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योगसार टीका। इसने कभी भी यह नहीं जाना कि मैं आत्मा द्रव्य पुगलसे सर्वथा भिन्न हूं। मैं न पशुहूं,न पक्षी हूं, न मानध हूं, न रागीद्वपी हूं। मैं तो परम वीतरागी ज्ञान दान सुख वीर्यका धारी कर्मफलंक रहित परमात्मा हूं। और सब प्रकार के भाव व पदार्थ जससे निराले हैं। जिन भावों में अनादिकरलसे आपा माना किया उन ही भावोंको पर जाननेकी व अपने शुद्ध वीतराग विज्ञानयम भावको पहचाननेकी आवश्यक्ता है | अतएव शास्त्रोंके पभेका फल यही है जो अपने आत्माको आत्मारूप व परको रूप माने !
जिसकी चुद्धिमें भेद विज्ञानका प्रकाश न हो उसका शास्त्रजान मोक्षमार्गमें लाभकारी नहीं होगा। मेद विज्ञान होनेपर यह प्रतीति जमनी चाहिये कि सच्चा आनंद मेरे ही आत्माका गुण है। तैसे मिश्रीका स्वाद पाने के लिये मिश्री खानेमें उपयोगको जोड़ना पड़ता है | यदि उपयोग न थिर हो तो मिश्रीका स्वाद नहीं आएगा।
इसी तरह आत्मानंदके पानेके लिये कर्मकलंक रहित चीतरागी व ज्ञातादृष्टा अपने आत्माके भीतर श्रद्धा व ज्ञान सहित रमण करता पड़ेगा | सय भन्य सर्य पदार्थों में व भावों में से उपयोगको हटाना पड़ेगा । इसलिये परम सुखको अनंतकाल के लिये निरन्तर भोग करनेके लिये ज्ञान व वैराग्य सहित आत्माका अनुभव प्राप्त करना चाहिये । जाने तो यह कि मैं निराला शुद्ध आत्माद्रव्य हूं। मैं ही परमेश्वर हूं, मैं ही परमदेव हूं, मैं ही उपासना करने योग्य हूं, व अपनी ही आराधनासे ही मोक्षका लाभ होगा। अद्वैत निर्विकल्प ध्यान ही संबर व निर्जराका कारण है ! वैराग्य यह कि इस जगतके भोग विपके समान त्यागनेयोग्य हैं । लौकिक कोई पद इष्ट नहीं है, एक शिवपद कल्याणकारी है महान वैराग्य यही है कि