Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 311
________________ ३०२] योगसार टीका | हैं, हमारे गनि श्रुत ज्ञान हैं, हमारे असंयम या देश संयम या सकल संयम है, हमारे चक्षु या अचक्षु बहीन है, हमारे शुभ या अशुभ देश्या है. हम भव्य हैं, हम सभ्य हैं, हम सैनी हैं. हम आहारक है । इसतरह गुणस्थान तथा साना स्थानोंका विचार या कर्मो स्वभावका विचार व चार प्रकार बंधका विचार था -संवर व निर्जराके कारणोंका विचार यह सब व्यवहार नयके द्वारा विचार चंचल है, शुभयोगमय है अनएव बंधके कारण हैं। क्योंकि इन विचारोंमें संसार दशा त्यागने योग्य व मोक्ष दशा प्रणयोग्य भासती है । संसारसे पत्र मोक्ष है। वीतराग झाको पनि लिये व्यवहार नयके सर्व विचारोंको बंद रखके केवल निश्रय नयके द्वारा अपनेको व जगतको देखना चाहिये, तब यह जगत छह शुद्ध ज्योंका समुदाय दीखेगा। सर्व दी परमाणु रूप मुगल अबंध दोगे व सर्व ही जीव शुद्ध वीतराग देखेंगे। इस तरह देखनेसे राग द्वेपके कारण सर्व ही दृश्य दृष्टिमें निकल जायगे । समताभाव आजायगा । फिर केवल अपने ही आत्माको द्रव्यरूप शुद्ध देखें । t जहां तक विचार है वहूति मनका विकल्प है। जब विचार करते करते मन थिर होजायगा तब सहज स्वरूपमें रमण होजायगा स्वानुभव होजायगा । इसीसे बहुत कर्मोकी निर्जरा होती है। इसीके लाभको मोक्षमार्ग जानो । जब जब स्वानुभव है तब तय मोक्षमार्ग है | स्वानुभव के सिवाय मनके विचारको व शास्त्र पाठको या काय वर्तनको या महात्रत अत्रत पालनको मोक्षमार्ग कहना यथार्थ नहीं है, व्यवहार मात्र है। जैसे तलवार सोनेकी स्थान में है उसको सोनेकी तलवार कहना । लाल रंग के मिलनेसे पानीको लाल कहना, अझिके संयोगले 1

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