Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 355
________________ ; योगसार टीका । [ ३४५ संयोग मिटानेयोग्य है, सब ही रागादि विभाव त्यागनेयोग्य है, सर्व ही शरीर व भोग सामग्रीका संयोग दूर करनेयोग्य है, ऐसा दृढ़ ज्ञान वैराग्यधारी सम्यग्दृष्टी पूर्व कर्मके उदयसे यद्यपि गृहस्थपदमें अनेक गृहस्थकं काम करता हुआ दिखाई पड़ता है तौभी वह उन कार्योंको आसक्ति भावसे नहीं करता है । कषायके उदयको रोग जानता है । रोगको मिटानेकी भावना भाता है। जितनार कपायका उदय मिटता है इसका व्यवहार भी निर्मल होता जाता है । मोक्षका उपाय में एक सम्यग्दर्शनकी शुद्धता है। वीतराग यथाख्यात चारित्र व केवलज्ञानके लाभका यही उपाय है । तत्वार्थसार में कहा है विशिष्टपरिहारेण प्राणिघातम्य यत्र हि । शुद्धिर्भवति चारित्रं परिहारविशुद्धि तत् ॥ ४७-६ ॥ भावार्थ -- जहां प्राणियों के धातका विशेषपने त्याग हो व चारित्रकी शुद्धि हो वह परिहारविशुद्धि चारित्र है । यथाख्यात संयम | सुहुमहँ लोहहैं जो विलउ जो सुहुमुवि परिणाम | सो मुहमु विचारित मुणि सो सासय-सुह धामु ॥ १०३ ॥ अन्वयाथ -- (सुहमहं लोहडं जो विलज) सूक्ष्म लोभका जो भी क्षय होकर (जो मुवि परिणाम) जो कोई सूक्ष्म वीतराग भाव होता है (सोहुमु विचारित मुणि) उसे सूक्ष्म या यत्राख्यात चारित्र जानो ( सो सासय सुद्द्धामु वही अविनाशी सुखका स्थान है । भावार्थ-सुत्र आत्माका गुण है । उसको यथार्थ चारों

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