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३००] योगसार टीका। आत्मीक सुस्वका प्रेम बढ़ जाये व अभ्यास भी ऐसा होजावे कि आत्मीक रसके स्वाद विना और सब विपय रसके स्वाद फीके भामे सत्र ही वह जिन या जितेंद्रिय होकर आत्माका मनन कर सत्ता है। मनकी शुद्धि हो ! मनमें से रागदेव मोदको मालाने तटागनाले रसका रसिक मनको बनाया जाये। सर्व ही अपभ्यानोको दूर किया जावे । आर्त रौद्रभ्यानोंसे मनको निर्मल किया जाये । मनमें सहज वैराग्य प्राप्त किया जावे, कष्ट व उपसर्ग आनेपर मनको सहनशील बनाया जाये।
क्रोध, मान, माया, लोभक आक्रमणामे मनको बचाया जावे, वचनीका प्रयोग केवल आवश्यक धर्मोपदेशों में किया जावे । मौन रहनेकी आदत डाली जाये | स्त्रीकथा, भोजन कथा, देशकथा, नृपति कथामे विरक्त रहा जावे। भापा मीठी अमृत ममान स्वनर प्रिय धर्मरस गर्मित बोली जावे, बचन शुद्धि पाली जावे ।
शारीरको शुद्ध निर्विकार रक्खा जायेस्नानादि त्यागकर शृङ्गार व शोभा रहित व शान रऋग्वा जावे | निश्चयग्ने रस नीरम आहार जो शत हो उसको ऊनीदर लेकर शरीरको रोग रहित व हलका रवला जावे। इस तरह मन, वचन, कायको शुद्ध रखके निर्जन स्थानों में तिकर एकाकी शुद्ध अतीन्द्रिय आत्माका मनन या अनुभव किया जावे | इसी उपायस मानकी सिद्धि होगी।
आत्मानुशासनमें कहा हैमुहुः प्रसार्य सज्ज्ञानं पश्यन् भावान् यथास्थितान् । प्रात्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मचिन्मुनिः ॥ १७७ ।।
भावार्थ- आत्मज्ञानी मुनिको योग्य है कि वारवार सभ्यग्ज्ञानको भीतर फैला रखें । पदार्थोंको जैसाका तैसा देखने हुए, -रागडेप न करते हुए समताभावस आत्माको ध्यावे |
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