Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 371
________________ योगसार टीका । [ ३६१ जिस इन्द्रिय सुखको संसारके अज्ञानी प्राणी सुख कहते हैं उसीको ज्ञानी जीव दुःख मानते हैं, क्योंकि जबतक विषयभोग करने की आकुलता नहीं होती है तबतक कोई विषयभोग में नहीं पड़ता है | चाकी दाहका उठना एक तरहका रोग है । विषयभोग करना इस रोगके शमनका उपाय नहीं होकर तृष्णाके रोगकी वृद्धिका ही उपाय है। बड़े २ चक्रवर्ती राजा भी विषयभोगोंके भोगसे तृप्त नहीं हुए । इन्द्रियोंके भोग पराधीन हैं, बाधा सहित हैं, नाशवन्त हैं व कर्मबन्धके कारण हैं व समभावके नाशक हैं । संसार में दुःख मना है, इन्द्रिय सुखका लाभ थोड़ा है। नौ भी इस सुख संतोष नहीं होता है। आत्मा स्वभावसे परमात्मा रूप हैं, ज्ञानानन्दका सागर है, परम निराकुल है, परम बीतराग है, ऐसा होकर भी आठ कर्मोंकी संगति इसको महान् दीन दुःखी ब तुच्छ होना पड़ता है । जिसकी संगति अपना स्वभाव बिगड़े, दुर्गति प्राप्त हो, जन्म मरणके कष्ट हो उनकी संगति त्यागने योग्य है | इन कर्मों का कारण राग द्वेष मोह है । इसलिये राग द्वेष मोह ही संसारके भ्रमणका बीज है । इसी लिये आचार्य प्रगट करते हैं कि मुझे संसार से भय है अर्थात् मैं राग द्वेष मोहके विकार से भयभीत हूं, मैं इनमें पड़ना नहीं चाहता हूं, तथा नए कर्माका संचर होनेके लिये व पुरातन कर्मकी निर्जरा होनेके लिये आचार्यने अपने आत्माको ही वीतराग भाव में लानेके लिये आत्माके सारतत्वकी भावना की है-प्रगट किया हैं कि यह आत्मा निश्चयसे संसारी नहीं है, यह तो स्वयं परम शुद्ध परमात्मा देव है। इसीका ही वारवार अनुभव करना चाहिये। इसी में रमण करना चाहिये |

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