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योगसार टीका । ।३०३ 'पानीको उगा कहना, धोके संयोगस घड़को का बड़ा कहना,वैसे मन, वचन, कायको क्रियाको मानमार्ग कहना व्यवहार है। साधक 'अवस्था यह स्वानुभव बहुत अल्पकाल रहता है । वनवृषभनाराच सहननके धारी बदि मुहूतल कुछ कम देर तक होजाये वो चार पानी का बंधन कर आये कालानका लान होजावे ।
स्वानुभवक छुटनेपर साधकको नियनय या द्रव्यार्थिकनयके द्वारा शुद्ध नन्धका विचार करना चाहिये | अदि उपयोग न जमे तो व्यवहारनय या पर्यायाधिकनायक द्वारा सात लत्त्र, बारह भावना, दश धर्म, गुणस्थान, मार्गणा आदिका विचार कर, शास्त्र पहें, उए. देश द आदि व्यवहार धर्मको करे, परंतु भावना यही रन कि मैं शीघ्र ही स्वानुभवमें पहुँच जा। इस उपाय जो कोई तन्वज्ञानी सहजात्म म्वरूपको मनन करेगा वही परम शांत निर्वाणक सुखका भाजन होगा। समयसारमें कहा है
जह बंध चिन्ततो बंधणबद्धो ण पादि विमोक्ख । तह बंध चितन्नो जीवोविं ण पावदि विमोवं ॥३११॥ जह बंध भितणय बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्रय । तह अंधे भित्ताणय जीवो संपावन्दि विमोक्रव ॥ ३१३ ॥
भावार्थ-जैसे कोई बंधनमें बंधा है वह अंधकी चिंता किया करे तो चिंता मात्र यह धसे नहीं छूट सक्ता वैसे ही कोई जीत्र यह चिना करे कि यह कर्मबन्ध है, कर्मसे मुक्त होना है वह इस चिंतासे मुक्त नहीं होगा । जैसे बंधन में बंधा पुरुष बंधको काट करके ही बंधसे छूटेगा वैसे ही भव्य जीव बंधको छेद करके ही मुक्त होगा। बंधके छेदका उपाय एक स्वानुभव है ।