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योगसार टीका। प्रमत्त गुणस्थानमें प्रत्याख्यान कपायका सदय नहीं रहता है तर और भी अधिक स्वरूपावर गो शिर ली। अपनों संचलन कपायका मंद उद्य है तब प्रमाद भाव रहित अधिक निश्चलता होती है | अपूर्वकरण गुणस्थानमें और भी संज्वलन मंट पड़ जाता है तन अधिक स्थिरता होती है । अनिवृत्तिकरणमें बहुत ही मंद कपाय होती है तब और भी अधिक श्रिरता होती है ।
सूक्ष्मसापरायमें केवल सुक्ष्म लोभका उदय है. अधिक थिरता व शांति है। इसतरह जैन जैसे राग द्वेप विकार दूर होते जाते हैं मे चैस आत्मामें स्थिरता बढ़ती जाती है । शुद्धात्मा स्त्रभावमें स्थिर होना या आत्मीक आनंदका पान करना ही एक उपाय है, जिसस संबर व निर्जरा होकर मोक्षका उपाय घनता है। इसलिये मुमुक्षुको पुरुषार्थ करके अपने ही शुद्धात्माकी भावना नित्य करना चाहिये । इष्टोपदेशमें कहा है--
अविद्याभिदु ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् । तत्पष्टव्यं तदेष्टन्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥ ११ ॥
भावार्थ-मोक्षके प्रेमियोंका कर्तव्य है कि वे आत्माकं ही सम्बन्धमें प्रश्न करें, उसीका प्रेम करें व उनीको देखें व अनुभव करें। का आत्मज्योति अनानस रहित है. परम ज्ञानमय है व सबसे महान है।
आत्मरमी कमोंसे नहीं वन्धता। जह सलिलण ण लिप्पियइ कमलणि-पत्त कया वि । तह कम्मेहिं ण लिप्पियइ जइ रइ अप्प-सहावि ॥१२॥ अन्वयार्थ-(जह कमलाण-पत्त कया वि सलिलण ण