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पापोंसे बचनेका गुरुमंत्र इस संसारमें इष्टवियोग अनिष्टसयोग और रोगादि-जनित जितने भी दुख और कष्ट हैं उन सबका मूल कारण पाप-कर्म है। क्या बालक, क्या वृद्ध और क्या जवान सभी दुखोसे भयभीत और इम बातके उत्कट अभिलाषी हैं कि उन्हे किसी प्रकार भी दुखके दर्शन न होवें, परन्तु दु खोंके मूल कारण 'पाप' को दूर करनेके लिये प्राय कोई भी यथेष्ट प्रयत्न नहीं करता, उलटा दुख मिटानेके लिये मनुष्य बहुधा पापकर्मका आचरण करते हैं जिससे दुख दूर न होकर दुखकी परम्परा उत्तरोत्तर बढती रहती है। आजकलके मनुष्योकी दशा ठीक इस श्लोकमे वर्णित-जैसी जान पडती है -
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्य नेच्छन्ति मानवा ।
फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ अर्थात्-मानव पुण्यका फल जो सुख उसको तो चाहते हैं,परन्तु पुण्य तथा धर्मकार्यको करना नहीं चाहते--उसके लिये सौ बहाने बना देते हैं । और पापका फल जो दुःख उसे तो नहीं चाहते-दुख के नामसे भी डरते हैं, परंतु दुःखका कारण जो पापकम है उसे बड़े यत्नसे करते हैं- अनेक जत मिल-मिलाकर तथा सलाह-मशवरा करके उसे बडे चाबसे सम्पन्न करते हैं।
ऐसी स्थितिमें कैसे दुःखको निवृत्ति और मुखकी प्राप्ति हो सकती है ? जिस प्रकार शीत दूर करनेके लिए शीतलोपचार उपयोगी नहीं होता उसी प्रकार दुलोको दूर करनेके लिए पापा