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३५२] योगसार टीका। निन्दा किये जानेपर क्रोधित नहीं होता है। वह सदा निर्विकार रहते हैं। उसमें ही विषय रहीं होता है । गटापि वे परमात्मा स्तुति करनेवाले पर प्रसन्न या रागी नहीं होते हैं। तथापि भक्तोंका परिणाम उनकी स्तुतिके निमित्तसे निर्मल या शुभ होजाता है तब जितने अंश. भावोंमें वीतरागता होती है उतने अंश कर्मका क्षय होता है । जितने अंश शुभ राग होता है उतने अंश पुण्यका बंध होता है । निन्दा करनेवालोंके भाव बिगड़ते हैं उसमे ये निन्दक पापका बंध करते हैं।
परमात्मा परम वीतराग रहते हैं। वे कोई भी अशुद्ध भाकि को नहीं हैं। उनमें शुद्ध परिणमन है । ये शुद्ध आत्मीक भावोंके ही कती है। जैसे निर्मल क्षीर झीर समुद्रमें निमर्ल ही तरंगे उठती हैं वैसे शुद्धात्मामें सर्व परिणमन या वर्तन शुद्ध ही होता है | वे परमात्मा सांसारिक सुख या दुःख भोगनेवाल नहीं हैं । चे केवल अपने ही अतीन्द्रिय परमानन्द के निरंतर भोगनेवाले हैं। परमात्मा सुख, सत्ता, चैतन्य, बौध इन चार मुख्य प्रागसि सदा जीते रहते हैं । परमात्मामें केवलदान व केवलज्ञान उपयोग एक ही साथ अपने आपको ही देख रहा है । अपने आपको ही जान रहा है ।
परमात्मा वर्ण, गंध, रसस्पर्शसे रहित अमूर्तीक है तौमी ज्ञानमई पुरुपाकार . पद्मासन या कायोत्सर्ग आदि आसनसे रहते हुये असंख्यात प्रदेशी हैं। ये परमात्मा परम आदर्श हैं। हरएक आत्मा भी निश्चयसे परमात्मा है ऐसा जानकर वीतरागमय या समभावमें होकर स्वानुभवका अभ्यास करना योग्य है | यही उपाय परमात्माके पदके लाभका है।
समाधशतकमें कहा हैनिर्मल: केवलः सिद्धो विविक्त: प्रभु रक्षयः । परमेष्टी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥ ६ ॥ ......