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योगसार टीका |
शास्त्रोंका ज्ञान हो, परंतु सम्यक्त न हो तो वह ज्ञानी पंडित नहीं है । सम्यक्त के होते हुए हो वह ज्ञानी है, उसका शास्त्र ज्ञान सफल है । द्वादशवाणीका सार यही है जो अपने आत्माको परद्रव्यों परभावोंसे भिन्न व शुद्ध द्रव्य जाना जावे व शंकारहित विश्वास लाया जावे | यही निश्चय सम्यग्दर्शन है ।
तीन लोककी सम्पदा सम्यग्दर्शनके लाभके समान कुछ नहीं है । एक नीच चाण्डाल पुरुष यदि सम्यग्दर्शन सहित हैं तो वह पूज्यनीय देव हैं, परंतु एक नवम अवधिकका अहमिद सम्बत्क्तके बिना पूज्य नहीं हैं | एक गृहस्थ सम्यग्दर्शन सहित हो तो वह उस मुनिसे उत्तम है जो मिथ्यादर्शन सहित चारित्र पालता है। सम्यग्दशेन सहित नरकका बास भी उत्तम है। सम्यग्दर्शन रहित स्वर्गका वास भी ठीक नहीं है ।
सम्यग्दर्शनका इतना महात्म्य इसीलिये कहा गया है कि इसके लाभमें अनादिकालका अन्धेरा मिट जाता है व प्रकाश होजाता है । जो संसार प्रिय भासता था वह त्यागनेयोग्य भासने लगता है । जो सांसारिक इन्द्रिय सुख ग्रहण करनेयोग्य भासता था वह त्यागने योग्य भासता है । जिस अतीन्द्रिय स्वाधीन सुखकी खबर ही नहीं श्री उसका पता लग जाता है व उसका स्वाद भी आने लगता है । सम्यग्दृष्टके भीतर सखा ज्ञान होता है कि मेरा आत्मद्रव्य परम शुद्ध ज्ञानादृष्ट्रा परमात्मस्वरूप है । मेरी सम्पत्ति मेरे हो अविनाशी ज्ञान दर्शन सुखवीर्यादि गुण हैं। मेरा अहंभाव अब अपने आत्मा में हैव ममकार मात्र अपने ही गुणोमें हैं। पहले मैं कर्मजनित अपनी अवस्थाओं को अपनी मानता था कि मैं नारकी हूं तिर्येच हूं, मनुष्य हूं, देव हूं। मैं सुन्दर हूं. असुन्दर हूं, रोगी हूं, निरोगी हूं. कोथी हूं, मानी हूं, मायावी हूं, लोभी हूँ, स्त्री हूं, पुरुष हूं, नपुंसक हूं, शोकी