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योगसार टीका। के साथ सुखका भोग है | अपने आत्माका आत्मारूप श्रद्धान, ज्ञान व उसी में चर्या अर्थात आत्मानुभव ही निश्चय रत्नत्रय स्वरूप मोलमार्ग है । वहाँ आत्मा, आत्मामें ही रत होता है, मनके विचार बंद होजाते हैं, बचन व कायकी क्रिया धिर होजाती है। परिणाम रागद्वेषग्ने रहेन सम व शांत होजात है न ही आत्मस्थिनिक होते ही आत्मीक सुग्वका स्वाद आला है।
जैसे मिश्रीके खास मीटेसनका, नीमके खानेका कडुवापनका लवणके खानेसे स्त्रारेपनका स्वाद आता है, वैमे ही आत्माके शुद्ध स्वभावमें रमण करनेम आत्मानंदका स्वाद आता है। उसी समय पूर्व बांधे हुये कमीकी स्थिति घटती हैं । आयुकर्मको छोड़कर शेपकी स्थिति कम होनी है | पापकर्मीका रस सूखता है, वे विशेष गिरने लगते हैं, विना फल दिये चले जाते हैं, पुण्यकमौका रस बढ़ता है, वे प्रचुर फळ देकर जाते हैं । घातीयकम निर्बल पड़ते हैं, नवीन कर्मोंका भी सबर होता है । आत्मानुभवके समग्र गुणस्थानको परिपाटीके अनुसार जिन२ घातीय कर्मकी प्रकृतियोका बंध होता है, उनमें स्थिति व अनुभाग अल्प पड़ता है। अघातीयमें पुण्यकमका बंघ है, कम स्थिति व अधिक रसदार होता है । जब आयव कम प निर्जरा अधिक नब मोक्षमार्गका साधन होता है ।
सश्च सुखका भोग सम्यग्दष्टीको भलेप्रकार आत्माके सम्मुख होने होता है । आत्मध्यान ही मोक्षमार्ग है । आत्मध्यानी ही गुणस्थानोंकी श्रेणीपर चढ़ सक्ता है । मुमुक्षुको एक आत्मध्यानका ही अभ्यास करना चाहिये। इसके दो भेद हैं-निर्विकल्प आत्मध्यान, सविकल्प आत्मध्यान । निर्विकल्प आरमध्यानफे द्वारा निर्विकल्प आत्मध्यान होता है। निर्विकल्प ध्यान ही वास्तबमें ध्यान है । यही मोक्षका साक्षान् उपाय है । सविकल्प ध्यान अनेक प्रकार हैं। निश्चय नयसे अपने