Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 322
________________ | योगसार टीका | [ ३१३ अनुभाग अधिक पड़ता है, स्थिति आयुके सिवाय सात कमांकी कम पड़ती है । बंधका उदय सूक्ष्मसपराय दश गुणस्थान तक चलता है । क्योंकि arts लोभ कषायका उदय है। यहतिक सपरायिक आ है । यहतक उपयोगकी चंचलता है। उपशांत कषायका काल अन्तर्मुहूर्त है। यहां वीतरागता है। श्रीणकपायमें भी वीतरागता है, सयोग केवली में भी वीतरागता है । इन तीनों गुणस्थानों में योगों की चंचलता है। इसमें ईयापथ व एक सातावेदनीय कर्मका होता है । कर्म आते हैं, फल देकर चले जाते हैं । अविचार नामका अन्तर्मुहूर्त में ज्ञाना I जहां आत्मामें थिरता है वहां विशेष कर्मकी निर्जरा होती है। ओणमोह गुणस्थान में विरारूप एक वितर्क दूसरा शुभ्यान पैदा होजाता हैं तब एक ही चरण, दर्शनावरण व अन्तराय कर्मकी निर्जरा होजाती है । और यह आत्मा अरहन्त परमात्मा होजाता है । तेरहवें व चौदहव आत्मामें परम स्थिरता है इससे बंध नहीं होता है। पुरातन कर्म झड़ने जाते हैं | चौदहवें अन्तमें यह आत्मा कर्म रहित होकर सिद्ध होजाता है । - आत्मामें रिता होनेका काम चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ हो जाता है | वहां स्वरूपाचरण चारित्र है जो अनंतानुबंधी कषायके उदय न होनेपर प्रगट होजाता है । पांचवे देशसंयम गुणस्थान में अप्रत्याख्यान कपायका उदय नहीं है इससे स्वरूपाचरणमें अधिक स्थिरता होती है। व निर्मलता भी होती हैं। पंचम गुणस्थान में ग्यारह श्रेणियां हैं, उनमें चढ़ते हुए जैसे २. प्रत्याख्यान कषायका उदय मन्द होता है वैसे २ स्वरूप में स्थिरता अधिक होती जाती है ।

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