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योगसार टीका। जिन दर्शनको तुलना करके जानने की योग्यता प्राप्त होगी । जो केवल व्यवहारनयमे ही आस्माको जाने, निश्चयनयसे न जाने, उसको अपने शुद्ध तत्वका निश्चय नहीं होगा और जो व्याहारको न जाने, केवल निश्चयको ही जाने, वह अशुद्धताके मेटनेका उपाय नहीं कर सकेगा।
दोनों नयोंसे विरोध रहित ज्ञान जब होगा तब ही भेदविज्ञान टेगा । भेद विज्ञानके अभ्यास विना तस्वज्ञानका लाभ नहीं होगा, तत्वज्ञान बिना आत्माका यथार्थ मनन व अनुभव नहीं होगा । सम्यग्दर्शनका लाभ नहीं होगा। जो शास्त्रोंको पढ़कर व्यवहार-मगन रह व आत्मीक आनंदका स्वाद न ले, उसका परिश्रम सफल नहीं होगा | हेतु शास्त्रोंके पढ़नेका केवल एक अपने आत्माका यथार्थ ज्ञान है । पुरुषार्थ-सिद्धपायमें कहा है
अयुधम्य बोधनाधै नदीवरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमचै ति यन्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥ माणवक एव सिंहो यथा भवत्यन्वीत सिंहस्य । ब्यबहार एव हि तथा निश्चयतां यान्यनिश्चयज्ञस्य ॥ ७ ॥
भावार्थ --मुनिराजोंने अज्ञानीको समझाने के लिये असत्यार्थिकों या अशुद्ध पदार्थको कहनेवाले व्यवहारनयका उपदेश किया है। परंतु जो केवल व्यवहारमयकं विस्तारको जाने व निश्चयनयके नियमको न जाने वह जिनवाणीका यथार्थ ज्ञाता नहीं होसक्ता । बालकको विलाब दिखाकर सिंह बतादिया जाता है। यदि कभी उसे सिंहका झान न करामग जाये तो वह बालक. बिलापको ही सिंह समझा करेगा, उसी तरह यदि निश्चयका ज्ञान न कराया जावे तो निश्चयको न जाननेवाला व्यवहारको ही निश्चय व सत्य व मूल पदार्थ समझ बैटेगा।