Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 359
________________ यांगसार टीका । [ ३४९ एकाग्र हो जाना चाहिये यह अरहंतका ध्यान है । सिद्ध भगवान आठों ही कमसे रहित प्रगटपने शुद्धात्मा है वहां शरीरादि किसी भी पुद्रलका संयोग नहीं हैं। पुरुषाकार अमृतक ध्यानमय आत्माको सिद्ध कहते हैं। वे निरंजन निर्विकार हैं। सम्यक्त, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अगुरुलघु, अव्यानाध, सूक्ष्मत्व, अवगाहन इन आठ प्रसिद्ध गुणों से विभूषित हैं। शाम पानी है। के को अपने आत्मामें बिराजमान करके एकतान हो जाना, सिद्धका ध्यान है । आचार्यकी आत्मा शुद्ध सम्यग्दर्शन. शुद्ध ज्ञान, शुद्ध चारित्र, शुद्ध तप व परम वीर्य विभूषित है व निश्रय रत्नत्रयमई शुद्धात्मानुभव से अलंकृत है । यद्यपि शिष्यों के कल्याण निमित्त परोपकार भाव से भी रंजित हैं यह उनकी प्रमाद अवस्था है उसको लक्ष्यमें न लेकर केवल शुद्धात्मानुभवकी दशाको भ्यानमें लेकर उनके स्वरूपको अपने आत्मामें बिठाकर एकतान होजाना आचार्यका ध्यान है । उपाध्याय महाराज. व्यवहारमें अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता होकर पठन पाठनमें उपयुक्त रहते हैं, यह उनकी प्रमाद दशा है । अप्रमत्त दशा में वे भी स्वात्मानुभव में एकाम होकर आत्मीक आनंदका पान करते हैं । इस निश्चय आत्मीक भावको ध्यानमें लेकर अपने आत्माको उनके भावमें एकतान करना उपाध्यायका ध्यान है | साधु परमेष्ठी व्यवहारमें २८ मूलगुणों का पालन करते हैं, निवसे शुद्ध आत्मीक भाव में रमण कर आत्मगुम हो, निर्विकल्प. समाधिका साधन करते हैं, आपमें ही आपको आपमें ही अपने ही द्वारा आपके लिये आप ही ध्याते हैं, परम एकाग्रभावसे आत्मामें मगन हैं, उनके इस आत्मीक स्वरूपको अपने आत्माके भीतर धारण करके एकाम हो जाना साधुका ध्यान है ।

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