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योगसार टीका ।
संबोण ) आत्माको समझानेके लिये (इक- मणेण ) एकाग्र चित्तसे ( दोहा क्या ) इन दोहोंकी रचना की है।
भावार्थ- ग्रंथकर्ता योगेन्द्राचार्यने प्रगट किया है कि उन्होंने अपने ही कल्याणके निमित्त इन गाथा दोहोंकी रचना की है । कहते हैं कि मुझे संसार भ्रमणका भय है। संसार में आत्माको अनेक प्राणोंको धारकर बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं, परम निराकुल सुखका लाभ नहीं होता है।
जहतिक आठ कर्मका संयोग है वहनि ही संसार है, कमोंके उदयके आधीन होनेसे अनंतज्ञान, अनंतदर्शन प्रगट नहीं होता है । न अनंतत्री ही झलकता है। मिध्यात्वका गहलपना रहता है, जिससे प्राणी अपने आत्मीक अतीन्द्रिय सुखको नहीं पहचानता है, इंद्रिय सुखका ही लोभी बना रहता है। इष्ट सामग्री मिलने की तृष्णा में फंसा रहता है । महान लोभी हो जाता है । इष्ट वस्तुके मिलने पर मान करता है । इष्ट वस्तुके लिये मायाचार करता है। कोई उसके लाभमें जो बाधा करे उसपर क्रोध करना है ।
मोहनीय कर्मके उदयसे नाना प्रकारके औपाधिक भाव निरन्तर रंगा रहता है, इसी कारण नए कर्मोका बन्ध करता है । चार घानीय कमौका जबतक क्षय न हो आत्मा परमात्मा नहीं हो सक्ता है | आयु कर्मके उदयवश स्थूल शरीर में रुकना पड़ता है । नामकर्मके उदयसे शरीरकी रचना शुभ या अशुभ होती है । गोत्रकर्मके उदयसे निन्दनीय या आदरणीय कुलमें जन्मता है। वंदनीय कर्मके उदयसे साताकारी या असाताकारी सामग्रीका निमित्त मिलता है | चार अघातीय कर्मके कारण बाहरी पिंजरे में कैद रहता है ।
चारों ही गतियोंमें जीव सांसारिक आकुलता भोगता है ।