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३४६ ] योगसार टीका। घातीय कमाने रोक रक्खा है परंतु मुख्यतास उसको रोकनेवाला मोह कर्म है | जितना २ मोहका क्षय होता है उतना र सुखका प्रकाश होता जाता है | यह सुख वीतराग भात्र सहित निर्मल है ।
मायिक सम्यग्दष्टी जोव चार अनंतानुबधी अपाय और दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंका जब आय कर देता है तय क्षायिक सम्यस्त्व व स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट होजाने हैं। इन शक्तियोंके प्रगट होनेपर जब कभी ज्ञानी अपने उपयोगको अपने आत्मामें स्थिर करता है. तब ही स्वरूपका अनुभव आता है व अनीन्द्रिय आनंदका स्वाद आता है। अविरत सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानमें भी इस सुखका प्रकाश होजाता है। फिर यह शायिक सम्यक्ती महात्मा जितनार स्वानुभवका अभ्यास करता है उतनार करायका रस कम उदयमें आता है। तब उतनार निर्मल मुम्ब अनुभवमें आना है। पांचवे देशसंयम गुणस्थानमें अप्रत्यागठ्यान कषायका उदय नहीं होता है तब चौथे गुणस्थानकी अपेक्षा निर्मल सुख स्वादमें आता है। छठे प्रमत्तगुणस्थानमें प्रत्याख्यान कषायका भी उदय नहीं रहता है, तब और अधिक निर्मल सुख वेदनेमें आता है । सातवे अप्रमत्त गुणम्यानमें संज्वलन कपायकामंद उदय रहता है तब और भी निर्मल सुख अनुभवमें आता है | आठवे अपूर्वकरण गुणस्थानमें संज्वलन कषायका अति मंद उदय होता है तब और भी निर्मल सुख स्वादमें आता है | अनिवृत्तिकरण नौ गुणस्थानमें अतिशय मंद् कषायका उदय रहता है तथा वीतराग भावकी आग बढ़ती जाती है। उस कारणमे योगी अनिवृत्तिकरणके दूसरे भागमें अप्रत्याख्यान ४ व प्रत्याग्न्यान ४ इन आठ कषायकर्मोंकी सत्ताका क्षय कर देता है। तीसरे भागमें नपुंसक वेदका चौथे भागमें स्त्री चेदका, पांचवे भागमें हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छ: मोकषायोंका, छटे भागमें पुरुष वेदका, सान- भागमें सज्वलन क्रोधका..