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पापोसे बचनेका गुरुमत्र पहुंचता है तो हमको कब उचित है कि हम दूसरोंके साथ बेईमानी करे, उनको गाली आदि कुबचन कहें अथवा उनके साथ असद्व्यवहार करे ? यह मत्र वैसा करनेको अनुचित बतलाता हुआ उसका निषेध करता है।
ससारमें कोई भी मनुष्य यह नहीं चाहता और न किसीको यह इष्ट है कि कोई दूसरा प्राणी उसको सतावे,दुख देवे,मारे या उसका बध करे,यह भी कोई नहीं चाहता कि दूसरा मानव उसके साथ भूठ बोले, मायाचार करे, छल-कपट रचे, उसको धोखा देवे, उसका माल चुरावे या अन्य किसी प्रकारसे उसको हानि पहुँचावे अथवा कोई नराधम उसकी बहू बेटी आदिको बहकावे, उनसे व्यभिचार करे या उनको कुदृष्टिसे देखे, न किसीको यह प्रिय तथा सुखकर मालूम होता है कि कोई उस पर क्रोध करे, उसका तिरस्कार या अपमान करे, उसकी निन्दा बुराई या चुगली करे, उसके साथ अभिमान करे, शत्रुता रक्खे, उससे अपना लोभ साधे, उसकी हँसी उडावे, उसको किसी प्रकारका भय दिखावे उसकी आजीविका बिगाडे अथवा कर्कश कठोर और मर्मविदारक निद्य शब्द कहे, और न कोई मनुष्य इस बातको पसन्द करता अथवा अपने अप्रतिकूल समझता है कि दसरा मनुष्य उसके साथ विश्वासघात या द्रोह करे, उसकी धरोहर या उधार (कर्ज) को न देवे, उसके चोरी गए हुए मालको खरीदे, उससे बढती ले लेवे और उसको घटतो तोल देवे उसको अच्छा माल दिखा कर खोटा तथा मिलावटी माल देवे, उसके चलते तथा होते हुए काममे विघ्न कर देवे, उसकी धन-सम्पत्ति तथा पुत्र-कलत्रादिको देखकर जले अथवा उसके कुटुम्बादिका विघटन और विनाश चाहे।
यदि किसी मनुष्यको यह मालूम हो जाता है कि कोई दूसरा व्यक्ति उसके प्रतिकूल ऐसा कोई कार्य कर रहा है, उसके किसी कार्यमे बाधक है या किसी दूसरे मनुष्यसे उपयुक्त कार्योंमें से कोई कार्य उसके प्रतिकूल करा रहा है या करनेकी प्रेरणा कर रहा है अथवा उसके