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मिथ्या धारणा अाजकल भारतवर्षमे बहुतसे हिंसक तीव्र-कषायी और रौद्रपरिगामी मनुष्य भिरड, ततैये, बिच्छू कानखजूरे तथा खटमल, पिस्सू, मच्छर आदि छोटे छोटे दीन जन्तुओको मारकर अपनी बहादुरी जतलाया करते हैं और भिरड़-ततैयोंके छत्तोमे आग लगाकर तीसमारखाँ बना करते हैं । जब उनसे कोई करुणहृदय व्यक्ति पूछता है कि आप ऐसा निर्दयताको लिये हुए हिसक कार्य क्यो करते है ? तो वे बड़े दपके साथ, मुसलमान न होते हुए भी, उत्तरमें यह मुसलमानी सिद्धान्त सुना देते हैं -
कतलुल मूजी क़बलुल ईजा" अर्थात्-ईजा (दुख) पहुंचानेसे पहले ही मूजी (दुख देनेवाले)को मार डालना चाहिये। परन्तु वे कभी इस बातका विचार भी नहीं करते कि जब मिरड, ततैये प्रादिक थोडीसी पीडा पहुंचाने ही के कारण सूजी और बधयोग्य हैं तो फिर हम जो कि उनको जानसे ही मार डालते हैं और उन जन्तुम्रोका गांवका गांव (छत्ता) भस्म कर देते हैं उनसे कितने दर्जे अधिक मूजी और बधयोग्य ठहरते हैं ।।
वास्तवमें विचार किया जाय तो यह सब उनकी मिथ्या धारणा है, वे उक्त सिद्धान्तका बिल्कुल दुरुपयोग कर रहे हैं और उन्होने उसके प्राशयको कुछ भी नहीं समझा है । उन्हें न सो मूजीकी खबर है और