Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 372
________________ ३६२] योगसार टीका। - आत्मीक आनन्दका ही स्वाद लेना चाहिये। निराकुल अतीन्द्रिय सुस्वको भोगना चाहिये । आत्माका दर्शन करना चाहिये । इस ग्रंथकं भीतर आचार्यने इसी शुद्ध आत्माकी भावना करके अपने आत्माका हित किया है। अध्यात्म तत्वका विवेचन घरमहितकारी है,. आत्मीक भावनाका हेतु है । यद्यपि अंधकर्ताने अपने ही उपकारके लिये ग्रंशकी रचना की है तथापि शब्दोंमें भावोंकी स्थापना करने व उनको लिपियद्ध करनेसे पाठकोंका भी परम उपकार किया है | इस ग्रन्थको इसी भावमे पद्धना व मनन करना चाहिये कि हमारा संसार नाश हो अथान् संसारका कारण कर्म य कर्मबंधका कारण राग, द्वेष, मोह भावोंका नाश हो व मोक्षकै कारण स्वानुभवका लाभ हो । परमास्मतत्वकी ही भावना रहे । आत्माका ही आराधन रहे | समभावमें ही प्रवृत्ति रहे । शतिरसकी ही धारा वहे । उसी धाराके भीतर मगनता रहे । आनन्दामृतका ही पान रहे, सिद्ध सुखका ही उद्देश्य रहे,. शिवालयके भीतर प्रवेश करनेकी भावना रहे । यही भावना अमृतचन्द्राचार्य ने समयसारकलशमें की है परपरिणतिहेतोर्मोहनान्नोऽनुभावादविस्तमनुभाव्यन्याप्तिकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते र्भवतु समयसारव्याख्यथैवानुभूतेः ॥ ३ ॥ भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि निश्चयसे मैं शुद्ध चैतन्य मात्र मूर्तिका धारी हूं, परंतु अनादिकालसे मेरी अनुभूति विभाव परिणामौकी उत्पत्तिके कारण मोहकर्मके उदयके प्रभावसे रागद्वेषले निरंतर मली होरही हैं। मैं इस समयसार ग्रंथका व्याख्यान करके यही याचना

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