Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 344
________________ ३३४] योगसार टीका । येन भावन यद्रूपं ध्यायत्यास्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥ १९.१ ।। भावार्थ-जिन भावसे व बिस रूपसे आत्मज्ञानी आत्माको श्याता है उसीस वह तन्मय होजाता है, जैसे रंगकी उपाधिसे स्फटिक पाषाण तन्मय होजाना है। सामायिक चारित्र कथन । सव्वे जीवा णाणमया जो सम-भाव मुणेइ । सो सामाइउ जाणि फुड जिणवर एम भणेइ ॥९॥ अन्वयार्थ-(सव्ये जीवा जाणमया) सर्व ही जीव ज्ञानस्वरूपी है ऐसा (जो समभाव मुणेइ) जो कोई समभात्रको मनन करता है (सो फुड सामाइड जाणि) उसीके प्रगटपने सामायिक जानो (एम जिणवर भणेइ) ऐसा श्री जिनेन्द्र कहते हैं। भावार्थ-समभावकी प्राप्तिको सामायिक कहते हैं। यह भाव तब ही संभव है जब इस विश्वको निश्चयनयसे या द्रव्यार्थिक नयसे देखा जावे। पर्यायार्थिक या व्यवहारनयकी दृष्टिको अंद कर दिया जावे । जगतमें नाना भेद पर्यायकी अपेक्षासे दीखते हैं। चार गति नाम कर्मके उदयसे जीव नारकी, पशु, मानव व देव दिखते हैं । जाति नामकर्मके उदयसे एकेन्द्रिय, द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौनिय, पंचेन्द्रिय सष दीखते हैं। जीवोंकी अन्तरंग व बहिरङ्ग अवस्थाएं आठ कर्मोके उदयसे विचित्र दीखती हैं। मोहनीय कर्मके उदयसे जीब शरीरासक्त, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, हास्य सहित, रतियान, झोकी, अरतिवान, भयभीत, जुगुप्सा सहित, स्त्रीवेदी, 'पुवेदी, नपुंसकवेदी, तीनकषायी, मन्दकषायी, पापी, पुण्यात्मा दीखते

Loading...

Page Navigation
1 ... 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374