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योगसार टीका |
| ३५७ ताप लगता है व सैल करता है वैसे वैसे सोना चमकता जाता है। उसकी चमक धीरे २ बढ़ ही आती है। सोना आपसे ही कुन्दन बन जाता है। इसी तरह यह आत्मा मन वचन कायकी क्रियाको चुद्धिपूर्वक निरोध करता है और अपने उपयोगको पांचों इंद्रियोंके fruit तथा मनके विकल्पोंसे हटाकर अपने ही आत्मामें तन्मय ' करता है, आत्मस्थ हो जाता है ।
इस दशाको आत्माका दर्शन या आत्माका साक्षात्कार कहते हैं । यही ध्यानकी अभि है, इसीके जलने पर जितनी २ वीतरागता बढ़ती है मौका मैल कटता है, आत्माके गुणोंका विकास होता है। धीरे २ आत्माका भाव शुद्ध होते होते परम वीतराग होजाता है । तत्र केवलज्ञानी अरहंत या सिद्ध कहलाता है।
आत्माका दर्शन या आत्मानुभव ही एक सीधी सड़क है जो मोक्ष सिद्ध प्रासाद तक गई है। दूसरी कोई गली नहीं है जिसपर चलकर पहुंच सके | सिद्धपद न तो किसीकी भक्ति से मिल सक्ता है न बाहरी तप व जप व चारित्रसे मिल सक्ता है। वह तो केवल अपने हो आत्माके यथार्थ अनुभव ही प्राप्त हो सक्ता है ।
Sareest श्रीगुरु तथा जिनवाणी से आत्माक: स्वरूप ठोकर जानना चाहिये कि यह स्वतंत्र द्रव्यं है, सत्तू है, व्यापेक्षा नित्यं है, -समय र परिणमनशील होनेसे अनित्य है, इसलिये हर समय उत्पाद व्यय भव्य स्वरूप है या गुणपर्यायस्य हैं। गुण सदा द्रव्यके साथ रहते हैं ! द्रव्य गुणोंका समुदाय ही है। गुणों में जो परिणमन होता है उसे ही पर्याय कहते हैं ।
आत्मा पुर्ण ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सभ्यक्तः, चारित्रादि शुद्ध गुणोंका सागर है, परम निराकुल है, परम वीतरांग है, आठों कर्म