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योगसार टीका। भावार्थ-परमात्मा कर्ममल रहित निर्मल है, एक अकेला है इससे केवल है, वही सिद्ध है, ब्रही संबै अन्य द्रव्योंकी व अन्य आत्माओंकी सत्तासे निराला विविक्त है। वहीं अनंत बावान होने से प्रभु हैं, वही सदा अविनाशी हैं, वही परम पद में रहनेसे परमेष्ठी हैं । वही उत्कृष्ट होनेसे परात्मा हैं, वही परमात्मा हैं, वहीं सर्व इन्द्रादिसे पूज्य ईश्वर हैं, यही रम्गादि विजयी जिन भगवान हैं।
परमात्मादेव अपने ही देहमें भी है। एक हि लकखण-लक्खियउ जो परु णिकलु देउ । देहह मज्झहिं सो वसह तासु ण विजइ भेउ ॥१०६॥
अन्वयार्थ-(एक हि.लक्षण-लक्वियउ जो परुणिकलु दंज ) इस प्रकार पर कहे हुए लक्षणोंमे लक्षित जो परमात्मा निरंजन देव हैं (देहाँ मज्झहि सो वसइ) तथा जो अपने शरीरके भीतर बसनेवाला आत्मा है ( तासु भेडण विज्जइ) उन दोनोंमें कोई भेद नहीं है। .
भावार्थ-अपने शरीरमें व प्राणीमात्रके शरीरमें आत्मा द्रव्य शरीरभरमें व्यापकर तिष्ठा हुआ है | उस आत्मद्रव्यफा लक्षण सिद्ध परमात्माक समान है। व्यवहार दृष्टिसे या कर्मबन्धकी दृष्टिले सिद्धारमासे और संसारी आत्मासे स्वरूपकी प्रगटता व अप्रगटलाके कारण भी हैं । संसारी आत्माएं कार्मण व तैजसः शरीरको प्रबाहकी अपेक्षा. अनादिसे साथमें रख रही है | आठौं कर्मके विचित्र मेदोंक उदयसे. या विपाक रससे आत्माओंके विकासमें बहुत भेद दिख रहे हैं। उन : मेंदोंको संग्रह करके विचारें तो १९ उनीस जीव समास नीचे प्रकार होंगे- .:: . . : . : . .. .. ... ... : ..