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योगसार टीका। दृष्टिस सब ही जीव चाहे सिद्ध हो या संसारी समान दीखते हैं। कर्म रहित, शरीर रहित, रागद्वेष रहित सच ही समान ज्ञानी, परम सखी, परम सन्तोषी, परम शुद्ध, एकाकार दीखते हैं | जितने गुण एक आत्मामें हैं उतने गुण दूसरी आत्माओं में है। सत्ता सध आत्माकी निराली होने पर भी स्वभावसे सत्र समान दीखते हैं। पुद्गल सब परमाणुरूप दीरखते हैं। धर्म, अधर्म, काल, आकाश चार अमृतीक द्रव्य स्वभात्रसे झलकते हैं। छोटे बड़े, सुन्दर असुन्दर, स्वामी सेत्रक, आचार्य शिष्य, पुज्य' पूजक आदिके भेद सब उड़ जाते हैं |
जो कोई इस तरह सब दृष्ट्रिान देखता है उसीके रागद्वेषका विकार दूर होजाता है, वह समभावमें आजाना है | इस तरह समभावको लाकर ध्याता जब पर जीवोंसे उपयोगको हटाकर केवल अपने स्वभायमें जोड़ता है तब निश्चल होजाता है, आत्मस्थ होताता है, आत्मानुभवमें होजाता है तब ही परम निर्जराका कारण सामायिक चारित्रका प्रकाश होता है | विकल्प रहिन भावमें रहना ही सामायिक है, यही मुनिपद है, यही मोक्षमाग है, यही रत्नत्रयकी एकता हैं । श्री योगन्द्रदेव अमृताशीतिमें कहते हैं
सत्साम्यभावगिरिंगटरमध्यमेत्य
___ पद्मासनादिकमदोपमिदं च बद्ध्वा । आत्मानमात्मनि सखे ! परमात्मरूपं
त्वं ध्याय वेसि ननु येन मुख समाधेः ॥२८॥ भावार्थ-हे मित्र 1 सच्चे साम्यभावकी गुफाके बीच में बैठ कर व निषि पद्मासन आदि बांधकर अपने ही एक आत्माके भीतर अपने ही परमात्मा स्वरूपी आत्माको तु ध्यान, जिससे तू समाधिका सुख अनुभव कर सके।