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योगसार टीका |
परभाव का त्याग कार्यकारी है ।
जो वि जाणह अप्पु परु पवि परभाउ चण्ड ! सो जाणउ सत्थई सयल ण हू सिवसुक्खु लहेड़ ॥९६॥
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अन्वयार्थ - ( जो अप्पु परु णावे जाणइ ) जो कोई आमाको परपदार्थको नहीं जानता है ( परभाव णवि चण्ड ) व परभावों का त्याग नहीं करता है ( सी सयल सन्धई जाणइ ) वह सर्व शास्त्रोंको जानता है तो भी (सिवसुक्खु ण हुलहेइ ) मोक्ष सुखको नहीं पायेगा |
भावार्थ अनेक शास्त्रोंके पढ़ने का फल मेद विज्ञानकी प्राप्ति है। अनादिकालमे आत्मशका व सूक्ष्म कर्म पुलों का संयोग संबंध ऐसा गाढ़ है कि कोई भी समय देखो आत्माके एक एक प्रदेशमें अपने पुदलकर्म वर्गणाएं पाई जाती हैं। उन कमका उदय भी हर एक समय है, हर समय मोह व राग द्वेषसे उसकी अनुभूति मलीन होरही हैं | इसको कभी भी आत्माके शुद्ध ज्ञानका अनुभव नहीं आता है। यह कर्मचेतना व कर्मफल चेतना में ही लवलीन है। यह प्राणी अपनी इंद्रियोंकी तृष्णाको पूर्ति मन वचन कायसे अनेक काम करनेमें तन्मय रहता है।
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धन कमानेका, मकान बनानेका, वस्त्र सीने मिलानेका, आभूपण बनवानेका, शृंगार करनेका, रसोई बनानेका सामग्री एकत्र करनेका, बाधकोंको दूर रखनेका, परिग्रहकी रक्षाका आदि उद्यममें तल्लीन होकर कर्मचेतना रूप वर्तता है । जब असाताका तीव्र उदय आजाता है तत्र दुःख व सुखमें तन्मय होकर कर्मफलचेतनारूप होजाता है | उन्मत्तकी तरह जगतकं पदार्थोंमें आसक्त रहता है, विषयसुखकी रात दिन चाह किया करता है ।