Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 354
________________ योगसार टीका। स्वानुभत्र झलकता है। माला मम्मानन गाढव हा निर्मः । चारित्र शुद्ध होता है। ___ रत्नत्रयकी शुद्धता प्राप्त करना ही मोक्षके निकट पहुंचना है । अतएव साधुको निग्रन्थ पदमें रहकर विशेष आत्मत्यानका अभ्यास करना योग्य है । मोहके साथ साधुको युद्ध करना है। इसलिये ज्ञान वैराग्यकी खड्गको तेज रखनेकी जरूरत है । सम्यग्दर्शनके प्रतापमे ज्ञानीको जगतके पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान होता है कि छः द्रव्योंसे यह जगन भरा है। सर्व ही द्रव्य निश्चयमे अपने अपने स्वभावमें फलोल करते हैं । यद्यपि संसारी जीव पुगलके संयोगसे अशुद्ध है । नर नारक नियंच देवके शरीरोंमें नानाप्रकार दीखते हैं तो भी ज्ञानी उन सब जीवोंको दृष्यके स्वभावकी अपेक्षा शुद्ध एकरूप ज्ञानानन्दी परम निर्विकारी देखता है। इस झानके कारण न कोई आश्चर्य नहीं भासता है । वह छछा द्रव्यांक मूलगुण व पर्यायीक स्वरूपको केवलज्ञानीके समान यथार्थ व शंकारहित जानता है | अपने आत्माकी सत्ताको अन्य आत्माओंकी सत्तासे भिन्न जानता है । तो भी स्वभावसे सबको व अपने आत्माको एक समान शुद्ध देखता है । इसी ज्ञानके प्रतापने उसके भीतर सहज वैराग्य भी रहना है कि एक अपना शुद्ध आत्मीक पद ही सार है, उत्तम हैं, ग्रहण करनेयोग्य है । सिद्धपकी ही प्राप्ति करनी चाहिये | चारों गनिके क्षणिकपद सत्र त्यागनेयोन्य हैं । यह इन्द्रियों के सुखको आकुलतारूप व पराधीन व नाशवंत व पापबंधकारी ब अतृप्तकारी व हेय समझ चुका है । इसलिये वह भोगविलासके हेतुसे चत्रावर्तीपद, नारायणपद, बलभद्रपद, प्रतिनारायणपद्, राजापद, श्रेष्ठीपद, इन्द्रपद आदि नहीं चाहता है, उसके भीतर पूर्ण वैराग्य है कि सर्व ही आठ कर्मोंका

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