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युगवीर - निबन्धावली
न ईज़ाकी । यदि इस सिद्धान्तका वही आशय लिया जाय जैसा कि वे समझ रहे हैं और तदनुकूल प्रवर्त रहे हैं-प्रर्थात् यह कि जो कोई प्रारणी किसी दूसरे प्राणीको थोडासा भी दुख देनेवाला हो तो वह मूजी है, उसको मार डालना चाहिये तो ऐसी हालत मे मनुष्य सबसे पहले मूजी और वघयोग्य ठहरते हैं, क्योंकि ये बहुतसे निरपराधी जीवोको सता और प्रारण-दड देते हैं । परन्तु यह किसी को इष्ट नही । प्रत इस सिद्धान्तका साफ प्राशय और असल प्रयोजन यह है कि मनुष्योको अपने नफ्सको मारना चाहिए - अपनी पाँचो इंद्रियो (हवासेखमसा,को वश करना चाहिए। ये ही मुजी है, इन्हीके कारण इस श्रात्माको नाना प्रकारके जन्म-जरा-मरण रोग-वियोग तथा नरक निगोदादिके दुख और कष्ट उठाने पडते हैं, इन्हींके प्रसादसे श्रात्माक साथ कर्म - बन्धन होकर उसके गुणोका घात होता है, जिससे अधिक आत्माके लिए और कोई ईजा ( दुख-परम्परा) नही हो सकती है और न इनसे अधिक ग्रात्माके लिए और कोई मूजी हो सकता है । इन इंद्रियोका निग्रह करने और इनकी विषय-वासनाको रोकने तथा राग-द्वेषरूप परिणतिको हटानेसे ही इस श्रात्माके दुखकी निवृत्ति होकर उसे सच्चे सुखकी प्राप्ति हो सकती है । नीतिकारोने बहुत ठीक कहा है
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आप कथितः पन्था इंद्रियाणामसंयमः । तज्जयः सम्पदा मार्गो येनेष्टं तेन गम्यताम् ।।
अर्थात् — मुसीबत और दुखोके प्रानेका एकमात्र मार्ग इन्द्रियोका प्रसयम — उनका वशमे न करना है और उनको जीतकर अपने वशमें करना ही सुखोका एक मात्र मार्ग है । प्रत. जो मार्ग इष्ट होउसपर चलना चाहिये । सुख चाहते हो तो इन्द्रियोको अपने श्राधीन करो । दुःख चाहते हो तो खुद इन्द्रियोके प्राधीन हो जाओ।