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योगसार टीका।
[३१० लिप्पियइ ) जैसे कमलिनीका पत्ता कभी भी पानीस लिप्त नहीं होता (तह जइ अप्प-सहात्रि रह कम्माहि ण लिप्पियट) वैसे ही यदि आत्मीक स्वभावमें रत हो तो जीव कर्मोम्मे लिप्त नहीं होता है।
भावार्थ-आत्मामें लीन भव्यजीव मोक्षमागी है। रत्नत्रयकी एकताको रखता हैं। वीतराग व समभावमें लीन होता है | रागंतष बिहीन होता है। इससे काम नहीं बंधता है | बंधनाशक वीतराग भात्र है। बंधकारक रागद्वष मोह है । मोह मिथ्यात्य भावको कहते हैं | रागद्वेष कषायको कहते हैं । सम्यक्ती चौथे गुणस्थानमें हो तो अपने आत्मरमणताकी गाद श्रद्धावा ४१ इकनालीस प्रकृतिका बंध नहीं करता है, उनको हम पहले गिना चुके हैं । सम्यक्ती नरक, नियंचगति लेझानेवाली कर्मप्रकृतियों को नहीं बांधता है। फिर जैसेर गुणस्थानोंमें चलता है. आत्मरमणताकी शक्ति विशेष प्रगट होजाती है, तब और अधिक बंधको घटाता जाता है । बंधकी इससे १२० प्रकृत्तिये गिनी गई हैं।
ज्ञानावरणीयकी ५ + दर्शनावरणीयको ९+ वेदनीयकी २+. मोहनीयकी २६ ( सम्यक्त व मिश्रका बंश्च नहीं होता है) + आयुकी ४ + नामकी ६७ पांच बंधन, पांच संवान न गिन पांच शरोरके साथ मिला दिये वर्णादि २० की अपेक्षा चार ही जाने इस तरह १०+१६-२६ कर्म ९३ में घट गार + गोत्रकी २ + अन्तरायकी ५-१२०-ये प्रकृतियां नीचे लिखे प्रकार गुणस्थानों में शुच्छित्ति पाती हैं | जिन गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति है वे प्रकृतियां आगेके गुणस्थानों में नहीं बंधती है---
गुणस्थान व्युन्छित्ति संख्या (२) मिथ्यात्व-१६-मिध्याल्व, हुण्डक संस्थान, नपुंसक वेद,
असं संहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आताप, सूक्ष्म,.
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