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योगसार टीका । [३२१ है तौभी जिस शरीरमें रहता है, शरीरके आकारप्रमाण प्रायः करके रहता है। जैसे दीपकका प्रकाश जैसा वर्तन होता है वैसा व्याप कर रहता है । इस आकारके धारी आत्माको पवित्र देखें कि यह निर्मल जलके समान शुद्ध स्फटिकके समान परम शुद्ध हैं | इसमें न कर्मीका मैल है न रागादि विकारोंका मैल ई न अन्य किसी शरीरका मैल है। व्याथिक नयसे आत्माको सदा ही निराकरण देग्मे । न यह कभी बंधा था न बंधा है न कभी बंधगा । फिर देखे कि सामान्य व विशेष गुणोका सागर है । यह ज्ञातादया है, बीतराग है। परमानद ई. एका नीर्यवान , महा मायक्त गुणी है, परम निर्मल तेजमें चमक रहा है। इस प्रकार अपने शरीरमें व्यापक आत्माको वार वार देग्यकर चित्तको रोके । यह ध्यानका प्रकार है । ध्याताको रम निश्चिन्त होना चाहिये । उत्तम ध्याता नियंथ साथु होते हैं। परिग्रहका स्वामीपना होनेस ध्यानके समय उसकी चिंता बाधा करती है । इसलिये साधुगण सर्व परिग्रहका त्याग करके धन कुटुम्ब क्षेत्रादिके रक्षणादिके विकल्पोंमे शुन्य होते हैं। देशत्रप्ती मध्यम ध्याता है, अविरत सम्यक्ती जघन्य भ्याता है। भ्याताको सम्यग्ज्ञान होना ही चाहिये । क्योंकि जबतक अपने आत्माके शुद्ध स्वभावका श्रद्धान महीं होगा तब तक उसका प्रेम नहीं होगा। प्रेमके विना उसमें आसक्ति या चिरता नहीं होगी। ध्याताको यह श्रद्धान होना ही चाहिये कि मैं ही परमात्मा रूप हूं, मुझे जगतके इंद्र चक्रवर्ती आदि पदोंसे कोई राग भाव नहीं है, केवल निर्माणका ही ध्येय है। ___माया मिथ्या निदान तीन शस्याम्मे रहित, सर्व शंकाओंसे रहित, परम निष्पही, सर्व तृष्णा रहित होना चाहिये । ध्यानके समय सम्यग्ज्ञान व वैराग्यकी मूर्ति होजाना चाहिये। ऐसा ध्याता ध्यानको ध्यानेके लिये निराकुल क्षोम रहित स्थानमें बैठे। जितना