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यांगसार टीका |
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सकेगा । अत्र निर्मध पत्र धारण करके निराकुल हो जाना चाहिये । स्त्री पुत्रादिकुटुम्बकी चिंताओंसे मुक्त होजाना चाहिये । परिम व आरम्भका त्याग विना यथाजातरूप घारे नहीं होता। इसलिये बालकके समान नम्न व निर्विकार होजाना चाहिये । प्राकृतिक जीवनमें आजाना चाहिये । तिल तुप मात्र परिषद नहीं रखना चाहिये । शरदी, गर्मी, हाँस, मच्छर आदि बाईस परीसहकि सहने की शक्ति प्राप्त करना चाहिये। ऊंचा आत्मल्यान, निर्भय व निर्विकार हुये बिना ही नहीं सत्ता | जहाँ तक काम विकारकी वासना न मिले. स्त्री पुरुपका भेद न मिटे, लज्जाका भाव दिलसे न हटे वहां तक इस ऊंचे पत्रको ग्रहण न करें |
आवक में रहकर एकदेश आत्मल्यानका साधन करें। निवां का साक्षात् उपाय निर्बंध पद ही है। इस ही पदको धारकर सर्व ही प्राचीनकालके तीर्थंकरांने व महात्माओंने उक्त प्रकारका आत्मध्यान करके ध्यान व शुध्यान करके निर्वाण लाभ किया था । सर्व चिंताओंने रहित एकाकी होना जरूरी है। अपने आत्माको एकाकी समझना चाहिये | इसका संयोग हुलसे अनादिकालका होने पर भी यह बिलकुल उससे निराला है । यह शुद्ध चैतन्यमय मूर्ति है। न तो कमका न शरीरादिका न रागादि भावकर्मीका कोई सम्बन्ध इस आत्मासे है न अन्य आत्माओं का कोई सम्बंध है। हरएक आमाकी सत्ता निराली है, में एकाकी सदास हूं व रहूंगा । एकत्वकी भावना सदा भावे । पांचों इंद्रियोंके विषयोंका पूर्ण विजयी होना चाहिये ।
जहाँतक इंद्रियोंके विषयों की लालसा न टूटं बहां तक गृहस्थ में स्त्रीसहित रहकर ही यथाशक्ति आत्माका मनन करें | जब लालसा विपयोंकी न रहे, मनसे विपच, विकार निकलजावे व अतिंद्रिय