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योगसार टीका।
[३२९ अन्वयार्थ-(सयल-त्रियप्पई वजिय) सर्व विकल्पोंको त्यागने पर (परम समाहि लहाते) जो परम समाधिको पाते हैं ( जंक बि साणंदु विदहि) तब कुछ आनंदका अनुभव करते हैं
सिव सुक्रवं भणति ) इसी सुत्रको मोक्षका सुख कहते हैं ।
भावार्थ-मोक्षका मुख आत्माका पृण स्वाभाविक सुत्र है जो रिटको सदार नित ना ! गेसे सुखका उपाय भी आत्मीक आनंदका अनुभव करना है । सुखी आत्मा ही पूर्ण सुखी होता है | आत्मीक सुखके स्वाद पानेका उपाय अपने ही शुद्ध आत्मामें निर्विकल्प समाधिका प्राप्त करना है |
तत्वज्ञानीको उचिन है कि वह प्रथम गाढ़ विश्वास करें कि मैं ही सिद्ध सम शुद्ध है | मेरा द्रव्य कभी स्वभावसे रहित नहीं हुआ । काँक मलसे स्वभाव झक रहा है, परंतु भीत्तरसे नाश नहीं हुआ । जैसे मिट्टीके मिलने से पानीकी निर्मलता इक जाती है, नाश नहीं होती है। निर्मली फल डाल देने पर मिट्टी नीचे बैठ जाती है पानी साफ दिखता है । यह आत्मा अनादिसे आठ प्रकारके कर्मोंस मिला है तो भी अपना स्वभाव बना हुआ है। सम्यग्दृष्टी जीव शुद्ध निश्चय नयके द्वारा अपने आत्माके साथ रहनेवाले सर्व संयोगोंको दूर करके आत्माको शुद्ध देखते हैं।
आगम ज्ञानकी श्रद्धापर जब अपने आस्माको बार बार शुद्ध भाया जाता है तर भावनाके दुद संस्कारसे गाढ़ रुचि होजाती है । यही सम्यक्त है तब उपयोग स्वयं परसे छूटकर अपने आत्मामें ठहर जाता है | स्वानुभवकी कला सम्यक्त होते ही जग जाती है । इस समय काया थिर होनी है, बचन विलास नहीं होता है, मनका चिन्तवन बंद होजाता है। यदि विकल्पोंसे रहित परम समाधि होती है, उसी समय आत्मीक आनन्दका स्वाद आता है ।
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