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योगसार टीका ।
सहज स्वरूप में रमण कर ।
जइ बद्र सुकउ मुणहि तां धियहि भिंतु । सहज-सरूवड़ जड़ रमहि तो पावहि सिव सन्तु ॥ ८७ ॥
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अन्वयार्थ (जब सुक्क मुणा ) यदि तु बन्ध मोक्ष की कल्पना करेगा ( तो भिंतु बंधियहि ) तो निःसन्देह तु बगा (जड़ सहज-सरुबइ रमहि ) यदि तू सहज स्वरूप में रमण करेगा (तो सन्तु मित्र पावदि ) तो शांत मोक्षको पायेगा |
भावार्थ – निर्वाणका उपाय एक शुद्धात्मानुभव है, जहां मनके विकल्प या विचार सत्र बन्द मी जाते हैं, काय स्थिर होती हैं, वचन नहीं रहना है वहां ही स्वानुभवका प्रकाश होता है । इसीको निर्विकल्प समाधि कहते हैं । यहीं आत्मस्वभाव है, यहीं यथार्थ मक्षिका मार्ग है, यहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रको एकता है, यहीं रागदेष रहित वीतरागभाव है, यहीं परम समता है, यही एक अद्वैतभाव है, यही संवर व निर्जरा तत्व है ।. अतएव ज्ञानीको व्यवहारनयके विचारको तो बिलकुल छोड़ देना चाहिये ।
व्यवहारनयसे ही यह देखा जाता है कि आत्मामें कर्मोका बन्ध है, आत्मा के साथ शरीर हैं । आत्मा में क्रोध, मान, माया, लोभ मात्र हैं। आत्मा अशुद्ध है, इसको शुद्ध करना है। मोक्षका लाभ करना है। हम चौथे, पांचवे, छठे या सातवे गुणस्थान में हैं । गुणस्थानोंकी उन्नति करके अरहन्त व सिद्ध होना है। हम मनुष्यगति में हैं, हम सेनी पंचेन्द्रिय है, त्रस हैं, मन वचन काय योगोंके धारी हैं, हम पुरुषवेदी हैं, हमारे कषाय भाव