Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 340
________________ ३३.] योगसार टीका । इसीसे कर्मकी निर्जरा भी अधिक होती है । इसीको ध्यानकी आग कहते हैं। सम्यक्तीको स्वानुभवके करनेकी रीति मिल जाती है। इसीको मोक्षका उपाय जानकर सम्यक कारवार स्वानुम्या अभ्यास करके आत्मानन्दका भोग करता है । यदि कोई सम्यक्ती निर्मन्य मुनि हो व वनवृषभनाराच संहननका धारी हो और उसका स्वानुभव यथायोग्य एक अंतर्मुहर्स तक जमा रहे तो वह चार बातीय कोका क्षय करके परमात्मा होजावे । एक साथ ही अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त बायको प्रकाश करले । __ आत्मवीर्यकी कमीसे सर्व ही सम्यक्ती ऐसा नहीं कर सकते हैं. तन्त्र शक्तिके अनुसार गृहस्थमें यदि रहते हैं तो समय निकाल कर आत्मानुभवके लिये सामायिकका अभ्यास करते हैं। अधिक देरतक सामायिक नहीं हो सकती है इसलिये सम्यक्ती गृहस्थ देरतक जिनपूजा करते हैं, जिनेन्द्र गुण गान करते करते स्वानुभव पा लेते हैं । कभी अध्यात्म अन्धोका मनन करते हैं, कभी अध्यात्म चर्चा करते हैं कमी अध्यात्मीक भजन गाते हैं। परिणामोंको पापके भावोंसे बचाने के लिये श्रावक बारह व्रत पालते हैं। निराकुल स्वच्छ भावोंक होनेपर ही स्वानुभवका काल अधिक रहना है । जब वैराग्य अधिक होजाता है तब सम्यक्ती गृह त्याम करके साधु होजाता है, तब परिग्रहके त्याग होनेपर व आरंभ न करनेपर निराकुलता विशेष प्राप्त होती है । क्षोभ रहित मन ही निश्चयत्नयों द्वारा सर्व जीवोंको समान देखकर रागद्वेषको जीतता है। वीतरागी होकर वारवार आत्मानुभव करता है | आत्मानुभक्से सच्चा आत्मीक आनंद पाता है। इसी उपायसे यह साधक मोक्षमार्गको तय करता हुआ बढ़ता जाता है, कभी न कभी निर्वाणका लाभ कर - .... . - - -

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