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योगसार टीका। [६७ (६) ध्यान-किसी एक ध्येयमें मनको रोकना ध्यान है। धमन्यान तथा शुक्लन्यान मोझके कारण हैं, उनका अभ्यास करना योग्य है । आर्तध्यान व रौद्रध्यानसे बचना योग्य है।
तप करन्या व तएका आराधन निर्माणके लिये बहुत आवश्यक । निश्श्य तपकी मुख्यतासे तप किये बिना कौकी निर्जरा नहीं होती है । तपसे सवर व निर्जरा दोनों होते हैं। • समयसारमें कहा है
आप्पागमप्पगोहंभिदण दोग्नु पुग्णावोगेसु । दममणाणम्हि टिको इच्छाविरदो य अण्णामि ॥ १८०॥ को सवसंगमुसो आयदि अप्पागमप्पणो अप्पा । पवि कामं गोकम्मं चेदा दिदि एयत्तं ॥ १८१ ॥ अप्पा झायता दंगणाणाणमाओ अणायामणो । लहदि अरिण आप्पाणयेव सो कम्मणिम्भुकं ॥ १८२ ॥
भावार्थ-पुण्य व पाप बंधक कारक शुभ व अशुभयोगोंसे अपने आत्माको आत्माके द्वारा रोककर जो आरमा अन्य परद्रव्योकी इलामे विरक्त हो व सत्रं परिग्रहकी इच्छामे रहित हो, दर्शनज्ञानमई झारमा रियर बैठकर आपमे अपनेको ही ध्याता है। भारकर्म, द्रव्यकर्म, नोकमको संच मान स्पर्श नहीं करता है, केवल एक शुद्ध भावका ही अनुभव करता है, वह एकान मन हो स्वयं दर्शन ज्ञानमय होकर आत्माको ध्याते ध्याते थोड़े ही कालमें सर्व कर्मरहित आत्माको वा मोक्षको पा लेता है। श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमें कहते हैंज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः । तस्मादन्युतिमाकांक्षन् माधयेझामभावमाम् ॥ १७४ ।।