________________
२२]
योगसार टीका । प्रतापसे ध्यान करनेवाला आप ही अपनेको परमात्मा रूप देखता है । जैसे दूधपानी मिले हुए हों तो दुध पानीस अलादीलता में व गर्म पानीमें जल व अग्मिका स्वभाव अलग दीखता है । व्यजनमें लवण व तरकारीका स्वाद अलग दीखता है। लाल पानीमें पानी व लाल रंगका स्वभाव अलग दीखता है | तिलोंमें भूसी व तेल अलग दीखता है। धान्यमें तुप और चावल अलग दीखता है | दालमें छिलका व दालका दाना अलग दीखना है । वरन ही ज्ञानीको अपना
आत्मा रागादि भावकमसे, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मसे व शरीरादि नोकर्मसे भिन्न दीखना है । जैम ज्ञानीको अपना आत्मा सर्व पर भावोंसे जुदा दीखता है वैसे ही अन्य संसारी प्रत्येक आत्मा सर्व परभावोंमे भिन्न दीखता है।
सर्व ही सिद्ध व संसारी आत्मा एक-समान परम निर्मल, वीतराग, ज्ञानानन्दमय दिखती हैं। इस दृटिको सम्यक व यथार्थ व निर्मल व निश्चय इष्टि कहते हैं। इस दृष्टिने दखनका अभ्यास करनेवाले भावार्म समभावका साम्राज्य होजाता है। राग द्वेष, मोहका विकार मिट जाता है ।
इसी समभावमें एकाग्र होना ही ज्यान है। यही ध्यानकी आग है जिसमें कर्म बन्धन कर जाते हैं और यह आत्मा शीघ्र ही मुक्त होजाता है, तब परम सुखका भोगी बन जाता है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य समयपाहडमें कहते हैं । जीवस्स थि वाणणो णविगंधो पनि रसो णवि य फासो । णवि रूवं णा सरीरं णवि संटाणं ण संहाणं ॥ ५५ ॥ जीवम्स णस्थि रागो गवि दोनो णव विजदे मोहो । जो पञ्चया ण कम्मं णो कम्मं चाविस स्थि ।। ५६ ॥