Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 352
________________ ३४२] योगसार टीका । चच कायसे धति दोषोंका प्रातः व संध्याको प्रतिक्रमण करनापश्चाताप करना । प्रसाख्यान - आगामी दोष त होनेकी भावना करना या स्वाध्याय करना । तीर्थंकरोंके गुणों की स्तुति करना स्तवन है, तीर्थकस्को मुख्यतासे गुणानुवाद करना वंदना है । कायसे ममता त्यागकर ध्यान करना कायात्सर्ग है । सात अन्य गुण - (१) शरीर या वस्त्रादि न रखकर बालकके समान नग्न रहना । (२) अपने केशांको लोन करना - घास के समान ममता रहित होकर उपाड लेना । (३) स्नान नहीं करना । (४) दंतवन नहीं करना - दानोंका अंगार नहीं रखना । (५) भूमि शयन - जमीनपर तृणका या काष्टका संथारा करना, या खाली जमीनपर सोना । (६) स्थिति भोजन- खड़े होकर भोजन करना | (७) एकवार भोजन - दिनमें एक ही बार भोजनपान करना । इन २८ मूल गुणों को निर्दोष पालना छेदोपस्थांना चारित्र है निश्चयमे आत्मस्थ होजाना ही चारित्र है । तत्वार्थसार में कहा है यंत्र हिंसादिभेदेन त्यागः सावद्यकर्मणः । व्रतलोपे विशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत् ॥ ४६-६ ॥ भावार्थ - जहां हिंसादिके मेदसे पाप कर्मोंका त्याग करना या व्रत भंग होनेपर प्रायश्चित्त लेकर फिर बली होना भी हेोपस्थाना चारित्र है । परिहारविशुद्धि चारित्र । मिच्छादित जो परिहरणु सम्म सण- सुद्धि । सो परिहारविमुद्धि मुणि लहु पावहि सिवसिद्धि ॥१०२॥

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