Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 348
________________ - ३३८] योगसार टीका । कर ज्ञानी जी अपने जीवन में व मरणमें व दुःख या सुखमें या अन्य किसी कार्य में समभाव रखता है, कर्मों के अच्छे या बुरे विपाकको समभाव से भोग लेता है । दूसरे के जीवन मरण पर व दुःख सुख होनेपर व अन्य किसी कार्य के होने पर भी समभाव रखता है। राग द्वेष करके आकलित नहीं होता है | यदि स्त्री का मरण व पुत्र पुत्रीका मरण होजाये तो अन्य किसी मित्र या बंधुका मरण या वियोग होजाये तो ज्ञानी समभावसे देखकर आकुलित नहीं होता है । वह जानता है कि सर्व जीवोंको दुख सुख व उनका जीवन मरण उनके ही अपने कर्मोके उदय अनुसार है। कर्मकि उदयको कोई मेट नहीं सक्ता है । अपने जीवनको व दूसरोंके जीवनकी स्थितियोंको देखकर राग द्वेष नहीं करता है। जैसे सूर्यका उदय होना, प्रकाशका फैलना, प्रकाशका कम होना व अधकारका होजाना यह सब सूर्यके विमानक्की गति स्वभावका कारण है। ज्ञानी जीव कभी यह विचार नहीं करता है कि दिन बढ़ जावे तो ठीक है, रात्रि बढ़ जाये या घट जावे तो ठीक है । प्रकाश सदा बना रहे व कभी नहीं हो ऐसा राग द्वेष ज्ञानी कभी नहीं करता है। सूर्यके परिणमनको सम्भावमें देखता है । इसीतरह जगतमें परमाणु जैसे अनेक स्कंध बनते हैं । स्कंधोंसे अनेक परमाणु बनते हैं। पुलके कार्य उनके स्वभावसे होते रहते हैं। जैसे पानीका भाप बनना, मेघ बनना, पानीका बरसना, नदीका बहना, मिट्टीका कुपा होना, तुफानका आना, भूकंप होना, बिजलीका चमकना, पर्वतोंका चूर होना, मकानोंका गिरना, जंगलमें वृक्षोंका उत्पन्न होना, जंगल में आग लगना, आदि अनेक प्राकृतिक कार्य होते रहते हैं । उनमें भी ज्ञानी राग द्वेष नहीं करता है। समभाव से देखता है । जगतका चरित्र एक नाटक है । उस

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