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योगसार टीका।
[३२१ अन्वयार्थ (सयल-वियप्पई वज्जिय) सर्व विकल्पोंको त्यागने पर (परम समाहि लहति) जो परम समाधिको पाते हैं ( अंक वि साणंदु विदहि) तब कुछ आनंदका अनुभव करते हैं
सिव सुक्खं भणति ) इसी सुस्त्रको मोक्षका सुख कहते हैं।
भावार्थ-मोक्षका सुख आत्माका पूर्ण स्वाभाविक मुख है जो सिद्धोंको सामान निरन्तर अनुभासें माता है ! ऐसे सम्बका उपाय भी आत्मीक आनंदका अनुभव करना है । सुखी आत्मा ही पूर्ण सुखी होता है | आत्मीक सुखके खाद पानेका उपाय अपने ही शुद्ध आत्मामें निर्विकल्प समाधिका प्राम करना है।
तत्त्रज्ञानीको उचित है कि वह प्रथम गाढ़ विश्वास करे कि में ही सिद्ध सम शुद्ध हूं। मेरा द्रव्य कभी स्वभावसे रहित नहीं हुआ। कमोंके मैलने स्वभाव रुक रहा है, परंतु भीतरसे नाश नहीं हुआ । जमे मिट्टीके मिलनेसे पानीकी निर्मलता ढक जाती है, नाश नहीं होती है । निर्मली फल डाल देनेपर मिट्टी नीचे बैठ जाती है पानी साफ दिखता है | यह आत्मा अनादिसे आठ प्रकारके कति मिला है तो भी अपना स्वभात्र बना हुआ है। सम्यग्दृष्टी जीव शुद्ध निश्चय नय द्वारा अपने आत्माके साथ रहनेवाले सर्व संयोगोको दूर करके आत्माको शुद्ध देखते हैं।
आगम झानकी श्रद्धापर जब अपने आत्माको बार बार शुद्ध भाया जाता है तब भावनाके दढ़ संस्कारमे गाढ़ रुचि होजाती है। यही सम्बक्त है तय उपयोग स्वयं परसे छूटकर अपने आत्मामें ठहर जाता है | स्यानुभवकी कला सम्यक्त होते ही जग जाती है । इस समय काया थिर होती है, वचन विलास नहीं होना है, मनका चिन्तवन बंद होजाता है। यदि विकल्पोंसे रहित परम समाथि होती है, उसी समय आत्मीक आनन्दका स्वाद आता है |