________________
योगसार टीका |
राग द्वेष त्याग सामायिक है ।
राय-रोस वे परिहरिवि जो समभाउ मुणेइ । सो सामाइ जाणि फुड केवलि एम भणे || १०० ॥
[ ३३७
अन्वयार्थ - (जो राग-रोस वे परिहरिवि समभाव मुणे) जो कोई रागद्वेषको त्याग करके समभावकी भावना करता है ( सो ऊड सामान नागि) कि जानो (एम
केवल भणेड़ ) ऐसा केवली भगवानने कहा है
I
भावार्थ - रागद्वेपका त्याग ही सामायिक है। मिध्यादृष्टी अज्ञानी शरीर व इन्द्रियोंके विषयोंका रागी होता है इसलिये जिनमें अपना मनोरथ सिद्ध होता जानता है, उनसे प्रीति करता है, जिनमे बाधाकी शंका होती है उनसे द्वेष रखता है। वह कभी रागद्वेष मे छूटता नहीं । बोर तप करते रहनेपर भी वह कषायकी कालिमास मुक्त नहीं होता है ।
सम्यग्दीका मात्र उलट जाता है, यह संसारके सुखोंका श्रद्धाबान नहीं रहता है। उसके गाढ़ श्रद्धान अतींद्रिय आत्मीक आनंदका होता है, वह एक मात्र सिद्ध दशाका ही प्रेमी रहता है। वह संसार शरीर व भोगोंसे पूर्ण वैरागी हो जाता है। परमाणु मात्र भी राग उसके भीतर सांसारिक पदार्थोंकी तरफ नहीं रहता है। वह जगतकी दशाओंको समभाव से देखता है। सर्व सांसारिक जीवोंके भीतर जो जो भीतर व बाहर वशा वर्तती है वह उनके स्वयं परिणमन शक्ति कमौके उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधीन है। दूसरा जीव कोई उस दशाको बलात्कार पलट नहीं सक्ता है। निमित्त कारण मात्र एक दूसरेके परिणमनसे होसक्त हैं तथापि अन्तरंग निमित्त व उपा दान हरएकका हरएकके पास स्वतंत्र है। ऐसा वस्तुका स्वभाव जान
*