Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 341
________________ योगसार टीका । लेता है । तत्वानुशासन में कहा है समाधिस्थेन यद्यात्मा बोधात्मा नानुभूयते । तदा न तस्य तद्ध्यानं मूर्छावान्मोह एव सः ॥ १६९ ॥ तदेवानुभवंश्चायमेकाम्यं परमृच्छति । तथात्माधीनमानंदमेति वाचामगोचरं ॥ १७० ॥ भावार्थ-समाधिभावमें तिष्ठकर जो ज्ञान स्वरूप आत्माका अनुभव न हो तो यह उसके ध्यान नहीं है वह मूछांवान या मोही है | जब ध्यान करते हुए आत्माका अनुभव प्रगट होना है तत्र परम एकाग्रता मिलती है तथा तब ही वह वचनोंके अगोचर आत्मीक आनंदका स्वाद भोगता है। आत्मपान बार नगर है। जो पिंडत्थु पयत्थु बुह रूवत्थु वि जिण उत्तु । रूवातीतु मुणेहि लहु जिम परु होहि पवित्तु ।। ९८॥ अन्वयार्थ--(बुद्द) हे पंडित ! (जिण-उनु जो पिंडत्यु पयत्यु रूवत्थु वि रूवातीतु मुणहि ) जिनेन्द्र द्वारा कहे गए. जो पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, व रूपातीत ध्यान है उनका मनन कर (जिम लहु परु पवितु होहि ) जिससे तु शोध ही परम पवित्र हो जावे। भावार्थ-जैसे मैले वस्त्रको ध्यानपूर्वक रगड़नेसे साफ होता है वैसा ही यह अशुद्ध आत्मा आत्माके ध्यानसे शुद्ध होजाता है । ध्यान करनेकी अनेक रीतियाँ हैं। ज्ञानार्णव अन्थमें पिंडस्थान, चार प्रकारके ध्यानोंका विस्तारसे वर्णन है। यहां संक्षेपमें कहा जाता है {१) पिंडस्थ-पिंड शरीरको कहते हैं उसमें विराजित

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