Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 364
________________ RE CHILD ३५४] योगसार टीका। '. (१) पृथ्वीकायिक सूक्ष्म, (२) पृष्त्रीकायिक बादर, (३) जलकायिक सूक्ष्म, (४) जलकायिक बादर, (५) अग्निकायिक सूक्ष्म, अग्निकायिक बादर, (७) बायकाधिक सक्ष्म- (८) वायकायिक बादर, (१) नित्य निगोद साधारण वनम्पनिकायिक सूक्ष्म, (१०) निन्य निगोद साधारण वनस्पतिकायिक बादर, (११) इतर या चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिकायिक मुक्ष्म, (१२) इतर निगोद साधारण वनस्पतिकायिक बादर, (१३) प्रत्येक वनस्पतिकायिक सप्रति हित (निगोद सहित ), (१४) प्रत्येक बनस्पतिकायिक अप्रतिष्ठित (निगोद रहित), (१५) टेन्द्रिय, (१६) तेन्द्रिय, (१५) चतुरिट्रियः (१८) पंचेन्द्रिय असैनी, (१९) पंचेन्द्रिय सैनी । हरएकमें पर्याप्त तथा अपर्याप्त भेद हैं, इस कारण ३८ अड़तीस भेद हो जायगे | लब्धपर्याप्त व निर्वृत्यपर्याप्तके भेदसे ५७ सत्तावन जीव समास हो जायेंगे। सनी पंचेन्द्रियमें नारकी, देव, मनुष्योंके अनेक भेद हैं व पशुओंमें जलचर, थलचर व नभचर हैं। कर्मोके उदयक कारण संसारी जीयोंके भीतर ज्ञान दर्शन व वीर्य गुणकी प्रगटता कम व अधिक है व क्रोध, मान, माया, लोभ कषायोंसे अनुरंजित योगोंकी प्रवृत्ति या लेश्या मूलमें छः भेदरूप है तो भी हरएकके भीतर मन्द, मन्दतर, तीन, तीव्रतर शक्तिकी अपेक्षा अनेक भेद हैं । कृष्ण, नीला, कापोत, लेश्याके परिणाम अशुभ कहाते हैं, क्योंकि इन भात्रोंके होते हुए जीव पाप कर्मोको ही बांधते हैं। पीत, पम, शुक्ल लेश्याके परिणाम शुभ कहाते हैं। क्योंकि इन भावोंसे घातीय काँका मन्द पंघ पड़ता है व अघासीय कर्मोंमें केवल पुण्यका ही बन्ध पड़ना है। इस तरह अन्तरंग भाषोंमें व बाहरी शरीरकी चेष्टामें विशेष विशेष भेद कमौके उदयसे ही हो रहे हैं।

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