Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 369
________________ ! योगसार टीका | [ ३५९ अपने आत्माका जो कोई यथार्थ अनुभव करंगा वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्गको साधन करेगा | यह मोक्षमार्ग वर्तमान में भी साधकको आनंददाता है व भविष्य में अनंत सुखका कारण है। मुमुक्षुको उचित है कि वह व्यवहार धर्मके बाहरी आलम्बनसे निश्चय धर्मका या आत्मानुभवका अभ्यास करे । यही कर्तव्य है, यही इस प्रन्थका सार है | समयसार कलश में कहा है शुद्धिविधायिकिल पर सम स्वयं स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराच्युतः । बन्समुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल चैतन्यामृतपूरपूर्ण महिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ॥ १२-९ ॥ भावार्थ - जो कोई अशुद्धता के करनेवाले सर्वे ही पर द्रव्यका राग स्वयं त्यागकर व सर्व परभावमें रतिरूप अपराध मुक्त होकर अपने ही आत्मीक द्रव्यमें रतिः प्रीति, आसक्ति व एकामता करता है वह अपने उछलते हुए आत्मा के प्रकाशमें रहकर कर्मबन्धका क्षय करके चैतन्यरूपी अमृत पूर्ण व शुद्ध होकर मोक्षरूप या सिद्ध हो जाता है । ग्रन्थकर्ताकी अन्तिम भावना | संसारह भय भी एण जोगिचंद मुणिएण | अप्पा संबोण या दोहा इक मणेण ॥ १०८ ॥ अन्वयार्थ - ( संसार भय-भीयरण ) संसार भ्रमणसे भयभीत ( जोगिचंद - पुणिरण ) योगेन्द्राचार्य मुनिने ( अप्पा

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