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युगवीर-निबन्धावली चरण कार्यकारी नहीं है । दुःखों से भयभीत मानवोको चाहिए कि वे पापोका दूरसे ही परित्याग करे । प्रत आज अपने पाठकोको एक ऐसा 'गुरुमत्र' बतलाया जाता है जिसको हृदयमें धारण करने, नित्य स्मरण रखने और सदा व्यवहारमे लानेसे सहज ही समस्त पापोसे बचा जा सकता है। गुरुमत्रमे पापोंसे बचनेका ऐसा सुगम तथा सरल मार्ग निर्दिष्ट किया गया है जिससे किसीको भी किसीसे कुछ पूछनेकी ज़रूरत नही रहती । प्रत्येक मनुष्य पापोंसे बचनेका अपना मार्ग स्वय निर्धारित कर सकता है और उसपर चलता हुआ स्वत पापोसे बचकर दु खोसे मुक्त हो सकता है । वह गुरुमत्र इस प्रकार है
प्रात्मन प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत्। 'जो जो बातें, क्रियाएँ, चेष्टाएँ तुम्हारे प्रतिकूल हैं--दूसरोके द्वारा किए हुए जिस व्यवहारको तुम अपने लिये पसन्द नहीं करते, अहितकर और दुःखदायी समझते हो उनका प्राचरण-व्यवहार तुम दूसरोंके प्रति किसी प्रकार भी मनसे वचनसे. कायसे तथा करने, कराने, अनुमोदनाके रूपमे मत करो।'
इस गुरुमत्रके अनुकूल आचरण करनेवाला मनुष्य सच्चा धर्मात्मा एव न्यायनिष्ठ होता है, वह पापोसे अलिप्त रहकर दुखोसे सहज ही छुटकारा पा जाता है । अत सुखार्थी और सुखान्वेषी मनुप्योको चाहिए कि वे जब कोई भी काम करना चाहें या किसी काम करनेका विचार अपने मनमे लाएँ तब वे झटसे इस मत्रका स्मरण कर लिया करें और इस बातपर गहरा विचार करे कि यदि वह कार्य, जिसको हम दूसरोंके प्रति करना चाहते हैं, दूसरे मनुष्य वैसी ही दशामे हमारे प्रति करे तो वह हमको इष्ट होगा या अनिष्टअच्छा लगेगा या बुरा। यदि वह कार्य अपनेको अनिष्ट ( बुरा) प्रतीत होता हो तो हमको कदापि दूसरोंके साथ उसका आचरण अथवा व्यवहार नहीं करना चाहिए । जब दूसरोकी बेईमानी, गाली प्रादि कुवचन और असद्व्यवहारसे हमारे चित्तको, दुःख