Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 349
________________ योगसार टीका। नांदकको ज्ञानी स्वामी होकर नहीं देखता है । ज्ञाता हप्ता दर्शक होकर देखता है । नाटकके भीतर हानि व लाभ देखकर ज्ञानी समभात्र (खता है । जो समभावसं पने परिणमनको व दुसरोके परिणमनको देखता है, उसके पूर्वकर्म फल देकर गिर जाते है, नवीन पापकर्मोंका बंध नहीं होता है व अति अल्प होता है | वही सामायिक चारित्रको पालना है | ऐसा समभावधारी ज्ञानी गृहस्थ सामायिक शिक्षाव्रतका व मुनि सामायिक चारित्रका पालक है। समयसार कलशमें कहा है-. इति वस्तुम्वभावं न्वं ज्ञानी आनाति तेग सः । सगादीन्नात्मनः कुर्यान्त्रातो भवति कारकः ॥१४-८ ।। भावार्थ-ज्ञानी इसतरह सर्व वस्तुकि स्वभावको व अपने ‘आपको ठीक ठीक जानता है, इसलिये रागद्वेष भात्रीको अपने भीतर नहीं करता है, सम भावगे रहता है इसलिये वह रागद्वेषका कर्ता नहीं होता है । चारित्र मोहनीयके उद्यसे होनेवाले विचारको काँका उद्यरूप रोग जानता है, उनके मेटनेका उधम है। छेदोपस्थापना चारित्र। हिंसादिउ-परिहारू करि जो अप्पा हु ठवेइ । सो वियऊ चारित्तु मुण्ठि जो पंचम-गइ इ ।।१०१॥ अन्वयार्थ-(जो हिंसादिउ-परिहारु करि अप्पा हु ठयेइ) जो कोई हिंसा आदि पापोको त्याग करके आत्माको स्थिर करता है (सो बियफ चारितु मुणि) सो दूसरं चारित्रका धारी है, ऐसा जानो (जो पंचम-गद जेई ) यह चारित्र पंचम गतिको ले. जाता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374