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योगसार टीका ।
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स्थानोंको चले जाते हैं, वैसे ही एक परिवार में नाना जीब कोई - नरकसे, कोई पशुगतिसे, कोई देवगतिमें, कोई मनुष्यगति से आकर जमा हो जाते हैं ।
सब अपनी २ आयुपर्यंत रहते हैं। आयुके क्षय होते ही अपने बांधे हुए पाप पुण्यकर्मके अनुसार कोई देवगतिमें, कोई मनु'व्यगतिमें, कोई तिर्यगति, कोई नरकगति चले जाते हैं, किसीका कोई सम्बंध नहीं रहता है । सब प्राणी अपने मुख स्वार्थमें दूसबस मोह करते हैं। स्वार्थ न सधने पर नेह छोड़ देता है, पुत्र विरुद्ध हो जाते हैं, वृद्धावस्था में स्वार्थ सा न देखकर कुटुम्बीजन वृद्धको अवज्ञा करते हैं। कुटुम्बसे यदि इंद्रियोंके विषय सधते हैं नत्र तो सुखके कारण भासतें हैं । जब उनसे विषयभोग ज्ञानि पड़ती है तब ही के कारण हो जाते हैं ।
बारी सम्यग्दृष्टी जीवको जलमें कमलके समान गृहस्थको रहना चाहिये, मोहन करना चाहिये । उनको अपने जीवसे प्रथक मानकर उन जीवोंका उपकार भने सो करना चाहिये। उनकी रक्षा, शिक्षा व सुख से जीवननिर्वाह में साई होना चाहिये | उनको आत्मज्ञानके मार्ग पर लगाना चाहिये । यदि काम न करें. ब कम करे नो मनमें विषाद न करना चाहिये । बदले में सुख पानेके लोभसे उनका हित न करना चाहिये। उनके हितके पीछे अन्याय धन न कमाना चाहिये, न अपने आत्मकल्याणको मुल्लाना चाहिये। जो कुटुम्बरिवारका मोह छोड़ देते हैं वे सहज वैराग्यवान होजाते हैं।
अथवा आत्महित करते हुए जबतक गृहस्थ में रहते हैं उनकी सेवा facere भाव करते हैं । जब अप्रत्यास्थान कपायका उदय अतिशय मंद रह जाता है तत्र कुटुंबत्यागी श्रावक होजाते हैं, परसे मोह नहीं करते हैं, केवल एक निज आत्माकी ही गाढ़ भक्ति करने