Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 317
________________ ३०८] योगसार टीका। होजाता है कि एक अंतर्मुहूर्नसे अधिक आत्मानुभवसे बाहर नहीं रहता है। ___ साधुके जपताना उपशम या पतागीर न नटे. हाल सातवां दो गुणस्थान होते हैं। हगएकका काल एक अन्तम(तसे अधिक नहीं है। व्यवहार धर्म व क्रियाका पालन छटे गुणस्थान में होता है । आहार, विहार, निद्राका, व निहारका कार्य छठे गुणस्थानमें होता है। यदि इन व्यवहार कार्यों में अन्तमुहतने अधिक समय लगे तो बीच बीच में सातयां गुणस्थान ब्राणभर के लिये आत्मानुभवरूप होजाता है। सम्यग्दष्ट्रीय गृह त्याग व साधुपदका प्रण नब ही होता है जब उसके भीतर प्रत्याख्यानावरण कषायके उदय न होनेपर सहमा वैराग्य जग जाता है । वह दृढ़ता पूर्वक विना परिणामोंकी उमता प्राप्त हुए किसी ऋची क्रियाको धारण नहीं करता है। जबतक सहज वैराग्य आवे बह परिणामोंके अनुसार श्रावक पदके भीतर रहकर यथासंभव दशन प्रतिमासे लेकर उद्दिष्टत्याग ग्यारहवीं प्रतिमा तक चारित्रको पालकर आत्मानुभवके लिये अधिक २ समय निकालता है । क्रम क्रममे व्यवहारको घटाता है व निश्चयमें रमणको बढ़ाता है। यह श्रावकका पंचम गुणस्थान भी तब ही होता है जब सम्यक्तीके भीतर अपल्यास्यान कपायके उदय न होनेपर एकदेश सहज वैराग्य पैदा हो जाता है । यदि ऐसा भाव न हो तो यह चौथे गुणस्थानमें ही रहकर यथासम्भव समय निकालता है। जब वह सर्व व्यवहार मन, वचन, कायकी क्रियाको छोड़कर शुद्धात्माका मननं करके स्वानुभव करता है, व्यवहारकी चिंता अधिक होनेसे वह अधिक समय स्वानुभवमें नहीं ठहर सक्ता है। प्रयत्न एक यही रहता है कि स्वानुभव दशामें अधिक रहूं। कषायके उदयले व

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