Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 332
________________ योगसार दीका। होना चाहिये । इसका एक ही अर्थ है तथा आत्माका व परका ज्ञान व श्रद्धान करके जैसा यथार्थ स्वरूप है बैसा जाने, फिर निःप्रयोजन ज्ञानकर परको छोडकर केवल अपने आपको ही जाने व देखे । आत्मज्ञानी सव शास्त्रोंका ज्ञाता है । जो अप्पा सुद्ध वि मुगइ असुइ-सरीर-विभिन्नु। सो जाणइ सस्थई सयल सासय-सुक्खहँ लीणु ॥ ९५॥ अन्वयार्थ (जो अमुइ सरीर विभिन्नु ) जो कोई इस अपवित्र शरीरसे भिन्न (सासय-मुक्खहँ लीशु ) व अविनाशी सुखमें लीन ( मुद्ध वि अप्पा मुणइ) शुद्ध आत्माका अनुभव करता है ( सो सयल सत्य जाणइ ) वही सर्व शास्त्रोको जानता है। भावार्थ-शास्त्रोंका ज्ञान तब ही सफल है जब अपने आत्माको यथार्थ पहचान ले, उसकी रुचि प्राप्त करले व उसके स्वभावका स्वाद आने लग जावे । क्योंकि शुद्वात्माका अनुभव ही मोक्षमार्ग हैं। शुद्ध स्वरूपकी भावनासे ही आत्मा शुद्ध होते होते परमात्मा होजाता है। जिनवाणीफे अभ्यासका भलेप्रकार उद्योग करके अपने आत्माको यथार्थ जाननेका हेतु रात्रे | वर्तमानमें यह अपना आत्मा कम संयोगसे मलीन दिख रहा है व इसकी यह मलीनता प्रवाहरूपसे अनादि है । मलीन पानीको दो दृष्टियोंसे देखना योग्य है । व्यवहारनयसे यह पानी मैला ही है। क्योंकि मिट्टी मिली है व मिट्टीकी मलीनताने जलकी स्वच्छताको छिपा दिया है। निश्चयनयसे देखा जावे तो मिट्टी भिन्न है, पानी भिन्न है, तब यह जल स्वभावमें निर्मल दिखता है ! इसी तरह यह आत्मा

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