिका- एकं जान बाह्योरन्तरे कृत्वेति। स्था० एक्कल्लओ- एकाकी। आव. १९३। ३६ एक्कसंकलितबद्धा-एकशृंखलाबद्धाः। आव०६३। एकत्तवियक्कं- एकत्ववितर्कम। आव० ३२७। एक्कसरा-सहैव। आव० ३६७। एकत्ववितर्कमविचारं- शुक्लध्यानदवितीयभेदः। आव. एक्कसिं- एकशः। आव० ८१३ ६०३ एक्कसेल-एकशैलः-वक्षस्कारपर्वतः। जम्बू० ३४७) एकधारं- शस्त्रविशेषः। दशवै. २०११ एक्काणिया- एकाकिनी। आव०५६० एकभविक-तत्र एकस्मिन् भवे तस्मिन्नेवातिक्रान्ते एक्कारसी- एकादशी तिथिः। ज्ञाता० १५३| भावी। एकभविकः-योऽन्तर एव भवे इन्द्रतयोत्पस्यत एक्काहिज्जा- व्यन्तरीविशेषा। निशी. ३०४ आ। इति। स्था० १०३ एगंगिओ-संघातिमासंघातिमो एगंगिओ भवति। निशी एकभावं- एकत्वम्। उत्त० ५८० ७९ । एकल्लओ-एकाकी। आव० ३०६| एगंगियं- एकांगिकं तज्जातदसिकं सदसिकाकम्बलीखएकल्लशाटक-एकवस्त्रकः। ओघ०४३। ण्डनिष्पादितम्। ओघ. २१४। य एकेन फलकादिना एकविहारप्रतिमा- पञ्चमी प्रतिमा। सम. ९६) कृतः। बृह. १६२ अ। एकागिकं-तज्जातदशिकं न वा एकस्थीकृतं-न एकस्थमनेकस्थं अनेकस्थमकस्थमिव व्या-दिखण्डनिष्पन्नम्। बृह० २३९ अ। कृतमेकस्थीकृतम्। आचा०६३ एगंत- एकान्तं-विजनम्। ज्ञाता०८८ नियमः। उत्त. एका-एकाः-श्रेष्ठाः संज्ञाशब्दत्वान्न सर्वादित्वम्। जम्बू० २४१। एकः-अद्वितीयः, कर्मणामन्तो यस्मिन्निति, १३१| मोक्षः। उत्त. ३०७। एकनिश्चयः। भग. २९०। एकान्तंएकाए- एकः। व्यव० ४१७ अ। अनुपघातकं स्थानम्। दशवै०१५६। निश्चयः। उत्त. एकात- एक एवाहमित्यन्तो-निश्चयः। उत्त० ३०७। ५८७। इतरव्यासङ्गपरिहारात्मकम्। उत्त० ६२२१ एकान्तरः-अनन्तरसमयः। आव०१४। मोक्षः। दशवै. १६५। विजनम्। भग० ३२३। एकान्तवित्- एकान्तेन विदितसंसारस्वभावतया योजनमण्डलादन्यत्र। जम्बू० ३८८। मौनीन्द्रमेव शासनं तथ्यं नान्यदित्येवं वेत्तीति। एगंतचरिया- एकान्तचर्यासूत्र०२६५ द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वसम्बद्धता। दशवै०१५ एकायतनं- एक-अद्वितीयं आयतनं-ज्ञानादित्रयम्। एगंतदिही- एकान्तदृष्टिः-एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा आचा० २०७ तथा, सा चासौ दृष्टिः, अनन्याक्षिप्ता। उत्त० ५४७ एकावलिः- भूषणविधिविशेषः। जीवा. २६८। एकान्तदृष्टिः-एकान्तेन तत्त्वेषु-जीवादिषु पदार्थेषु एकावली-विचित्रमणिककृता एकसरिका। जम्बू०१०५। दृष्टि-र्यस्यासौ। सूत्र. २३४। एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः विचित्रमणिका। ज्ञाता०४३। सा एकान्ता सा दृष्टिः-बुद्धिर्यस्मिन् एकान्तदृष्टिः। कनकावल्यभिलापेनेत्यर्थः। औप० ३० ज्ञाता०५१। एकान्ताग्राह्यमेवेदं मयेत्येवमेव निश्चया एकिका- प्रश्रवणम्। आचा० ४०९। दृष्टिर्यस्य सः। ज्ञाता०८०। एकान्तेन निश्चला एक्कई- एकीकृत्य-यौगपदयेन। ओघ० ११११ जीवादितत्त्वेषदृष्टिः-सम्यग्दर्शनं यस्य स एक्कगमा- एकगमाः-तुल्याभिलापाः। स्था० ५८१ एकान्तदृष्टिः-निष्प्रकम्पसम्य-क्त्वः। सूत्र. १४१| एक्कगमे- एकगमः-षड्भ्योऽप्यन्तेऽइक एव पाठः। एगंतदिट्ठीए- एकोऽन्तो-निश्चयो सा एकान्ता सा दृष्टिः अन्त०४१ -बुद्धिर्यस्मिन्निर्ग्रन्थे प्रवचने-चारित्रपालनं प्रति तदेकाएक्कडे-पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३ न्तदृष्टिकम्। एकान्ता-एकनिश्चया दृष्टिः-दृक् यस्य एक्कमहा-जेसिं एक्कओ णालाण महा ते एक्कतोमूहा। स एकान्तदृष्टिकः। ज्ञाता०५१। निशी. १६१ । | एगंतधारा- एकत्रान्ते-वस्तुभागेपहर्तव्यलक्षणे धारा-परो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [220] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ९० २३९। पतापप्रधानवृत्तिलक्षणा यस्य स एकधारः। ज्ञाता०८०१ | मोक्षः संयमो वा। सूत्र. २३५।। एकान्तधारा-तीक्ष्णधारा। उत्त० ३२७। एकान्ता-एकवि- | एगइओ- एकदा कदाचिद् एकचरो वा। आचा० ३३०| भागाश्रया धारा यस्य स एकान्तधारा। ज्ञाता०५१। एगइया- एककाः, एके केचनेत्यर्थः। भग० ३२ एगंतपंडिए- एकान्तपण्डितः-साधुः। भग० ९१| एगइयाणं- एकेषां, न तु सर्वेषाम्। भग० १२९। एगंतबाले- एकान्तबालः-मिथ्यादृष्टिः अविरतो वा। भग० | एगईओ- एकः कश्चिदेकाकी वा। आचा० ३३० एगउ- एकस्मिन् देशे। ज्ञाता०९३। एगंतमंतं- एक इत्येवमन्तो-निश्चयः यत्रासावेकान्त एक | एगओ- एकतः। ज्ञाता०७०| एकः स एक एककः, एको वा इत्यर्थः अतस्तमन्तं भूभागम्। भग. २९० प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ गच्छतीत्येकगः। एकं वा एगंतमोणेण- एकान्तमौनेन-संयमेन करणभूतेन। सूत्र० कर्मसाहित्य-विगमतो मोक्षं गच्छति तत्प्राप्तियोगानुष्ठानप्रवृतेर्यायीत्येकगः। उत्त० १०८१ एगंतरं- एकान्तरं-एकेन चतुर्थलक्षणेन तपसाऽन्तरं- एगओखहा- एकस्यां दिश्यशाकारा। स्था०४०७। यया व्यवधानं यस्मिंस्तत् उत्त०७०६। जीवः पुद्गलो वा नाड्या वामपाादेस्तां प्रविष्टस्तयैव एग- एकः-असहायो रागद्वेषादिसहभावविरहितो गत्वा पुनस्तवामपार्वादावुत्पद्यते सा एकतः खा, गौतमा-दिरित्यर्थः। उत्त० २४१। एकस्यां दिशि वामादिपावलक्षणायां खस्य-आकाशस्य तथाविधतीर्थंकरनामकर्मोदया लोकनाडीव्यति-रिक्तलक्षणस्य भावादिति। भग०८६६) दनुत्तरावाप्तविभूतिरद्वितीयः, तीर्थंकरः। एगओवंका- एकतः-एकस्यां दिशि वङ्का-वक्रा घातिकर्मसाहि-त्यरहितः। उत्त० २४१। एकत्र। ओघ. एकतोवक्रा। भग०८६६। ३३। असहायः। स्था० ३५। तत्र प्रदेशार्थतया एगओवत्ता-द्वीन्द्रियजीवविशेषाः। प्रज्ञा०४१। असंख्यातप्रदेशोऽपि जीवो द्रव्यार्थतया एकः, अथवा एगखम्भ- एकस्तम्भः-एकः स्तम्भो यस्मिन् सः प्रतिक्षणं पूर्वस्वभावक्षयापरस्व प्रासादः। दश०४१। रूपोत्पादयोगेनानन्तभेदोऽपि एगखुर- प्रतिपदमेकः खरो येषां ते एकखाः -अश्वादयः। कालत्रयानुगामिचैतन्यमात्रा-पेक्षया एकः, अथवा जीवा० ३८१ प्रतिपदमेकः खुरः-शफो येषां ते एकखुराःप्रतिसन्तानं चैतन्यभेदेनानन्तत्वेऽप्या-त्मनां अश्वादयः। प्रज्ञा०४५। एकः खुरः चरणे येषामधोवसंग्रहनयाश्रितसामान्यरूपापेक्षयैकत्वम् इति। सम०५) हँस्थिविशेषो येषां ते एकखरा-हयादयः। उत्त०६९९। मोक्षोऽशेषमलकलङ्करहित्वात् संयमो वा एगगयं-एगांगिकं-तक्रम्। व्यव० ८१ आ। रागद्वेषरहितत्वात्। आचा० २१२। पूर्वपूर्वरूपः | एगगुण- एकगुणः एकेन गुणो-गुणनं-ताडनं यस्य स उत्तरोत्तररूपः, आद्यः पर्यव-सानो वा। प्रज्ञा० २६५ एक-गणः। स्था० ३५।। धर्मसहायविप्रभुक्तः अल्पसागा-रिकस्थितो वा। दशवैः | एगगुणकालए- एकः-सर्वजघन्यो गुणः-अंशस्तेन १८८१ उद्रेकावस्थावतिनैकेन गुणेन कालकः परमाण्वादिरेकगुणकालकः-सर्वजघन्यकृष्णः। स्पर्शाख्येनोपलक्षितः इति एकः-वायुः। आचा० ७५) अनुयो० ११११ एकाकी, असहायः। स्था० १९०। आन्तरव्यक्तरागादि- एगग्ग- एकाग्रस्य-एकालम्बनस्यार्थाच्चेतसो भावः सहायवियोगात् अद्वितीयः एकाग्ग्रंध्यानम्। उत्त० ६२१। तथाविधपदात्यादिसहायविरहात्। ज्ञाता० ३४। सदृशः।। एगग्गचित्त- एकाग्रचित्तः-एकाग्रालंबनः। दशवै०५७। ज्ञाता० १७। एकः-रागद्वेषरहिततया ओजाः, एगग्गमणो- एकाग्रमनाः-अवहितचित्तः। उत्त. ५९९) यदिवाऽस्मिन् संसारचक्रवाले पर्यटन्नसुमान् स्वक- एगग्गहण- एकग्रहणेन-एकश ब्देन। भग० १४९। तसुखदुःखफलभाक्त्वेनैकस्यैव परलोकगमनतया एगग्गहणगहिया- एकग्रहणगृहीता-एकग्रहणेनसहैकक एव भवति। सूत्र. २६५। समानः। राज०४९। एकशब्देन-धर्मास्तिकाय इत्येवंलक्षणेन गृहीता ये ते मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [221] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text ) तथा एकशब्दाभिधेया इत्यर्थः । भग० १४९ , आगम-सागर- कोषः ( भाग :- १) ओघ० ९९| गणासा- एकनाशा पश्चिमरुचकवास्तव्या पञ्चमी दिक्कुमारी महत्तरिका | जम्बू० ३९१ | एगणिसेज्जाए एकेनासनपरिग्रहेण समस एगतियाओ- एककाः काश्चन। जीवा० १९८ । एगतो- एकतः एकस्मिन् स्थाने व्यव. १७४ आ एगतोनिसहसंठिया– एकतो- रथस्य एकस्मिन् पार्श्वे यो नितरां सहते स्कन्धपृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधो बलीवर्ध-स्तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा एकतोनिषधसंस्थिता। सूर्य०७१। एगतोवंका- एक ओवंका-एकस्यां दिशि वक्रा स्था० ४०७ | एगोवत्ता एकतोवर्ता: वीन्द्रियजीवविशेषाः । जीवा०३१| एगतोवेति- एगखीला निशी. १२७ अ एगचरा - एकचराः- एकाकिनः । आचा० ३०८ | एगचक्खू अतिशयवत् श्रुतज्ञानादिवर्जितो विवक्षित इति एकचक्षुः चक्षुरिन्द्रियापेक्षया एकं चक्षुरस्येति स्था० १७१ | - एगचक्खूविणिहय एकचक्षुर्विनिहतः एकं चक्षुर्विनिहतं यस्य सः । प्रश्न० २५| एगचरिया- एकचर्या एकाकिविहारप्रतिमाऽभ्युपगमः । आचा० २४३| एगचोरो एकचौर: य एकाकी सन् हरति सः। प्रश्न-४६॥ एगच्चा एका अद्वितीयपूज्याः संयमानुष्ठाने वा असदृशी अर्चा- शरीरं येषां ते एकाचः। उपा० २९१ एगच्छत्त- एकछत्रा एकं छत्रं नृपतिचिह्नमस्यामिति, अविद्यमानद्वितीयनृपतिः । उत्तः ४४८ एगजंबूए उल्लुकतीरे चैत्यविशेषः। भग० ७०५ एगजडी एकटी एकाशीतितमो ग्रहः । जम्बू प३पा त्र्यशीतितमो ग्रहः । स्था० ७९ । एगज्जं - एकद्यम्-एकवाक्यतया संप्रधार्य आचा० ३३० एगट्ठ- एकस्थः-एकत्र । आव० ७१० । एकार्थं अनन्यविषयं एकप्रयोजनं वा भग- १७ भागमुहुत्तेहिं मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्याम् । सूर्य. १२ एगट्ठाणं- एकस्थानकं यथा अङ्गोपाङ्गस्थापितं तेन तथावस्थितेनैव समुद्देष्टव्यम् । आव० ८५३| गट्ठि - एगबीयं | निशी० ५६ आ । आणुओगे - एक चासावर्थश्च - अभिधेयो जीवादिः स येषामस्ति त एकयिकाः- शब्दास्तैरनुयोगस्तत्कथनमित्यर्थः । स्था० ४८१ एगडिए एक श्चासावर्थश्र्च-अभिधेयः एकार्यः स यस्यास्ति स एकार्थिकः, एकार्थवाचक इत्यर्थः । स्था० ४९२ एडिभागमुहुत्तेहिं मुहूर्तकषष्टिभागाभ्याम् सूर्य० १२ एगद्विभागे - एकषष्ठिभागान् । सूर्य० २५ । एगडिया - एकमस्थिकं फलमध्ये येषां ते भग०८०४१ एकमस्थिकं फलमध्ये बीजं येषां ते एकास्थिकाः । भग० ३६४| एकास्थिका नौः। विपा० ८०] ज्ञाता० २२७| फलं फलं प्रति एकमस्थि येषां ते एकास्थिकाः । प्रज्ञा० ३१॥ एगठाणं- एकस्थानम् । आव० ८५२ । एकः सङ्घाटकः । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित एगत्त - एकता, यैकता-निरालम्बनत्वम् । भग० ९२४| एकत्वं - अभेदः । स्था० १९९१ | एगत्तवियक्के एकत्वेन [Type text] अभेदेनोत्पादादिपर्यायाणामन्य तमैकपर्यायालम्बनतयेत्यर्थी वितर्क्सः पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्कम् । स्था० १९१ | एगत्तीकरण - एकत्वकरणं-एकाग्रत्वविधानम् । ज्ञाता० ४६| एगत्था - एकार्थाः एके च ते अर्थाश्वेति एकार्थाः ऐकेषांचित् न सर्वेषां निखिलानां वक्तुमशक्यत्वादर्थाःजीवादयः । सम० ११३ | एगदिसिं एकया दिशा पूर्वोत्तरलक्षणया जाता० ४५ एगदुवारा - एकद्वारा-एकप्रवेशनिर्गममार्गा। ज्ञाता० २३८| [222] - एगदिट्ठी- एकदृष्टिः बद्धलक्षः । प्रश्न० १५८ | एगन्तुच्छेय सर्वथा उत् प्राबल्येन छेदो विनाशः एकान्तोच्छेदः - निरन्वयो नाश इत्यर्थः । दशवै० ४०| एगपक्खं- एकपक्षः, एकः पक्षो ब्राह्मणलक्षणो यस्य तत् | उत्त० ३६० | एगपक्खी एकपक्षिकः- एकवाचनः एककुलवत्त व्यव० २१२अ। एकपक्षिकः-अल्पश्रुतः। व्यव० २१३अ। गुरुआाता भ्राता गुरुगुरुर्गुरुनप्ता समानकुलश्च - “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] समानश्रुतो वा। बृह. १३६ आ। एगलंभिए-य एकं प्रधानं शिष्यमात्मना लभते गृह्णाति एगपत्ती- एकपत्नी। आव. ९५। शेषास्त्वाचार्यस्य समर्पयति, स एकलाभेन चरतीति एगपयेसोगाढं- एकप्रदेशावगाढम-जीवापेक्षया कर्मद्रव्या- एकलाभिकः। व्यव० २३२ आ। पेक्षया च ये एके प्रदेशास्तेष्ववगाढम्। भग. ५३। एगल्ल- एकाकिनः। स्था० ४१६) एगभविय- एकभविकः-नोआगमतः द्रव्यमस्यप्रथमः एगल्लविहार- एकाकिविहारः। आव. ३६५ प्रकारः, य एकेन भवेनानन्तरं द्रुमेषत्पस्यते। दशवै०१७) एगवंद- एकवृन्द एकाकी। व्यव० २०१ अ। एगभायणो-समपंक्तिः । निशी. ४७। एगविऊ-एकमेवात्मानं परलोकगामिनं वेत्तीति एकवित् एगभाव-एको भावः-सांसारिकसुखविपर्यतात् , न मे कश्चिद् दुःखपरित्राणकारी स्वाभाविक-सुखरूपो यस्यासावेकभावः। भग० ६४० सहायोऽस्तीत्येवमेकवित्। एका-न्तविद वा-एकान्तेन मध्यस्थता। ओघ० ११३॥ विदितसंसारस्वभावतया मौनीन्द्रमेव शासनं तथ्यं एगभूए- एकभूतः एक एव-आत्मोपमः। स्था० २१। एकत्वं नान्यदित्येवं वेत्तीत्येकान्तवित्, एकः-मोक्षः संयमो वा प्राप्तः। भग०६४० तं वेत्तीति। सूत्र० २६५ एगमंडवे- एकमडम्बं नाम यस्य निवेशस्य सर्वासु दिक्षु एगविहिविहाणा- एकेन विधिना प्रकारेण विदिक्षु च नास्ति कोऽप्यन्यो ग्रामो नगरं वा चक्रवाललक्षणेन विधानं स्वरूपस्य करणं येषां ते तस्मिन्नेकमडम्बे। व्यव० २१६अ। एकविधिविधानाः। भग. २८२ एगमणा- एकं एगसरा-विचित्तेहिं एगसरा एगावली| निशी० २५४ आ। दर्शनान्तरोक्तजीवाजीवविभक्तावगतत्वेन मनःचित्तं जहा संजतीण पयालणी कसासिव्वणी णिब्भंगे वा येषां ते एकमनसः-श्रद्धानवन्तः। उत्त०६७१। दिज्जति। निशी० १२७ अ। एगमणो- एकमनाः-एकाग्रचित्तः। आव०७८० एगसाडियउत्तरासंगकरण- एका शाटिका एगमना- एकम्-एकत्र प्रस्तुते वस्तुन्यभिनिविष्टत्वेन यस्मिंस्तत्तथा, तच्च तद्त्तरासङ्गकरणं चमनो यस्यासौ एकमनाः। उत्त० ५९९। उत्तरीयस्य न्यासविशेषः। ज्ञाता०४६। एगमेगं- एकैकम्। सूर्य. ३३| एगसालयं- एकशालकम्। जीवा० २६९। एगयओ- एकतः एकस्कन्धतया। भग० १०४। एकतः- एगसित्थ- एकसिक्थ्-यत्रैकमेव सिक्थ् भूज्यते तत्। एकीभूय, संयुज्येत्यर्थः। भग०७७४। एकत्र। स्था० ३१४। | उत्त०६०४। एगयर- एकतरं, अन्यतमत्। आव०७३। एकतरः- | एगसेलकूडे- एकशैलकूटं, एकशैलवक्षस्कारकूटनाम। अनुकूलः। आचा० २४२ जम्बू० ३४७ एगराइंदियाए-दवादशी एकरात्रमानेति। ज्ञाता०७३। एगसेले- एकशैलो एगराइया- एकरात्रिकः-अपान्तराले वसामि तत्र धातकीखण्डपश्चिमार्धस्थमन्दरपर्वतस्थे स्वनामख्याते गोकुलादौ प्रचुरगोरसादिलाभेऽपि प्रतिबन्धमकुर्वता वक्षस्कारपर्वते। स्था० ८०| एकशैलो जम्बूकारणमन्तरेण मयैकरात्रमेव वस्तव्यं दवीपस्थमन्दरपर्वतसमीपस्थे स्वनामख्याते नाधिकमित्येवंरूपेणाभिग्रहेण| व्यव० १३६ आ। वक्षस्कारपर्वते। स्था० ३२६। एकरात्रिकी। उत्त० ५३११ आव. २१६। एगा- एका-अद्वितीया। आव० ४६५ एगराइयाभिक्खुपडिमा रात्रिप्रमाणा द्वादशी एगागारो- एकाकारः-एकस्वरूपः। जीवा० १४३। भिक्षुप्रतिमा। सम० २११ एगागिसमुद्दिसगा- ये न मण्डल्युपजीविनः। ओघ०८७। एगराई- एकरात्रिकी। आव०६४८।। एगाणिओ- एकाकी। आव० ५५८१ एगरायं- एका रात्रिर्यत्र तत् एकरात्रं। एकां रात्रिं यावत् तत् | एगाणुप्पेहा- एकस्य-एकाकिनो असहायस्यानुप्रेक्षा| उत्त० ११० | भावना एकानुप्रेक्षा। स्था० १९० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [223] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] एगाभिमुहा- एकं भगवन्तं अभिमुखं येषां ते प्रायश्चित्तानि तानि एकाधिकारिकाणि, एकाधिकारे एकाभिमुखाः। ज्ञाता०४५।। भवानि एकाधिकारिकाणि। व्यव० ३० अ। एगाभोगो-एगा भोगो भण्णति। निशी० ४७ अ। एगाहिय-ज्वरविशेषः। भग० १९७ एगामोसा-त्रिभिरंगुलीभिर्वा यगृहीतव्यं तदेकायै एगुरुया- एकोरुकः-अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४। गृह्णाति सा, मध्ये गृहीत्वा हस्ताभ्यां वस्त्रं घृषन् एगूरुयदीवे-अन्तरद्वीपे प्रथमः। स्था० २२५१ त्रिभागावशेषं यावन्नयति द्वाभ्यां वा पार्वाभ्यां यावद् | | एगेभवं- एको भवान्। ज्ञाता० ११० ग्रहणा। ओघ०११० एकामर्शनं एकामर्शा। उत्त. १४१। | एगोदगं- एकोदकं, सर्वात्मनोदकप्लावितम्। जीवा० एगाय- एकाकिनः। सूत्र. १४० ३२६। एगालंभी- एकलाभी-यः प्रधानः शिष्यः, तमेकं यो न एगोरुया-अन्तरदवीपविशेषः। प्रज्ञा. ५० ददाति अवशेषांस्तु सर्वानपि प्रव्रजितान् गुरूणां एच्चिरेण-इयता। ओघ०६५ प्रयच्छति। येषामेक एव लाभो-यथा यदि भक्तं लभन्ते एज- एजतीति एजः-वायः कम्पनशीलत्वात्। आचा० ७५ ततो वस्त्रादीनि न, यथा वस्त्रादिनि लभन्ते तर्हि न एज्जंत-आयान्तमागच्छन्तम्। उत्त० ३५८ आयान्तम्। भक्तमपि, एकमेव लभन्ते इत्येवंशीला एकलाभिनः। आव० २८७ व्यव० २३२ आ। एज्ज-एयाता-समागच्छताम्। बृह० १४१ अ। एगावलि-तपविशेषः। आचा०४२३। एज्जमाणं-इयत् आगच्छत्। जम्बू. २३३। प्रत्यागच्छत्। एकावलीनानामणिक-मयी माला। औप०५५) ज्ञाता०१३९। एज्यमानं-कम्प्यमानम्। जीवा. १८१| विचित्रमणिका। ज्ञाता०४३। विचित्रमणिकमयी। भग० एज्जा-आगच्छेत्। बृह. १८७। ४७७ एडगारूढो- एडकारूढः। आव०४१७) एगावलिसंठिते- एकावलिसंस्थितः एडेति- एडयन्ति-अपनयन्ति। जम्बू. ३८८ अनुराधानक्षत्रसंस्थानम्। सूर्य. १३०| एडेइ-छईयति, नीरे प्रक्षिपति। जम्बू. २३० एगावली- एकावलिका-जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकसमयानां | एडेति-अपनयति। भग० ६६५१ समदायः। जीवा० ३४४। विचित्रमणिकमयी। भग०४५९। | एडेसि-छईयसि। ज्ञाता०६९। एगावाती- एकवादी-तत्रैक एवात्मादिरर्थ इत्येवं वदतीति। | एणी-स्नायः। प्रश्न० ८० हरिणी। जम्बू. ११० जीवा. स्था० ४२५ २७० एण्यः-स्नायवः। जम्बू. ११० एगासणं- एकाशनं नाम सकृदुपविष्टपुताचालनेन एणीयारा- एणी-हरिणी मृगग्रहणार्थं चारयन्ति-पोषयन्ति भोजनम्। आव० ८५३ ये ते। प्रश्न. १४१ एगाहं- एकाहं एकमहर्यावत्। जीवा. १०९| दिने दिने | एणेज्जग- गोशालपरावर्तिस्थानम्। भग०६७४। गत्वा नोदयति, एकान्तरितं वा। बृह. १४२ आ। एकाहं- | एतं- एनम्-एकम्। प्रश्न. १९| अभक्तार्थम्। व्यव० ३८६अ। एतमलैं- एतं-पुद्गलानामपरापरपरिणामलक्षणमर्थम्। एगाहच्चं- एका हत्या-हननं-प्रहारो यत्र जीवितव्यपरोपणे | ज्ञाता० १७७ तदेकाहत्यम्। भग० ३२३। एका एव आहत्या-आहननं । एतेवं- एतदेवमित्यर्थः। भग०४५५ प्रहारो यत्र भस्मीकरणे तदेकाहत्यम्। भग०६७०| एकं एत्ताहे-अधुना। आव० ३५९। घातं, एकेन घातेनेति भावः। राज० १३४। एत्तिओ- एतावान्। आव० ४२२॥ एगाहजातगा-एकाहर्जाता एकदिवसोत्पन्नाः। आव० एत्तिल्लयं- एतावत्। आव० ५५५ ११६ एत्तियपरिक्खओ-ईयत्परीक्षकः। आव० ८२६। एगाहिगारिगा- एकस्मिन् शय्यातरं पिण्डादावधिकृत- एत्तो- एष। उत्त. १४२। इतः-अहिकडेवरादिगन्धात् दोषेऽ-नालोचिते एव यानि शेषदोषसमत्थितानि सकाशात्। ज्ञाता० १३० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [224] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] एत्थं-अत्र, इह। दशवै० ९९। एरावणदहे-द्रहविशेषः। स्था० ३२६। एत्थ-अशोकवरपादपस्य यदधोऽवेत्येवं संबन्धनीयः। एरावती-नदीविशेषः। स्था० ४७७। कुणालानगर्याः समीपे ज्ञाता०६। नदी। बृह. १६१ आ। एत्थोवरए-अस्मिन् संयमे भगवदवचसि वा एरावय- ऐरावतंउपसामीप्येन रतः व्यवस्थितः। आचा० १६२१ उत्तरपार्श्ववर्तिभरतक्षेत्रप्रतिरूपकक्षेत्रवि-शेषः। जम्बू. एघहो- एतावान्। आव० ३४१| ३३० एमेए- एवं अनेन प्रकारेण एते-येऽधिकृताः प्रत्यक्षेण वा । एरिंड- वृक्षविशेषः। भग०८०२| परिभ्रमन्तो दृश्यन्ते। दशवै०६८ एलए- एलकः-उरभः। प्रश्न० ३७ एयं- एतत्, एतावत्प्रमाणम्, सूर्य. ११३। एलक-ऊरणकः। अनुयो० १२९। एयंतं- एजमानं, कम्पमानम्। स्था० ३८५ एलकच्छं- एडकाक्ष-योगसंग्रहेऽनिश्रितोपधानदृष्टान्ते एयंतगं-आगच्छत्। आव० २९१। पुरं, यत्पूर्वं दशार्णपुरं नाम नगरमासीत्, यत्र एयइ-एजते-कम्पते। भग० १८३। गजाग्रपदाभिधः पर्वतस्तत्। आव०६६८१ एयकम्मे- एतद्व्यापारः, एतदेव वा काम्यं-कमनीयं एलगच्छा- एडकाक्षः-कायोत्सर्गे दृष्टान्तः। आव०८०० यस्य स। विपा०४० एलकाक्षः-ग्रामविशेषः। उत्त०८७ एयग्गो- एकाग्रः-एकचितः। आव०७७३। एलगमूओ-भाषमाण एडक इव बूबुयते एडकमूकः। आव. एयणुद्देसए- एजनोद्देशकः-भगवतीसूत्रस्य ૬૨૮ पञ्चमशतकस्य सप्तमोद्देशः। भग० २४६| एलगा- एडकाः-विखुरचतुष्पदविशेषाः। जीवा० ३८ एयविज्जे- एषैव विदया-विज्ञानं यस्य स एतदविदयः। एलते- एडकः-और्णकः। प्रज्ञा० २५२। विपा०४०१ एलमूअय-एलमूकता-अजाभाषानुकारित्वम्। एयसामायारो- एतत्सामाचारः-एतज्जीतकल्पः। विपा० दशवै०१९० एलमूओ-एलमूगो भासइ एलगो जहा बुडबुडति एवं एयारूव- एतद्रूपं-वक्ष्यमाणरूपम्। भग० ३२२। एतद्रूपः- एलमगो भासति। निशी. ३६ आ। एतदेव रूपं-स्वरूपं यस्य सः। जम्बू. २२॥ एलयं- एलकं-ऊरणकम्। उत्त० २७२। एयावंति- एतावन्तः। आचा० २३ | एलवालु-चिर्भटविशेषरूपम्। प्रज्ञा० ३७। एरंड-हडक्कितः। बृह. २१९ अ। तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३ एला-फलविशेषः। जम्ब० ३५। जीवा० १३६, १९१| हरण्डः । आचा० १९७५ एलापाडल-एलापाटला-पाटलाविशेषः। ज्ञाता०२३१| एरंडइए- हडक्कियितः। बृह. १०६ आ। एलापुडाण- गन्धद्रव्यविशेषः। ज्ञाता० २३२ एरंडकट्ठसगडिया- एरण्डशकटिका-एरण्डकाष्ठमयी। एलारस- एलारसः-सुगन्धिफलविशेषरसः। प्रश्न. १६२। ज्ञाता०७६| एलालुकी-वल्लीविशेषः। आचा० ५७। एरंडबीयाण-उत्कटिकाभेदः। प्रज्ञा० २६६। एलावच्चसगोत्तं-इलापतेरपत्यं एलापत्यः, एलापत्येन एरंडमिंजिया- एरंडमञ्जिका-एरंडफलम्। भग० २९० सह गोत्रेण वर्तते यः स एलापत्यसगोत्रः। नन्दी०४९। एरगा- एरका-गुन्द्रा भद्रमुस्तक इत्यर्थः। बृह०२०२अ। एलावच्चा- गोत्रविशेषः। स्था० ३९०। एलापत्यारात्रेः एरवए- ऐरवतः-क्षेत्रविशेषः। स्था० ६८। ऐरावतः। सूर्य. तृतीयं नाम। सूर्य. १४७१ २२। ऐरवतः-कर्मभूमिविशेषः। प्रज्ञा० ५५। एलावालुंकी-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ एरवतीणदी-नदीविशेषः। निशी० ७९ अ। एलासमुग्गयं- एलासमुद्गकम्। जीवा० २३४॥ एरावण- ऐरावणः-शक्रगजः। प्रश्न. १३५। इन्द्रहस्ती। एलिका-तृणपत्रनिश्रितो जीवविशेषः। आचा० ५५ स्था० ३०२| आव० ३५९। गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ | एलिक्खं- ईदृशोऽभिहितार्थाभिज्ञः। उत्त० २८२। ४०१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [225] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] एलिया- एडका। आव०८५४१ एवमेयं- एवमेवैतत् यद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्तथैवेत्यर्थः। एलिसय-ईदृशं-एतादृशम्। बृह. २८७ अ॥ ज्ञाता०४७ एलुए- एलुकः-देहली। जम्बू०४८।। एवमेवं-बिन्दोरलाक्षणिकत्वादेवमेव। उत्त०४०९। एलुकावालुङ्क-तिल्लकम्। दशवै० १८० एवमेव-उपनयवचनमिति। ज्ञाता० ९६। एलुकः- उदम्बरः, देहली। बृह. २५७ आ। एषः- एषः-एषणमेषो-गवेषणम्। उत्त. ५१४। एलुगं- देहली। आचा० २२२१ एषणायामसमतित्वं-विंशतितममसमाधिस्थानम्। एलुगा- एलुकाः-देहल्यः। राज०६१। जीवा. २०४, ३५९) प्रश्न.१४४१ एवं- एवं प्रकारवचनशब्दः। दशवै० १३६। प्रकारवाचकः। एषणीय-प्रासुकम्। भग०१११| ओघ० ५। उपमार्थे। उत्त० २२४| प्रकारार्थः। प्रज्ञा० २५५ एसणा- एषणा-अभिलाषः। पिण्ड० २। एषणमेषो-गवेषणं इत्थंकरणाय। ज्ञाता० ११३ तं करोतीति णिक् ततः स्त्रीलिङगे भावे यटि एषणा। एवं आया- एवमात्मा-एवंरूपः। नन्दी० २१२ उत्त० ५१४। गृहिणा दीयमानपिण्डादेर्ग्रहणं एषणा। एवं चतुर्यु- पूर्वापरविदेहदेवकुरूत्तरकुरुरूपेषु क्षेत्रविशेषेषु। स्था० १५९। शङ्कितादिलक्षणा। आव०१७६। गवेषणा। चतुर्विधस्य पर्यायः। जम्बू. ३१२। प्रश्न. १०८ अनुत्त० ३। पिण्डविशुद्धिः। भग० २९४। एवं भागा- एवं भागानि-वक्ष्यमाणप्रकारभागानि। सूर्य एसणासमिइए- एषणा-गवेषणादिभेदा शङ्कादिलक्षणा १०४१ वा तस्यां समितिः एषणासमितिः, गोचरगतेन मुनिना एवंभूओ- एवम्भूतः, यथाभूतो नयः विशेषयति। आव. सम्यगुपयुक्तेन नवकोटीपरिशुद्धं ग्राह्यम्। आव०६१६| २८४॥ यः शब्देनोच्यते चेष्टाक्रियादिकः प्रकारस्तमेव- एषणाऽसमिए– एषणाऽसमितः, योऽनेषणां न परिहरति। भूतं प्राप्तं यत्क्रियाविशिष्टं शब्देनोच्यते तामेव क्रियां विंशतितममसमाधिस्थानम्। आव०६५३। कुर्वदवस्तु एवंभूतम्। अन्यो० २६६।। एसणासमिति-सुत्तानुसारेण रयहरणवत्थपादासणपाणएवंभूत- एवमिति तथाभूतः सत्यो घटादिरों तिलओसहऽणेसणं। निशी० १७ अ। नान्यथेत्येवम-भ्युपगमपर एवंभूतो नयः। स्था० १५३। एसणाऽसमिते-अनेषणां न परिहरति। विंशतितममसशब्दनयस्य तृतीयो भेदः। उत्त०७७। यः शब्देनोच्यते माधिस्थानम्। सम० ३७ चेष्टाक्रियादिकः प्रकार-स्तविशिष्टस्यैव एसणिज्जं-एष्यते-गवेष्यते उदगमादिदोषविकलतया वस्तुनोऽभ्युपगमात्तमेवं भूतः-प्राप्तः एवंभूतः। अनुयो० | साधुभिर्यत्तद् एषणीयं-कल्प्यम्। स्था० १०८, २१३, २६६। यथाशब्दार्थ एवं पदार्थो भूतः सन्नित्यर्थोऽन्यथा __एष्यत इत्येषणीयं-कल्प्य म्। भग० २२६। भूतोऽसन्निति प्रतिपत्तिपर एवंभूतः। स्था० ३९०। एसणोवघाते- एषणया-तद्दोषैर्दशभिः शकितादिभिः एवंभूय-दृष्टिवादे सूत्रस्य भेदः। सम० १२८। एवंभूतः तस्योपघातः-अकल्प्यता। स्था० ३२० नयविशेषः। प्रज्ञा० ३२७ एसिं- एषणीयं-शुद्धम्। पिण्ड० १४८१ एवं महालियं- इति महतीम्। ज्ञाता०६२ एसिआ- गोष्ठाः। आचा० ३२७। एवं महालिया- एतावन्ति महान्ति। जीवा० ३९९। एसिज्जा- एषयेत्-पर्यवसितवृत्त्या कुर्यात्। उत्त०४६। एव- एवकारः-क्रमप्रदर्शनार्थः। आव० १० समुच्चये। | एसियं- एषणीयं-आधाकर्मादिदोषरहितम्। आचा० ३३१। स्था. ५०४। एवः-अवधारणे भिन्नक्रमश्च। उत्त. २९४ एषणीयं-गवेषणाविशुद्धया गवेषितम्। भग० २९३। पूरणार्थे। आव० ११०| एवम्-अनन्तरोक्तप्रकारेण। एसिया- एषितं शीलमेषामिति एषिका-मगलब्धका उत्त. २८५। क्रमनियमप्रतिपादनार्थः। ओघ. २१ हस्तितापसाश्च मांसहेतोर्मगान हस्तिनश्च एषन्ति, ये एवकारः-परिमाणे। प्रज्ञा० ५५९। एवशब्दः-अपिशब्दार्थः। चान्ये पाखण्डिका नानाविधैरुपायैर्भक्ष्यमेषन्त्यन्यानि व्यव. २१३ आ। वा विषय-साधनानि ते। सूत्र. १७७) एवड्डे- एतावन्। आव० ४३०| | एसु- एष्यामः। ओघ०७०। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [226] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] एसुहम- एतावत्सूक्ष्मः। प्रज्ञा०६०१। जीवा० ३७५) विशेषः। आव०४६५५ एसे- एष्यति-आगमिष्यति। पिण्ड. १६७। ओगसणं-नाशनम्। महाप्र० एस्सा- एष्याः-भविष्यन्तः। आव०६८७। ओगाढं- अवतीर्णा अवगाढां वा प्रकर्षप्राप्ताम्। स्था. एस्सुहमो- एतत्सूक्ष्मः। औप०१०९। ३९९। आत्मप्रदेशेन सह एकक्षेत्रावस्थायि अवगाढम्। एहता- एधयन्तः-अनुभवन्तः। दशवै० २४८1 प्रज्ञा० ५०२। भग० २१। लोलीभावं गतः। भग० ८३। एहति- एधते-प्राप्नोति। उत्त० ३१४। अट्ठीभूतं। निशी० ३२७ आ। साधप्रत्यासन्नीभूतः। स्था० एहा- एधाः-समिधो यकाभिरग्निः प्रज्वाल्यते। उत्त. १९० ३७२। एधाः-समिधः, काष्ठानि। आचा० ३०९। ओगाढरुइ-अवगाढनमवगाढं-दवादशाङ्गावगाहो एहामो- एष्यामः। ओघ०६५ विस्ताराधिग-मस्तेन रुचिः, अथवा ओगाढएहिं-अक्किालिकः। इदानीम्। निशी. १०९ अ। साधुप्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधूपदेशाद् एहिअगुणा- ऐहिकगुणाः-इहलोकगुणा भक्तपानादयः। रुचिरवगाढरूचिः। भग० ९२६) ओघ. ३९ ओगाढरुती-अवगाहनमवगाढं-द्वादशांगावगाहो एहिइ- एष्यति। उपा०४०। विस्तरा-धिगम इति सम्भाव्यते तेन रुचिः, अथवा -x-x-x-x ओगाढत्ति-साधुप्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधूपदेशाद् रुचिः, स्था० १९० ऐापथिकं- केवलयोगप्रत्ययः कर्मबन्धः। प्रश्न. १४३। ओगाढा- प्रविष्टा। ज्ञाता० १३७ ऐरावती-शिखरिणि वर्षधरे दशमः कूटः। स्था०७२। ओगालीफलग-आर्यक (प्रायक) प्रभृतीनामावल्या ऐरावतीया-स्त्रीविशेषः। जीवा०६०। समागतं चंपकपट्टादिफलगं। व्यव० १०७ आ। -x-x-x-x ओगास-पडिस्सगस्सेगदेसो। निशी० ८३ अ। अवकाशः(ओ) स्थानम्। आव० ५३५ मार्गः। आव०६७८1 ओअं-ओजः-मानसोऽवम्ष्टम्भः। औप. ३३। ओगाहंती-अवगाहन्ती-आगच्छन्ती। आव० २३२। ओअंसी-ओजस्वी-आत्मना वीर्याधिकः। जम्ब० २१९| ओगाहणग्गं- यद्यस्य द्रव्यस्याधस्तादवगाढं ओअट्टणं-उद्वर्तनम्। गाढतरमुद्वर्तयति। बृह. तदवगाहनानम्। आचा० ३१८१ ७१। ओगाहणनामनिहत्ताउए-अवगाहनानामनिधत्तायुःओअविअ-परिकर्मितम्। जम्बू. ५५ अवगाहते यस्यां जीवः साऽवगाहना-शरीरमौदारिकादिः ओअविआ-आरोपितानि। जम्बू. २९२ तस्य-नाम औदारिकशरीरनामकर्म तेन सह ओअवेहि- साधय-अस्मदाज्ञाप्रवर्तनेनास्मद्वशान् कुरु। निधत्तमायः। प्रज्ञा० २९७ जम्बू. २१८ ओगाहणवग्गणाओ-अवगाहनाः एकैकस्य भाषाद्रव्यओआलितं- द्रावितम्। आव० ३५०। स्याधारभूता असङ्ख्येयप्रदेशात्मकक्षेत्रविभागरूपास्ताओइण्णेसुं-उत्तिण्णेसु-अवतीर्णेषु कियत्स्वपि गृहिषु सामवगाहनानां वर्गणाः-समुदायाः अवगाहनावर्गणाः। मध्ये स्थितः प्रयाति। ओघ० ३२ प्रज्ञा० २६५ ओए-ओजः-तैजसम। सत्र. ३४३। एकः-असहायः। सूत्र. ओगाहणसंठाण-प्रज्ञापनायामेकविंशतितमं पदम्। भग. १०८। विषमः, प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमाः। पिण्ड. ३९६, ४९५, ८४२। अवगाहनास्थानम्। प्रज्ञापनाया १६९। एको रागादिविरहात्। आचा० २५६| एकविंशतितमं पदम्। प्रज्ञा०६। एकोऽशेषमलकल-काकरहितः। आचा. २३१| | ओगाहणसेणियापरिकम्मे-परिकर्मे चतुर्थोभेदः। सम० ओओ-ओजः-आरोहादिकयुक्तता। बृह० ३०९ आ। ૧૨૮ ओकसणं- पंकपनकयोः परिल्हसणम्। बृह. २२९अ। ओगाहणा-अवगाहना-तनुः, तदाधारभूतं वा क्षेत्रम्। भग. ओकुरुडो- उत्कुरुटः-कुणालानगर्यां दोषोत्तर उपाध्याय- | मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [227] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ७१। नियतपरिमाणक्षेत्रावगाहित्वम्। भग०२३६। षड् ओघसामाचारी-सामाचार्याः प्रथमभेदः। व्यव० १९आ। जीवनिकायानां पादसङ्घट्टनम्। पिण्ड० १६१। अव- ओघनियुक्तिः । ओघ० ११ गाहन्तेऽस्यामवस्थायामिति अवगाहना-स्वावस्थैव। | ओघसामाचार्युपक्रमकालः- सामाचार्युपक्रमकालस्य आव० ४४४। प्रज्ञा० १०८ अवग्रहणं-परिच्छेदः। प्रज्ञा० प्रथमो भेदः। ओघ०१। ३०९। अवगाहन्ते क्षेत्रं यस्यां स्थिता जन्तवः ओघा-उन्मुखा निरीक्षमाणाः। व्यव० १३० अ। सावगाहनातन-रित्यर्थः। नन्दी० ९१। अवगाहते यस्यां ओघाडिज्जइ-उद्घाट्यते-बाह्यः क्रियते। आव० ६९७) जीवः सा अवगाह-नाशरीरं औदारिकादिः। प्रज्ञा० २१८१ ओघादेसेणं- सामान्यतः। भग० ८६३। ज्ञाता० २५० ओघाययण-ओघायतनानि यानि प्रवाहत एव ओगाहिम-आदिमे जे तिण्णि घाणा पयतिते पूज्यस्थानानि तडागजलप्रवेशौघमार्गो वा। आवा० चलवलेत्ति, तेण ते चलवल ओगाहिम भण्णति। निशी. ४११। १९७ । ओचार-अपचारि-दीर्घतरधान्यकोष्ठाकारविशेषः। ओगाहिमगं-पक्वान्नम्। बृह. ३१२आ। अवगाहिमम्। अनुयो० १५१ आव०८५४१ ओचिया-आरोपिता। जीवा. १९९। ओगाहिमतो-अवगाहकः। उत्त० १९८१ ओचूल-अवचूलाः-प्रलम्बगुच्छाः। जम्बू० २६५) ओगाहिमाइ-अवगाहिमादि-पक्वान्नमण्डकप्रभृति। प्रलम्बमानगुच्छः। औप०७०| भग० ४८० जम्बू० ५३० पिण्ड० १५२ ओचूलग- अवचूलकं-अधोमुखाञ्चलं, मुत्कलाञ्चलम्। ओगाहे-आगच्छति। ओघ० १०४। अवगाहः-शरीरो- जम्बू० २४७ च्छ्रयः। प्रज्ञा० १८१ ओच्छगं- वस्त्रं, आलिङ्गनम्। आव०६८२ ओगाहेज्जा -अवगाहेत-आश्रयेत। भग० २३३ ओच्छन्नपरिच्छन्न-अवच्छन्नपरिच्छन्नः-अत्यन्तमाओगाहेत्ता-प्रविश्य। सम० ८८1 च्छादितः। जीवा. १८८ ओगाहो- पत्तग्रहः। बृह० २५० आ। ओच्छवियं-अवच्छादितम्। ज्ञाता० २८१ ओगिज्झिय-अवगृह्य-आश्रित्य। आचा० ४०३। ओच्छाइय-आच्छादितः-निरुद्धः। प्रश्न.१३४अवच्छाओगिण्हणयाते-अवग्रहणतायैमनोविषयीकरणाय। स्था० ४४१ ओच्छाहिओ-उत्साहितः-उत्कर्षितः। पिण्ड० १३४ ओगुंडिया-मलदिग्धदेहाः। बृह. २७८ आ। ओज-ओजः-बलम्। प्रश्न. ११६। आहारादि। भग. २० ओगेण्हणया-अवगृह्यतेऽनेनति अवग्रहणं, करणेऽनट, ओजःप्रदेशं घनचतुरसं-सप्तविंशतिपरमाण्वात्मकं प्रथमसमयप्रविष्टशब्दादिपुद्गलादानपरिणामः, सप्तविंश-तिप्रदेशावगाढंच, तत्र नवप्रदेशात्मकस्यैव तद्भावो-ऽवग्रहणता। नन्दी. १७४। पूर्वोक्तस्य प्रतर-स्याध उपरि च नव नव प्रदेशाः ओग्गह-अवधारणं अवग्रहः। आव० ३४१। स्थाप्यन्ते, ततः सप्तविंश-तिप्रदेशात्मकमोजःप्रदेश ओघ-औघिकः, अशुभकर्मप्रकृतिजनितो भावोपसर्गः। घनचतुरस्रं भवति। प्रज्ञा० १२। सूत्र०७८ ओघः-सामान्यम्। आव० २५८, ४५८, ४८० ओजःप्रदेशं घनत्र्यसं-पञ्चत्रिंशत्परमाणनिष्पन्नं ओघजीवितं-नारकाद्यविशेषितायुर्द्रव्यमानं सामान्य पञ्चत्रिंशत्प्रदेशावगाढं च, तच्चैवं-तिर्यग् निरन्तराः जीवितम्। स्था०७१ पञ्च परमाणवः स्थाप्यन्ते, तेषां चाधोऽधः क्रमेण ओघनिष्पन्नः-ओघः-सामान्यमध्ययनादिकं तिर्यगेव चत्वारस्रयो दवावेकश्चेति पञ्चदशात्मकः श्रुताभिधानं तेन निष्पन्नः। अनयो० २५१| प्रतरो जातः, अस्यैव च प्रतरस्योपरि सामान्यशास्त्रनिष्पन्नः। आव०५८। सर्वपक्तिष्वन्त्यान्त्यपरित्यागेन दश, तथैव ओघरूपा-सामाचारीविशेषः। उत्त. १४७) पर्यपरि षट् त्रय एकश्चेति क्रमेणाणवः स्थाप्यन्ते, मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [228] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] एते मिलिताः पञ्चत्रिंशद्धवंति। प्रज्ञा. १। ओतिन्नो-अवतीर्णः-गन्तुमुपक्रान्तः। उत्त० २४७। ओजःप्रदेशं घनवृत्तं-सप्तप्रदेशं सप्तप्रदेशावगाढं च, ओदइ-पश्यति। नन्दी. ९९। तच्चैवं-तत्रैव पञ्चप्रदेशे प्रतरवृत्ते मध्यस्थितस्य ओदइए-कर्मणामुदयेन निवृत्तः औदायिकः परमाणोरुपरिष्टा-दधस्ताच्च एकैकोऽणुरवस्थाप्यते, कर्मोदयापादितो गत्याद्यनुभावलक्षणः। सूत्र० २३० तत एवं सप्तप्रदेशं भवति। प्रज्ञा० ११। ओदइयभावमूल-औदयिकभावमूलं-वनस्पतिकायमूलओजःप्रदेशं प्रतरचतुरसं-नवपरमाण्वात्मकं त्वमनुभवन्नामगोत्रकर्मोदयात् मूलजीव एव। आचा. नवप्रदेशावगाढं च, तत्र तिर्यग निरन्तरं त्रिप्रदेशास्तिस्रः ८८1 पङ्क्त्यः स्थाप्यन्ते। प्रज्ञा० १२ ओदग्गे- उत्कट उदग्रवयः स्थितत्वेन वा उदग्रः। उत्त. ओजःप्रदेशं प्रतरचतुरस्र-त्रिप्रदेशं त्रिप्रदेशावगाढं च ३४९। तच्चैवं-पूर्वतिर्यगणुद्वयं न्यस्यते, तत आद्यस्याध ओदण-ओदनं। ओघ. २१५ करो। निशी० ५८आ। एकोऽणुः। प्रज्ञा० ११| ओदनं-हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृत ओदनादिः। स्था० २२० ओजःप्रदेशं प्रतरायतं-पञ्चदशपरमाण्वात्मकं पञ्चदश- | भक्तम्। उत्त. २७२। प्रदेशावगाढं च, तत्र पञ्चप्रदेशात्मिकास्मिस्तिस्रः ओदरिअ-औदरिकाः-भट्टपत्राः। ओघ० ९५। पक्त-यस्तिर्यक् स्थाप्यन्ते। प्रज्ञा० १२१ ओदारं-प्रधानं तीर्थकरादिशरीराणि प्रतीत्य। सम.१४२ ओजःप्रदेशं श्रेण्यायतं- त्रिपरमाणु त्रिप्रदेशावगाढं च, तत्र | ओदूढो-आशातितः, थूत्कृतः। उत्त० ३५६। तिर्यग् निरन्तरं त्रयःस्थाप्यन्ते। प्रज्ञा० १२ ओद्देसिकं-यावन्तः केचन भिक्षाचरा समागच्छन्ति ओजःप्रदेशप्रतरवृतं- पञ्चपरमाणुनिष्पन्नं तावन्तः सर्वानुद्दिश्य यत् क्रियते तत्। बृह० ८अ। पञ्चाकाशप्रदेशावगाढं च, तद्यथा-एकः परमाणुर्मध्ये | ओधाइओ-अवधावितः। आव० ४२४। स्थाप्यते, चत्वारः क्रमेण पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु। प्रज्ञा० | ओधूणण-अवधूननम्-अपूर्वकरणेन ११ कर्मग्रन्थेर्भेदापादनम्। आचा० २९७। ओज्झा-उपाध्यायः। दशवै. २४२ ओपल्ला-अपदीर्णा, कुण्ठीभूता। ज्ञाता० १९२ ओझा- तुलादंडवद्द्वयोरपि मध्ये वर्तते सः। ब्रह. १० ओबद्धओ-विदयादायकादिप्रतिजागरकः। स्था० १६५ १६०१ ओबद्धपिंडितो-अवबद्धपिण्डिकः। उत्त० २१५) ओट्टियं-औष्ट्रिकम्। आव. ४२५। ओबारं-अवदवारम्। आव. ३४९। ओणए-अवनतं, उत्तमाङ्गप्रधानं, प्रणमनमित्यर्थः। | ओबोले-उबुडयितुम्। आव० १९७९ सम०२४। आसन्नम्। भग० ३५१ ओभावणा-उवहावणा-परिभवः। ओघ० १३१। अपभावना ओणता-अवनता। आव. २३७। -लाघवम्। बृह. १७९ अ। ओणमओ-अवनमतः। ओघ. १७८। ओभासंति-अवभासयन्ति-सप्रकाशा भवन्ति। भग. ओणमित्ता-अवनम्य। आव० २३७। ३२७। अवभासयन्ति। सूर्य०६३। ओणयं- उत्तमांगप्रधानं प्रणमनम्। बृह० १० अ। ओभासंतो-अवभासयन्। ईषद्द्योतयन्। जम्बू०४६१] अवनतिः अवनतं-उत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमनम्। आव० ओभास-अवभासः-प्रभा। ज्ञाता०४। अवभासः, प्रभा५४२। अवनतः। आव०२७७ विनिर्गमः। प्रज्ञा० ८० प्रतिभाविनिर्गमः। जीवा०१०७५ ओणामिणी-अवनामिनी-विद्याविशेषः। दशवै०४१। पञ्चषष्टितमो ग्रहः। जम्बू० ५३५ सप्तषष्ठितमो ओतपोतं- (देशी) आकीर्णम्। बृह. १३९ अ। महाग्रह-विशेषः। स्था० ७९। ओतपोयं- (देशी०) मालयन्ति,। बृह० ७० अ। ओभासइ-अवभासते। आविर्भवति, प्राप्यते इति। सूत्र. ओतप्रोतः- तद्रूपः। भग०६५। २१४। अवभासयति-प्रकाशयति। सूर्य०६) ओतारो-अवतारः। आव० ३८४। ओभासिज्ज-अवभाषेत-दातारं याचेत्। आचा० ३४० मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [229] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] ओमासिज्जा-अवभावेत-याचेत। आचा० ३५२ ओमाणं- प्रवेशः। उत्त० ५५२। अपमानम्। बृह. १२० अ। ओभासितं-अवभाषितं-याचितं याचनं वा। ब्रह. १४२ ससवत्तियं। निशी० २०५आ। अवमानानि-क्षेत्रादिनां ओभासी-अवभासते-प्रतिभाति, अवभाषते-याचत इत्ये- प्रमाणानि हस्तादीनि। स्था०८६। अवमानं - वंशीलोऽवभासी। स्था० २०७ स्वपक्षपरपक्षप्राभूत्यजं लोकाबमानादि। दशवै० २८० ओभासेई-अवभासयति-ईषत् प्रकाशयति। भग० ७८1 ओमानं-अवमानं-अवमम्। बृह. २९० आ। ओभुग्ग-अवभुग्नं-वक्रम्। ज्ञाता० १३८१ ओमुयं- उल्मुकम्। ओघ० ११२। ओमंघ-पात्रमवाङ्मुखम्। बृह. १०७ आ। ओमोअं-अवमोचकः, आभरणम्। जम्बू. १८८१ अवओमंथियं-अधोमुखीकृतम्। विपा०४९। निर०६। ज्ञाता० | मुच्यते-परिधीयते यस्सोऽवमोचकः-आभरणम्। जम्बू. ३३। अवाङ्मुखम्। बृह. १९८ आ। स्था० २९९। १८८५ ओम- बालः। ओघ० १५१। लघुपर्यायः। ओघ० १८५। अवं- | ओमोअर-अवमं-न्यूनमुदरं-जठरमस्यासाववमोदरस्तदुर्भिक्षम्। ओघ० ११, १८, ६३। पिण्ड० ७७। आव० ५३६। । द्भावः। अवमौदर्य-न्यूनोदरता। उत्त० ६०४| अल्पाहान्यूनम्। आव० १३०| दुर्भिक्षम्। निशी० १८३आ। निशी० | राख्यम्। उत्त०६०४१ १४ आ। अवमानि-असाराणि| उत्त० ३५९। ओमोदरिता-दुभिक्खं। निशी० ७५अ। अवमरात्निकः। बृह. १९ अ। दुर्भिक्षम्। व्यव० १९८ ओमोद्दरिए- अवमोदरिका, धर्मधर्मिणोरभेदा वा आ। अवम-हीनम्। आचा० १६४। ऊणं। दशवै० १६२ अवमो-दरिकः-साधुः। भग० २९३। ऊनम्। उत्त०६०४। अवमान्यूना। उत्त० ५३७) ओमोयं-अवमुच्यते-परिधीयते यः सोऽवमोकःपर्यायलघुः। ओघ० १५०। अवमम्। न्यूनम्। दशवै. आभरणम्। भग० ५४३ ર૩રા. ओमोयरण-अवमं च तदरं चावमोदरं तस्मात्करोत्यर्थे ओमचरओ-ओमत्ति-अवममुपलक्षणत्वादवमौदार्य णिचि ल्यूटि चावमोदरणं, अवमोदरकरणम्। उत्त. चरति-आसेवते अवमचरकः-न्यूनत्वासेवकः। उत्त. ६०४१ ६०६। ओमोयरिय-अवमौदर्य-दुर्भिक्षम्। आव० ६२६। अवमओमचेलिए-अवमचेलिकः, असारवस्त्रधारी। आचा. न्यूनमुदरं-जठरमस्यासाववमोदरस्तद्भावः अवमौदर्य३९७ न्यूनोदरता। उत्त०६०४। ओमच्छगरयहरणं-उन्मस्तकरजोहरणम्। आव०६३८१ | ओमोयरिया-अवमं-ऊनमुदरं-जठरं अवमोदरं तस्य ओमज्जायणं-अवमज्जायनं, पृष्यगोत्रविशेषः। जम्ब० करण-मवमोदरिका। स्था० ३६४। अवमं-ऊनम्दरं-जठरं ५००। यस्य सः, अवमं चोदरं अवमोदरं तद्भावोऽवमोदरता, ओमत्तं-अवमत्वं-ऊनता। भग०७४२। अवमता-हीन- अवमोदर-स्य वा करणमवमोदरिका। स्था० १४८ त्वम्। प्रज्ञा० ३०३ ओम्मिमालिणी-और्मिमालिनी-नदीविशेषः। जम्बु. ओमत्थिअ- उद्घाटमस्तकः, प्रच्छन्न इति। ओघ०१५ ३५७ ओमत्थिय-ओमस्थितः, अधोमुखीकृतः। ओघ० १४३। ओयं- रसम्। (तन्दु) ओमद्धिया- उन्मर्दिका-बहुमर्दनकारिका। भग० ५४८५ ओयंसी-ओजस्विनः-मानसावष्टम्भयुक्ताः। भग० १३६। ओमया-पराजयः, पश्चाद्भवनम्। बृह० ७१ अ। ओजः-मानसोऽवष्टम्भस्तदवान् ओजस्वी। राज०११८ ओमरत्तं-अहोरात्रम्। ओघ०११६ अवमा-हीना रात्रिरव- निर०२। ज्ञाता०७। ओजस्विनः-मानसबलोपेतत्वात्। मरात्रो-दिनक्षयः। स्था० ३६९। सम० १५६| ओमराइणिओ-अवमरात्निकः। ओघ १५० ओय-ओजः-आहारग्रहणे प्रथमो भेदः। स्था. ९३। ओजःओमराइणिय-अवमरात्निकः। आव० ७९३। आर्तवम्। स्था० १४५ ओजः-प्रकाशः। सूर्य.७ विषमः। ओमरायणिको-अवमरात्निकः। ओघ. १५२ सूर्य. १५६। उत्पत्तिदेशे आहारयोग्यपुद्-गलसमूहः। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [230] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] प्रज्ञा० ५१० कः शरीरे-णाहारयन् ओजाहारः। सूत्र०३४३। ओयणं-ओदनं। सूर्य-२९३। कूरः। प्रश्न. १५३। कूरादि। | ओयो- संजमो। निशी० २१७ अ। ओघ० १३३। ओदनं-कोद्रवौदनादि। आचा० ३१३ ओरब्भं-औरभं-उत्तराध्ययनेषु सप्तममध्ययनम्। ओयत्तण- व्याघातः। पिण्ड. १६२१ उत्त०९। ओयत्तति- परावर्तते। दशवै०१०८। ओरस-आन्तरः। भग०६३११ ओयन्ने-ज्ञातायां सप्तदशमध्ययनम्। आव०६५३। ओरस्स-उरसि भवं-औरस्य-शरीरबलम्। सूत्र. १६६। ओयपएस-विषमसंख्यप्रदेशः। भग०८६१ ओरस्सबली-महापराक्रमाः। ब्रह. १७४ आ। ओयरह-अवतरत। आव० ३५२ ओरालं-विस्तरवत्, समयपरिभाषया मांसास्थिस्नाय्वाओयरिआ-औदरिकानाम-यत्र गताः तत्र रूपकादिकं द्यवबद्धम्। प्रज्ञा० २६९। मांसास्थिस्नाय्वाद्यवबद्धम्। प्रक्षिप्य समुद्दिशन्ति, समुद्देशनानन्तरं भूयोऽप्यग्रतो स्था० २९५। उदारं-अत्यद्भुतम्। सूर्य. २९४। उदारःगच्छन्ति। बृह. १२५। प्रधानः। भीमः। औप० ८४ ओरालं-आशंसारहिततया ओयरिया-औदरिका-उदरभरणैकचित्ताः। ओघ०७१। प्रधानम्। भग० १२५। उदारः-प्रधानः। भग०१२। भीमःओयवणं-साधनम्। जम्बू० २४८१ भयानकः। ज्ञाता०७ स्फाराकारः। राज० ११९। भीष्मः, ओयविअं-अल्पसागारिकः-श्रावकः, खेदज्ञम्। ओघ. ५११ उग्रादिविशेषणविशिष्टतपःकरणतः ओयविए-प्रसाधिते। व्यव० १७६ आ। पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानां भयानकः। जम्बू० १६। भग. ओयवियं-सुपरिकर्मितम्। सूर्य. २९३। तेजितम्। जीवा० १२। सूर्य. ५। उदारः। जीवा० ३२२। एकेन्द्रियापेक्षया १६४। विशिष्टं परिकर्मितम्। जीवा० २३२परिकर्मितम् प्रायः स्थूला द्वीन्द्रियादय इति। उत्त०६९३। | जीवा. २७ परिकर्मितम्। प्रश्न. ८११ ओरालतसा-वस्त्वं तेजोवायुष्वपि प्रसिद्ध अतस्तव्यओयविया-कुशलाः। बृह० ५८ अ। वच्छेदेन दवीन्द्रियादिप्रतिपत्त्यर्थमोरालग्रहणम्। स्था० ओयवेइ-उपैति। आव १५०० ३३५ ओयसंठिती-ओजसः-प्रकाशस्य संस्थितिः-अवस्थानम्। | ओरालातसा-औदारिकत्रसाः-स्थूरत्रसाः। जीवा० २८। सूर्य०७९। ओरालवण्णकित्तिसद्दा-उदारवर्णकीर्तिशब्दाः। आव. ओया-ओजः-प्रकाशः। सूर्य ७९। २९३। ओयाए- उपायातः-उपागतः। भग० ३१९। सम्प्राप्तः। ओरालसरीरे-उदारशरीरः। उत्त. ३२५ निर०६। उपायातः-उपागतः। ज्ञाता० १६७। ओजसा- | ओरालई-मनोहराणि। स्था० २९४। उदाराणि-आशंसादाहापनयनादिस्वकायकरणशक्त्या। ज्ञाता०१७ दोषरहिततयोदारचित्तयक्तानि। स्था० २४७। ओयाणेत्ति-अनश्रोतोगामिनी, पानीयानगामिनी। ओरालिए-उदारं-प्रधानं, विस्तरवत, उरलं-विरलप्रदेशं न निशी० ४४ आ। तु घनं, ओरालं-समयपरिभाषया ओयारिया-अवतारिता। आव० ६८५। अवतारिका। आव० मांसास्थिस्नाय्वाद्यवबद्धं तदेव शरीरं, उदारमेव ३५० औदारिकम्। प्रज्ञा० २६८० ओयारो-अवतारः-जलमध्यप्रवेशनम्। जीवा० १९७ | ओरालिय-औदारिकम्। प्रज्ञा० ४६९। उदारमेव-प्रधानमेव ओयाहारे-ओजः-उत्पत्तिदेशे आहारयोग्यपदगलसमूहः, बृहदेव वा औदारिकम्। जीवा० १४। उदारं-प्रधानं ओज आहारो येषां ते ओजआहाराः। प्रज्ञा०५१० तैजसेन | उदारमेव औदारिकम्। स्था० २९५ कार्मणेन च शरीरेणौदारिकादिशरीरानिष्पत्तेर्मिश्रेण च | ओरालियसरीरणाम- यद्दयादौदारिकशरीरप्रागोग्यान् य आहारः सः सर्वोऽपि ओजाहारः, पुद्गलानादाय औदारिकशरीररूपतया परिणमयति औदारिकादिशरीरपर्याप्त्या परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सह परस्परानगमरूपतया पर्याप्तकोऽपीन्द्रियानपानभाषामनःपर्याप्तिभिरपर्याप्त | सम्बन्धयति तदौदारिकशरीरनाम। प्रज्ञा० ४६९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [231] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ओरालियशरीरा-औदारिकशरीराः। आव०७९९। ओरुहइ-अवतरति। आव० १८६) ओरोह-अवरोधं, अन्तःपुरम्। उत्त०३०७। अंतेपुरं। निशी. ८० अ। विपा० ८२ अवरोधः-प्रतोलि द्वारेष्ववान्तप्राकारः। औप० ३। प्रतोलीद्वारेष्वन्तःप्राकारः। राज० ३। अवरोधः अन्तःपुरम्। उत्त० १२० अवरोधः। आव० ३५९। प्रतोलीद्वारेष्ववान्तरप्राकारः। ज्ञाता०२। ओलंडेंति-उल्लङ्घयन्ति। ज्ञाता०६२। ओलंडेह-उल्लङ्घयत। दशवै० ९९। आव० ३५० ओलंब-अवलम्बं-अवलम्बनस्थानम्। जम्बू. ५२९। ओलंबणदीव-श्रृङ्खलाबद्धद्वीपः। भग० ५४७) ओलंबितो-अवलम्बितः। उत्त० १२५) ओलइओ-अवलगितः। आव. २९७। ओलइयं-अवलगित-गोपितम्। उत्त० ११६) ओलएइ-उपलगयति। आव० २१७ ओलगिउं-अवलगितुम्। उत्त० ३००। ओलग्गए-अवलगकः। आव० १७६ ओलग्गति-अवलगति-अन्सरति। उत्त० ८७ ओलग्गयमणूसो- अवलगकमनुष्यः। आव० ९२। ओलग्गा-सेवा। परिचर्या। दशवै. ९७। जीर्णा। ज्ञाता० ૨૮. ओलग्गाए-अवलगनया। आव. ९० ओलग्गिउं– अवलगितुम्। आव० ७१६। ओलग्गिऊं-अवलगितम। दशवै. ९७। ओलग्गिज्जामि-अवलगामि। आव० ३५६। ओलग्गिता-सेवितमारब्धा। आव०८१८ ओलग्गिय-अवलगितः। आव०४०१। ओलित्त-अवलिप्तः। भग० २७४। आव० ५५९। ओलित्ता-वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना अवलिप्ताः। स्था० १२४ ओलुग्गसरीरा-भग्नदेहाः। विपा० ४९। निर० ९। अवरुग्णमिव-जीर्णमिव शरीरं यस्याः सा, अवरुग्णा वा चेतसा अवरुग्णशरीरा। ज्ञाता०२८। ओलुग्गा-अवरुग्णा-भग्नमनोवृत्तिः। विपा. ४९। निर० ९। क्षीणा। आव०७१६। जीर्णा। ज्ञाता० ३३| ओलुहति-अवरोहति। आव०१८१ ओलेंति- परिभ्रमन्ति। आव. २७४। ओलेत्ता-आर्द्रयित्वा। आव. २०९। ओलोयणं-अवलोकनम्। आव० २२४, ३७८ ओलोयणगए-अवलोकनगतम्। उत्त० ९१| ओलोयणहिओ-अवलोकनस्थितः। आव०१४५ ओल्यां-पनके वा आगन्तुकप्रतनुद्रवरूपे कईम एव ओल्याम्। स्था० ३२८१ ओल्लं-वासं। निशी ६७आ। ओवइया-त्रीन्द्रियजीवविशेषः। प्रज्ञा० ४२। ओवक्कमियं-उपक्रम्यतेऽनेनायरित्यपक्रमो ज्वरातीसारादि-स्तत्र भवा या सा औपक्रमिकी। स्था० २७। ओवक्खडितं- उपस्कृतम्। आव० ३५३ ओवग्गहिओ-औपग्रहिकः। उवग्गहितः-गच्छसाहारणो। ओघ. ९२ ओवज्झ णं- प्रवाहे वहनं। बृह. २२९ अ। ओवट्टणा- वालना पश्चादानयनम्। बृह० ८५ आ। ओवणिहिए- उपनिहितं यथा कथञ्चित् प्रत्यासन्नीभूतं तेन चरति यः सः औपनिहितिकः, उपनिधिना वा चरतीति स औपनिधिकः। औप० ३९। | ओवति-अवपतितुं-जेतुम्। दशवै. ५० ओवत्तिया-अपवर्त्य-अग्निनिक्षिप्तेन भाजनेनान्येन वा दद्यात्। दशवै० १७५ ओवमिए-उपमया निवृत्तमौपमिकं, उपमामन्तरेण यत्कालप्र-माणमनतिशायिना ग्रहीतुं न शक्यते तदौपमिकम्। जम्बू. ९२२ उपमया निवृत्तमौपमिकं, उपमानमन्तरेण यत्कालप्र-माणमनतिशायिना ग्रहीतं न शक्यते तदौपमिकम्। अन्यो० १८१। ओवमिय-उपमया निर्वृत्तं औपमिकम, उपमामन्तरेण यत् कालप्रमाणमनतिशयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदौपमिकम्। भग० २७६। ओवम्म-औपम्यं-उपमा। उत्त. ३२११ उपमानम्पमा सैवौपम्यं-सदृशः। स्था० २६२१ ओवमसच्चा-औपम्यसत्या-पर्याप्तिकसत्याभाषाया दशमो भेदः। प्रज्ञा० २५६। उपमैवौपम्यं तेन सत्यं औपम्यसत्यम्। सत्याभाषाया दशमो भेदः। स्था० ४८९। औपम्यसत्यं नाम समुद्रवत्तडागः। सत्याभाषया दशमो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [232] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] भेदः। दशवै० २०९। उपमीयते-सदृशतया गृह्यते उज्ज्वालितः। जम्बू० २००, ४६ वस्त्वनयेत्युपमा सैव औपम्यम्। भग० २२२। ओविय-परिकर्मितम्। औप० २४, ६६। राज०४८। उपमानमुपमा सैवौपम्यं अनेन गवयेन सदृशोऽसौ उज्ज्वलितः। ज्ञाता० २२२ ओपितः-परिकर्मितम्। गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपम्। स्था० २५४। प्रश्न०७६| ज्ञाता० १९|| ओवयइ-उत्पतति-ऊर्ध्वं गच्छति। भग० १७९। ओविया-आरोपिताः। जम्बू०४३। ओवयण-अवपदनं-प्रोङ्खनकम्। ज्ञाता०४३। ओवीलं-अवीपडं-शेखरं, उपपीडा वा वेदना। विपा०७२। ओवयमाण-अवपततो-व्योमाङ्गणादवतरतः। ज्ञाता० ओवीलए-अपव्रीडयति विलज्जीकरोति यो लज्जया ४६। अवपतन्। ज्ञाता०१६६| सम्यगनालोचयन्तं सर्वं यथा सम्यगालोचयति तथा ओवयारिअविणय-औपचारिकविनयः-विनयस्य करोतीत्यपव्रीडकः। स्था० ४०४। द्वितीयो भेदः। दशवै. ३११ ओव्वत्तिऊण-अपवर्त्य। ओघ० २११ ओवरणं-अपवरकम्। आव० १६० ओव्विग्गमणो-उद्विग्नमनाः। आव. २२० ओवरिऊण-अवतीर्य। उत्त. ११९। ओष्ठः-दन्तच्छदः। आचा० ३० ओवसमिए-कर्मोपशमेन निवृत्त औपशमिकः ओस- अवश्यायः, शरत्कालभावी लक्ष्णवर्षः। उत्त. कर्मानुदय-लक्षणः। सूत्र० २३० ३३४। क्षपाजलम्। स्था० २८७। अवश्यायः-त्रेहः। दशवैः ओवहिए-औपधिकः-उपधिना-छद्मना चरतीत्यौपदिकः। १५३। अवश्यायः-शरदादिषु प्रभातिकसूक्ष्मवर्षः। उत्त. उत्त०६५६। ६९१ ओवहिया-औपधिका-मायाप्रयोजना-कषायप्रत्ययाः, उप- | ओसक्कइत्ता-उत्ष्वष्क्य-उत्सृत्य करणप्रयोजना वा। औप. १०७ लब्धावसरतयोत्सुकी-भूय। अवष्वष्क्यओवाइणित्तए-उपादातूं-ग्रहीतं, प्रवेष्टम्। स्था० १५७ अपसृत्यावसरलाभाय कालहरणं कृत्वा यो विधीयते स ओवाइयं-उपयाचितम्। विपा.७७। याचितस्य तथा। स्था० ३६५ अवसW, प्राप्य वा। आव० १९| प्रार्थितस्य प्राप्तेरुपरि देवेभ्यो देयम्। उत्त० १३८ ओसक्कणं- रन्धनवेला। ओघ० १४८१ अवष्वष्कणम्, उपयाचितम्। आव० ७०९। विवक्षितविध्वंसनादिकालस्य ह्रासकरणम्, अर्वाक् ओवाई-ओलावयप्रधाना विदया। आव० ३१९। करणम्। बृह० २६१ आ। अवष्वष्कणंओवाय-उपाये-मृद्परुषभाषणादौ भवं औपायं, उपपत- स्वयोगप्रवृत्तनियतका-लावधेरर्वाक्करणम्। पिण्ड. नम्पपातः-समीपभवनं तत्र भवं औपपातं-गुरुसंस्तारास्तरण-विश्रामणादिकृत्यम्। उत्त० ५८१ विघ्नम्। ओसक्किय-प्रज्वाल्य। आचा० ३४५ (मरण) अवपातः-निर्देशः। सूत्र. २४२। अवपानः- ओसक्किया-अवसj, अतिदाहभयाद्ल्मकान्यत्सार्येप्रपातस्थानं, यत्र चलन् जनः सप्रकाशेपि पतति। जम्ब० त्यर्थः। दशवैः १७५ १२४ अवपातः-गादिरुपम्। दशवै०१६४अवपातः- | ओसढ-उत्सृतः-उपघातेभ्यो निर्गतः। दशवै. २१९| गाविशेषः। प्रश्न. २२॥ एगंगितं। निशी० १८ आ। ओवायकारी-उपपातकारी-आचार्यनिर्देशकारी, यथोपदेशं | ओसण्ण-चिरायणं अपरिभोगट्ठाणं। निशी. १९३ अ। क्रियासु प्रवृत्तः, सूत्रोपदेशप्रवर्तकः। सूत्र. २३४। अव- ओसन्नं-बाहुल्यम्। प्रज्ञा० ५०३। बाहुल्येन। भग० ३०८। पातो-निर्देशस्तत्कार्यवपातकारी-वचननिर्देशकारी सदा अवसन्ना-श्रान्ता। भग० ५०२। ओ यो वा संजमो तंमि आज्ञा-विधायी। सूत्र. २४२।। सण्णो ओसण्णो। निशी० २१७ अ। ओवासो-अवकाशः। दशवै०५८१ ओसण्णदो-अपसन्नद्धः। उत्सन्नद्धः। आव०७१२ ओवाही-विशेषेण उपाधीयत इति वोपाधिः। आचा० १७४। | ओसत्तमल्लदामा-आचा०४२३। ओविअ-ओपितं-परिकर्मितम्। गच्छा०४७८ ओपितः- | ओसत्तो-उत्सक्तः-उपरिसंबद्धः। औप०५ ज्ञाता०४। ९११ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [233] "आगम-सागर-कोषः" [१] Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] ओसधी - वण्णाइफला अंबादिया । निशी० १५७ अ । ओसन्न अवसन्न:- विवक्षितानुष्ठानालसः, आवश्यकस्वा आगम- सागर- कोषः ( भाग :- १) ध्यायप्रत्युपेक्षणाध्यानादीनामसम्यक्कारीत्यर्थः । ज्ञाता० ११३ | बाहुल्य लक्षणम्। भग. २१। प्रायः। भग० ३०९ | प्रवृत्तेः प्राचुर्य बाहुल्यं, बाहुल्येनानुपरतत्वेन । स्था० १८९ । प्रायसः । आव० २८५ उस्सण्णं प्राचुर्येण । प्रश्न० २२| अवसन्नः- सामाचार्यासेवनेऽवसन्नवत् अवसन्नः । आव० ५७ | एकान्तः । बृह० ११ आ । ओसन्नकारणं- बाहुल्यं, बाहयकारणम्। प्रज्ञा० २२३ बाहुल्यकारणम्। प्रज्ञा० ५०३ | ओसन्नदोसे- बाहुल्येनानुपरतत्वेन दोषो हिंसादीनां चतुर्णामन्यतर ओसन्नदोषः स्था० १८९ ओसन्नविहारी- अवसन्नानां विहारो - बहूनि दिनानि यावत्तथा वर्त्तनं अस्यास्तीति अवसन्नविहारी। ज्ञाता० १११ | ओसप्पिणि- अवसर्पन्ति हीयमानारकतयाऽवसर्पयति वा क्रमेणायुः शरीरादिभावान् हापयतीत्यवसर्पिणी। जम्बू ८९) दशकोटीकोट्यः सागरोपमाणां सुषमसुषमाद्यरकक्रमेण अवसर्पिणी। जीवा० ३८५ ओसप्पिणी- अवसर्पन्ति प्रतिसमयं कालप्रमाणं जन्तूनां वा शरीरायुः प्रमाणादिकमपेक्ष्य हासमनुभवन्त्यवश्यमिति अवसर्पिण्यः, दश सागरोपमकोटिकोटीपरिमाणाः । उत्त० ६५७ | अवसर्पिणी-अवसर्पति हीयमानारकतया अवसप्र्पयति वाssयुष्कशरीरादिभावान् हापयतीति, सागरोपमकोटीको-टीदशकप्रमाणः कालविशेषः । स्था० २७| अवसर्पिणी- दशसागरोपमकोटाकोटिमाना । अनुयो० ९९| कालविशेषः । आव० १२०, भग० ८८८ दशसागरो-पमकोटीकोट्यः प्रमाणाः । स्था० ८६ | ओसमणं व्यवशनम्। बृह० ७७ अ ओसरइ- अपसर्पति। उत्त० ५३ | अपसरति । उत्त० ३०२ | आव० ६४०, ६५९| ओसरणं बहूनां साधूनामेकत्रमीलनम्। बृह० २१८आ। समवसरणम्। बृह॰ २७७ आ । चतु० | व्याख्यानश्रवणादि। बृह० २५२आ। अवसरणं साधुसमुदायः । पिण्ड० ९२१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [Type text] ओसरणा- आर्यिकाणामुपकरणविशेषः । ओघ० २०११ ओसरिऊण अपसृत्य आव० २९२१ ओसरिओ अपसृतः । आव० ४०५१ • । ओसरित्ता अपसृत्य आव. २१३॥ व्युत्सृज्या आतुन ओसरे - अवसर्पन्ति । आव० ६१८ | ओसवणं प्रशमनम्। निशी० २०७ अ ओसह औषधः । अन्तरुपयुज्यते ओघ १३४ एकाङ्गम्। प्रश्र्न० १५३। महातिक्तकघृतादि । भग० ३२६| केवलहरीतक्यादि, अन्तरुपयोगि वा । पिण्ड० १९| एकद्रव्यरूपम्। विपा. ४१ ज्ञाता० १८ त्रिकटुकादि ज्ञाता० १३६ आक० ११५ उत्त०] १४२ हरितक्यादि ओघ ६८] एलायचूर्णगादि। निशी. ७६ । । । अ बहुद्रव्यसमुदायः निशी. १४४ आ एकद्रव्याश्रयं, त्रिफलादि । औप० १००| ओसहगं- औषधाङ्गम् औषधकारणम्। उत्त० १४२॥ । ओसहजुत्ती- ओषधयुक्तिः ओषधादीनां. अगुरुकुंकुमादीनां सज्जिकाराजिकादीनां च युक्तिःयोजनं समविषमविभाग नीतिर्वा । उत्तः २०१ ओसहाइ- औषधादि-अगुस्कुंकुमादि सज्जिकाराजिकादि च। उत्त० ३०| 1 ओसहि औषधयः फलपाकान्ताः ते च शाल्यादयः । - प्रज्ञा० ३०| औषधिः- शाल्यादिः । भग० ३०६ | आचा० ३० ओसहिपत्ता- सर्वरोगापहारित्वात्तपश्चरणप्रभवो लब्धिविशेषः । प्रश्न० १०५ | ओसही- औषधि :- जयाविजयर्द्धिवृद्ध्यादयः । उत्तः ४९० फलपाकान्ताः। उत्त० ६९२ । औषधी राजधानीनाम | जम्बू. ३४७ औषधिः फलपाकान्ताः शाल्यादिः । जीवा० २६। - ओसहीओ- औषधयः, शाल्यादिका जम्बू० १६८८ सालिमातियाओ। निशी० १९५ आ । ओसहीतिणा औषधितृणानि शाल्यादीनि । उत्त० ६९२ ओसा - अवश्यायः - जलविशेषः । आव० ५७३ | त्रेहः । जीवा० २५ स्थानविशेषः । उत्तः ३७९॥ रात्रिजलम्। भग० ६९४| ओसारिय- अवसारितं - अवलंबितम् । भग० ३१८ | ज्ञाता० २२१| प्रलम्बीकृता । ज्ञाता० २३९ | ओसारेज्जा- अपसारयेत्पाटयेत्। अनुयो• १७६६ ओसारेयव्वो- परित्यागः। निशी० ३४२अ [234] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] ओसासिअ-आवश्यकी। बृह. २१७ आ। अगाध्ययनादिसामान्याभिधानन्यासः। आचा० ३१ ओसित्तं-अवसिक्तं, आर्टीकृतम्। आचा० ३२११ ओहबले-ओघबलः। अव्यवच्छिन्नबलः। औप०७८1 ओसीरं-ओशीरं-वीरणीमूलम्। प्रश्न. १६३। चन्दनम्। ओहय-उपहतः-विनाशितः। जम्बू० २७७ राज्यापउत्त० १४२। उशीरं-वीरणं मूलम्। जम्बू. ३५) हारादुपहताः। स्था० ४६३। विनाशनेनोपहताः। ज्ञाता० वीरणीमूलम्। ज्ञाता० २३२॥ ५६| ओसीरपुड- पुष्पजातिविशेषः। ज्ञाता०२३२॥ ओहयमणसंकप्प-उपहतः-ध्वस्तो मनसः संकल्पोदर्पओसीसं-उच्छीर्षम्। आव० ४५३। हर्षादिप्रभवो विकल्पो यस्य सः। भग.१८० ज्ञाता० ओसीसओ-उच्छीर्षकः। आव० ३५४। २९। उपहतमनः सङ्कल्पः । आव० ६८२। ओसीसा-सीसस्स समीवं उवसीसं। निशी० २४७१। ओहयहय-उपहतहतः। आव०६५० ओसूरो-उत्सूर्यः। आव० ४१६। ओहरति-उपहरति-विनाशयति। ज्ञाता० १९२ ओसोवणि-अवस्वापिनीम्। आव० ३७१। ओहरिए- विनाशयति। ज्ञाता० १९० ओस्सट्टो-उत्साहः। निशी० २८४ आ। ओहरितभारो-उत्तारितभारः। ओघ. २२७। ओस्सन्नं-बाहल्येन-अनपरतत्वेन। भग० ९२६| ओहरिय-अग्निकायोपरि व्यवस्थितं पिठरकादिकमाहाओस्सारेह-उत्सारयत-पारयत। उत्त० १७८१ रभाजनमपवृत्त्य। आचा० ३४५ तिरश्चीनो भूत्वा। ओहंजलिया-चतुरिन्द्रियजन्तत्विशेषः। जीवा० ३२ प्रज्ञा आचा०३४४। ४ ओहसंभोग-ओघसंभोगः, उपध्यादिदवादशप्रकारः। ओह-ओघोपधिः-उपधेः प्रथमो भेदः यो नित्यमेव व्यव० ११९ आ। गृह्यते। ओघ० २०८। संक्षेपः। निशी. १७९ अ। ओघः- ओहसण्णाप्रवाहः। जीवा० २०७। सामान्यं, मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमाच्छब्दाद्यर्थगोचरा स्वपरपृथग्विभागकरणा-भावरूपः। पिण्ड० ७७ प्रवाहः।। सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्योघसंज्ञा। स्था. उत्त० २४१। जम्बू० ५३, ११७। ओघः-सामान्य ५०५ श्रुताभिधानम्। दशवै. ९५ भवौघः, संसारः, अष्टप्रकारं | ओहसन्ना-ओघसज्ञा-मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमनाकर्म वा। सूत्र. २९। अवि-च्छेदः, अवटितत्वम्। प्रश्नः । च्छब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रिया, दर्शनोपयोग ८। संसार-समुद्रः। सूत्र० १४५। प्रवाहेणाविच्छिन्नम्। । इति, सामान्यप्रवृत्तिर्यथा वल्ल्या वृत्त्यारोहणं वा। प्रश्न०७४। सामान्यम्। पिण्ड० १४७। सामान्यः। आव० । प्रज्ञा० २२२॥ ३३६। प्रवाही। जीवा० २७७। सामान्यम्। जम्ब०७ मतिज्ञानावरणक्षयोपशमाच्छब्दाद्यर्थगोचरा उस्सग्गोतत्थ सव्वं कालियसत्तं ओयरति तं सव्वं सामान्यावबो-धक्रियैव सज्ञायते वस्त्वनयेति ओहो भण्णति। पेढिया निसीहपेढिया। निशी. ९७ आ। ओघसज्ञा। दर्शनोपयोगः। सामान्यप्रवृत्तिरोघसज्ञा। सुत्ते सुत्ते जं उस्सग्गदरिसणं तं ओहो, जो पण भग. ३१४१ अविसिट्ठा आवत्ती सो ओहो। निशी० १४५आ। ओहसियं-अवघर्षणमवघर्षितं भूत्यादिना निमज्जनम्। सामान्यमध्ययनादि नाम। स्था०५ ओघः- प्रत्य जीवा० २१३। क्षोपलभ्यमानं संसारसमुद्रः। दशवै०२५६। संक्षिप्तः। ओहस्सरा-ओघस्वरा-चमरेन्द्रस्य घण्टा। जम्बू०४०७। ओघ०८८1 ओघेन-प्रवाहेण स्वरो याषां ता ओघस्वरा। जीवा. २०७। ओहजीव-ओघजीवः, भावजीवस्य प्रथमो भेदः। दशवै. ओहा-अपभ्राजना। बृह. ९९ आ। १२ ओहाइया-उद्धाविताः। आव०६६। ओहहूं-प्रार्थितम्। ओघ०६७। याचितः। निशी. १६५अ। ओहाडणी-अवघाटिनी-आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यओहनिप्फण्ण-ओघनिष्पन्नः। निक्षेपभेदः। दशवै. १५ । मानमहाप्रमाणकिलिश्चस्थानीया। जीवा० १८० जम्बू. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [235] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] २३॥ ૩૬૮ लिंगविवेकबुद्ध्या गमनम्। व्यव० २४९ अ। ओहाडिअ- अवघाटितः-आच्छादितः। जम्बू०७३। अपभ्राजनालाञ्छना। आव० ५३७अपभ्राजना। आव० ओहाडिओ-आघाटीः। आव. २०५। निष्कासितः। आव० ३१९, ६६५। मलना। ओघ० ९३| गृहस्थीभवनम्। बृह. ३५८१ १४४ अ। अपभ्राजना। उत्त० १९२ परिभवः। ओघ. ओहाडियं-स्थगितम्। आव० ८८८ स्फेटितम्। आव० १४८ हीलना। ओघ०७४। २०५। ओहाविअ-अवधावितः-अपसृतः। दशवै० २४७ ओहाडिया-जड्डायिता। आव० ५१४। अपस्फेटिता। आव० | ओहाविउकामो-अवधावितुकामः। उन्निष्क्रमितुकामः। उत्त०१३३॥ ओहाडेइ-आच्छादयति। आव० ३७०| ओहावेज्जा-अवधावेत्। व्यव० १६६ आ। ओहाण-उवयोगो। निशी० ५८ आ। विहारो, धावणेण ओहासणं-समयपरिभाषया विशिष्टद्रव्ययाचनम्। आव. लिंगो धावणेण वा। निशी. ३५अ। अवधानम् १७६| अपसरणम्। दशवै. २७१। अवधावमानाः। ओघ०६११ ओहासणभिक्खा-ओहासणभिक्षा-विशिष्टद्रव्ययाचनं अवधानम्। स्था० २११। समयपरिभाषया ओहासणं तत्प्रधाना या भिक्षा। आव. ओहाणपेही-छिदं अलभमाणो रातो ५७६] समाहिपरिट्ठवणलक्खेण ओहावेज्जा। निशी. १९४ । । | ओहासिअ-ओभासिअ-पार्थितः। ओघ०७० सूत्र.३८६। ओहाणुप्पेही-अवधावनानुप्रेक्षी। दशवै० ९४। ओहिंजलिया-चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९६) ओहातेज्जा-उपहन्यात्। स्था० ३२८१ ओहि-अवधिः-अवधीयतेऽनेनास्मादस्मिन्वेति। स्था. ओहामिए-अपभ्राजितः। आव०६६५ ३४७। रूपिमर्यादा, करणनिरपेक्षो बोधरूपः। स्था० ४४८१ ओहामिओ-अपभ्राजितः, हीलितः। आव० ६९४। अप- अवधीयतेऽनेनेति, अवधीयत इति, अधोऽधो-विस्तृतं भ्राजितः, तिरस्कृतः। ओघ०५३। परिच्छिदयत मर्यादया वेति, अवधीयतेऽस्माद अस्मिन् ओहामिज्जइ-अवधाव्यते। आव. २९५१ वा, अवधानं वा विषयपरिच्छेदनम्। आव०८ मध्ये। ओहार-अधो जले नावो नेता मत्स्यविशेषः। ब्रह. १६१ ओघ० २०८अधोऽधो विस्तृतविषयवेदकम्। परिच्छेदः। आ। जलजन्तुविशेषः। प्रश्न०५१। कच्छपः। पिण्ड० मर्यादा। उत्त० ५५७। अवअधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते१०२मच्छो । निशी० ७८ आ। परिच्छि-द्यतेऽनेनेत्यवधिः, अथवा अवधिर्मर्यादा ओहारयित्ता-अवधारयिता-शकितस्याप्यर्थस्य रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा निःशकित-स्यैवमेवायमित्येवं वक्ता, अवहारयिता- तदपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, यदवा अवधानंपरगणानामपहा-रकारी। सम० ३८५ आत्मनोऽर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः। नन्दी०६५ ओहारिणी-अवधारणी-अवधारणात्मिका। उत्त०५६। अवधिः- अवशब्दोऽधःशब्दार्थः, ततश्चाध इत्यधअवधार्यते-अवगम्यतेऽर्थोऽनयेति अवधारणी-अवबोध- स्ताद्धावति अधोऽधो विस्तृतविषयवेदकतयेत्यवधिः, बीजभूता। प्रज्ञा० २४६-२४७। संकिया। दशवै. १४० औणादिको ङिः, यद्वा अवे'त्यध एव धानं अवधारणी-अवबोधबीजभूता। भग० १४२। धातुनाममेका-र्थत्वात् परिच्छेदोऽवधिः, 'उपसर्गे घोः ओहारितं-अवहृतं-गृहीतम्। आव० ८५९। किरिति (पा. 3-3-८२) किः, अथवाऽवधिः-मर्यादा ओहारेमाणीओ-वीजयन्त्यः । जीवा० २३३। रूपिष्वेव द्रव्येषु परि-च्छेदकतया प्रवृत्तिरित्येवंरूपा ओहावंत-अवधावन्ते, अवसर्पन्ति, ओघ०६२ तद्पलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः। तृतीयं ज्ञानम्। उत्त. ओहावइ-अवधावति। उत्त०१३३ ५५७ औधिकः-विशेषणरहितः। प्रज्ञा० ३४२| ओहावणं-अपभ्राजनं, अपमानं, निन्दा वा। पिण्ड० १४० | ओहिदंसणं-अवधिदर्शनं-अवधिरेव दर्शनं-रूपिसामान्यअवधावनं-पार्श्वस्थादिविहारश्रयणम्। बृह० १६३ आ| | ग्रहणम्। जीवा० १८१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [236] “आगम-सागर-कोषः” [१] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text]] ओहिमरणं-अवधिमरणं-सप्तदशमरणभेदे द्वितीयः। | औद्देशिक- शबलस्य षष्ठो भेदः। प्रश्न. १४४। आधाकम। उत्त० २३०| पञ्चविधमरणे दवितीयः। भग० ६२४। सूत्र. १९१। अवधिः-मर्यादा तेन मरणं अवधिमरणं, यानि हि औपसर्गिकं-पदस्य तृतीयो भेदः। आव० ३७९| परीति नारकादिभवननिबन्धन-तयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय | औपसर्गिकम्। अन्यो० ११३ मियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तत्। | औलूक्यं- मतविशेषः। उत्त० ३३७। 50 सम० ३३॥ -x-x-x-xओहियं-औधिकम्। ओघ० २१७, १९९। औधिकम्निर्विशेषणं नरकम्। भग०४५ । इति प्रथमो विभागः समाप्तः। ओहियमत्तगं- प्रश्रवणमात्रकम्। निशी. १३२आ। ओहिया-औघिकी-तिर्यस्त्रि । जीवा०५९। ओही-अवधिः-प्रज्ञापनायास्त्रस्त्रिंशत्तमं पदम्। प्रज्ञा०६। अव-अधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेति अवधिः मर्यादा वा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः। प्रज्ञा० ५२७। ओहिपदं-प्रज्ञापनायाः त्रयत्रिंशत्तमं पदम्। भग० ७१९। ओहीरमाणी-प्रचलायमाना। भग० ५४०। वारंवारं ईषन्निद्रां गच्छन्तीत्यर्थः। ज्ञाता० १५ ओहए-अवधुत उल्लंघितः। बृह. ६१ अ। ओहे-ओघमरणं सामान्यतः सर्वप्राणिनां प्राणपरित्यागात्मकम्। उत्त० ३२० ओहेणं-ओघेणं-संक्षेपेण। ओघ०८८1 ओहोवधी-ओहः-संक्षेपः, स्तोकः, लिड़कारकः, अवश्यंग्राह्यः। उपधेर्भेदः। निशी. १७९ अ। ओहोवही-ओघोपधिः-उपधेर्भेदः। उत्त० ५३७। ओघोपधिः नित्यमेव यो गृह्यते ओघोपधिः। ओघ. २०८। -x-x-x (औ) औदारिकं-चगिकम्। ओघ. ९०।। औदारिकबन्धनं- यदुदयवशाद् औदारिकपुद्गलानां गृहीताना गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसादिपुद्गलैश्च सह सम्बन्ध उपजायते तत्। प्रज्ञा० ४७० औदारिकसङ्घातनाम- यद्दयवशादौदारिकशरीररचनाऽनकारिसङ्घातरूपा जायते तत्। प्रज्ञा० ४७०। औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम- यदुदयवशादौदारिकशरीरत्वेन परिण-तानां पुद् गलानामङ्गोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तत्। प्रज्ञा० ४७० औदार्य- दाक्षिण्यम्। जम्बू. १८४ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [237] “आगम-सागर-कोषः" [१] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरुभ्यो नमः आगम-सागर-कोष: 1 [मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज (प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष-रचयिता मुनिश्रीदीपरत्नसागरजी महाराज [M.com._M.Ed._Ph.D. श्रुतमहर्षि