Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 353
________________ योगसार टीका। अन्वयार्थ-(जो मिच्छादिउ परिहरणु ) जो मिथ्यालादिका त्याग करके ( सम्मदसणमुद्धि ) सम्यग्दर्शनकी शुद्धि प्राप्त करना ( सो परिहारविसुद्धि मुणि । वह परिहार विमुद्धि संयम जानो (लह सिव-सिद्धि पावहि) जिसस श्रेष्ठ मोक्षकी सिद्धि मिलती है। भावार्थ-परिहारबिशुद्धि संयमका व्यवहार में प्रचलित स्त्रकार यह है कि वह विशेष संयम जस साधुको प्राप्त होता है जो तीस वर्ष तक सुखले घरमें रहा हो फिर दीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थकरकी संगति में रहे व प्राचारवान पुर्बया स्यालक । ऐलः सानु विशेष हिंसाका त्यागी होता हैं | छठे व सातवे गुणस्थानमें ही होता है । यहाँ अध्यात्म प्रिंसे शब्दार्थ लेकर कहा है कि मिथ्यात्वादि विषयांका त्याग करके सम्यग्दर्शनकी विशेष शुद्धि प्राप्त करना परिहारविशुद्धि है। शुद्ध आत्माका निर्मल अनुभव ही मोक्षमार्ग है । उसके बाधक मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र हैं। अनंतानुबन्धी कषाय और मिथ्यादर्शन कर्मक उपशम या भयसे एक ही साथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र प्रगट होजाते हैं, तीनों ही आत्माके गुण हैं । ज्ञान और चारित्र एकदेश झलकते हैं । इसके पूर्ण प्रकाशके लिये अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलन कघायका उपशम या क्ष्य करना होता है । जैसे जैस स्वानुभवका अधिक अभ्यास होता है वैसे २ कधायकी मलीनता कम होती जाती है। तब ज्ञान निर्मल व चारित्र ऊँचा होता जाता है। श्रावकपदमें देशचारित्र होता है, साधुपद में सकल चारित्र होता है। जिस साधुकी स्वानुभवकी तीव्रता वीतरागता ऐसी प्रगट हो जाती है कि बुद्धिपूर्वक कषायमलका स्वाद नहीं आता है। निर्मल शुद्ध

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