________________
योगसार टीका। [८१ स्वरूपका मनन शास्त्रकी पद्धतिसे किया जावे । फिर प्रयत्न करके मननको अन्द करके मौनसे ही तिष्ठकर उपयोगको स्वभावके नान श्रद्धानमें एकाग्र किया जावे । निज आत्माकी झांकी की जावे। अभ्यास करनेवालेको पहले वहुत अल्प समय तक थिरता होगी । अभ्यास करते करते थिरता बढ़ती जायगी। आत्मप्रभुका दर्शन अधिक समयतक होता रहेगा । जिस भावसे नवीन कर्मोका संवर हो व पुराने संचित कर्मोंकी निर्जरा हो यही भाव एक मोनमार्ग हो सक्ता है | आत्माके दर्शन व आत्मानुभवमें ही वीतरागभाजकी धारा बहती है । सम्यग्दर्शन झान चारित्रकी एकता रहती हैं। वहीं संबर व निर्जरातत्व झलकते हैं | गृहस्थ हो या त्यागी हो उसे यदि निर्वाणक पदकी भावना है तो आत्माके दर्शन पानेका अभ्यास करना चाहिये ।
जिसने आत्माका दर्शन पा लिया उसने ही समा, बीतराग भगवानका दर्शन पाया, उसने ही सची आराधना श्री अरहन्तदेव व सिद्ध परमात्माकी की । उसने ही श्रावक या साधुका वन पाला । वही सबा निर्वाणका पथिक है, यही आत्मदर्शन मोक्षमार्ग है । यह श्रद्धान जबतक नहीं है तबतक सम्यग्दर्शनका प्रकाश नहीं है, मिथ्यादर्शन है । आत्मदर्शन ही वास्तवमें सम्यग्दर्शन है।
समयसारमें कहा हैपण्णाय पित्तव्यो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेति यादब्या ।। ३२० ॥
भावार्थ-भेदविज्ञानसे जो कुछ ग्रहण करने योग्य है वह मैं ही चेतनेवाला हूं, यही निश्चयतत्व है । शेष जितने भाव है वे मेरे स्वभावसे भिन्न हैं ऐसा जानकर उनको त्याग देना चाहिये । आपसे आपमें ही रमण करना चाहिये। ..