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योगसार टीका ।
देवालय में साक्षात् देव नहीं है ।
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देहा- देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं पिएड़ | हासउ महु पडिहार इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ ॥ ४३ ॥
अन्वयार्थ - (जिशु देउ देहा देवाले) श्री जिनेन्द्रदेव देहरूपी देवालय में हैं ( जणु देवलिहिं पिएइ) अज्ञानी मानत्र मंदिरों में देखता फिरता है ( महु हासउ पsिहाइ ) मुझे हंसी आती है इहू सिद्धे भिक्ख भंगड़ जैसे इसलोकमें धनादिकी सिद्धि होने पर भी कोई भीख मांगता फिरे ।
भावार्थ - यहां इस बात पर लक्ष्य दिलाया है कि जो लोग केवल जिनमंदिरोंकी बाहरी भनिस ही संतुष्ट होते हैं व अपनेको धर्मात्मा समझते हैं, इस बातका बिलकुल विचार नहीं करते हैं कि यह मूर्ति क्या सिखाती है व हमारे दर्शन करनेका व पूजन करनेका क्या हेतु है. वे केवल कुछ शुभ भावसे पुण्य बांध देते हैं. परन्तु उनको निर्माणका मांग नहीं दीख सक्ता है। बाहरी चारित्र विना अंतरंग चारित्रके, वालू तेल निकालने के समान प्रयोग है। सम्यग्दर्शन विना सर्वे ही शास्त्रका ज्ञान व सर्व ही चारित्र मिथ्याज्ञान व मिया चारित्र है ।
अपने आत्मा के सच्चे स्वभावका विश्वास ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शनके प्रकाशसे अपने आत्माको कर्मकृत विकारवश रागी, द्वेषी, संसारी माननेका अज्ञान अधकार मिट जाता है तब ज्ञानी सम्यग्टीको अपने शरीरमें व्यापक आत्माका परमात्मारूप ही श्रद्वान जम जाता है । वह सदा अपने शरीर रूपी मंदिर में अपने आत्मारूपी देवका निवास मानता है तथा अपने आत्माके द्वारा धनको हो सथा धर्म मानता है । वह सम्पती कभी भ्रम में नहीं
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